सत्येंद्र रंजन
क्या विदेश मंत्री एसएम कृष्णा की 15 जुलाई को होने वाली इस्लामाबाद यात्रा से भारत और पाकिस्तान के बीच फिर से शुरू हुए संवाद को कोई ठोस जमीन मिलेगी? दोनों देशों के बीच शांति की आशा रखने वाले लोग कृष्णा और पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की बातचीत के नतीजों का गहरी दिलचस्पी के साथ इंतजार कर रहे हैं। कृष्णा की इस यात्रा के साथ तकरीबन दो साल लंबे अंतराल के बाद दोनों देशों के बीच राजनीतिक स्तर पर बातचीत शुरू होगी। यह थिंपू में सार्क शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के बीच बनी सहमति का नतीजा है। उस सहमति के बाद दोनों देशों के विदेश सचिवों ने कुछ खाई भरी है। सार्क गृह मंत्रियों की इस्लामाबाद में गृह मंत्री पी चिदंबरम के जाने और वहां पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक के साथ उनकी हुई दो-टूक बातचीत से भी विदेश मंत्री स्तर की वार्ता के लिए अनुकूल माहौल बना है।
अब पाकिस्तान का कहना है कि वह भारत के साथ ‘अबाधित’ वार्ता चाहता है। एसएम कृष्णा की यात्रा के संदर्भ में पाक विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा है- “हमारी अपेक्षाएं ये हैं कि इस मुलाकात के परिणामस्वरूप दोनों देश निरंतर संपर्क बनाए रखें, यह एक ऐसी प्रक्रिया हो जो अबाधित रहे।” पाक प्रवक्ता के मुताबिक अब दोनों देश यह समझ गए हैं कि बातचीत न करने से किसी का फायदा नहीं है। उसने भरोसा जताया कि यह समझ दोनों देशों को उस दिशा में ले जाएगी, जहां एक दूसरे की चिंताओं का वे समाधान कर पाएंगे। जाहिर है, पाकिस्तान चाहता है कि अगर भविष्य कभी भारत पर मुंबई जैसा आतंकवादी हमला हो, तब भी बातचीत की प्रक्रिया चलती रहे।
यह इच्छा अच्छी है और भारत में भी कुछ धुर सांप्रदायिक ताकतों को छोड़ कर बाकी शायद ही किसी की इससे असहमति होगी। लेकिन इसके साथ ही मुश्किल सवाल यह जुड़ा है कि यह बातचीत किस बात पर होगी और किस दिशा में बढ़ेगी? इसकी एक दिशा 2004-05 में मनमोहन-मुशर्रफ सहमति से तैयार हुई थी। उस सहमति में “मुख्य मसले” कश्मीर के हल का फॉर्मूला तैयार किया गया था। उस फॉर्मूले में दोनों देशों की चिंताओं के समाधान के सूत्र थे। मगर जब उस दिशा में ठोस पहल की उम्मीद की जा रही थी, तभी पाकिस्तान में अंदरूनी सियासी उथल-पुथल शुरू हो गई और वह फॉर्मूला कागज पर ही रह गया। जब पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली हुई, तब राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने अपने बयानों से यह उम्मीद बंधाई कि उनकी सरकार जनरल परवेज मुशर्रफ के जमाने में बनी सहमति को आगे बढ़ाएगी। मगर जल्द ही पाकिस्तान की सेना और खुफिया तंत्र के ‘एस्टैबलिशमेंट’ ने अपनी ताकत बताई और जरदारी को उसके आगे घुटने टेकने पड़े। पाक विदेश मंत्रालय ने बकायदा बयान जारी कर कश्मीर मसले के हल और भारत से शांतिपूर्ण रिश्तों के बारे में मुशर्रफ के सिद्धांतों को खारिज कर दिया।
अब पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) के अध्यक्ष मियां नवाज शरीफ ने एक महत्त्वपूर्ण पहल की है। एक पाकिस्तानी टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने दावा किया है कि जनरल मुशर्रफ ने जो भारत से रिश्तों के लिए जिन सिद्धांतों को अपनाया था, वे दरअसल उनके सिद्धांत थे। उनका कहना है कि वे इन सिद्धांतों के आधार पर भारत के साथ संबंधों को नया रूप देना चाहते थे और इसी मकसद से तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को लाहौर यात्रा का न्योता दिया था। लेकिन बात आगे बढ़ती, इसके पहले ही सेनाध्यक्ष जनरल मुशर्रफ ने भितरघात किया और कारगिल की कार्रवाई कर दी। फिर उन्होंने नवाज शरीफ का तख्ता ही पलट दिया। लेकिन सत्ता में एक खास अवधि तक रहने के बाद उन्हें भी यह महसूस हुआ कि भारत के साथ दुश्मनी खुद पाकिस्तान के हित में नहीं है।
नवाज शरीफ ने इंटरव्यू में कहा कि वे भारत के साथ टिकाऊ शांति चाहते हैं। इसके बिना ना तो देश में सेना के ऊपर नागरिक सत्ता की प्रधानता कायम हो सकती है और ना ही पाकिस्तान का आर्थिक विकास हो सकता है। भारत के साथ टकराव जारी रहने से सेना को राष्ट्रीय सुरक्षा का अभिभावक बने रहने का तर्क मिलता है और इसी वजह से देश के वित्तीय संसाधनों का बड़ा हिस्सा भी उसकी झोली में चला जाता है। नवाज शरीफ ने इसके बाद वह बात कही जो भारत-पाक रिश्तों के संदर्भ में सबसे अहम है। उन्होंने कहा कि भारत से संबंध सुधारने के लिए वे कश्मीर मसले को “अलग रखने” को तैयार हैं। याद कीजिए, मुशर्रफ ने भी यही कहा था। उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव अप्रासंगिक हो चुका है और इस मसले का अब ‘आउट ऑफ बॉक्स’ यानी नए ढंग का हल निकालने की जरूरत है।
जानकार कहते हैं कि भारत-पाक संबंधों पर ऐसी पहल करने का इरादा सबसे पहले 1980 के दशक के आखिर में सत्ता में आने के बाद बेनजीर भुट्टो ने दिखाया था। लेकिन सेना और खुफिया तंत्र ने जल्द ही उन्हें भारत को ‘दुश्मन’ मानने के रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर दिया। बाद में उनका तख्ता ही पलट दिया गया। नवाज शरीफ के ताजा बयान में यह संकेत छिपा है कि भारत से संबंध सुधारने की उनकी पहल की वजह से ही उनकी सत्ता गई। मुशर्रफ के पांवों के नीचे से जमीन भी तब खिसकी, जब वे भारत से रिश्ते सुधारने के ‘आउट ऑफ बॉक्स’ फॉर्मूले पर चल रहे थे। भारत के प्रति गर्मजोशी दिखाना जरदारी को महंगा पड़ा। अब ये बातें पाकिस्तानी सत्ता तंत्र से जुड़े रहे महत्त्वपूर्ण लोग ही कह रहे हैं कि भारत से दुश्मनी जारी रखने में वहां के सेना और खुफिया तंत्र का निहित स्वार्थ है। तो इन परिस्थितियों के रहते ‘अबाधित’ वार्ता की आखिर कितनी संभावना है?
मनमोहन-मुशर्रफ सहमति का मूल सिद्धांत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह बयान था कि इस उपमहाद्वीप में अब सीमाएं बदली नहीं जा सकतीं, लेकिन सीमाओं को अप्रासंगिक जरूर बनाया जा सकता है। इस सिद्धांत में कश्मीर मसले का सबको स्वीकार्य हल और भारत एवं पाकिस्तान के बीच शांति, दोस्ती और सहयोग का रिश्ता कायम होने के सूत्र छिपे हैं। लेकिन क्या पाकिस्तान का ‘एस्टैबलिशमेंट’ इस सिद्धांत को स्वीकार करने या वहां के नागरिक नेतृत्व को स्वीकार करने देने को तैयार है? जब तक ऐसा नहीं होगा, ‘अबाधित’ वार्ता महज एक सदिच्छा ही बनी रहेगी। और तब तक भारत के पास पाकिस्तान के संदर्भ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एक अन्य सूत्र- ‘भरोसा मगर जांच परख कर’ को अपनाए रखने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होगा। इसलिए एसएम कृष्णा की यात्रा से ज्यादा उम्मीद रखने की कोई वजह नहीं है। हां, इससे अगर पाकिस्तान के नागरिक समाज में भारत के प्रति कुछ सद्भावना पैदा करने में मदद मिले, तो उसे एक सकारात्मक परिणाम माना जाएगा- क्योंकि आखिरकार उसी से पाकिस्तान में ‘एस्टैबलिशमेंट’ को कमजोर करने का रास्ता निकलेगा, जो दोनों देशों में बेहतर रिश्ते की अनिवार्य शर्त है।
Sunday, July 11, 2010
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nice
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