सत्येंद्र रंजन
मायावती बनाम रीता बहुगुणा जोशी के विवाद महज नेताओं की खराब होती जुबान का मुद्दा बन कर रह गया, जबकि इससे कई बेहद अहम सामाजिक और राजनीतिक सवाल जुड़े थे। इस मामले में खासकर उत्तर प्रदेश में सियासी गर्द खूब उड़ी, लेकिन इससे देश की राजनीतिक संस्कृति की जो सूरत सामने आई, उस पर गंभीर एवं व्यापक बहस का अभाव ही दिखा। अब जबकि सियासी गर्द कुछ ढल हो चुकी है, यह बहस छेड़े जाने की जरूरत है, क्योंकि इसका संबंध अपने समाज में स्त्री की हालत एवं हैसियत से है। साथ ही इसका रिश्ता अपनी राजनीति के उभरे स्वरूप से है। इस प्रकरण ने एक बार फिर यह सवाल शिद्दत से उठाया है कि क्या भारत की मौजूदा संसदीय राजनीति प्रगति एवं सकारात्मक परिवर्तन की उत्प्रेरक पहलू रह गई है या यह अब सांस्कृतिक पिछड़ेपन और सामंती मूल्यों को मजबूत करने का एजेंट बन गई है।
रीता बहुगुणा जोशी ने जो कहा वह सिर्फ मायावती का अपमान नहीं था। बल्कि उनके उस बयान से एक गहरी बैठी सामाजिक मानसिकता जाहिर हुई। यह वो मानसिकता है, जिसमें स्त्री को एक स्वतंत्र व्यक्ति नहीं, बल्कि घर-परिवार की इज्जत का पैमाना माना जाता है और स्त्री की इज्जत यौन-शुचिता से जुड़ी मानी जाती है। सामंती समाजों में सदियों तक स्त्री के यौन व्यक्तित्व (सेक्सुएलिटी) पर जबरन सामाजिक नियंत्रण रखा गया है। बलात्कार ऐसे नियंत्रण की ही सबसे क्रूर कोशिश है। बलात्कारियों पर किए गए अनेक मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों का यह निष्कर्ष रहा है कि बलात्कार अक्सर यौन संतुष्टि के लिए नहीं किया जाता। बल्कि यह ताकत को जताने के लिए किया जाता है। यह जताने के लिए कि जिंदगी में स्त्री के पास चयन की स्वतंत्रता नहीं है।
इसके साथ ही बलात्कार के पीछे यह सोच भी रहती है कि इसके जरिए महिला की पूरी जिंदगी बर्बाद की जा सकती है। चूंकि इसके लिए यौन शुचिता भंग कर दी जाती है, तो इसका मतलब हुआ कि स्त्री की इज्जत हमेशा के लिए खत्म कर दी जाती है। यह एक ऐसा कलंक है, जिसके साथ किसी बलात्कार पीड़ित महिला को जीवन भर जीना पड़ता है। रीता बहुगुणा ने जब बेहद फूहड़ ढंग से बलात्कार के बदले मायावती को एक करोड़ रुपए मुआवजा देने की बात कही तो दरअसल उनकी जुबान से यही मानसिकता बोल रही थी। इससे उनकी यह सोच जाहिर हो रही थी कि बलात्कार पीड़ित महिलाओं को आर्थिक सहायता देना बेमतलब है, क्योंकि इससे उनकी लुट गई इज्जत वापस नहीं आ सकती।
आज इस सोच को चुनौती दिए जाने की जरूरत है। मोटे तौर पर आज भी जमीनी स्तर पर भारतीय समाज की सोच रीता बहुगुणा जैसी ही है। ऐसे में बलात्कार पीड़ित महिलाओं के लिए सदमे से निकल कर अपनी जिंदगी फिर से संभाल पाना बेहद मुश्किल बना रहता है। वे बिना किसी अपने दोष के ऐसे जघन्य अपराध का शिकार हो गई होती हैं, जिससे उनका पूरा परिवार कलंकित मान लिया जाता है। ऐसे में आर्थिक मदद निश्चित रूप से ऐसी सहायता है, जिससे उनके संभलने की लेकिन एक छोटी, लेकिन महत्त्वपूर्ण संभावना पैदा होती है। मायावती सरकार ने अगर बलात्कार पीड़ितों को ऐसी मदद दी है तो रीता बहुगुणा से यह अपेक्षित था कि वे इसकी तारीफ करतीं और इसके बाद कानून-व्यवस्था का सवाल उठाते हुए राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा करतीं। लेकिन ऐसा कोई नेता या व्यक्ति तभी कर सकता है, जब वह वैचारिक मंथन या सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता के किसी सचेत प्रयास से गुजरा हो।
रीता बहुगुणा बनाम मायावती के मामले से यही सामने आया कि अधिकांश भारतीय नेता और राजनीतिक पार्टियां आज ऐसी जागरूकता का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। कांग्रेस पार्टी कभी भारत में उदार मूल्यों की वाहक और आधुनिकता की शक्ति थी। लेकिन आज वह किस वैचारिक धारा की नुमाइंदगी करती है, इसे समझ पाना मुश्किल है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी से लेकर पार्टी के औपचारिक बयानों में महज यह कोशिश दिखी कि रीता बहुगुणा जोशी के बयान से खुद को अलग दिखाया जाए, लेकिन साथ ही उस बयान के बाद हुई हिंसा की आड़ लेकर मायावती पर उसी जोश से जवाबी हमला बोल दिया जाए। पार्टी से यह न्यूनतम अपेक्षा थी कि वह रीता बहुगुणा को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा कर इस सामंती सोच को सार्वजनिक रूप से अस्वीकार करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
एक पार्टी जिसकी अध्यक्ष एक महिला हो और जिसके भावी नेता का दावा देश के नौजवानों को नेतृत्त्व देने का हो, यह मामला उस पर एक गहरी नकारात्मक टिप्पणी है। अगर यह पार्टी महिलाओं को इंसान से कम स्तर देने वाली सोच, सांस्कृतिक पिछ़ड़ेपन और सामंती मूल्यों के खिलाफ खुलकर सामने नहीं आ सकती, तो आखिर वह किस मुंह से प्रगतिशीलता और आधुनिकता की शक्ति होने का दावा कर सकती है? भारतीय जनता पार्टी के नेता जब रूढिवादी विचारों की वकालत करते हैं, और महिला के चयन की आजादी एवं यौन-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता को नकारते हैं, तो यह बात आसानी से समझ में आती है, क्योंकि भाजपा ऐसी ही पुरातन सोच की प्रतिनिधि ताकत है। मगर कांग्रेस जब ऐसा करती दिखती है या ऐसे अहम सवालों पर टाल-मटोल वाला रुख अख्तियार करती दिखती है, तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि वह अपने इतिहास और पूर्वज नेताओं नेताओं की विरासत को नकार रही है।
अक्सर पर बलात्कार की घटनाएं सामने आने पर भाजपा नेताओं और समाज के प्रतिक्रियावादी हलकों से बलात्कारियों को मौत की सजा देने की मांग उठाई जाती है। कोशिश यह संदेश देने की होती है कि ये लोग बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को स्वीकार करने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं और इसके लिए कठोरतम सजा का प्रावधान चाहते हैं। लेकिन यह सोच यह नहीं समझ पाती कि ज्यादातर मामलों में बलात्कारियों को सजा प्रचलित सामाजिक मानसिकता की वजह से नहीं मिल पाती है। पहली बात तो यह कि बलात्कार होने पर पीड़ित महिला के घर-परिवार की तरफ से पहली कोशिश इस पर परदा डालने की होती है। इसलिए बहुत सी घटनाएं बिना पुलिस में दर्ज हुए ही रह जाती हैं। जो मामले दर्ज होते हैं, उनमें भी पी़ड़ित महिला सदमे से बाहर आकर पूरा वाक्या बयान नहीं कर पाती। इसमें ऐसी खामियां छूट जाती हैं, जिनका फायदा उठाकर अपराधी अदालती प्रक्रिया के दौरान बच निकलते हैं। पुलिस और वकीलों का नजरिया पीड़ित के मन पर प्रहार करने वाला ही होता है।
जब समस्या दोष साबित करने में हो तो फिर सजा का प्रावधान चाहे जो कर लिया जाए, उससे क्या फर्क पड़ जाएगा? इसलिए समस्या कानून की किताब में सजा का प्रावधान नहीं, बल्कि स्त्रियों के बारे में वह सामाजिक नजरिया है, जो आज तक पुलिस से लेकर अदालतों और परिवार से लेकर राजनीति तक पर हावी है। जरूरत इस नजरिए को चुनौती दिए जाने की है। जरूरत बलात्कार को लेकर बनी कलंक की धारणा को चुनौती देने की है। समाज के सामने इस बात को हिम्मत से कहने की आवश्यकता है कि बलात्कार से कोई महिला कलंकित नहीं हो जाती। जबरन यौन शुचिता भंग कर दिए जाने का मतलब यह नहीं है कि पी़ड़ित महिला समाज में दोबारा इज्जत के साथ खड़ी नहीं हो सकती या वह अपने जीवन को फिर से संभाल नहीं सकती। बलात्कार से अगर कोई कलंकित होता है, वह इस अपराध को अंजाम देने वाला पुरुष है, जो मानव सभ्यता के विकासक्रम के इस स्तर पर आकर भी महिला की चयन की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करता।
सवाल है कि अगर किसी के घर में डाका पड़ जाए या किसी के साथ धोखाधड़ी हो जाए तो क्या यह पीड़ित व्यक्ति के लिए शर्मिंदगी की बात है? ऐसे में बलात्कार को इसकी शिकार महिला पर दाग क्यों माना जाता है? और दूसरे अपराधों के शिकार लोगों के लिए जैसे सरकार से आर्थिक एवं अन्य प्रकार की मदद की अपेक्षा की जाती है, अगर वैसी ही मदद बलात्कार पीड़ित महिला को दी जा रही हो, तो इस पर एतराज क्यों जताया जाना चाहिए? महिला भी एक संपूर्ण इंसान है। उसका व्यक्तित्व भी उसकी सोच, उसके विचारों, उसकी चेतना के स्तर, और उसकी अंतरात्मा की उद्दात्तता से बनता है। अपनी मानसिक और शारीरिक क्षमताओं से वह समाज में अपने लिए जगह बनाती है (या बना सकती है)। वह अपने यौन-व्यक्तित्व को खुद नियंत्रित करने और आजादी से उसे जीने में सक्षम है। अगर हम इस समझ को मानते हों, तो यह बेहिचक कह सकते हैं कि महिला पर हुआ यौन हमला उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को खंडित नहीं कर सकता।
लेकिन अपने समाज पर सामंती अवशेषों का असर इतना गहरा है कि यह साधारण सी समझ एक बेगानी बात मालूम पड़ती है। न सिर्फ सांप्रदायिक राजनीतिक दल, बल्कि मध्यमार्गी पार्टियां भी अपने विचारों में रूढ़िवाद से इतनी ग्रस्त हैं कि वे मानव मुक्ति का आधुनिक एजेंडा समाज के सामने नहीं रख पातीं। या फिर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ बोलने से वे इतनी डरती हैं कि अपने तमाम बयानों को घिसे-पिटे सांस्कृतिक मूल्यों के दायरे में ही समेटे रहती हैं। मसलन, हम मायावती को ही ले सकते हैं। वे देश की सबसे बड़ी दलित नेता हैं और भले अब सर्वजन की बात कर रही हों, लेकिन अब भी मुख्य रूप से उनका आधार बहुजन समाज ही है। यह समाज आधुनिक राजनीति के उपकरणों के जरिए सदियों की दमन और शोषण से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहा है। इसके बावजूद यह देख कर हैरत होती है कि रीता बहुगुणा के बयान को स्त्री की आजादी का मुद्दा बनाने के बजाय उन्होंने इसे दलित बनाम सवर्ण मुद्दा बनाने की कोशिश की। इस मुद्दे की बारीकी में वे भी नहीं जाना चाहतीं, इस बात की मिसाल उनकी यह घोषणा है कि अगर बहुजन समाज पार्टी केंद्र की सत्ता में आई तो बलात्कार के लिए मौत की सजा का प्रावधान कर दिया जाएगा।
साफ है कि वामपंथी दलों को छोड़ कर आज भारत में कोई ऐसी राजनीतिक ताकत नहीं है जो सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों में रूढ़ियों और पुरातन मान्यताओं को खुली चुनौती देने की हिम्मत दिखा सके। ऐसी कोई ताकत नहीं है जो अपराध और उसकी मानसिकता की समाजशास्त्रीय समझ देश के सामने पेश करे और सजा के बारे में उदार एवं आधुनिक नजरिए की सार्वजनिक रूप से वकालत करे। क्या कांग्रेस समेत कोई मध्यमार्गी दल या क्षेत्रीय एवं शोषित जातियों की नुमाइंदगी का दावा करने वाली पार्टी यह सवाल उठा सकने की स्थिति में है कि आखिर देश में मौत की सजा का प्रावधान रहना ही क्यों चाहिए? इससे आज तक दुनिया में कहीं भी कोई अपराध नहीं रोका जा सका। यह दरअसल, बदले की भावना पर आधारित अमानवीय सजा है, जिससे अपराध की मानसिकता बदलने में कोई मदद नहीं मिलती।
बलात्कार दरअसल तब रुकेंगे, जब बलात्कार की मानसिकता को चुनौती दी जाएगी। भारतीय समाज में अभी वैवाहिक रिश्तों के भीतर मौजूद बलात्कार की प्रवृत्ति का सवाल नहीं उठाया गया है। चूंकि परंपरागत सोच में पत्नी पर पति का मालिकाना सहज रूप से मान लिया जाता है, इसलिए यह सवाल बहुत से लोगों को अटपटा लग सकता है। लेकिन स्त्री के यौन-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता का हनन चाहे विवाह के भीतर हो या बाहर, एक ही जैसी सोच काम कर रही होती है। इस सोच के खिलाफ अभियान चलाए जाने की जरूरत है।
Wednesday, August 19, 2009
क्रिकेट के कारोबारी, सावधान!
सत्येंद्र रंजन
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अधिकारियों को आठ साल पहले यह बात समझ में आई कि सफल क्रिकेटरों के लिए इस देश में बेहद दीवानगी है, इसलिए अगर अपना कारोबार ठीक से चलाना है, तो बेहतर है कि हर हाल में उनका समर्थन किया जाए। तब भारतीय क्रिकेट टीम दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर थी और मैच रेफरी माइक डेनिस ने सतही वजहों के आधार पर कई भारतीय क्रिकेटरों पर एक मैच की पाबंदी लगा दी थी। भारतीय क्रिकेट प्रेमियों में इसके खिलाफ जोरदार भावना भड़़की। बीसीसीआई ने कड़ा रुख अपनाया और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) को झुकना पड़ा। भारत ने अगले टेस्ट में सभी प्रतिबंधित खिलाड़ियों को अपनी टीम में शामिल किया और वो मैच खेला गया, हालांकि बीसीसीआई से हुए अंदरूनी समझौते के तहत उस मैच को आधिकारिक टेस्ट के रूप में मान्यता नहीं दी गई। दूसरी तरफ माइक डेनिस का नाम ऐसा कटा कि आईसीसी के अधिकारियों में उनका आज तक अता-पता नहीं है।
सन् २००३ के विश्व कप से पहले लोगो का विवाद उठा। आईसीसी ने करार किया था कि विश्व कप के आधिकारिक प्रयोजकों की प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के लोगो विश्व कप में भाग लेने वाले खिलाड़ी उस आयोजन के दौरान नहीं पहनेंगे। भारतीय क्रिकेट सितारों के आर्थिक हितों पर इससे चोट पहुंच रही थी और उन्होंने इस करार पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया। इस मुद्दे को खिलाड़ियों से भेदभाव और आईसीसी के लालच की मिसाल बताया गया। हालांकि ऐसे करार फुटबॉल वगैरह के विश्व कप में आम रहे हैं, लेकिन यहां बीसीसीआई फिर खिलाड़ियों के पक्ष में खड़ी हुई। इसके बावजूद कि आईसीसी ने जब करार किया था, तब बीसीसीआई की उस पर सहमति थी। तो बीसीसीआई का पलटा सिक्का एक बार फिर चला और आईसीसी के लालच पर भारतीय क्रिकेट सितारों के लालच की जीत हुई।
भज्जी-सायमंड्स विवाद में एक बार फिर बीसीसीआई का दबदबा देखने को मिला। क्रिकेट और राष्ट्रवाद के जुनून में नस्लभेद रोकने के नियमों और अनुशासन की बलि चढ़ गई। हरभजन सिंह हीरो बन कर उभरे और जब तक आईपीएल-एक के एक मैच के दौरान उन्होंने श्रीशांत को थप्पड़ नहीं मारा, उनका यह रुतबा बना रहा।
रुझान यह सामने आया कि जहां भी आर्थिक हितों पर चोट या अहंकार से जुड़ा कोई मुद्दा सामने आता है, भारत के सफल और संपन्न क्रिकेटर खुद को खेल और सर्वमान्य नियमों से ऊपर जताने लगते हैं। तब बीसीसीआई को इसमें ही अपना भला दिखता है कि उनकी हर तार्किक और अतार्किक मांग का समर्थन किया जाए। आखिर बीसीसीआई में अक्सर ऐसे लोग नहीं आते, जिनका खेल से लगाव हो, जो एक स्वस्थ विश्व खेल संस्कृति विकसित करने के प्रति निष्ठावान हों, और आधुनिक नजरिया रखते हों। वहां ज्यादातर हस्तियां धन और राजनीतिक ताकत के जरिए पहुंचती हैं। ऐसे में इस संस्था के व्यवहार में नव-धनिक सामंती अक्खड़पन जाहिर होना स्वाभाविक ही है। बीसीसीआई के महारथियों को यही लगता है कि खिलाड़ियों पर अनुशासन लागू करने से देश के क्रिकेट प्रेमी नाराज होंगे और ऐसे में खुद उनके खिलाफ माहौल बन सकता है।
संभवतः इसलिए वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) के नए नियमों से जुड़े विवाद पर भी बीसीसीआई ने खेल के बजाय खिलाड़ियों की जिद का साथ देना ही पसंद किया है। लेकिन इस बार शायद यह बाजी उलटी पड़े। इस सवाल पर क्रिकेट प्रेमियों में क्रिकेट सितारों के समर्थन के लिए वैसा उत्साह नहीं है, जैसा पहले के मौकों पर देखा गया था। उलटे भारत सरकार ने बीसीसीआई के नजरिए से अलग रुख लिया है, मेनस्ट्रीम मीडिया मोटे तौर पर वाडा के नियमों के पक्ष में है, और दूसरे खेलों के सितारों ने क्रिकेटरों और क्रिकेट बोर्ड को कठघरे में खड़ा कर दिया है।
अभिनव बिंद्रा की उपलब्धि किसी सचिन तेंदुलकर से कम नहीं है, ना ही साइना नेहवाल किसी महेंद्र सिंह धोनी से कम प्रतिभाशाली हैं, या सानिया मिर्जा किसी युवराज सिंह से कम ग्लैमरस हैं। लेकिन इन सबको वाडा के नियमों से कोई शिकायत नहीं है। इसलिए कि वे अपने को खेल से ऊपर नहीं मानते। वे दुनिया में तय मानदंडों के मुताबिक खेलते हैं और ओलिंपिक भावना के मुताबिक अपने हुनर और क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। बतौर टीम खेल फुटबॉल की लोकप्रियता का दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है। क्रिश्चियानो रोनाल्डो, काका और लियोनेल मेसी जैसे फुटबॉलरों की कीमत और ग्लैमर के आगे आखिर कौन क्रिकेटर टिक पाएगा? इसके बावजूद शुरुआती एतराज के बावजूद फीफा ने वाडा से करार कर लिया है और ये सभी फुटबॉलर अब वाडा के नियमों का पालन कर रहे हैं। मगर भारत के ११ क्रिकेटर जैसे दुनिया के हर नियम से ऊपर हैं!
कुछ अखबारों ने यह सवाल उठाया है कि क्या भारतीय क्रिकेटर इसलिए न खेलने के दिनों का अपना पता नहीं बताना चाहते, क्योंकि उनमें से कई पेज थ्री पार्टियों के नियमित भागीदार होते हैं, जहां आरोप है कि कोकीन और चरस जैसी नशीली दवाओं का सेवन आम बात है। अगर ऐसी बातों में दम नहीं हो, तब भी अगर सार्वजनिक चर्चा में ऐसी बात आ रही है, तो क्रिकेटरों को समझना चाहिए कि उनके ताजा आचरण से कैसा माहौल बन रहा है। क्या क्रिकेट और खुद अपनी छवि खराब करने के लिए भारत के क्रिकेट स्टार खुद जिम्मेदार नहीं है?
यह तय है कि अगर बीसीसीआई इस विवाद में अपने क्रिकेटरों की मांग को सरंक्षण देती रही तो आखिरकार आईसीसी को वाडा से हटना पड़ेगा और इसके साथ ही क्रिकेट के ओलिंपिक आंदोलन का हिस्सा बनने के सपने का भी अंत हो जाएगा। इसका परिणाम यह होगा कि अगले साल चीन में होने वाले एशियाई खेल से क्रिकेट बाहर हो जाएगा, जबकि बड़ी मुश्किल से इसे यहां जगह मिल सकी थी। लेकिन इससे शायद बीसीसीआई को कोई फर्क न पड़े, क्योंकि वैसे भी क्रिकेट उसके लिए खेल कम, कारोबार ज्यादा है। यह भी मुमकिन है कि भारत के स्टार क्रिकेटर इससे राहत ही महसूस करें, क्योंकि आखिर एशियाई खेलों या ओलिंपिक में खेलने पर मोटी रकम नहीं मिलती। वहां देश की नुमाइंदगी ही सबसे बड़ा इनाम और गौरव की बात होती है। जबकि ताजा मामले से यही जाहिर होता कि स्टार क्रिकेटरों और बीसीसीआई की सोच में अगर कोई बात सबसे आखिर में आती है, तो वह देश है। उनके व्यवहार ने खेल जगत में भारत की प्रतिष्ठा को गहरी चोट पहुंचाई है। यही वजह है कि देश का जनमत उनकी अनुचित मांग के साथ नहीं है। अगर इस संदेश को वे समझ लें तो इसी में क्रिकेट का और आखिर उनका भी भला है।
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अधिकारियों को आठ साल पहले यह बात समझ में आई कि सफल क्रिकेटरों के लिए इस देश में बेहद दीवानगी है, इसलिए अगर अपना कारोबार ठीक से चलाना है, तो बेहतर है कि हर हाल में उनका समर्थन किया जाए। तब भारतीय क्रिकेट टीम दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर थी और मैच रेफरी माइक डेनिस ने सतही वजहों के आधार पर कई भारतीय क्रिकेटरों पर एक मैच की पाबंदी लगा दी थी। भारतीय क्रिकेट प्रेमियों में इसके खिलाफ जोरदार भावना भड़़की। बीसीसीआई ने कड़ा रुख अपनाया और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) को झुकना पड़ा। भारत ने अगले टेस्ट में सभी प्रतिबंधित खिलाड़ियों को अपनी टीम में शामिल किया और वो मैच खेला गया, हालांकि बीसीसीआई से हुए अंदरूनी समझौते के तहत उस मैच को आधिकारिक टेस्ट के रूप में मान्यता नहीं दी गई। दूसरी तरफ माइक डेनिस का नाम ऐसा कटा कि आईसीसी के अधिकारियों में उनका आज तक अता-पता नहीं है।
सन् २००३ के विश्व कप से पहले लोगो का विवाद उठा। आईसीसी ने करार किया था कि विश्व कप के आधिकारिक प्रयोजकों की प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के लोगो विश्व कप में भाग लेने वाले खिलाड़ी उस आयोजन के दौरान नहीं पहनेंगे। भारतीय क्रिकेट सितारों के आर्थिक हितों पर इससे चोट पहुंच रही थी और उन्होंने इस करार पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया। इस मुद्दे को खिलाड़ियों से भेदभाव और आईसीसी के लालच की मिसाल बताया गया। हालांकि ऐसे करार फुटबॉल वगैरह के विश्व कप में आम रहे हैं, लेकिन यहां बीसीसीआई फिर खिलाड़ियों के पक्ष में खड़ी हुई। इसके बावजूद कि आईसीसी ने जब करार किया था, तब बीसीसीआई की उस पर सहमति थी। तो बीसीसीआई का पलटा सिक्का एक बार फिर चला और आईसीसी के लालच पर भारतीय क्रिकेट सितारों के लालच की जीत हुई।
भज्जी-सायमंड्स विवाद में एक बार फिर बीसीसीआई का दबदबा देखने को मिला। क्रिकेट और राष्ट्रवाद के जुनून में नस्लभेद रोकने के नियमों और अनुशासन की बलि चढ़ गई। हरभजन सिंह हीरो बन कर उभरे और जब तक आईपीएल-एक के एक मैच के दौरान उन्होंने श्रीशांत को थप्पड़ नहीं मारा, उनका यह रुतबा बना रहा।
रुझान यह सामने आया कि जहां भी आर्थिक हितों पर चोट या अहंकार से जुड़ा कोई मुद्दा सामने आता है, भारत के सफल और संपन्न क्रिकेटर खुद को खेल और सर्वमान्य नियमों से ऊपर जताने लगते हैं। तब बीसीसीआई को इसमें ही अपना भला दिखता है कि उनकी हर तार्किक और अतार्किक मांग का समर्थन किया जाए। आखिर बीसीसीआई में अक्सर ऐसे लोग नहीं आते, जिनका खेल से लगाव हो, जो एक स्वस्थ विश्व खेल संस्कृति विकसित करने के प्रति निष्ठावान हों, और आधुनिक नजरिया रखते हों। वहां ज्यादातर हस्तियां धन और राजनीतिक ताकत के जरिए पहुंचती हैं। ऐसे में इस संस्था के व्यवहार में नव-धनिक सामंती अक्खड़पन जाहिर होना स्वाभाविक ही है। बीसीसीआई के महारथियों को यही लगता है कि खिलाड़ियों पर अनुशासन लागू करने से देश के क्रिकेट प्रेमी नाराज होंगे और ऐसे में खुद उनके खिलाफ माहौल बन सकता है।
संभवतः इसलिए वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) के नए नियमों से जुड़े विवाद पर भी बीसीसीआई ने खेल के बजाय खिलाड़ियों की जिद का साथ देना ही पसंद किया है। लेकिन इस बार शायद यह बाजी उलटी पड़े। इस सवाल पर क्रिकेट प्रेमियों में क्रिकेट सितारों के समर्थन के लिए वैसा उत्साह नहीं है, जैसा पहले के मौकों पर देखा गया था। उलटे भारत सरकार ने बीसीसीआई के नजरिए से अलग रुख लिया है, मेनस्ट्रीम मीडिया मोटे तौर पर वाडा के नियमों के पक्ष में है, और दूसरे खेलों के सितारों ने क्रिकेटरों और क्रिकेट बोर्ड को कठघरे में खड़ा कर दिया है।
अभिनव बिंद्रा की उपलब्धि किसी सचिन तेंदुलकर से कम नहीं है, ना ही साइना नेहवाल किसी महेंद्र सिंह धोनी से कम प्रतिभाशाली हैं, या सानिया मिर्जा किसी युवराज सिंह से कम ग्लैमरस हैं। लेकिन इन सबको वाडा के नियमों से कोई शिकायत नहीं है। इसलिए कि वे अपने को खेल से ऊपर नहीं मानते। वे दुनिया में तय मानदंडों के मुताबिक खेलते हैं और ओलिंपिक भावना के मुताबिक अपने हुनर और क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। बतौर टीम खेल फुटबॉल की लोकप्रियता का दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है। क्रिश्चियानो रोनाल्डो, काका और लियोनेल मेसी जैसे फुटबॉलरों की कीमत और ग्लैमर के आगे आखिर कौन क्रिकेटर टिक पाएगा? इसके बावजूद शुरुआती एतराज के बावजूद फीफा ने वाडा से करार कर लिया है और ये सभी फुटबॉलर अब वाडा के नियमों का पालन कर रहे हैं। मगर भारत के ११ क्रिकेटर जैसे दुनिया के हर नियम से ऊपर हैं!
कुछ अखबारों ने यह सवाल उठाया है कि क्या भारतीय क्रिकेटर इसलिए न खेलने के दिनों का अपना पता नहीं बताना चाहते, क्योंकि उनमें से कई पेज थ्री पार्टियों के नियमित भागीदार होते हैं, जहां आरोप है कि कोकीन और चरस जैसी नशीली दवाओं का सेवन आम बात है। अगर ऐसी बातों में दम नहीं हो, तब भी अगर सार्वजनिक चर्चा में ऐसी बात आ रही है, तो क्रिकेटरों को समझना चाहिए कि उनके ताजा आचरण से कैसा माहौल बन रहा है। क्या क्रिकेट और खुद अपनी छवि खराब करने के लिए भारत के क्रिकेट स्टार खुद जिम्मेदार नहीं है?
यह तय है कि अगर बीसीसीआई इस विवाद में अपने क्रिकेटरों की मांग को सरंक्षण देती रही तो आखिरकार आईसीसी को वाडा से हटना पड़ेगा और इसके साथ ही क्रिकेट के ओलिंपिक आंदोलन का हिस्सा बनने के सपने का भी अंत हो जाएगा। इसका परिणाम यह होगा कि अगले साल चीन में होने वाले एशियाई खेल से क्रिकेट बाहर हो जाएगा, जबकि बड़ी मुश्किल से इसे यहां जगह मिल सकी थी। लेकिन इससे शायद बीसीसीआई को कोई फर्क न पड़े, क्योंकि वैसे भी क्रिकेट उसके लिए खेल कम, कारोबार ज्यादा है। यह भी मुमकिन है कि भारत के स्टार क्रिकेटर इससे राहत ही महसूस करें, क्योंकि आखिर एशियाई खेलों या ओलिंपिक में खेलने पर मोटी रकम नहीं मिलती। वहां देश की नुमाइंदगी ही सबसे बड़ा इनाम और गौरव की बात होती है। जबकि ताजा मामले से यही जाहिर होता कि स्टार क्रिकेटरों और बीसीसीआई की सोच में अगर कोई बात सबसे आखिर में आती है, तो वह देश है। उनके व्यवहार ने खेल जगत में भारत की प्रतिष्ठा को गहरी चोट पहुंचाई है। यही वजह है कि देश का जनमत उनकी अनुचित मांग के साथ नहीं है। अगर इस संदेश को वे समझ लें तो इसी में क्रिकेट का और आखिर उनका भी भला है।
कैसे होगा भाजपा का भला?
सत्येंद्र रंजन
भारतीय जनता पार्टी के सामने चिंतन के कई कठिन प्रश्न हैं। शिमला में १७ अगस्त से होने वाली चिंतन बैठक में पार्टी के बड़े नेता अगर एक दूसरे की जड़ें काटने में ही न लगे रहे, तो उन्हें इन प्रश्नों से उलझना होगा। उनके सामने सबसे बड़ा सवाल शायद यही है कि आखिर भाजपा अब क्यों उतने लोगों के मन पर राज नहीं कर पा रही है, जैसा वह १९९० के दशक में कर रही थी?
बात आगे बढ़ाने से पहले यह साफ कर लेना उचित होगा कि इस लेख का आशय यह कतई नहीं है कि भाजपा एक संभावनाविहीन पार्टी हो गई है। बल्कि स्थिति इसके विपरीत है। देश की इस वक्त जैसी राजनीतिक बनावट है, उसे देखते हुए यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले लंबे समय तक भाजपा एक मजबूत ताकत बनी रहेगी। जिस पार्टी को अभी हाल में ही राष्ट्रीय स्तर पर १८ फीसदी से ऊपर वोट मिले हों, जिसके पास लोकसभा में सौ से ऊपर सीटें हों और जो कई राज्यों में सत्ता में हो, उसकी संभावनाओं को ऐसे ही खारिज नहीं किया जा सकता। दरअसल, आज भी कई पहलू भाजपा के पक्ष में हैं। अनेक राज्यों (मसलन- गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, झारखंड, दिल्ली आदि) में भाजपा लगातार राजनीति की एक धुरी बनी हुई है। इसके अलावा कई दूसरे राज्यों (मसलन- महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब आदि) में अपने सहयोगी दलों के साथ वह राजनीति की एक धुरी है। इन राज्यों में वह सत्ताधारी या मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में है, यानी मतदाताओं के सामने वह एक सहज विकल्प है।
राजनीतिक दलों की प्रासंगिकता इस बात से तय होती है कि वे किन आर्थिक हितों, सामाजिक वर्गों और सांस्कृतिक मान्यताओं की नुमाइंदगी करते हैं। भाजपा ने पिछले दो दशक में इन तीनों ही कसौटियों पर अपने लिए एक निश्चित आधार तैयार किया है। वह धुर दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों की समर्थक, सामाजिक इंजीनियरिंग के साथ सवर्णवादी ढांचे की रक्षक, और रूढ़िवादी एवं धार्मिक बहुसंख्यक वर्चस्ववादी नीतियों की वकील के रूप में आज हमारे सामने है। ये तीनों पहलू कई स्तरों पर कई जन समुदायों को आकर्षित करते हैं। ये मोटे तौर पर वैसे जन समुदाय हैं, जिनकी व्यवस्था पर मजबूत पकड़ है। जाहिर है, ये एक मजबूत वोट आधार का निर्माण करते हैं। जब ऐसा समर्थक आधार किसी पार्टी के साथ हो, तो उसे अप्रासंगिक मानने का कोई वस्तुगत कारण नहीं है। इसलिए भाजपा के सामने अस्तित्व का संकट नहीं है। एक मजबूत और मुखर राजनीतिक पार्टी के रूप में उसकी हैसियत आने वाले कई वर्षों तक सुरक्षित है, यह बात निसंदेह कही जा सकती है।
असल में भाजपा मुश्किलें इससे अलग हैं। अगर इसे सहज भाषा और एक वाक्य में कहा जाए तो भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसने अपने कट्टर समर्थक आधार समूहों से बाहर के लोगों को आकर्षित करने की क्षमता खो दी है। इसकी एक बड़ी वजह पार्टी नेताओं की साख में आई कमी है। छह साल केंद्र की सत्ता में रहते हुए भाजपा नेताओं ने जैसा ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ दिखाया, उससे ‘सबसे अलग’ पार्टी होने का उनका दावा खोखला साबित हो गया। नतीजा यह है कि जिन मुद्दों पर भाजपा अब आक्रामक होती है, वे अब आम लोगों को अहम नहीं लगते। अगर मुद्दे उन्हें सही लगें, तब भी उन्हें यही लगता है कि भाजपा का यह महज एक राजनीतिक दांव है। भाजपा का उठान किसी वैकल्पिक आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम के आधार पर नहीं हुआ था। यह कुछ ऐसे मुद्दों पर था, जिनके जरिए तब उसने बाकी दलों को रक्षात्मक रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया था।
ऐसा होने की राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी सिद्धांत पर लगातार समझौता करने और भाजपा का राजनीतिक ग्राफ बढ़ने के बीच सीधे संबंध की तलाश की जा सकती है। अगर १९८०-९० के दशकों में कांग्रेस में लगातार बढ़ते दक्षिणपंथी रुझानों और गैर कांग्रेस- गैर भाजपा दलों में बिखराव एवं उनके सिकुड़ने को भी शामिल कर लिया जाए, तो उस दौर की परिघटनाओं को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। कांग्रेस १९८० के दशक में साफ तौर पर बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं उभार कर उसका राजनीतिक फायदा उठाने की रणनीति पर चल रही थी। पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद को पहले बढ़ावा देने और फिर उसे कुचलने, सिख विरोधी दंगे, बाबरी मस्जिद- राम जन्मभूमि मंदिर का ताला खुलवाने, विश्व हिंदू परिषद के ईंट पूजन अभियान को परोक्ष इजाजत देने, दूरदर्शन पर धार्मिक सीरियलों को बढ़ावा देने, आदि जैसी कुछ मिसालों का यहां इस सिलसिले में जिक्र किया जा सकता है। कांग्रेस तब शायद यह नहीं समझ पा रही थी वह अपनी स्वाभाविक राजनीति नहीं कर रही है। बल्कि वह इन मुद्दों को हवा देकर ऐसा वोट आधार तैयार कर रही है, जो आखिरकार इस राजनीति के स्वाभाविक वारिस के पास चला जाएगा। बहुसंख्यकवाद की इस राजनीति को संतुलित करने की कोशिश में जब राजीव गांधी सरकार ने शाह बानो मामले में मुस्लिम कट्टरपंथ के सामने समर्पण किया, तो इससे इस बात का रास्ता साफ हो गया।
भाजपा ने छद्म धर्मनिपरेक्षता को एक मुद्दे के रूप में उठाया, तो लोगों को इसमें दम नजर आया। जब धर्मनिरपेक्षता को एक राजनीतिक मूल्य के रूप में देश में स्थापित करने में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली कांग्रेस खुलेआम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के कार्ड खेलती दिख रही थी, तब लोग यह सुनने को सहज तैयार थे कि धर्मनिरपेक्षता कुछ और नहीं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति की एक चाल है। इस माहौल में भाजपा के लिए अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण और हिंदुओं से भेदभाव की बात को हिंदुओं के बड़े हिस्से, खासकर मध्य वर्ग के मन में बैठा देना आसान था। इमरजेंसी कांग्रेस की लोकतांत्रिक साख को पहले ही प्रभावित कर चुकी थी। राजीव गांधी और फिर पीवी नरसिंह राव के जमाने में ऊंचे स्तरों पर लगे भ्रष्टाचार के दाग ने कांग्रेस के विकल्प की तलाश के लिए लोगों की बेचैनी और बढ़ा दी थी।
जनता दल जैसी मध्यमार्गी पार्टियों में जब तक विकल्प की संभावना नजर आई, लोगों ने उन्हें आजमाया। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की नाकामी ने मध्यमार्गी दलों की छवि खराब कर दी। भाजपा से सहयोग के पिछले रिकॉर्ड से धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर उनकी साख पहले ही प्रभावित हो चुकी थी। ऐसे में भाजपा बड़ी आसानी से इन तमाम दलों को छद्म धर्मनिरपेक्ष जमात के रूप में पेश करने में सफल रही। मध्य वर्ग का समर्थन मिलने का लाभ यह हुआ कि मीडिया और दूसरे सार्वजनिक मंचों पर भाजपा और उसकी विचारधारा को स्वीकृति मिलती गई। साथ ही इससे भाजपा को स्वाभाविक विकल्प और सबसे अलग पार्टी के रूप में पेश करने के लिए चतुराई से तैयार किए गए प्रचार अभियान को भी ताकत मिली। इस अभियान में भाजपा की शायद सबसे बड़ी थाती थे, उसके दो नेता- अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी। दो ऐसे नेता, जिसे तब की तमाम पीढ़ियां दशकों से जानती थीं और इमरजेंसी के बाद हुए जनता पार्टी जैसे प्रयोग ने जिन्हें राष्ट्रीय छवि प्रदान कर दी थी।
इसी पृष्ठभूमि ने १९९० के दशक के उत्तरार्द्ध में भाजपा को देश की प्रमुख राजनीतिक धुरी बना दिया। गैर-कांग्रेसवाद उस वक्त तक एक मजबूत रुझान था, जिसकी वजह से भाजपा को एक विशाल गठबंधन बनाने में मदद मिली। इस परिघटना से भाजपा को सत्ता मिली। लेकिन उसके छह साल के शासनकाल के अनुभव ने देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण की दूसरी परिघटनाएं शुरू कर दीं। प्रशासन में चौतरफा नाकामी, आम आदमी विरोधी आर्थिक नीतियों, भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे क्षेत्र में देश को निर्णायक नेतृत्व दे पाने में विफलता, आदि ने भाजपा के दावों की हकीकत से देश को वाकिफ करा दिया। उग्र हिंदुत्ववादी राजनीति से इन तमाम विफलताओं को नहीं ढका जा सकता था। इस दौर ने १९६० के दशक से भारतीय राजनीति में चले आ रहे गैर-कांग्रेसवाद को अप्रासंगिक कर दिया। नतीजतन समाज के वंचित तबकों, अल्पसंख्यकों और प्रगतिशील समूहों में एक अदृश्य गठबंधन बना और २००४ के आम चुनाव में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई।
उसके बाद से कांग्रेस ने अपना पुनरुद्धार किया है। पार्टी ने आम आदमी से अपने तार जोड़ने की फिर कोशिश की है। वह अगर धर्मनिरपेक्षता के पक्ष बेलाग ढंग से खड़ी नहीं हुई है, तो कम से कम उसने पहले जैसे समझौते भी नहीं किए हैं। दरअसल, कांग्रेस अपनी सोशल डेमोक्रिटिक (सामाजिक जनतांत्रिक) पहचान को वापस पाने की गंभीर कोशिश करती दिखी है। साथ ही सर्वोच्च नेतृत्व के स्तर पर अपनी अपेक्षाकृत बेहतर साख एवं बेहतरीन तालमेल से सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की जोड़ी लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रही है। इससे कांग्रेस भले पहले जैसी सर्वव्यापी पार्टी के रूप में न उभरी हो, लेकिन वह राजनीति की ऐसी मजबूत धुरी जरूर बन गई है, जो एक स्थिर सरकार का नेतृत्व कर सके।
दूसरी तरफ भाजपा केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद से लगातार भ्रमों और आपसी झगड़े का शिकार दिखी है। हिंदुत्व की राजनीति उसके लिए फायदेमंद है या नहीं, २००९ के आम चुनाव के बाद से उसके भीतर यह बुनियादी सवाल खड़ा हो गया है। यह सवाल भी एक गहरे आत्मनिरीक्षण के बजाय नेताओं द्वारा एक दूसरे पर हमला बोलने के मकसद से ज्यादा उठाया गया है। बहरहाल, यह तो तय है कि भाजपा हिंदुत्व की राजनीति से नहीं हट सकती। अगर वह ऐसा करती है, तो उसके सामने सचमुच अस्तिव का संकट खड़ा हो सकता है। यही पार्टी के सामने सबसे बड़ी दुविधा है। जो राजनीति अभी वह कर रही है, वह एक सीमित दायरे के बाहर के लोगों को खींच नहीं पा रही है। अगर यह राजनीति वह छोड़ती है, तो जो लोग साथ हैं, उनके भी साथ छोड़ जाने की आशंका है।
सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की जोड़ी मध्य वर्ग की कल्पनाओं को बेहतर ढंग से अपनी तरफ खींच रही है। इससे भाजपा का वह आधार खिसक रहा है, जो कांग्रेस में नेतृत्व के संकट से उसकी तरफ आया था। असल में अब नेतृत्व का संकट भाजपा के सामने है। अटल-आडवाणी की जोड़ी के बाद अखिल भारतीय छवि का कोई नेता पार्टी के पास नहीं है। ऐसा नेता, जिसे पीढ़ियां जानती रही हों और मतभेदों के बावजूद बतौर नेता जिसकी सहज स्वीकृति बन जाए। पार्टी के पास फिलहाल ऐसा युवा नेता भी नजर नहीं आता, जो अपने और पार्टी के प्रति देश के एक बड़े तबके में नया जोश पैदा कर पाए। बराक ओबामा जैसे नेता की बात छोड़िए, पार्टी के पास क्या आज कोई ऐसी सोनिया गांधी जैसी नेता भी है, जिसकी छवि के साथ त्याग, व्यापक हित और सार्वजनिक मर्यादा जैसी बातें जुड़ी हुई हों?
आतंकवाद जैसे मुद्दे पर भी अगर लोग भाजपा से ज्यादा कांग्रेस पर भरोसा कर रहे हों, तो भाजपा के सामने कितने मुश्किल सवाल हैं, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जिन राजनीतिक परिस्थितियों में भाजपा का उभार हुआ, उनके फिर से पैदा होने की फिलहाल कम ही संभावनाएं नजर आती हैं। साफ है कि कांग्रेस ने अपनी पिछली गलतियों से सबक लिया है। देश के मतदाताओं ने भाजपा के छह साल के शासन से सबक लिया है। वे अब कांग्रेस को सजा देने के उतावलेपन में भाजपा को गले लगाने की गलती फिर से शायद ही करें। इन परिघटनाओं से देश का राजनीतिक विमर्श बदल गया है। आज लोग अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसी बातों से उद्वेलित नहीं हो रहे हैं। बल्कि अब आम जन की रोजमर्रा की समस्याएं और विकास एवं प्रगति से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय एजेंडे पर ऊपर हो गए हैं।
ऐसे में अर्थशास्त्र में जिसे डिमिनिशिंग रिटर्न (यानी घटते मुनाफे) का सिद्धांत कहा जाता है, वह भाजपा के प्रिय मुद्दों पर लागू होते साफ तौर पर दिखा है। यानी जैसे काठ की हाड़ी बार-बार नहीं चढ़ती, वैसा ही भाजपा के उठाए मुद्दों के साथ अब हो रहा है। तो अब सवाल है कि भाजपा कहां से और कौन से नए मुद्दे लाए? अगर भाजपा के पास सबको लुभाने वाला कोई राजनीतिक प्लैटफॉर्म है और उसके पास आम जन के मन में भरोसा पैदा करने वाले नेता नहीं हैं, तो पार्टी देश की प्रमुख राजनीतिक धुरी फिर से बनने की बात आखिर कैसे सोच सकती है? अगर पार्टी नेता इन सवालों का जवाब ढूंढ कर नहीं ला सके, तो चिंतन बैठक एक विफल प्रयास ही माना जाएगा।
भारतीय जनता पार्टी के सामने चिंतन के कई कठिन प्रश्न हैं। शिमला में १७ अगस्त से होने वाली चिंतन बैठक में पार्टी के बड़े नेता अगर एक दूसरे की जड़ें काटने में ही न लगे रहे, तो उन्हें इन प्रश्नों से उलझना होगा। उनके सामने सबसे बड़ा सवाल शायद यही है कि आखिर भाजपा अब क्यों उतने लोगों के मन पर राज नहीं कर पा रही है, जैसा वह १९९० के दशक में कर रही थी?
बात आगे बढ़ाने से पहले यह साफ कर लेना उचित होगा कि इस लेख का आशय यह कतई नहीं है कि भाजपा एक संभावनाविहीन पार्टी हो गई है। बल्कि स्थिति इसके विपरीत है। देश की इस वक्त जैसी राजनीतिक बनावट है, उसे देखते हुए यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले लंबे समय तक भाजपा एक मजबूत ताकत बनी रहेगी। जिस पार्टी को अभी हाल में ही राष्ट्रीय स्तर पर १८ फीसदी से ऊपर वोट मिले हों, जिसके पास लोकसभा में सौ से ऊपर सीटें हों और जो कई राज्यों में सत्ता में हो, उसकी संभावनाओं को ऐसे ही खारिज नहीं किया जा सकता। दरअसल, आज भी कई पहलू भाजपा के पक्ष में हैं। अनेक राज्यों (मसलन- गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, झारखंड, दिल्ली आदि) में भाजपा लगातार राजनीति की एक धुरी बनी हुई है। इसके अलावा कई दूसरे राज्यों (मसलन- महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब आदि) में अपने सहयोगी दलों के साथ वह राजनीति की एक धुरी है। इन राज्यों में वह सत्ताधारी या मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में है, यानी मतदाताओं के सामने वह एक सहज विकल्प है।
राजनीतिक दलों की प्रासंगिकता इस बात से तय होती है कि वे किन आर्थिक हितों, सामाजिक वर्गों और सांस्कृतिक मान्यताओं की नुमाइंदगी करते हैं। भाजपा ने पिछले दो दशक में इन तीनों ही कसौटियों पर अपने लिए एक निश्चित आधार तैयार किया है। वह धुर दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों की समर्थक, सामाजिक इंजीनियरिंग के साथ सवर्णवादी ढांचे की रक्षक, और रूढ़िवादी एवं धार्मिक बहुसंख्यक वर्चस्ववादी नीतियों की वकील के रूप में आज हमारे सामने है। ये तीनों पहलू कई स्तरों पर कई जन समुदायों को आकर्षित करते हैं। ये मोटे तौर पर वैसे जन समुदाय हैं, जिनकी व्यवस्था पर मजबूत पकड़ है। जाहिर है, ये एक मजबूत वोट आधार का निर्माण करते हैं। जब ऐसा समर्थक आधार किसी पार्टी के साथ हो, तो उसे अप्रासंगिक मानने का कोई वस्तुगत कारण नहीं है। इसलिए भाजपा के सामने अस्तित्व का संकट नहीं है। एक मजबूत और मुखर राजनीतिक पार्टी के रूप में उसकी हैसियत आने वाले कई वर्षों तक सुरक्षित है, यह बात निसंदेह कही जा सकती है।
असल में भाजपा मुश्किलें इससे अलग हैं। अगर इसे सहज भाषा और एक वाक्य में कहा जाए तो भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसने अपने कट्टर समर्थक आधार समूहों से बाहर के लोगों को आकर्षित करने की क्षमता खो दी है। इसकी एक बड़ी वजह पार्टी नेताओं की साख में आई कमी है। छह साल केंद्र की सत्ता में रहते हुए भाजपा नेताओं ने जैसा ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ दिखाया, उससे ‘सबसे अलग’ पार्टी होने का उनका दावा खोखला साबित हो गया। नतीजा यह है कि जिन मुद्दों पर भाजपा अब आक्रामक होती है, वे अब आम लोगों को अहम नहीं लगते। अगर मुद्दे उन्हें सही लगें, तब भी उन्हें यही लगता है कि भाजपा का यह महज एक राजनीतिक दांव है। भाजपा का उठान किसी वैकल्पिक आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम के आधार पर नहीं हुआ था। यह कुछ ऐसे मुद्दों पर था, जिनके जरिए तब उसने बाकी दलों को रक्षात्मक रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया था।
ऐसा होने की राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी सिद्धांत पर लगातार समझौता करने और भाजपा का राजनीतिक ग्राफ बढ़ने के बीच सीधे संबंध की तलाश की जा सकती है। अगर १९८०-९० के दशकों में कांग्रेस में लगातार बढ़ते दक्षिणपंथी रुझानों और गैर कांग्रेस- गैर भाजपा दलों में बिखराव एवं उनके सिकुड़ने को भी शामिल कर लिया जाए, तो उस दौर की परिघटनाओं को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। कांग्रेस १९८० के दशक में साफ तौर पर बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं उभार कर उसका राजनीतिक फायदा उठाने की रणनीति पर चल रही थी। पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद को पहले बढ़ावा देने और फिर उसे कुचलने, सिख विरोधी दंगे, बाबरी मस्जिद- राम जन्मभूमि मंदिर का ताला खुलवाने, विश्व हिंदू परिषद के ईंट पूजन अभियान को परोक्ष इजाजत देने, दूरदर्शन पर धार्मिक सीरियलों को बढ़ावा देने, आदि जैसी कुछ मिसालों का यहां इस सिलसिले में जिक्र किया जा सकता है। कांग्रेस तब शायद यह नहीं समझ पा रही थी वह अपनी स्वाभाविक राजनीति नहीं कर रही है। बल्कि वह इन मुद्दों को हवा देकर ऐसा वोट आधार तैयार कर रही है, जो आखिरकार इस राजनीति के स्वाभाविक वारिस के पास चला जाएगा। बहुसंख्यकवाद की इस राजनीति को संतुलित करने की कोशिश में जब राजीव गांधी सरकार ने शाह बानो मामले में मुस्लिम कट्टरपंथ के सामने समर्पण किया, तो इससे इस बात का रास्ता साफ हो गया।
भाजपा ने छद्म धर्मनिपरेक्षता को एक मुद्दे के रूप में उठाया, तो लोगों को इसमें दम नजर आया। जब धर्मनिरपेक्षता को एक राजनीतिक मूल्य के रूप में देश में स्थापित करने में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली कांग्रेस खुलेआम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के कार्ड खेलती दिख रही थी, तब लोग यह सुनने को सहज तैयार थे कि धर्मनिरपेक्षता कुछ और नहीं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति की एक चाल है। इस माहौल में भाजपा के लिए अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण और हिंदुओं से भेदभाव की बात को हिंदुओं के बड़े हिस्से, खासकर मध्य वर्ग के मन में बैठा देना आसान था। इमरजेंसी कांग्रेस की लोकतांत्रिक साख को पहले ही प्रभावित कर चुकी थी। राजीव गांधी और फिर पीवी नरसिंह राव के जमाने में ऊंचे स्तरों पर लगे भ्रष्टाचार के दाग ने कांग्रेस के विकल्प की तलाश के लिए लोगों की बेचैनी और बढ़ा दी थी।
जनता दल जैसी मध्यमार्गी पार्टियों में जब तक विकल्प की संभावना नजर आई, लोगों ने उन्हें आजमाया। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की नाकामी ने मध्यमार्गी दलों की छवि खराब कर दी। भाजपा से सहयोग के पिछले रिकॉर्ड से धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर उनकी साख पहले ही प्रभावित हो चुकी थी। ऐसे में भाजपा बड़ी आसानी से इन तमाम दलों को छद्म धर्मनिरपेक्ष जमात के रूप में पेश करने में सफल रही। मध्य वर्ग का समर्थन मिलने का लाभ यह हुआ कि मीडिया और दूसरे सार्वजनिक मंचों पर भाजपा और उसकी विचारधारा को स्वीकृति मिलती गई। साथ ही इससे भाजपा को स्वाभाविक विकल्प और सबसे अलग पार्टी के रूप में पेश करने के लिए चतुराई से तैयार किए गए प्रचार अभियान को भी ताकत मिली। इस अभियान में भाजपा की शायद सबसे बड़ी थाती थे, उसके दो नेता- अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी। दो ऐसे नेता, जिसे तब की तमाम पीढ़ियां दशकों से जानती थीं और इमरजेंसी के बाद हुए जनता पार्टी जैसे प्रयोग ने जिन्हें राष्ट्रीय छवि प्रदान कर दी थी।
इसी पृष्ठभूमि ने १९९० के दशक के उत्तरार्द्ध में भाजपा को देश की प्रमुख राजनीतिक धुरी बना दिया। गैर-कांग्रेसवाद उस वक्त तक एक मजबूत रुझान था, जिसकी वजह से भाजपा को एक विशाल गठबंधन बनाने में मदद मिली। इस परिघटना से भाजपा को सत्ता मिली। लेकिन उसके छह साल के शासनकाल के अनुभव ने देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण की दूसरी परिघटनाएं शुरू कर दीं। प्रशासन में चौतरफा नाकामी, आम आदमी विरोधी आर्थिक नीतियों, भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे क्षेत्र में देश को निर्णायक नेतृत्व दे पाने में विफलता, आदि ने भाजपा के दावों की हकीकत से देश को वाकिफ करा दिया। उग्र हिंदुत्ववादी राजनीति से इन तमाम विफलताओं को नहीं ढका जा सकता था। इस दौर ने १९६० के दशक से भारतीय राजनीति में चले आ रहे गैर-कांग्रेसवाद को अप्रासंगिक कर दिया। नतीजतन समाज के वंचित तबकों, अल्पसंख्यकों और प्रगतिशील समूहों में एक अदृश्य गठबंधन बना और २००४ के आम चुनाव में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई।
उसके बाद से कांग्रेस ने अपना पुनरुद्धार किया है। पार्टी ने आम आदमी से अपने तार जोड़ने की फिर कोशिश की है। वह अगर धर्मनिरपेक्षता के पक्ष बेलाग ढंग से खड़ी नहीं हुई है, तो कम से कम उसने पहले जैसे समझौते भी नहीं किए हैं। दरअसल, कांग्रेस अपनी सोशल डेमोक्रिटिक (सामाजिक जनतांत्रिक) पहचान को वापस पाने की गंभीर कोशिश करती दिखी है। साथ ही सर्वोच्च नेतृत्व के स्तर पर अपनी अपेक्षाकृत बेहतर साख एवं बेहतरीन तालमेल से सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की जोड़ी लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रही है। इससे कांग्रेस भले पहले जैसी सर्वव्यापी पार्टी के रूप में न उभरी हो, लेकिन वह राजनीति की ऐसी मजबूत धुरी जरूर बन गई है, जो एक स्थिर सरकार का नेतृत्व कर सके।
दूसरी तरफ भाजपा केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद से लगातार भ्रमों और आपसी झगड़े का शिकार दिखी है। हिंदुत्व की राजनीति उसके लिए फायदेमंद है या नहीं, २००९ के आम चुनाव के बाद से उसके भीतर यह बुनियादी सवाल खड़ा हो गया है। यह सवाल भी एक गहरे आत्मनिरीक्षण के बजाय नेताओं द्वारा एक दूसरे पर हमला बोलने के मकसद से ज्यादा उठाया गया है। बहरहाल, यह तो तय है कि भाजपा हिंदुत्व की राजनीति से नहीं हट सकती। अगर वह ऐसा करती है, तो उसके सामने सचमुच अस्तिव का संकट खड़ा हो सकता है। यही पार्टी के सामने सबसे बड़ी दुविधा है। जो राजनीति अभी वह कर रही है, वह एक सीमित दायरे के बाहर के लोगों को खींच नहीं पा रही है। अगर यह राजनीति वह छोड़ती है, तो जो लोग साथ हैं, उनके भी साथ छोड़ जाने की आशंका है।
सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की जोड़ी मध्य वर्ग की कल्पनाओं को बेहतर ढंग से अपनी तरफ खींच रही है। इससे भाजपा का वह आधार खिसक रहा है, जो कांग्रेस में नेतृत्व के संकट से उसकी तरफ आया था। असल में अब नेतृत्व का संकट भाजपा के सामने है। अटल-आडवाणी की जोड़ी के बाद अखिल भारतीय छवि का कोई नेता पार्टी के पास नहीं है। ऐसा नेता, जिसे पीढ़ियां जानती रही हों और मतभेदों के बावजूद बतौर नेता जिसकी सहज स्वीकृति बन जाए। पार्टी के पास फिलहाल ऐसा युवा नेता भी नजर नहीं आता, जो अपने और पार्टी के प्रति देश के एक बड़े तबके में नया जोश पैदा कर पाए। बराक ओबामा जैसे नेता की बात छोड़िए, पार्टी के पास क्या आज कोई ऐसी सोनिया गांधी जैसी नेता भी है, जिसकी छवि के साथ त्याग, व्यापक हित और सार्वजनिक मर्यादा जैसी बातें जुड़ी हुई हों?
आतंकवाद जैसे मुद्दे पर भी अगर लोग भाजपा से ज्यादा कांग्रेस पर भरोसा कर रहे हों, तो भाजपा के सामने कितने मुश्किल सवाल हैं, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जिन राजनीतिक परिस्थितियों में भाजपा का उभार हुआ, उनके फिर से पैदा होने की फिलहाल कम ही संभावनाएं नजर आती हैं। साफ है कि कांग्रेस ने अपनी पिछली गलतियों से सबक लिया है। देश के मतदाताओं ने भाजपा के छह साल के शासन से सबक लिया है। वे अब कांग्रेस को सजा देने के उतावलेपन में भाजपा को गले लगाने की गलती फिर से शायद ही करें। इन परिघटनाओं से देश का राजनीतिक विमर्श बदल गया है। आज लोग अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसी बातों से उद्वेलित नहीं हो रहे हैं। बल्कि अब आम जन की रोजमर्रा की समस्याएं और विकास एवं प्रगति से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय एजेंडे पर ऊपर हो गए हैं।
ऐसे में अर्थशास्त्र में जिसे डिमिनिशिंग रिटर्न (यानी घटते मुनाफे) का सिद्धांत कहा जाता है, वह भाजपा के प्रिय मुद्दों पर लागू होते साफ तौर पर दिखा है। यानी जैसे काठ की हाड़ी बार-बार नहीं चढ़ती, वैसा ही भाजपा के उठाए मुद्दों के साथ अब हो रहा है। तो अब सवाल है कि भाजपा कहां से और कौन से नए मुद्दे लाए? अगर भाजपा के पास सबको लुभाने वाला कोई राजनीतिक प्लैटफॉर्म है और उसके पास आम जन के मन में भरोसा पैदा करने वाले नेता नहीं हैं, तो पार्टी देश की प्रमुख राजनीतिक धुरी फिर से बनने की बात आखिर कैसे सोच सकती है? अगर पार्टी नेता इन सवालों का जवाब ढूंढ कर नहीं ला सके, तो चिंतन बैठक एक विफल प्रयास ही माना जाएगा।
क्या यह नई कांग्रेस है?
सत्येंद्र रंजन
नई कांग्रेस शब्द नया नहीं है। १९६९ में कांग्रेस के विभाजन के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को इसी नाम से जाना गया था। तब ‘नई’ शब्द के साथ कांग्रेस ने नई उम्मीदंा जगाई थीं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स के खात्मे और गरीबी हटाओ के नारे के साथ इंदिरा गांधी ने देश के सामने वामपंथ की तरफ झुकाव वाला राजनीतिक एजेंडा पेश किया। देश ‘इंदिरा गांधी आई हैं, नई रोशनी लाई हैं’- के नारे से गूंज उठा। इंदिरा गांधी को लोगों का इतना जोरदार समर्थन मिला कि उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस ही ‘असली’ हो गई, जबकि दिग्गज नेताओं से भरी संगठन कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया।
इंदिरा गांधी यह संदेश देने में कामयाब रहीं कि आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू जिस लोकतांत्रिक समाजवाद के रास्ते पर देश को लेकर चले, उनके न रहने के बाद दक्षिणपंथी रुझान वाले नेताओं ने पार्टी को उस राह से भटका दिया है। जानकारों में इस बात पर मतभेद है कि क्या इंदिरा गांधी की सचमुच वामपंथी एजेंडे में कोई निष्ठा थी? बाद के घटनाक्रम ने यही जाहिर किया यह निष्ठा से ज्यादा एक सियासी कार्ड था, जो कामयाब रहा। लेकिन यह सियासी कार्ड एक ठोस तैयारी के साथ खेला गया। यह तो ऐतिहासिक तथ्य है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और इंदिरा गांधी ने ही प्रीवी पर्स को खत्म किया। इसलिए अगर इंदिरा गांधी की वामपंथी छवि पर देश के एक बड़े हिस्से ने भरोसा किया, तो यह महज एक छलावा नहीं था।
आखिर इंदिरा गांधी के साथ इसकी एक विरासत थी। यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि कांग्रेस में दक्षिणपंथी और यथास्थितिवादी ताकतों के जमावड़े के बावजूद जवाहर लाल नेहरू राष्ट्र निर्माण के समाजवादी रास्ते पर पार्टी और पूरे देश को ले चलने में कामयाब रहे थे। नेहरू ने प्रगतिशील और आधुनिक भारत की नींव डाली और इसके लिए उस समय की परिस्थितियों में जो उपलब्ध एवं मान्य साधन थे, उनके जरिए यह कार्य शुरू किया। लोकतंत्र के साथ एक न्यायपूर्ण आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था के विचार को देश में लोकप्रिय बनाने में उन्होंने अति विशिष्ट भूमिका निभाई। धर्मनिरपेक्षता इस सारी परियोजना का एक बुनियादी सिद्धांत था।
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के कथित सिंडिकेट के साथ संघर्ष में इसी विरासत को अपना हथियार बनाया था। चूंकि बीते दशकों में यह विचारधारा सिर्फ नेहरू की नहीं, बल्कि कांग्रेस की विरासत बन चुकी थी, और इसके लिए व्यापक जन स्वीकृति पहले से मौजूद थी, इसलिए इंदिरा गांधी का मजबूत नेता बनकर उभरना कोई संयोग नहीं था। लेकिन क्या अपनी मजबूती का इस्तेमाल उन्होंने इस विरासत को आगे बढ़ाने में किया, यह एक विवादास्पद सवाल है। इतिहास संभवतः उन्हें एक वामपंथी विरासत की नेता के बजाय सत्ता के समीकरणों की माहिर खिलाड़ी के रूप में ज्यादा रखेगा।
१९७५ में इमरजेंसी सत्ता समीकरण की तात्कालिक राजनीतिक मजबूरियों की वजह से ही लागू की गई थी। लेकिन इसे वैधता दिलाने के लिए इंदिरा गांधी २० सूत्री कार्यक्रम के नाम पर एक बार फिर वामपंथी एजेंडे को सामने ले आईं। कहने का मतलब यह कि १९७० के दशक तक कांग्रेस की राजनीति में आम जन की चिंताएं सार्वजनिक रूप से लगातार मुद्दा बनी रहीं, भले व्यवहार में इनके प्रति पार्टी की निष्ठा पर संदेह रहा हो।
लेकिन इसके बाद के दो दशकों में कार्यक्रम और नीतियों के स्तर पर पार्टी अपनी वैचारिक विरासत से भटकने लगी। १९८० के दशक में पहले इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की सरकारों ने हालांकि इसे खुल कर नहीं कहा, लेकिन उनके कदमों से समाजवाद शब्द के प्रति उनकी बेरुखी या उनकी एलर्जी जाहिर होने लगी। धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी सिद्धांत के प्रति उनकी वचनबद्धता भी अक्सर डोलती नजर आई। १९९० के दशक की शुरुआत में पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने इस रुझान को उसकी मंजिल तक पहुंचा दिया। तब तक सोवियत खेमा बिखर चुका था और नव-उदारवाद के पैरोकार ‘इतिहास के खत्म हो जाने’ यानी पूंजीवाद की निर्णायक जीत की घोषणा कर चुके थे। कांग्रेस के नए नेतृत्व ने नेहरूवाद को दफना कर मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को एक विचारधारा के रूप में स्वीकार कर लिया है, यह तब के पार्टी के बयानों और कार्यक्रमों दोनों में साफ झलकता रहा।
इसका परिणाम क्या हुआ? कांग्रेस ने उस वैचारिक आधार को छोड़ दिया, जिसकी वजह से जनता का बहुमत उसके साथ दशकों तक बना रहा था। तो जनता के भी एक बड़े हिस्से ने उसे छोड़ दिया। कांग्रेस जिस दक्षिणपंथ की राह पर चली, देश के राजनीतिक फलक पर उसके उससे बेहतर पैरोकार पहले से मौजूद थे। स्वतंत्र पार्टी ने १९६० दशक में यही विकल्प पेश करते हुए अपनी एक मजबूत उपस्थिति संसद में बनाई थी। भारतीय जनसंघ ने हिंदुत्व के सांप्रदायिक विचार के साथ दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों के आधार पर ही अपनी राजनीतिक विकसित की थी। जनता पार्टी जैसे भ्रामक प्रयोग से गुजरने और कुछ समय तक गांधीवादी समाजवाद से दिखावटी प्रेम करने के बाद वह अपने नए संस्करण में जल्द ही अपने पुराने विचारों पर लौट आई थी।
कांग्रेस नेतृत्व ने १९७० और ८० के दशकों में दबी-पिछड़ी जातियों की उभर रही राजनीतिक आकांक्षाओं का कोई ख्याल नहीं किया। या यह कहा जाए कि उसने अपने को उत्तरोत्तर जनतांत्रिक बनाने की प्रक्रिया रोक दी। १९९० के दशक में सामाजिक और आर्थिक न्याय उसके एजेंडे से गायब हो गए। तो इसमें क्या आश्चर्य है कि जब देश २१वीं सदी में प्रवेश की तैयारी कर रहा था, उन वर्षों में बहुत से राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस की श्रद्धांजलि लिखने की तैयारी कर रहे थे। कांग्रेस क्या मानती है और क्या कर सकती है, उसकी पहचान क्या है, यह किसी के सामने साफ नहीं था। पार्टी एक यथास्थितिवादी जमात लगती थी, जिसे स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ की विरासत को आगे बढ़ा रही भारतीय जनता पार्टी तेजी से राजनीतिक परिदृश्य से बेखल करती जा रही थी। भाजपा नेता तब यह खुलेआम कहते थे कि नेहरूवादी नीतियों की वजह से देश की उद्यम भावना लंबे समय तक अंकुश में रही, इसकी वजह से यह देश अपनी अंतर्निहित संभावनाओं को हासिल नहीं कर सका, और इसकी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। तब कांग्रेस का कोई नेता या सिद्धांतकार इस विचार को सार्वजनिक रूप से चुनौती देता नजर नहीं आता था। ऐसा लगता था कि कांग्रेस किसी अपराध भावना से ग्रस्त है, और उसके नेता यह मानते हैं कि अब जो हो रहा है, वही सही है।
२००४ का आम चुनाव इसी पृष्ठभूमि में हुआ था। कांग्रेस अपने ‘हाथ को आम आदमी के साथ’ रखने के वादे के साथ चुनाव मैदान में जरूर उतरी, लेकिन उसकी इस बात पर शायद ही किसी को भरोसा था। तब उसे चुनावी सफलता सिर्फ इसलिए मिली कि वह भारतीय जनता पार्टी विरोधी गठबंधन का नेतृत्व कर रही थी। भाजपा की सांप्रदायिक, बेलगाम नव-उदारवादी एवं गरीब विरोधी नीतियों से त्रस्त लोगों ने उसे हराने के लिए कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन को एक माध्यम बनाया।
निसंदेह कांग्रेस के लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर था। वह यहां से अपने एक नए अवतार की तलाश शुरू कर सकती थी। २००९ का जनादेश का संदेश शायद यही है कि कांग्रेस ऐसा करने में एक हद कामयाब रही। उसे वामपंथी दलों का वैचारिक एवं कार्यक्रम संबंधी सहारा मिला। इन दलों के दबाव ने कांग्रेस को काफी समय तक भटकाव से रोके रखा। जन आंदोलनों के नेताओं को उसने नीतियों के निर्माण में शामिल किया। इससे जो नीतियां और कार्यक्रम सामने आए, उससे राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श को बदलने में मदद मिली। लंबे समय बाद एक बार फिर देश के सामने प्रगति और विकास के मुद्दे आए।
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, आदिवासी एवं अन्य वनवासी भूमि अधिकार कानून, सूचना का अधिकार कानून, अन्य पिछड़ी जातियों को उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण, किसानों के लिए कर्ज माफी, और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर अमल इस नई दिशा की कुछ मिसालें हैं। देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे की रक्षा के प्रति वचनबद्धता और पाकिस्तान के साथ शांति प्रक्रिया इसी दिशा का विस्तार थीं। स्वाभाविक रूप से इस दौर में यह चर्चा शुरू हुई कि क्या कांग्रेस खुद को नेहरूवादी अतीत से जोड़ रही है और क्या सोनिया गांधी एक नई कांग्रेस की सूत्रधार बनेंगी?
हाल के जनादेश ने यह संभावना और उज्ज्वल कर दी है। यूपीए की दूसरी पारी में मनमोहन सिंह सरकार के मंत्रियों ने १०० दिन का एजेंडा घोषित करने में जो अति उत्साह दिखाया है, वह भले आगे जाकर एक बड़ी निराशा की वजह बने, लेकिन इससे एक सकारात्मक पक्ष जरूर सामने आया है कि कांग्रेस की जुबान पर ‘आम आदमी’ अभी भी बना रहने वाला है। यह रुझान देश की राजनीति में एक नई संभावना खोलता है। इससे इतना तो जाहिर होता ही है कि १९९० के दशक के नकारात्मक दौर पर फिलहाल विराम लग गया है, जब प्रगतिशील ताकतों को सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ गोलबंदी में अपनी पूरी ताकत झोंकनी पड़ रही थी।
इस नए दौर में सरकार की परख उसके जन भलाई के कामकाज, आम आदमी की चिंता के उसके दावे और देश को व्यापक रूप से सकारात्मक दिशा देने की उसकी निष्ठा एवं क्षमता की कसौटियों पर की जा सकती है। इन्हीं बिंदुओं पर सरकार की आलोचना और उसके प्रदर्शन की समीक्षा का अवसर भी देश के सामने है। स्पष्टतः यह स्थिति सामाजिक जनतांत्रिक (सोशल डेमोक्रेटिक) राजनीति के उदय का अवसर प्रदान कर रही है। ऐसे में एक अति महत्त्वपूर्ण एवं प्रासंगिक सवाल यह है कि मुख्यधारा राजनीति में इस वक्त सामाजिक जनतंत्र की पैरोकार ताकतें कौन-सी हैं? क्या वाम मोर्चा इस भूमिका को ले सकने में सक्षम है और क्या उसमें इसकी इच्छाशक्ति है? या क्या जनता दल जैसे प्रयोग की फिर से जमीन बन सकती है?
फिलहाल जो होता दिख रहा है, वह यह कि अपने तमाम अभिजात्यवादी रुझानों और पार्टी में दक्षिणपंथी ताकतों की भरमार के बावजूद कांग्रेस अभी सोशल डेमोक्रेटिक स्पेस को भरने की कोशिश कर रही है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व यह समझ गया है कि चुनावी सफलता का यही फॉर्मूला है। खाद्य सुरक्षा कानून, शिक्षा को बुनियादी अधिकार बनाने की पहल और महिला आरक्षण बिल १०० दिन के भीतर पास कराने की घोषणाएं यही संकेत देती हैं। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह १९८० और ९० के दशक से अलग एक नई कांग्रेस है। किसी विचारधारा की परंपरा से न आने के बावजूद सोनिया गांधी ने अपनी सहज बुद्धि से पार्टी को एक नई राजनीतिक जमीन दे दी है।
बहरहाल, वर्ग चरित्र और मूलभूत स्वभाव पर गौर करें तो यह मानना मुश्किल लगता है कि कांग्रेस सचमुच एक सामाजिक जनतांत्रिक पार्टी बन सकेगी। जिस पार्टी के २०६ में से १४१ सांसद करोड़पति हों, जिसमें मनमोहन सिंह-मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे नव-उदारवाद के प्रतीक चेहरों के हाथ में आर्थिक नीतियों की कमान हो, जिसमें पार्टी के टिकट वंशवाद के आधार पर ही देने की परंपरा मजबूत होती जा रही हो, वह आर्थिक और सामाजिक मामलों में जनतंत्र के विस्तार का औजार बन सकती है, ऐसा भरोसा तमाम राजनीतिक सिद्धांतों और तर्कों के खिलाफ जाकर ही किया जा सकता है।
इसके बावजूद मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात का श्रेय जरूर है कि उसने एक पहचान खो चुकी पार्टी को एक नई प्रासंगिकता दे दी है। इस क्रम में वह देश के राजनीतिक विमर्श की दिशा बदलने में भी सफल रही है, और इसका परिणाम यह है कि आजादी के बाद हासिल उपलब्धियों के खत्म हो जाने की आशंकाओं से फिलहाल देश निकल गया है। चूंकि कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार नव-उदारवाद के दायरे में रहते हुए भी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को व्यवहार में वापस ले आई है, इसलिए प्रगतिशील ताकतों के लिए सामाजिक और आर्थिक दायरे में लोकतंत्र को ज्यादा व्यापक एवं गहरा बनाने की राजनीति करने का रास्ता आसान हो गया है। यह सोनिया गांधी के नेतृत्व का एक बड़ा योगदान है। इस नेतृत्व ने सचमुच कांग्रेस का एक नया कलेवर पेश किया है, जिसे आज की पीढ़ी उम्मीदों के साथ देख रही है, और जिसकी राजनीतिक प्रासंगिकता आज संभवतः पिछले चार दशकों में सबसे ज्यादा साफ है। उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस अगले पांच साल में अपने लिए और बड़ी जमीन की तलाश करेगी और प्रगतिशील राजनीति की संभावनाओं को और ज्यादा मजबूत कर सकेगी।
नई कांग्रेस शब्द नया नहीं है। १९६९ में कांग्रेस के विभाजन के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को इसी नाम से जाना गया था। तब ‘नई’ शब्द के साथ कांग्रेस ने नई उम्मीदंा जगाई थीं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स के खात्मे और गरीबी हटाओ के नारे के साथ इंदिरा गांधी ने देश के सामने वामपंथ की तरफ झुकाव वाला राजनीतिक एजेंडा पेश किया। देश ‘इंदिरा गांधी आई हैं, नई रोशनी लाई हैं’- के नारे से गूंज उठा। इंदिरा गांधी को लोगों का इतना जोरदार समर्थन मिला कि उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस ही ‘असली’ हो गई, जबकि दिग्गज नेताओं से भरी संगठन कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया।
इंदिरा गांधी यह संदेश देने में कामयाब रहीं कि आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू जिस लोकतांत्रिक समाजवाद के रास्ते पर देश को लेकर चले, उनके न रहने के बाद दक्षिणपंथी रुझान वाले नेताओं ने पार्टी को उस राह से भटका दिया है। जानकारों में इस बात पर मतभेद है कि क्या इंदिरा गांधी की सचमुच वामपंथी एजेंडे में कोई निष्ठा थी? बाद के घटनाक्रम ने यही जाहिर किया यह निष्ठा से ज्यादा एक सियासी कार्ड था, जो कामयाब रहा। लेकिन यह सियासी कार्ड एक ठोस तैयारी के साथ खेला गया। यह तो ऐतिहासिक तथ्य है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और इंदिरा गांधी ने ही प्रीवी पर्स को खत्म किया। इसलिए अगर इंदिरा गांधी की वामपंथी छवि पर देश के एक बड़े हिस्से ने भरोसा किया, तो यह महज एक छलावा नहीं था।
आखिर इंदिरा गांधी के साथ इसकी एक विरासत थी। यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि कांग्रेस में दक्षिणपंथी और यथास्थितिवादी ताकतों के जमावड़े के बावजूद जवाहर लाल नेहरू राष्ट्र निर्माण के समाजवादी रास्ते पर पार्टी और पूरे देश को ले चलने में कामयाब रहे थे। नेहरू ने प्रगतिशील और आधुनिक भारत की नींव डाली और इसके लिए उस समय की परिस्थितियों में जो उपलब्ध एवं मान्य साधन थे, उनके जरिए यह कार्य शुरू किया। लोकतंत्र के साथ एक न्यायपूर्ण आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था के विचार को देश में लोकप्रिय बनाने में उन्होंने अति विशिष्ट भूमिका निभाई। धर्मनिरपेक्षता इस सारी परियोजना का एक बुनियादी सिद्धांत था।
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के कथित सिंडिकेट के साथ संघर्ष में इसी विरासत को अपना हथियार बनाया था। चूंकि बीते दशकों में यह विचारधारा सिर्फ नेहरू की नहीं, बल्कि कांग्रेस की विरासत बन चुकी थी, और इसके लिए व्यापक जन स्वीकृति पहले से मौजूद थी, इसलिए इंदिरा गांधी का मजबूत नेता बनकर उभरना कोई संयोग नहीं था। लेकिन क्या अपनी मजबूती का इस्तेमाल उन्होंने इस विरासत को आगे बढ़ाने में किया, यह एक विवादास्पद सवाल है। इतिहास संभवतः उन्हें एक वामपंथी विरासत की नेता के बजाय सत्ता के समीकरणों की माहिर खिलाड़ी के रूप में ज्यादा रखेगा।
१९७५ में इमरजेंसी सत्ता समीकरण की तात्कालिक राजनीतिक मजबूरियों की वजह से ही लागू की गई थी। लेकिन इसे वैधता दिलाने के लिए इंदिरा गांधी २० सूत्री कार्यक्रम के नाम पर एक बार फिर वामपंथी एजेंडे को सामने ले आईं। कहने का मतलब यह कि १९७० के दशक तक कांग्रेस की राजनीति में आम जन की चिंताएं सार्वजनिक रूप से लगातार मुद्दा बनी रहीं, भले व्यवहार में इनके प्रति पार्टी की निष्ठा पर संदेह रहा हो।
लेकिन इसके बाद के दो दशकों में कार्यक्रम और नीतियों के स्तर पर पार्टी अपनी वैचारिक विरासत से भटकने लगी। १९८० के दशक में पहले इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की सरकारों ने हालांकि इसे खुल कर नहीं कहा, लेकिन उनके कदमों से समाजवाद शब्द के प्रति उनकी बेरुखी या उनकी एलर्जी जाहिर होने लगी। धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी सिद्धांत के प्रति उनकी वचनबद्धता भी अक्सर डोलती नजर आई। १९९० के दशक की शुरुआत में पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने इस रुझान को उसकी मंजिल तक पहुंचा दिया। तब तक सोवियत खेमा बिखर चुका था और नव-उदारवाद के पैरोकार ‘इतिहास के खत्म हो जाने’ यानी पूंजीवाद की निर्णायक जीत की घोषणा कर चुके थे। कांग्रेस के नए नेतृत्व ने नेहरूवाद को दफना कर मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को एक विचारधारा के रूप में स्वीकार कर लिया है, यह तब के पार्टी के बयानों और कार्यक्रमों दोनों में साफ झलकता रहा।
इसका परिणाम क्या हुआ? कांग्रेस ने उस वैचारिक आधार को छोड़ दिया, जिसकी वजह से जनता का बहुमत उसके साथ दशकों तक बना रहा था। तो जनता के भी एक बड़े हिस्से ने उसे छोड़ दिया। कांग्रेस जिस दक्षिणपंथ की राह पर चली, देश के राजनीतिक फलक पर उसके उससे बेहतर पैरोकार पहले से मौजूद थे। स्वतंत्र पार्टी ने १९६० दशक में यही विकल्प पेश करते हुए अपनी एक मजबूत उपस्थिति संसद में बनाई थी। भारतीय जनसंघ ने हिंदुत्व के सांप्रदायिक विचार के साथ दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों के आधार पर ही अपनी राजनीतिक विकसित की थी। जनता पार्टी जैसे भ्रामक प्रयोग से गुजरने और कुछ समय तक गांधीवादी समाजवाद से दिखावटी प्रेम करने के बाद वह अपने नए संस्करण में जल्द ही अपने पुराने विचारों पर लौट आई थी।
कांग्रेस नेतृत्व ने १९७० और ८० के दशकों में दबी-पिछड़ी जातियों की उभर रही राजनीतिक आकांक्षाओं का कोई ख्याल नहीं किया। या यह कहा जाए कि उसने अपने को उत्तरोत्तर जनतांत्रिक बनाने की प्रक्रिया रोक दी। १९९० के दशक में सामाजिक और आर्थिक न्याय उसके एजेंडे से गायब हो गए। तो इसमें क्या आश्चर्य है कि जब देश २१वीं सदी में प्रवेश की तैयारी कर रहा था, उन वर्षों में बहुत से राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस की श्रद्धांजलि लिखने की तैयारी कर रहे थे। कांग्रेस क्या मानती है और क्या कर सकती है, उसकी पहचान क्या है, यह किसी के सामने साफ नहीं था। पार्टी एक यथास्थितिवादी जमात लगती थी, जिसे स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ की विरासत को आगे बढ़ा रही भारतीय जनता पार्टी तेजी से राजनीतिक परिदृश्य से बेखल करती जा रही थी। भाजपा नेता तब यह खुलेआम कहते थे कि नेहरूवादी नीतियों की वजह से देश की उद्यम भावना लंबे समय तक अंकुश में रही, इसकी वजह से यह देश अपनी अंतर्निहित संभावनाओं को हासिल नहीं कर सका, और इसकी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। तब कांग्रेस का कोई नेता या सिद्धांतकार इस विचार को सार्वजनिक रूप से चुनौती देता नजर नहीं आता था। ऐसा लगता था कि कांग्रेस किसी अपराध भावना से ग्रस्त है, और उसके नेता यह मानते हैं कि अब जो हो रहा है, वही सही है।
२००४ का आम चुनाव इसी पृष्ठभूमि में हुआ था। कांग्रेस अपने ‘हाथ को आम आदमी के साथ’ रखने के वादे के साथ चुनाव मैदान में जरूर उतरी, लेकिन उसकी इस बात पर शायद ही किसी को भरोसा था। तब उसे चुनावी सफलता सिर्फ इसलिए मिली कि वह भारतीय जनता पार्टी विरोधी गठबंधन का नेतृत्व कर रही थी। भाजपा की सांप्रदायिक, बेलगाम नव-उदारवादी एवं गरीब विरोधी नीतियों से त्रस्त लोगों ने उसे हराने के लिए कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन को एक माध्यम बनाया।
निसंदेह कांग्रेस के लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर था। वह यहां से अपने एक नए अवतार की तलाश शुरू कर सकती थी। २००९ का जनादेश का संदेश शायद यही है कि कांग्रेस ऐसा करने में एक हद कामयाब रही। उसे वामपंथी दलों का वैचारिक एवं कार्यक्रम संबंधी सहारा मिला। इन दलों के दबाव ने कांग्रेस को काफी समय तक भटकाव से रोके रखा। जन आंदोलनों के नेताओं को उसने नीतियों के निर्माण में शामिल किया। इससे जो नीतियां और कार्यक्रम सामने आए, उससे राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श को बदलने में मदद मिली। लंबे समय बाद एक बार फिर देश के सामने प्रगति और विकास के मुद्दे आए।
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, आदिवासी एवं अन्य वनवासी भूमि अधिकार कानून, सूचना का अधिकार कानून, अन्य पिछड़ी जातियों को उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण, किसानों के लिए कर्ज माफी, और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर अमल इस नई दिशा की कुछ मिसालें हैं। देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे की रक्षा के प्रति वचनबद्धता और पाकिस्तान के साथ शांति प्रक्रिया इसी दिशा का विस्तार थीं। स्वाभाविक रूप से इस दौर में यह चर्चा शुरू हुई कि क्या कांग्रेस खुद को नेहरूवादी अतीत से जोड़ रही है और क्या सोनिया गांधी एक नई कांग्रेस की सूत्रधार बनेंगी?
हाल के जनादेश ने यह संभावना और उज्ज्वल कर दी है। यूपीए की दूसरी पारी में मनमोहन सिंह सरकार के मंत्रियों ने १०० दिन का एजेंडा घोषित करने में जो अति उत्साह दिखाया है, वह भले आगे जाकर एक बड़ी निराशा की वजह बने, लेकिन इससे एक सकारात्मक पक्ष जरूर सामने आया है कि कांग्रेस की जुबान पर ‘आम आदमी’ अभी भी बना रहने वाला है। यह रुझान देश की राजनीति में एक नई संभावना खोलता है। इससे इतना तो जाहिर होता ही है कि १९९० के दशक के नकारात्मक दौर पर फिलहाल विराम लग गया है, जब प्रगतिशील ताकतों को सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ गोलबंदी में अपनी पूरी ताकत झोंकनी पड़ रही थी।
इस नए दौर में सरकार की परख उसके जन भलाई के कामकाज, आम आदमी की चिंता के उसके दावे और देश को व्यापक रूप से सकारात्मक दिशा देने की उसकी निष्ठा एवं क्षमता की कसौटियों पर की जा सकती है। इन्हीं बिंदुओं पर सरकार की आलोचना और उसके प्रदर्शन की समीक्षा का अवसर भी देश के सामने है। स्पष्टतः यह स्थिति सामाजिक जनतांत्रिक (सोशल डेमोक्रेटिक) राजनीति के उदय का अवसर प्रदान कर रही है। ऐसे में एक अति महत्त्वपूर्ण एवं प्रासंगिक सवाल यह है कि मुख्यधारा राजनीति में इस वक्त सामाजिक जनतंत्र की पैरोकार ताकतें कौन-सी हैं? क्या वाम मोर्चा इस भूमिका को ले सकने में सक्षम है और क्या उसमें इसकी इच्छाशक्ति है? या क्या जनता दल जैसे प्रयोग की फिर से जमीन बन सकती है?
फिलहाल जो होता दिख रहा है, वह यह कि अपने तमाम अभिजात्यवादी रुझानों और पार्टी में दक्षिणपंथी ताकतों की भरमार के बावजूद कांग्रेस अभी सोशल डेमोक्रेटिक स्पेस को भरने की कोशिश कर रही है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व यह समझ गया है कि चुनावी सफलता का यही फॉर्मूला है। खाद्य सुरक्षा कानून, शिक्षा को बुनियादी अधिकार बनाने की पहल और महिला आरक्षण बिल १०० दिन के भीतर पास कराने की घोषणाएं यही संकेत देती हैं। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह १९८० और ९० के दशक से अलग एक नई कांग्रेस है। किसी विचारधारा की परंपरा से न आने के बावजूद सोनिया गांधी ने अपनी सहज बुद्धि से पार्टी को एक नई राजनीतिक जमीन दे दी है।
बहरहाल, वर्ग चरित्र और मूलभूत स्वभाव पर गौर करें तो यह मानना मुश्किल लगता है कि कांग्रेस सचमुच एक सामाजिक जनतांत्रिक पार्टी बन सकेगी। जिस पार्टी के २०६ में से १४१ सांसद करोड़पति हों, जिसमें मनमोहन सिंह-मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे नव-उदारवाद के प्रतीक चेहरों के हाथ में आर्थिक नीतियों की कमान हो, जिसमें पार्टी के टिकट वंशवाद के आधार पर ही देने की परंपरा मजबूत होती जा रही हो, वह आर्थिक और सामाजिक मामलों में जनतंत्र के विस्तार का औजार बन सकती है, ऐसा भरोसा तमाम राजनीतिक सिद्धांतों और तर्कों के खिलाफ जाकर ही किया जा सकता है।
इसके बावजूद मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात का श्रेय जरूर है कि उसने एक पहचान खो चुकी पार्टी को एक नई प्रासंगिकता दे दी है। इस क्रम में वह देश के राजनीतिक विमर्श की दिशा बदलने में भी सफल रही है, और इसका परिणाम यह है कि आजादी के बाद हासिल उपलब्धियों के खत्म हो जाने की आशंकाओं से फिलहाल देश निकल गया है। चूंकि कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार नव-उदारवाद के दायरे में रहते हुए भी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को व्यवहार में वापस ले आई है, इसलिए प्रगतिशील ताकतों के लिए सामाजिक और आर्थिक दायरे में लोकतंत्र को ज्यादा व्यापक एवं गहरा बनाने की राजनीति करने का रास्ता आसान हो गया है। यह सोनिया गांधी के नेतृत्व का एक बड़ा योगदान है। इस नेतृत्व ने सचमुच कांग्रेस का एक नया कलेवर पेश किया है, जिसे आज की पीढ़ी उम्मीदों के साथ देख रही है, और जिसकी राजनीतिक प्रासंगिकता आज संभवतः पिछले चार दशकों में सबसे ज्यादा साफ है। उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस अगले पांच साल में अपने लिए और बड़ी जमीन की तलाश करेगी और प्रगतिशील राजनीति की संभावनाओं को और ज्यादा मजबूत कर सकेगी।
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