Saturday, July 10, 2010

अपनी जवाबदेही से कैसे बचेगा संघ?

सत्येंद्र रंजन


राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की चिंताएं गहरी हो रही हैं। हिंदुत्व आंतकवाद की जांच के बढ़ते दायरे के साथ कई बम धमाकों के तार संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं से जुड़ते नजर आने लगे हैं। कुछ अखबारों में छपी खबरों के मुताबिक इससे संघ नेतृत्व बेहद चिंतित है। इतना कि इस मुद्दे पर संगठन नेताओं की एक से ज्यादा बार बैठकें हो चुकी हैं। दो बैठकों में तो भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं को भी शामिल किया गया। संघ के एक बड़े पदाधिकारी ने एक अंग्रेजी अखबार से कहा कि हिंदुत्व आतंकवाद की घटनाओं में अगर संघ के स्वयंसवेकों की भागीदारी साबित हो गई, तो इससे आरएसएस के लिए उससे भी बदतर स्थिति पैदा हो जाएगी, जैसी महात्मा गांधी की हत्या में इसके शामिल होने का आरोप लगने पर हुई थी।

आरएसएस की कोशिश आतंकवाद की घटनाओं से खुद को अलग करने की है। वह दिखाना चाहता है कि अगर संघ से जुड़े कुछ लोग ऐसी घटनाओं में शामिल भी हुए हों, तो यह उनकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी है। संघ की नीति आतंकवाद के रास्ते पर चलने की नहीं है। अखबारी खबरों के मुताबिक दो महीने पहले जब 2007 के अजमेर बम धमाके के सिलसिले में संघ के प्रचारकों देवेंद्र गुप्ता और लोकेश शर्मा की गिरफ्तारी हुई, तो संघ ने उनका बचाव न करने का फैसला किया। इसके विपरीत जांच में ‘पुलिस से सहयोग’ करने का निर्णय लिया गया।

अब खबर है कि 2007 के हैदराबाद के मक्का मस्जिद धमाके के सिलसिले में सीबीआई ने उत्तर प्रदेश में संघ के दो बड़े पदाधिकारियों से पूछताछ की है। ये अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय हैं। अशोक बेरी उत्तर प्रदेश के लगभग आधे इलाके के प्रभारी क्षेत्रीय प्रचारक हैं और संघ की केंद्रीय समिति के भी सदस्य हैं। अशोक वार्ष्णेय कानपुर में रहते हैं और संघ के प्रांत प्रचारक हैं। कानपुर में ही बम बनाने के दौरान विस्फोट हो जाने की घटना हुई थी, जिसमें कई लोग जख्मी हो गए थे।
अजमेर में सूफी दरगाह पर 11 अक्टूबर 2007 को हुए बम धमाकों की जांच में अब लगभग यह साफ हो गया है कि इस हमले को अभिनव भारत नाम के संगठन ने अंजाम दिया था। अभिनव भारत वही संगठन है, जिसका नाम मालेगांव धमाकों में आया था। साध्वी प्रज्ञा सिंह और लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित की उस मामले में गिरफ्तारी हुई थी। महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे जिस दक्षता से उस जांच को आगे बढ़ा रहे थे, उससे हिंदुत्ववादी आतंकवाद का पूरा पर्दाफाश होने की उम्मीद थी। लेकिन इसी बीच वे पाकिस्तानी आतंकवादियों के शिकार हो गए। लेकिन उनकी और उनके बाद हुई जांच का यह परिणाम है कि हिंदुत्ववादी आतंकवाद के फैलते जाल से देश आज बेहतर ढंग से परिचित है।

जांच के मुताबिक हिंदुत्ववादी आतंकवाद की पहली घटना 2003 में महाराष्ट्र के परभणी में हुई थी। 2006 में नांदेड़ में बजरंग दल के दो सदस्य बम बनाते वक्त अपने घर में मारे गए। अब यह माना जाता है कि 2007 में हैदराबाद की मक्का मस्जिद, सितंबर 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव और उसी समय मोडासा में बम धमाकों के पीछे अभिनव भारत संगठन का ही हाथ था। यह संदेह भी है कि समझौता एक्सप्रेस पर भी इसी संगठन ने हमला किया, जिसमें पाकिस्तान जा रहे 68 लोग मारे गए थे, जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे।

जब पहली बार हिंदुत्ववादी आंतकवाद की बात सामने आई तो संघ परिवार के संगठनों ने इसे यूपीए सरकार की साजिश बताया। साध्वी प्रज्ञा सिंह के बचाव में संघ और भाजपा के बड़े नेता उतरे। चर्चाओं में ऐसी दलीलें भी पेश की गईं कि कोई हिंदू आतंकवादी हो ही नहीं सकता है। उसके पहले तक इस्लामी आतंकवाद का ढोल पीटने वाले संघ परिवार के नेता तब यह कहने लगे कि आतंकवाद का किसी धर्म से वास्ता नहीं होता। लेकिन अब कई बम कांडों की जांच जिस दिशा में आगे बढ़ रही है, उससे ऐसी दलीलों से नहीं बचा जा सकता है, यह शायद संघ नेतृत्व की समझ में आ गया है।

लेकिन सवाल यह है कि क्या आतंकवाद की घटनाओं में शामिल लोगों को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहरा कर संघ एक संगठन के रूप में अपनी जिम्मेदारी से बच सकता है? जिम्मेदारी हमेशा इस बात से ही तय नहीं होती कि आप हाथ में बंदूक या बम लेकर निकले या नहीं। जो लोग बंदूक या बम लेकर निकलते हैं, उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित किसने या किस विचार ने किया, यह शायद इस चर्चा का सबसे अहम पहलू है। संघ नेताओं की यह दलील मानी जा सकती है कि किसी धर्म का आतंकवाद से वास्ता नहीं होता। लेकिन इस बात के प्रमाण तो दुनिया भर में बिखरे पड़े हैं कि आतंकवाद का धर्म की सियासत से वास्ता होता है। क्या संघ परिवार इस बात पर परदा डाल सकता है कि ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की आड़ में उसकी पूरी सियासत धर्म और धर्म की बेहद संकीर्ण परिभाषा पर आधारित है?

जो राजनीति या गतिविधियां ऐतिहासिक प्रतिशोध, रूढ़िवादी सामाजिक मूल्यों और वर्चस्ववादी संस्कृति पर आधारित हों, और इन्हीं को स्थापित करने के मकसद से आगे बढ़ाई जा रही हों, हिंसा और अपने चरम रूप में आतंकवाद उनकी स्वाभाविक परिणति होता है। साध्वी प्रज्ञा, लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित, देवेंद्र गुप्ता या लोकेश शर्मा किसी निजी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बम के रास्ते पर नहीं चले। वे उसी विचारधारा की स्थापना के लिए आगे बढ़े, संघ हजारों लोगों को जिसकी घूंट पिलाने में पिछले दशकों के दौरान सफल रहा है। आज अगर वे जांच एजेंसियों के हाथ पड़ गए हैं, तो उनसे नाता तोड़ कर संघ परिवार उन्हें अकेले अपनी रक्षा के लिए तो छोड़ सकता है, लेकिन वह उनके कार्यों की जिम्मेदारी से नहीं बच सकता।

यह भी गौरतलब है कि आतंकवाद हमेशा सिर्फ निजी कार्रवाई नहीं होता। यह सामूहिक और कई मामलों में व्यवस्थागत कार्रवाई भी होता है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस को आतंकवाद की एक सामूहिक कार्रवाई की मिसाल माना जा सकता है। आखिर उस पूरी परियोजना का मकसद ताकत के जोर से एक समुदाय विशेष को उसकी हैसियत बताना और उस जैसे तमाम अल्पसंख्यक समुदायों पर बहुसंख्यक समुदाय के वर्चस्व की स्थापना था। 2002 के गुजरात दंगों को व्यवस्थागत आतंकवाद का नमूना माना जा सकता है। उसका भी वही उद्देश्य था, जो बाबरी मस्जिद ध्वंस के आंदोलन का था। साध्वी प्रज्ञा और उनके साथियों से खुद को अलग करते हुए क्या संघ उन दोनों कार्रवाइयों के ‘नायकों’ से भी संबंध तोड़ने का साहस जुटा सकता है?

जाहिर है, संघ ऐसा नहीं कर सकता। ऐसे में हिंदुत्ववादी आतंकवाद के आरोपियों से नाता तोड़ने की कवायद को सिर्फ अपनी खाल बचाने की उसके जतन के रूप में ही देखा जा सकता है। बहरहाल, संघ को यह सुविधा जरूर है कि उसका नाता देश के बहुसंख्यक समुदाय से है, इसलिए सरकार उस पर उसी फुर्ती से हाथ से नहीं डाल सकती, जैसे वह सिमी या उस तरह के किसी और संगठन पर डालने की स्थिति में होती है। लेकिन जो संघ की सुविधा है, वही आधुनिक भारत के लिए एक बड़े नुकसान का पहलू है। अल्पसंख्यक समूहों का आतंकवाद खतरनाक है, लेकिन बहुसंख्यक समुदाय के किसी संगठन का आतंकवाद सफल हुआ, तो उन तमाम बुनियादों को ही नष्ट कर देगा, जिस पर सर्व-समावेशी और न्याय आधारित भारतीय राष्ट्र का विचार टिका हुआ है। स्पष्ट है, संघ परिवार को इस बात की तो कोई चिंता नहीं होगी, क्योंकि यही तो उसका मकसद है।

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