Friday, April 9, 2010

मानवाधिकारों का मुलम्मा क्यों?

सत्येंद्र रंजन


पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स ने छत्तीसगढ़ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के हमले में सीआरपीएफ के ७६ जवानों के मारे जाने पर यह प्रतिक्रिया जताई है- “पीयूडीआर का मानना है कि छह अप्रैल २०१० की सुबह दांतेवाड़ा में ७० जवानों की मौत सरकार की सरकार की ऑपरेशन ग्रीनहंट को आगे बढ़ाने की हठधर्मी नीति का दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम है।..... चूंकि युद्ध भारत सरकार की प्राथमिकता है, इसलिए अगर लड़ाके मारे जाते हैं, तो उसके लिए सरकार ही दोषी है। हम याद दिलाना चाहते हैं कि जब घात लगाकर हमला किया गया तब सुरक्षा बल तीन दिन की कार्रवाई के बाद लौट रहे थे। नागरिक अधिकार संगठन के रूप में हम ना तो सुरक्षा बलों के लड़ाकों की हत्या की निंदा करते हैं और ना माओवादी लड़ाकों की हत्या की या फिर किन्हीं लड़ाकों के मारे जाने की।”

माओवादियों के हमदर्द बुद्धिजीवी और पीपुल्स मार्च पत्रिका के संपादक गोविंदन कुट्टी ने एक अंग्रेजी टीवी चैनल पर यही बात कुछ और ज्यादा असंवेदनशील ढंग से कही। ऑपरेशन ग्रीनहंट का संदर्भ देते हुए कहा कि सुरक्षा बल जंगल में ‘शिकार’ करने गए थे, तो खुद शिकार हो गए। माओवादियों को आतंकवादी कहे जाने पर कड़ा एतराज जताते हुए उन्होंने जोर दिया कि वे ‘क्रांतिकारी’ हैं।

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने सुरक्षा बलों की हत्या की निंदा तो की है, मगर उसके साथ ही यह मांग भी जोड़ दी है- “हम राष्ट्रीय एवं राज्य सरकारों और माओवादियों से अपील करते हैं कि वे फौरन हिंसा का त्याग कर दें और रचनात्मक बातचीत में शामिल हों, ताकि कॉरपोरेट/ सरकार द्वारा भूमि का जबरन अधिग्रहण, विस्थापन, आदिवासी अधिकारों और शासन के अभाव जैसे जनता को प्रभावित करने वाले असली मुद्दों को हल किया जा सके।” बयान का सीधा निहितार्थ यह है कि “जनता को प्रभावित करने वाले असली मुद्दों” में एक पक्ष माओवादी हैं, और इनके समाधान के लिए उनसे बातचीत जरूरी है।

ये सिर्फ कुछ मिसालें हैं, मानव/ जनतांत्रिक/ नागरिक अधिकारों के नाम पर एक खास राजनीति को आवरण और उसे साख प्रदान करने की कोशिश की। बहरहाल, बातचीत के सवाल पर हम बाद में लौटेंगे। पहले एक “नागरिक अधिकार संगठन” के रूप में पीयूडीआर की भूमिका पर एक नज़र डाल लेते हैं। पिछले महीने की ही बात है। एक सुबह अखबारों में पीयूडीआर समेत कई नागरिक अधिकार संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं/ बुद्धिजीवियों के छपे बयान से खबर मिली कि सीपीआई (माओवादी) के प्रवक्ता आजाद का पुलिस ने ‘अपहरण’ कर लिया है। बयान में आशंका जताई गई कि पुलिस आजाद की फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर सकती है और मांग की गई कि उन्हें जल्द से जल्द अदालत में पेश किया जाए। खबर का स्रोत सीपीआई (माओवादी) का आंतरिक संवाद पत्र था। दो दिन बाद एक ऐसे ही पत्र में बताया गया कि पार्टी को गलतफहमी हुई थी। आजाद महाराष्ट्र गए थे, जहां उनसे संपर्क टूट गया, वे सकुशल हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं/ संगठनों ने इस पत्र पर ब्रह्मवाक्य की तरह भरोसा किया। उसकी अपनी तरफ से पुष्टि की कोई कोशिश नहीं की और माओवादी पार्टी की आशंकाओं और मांग को सार्वजनिक बयान में उल्लिखित कर दिया। लेकिन जब आजाद से माओवादी पार्टी का संपर्क कायम हो गया तो खामोश बैठ गए। जब वही पीयूडीआर कहता है कि वह “ना तो सुरक्षा बलों के लड़ाकों की हत्या की निंदा करता है और ना माओवादी लड़ाकों की हत्या की”, तो जाहिर है, उसकी साख पर कई सवाल खड़े हो जाते हैं।

अगर ये संगठन ईमानदारी से इस बात में विश्वास करते हैं कि माओवादी जिस ‘क्रांति’ के लिए लड़ रहे हैं, उसके सफल हुए बिना आम जन के जनतांत्रिक या मानवाधिकारों की सुरक्षा नहीं हो सकती, तो उन्हें यह बात साफ तौर पर और उतनी ही ईमानदारी से कहनी चाहिए। उन्हें इस पर परदा डालने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वे भी उस ‘क्रांतिकारी’ परियोजना का हिस्सा हैं और इसमें अपनी भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन सच होने पर भी ये संगठन ऐसी बात सार्वजनिक रूप से नहीं कहेंगे। क्योंकि उन्होंने अपनी भूमिका मौजूदा व्यवस्था में मिले जनतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए मौजूदा राज्य-व्यवस्था पर नैतिक प्रश्न खड़े करने और इस तरह जंगलों में छापामार युद्ध (या उनके शब्दों में कहें तो जन युद्ध) लड़ रहे ‘क्रांतिकारियों’ की मदद करने की बनाई हुई है।

क्या माओवादियों से बातचीत की वकालत करने वाले बुद्धिजीवी या कार्यकर्ता इस बात से नावाकिफ़ हैं कि खुद माओवादी पार्टी की बातचीत में कोई रुचि नहीं है। इसके लिए हिंसा छोड़़ने की बुनियादी शर्त मानने को वह तैयार नहीं है। कुछ समय पहले उसके प्रवक्ता आजाद ने एक अंग्रेजी पत्रिका यह लिखा था- “माओवादियों से हथियार डाल देने के लिए कहना उन ऐतिहासिक एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के प्रति घोर अज्ञानता को जाहिर करता है, जिनकी वजह से माओवादी आंदोलन का उभार हुआ है।” फिर माओवादियों से पांच साल पहले आंध्र प्रदेश में हुई बातचीत का अनुभव क्या रहा था?

यह सवाल पूछने का यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि सरकार जब वार्ता की बात करती है, तो उसका इरादा ईमानदार होता है। वह भी जनतांत्रिक दायरे में अपनी कार्रवाई की नैतिक साख कायम करने के मकसद से ही यह शिगूफा छोड़ती है। हकीकत यह है कि दोनों पक्षों के मकसद इतने अलग हैं कि बातचीत की बात महज एक छलावा है। यह दबाव के समय में राहत पाने और अगली लड़ाई की तैयारी करने की एक चाल होती है। राजसत्ता पर सशस्त्र कब्जा माओवादियों का लक्ष्य है, जबकि भारतीय राजसत्ता का मौजूदा स्वरूप अपने समाज की वर्ग संरचना से बना है। जाहिर है, मौजूदा राजसत्ता विषमता और शोषण पर आधारित है। लेकिन अगर वस्तुगत नजरिए से देखा जाए तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय राज्य विभिन्न विकासक्रमों से गुजरते हुए आज जिस मुकाम पर है, वह पहले की तुलना में ज्यादा लोकतांत्रिक है या कम से कम इसके उत्तरोत्तर लोकतांत्रिक होने की संभावना है।

बहरहाल, विषमता और शोषण से संघर्ष का अकेला रास्ता वही नहीं है, जिसे माओवादियों ने अपनाया हुआ है। बल्कि समाज के एक बड़े वाम-जनतांत्रिक दायरे की समझ यह है कि माओवादियों के दुस्साहसी और नकारवादी तौर-तरीकों से राजसत्ता को जन संघर्षों को कुचलने का एक नायाब मौका मिल गया है। बहरहाल, यह ऐसा विमर्श है, जिसमें हस्तक्षेप करने वाले हर संगठन एवं व्यक्ति से यह मांग जरूर की जानी चाहिए कि वह इस बुनियादी सवाल पर एक साफ राजनीतिक स्टैंड ले।

मानवाधिकारों की बात, आदिवासियों के प्रति हमदर्दी, सुरक्षा बलों की ज्यादतियों और सरकार की कथित युद्ध प्राथमिकताओं की बात करते हुए साफ राजनीतिक रुख लेने से बचना, असल में एक खास राजनीति को आगे बढ़ाने का उपक्रम बन जाता है, जिस पर अब परदा नहीं डाला जा सकता। माओवादियों ने बीते महीनों में ‘क्रांति’ के अपने अति उत्साह में अंधाधुंध हिंसा का सहारा लेकर वाम जनतांत्रिक जनमत में फूट पैदा कर दी है। इस क्रम में यह रोज ज्यादा से ज्यादा साफ होता गया है कि वे आदिवासियों या हाशिये पर के अन्य वर्गों के कि किन्हीं खास मुद्दों की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं। बल्कि वे इन मुद्दों का इस्तेमाल उस ‘जन युद्ध’ को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं, जिससे वे राजसत्ता पर कब्जा कर सकें।

इस बात को इसी रूप में कहा जाना चाहिए। इस पर मानवाधिकारों का मुल्लम्मा नहीं चढ़ाया जाना चाहिए। ना ही बातचीत का शिगूफा छोड़ कर माओवादियों को जन हितों का अकेला प्रतिनिधि बताया जाना चाहिए। दरअसल, ऐसी कोशिशों में शामिल होकर मानवाधिकार संगठन खुद अपनी साख खत्म कर रहे हैं। वे उस वाम-जनतांत्रिक दायरे में भी अपनी छवि खराब कर रहे हैं, जिसके समर्थन के बिना समाज में कोई सकारात्मक योगदान नहीं कर सकते।

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