सत्येंद्र रंजन
भारत में जिन्ना प्रेम के हो रहे प्रवाह पर आश्चर्य करें या हंसें- यह समझ पाना मुश्किल है। २००५ में जो लहर लालकृष्ण आडवाणी के जज्बातों के साथ उठकर दब गई थी, वह जसवंत सिंह की नवजाग्रत श्रद्धा के साथ फिर उठ खड़ी हुई है। इस बार राम जेठमलानी से लेकर मेघनाद देसाई और पूर्व आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन तक इस पर सवार हैं। इन बौद्धिकों की मेधा ने मोहम्मद अली जिन्ना की महानता पर से परदा हटा दिया है, जिसे गांधी-नेहरू-पटेल ने अपनी साजिश से ढक दिया था। तो आखिरकार सच्चाई सामने आ गई है!
इन मनीषियों द्वारा सामने लाई गई सच्चाई यह है कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रवादी थे। वे गांधीजी के मुस्लिम कट्टरपंथियों से सहयोग के विरोधी थे। खिलाफत आंदोलन को गांधीजी के समर्थन से वे इतने दुखी हुए कि कई वर्षों के लिए लंदन में बसेरा किया। १९४० के पहले तक उन्होंने अलग पाकिस्तान की मांग में अपनी ताकत नहीं झोंकी। लेकिन जब गांधीजी लगातार उनकी उपेक्षा करते रहे, और नेहरू एवं पटेल उनके वाजिब हक से उन्हें वंचित करते रहे तो जिन्ना आखिर क्या करते! चूंकि वे महान व्यक्ति थे, इसलिए जब एक बार पाकिस्तान हासिल करने का मन बना लिया तो फिर उसे पाकर ही दम लिया। भले इसके लिए हिंदुओं के खिलाफ उन्हें ‘सीधी कार्रवाई’ करनी पड़ी। भले विभाजन की प्रक्रिया में लाखों लोगों की जान गई और इतिहास का आबादी का सबसे बड़ा स्थानांतरण हुआ।
जसवंत सिंह अब यह ‘खोज’ कर लाए हैं कि यह तो नेहरू और पटेल की जिद या सत्ता लिप्सा थी, जिसकी वजह से देश बंटा। वरना, जिन्ना तो आखिरी वक्त तक चाहते थे कि सब लोग मिलजुल कर रहें। उन्हें कैबिनेट मिशन का प्रस्ताव मंजूर था, जिसके तहत आजादी के बाद भारत को ऐसा परिसंघ बनाना था, जिससे जो प्रांत जब चाहता अलग हो सकता था। जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने यह मंजूर नहीं किया, इसलिए भारत बंटा। जिन्ना भारत के पूरब और पश्चिम दोनों तरफ ‘अपना हिस्सा’ लेकर अलग हो गए। लेकिन धर्मनिरपेक्षता में उनकी आस्था देखिए- ११ अगस्त १९४७ को पाकिस्तान की संविधान सभा में उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में सबको मजहबी आजादी होगी, पाकिस्तान धर्म आधारित राज्य नहीं होगा।
इतिहासकार मुशीरुल हसन ने इस संदर्भ में गालिब के इस शेर का ठीक ही हवाला दिया है- ‘कि मेरे कत्ल के बाद, उसने जफ़ा से किया तौबा।’ एक इतिहासकार टीकाकार ने एक अंग्रेजी अखबार में लिखा है कि वो जसवंत सिंह की किताब को हास्य की श्रेणी में रखेंगे। इसलिए कि ऐसी ‘बौद्धिक खोज और उसके निष्कर्ष’ वहीं रहने के लायक हैं। इसलिए कि यह किताब और उसके साथ चली जिन्ना प्रेम की लहर कोई नया तथ्य सामने नहीं लाई है। यह दशकों से मौजूद पूर्वाग्रहों को लिखित रूप में पेश करने की एक कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है।
इसलिए जसवंत सिंह की किताब से शुरू हुई चर्चा के संदर्भ में ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह समझना है कि आखिर ये किसके पूर्वाग्रह हैं और इनके निशाने पर कौन है? बहरहाल, निशाना तो साफ है। निशाना नेहरू हैं। आखिर क्यों? क्योंकि नेहरू ने कांग्रेस और देश को एक नई दिशा दी। वे देश को आधुनिकता और लोकतंत्र के रास्ते पर ले गए। धर्मनिरपेक्षता को उन्होंने नए भारत की बुनियाद बनाया। इससे पुरातन विशेषाधिकारों वाली सामाजिक व्यवस्था में भारी उथल-पुथल हुई। सामाजिक वर्चस्व की व्यवस्था की जड़ें हिल गईं। राजा प्रजा बन गए। समाजवाद एक प्रचलित शब्द बन गया।
तो इसमें क्या आश्चर्य कि राजा जसवंत सिंह नेहरू से नाराज हुए? सेना छोड़ी तो उस पार्टी में गए जिसने अपनी पहचान ही नेहरू और नेहरूवाद के विरोध से बनाई थी। उस पार्टी से बिगाड़ इसलिए हुआ कि उस पार्टी ने नेहरू पर हमला बोलने के लिए पटेल को ढाल बनाया था। लेकिन पटेल के लौह पुरुष वाले व्यक्तित्व की वजह से ही आखिर जसवंत सिंहों की रियासतें गई थीं, तो पटेल उन्हें क्यों रास आते! इसलिए राजा साहब ने जिन्ना की तलाश की, जो राजसी ठाट-बाट से जीते थे और अगर उनके मंसूबे के मुताबिक कैबिनेट मिशन का प्रस्ताव मान लिया गया होता तो देसी रियासतें खत्म नहीं होती। सामंतवाद पूरे भारत में उसी तरह फूलता-फलता रहता, जैसा आज भी पाकिस्तान में है। नेहरू-पटेल की जोड़ी ने वो संभावना यहां खत्म कर दी।
वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सपनों का ‘अखंड भारत’ होता। यहां का राज धर्म-गुरुओं की मर्जी के मुताबिक चलता। हिंदू बहुल इलाकों में हिंदू धर्म-गुरुओं और मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम धर्म-गुरुओं के मुताबिक। गांधीजी ने कहा था कि भारत का विभाजन उनकी लाश पर होगा। लेकिन जब ऐसे भारत की संभावना नजर आई तो वे नेहरू और पटेल के साथ हो लिए। देश का विभाजन मंजूर कर लिया। केएस सुदर्शन इससे आज तक दुखी हैं। आखिर गांधी के ‘नेहरू प्रेम’ ने सुदर्शन कल्पना वाले भारत की संभावना नष्ट कर दी!
जिन्ना के कई रूप हैं। पश्चिमी जीवनशैली वाले जिन्ना, सांप्रदायिक राजनीति के विरोधी जिन्ना, बांटो और राज करो की ब्रिटिश नीति का औजार बने जिन्ना, कट्टर और हिंसक सांप्रदायिकता के समर्थक जिन्ना और ११ अगस्त १९४७ वाले जिन्ना। आप इनमें से जिन्हें चाहे चुन सकते हैं। आ़डवाणी, जसवंत सिंह, और सुदर्शन ने अपने-अपने जिन्ना चुन लिए हैं। मगर भारत की अपने विवेक से चलने वाली जनता जिन्ना को उनके संपूर्ण रूप में देखना ही पसंद करती है। किसी भी व्यक्ति की पूरी शख्सियत उसकी कुल भूमिका और योगदान के योग से उभरती है। उसके काम के नतीजे से भी उसकी छवि बनती है।
जिन्ना का काम सबके सामने है। आखिर में उन्होंने दो-राष्ट्र के सिद्धांत में यकीन किया। इसके आधार पर मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनवाया। २४ साल के अंदर वह पाकिस्तान टूट गया। बचा हिस्सा आज अपने वजूद के संकट से जूझ रहा है। दूसरी तरफ गांधी-नेहरू-पटेल का भारत है। यह किसी एक मजहब का भारत नहीं है। यह वो भारत है, जिसके बिखर जाने की तमाम भविष्यवाणियां गलत साबित हो चुकी हैं। अगर पूरा नहीं तो कम से कम, जैसाकि इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा है, राष्ट्रीय एकता का ८० फीसदी लक्ष्य यह राष्ट्र पूरा कर चुका है। राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना के बाद अब यह सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की अपनी यात्रा शुरू कर चुका है। लेकिन जसवंत सिंह, सुदर्शन, जेठमलानी और मेघनाद देसाई जैसों के लिए ये सारी बुरी खबरें हैं। इसलिए उनका जिन्ना प्रेम जायज है!
Tuesday, September 1, 2009
तो भाजपा जसवंत के साथ क्या करती?
सत्येंद्र रंजन
जसवंत सिंह के भारतीय जनता पार्टी से निष्कासन पर सामने आ रही ज्यादातर प्रतिक्रियाओं में पार्टी सिस्टम की बुनियादी समझ का विचित्र अभाव दिखता है। भारतीय जनता पार्टी के मूल चरित्र की अनदेखी के कारण ये टिप्पणियां और भी हवाई नजर आती हैं। कुछ ऐसी ही प्रतिक्रियाएं पिछले साल पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से निकाले जाने के समय भी देखने को मिली थीं। इन दोनों मौकों पर निकाले गए नेताओं को पीड़ित या सताए गए पक्ष के रूप में चित्रित करने का आम रुझान मीडिया में रहा है। जसवंत सिंह के मामले में विचार की
स्वतंत्रता या एक बौद्धिक प्रयास के प्रति असहनशीलता के तर्क भी जोड़ दिए गए हैं।
यहां इस बात के पक्ष में दलील देने का कतई इरादा नहीं है कि भाजपा विचारों की स्वतंत्रता की समर्थक है या वह बौद्धिक प्रयासों के प्रति उदार रुख रखती है। दरअसल, गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार ने जसवंत सिंह की किताब- ‘जिन्नाः इंडिया-पार्टिशन, इंडिपेंन्डेंस’ पर प्रतिबंध लगाकर यह एक बार फिर साफ कर दिया है कि भाजपा किसी भी रूप में और किसी सीमा तक विचार स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करती और उसे मतभेद बर्दाश्त नहीं हैं। यह बात भाजपा के मूल स्वभाव में शामिल है। वह जिन सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है, उनकी सोच में वर्चस्व और प्रगति विरोधी प्रवृत्तियां शामिल हैं। इसीलिए भाजपा और उसके संघ परिवार को भारत के लोकतांत्रिक प्रयोगों का एंटी-थीसीस (प्रतिवाद) माना जाता है।
लेकिन जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने का मुद्दा मतभेदों के प्रति सहिष्णुता से नहीं जुड़ा है। यह सीधे तौर पर एक राजनीतिक दल की सार्वजनिक पहचान और उसकी ‘मूलभूत आस्थाओं’ से जुड़ा है। अपनी किताब में मोहम्मद अली जिन्ना के महिमामंडन और सरदार वल्लभभाई पटेल की आलोचना (उन्हें विभाजन के लिए दोषी ठहराने) के बाद भाजपा में जसवंत सिंह की जगह खत्म हो गई थी। यह मुमकिन नहीं है कि कोई नेता अपनी पार्टी की ‘मूलभूत आस्थाओं’ के खिलाफ किताब लिखे और पार्टी में भी बना रहे। राजनीति शास्त्र की परिभाषा में राजनीतिक दल समान विचारों और समान आस्थाओं के लोगों का एक संगठन होता है। वह अपने इसी स्वरूप के साथ जनता के बीच जाता है और अपने एजेंडे के लिए उनका समर्थन पाने का प्रयास करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर पार्टी के भीतर मतभेद और बहस की गुंजाइश जरूर रहनी चाहिए, लेकिन इसके लिए सही जगह पार्टी के अंदरूनी मंच हैं। इन मंचों पर जो विचार और राजनीतिक दिशा तय होते हैं, उनका पालन हर नेता के लिए जरूरी होता है और ऐसा ही होना चाहिए।
भाजपा ने जसवंत सिंह से उनके किताब लिखने या जिन्ना के महिमामंडन का अधिकार नहीं छीना है। उन्हें सिर्फ पार्टी से बाहर कर दिया गया है और अब वे अपने ‘बौद्धिक प्रयासों’ के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। इतिहास का ‘पुनर्मूल्यांकन’ करने के ‘महति प्रयास’ में जुटा एक ‘बौद्धिक’ नेता एक राजनीतिक दल में बने रहने का आग्रह क्यों पाले हुए है, यह सवाल यहां ज्यादा प्रासंगिक है। खासकर यह सवाल इस संदर्भ में और भी ज्यादा अहम हो जाता है, जब हम इस तथ्य पर गौर करते हैं कि गुजरे वर्षों में लोकतंत्र, बहुलता और आधुनिक मूल्यों को कुचलने की इस पार्टी की हर कोशिश में वह नेता सहभागी रहा है।
सोमनाथ चटर्जी ने जुलाई २००८ में लोकसभा अध्यक्ष पद की गरिमा की दलील देते हुए माकपा की उस वक्त की राजनीतिक लाइन को मानने से इनकार कर दिया था। माकपा ने तब उन्हें पार्टी से बाहर का दरवाजा दिखाया। तब भी अहम सवाल यही था कि जनवादी केंद्रीयता (डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म) के सिद्धांत से चलने वाली एक पार्टी के पास इसके अलावा और क्या विकल्प था? आखिर कोई पार्टी राजनीतिक अराजकता के बीच तो नहीं चल सकती। एक ऐसी पार्टी आम जन के बीच निश्चित रूप से अपनी पहचान खो देगी और जाहिर है, तब उसकी जनता में कोई साख भी नहीं बचेगी। इसलिए माकपा ने अपने वरिष्ठ नेता के खिलाफ निष्कासन का फैसला लिया। उसने सोमनाथ चटर्जी से लोकसभा अध्यक्ष पद की ‘गरिमा’ बचाए रखने का अधिकार नहीं छीना।
चूंकि मध्य-वर्ग और कॉरपोरेट मीडिया में राजनीति और राजनीतिक दलों के प्रति मोटे तौर पर हिकारत का भाव है, इसलिए वे राजनीति के मूलभूत सिद्धांतों को समझने की कोशिश कभी नहीं करते। उन्हें राजनीतिक दलों के हर काम के पीछे सौदेबाजी, साजिश या वोट बैंक की राजनीति नजर आती है। इसी अलोकतांत्रिक नजरिए में जसवंत सिंह या सोमनाथ चटर्जी ‘शहीद’ नजर आने हैं। इस नजरिए में विभिन्न पार्टियों की संरचना, उनके इतिहास और उनकी प्रासंगिकता का बिल्कुल ही ख्याल नहीं किया जाता।
अब यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न जरूर है कि क्या जिन्ना और पटेल का संबंध भाजपा की मूलभूत आस्थाओं से है? कुछ टीकाकारों ने इस सिलसिले में विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर का जिक्र किया है, जिन्होंने कुछ समय पहले लिखी अपनी किताब ‘इंडियाः फ्रॉम मिडनाइट टू मिलेलियम एंड बियोंड’ में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी पर नकारात्मक टिप्पणियां की थीं। कहा गया है कि अगर इसके बावजूद कांग्रेस उन्हें लोकसभा का टिकट दे सकती है और मंत्री बना सकती है, तो भाजपा जसवंत सिंह को क्यों नहीं बर्दाश्त कर सकती थी? इसका जवाब दोनों पार्टियों के इतिहास और चरित्र छिपा है।
भाजपा कोई सुस्पष्ट और विवेकपूर्ण विचारधारा पर आधारित पार्टी नहीं है। यह पुरातन मान्यताओं, ऐतिहासिक एवं सामाजिक पूर्वाग्रहों और बहुसंख्यक वर्चस्व की प्रवृत्ति से संचालित संघ परिवार का हिस्सा है। इस पूरे परिवार का विमर्श अंध-आस्था, द्रोह भाव और जाने-अनजाने में तैयार की गई झूठी धारणों पर टिका है। इसीलिए भाजपा नेताओं को अल्पकालिक लाभ के लिए कुछ भी कह देने में कोई दिक्कत नहीं होती। ऐसा एक दांव २००५ में लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान खेला, जब उन्होंने न सिर्फ जिन्ना की मज़ार पर जाकर श्रद्धांजलि दी, बल्कि भारत के विभाजन और हिंदुओं के खिलाफ ‘सीधी कार्रवाई’ के इस सूत्रधार को ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने का सर्टिफिकेट भी दे दिया। निगाहें भारत के उदारवादी लोगों और मुसलमानों पर थीं। आडवाणी ने सोचा था कि इस दांव वे अपनी अटल बिहारी वाजपेयी जैसी कथित उदार छवि बना लेंगे और इस तरह प्रधानमंत्री के रूप में अपनी स्वीकार्यता मजबूत कर लेंगे। लेकिन दांव उलटा पड़ा। संघ परिवार में इसके खिलाफ इतनी घोर प्रतिक्रिया हुई कि उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा। बहुत से जानकारों की भी अभी भी यही राय है कि उसके बाद आडवाणी फिर कभी अपना पहले जैसा रुतबा हासिल नहीं कर सके। बहरहाल, उसी संदर्भ में भाजपा ने जिन्ना पर अपनी राय तय की। प्रस्ताव पास कर यह साफ कर दिया कि जिन्ना का महिमामंडन मंजूर नहीं है। जसवंत सिंह उस प्रस्ताव के सहभागी थे।
संघ परिवार और भाजपा की मुश्किल यह है कि स्वतंत्रता आंदोलन में उसके नायक नहीं हैं। वजह साफ है। जब देश की मुख्यधारा अंग्रेजों से आजादी के लिए लड़ रही थी, संघ परिवार हिंदुत्व की अपनी कट्टरपंथी धारणा के प्रचार-प्रसार में लगा था। विनायक सावरकर अपनी वीरता की कहानियों के साथ ऐसा एक नायक हो सकते थे, लेकिन बाद के दिनों में अंग्रजों से सहयोग और महात्मा गांधी की हत्या में अपने कथित हाथ की वजह से उनकी छवि नष्ट हो गई। फिर भी भाजपा ने एनडीए के शासन के दौरान सावरकर की पुर्स्थापना में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन सावरकर की संघ परिवार के बाहर कोई प्रतिष्ठा नहीं है। ऐसे में भाजपा ने सरदार पटेल की एक हकीकत से अलग छवि गढ़ने और खुद को उनकी विरासत में दिखाने की कोशिश की है। जवाहर लाल नेहरू से सरदार पटेल के कई मुद्दों पर मतभेदों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हुए यह छवि गढ़ने की कोशिश की गई है कि पटेल कांग्रेस के भीतर संघ परिवार के प्रवक्ता थे। यह कोरा झूठ है, लेकिन संघ परिवार इस कोशिश में लगातार जुटा रहा है।
उसी सरदार पटेल को जब जसवंत सिंह ने भारत के विभाजन के लिए जिन्ना से ज्यादा जिम्मेदार ठहरा दिया तो इस पर भाजपा नेताओं का भड़कना स्वाभाविक है। सरदार पटेल से नाराजगी की जसवंत सिंह की अपनी वजहें हो सकती हैं। आखिर पटेल की वजह से ही वो देसी रियासतें खत्म हो गईं, जिनमें से एक के जसवंत सिंह वारिस हैं। बहरहाल, यहां गौरतलब यह है कि जसवंत सिंह ने जो कुछ अपनी किताब में कहा है, वह उनकी विचारधारा-विहीन और गढ़ी गई मान्यताओं से चलने वाली (पूर्व) पार्टी की ‘मूलभूत आस्थाओं’ पर प्रहार करता है। इसे भाजपा नहीं सह सकती थी। इस बिंदु पर उसका कदम ना तो गलत है और ना अनपेक्षित।
इस मामले में भाजपा की कांग्रेस से तुलना नहीं हो सकती। कांग्रेस भले आज व्यक्तियों के इर्द-गिर्द ही चलती हो, लेकिन उसके पास सवा सौ साल में विकसित हुई एक विचारधारा है, जो सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रमों पर टिकी है। इसलिए वह अपने अहम व्यक्तित्वों की निंदा करने वालों के साथ भी चल सकती है, लेकिन भाजपा ऐसा नहीं कर सकती।
बहराहल, इस प्रकरण ने जसवंत सिंह जैसे नेताओं की अवसरवादी और अधकचरी बौद्धिकता और भाजपा के विचारधारात्मक खोखलेपन को अगर बेनकाब किया है तो राजनीतिक प्रक्रियाओं और व्यवहार के प्रति कॉरपोरेट मीडिया एवं मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग की नासमझी को भी एक बार फिर उजागर कर दिया है। इससे यह साफ हुआ है कि पिछले साल सोमनाथ चटर्जी के मामले में बेवजह प्रलाप के बाद गुजरी अवधि में इन समूहों का विमर्श थोड़ा भी परिपक्व नहीं हुआ है।
जसवंत सिंह के भारतीय जनता पार्टी से निष्कासन पर सामने आ रही ज्यादातर प्रतिक्रियाओं में पार्टी सिस्टम की बुनियादी समझ का विचित्र अभाव दिखता है। भारतीय जनता पार्टी के मूल चरित्र की अनदेखी के कारण ये टिप्पणियां और भी हवाई नजर आती हैं। कुछ ऐसी ही प्रतिक्रियाएं पिछले साल पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से निकाले जाने के समय भी देखने को मिली थीं। इन दोनों मौकों पर निकाले गए नेताओं को पीड़ित या सताए गए पक्ष के रूप में चित्रित करने का आम रुझान मीडिया में रहा है। जसवंत सिंह के मामले में विचार की
स्वतंत्रता या एक बौद्धिक प्रयास के प्रति असहनशीलता के तर्क भी जोड़ दिए गए हैं।
यहां इस बात के पक्ष में दलील देने का कतई इरादा नहीं है कि भाजपा विचारों की स्वतंत्रता की समर्थक है या वह बौद्धिक प्रयासों के प्रति उदार रुख रखती है। दरअसल, गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार ने जसवंत सिंह की किताब- ‘जिन्नाः इंडिया-पार्टिशन, इंडिपेंन्डेंस’ पर प्रतिबंध लगाकर यह एक बार फिर साफ कर दिया है कि भाजपा किसी भी रूप में और किसी सीमा तक विचार स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करती और उसे मतभेद बर्दाश्त नहीं हैं। यह बात भाजपा के मूल स्वभाव में शामिल है। वह जिन सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है, उनकी सोच में वर्चस्व और प्रगति विरोधी प्रवृत्तियां शामिल हैं। इसीलिए भाजपा और उसके संघ परिवार को भारत के लोकतांत्रिक प्रयोगों का एंटी-थीसीस (प्रतिवाद) माना जाता है।
लेकिन जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने का मुद्दा मतभेदों के प्रति सहिष्णुता से नहीं जुड़ा है। यह सीधे तौर पर एक राजनीतिक दल की सार्वजनिक पहचान और उसकी ‘मूलभूत आस्थाओं’ से जुड़ा है। अपनी किताब में मोहम्मद अली जिन्ना के महिमामंडन और सरदार वल्लभभाई पटेल की आलोचना (उन्हें विभाजन के लिए दोषी ठहराने) के बाद भाजपा में जसवंत सिंह की जगह खत्म हो गई थी। यह मुमकिन नहीं है कि कोई नेता अपनी पार्टी की ‘मूलभूत आस्थाओं’ के खिलाफ किताब लिखे और पार्टी में भी बना रहे। राजनीति शास्त्र की परिभाषा में राजनीतिक दल समान विचारों और समान आस्थाओं के लोगों का एक संगठन होता है। वह अपने इसी स्वरूप के साथ जनता के बीच जाता है और अपने एजेंडे के लिए उनका समर्थन पाने का प्रयास करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर पार्टी के भीतर मतभेद और बहस की गुंजाइश जरूर रहनी चाहिए, लेकिन इसके लिए सही जगह पार्टी के अंदरूनी मंच हैं। इन मंचों पर जो विचार और राजनीतिक दिशा तय होते हैं, उनका पालन हर नेता के लिए जरूरी होता है और ऐसा ही होना चाहिए।
भाजपा ने जसवंत सिंह से उनके किताब लिखने या जिन्ना के महिमामंडन का अधिकार नहीं छीना है। उन्हें सिर्फ पार्टी से बाहर कर दिया गया है और अब वे अपने ‘बौद्धिक प्रयासों’ के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। इतिहास का ‘पुनर्मूल्यांकन’ करने के ‘महति प्रयास’ में जुटा एक ‘बौद्धिक’ नेता एक राजनीतिक दल में बने रहने का आग्रह क्यों पाले हुए है, यह सवाल यहां ज्यादा प्रासंगिक है। खासकर यह सवाल इस संदर्भ में और भी ज्यादा अहम हो जाता है, जब हम इस तथ्य पर गौर करते हैं कि गुजरे वर्षों में लोकतंत्र, बहुलता और आधुनिक मूल्यों को कुचलने की इस पार्टी की हर कोशिश में वह नेता सहभागी रहा है।
सोमनाथ चटर्जी ने जुलाई २००८ में लोकसभा अध्यक्ष पद की गरिमा की दलील देते हुए माकपा की उस वक्त की राजनीतिक लाइन को मानने से इनकार कर दिया था। माकपा ने तब उन्हें पार्टी से बाहर का दरवाजा दिखाया। तब भी अहम सवाल यही था कि जनवादी केंद्रीयता (डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म) के सिद्धांत से चलने वाली एक पार्टी के पास इसके अलावा और क्या विकल्प था? आखिर कोई पार्टी राजनीतिक अराजकता के बीच तो नहीं चल सकती। एक ऐसी पार्टी आम जन के बीच निश्चित रूप से अपनी पहचान खो देगी और जाहिर है, तब उसकी जनता में कोई साख भी नहीं बचेगी। इसलिए माकपा ने अपने वरिष्ठ नेता के खिलाफ निष्कासन का फैसला लिया। उसने सोमनाथ चटर्जी से लोकसभा अध्यक्ष पद की ‘गरिमा’ बचाए रखने का अधिकार नहीं छीना।
चूंकि मध्य-वर्ग और कॉरपोरेट मीडिया में राजनीति और राजनीतिक दलों के प्रति मोटे तौर पर हिकारत का भाव है, इसलिए वे राजनीति के मूलभूत सिद्धांतों को समझने की कोशिश कभी नहीं करते। उन्हें राजनीतिक दलों के हर काम के पीछे सौदेबाजी, साजिश या वोट बैंक की राजनीति नजर आती है। इसी अलोकतांत्रिक नजरिए में जसवंत सिंह या सोमनाथ चटर्जी ‘शहीद’ नजर आने हैं। इस नजरिए में विभिन्न पार्टियों की संरचना, उनके इतिहास और उनकी प्रासंगिकता का बिल्कुल ही ख्याल नहीं किया जाता।
अब यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न जरूर है कि क्या जिन्ना और पटेल का संबंध भाजपा की मूलभूत आस्थाओं से है? कुछ टीकाकारों ने इस सिलसिले में विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर का जिक्र किया है, जिन्होंने कुछ समय पहले लिखी अपनी किताब ‘इंडियाः फ्रॉम मिडनाइट टू मिलेलियम एंड बियोंड’ में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी पर नकारात्मक टिप्पणियां की थीं। कहा गया है कि अगर इसके बावजूद कांग्रेस उन्हें लोकसभा का टिकट दे सकती है और मंत्री बना सकती है, तो भाजपा जसवंत सिंह को क्यों नहीं बर्दाश्त कर सकती थी? इसका जवाब दोनों पार्टियों के इतिहास और चरित्र छिपा है।
भाजपा कोई सुस्पष्ट और विवेकपूर्ण विचारधारा पर आधारित पार्टी नहीं है। यह पुरातन मान्यताओं, ऐतिहासिक एवं सामाजिक पूर्वाग्रहों और बहुसंख्यक वर्चस्व की प्रवृत्ति से संचालित संघ परिवार का हिस्सा है। इस पूरे परिवार का विमर्श अंध-आस्था, द्रोह भाव और जाने-अनजाने में तैयार की गई झूठी धारणों पर टिका है। इसीलिए भाजपा नेताओं को अल्पकालिक लाभ के लिए कुछ भी कह देने में कोई दिक्कत नहीं होती। ऐसा एक दांव २००५ में लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान खेला, जब उन्होंने न सिर्फ जिन्ना की मज़ार पर जाकर श्रद्धांजलि दी, बल्कि भारत के विभाजन और हिंदुओं के खिलाफ ‘सीधी कार्रवाई’ के इस सूत्रधार को ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने का सर्टिफिकेट भी दे दिया। निगाहें भारत के उदारवादी लोगों और मुसलमानों पर थीं। आडवाणी ने सोचा था कि इस दांव वे अपनी अटल बिहारी वाजपेयी जैसी कथित उदार छवि बना लेंगे और इस तरह प्रधानमंत्री के रूप में अपनी स्वीकार्यता मजबूत कर लेंगे। लेकिन दांव उलटा पड़ा। संघ परिवार में इसके खिलाफ इतनी घोर प्रतिक्रिया हुई कि उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा। बहुत से जानकारों की भी अभी भी यही राय है कि उसके बाद आडवाणी फिर कभी अपना पहले जैसा रुतबा हासिल नहीं कर सके। बहरहाल, उसी संदर्भ में भाजपा ने जिन्ना पर अपनी राय तय की। प्रस्ताव पास कर यह साफ कर दिया कि जिन्ना का महिमामंडन मंजूर नहीं है। जसवंत सिंह उस प्रस्ताव के सहभागी थे।
संघ परिवार और भाजपा की मुश्किल यह है कि स्वतंत्रता आंदोलन में उसके नायक नहीं हैं। वजह साफ है। जब देश की मुख्यधारा अंग्रेजों से आजादी के लिए लड़ रही थी, संघ परिवार हिंदुत्व की अपनी कट्टरपंथी धारणा के प्रचार-प्रसार में लगा था। विनायक सावरकर अपनी वीरता की कहानियों के साथ ऐसा एक नायक हो सकते थे, लेकिन बाद के दिनों में अंग्रजों से सहयोग और महात्मा गांधी की हत्या में अपने कथित हाथ की वजह से उनकी छवि नष्ट हो गई। फिर भी भाजपा ने एनडीए के शासन के दौरान सावरकर की पुर्स्थापना में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन सावरकर की संघ परिवार के बाहर कोई प्रतिष्ठा नहीं है। ऐसे में भाजपा ने सरदार पटेल की एक हकीकत से अलग छवि गढ़ने और खुद को उनकी विरासत में दिखाने की कोशिश की है। जवाहर लाल नेहरू से सरदार पटेल के कई मुद्दों पर मतभेदों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हुए यह छवि गढ़ने की कोशिश की गई है कि पटेल कांग्रेस के भीतर संघ परिवार के प्रवक्ता थे। यह कोरा झूठ है, लेकिन संघ परिवार इस कोशिश में लगातार जुटा रहा है।
उसी सरदार पटेल को जब जसवंत सिंह ने भारत के विभाजन के लिए जिन्ना से ज्यादा जिम्मेदार ठहरा दिया तो इस पर भाजपा नेताओं का भड़कना स्वाभाविक है। सरदार पटेल से नाराजगी की जसवंत सिंह की अपनी वजहें हो सकती हैं। आखिर पटेल की वजह से ही वो देसी रियासतें खत्म हो गईं, जिनमें से एक के जसवंत सिंह वारिस हैं। बहरहाल, यहां गौरतलब यह है कि जसवंत सिंह ने जो कुछ अपनी किताब में कहा है, वह उनकी विचारधारा-विहीन और गढ़ी गई मान्यताओं से चलने वाली (पूर्व) पार्टी की ‘मूलभूत आस्थाओं’ पर प्रहार करता है। इसे भाजपा नहीं सह सकती थी। इस बिंदु पर उसका कदम ना तो गलत है और ना अनपेक्षित।
इस मामले में भाजपा की कांग्रेस से तुलना नहीं हो सकती। कांग्रेस भले आज व्यक्तियों के इर्द-गिर्द ही चलती हो, लेकिन उसके पास सवा सौ साल में विकसित हुई एक विचारधारा है, जो सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रमों पर टिकी है। इसलिए वह अपने अहम व्यक्तित्वों की निंदा करने वालों के साथ भी चल सकती है, लेकिन भाजपा ऐसा नहीं कर सकती।
बहराहल, इस प्रकरण ने जसवंत सिंह जैसे नेताओं की अवसरवादी और अधकचरी बौद्धिकता और भाजपा के विचारधारात्मक खोखलेपन को अगर बेनकाब किया है तो राजनीतिक प्रक्रियाओं और व्यवहार के प्रति कॉरपोरेट मीडिया एवं मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग की नासमझी को भी एक बार फिर उजागर कर दिया है। इससे यह साफ हुआ है कि पिछले साल सोमनाथ चटर्जी के मामले में बेवजह प्रलाप के बाद गुजरी अवधि में इन समूहों का विमर्श थोड़ा भी परिपक्व नहीं हुआ है।
वाम राजनीति के मुश्किल दिन
सत्येंद्र रंजन
भारत में वाम राजनीति आज जितने संकट में है, आजादी के बाद उतना शायद कभी नहीं थी। यह विडंबना ही है कि जब सांप्रदायिक ताकतों के सत्ता में आने का खतरा काफी घट गया है और दशकों के बाद सकारात्मक राजनीति की संभावना बेहतर हुई है, तब वामपंथी पार्टियों के सामने खुद को प्रासंगिक बनाए रखने का सवाल खड़ा हो गया है। यह वो मौका है, जब कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार की नीतियों का वामपंथी विकल्प पेश करने के लिए न सिर्फ अनुकूल स्थितियां है, बल्कि यह एक ऐतिहासिक जरूरत भी है। लेकिन संसद में अपनी बेहद कमजोर उपस्थिति की वजह से वामपंथी दल यह भूमिका निभाने में अक्षम हो गए हैँ। सच्चाई तो यह है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सहयोगी दलों के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती पश्चिम बंगाल में अपना किला बचाने की है। पिछले आम चुनाव में यह किला बुरी तरह हिल चुका है और उसके बाद भी पराभव रुकने के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं।
माकपा के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा आज कई दिशाओं से निशाने पर है। एक तरफ पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का मोर्चा है, तो दूसरी तरफ अल्ट्रा लेफ्ट यानी उग्र वामपंथी ताकतें हैं। अल्ट्रा लेफ्ट में माओवादी, अन्य नक्सली संगठन और एसयूसीएआई जैसी हाशिये पर की पार्टियां प्रमुख हैं। वैचारिक हमला करने के लिए कथित जन आंदोलन और उनके समर्थक बुद्धिजीवी भी हैं। इन सबमें उद्देश्य का एक अद्भुत साझापन बन गया है। यानी उनके अंतिम मकसद चाहे जो हों, फिलहाल माकपा की जड़ें उखाड़ना उनका समान उद्देश्य बना हुआ है।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और कांग्रेस के इर्द-गिर्द पूर्व सामंती ताकतों, बड़े व्यापारियों, मध्य वर्ग और नव धनिक तबकों की हमेशा से गोलबंदी रही है। इन तबकों का लेफ्ट विचारधारा से हितों का सीधा अंतर्विरोध है। भूमि सुधार और पंचायती व्यवस्था से राज्य का जो सामाजिक-राजनीतिक चेहरा बदला, उसका सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं तबकों को हुआ। ताजा परिस्थितियों में प्रति-क्रांति का इन तबकों का मंसूबा नई बुलंदियों पर है। लेकिन अल्ट्रा लेफ्ट की ताकतों के उग्र विरोध की वजहें राजनीतिक से ज्यादा मनोवैज्ञानिक हैं। माकपा ने अपनी नीतियों और उन पर अमल से एक ठोस वोट आधार का निर्माण करते हुए संसदीय राजनीति में हस्तक्षेप की अपनी हैसियत बनाई और कमोबेश इसे अब तक कायम रखा है। यह हैसियत देश में किसी दूसरी वामपंथी पार्टी या संगठन की नहीं है।
राजनीतिक मनोविज्ञान के विशेषज्ञ यह जानते हैं कि ऐसी सफलताएं समान वैचारिक पृष्ठभूमि के संगठनों और कार्यकर्ताओं में कैसा बिरादराना द्रोह और ईर्ष्या का भाव पैदा करती हैं। माओवादी या दूसरे नक्सलवादी संगठन यह जानते हैं कि जब तक माकपा को उसकी मौजूदा हैसियत से बेदखल नहीं किया जाता, वे वामपंथी विरासत और इसकी राजनीतिक भूमि को उससे नहीं हथिया सकेंगे। वैचारिक रूप से बहुत पहले माकपा को संशोधनवादी घोषित कर कम्युनिस्ट शब्दावली में उसकी नैतिक साख को वे अपनी तरफ से खत्म कर चुके हैं। लेकिन राजनीति के व्यापक परिदृश्य पर यह साख अब तक बची हुई है और यही माकपा की प्रासंगिकता है। अब नए हालात में उग्र वामपंथी ताकतों को लगता है कि माकपा की वैचारिक और नैतिक साख के साथ-साथ उसकी सांगठनिक मजबूती एवं राजनीतिक जमीन को नष्ट करने का भी उनके पास बेहतरीन मौका है।
जो मानसिकता अल्ट्रा लेफ्ट की ताकतों की है, वही कमोबेश अपने को जन आंदोलन कहने वाले संगठनों की भी है। अलग-अलग मुद्दों पर देश के अलग-अलग हिस्सों में उभरे इन संगठनों को भी इस नई स्थिति में अपने लिए राजनीतिक प्रासंगिकता बनाने का मौका दिख रहा है। नंदीग्राम और सिंगूर ने इन तीनों तरह की ताकतों को एक मंच पर आने का बहाना मुहैया कराया। लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चे की हार से इनका हौसला बढ़ा और अब वो इस प्रयोग को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं। सबका निशाना अब २०११ में होने वाला पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव है। उस चुनाव ने दो साल पहले से ही एक ऐतिहासिक महत्त्व हासिल कर लिया है। आखिर उस चुनाव से देश में वामपंथ का भविष्य तय होना है।
लोकसभा चुनाव के बाद कमजोर हुई माकपा पर माओवादियों ने हिंसक हमले तेज कर रखे हैं। चूंकि तृणमूल कांग्रेस का मकसद राज्य में स्थिति को बेकाबू दिखाना है, इसलिए वह ऐसी घटनाओं के प्रति दोहरा रुख अपनाते हुए सामने आती है। आम तौर पर माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानने वाली कांग्रेस इसे नजरअंदाज करती है, क्योंकि उसे ममता बनर्जी की जरूरत है, जिनके कंधों पर सवार हो कर वह ३४ साल बाद पश्चिम बंगाल की सत्ता में साझीदार बनने का मंसूबा पाले हुए है। इन सभी दलों की रणनीति और अल्पकालिक कार्यनीति पर गौर करते हुए यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल के लिए अगले दो साल बेहद मुश्किल रहने वाले हैं। इस अवधि में वहां हिंसा और प्रति-हिंसा का दौर शायद तेज होता जाएगा। माकपा विरोधी ताकतों की रणनीति यह भी है कि राज्य की वाम मोर्चा सरकार को प्रशासन के मोर्चे पर कोई ऐसा सुधार या पहल करने का मौका न दिया जाए, जिससे वह अगले दो साल में अपने खोये जनाधार को दोबारा हासिल कर ले।
वाम मोर्चे ने २००९ के चुनाव में पांच साल पहले की तुलना में ७ फीसदी वोट गंवाए। उसके सामने चुनौती यही है कि क्या अगले दो साल में वह इन्हें वापस अपने खेमे में ला सकेगा? कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के साथ आ जाने से वाम मोर्चा विरोधी विरोधी वोटों के बंटवारे का फायदा पाने की उम्मीद नहीं कर सकता। तो वाम मोर्चा सरकार के सामने अब क्या विकल्प हैं? पिछले तीन महीनों में वाम दायरे में हुई चर्चाओं में वाम मोर्चे के समर्थन खोने के पीछे कई वजहों की पहचान की गई है। इनमें सबसे प्रमुख है उद्योग लगाने के लिए किसानों की जमीन के अधिग्रहण की कोशिशें, जिससे कृषक समाज में भय और आक्रोश पैदा हुआ। इसके अलावा राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, सार्वजनिक वितरण प्रणाली आदि जैसी योजनाओं पर अमल में लापरवाही और अल्पसंख्यकों के लिए विशेष उपाय करने में कोताही ऐसे पहलुओं के रूप में सामने आए हैं, जिससे अपने समर्थक आधार में वाम मोर्चा को लेकर मोहभंग जैसी स्थिति पैदा हुई।
जाहिर है, लोकसभा चुनाव में लेफ्ट फ्रंट को लगे झटके का सीधा शिकार पश्चिम बंगाल के औद्योगिकरण की कोशिशें हुई हैं। राज्य में निवेश आमंत्रित करने का वाम मोर्चा सरकार का उत्साह ठंडा हो गया है। वाम बुद्धिजीवियों के बीच इस मुद्दे पर सबसे तीखी बहस चल रही है कि क्या बिना उद्योग लगाए राज्य को विकास के अगले चरण में ले जाया जा सकता है? क्या इसके बिना बढ़ती आबादी के लिए रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकते हैं, और इसके बगैर खेती पर से आबादी का बोझ घटाने के क्या उपाय हो सकते हैं? क्या किसी भी राज्य सरकार के पास इतने संसाधन हैं कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग लगाकर अपनी आबादी की विभिन्न जरूरतें पूरी कर सके? और अगर उद्योग लगने हैं तो जमीन के अधिग्रहण का विकल्प क्या है?
माकपा के हमदर्द बुद्धिजीवी भी यह मानते हैं कि पार्टी इन सवालों का जवाब खोजे बिना मौजूदा संकट से नहीं निकल सकती। मसलन, मशहूर अर्थशास्त्री और मार्क्सवादी विचारक प्रभात पटनायक ने अपने हाल के एक लेख में लिखा है- “लेफ्ट साम्राज्यवाद के अपने प्रतिरोध को आगे नहीं बढ़ा सकता, अगर वह ‘विकास’ के प्रति वैकल्पिक नजरिया नहीं अपनाता है, वैसा नजरिया जो उस नव-उदारवाद से अलग हो, जिसे साम्राज्यवादी एजेंसियां हर जगह आगे बढ़ा रही हैं। .....इस नजरिए की प्रमुख विशेषता लेफ्ट के समर्थक वर्ग आधार के हितों की रक्षा होनी चाहिए। विकास को जनवादी क्रांति को आगे बढ़ाने के संदर्भ में परिभाषित किया जाना चाहिए, एक ऐसी परिघटना के रूप में जो लेफ्ट के समर्थक ‘आधारभूत वर्गों’ की आर्थिक हालत को सुधारने में मददगार हो।”
दरअसल, वाम मोर्चे के तीन दशक के शासन ने कई ऐसी सामाजिक-आर्थिक स्थियां पैदा की हैं, जिनका हल तलाश करना आसान नहीं है। कुछ जानकार मानते हैं कि राज्य में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून (नरेगा) पर अमल में इसलिए ढिलाई बरती गई, क्योंकि भूमि सुधार से गांवों में जो छोटे किसान अस्तित्व में आए, वे नहीं चाहते कि खेतिहर मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत बढ़े। नरेगा खेतिहर मजदूरों की स्थिति मजबूत बनाता है और आम तौर पर इससे न्यूनतम मजदूरी का स्तर बढता है। पश्चिम बंगाल के छोटे किसान वाम मोर्चे की नीतियों से वजूद में आए और उसका समर्थन आधार हैं। बहरहाल, मजदूरों की उपेक्षा ने उन्हें वाम मोर्चे से नाराज कर दिया और वे अल्ट्रा लेफ्ट के खेमे में जा रहे हैं। चुनाव झटका लगने के बाद खबर है कि वाम मोर्चा नरेगा को लागू करने में कुछ ज्यादा ही उत्साह दिखा रहा है। इसका क्या परिणाम होगा, अभी कहना मुश्किल है। इससे खेतिहर मजदूरों में खोया समर्थन आधार एक हद तक वापस आ सकता है, लेकिन इससे छोटे किसान नाराज हुए तो वाम मोर्चे को लेने के देने भी पड़ सकते हैं।
चुनौती सांगठनिक स्तर पर भी है। १९६० के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर १९७७ तक माकपा कार्यकर्ताओं ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और संघर्ष भावना से पार्टी का वह आधार बनाया, जिससे वो सत्ता में आ सकी। लेकिन अब ऐसे कार्यकर्ताओं का अभाव पार्टी में महसूस किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री और मार्क्सवादी विचारक अशोक मित्र ने लिखा है- “सीपीएम एक अभूतपूर्व स्थिति का सामना कर रही है और इस संकट से उबरना है तो उसे अपने सांगठनिक ढांचे और कार्यक्रम संबंधी रणनीति एवं गतिविधियों पर संपूर्ण पुनर्विचार करना होगा। इसके सामने एक कठिनाई यह है कि पश्चिम बंगाल में उसके तीन लाख कार्डधारी सदस्यों में ९० फीसदी ऐसे हैं, जिनका जन्म १९७७ के बाद हुआ। इन लोगों ने सिर्फ अच्छे दिन देखे हैं, जब पार्टी लगातार सत्ता में रही है। दरअसल उनमें से बहुत से लोग सिर्फ इसीलिए पार्टी के साथ हैं कि वह सत्ता में है। अगर वह सत्ता में नहीं रही तो यह प्रजाति कहीं गायब हो जाएगी।”
इन स्थितियों में कई विश्लेषक मानते हैं कि दो साल बाद वाम मोर्चे के सत्ता गंवा देने की वास्तविक आशंका है, क्योंकि जितने विकट सवाल पार्टी के पास हैं उनका हल ढूंढ सकने के लिए पार्टी के पास न तो पर्याप्त समय है, और ना ही इसके लिए वस्तुगत स्थितियां उनके अनकूल हैं। हालांकि अशोक मित्र जैसे विचारकों की राय है कि सत्ता से हटना संभवतः माकपा के लिए अच्छी बात होगी, क्योंकि वह तब अपने क्रांतिकारी जड़ों की तरफ एक बार फिर लौट सकेगी। लेकिन सवाल सिर्फ माकपा का नहीं है। सवाल यह है कि उस हालत में देश में वाम विमर्श क्या मोड़ लेगा? माकपा की आलोचना में अपनी पूरी ताकत झोंक देने वाले अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलन के समर्थक इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं कि पिछले तीन दशक में राष्ट्रीय राजनीति में जन-पक्षीय रुझान जोड़ने में वाम मोर्चे की अहम भूमिका रही है। जब सांप्रदायिक फासीवाद का खतरा बढ़ता जा रहा था, उस समय उसके खिलाफ राजनीतिक गोलबंदी की भूमिका वाम मोर्चे ने ही तैयार की। २००४ के बाद यूपीए सरकार के नव-उदारवादी रुझानों पर लगाम रखने और सरकारी नीतियों में सोशल डेमोक्रेटिक रुझान जोड़ने में वाम मोर्चे ने सर्व-प्रमुख भूमिका निभाई। इससे सांप्रदायिकता के खतरे को फिलहाल हाशिये पर धकेला जा सका है।
वाम मोर्चे के खास योगदान से जो राजनीतिक दिशा तैयार हुई, यूपीए-२ सरकार भी उसी पर चलने का संदेश दे रही है। अब समय सही वामपंथी नीतियों को सामने का है। लेकिन इस मौके पर वाम मोर्चा खुद गहरे संकट में फंस गया है। अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलन के समर्थक इस स्थिति में अपने लिए भले अवसर देख रहे हों, लेकिन अपनी उग्रता, दृष्टिकोण की नकारात्मकता और अपरिपक्वता की वजह से वे अभी वह भूमिका प्राप्त कर सकने में अक्षम हैं, जिसे वाम मोर्चा ने पिछले दशकों में जिम्मेदारी से निभाया है। इसलिए वाम मोर्चे का संकट पूरी वामपंथी राजनीति का संकट है, इस बात को समझा जाना चाहिए। अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलनों की ताकतें इस संकट को बढ़ाने में योगदान कर बेहद नकारात्मक भूमिका निभा रही हैं। इसका परिणाम भारतीय लोकतंत्र को लंबे समय तक भुगतना पड़ सकता है। बहरहाल, अगर वाम मोर्चे ने अपनी नीतियों और कार्यक्रमों में सुधार कर प्रलय के प्रवक्ताओं की भविष्यवाणियां गलत साबित कर दीं और पश्चिम बंगाल का अपना किला बचा लिया, तो वामपंथी राजनीति को न सिर्फ एक नई शक्ति मिलेगी, बल्कि देश के पूरे राजनीतिक विमर्श को भी एक सकारात्मक दिशा मिल सकेगी। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है।
भारत में वाम राजनीति आज जितने संकट में है, आजादी के बाद उतना शायद कभी नहीं थी। यह विडंबना ही है कि जब सांप्रदायिक ताकतों के सत्ता में आने का खतरा काफी घट गया है और दशकों के बाद सकारात्मक राजनीति की संभावना बेहतर हुई है, तब वामपंथी पार्टियों के सामने खुद को प्रासंगिक बनाए रखने का सवाल खड़ा हो गया है। यह वो मौका है, जब कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार की नीतियों का वामपंथी विकल्प पेश करने के लिए न सिर्फ अनुकूल स्थितियां है, बल्कि यह एक ऐतिहासिक जरूरत भी है। लेकिन संसद में अपनी बेहद कमजोर उपस्थिति की वजह से वामपंथी दल यह भूमिका निभाने में अक्षम हो गए हैँ। सच्चाई तो यह है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सहयोगी दलों के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती पश्चिम बंगाल में अपना किला बचाने की है। पिछले आम चुनाव में यह किला बुरी तरह हिल चुका है और उसके बाद भी पराभव रुकने के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं।
माकपा के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा आज कई दिशाओं से निशाने पर है। एक तरफ पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का मोर्चा है, तो दूसरी तरफ अल्ट्रा लेफ्ट यानी उग्र वामपंथी ताकतें हैं। अल्ट्रा लेफ्ट में माओवादी, अन्य नक्सली संगठन और एसयूसीएआई जैसी हाशिये पर की पार्टियां प्रमुख हैं। वैचारिक हमला करने के लिए कथित जन आंदोलन और उनके समर्थक बुद्धिजीवी भी हैं। इन सबमें उद्देश्य का एक अद्भुत साझापन बन गया है। यानी उनके अंतिम मकसद चाहे जो हों, फिलहाल माकपा की जड़ें उखाड़ना उनका समान उद्देश्य बना हुआ है।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और कांग्रेस के इर्द-गिर्द पूर्व सामंती ताकतों, बड़े व्यापारियों, मध्य वर्ग और नव धनिक तबकों की हमेशा से गोलबंदी रही है। इन तबकों का लेफ्ट विचारधारा से हितों का सीधा अंतर्विरोध है। भूमि सुधार और पंचायती व्यवस्था से राज्य का जो सामाजिक-राजनीतिक चेहरा बदला, उसका सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं तबकों को हुआ। ताजा परिस्थितियों में प्रति-क्रांति का इन तबकों का मंसूबा नई बुलंदियों पर है। लेकिन अल्ट्रा लेफ्ट की ताकतों के उग्र विरोध की वजहें राजनीतिक से ज्यादा मनोवैज्ञानिक हैं। माकपा ने अपनी नीतियों और उन पर अमल से एक ठोस वोट आधार का निर्माण करते हुए संसदीय राजनीति में हस्तक्षेप की अपनी हैसियत बनाई और कमोबेश इसे अब तक कायम रखा है। यह हैसियत देश में किसी दूसरी वामपंथी पार्टी या संगठन की नहीं है।
राजनीतिक मनोविज्ञान के विशेषज्ञ यह जानते हैं कि ऐसी सफलताएं समान वैचारिक पृष्ठभूमि के संगठनों और कार्यकर्ताओं में कैसा बिरादराना द्रोह और ईर्ष्या का भाव पैदा करती हैं। माओवादी या दूसरे नक्सलवादी संगठन यह जानते हैं कि जब तक माकपा को उसकी मौजूदा हैसियत से बेदखल नहीं किया जाता, वे वामपंथी विरासत और इसकी राजनीतिक भूमि को उससे नहीं हथिया सकेंगे। वैचारिक रूप से बहुत पहले माकपा को संशोधनवादी घोषित कर कम्युनिस्ट शब्दावली में उसकी नैतिक साख को वे अपनी तरफ से खत्म कर चुके हैं। लेकिन राजनीति के व्यापक परिदृश्य पर यह साख अब तक बची हुई है और यही माकपा की प्रासंगिकता है। अब नए हालात में उग्र वामपंथी ताकतों को लगता है कि माकपा की वैचारिक और नैतिक साख के साथ-साथ उसकी सांगठनिक मजबूती एवं राजनीतिक जमीन को नष्ट करने का भी उनके पास बेहतरीन मौका है।
जो मानसिकता अल्ट्रा लेफ्ट की ताकतों की है, वही कमोबेश अपने को जन आंदोलन कहने वाले संगठनों की भी है। अलग-अलग मुद्दों पर देश के अलग-अलग हिस्सों में उभरे इन संगठनों को भी इस नई स्थिति में अपने लिए राजनीतिक प्रासंगिकता बनाने का मौका दिख रहा है। नंदीग्राम और सिंगूर ने इन तीनों तरह की ताकतों को एक मंच पर आने का बहाना मुहैया कराया। लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चे की हार से इनका हौसला बढ़ा और अब वो इस प्रयोग को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं। सबका निशाना अब २०११ में होने वाला पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव है। उस चुनाव ने दो साल पहले से ही एक ऐतिहासिक महत्त्व हासिल कर लिया है। आखिर उस चुनाव से देश में वामपंथ का भविष्य तय होना है।
लोकसभा चुनाव के बाद कमजोर हुई माकपा पर माओवादियों ने हिंसक हमले तेज कर रखे हैं। चूंकि तृणमूल कांग्रेस का मकसद राज्य में स्थिति को बेकाबू दिखाना है, इसलिए वह ऐसी घटनाओं के प्रति दोहरा रुख अपनाते हुए सामने आती है। आम तौर पर माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानने वाली कांग्रेस इसे नजरअंदाज करती है, क्योंकि उसे ममता बनर्जी की जरूरत है, जिनके कंधों पर सवार हो कर वह ३४ साल बाद पश्चिम बंगाल की सत्ता में साझीदार बनने का मंसूबा पाले हुए है। इन सभी दलों की रणनीति और अल्पकालिक कार्यनीति पर गौर करते हुए यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल के लिए अगले दो साल बेहद मुश्किल रहने वाले हैं। इस अवधि में वहां हिंसा और प्रति-हिंसा का दौर शायद तेज होता जाएगा। माकपा विरोधी ताकतों की रणनीति यह भी है कि राज्य की वाम मोर्चा सरकार को प्रशासन के मोर्चे पर कोई ऐसा सुधार या पहल करने का मौका न दिया जाए, जिससे वह अगले दो साल में अपने खोये जनाधार को दोबारा हासिल कर ले।
वाम मोर्चे ने २००९ के चुनाव में पांच साल पहले की तुलना में ७ फीसदी वोट गंवाए। उसके सामने चुनौती यही है कि क्या अगले दो साल में वह इन्हें वापस अपने खेमे में ला सकेगा? कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के साथ आ जाने से वाम मोर्चा विरोधी विरोधी वोटों के बंटवारे का फायदा पाने की उम्मीद नहीं कर सकता। तो वाम मोर्चा सरकार के सामने अब क्या विकल्प हैं? पिछले तीन महीनों में वाम दायरे में हुई चर्चाओं में वाम मोर्चे के समर्थन खोने के पीछे कई वजहों की पहचान की गई है। इनमें सबसे प्रमुख है उद्योग लगाने के लिए किसानों की जमीन के अधिग्रहण की कोशिशें, जिससे कृषक समाज में भय और आक्रोश पैदा हुआ। इसके अलावा राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, सार्वजनिक वितरण प्रणाली आदि जैसी योजनाओं पर अमल में लापरवाही और अल्पसंख्यकों के लिए विशेष उपाय करने में कोताही ऐसे पहलुओं के रूप में सामने आए हैं, जिससे अपने समर्थक आधार में वाम मोर्चा को लेकर मोहभंग जैसी स्थिति पैदा हुई।
जाहिर है, लोकसभा चुनाव में लेफ्ट फ्रंट को लगे झटके का सीधा शिकार पश्चिम बंगाल के औद्योगिकरण की कोशिशें हुई हैं। राज्य में निवेश आमंत्रित करने का वाम मोर्चा सरकार का उत्साह ठंडा हो गया है। वाम बुद्धिजीवियों के बीच इस मुद्दे पर सबसे तीखी बहस चल रही है कि क्या बिना उद्योग लगाए राज्य को विकास के अगले चरण में ले जाया जा सकता है? क्या इसके बिना बढ़ती आबादी के लिए रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकते हैं, और इसके बगैर खेती पर से आबादी का बोझ घटाने के क्या उपाय हो सकते हैं? क्या किसी भी राज्य सरकार के पास इतने संसाधन हैं कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग लगाकर अपनी आबादी की विभिन्न जरूरतें पूरी कर सके? और अगर उद्योग लगने हैं तो जमीन के अधिग्रहण का विकल्प क्या है?
माकपा के हमदर्द बुद्धिजीवी भी यह मानते हैं कि पार्टी इन सवालों का जवाब खोजे बिना मौजूदा संकट से नहीं निकल सकती। मसलन, मशहूर अर्थशास्त्री और मार्क्सवादी विचारक प्रभात पटनायक ने अपने हाल के एक लेख में लिखा है- “लेफ्ट साम्राज्यवाद के अपने प्रतिरोध को आगे नहीं बढ़ा सकता, अगर वह ‘विकास’ के प्रति वैकल्पिक नजरिया नहीं अपनाता है, वैसा नजरिया जो उस नव-उदारवाद से अलग हो, जिसे साम्राज्यवादी एजेंसियां हर जगह आगे बढ़ा रही हैं। .....इस नजरिए की प्रमुख विशेषता लेफ्ट के समर्थक वर्ग आधार के हितों की रक्षा होनी चाहिए। विकास को जनवादी क्रांति को आगे बढ़ाने के संदर्भ में परिभाषित किया जाना चाहिए, एक ऐसी परिघटना के रूप में जो लेफ्ट के समर्थक ‘आधारभूत वर्गों’ की आर्थिक हालत को सुधारने में मददगार हो।”
दरअसल, वाम मोर्चे के तीन दशक के शासन ने कई ऐसी सामाजिक-आर्थिक स्थियां पैदा की हैं, जिनका हल तलाश करना आसान नहीं है। कुछ जानकार मानते हैं कि राज्य में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून (नरेगा) पर अमल में इसलिए ढिलाई बरती गई, क्योंकि भूमि सुधार से गांवों में जो छोटे किसान अस्तित्व में आए, वे नहीं चाहते कि खेतिहर मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत बढ़े। नरेगा खेतिहर मजदूरों की स्थिति मजबूत बनाता है और आम तौर पर इससे न्यूनतम मजदूरी का स्तर बढता है। पश्चिम बंगाल के छोटे किसान वाम मोर्चे की नीतियों से वजूद में आए और उसका समर्थन आधार हैं। बहरहाल, मजदूरों की उपेक्षा ने उन्हें वाम मोर्चे से नाराज कर दिया और वे अल्ट्रा लेफ्ट के खेमे में जा रहे हैं। चुनाव झटका लगने के बाद खबर है कि वाम मोर्चा नरेगा को लागू करने में कुछ ज्यादा ही उत्साह दिखा रहा है। इसका क्या परिणाम होगा, अभी कहना मुश्किल है। इससे खेतिहर मजदूरों में खोया समर्थन आधार एक हद तक वापस आ सकता है, लेकिन इससे छोटे किसान नाराज हुए तो वाम मोर्चे को लेने के देने भी पड़ सकते हैं।
चुनौती सांगठनिक स्तर पर भी है। १९६० के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर १९७७ तक माकपा कार्यकर्ताओं ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और संघर्ष भावना से पार्टी का वह आधार बनाया, जिससे वो सत्ता में आ सकी। लेकिन अब ऐसे कार्यकर्ताओं का अभाव पार्टी में महसूस किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री और मार्क्सवादी विचारक अशोक मित्र ने लिखा है- “सीपीएम एक अभूतपूर्व स्थिति का सामना कर रही है और इस संकट से उबरना है तो उसे अपने सांगठनिक ढांचे और कार्यक्रम संबंधी रणनीति एवं गतिविधियों पर संपूर्ण पुनर्विचार करना होगा। इसके सामने एक कठिनाई यह है कि पश्चिम बंगाल में उसके तीन लाख कार्डधारी सदस्यों में ९० फीसदी ऐसे हैं, जिनका जन्म १९७७ के बाद हुआ। इन लोगों ने सिर्फ अच्छे दिन देखे हैं, जब पार्टी लगातार सत्ता में रही है। दरअसल उनमें से बहुत से लोग सिर्फ इसीलिए पार्टी के साथ हैं कि वह सत्ता में है। अगर वह सत्ता में नहीं रही तो यह प्रजाति कहीं गायब हो जाएगी।”
इन स्थितियों में कई विश्लेषक मानते हैं कि दो साल बाद वाम मोर्चे के सत्ता गंवा देने की वास्तविक आशंका है, क्योंकि जितने विकट सवाल पार्टी के पास हैं उनका हल ढूंढ सकने के लिए पार्टी के पास न तो पर्याप्त समय है, और ना ही इसके लिए वस्तुगत स्थितियां उनके अनकूल हैं। हालांकि अशोक मित्र जैसे विचारकों की राय है कि सत्ता से हटना संभवतः माकपा के लिए अच्छी बात होगी, क्योंकि वह तब अपने क्रांतिकारी जड़ों की तरफ एक बार फिर लौट सकेगी। लेकिन सवाल सिर्फ माकपा का नहीं है। सवाल यह है कि उस हालत में देश में वाम विमर्श क्या मोड़ लेगा? माकपा की आलोचना में अपनी पूरी ताकत झोंक देने वाले अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलन के समर्थक इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं कि पिछले तीन दशक में राष्ट्रीय राजनीति में जन-पक्षीय रुझान जोड़ने में वाम मोर्चे की अहम भूमिका रही है। जब सांप्रदायिक फासीवाद का खतरा बढ़ता जा रहा था, उस समय उसके खिलाफ राजनीतिक गोलबंदी की भूमिका वाम मोर्चे ने ही तैयार की। २००४ के बाद यूपीए सरकार के नव-उदारवादी रुझानों पर लगाम रखने और सरकारी नीतियों में सोशल डेमोक्रेटिक रुझान जोड़ने में वाम मोर्चे ने सर्व-प्रमुख भूमिका निभाई। इससे सांप्रदायिकता के खतरे को फिलहाल हाशिये पर धकेला जा सका है।
वाम मोर्चे के खास योगदान से जो राजनीतिक दिशा तैयार हुई, यूपीए-२ सरकार भी उसी पर चलने का संदेश दे रही है। अब समय सही वामपंथी नीतियों को सामने का है। लेकिन इस मौके पर वाम मोर्चा खुद गहरे संकट में फंस गया है। अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलन के समर्थक इस स्थिति में अपने लिए भले अवसर देख रहे हों, लेकिन अपनी उग्रता, दृष्टिकोण की नकारात्मकता और अपरिपक्वता की वजह से वे अभी वह भूमिका प्राप्त कर सकने में अक्षम हैं, जिसे वाम मोर्चा ने पिछले दशकों में जिम्मेदारी से निभाया है। इसलिए वाम मोर्चे का संकट पूरी वामपंथी राजनीति का संकट है, इस बात को समझा जाना चाहिए। अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलनों की ताकतें इस संकट को बढ़ाने में योगदान कर बेहद नकारात्मक भूमिका निभा रही हैं। इसका परिणाम भारतीय लोकतंत्र को लंबे समय तक भुगतना पड़ सकता है। बहरहाल, अगर वाम मोर्चे ने अपनी नीतियों और कार्यक्रमों में सुधार कर प्रलय के प्रवक्ताओं की भविष्यवाणियां गलत साबित कर दीं और पश्चिम बंगाल का अपना किला बचा लिया, तो वामपंथी राजनीति को न सिर्फ एक नई शक्ति मिलेगी, बल्कि देश के पूरे राजनीतिक विमर्श को भी एक सकारात्मक दिशा मिल सकेगी। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है।
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