Tuesday, April 27, 2010

आदिवासी विमर्श के आयाम

सत्येंद्र रंजन

दिवासी आज आधुनिक भारतीय राष्ट्र के सामने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं। ये प्रश्न आज बौद्धिक हलकों को गंभीर विचार मंथन के लिए उद्वेलित किए हुए हैं। निसंदेह एक सीमा तक इसका श्रेय माओवादियों को दिया जाना चाहिए। उन्होंने अपने सशस्त्र संघर्ष से भारतीय राजसत्ता को चुनौती दी है। उनका केंद्रीय आधार भले छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में हो और उनकी सघन गतिविधियों के दायरे में देश के करीब साठ अन्य जिले ही हों, लेकिन वहां जारी हिंसा और प्रति-हिंसा की धमक सारे देश में है। संयोगवश माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में ज्यादातर आदिवासी बहुल इलाके हैं। संयोग से उनमें अधिकांश खनिज संपदा से समृद्ध इलाके हैं। इसलिए बड़ी कंपनियों की उन पर निगाहें हैं, जिनसे आदिवासियों के विस्थापित होने का खतरा है और इससे माओवादियों को अपने संघर्ष को मौजूदा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विमर्श में एक बड़ी ढाल मिल गई है।

इस विमर्श में एक सरकारी और यथास्थितिवादी तबकों का पक्ष है, जिसके मुताबिक माओवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। यह पक्ष कभी यह नहीं कहता कि यह खतरा इसलिए इतना बड़ा हुआ है, क्योंकि आजादी के साठ साल बाद भी सबको न्याय देने का संवैधानिक वादा हमारी वर्तमान व्यवस्था पूरी नहीं कर पाई। दूसरा पक्ष माओवाद समर्थक बुद्धिजीवियों का है, जिनकी राय में माओवादी आदिवासियों को विस्थापन से बचाने और उन्हें बाहरी शोषकों से मुक्ति दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन यह पक्ष कभी इसका जिक्र नहीं करता कि माओवादियों के लिए आदिवासियों के प्रश्न महज कार्यनीतिक (टैक्टिकल) मुद्दे हैं, जो राजसत्ता पर सशस्त्र कब्जे की उनकी व्यापक रणनीति का महज एक पहलू है।

बहरहाल, अभी छिड़ी बहस में आदिवासियों से जुड़े कई ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मुद्दे भी सामने आ रहे हैं। मसलन, मशहूर इतिहासकार रोमिला थापर और अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी के एक संयुक्त लेख की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए- “अतीत के ग्रंथों में जंगल के लोगों, वनवासियों को आम तौर पर ‘अन्य’ के रूप में पेश किया गया है- राक्षस के रूप में- ऐसे लोग जो काले बादलों की तरह और खूनी आंखों के साथ जंगल में विचरण करते थे, जो हर गलत चीज खाते और पीते थे, जिनके यौन संबंधों के गलत नियम थे, जो एक विचित्र प्राणी थे, हो ‘हमसे’ बहुत अलग थे।” इसी लेख में यह बताया गया कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में आदिवासियों को उपद्रवी बताकर उनकी निंदा की गई है, जबकि सम्राट अशोक ने उन लोगों को धमकी दी थी, हालांकि यह नहीं बताया था कि यह धमकी क्यों दी गई।

लेख में आगे कहा गया- “विभिन्न राजवंशों के जंगलों में विस्तार से जो हित जुड़े थे, उसके स्पष्ट कारण हैं। जंगलों से सेना के लिए हाथी मिलते थे, लोहा समेत दूसरी खनिज संपदा वहां थी, मकान के लिए लकड़ी मिलती थी, जंगलों की सफाई से खेती की जमीन में इजाफा होता था और इसके परिणास्वरूप ज्यादा जमीन पर खेती से राजस्व में बढ़ोतरी होती थी। बाद के युगों में, उन स्थितियों में भी जब वनवासियों पर निर्भरता रहती थी, उनके प्रति परंपरागत नजरिया यही था कि ये लोग सामाजिक दायरे से बाहर हैं और उनसे दूर ही रहना है।” यह कहने के बाद रोमिला थापर और अमित भादुड़ी ने सवाल उठाया कि क्या यह तौर-तरीका आज से अलग था?

तो आज क्या हो रहा है? इस विषय में एक महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप ब्रिटिश नृतत्वशास्त्री (एंथ्रोपॉलिजिस्ट) फेलिक्स पैडेल का है। उन्होंने अपनी किताब “सैक्रिफाइसिंग पीपुल- इनवेज़न ऑफ ए ट्राइबल लैंडस्केप” का नया संस्करण पेश कर अभी जारी विमर्श में कुछ खास तथ्य और एक अहम नज़रिया जोड़ा है। इस किताब की भूमिका लिखते हुए ह्यूज ब्रॉडी ने लिखा है कि जब वे मध्य प्रदेश की यात्रा पर गए थे, तो कई मानवीय दृष्टि वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने धीमे स्वरों में उनसे चर्चा की थी कि दूरदराज के गांवों में आदिवासी बच्चों की बलि देते हैं। जबकि जिन मंत्रियों और अर्थशास्त्रियों से वे मिले, उन्होंने बुलंद आवाज में कहा कि कुछ ग्रामीणों को “राष्ट्र के हित में” अपनी बलि देनी होगी।

फेलिक्स पैडेल की यह किताब बलि की इन्हीं दोनों धारणाओं को चर्चा के केंद्र में रखते हुए आगे बढ़ी है। यह जान लेना दिलचस्प होगा कि फेलिक्स पैडेल ने शिक्षा भले ऑक्सफोर्ड से पाई हो, लेकिन पिछले डेढ़ दशक में उनका काफी समय उड़ीसा के आदिवासी इलाकों में बीता है। बल्कि उड़ीसा एक तरह से उनका आधा घर है। वे वेल्स (ब्रिटेन) और उड़ीसा दोनों को अपना निवास बताते हैं। वे भारतीय और पश्चिमी दोनों परंपराओं के संगीत के दक्ष कलाकार हैं। आदिवासियों की बात करते हुए फेलिक्स पैडेल अपनी बात को जितनी बौद्धिक ऊंचाइयों तक ले जाते हैं, उतने ही जोश और आक्रोश के साथ वे उसे अभिव्यक्त भी करते हैं।

“सैक्रिफाइसिंग पीपुल” का विषय उड़ीसा के कोंड आदिवासी हैं। लेकिन यह महज उनका नृतत्वशास्त्रीय या उनके इतिहास का अध्ययन नहीं है। यह कोंड आदिवासियों के माध्यम से ब्रिटिश उपनिवेशवाद, ईसाई मिशनरियों की दुनिया को ‘सभ्य’ बनाने की मुहिम, आधुनिक विकास और इन सबके लिए आदिवासियों से ली गई बलि का एक विस्तृत आख्यान है। फेलिक्स पैडेल ने बात यहां से शुरू की है कि कोंड आदिवासियों में नरबलि की परंपरा कैसे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों और ईसाई मिशनरियों के लिए उन्हें अपने अधीन करने और उनके संसाधनों पर कब्जा जमाने का माध्यम बन गई। इस पूरी कथा को आगे बढ़ाते हुए फेलिक्स पैडेल आज के दौर तक आते हैं और “राष्ट्र के हित” में आदिवासियों से बलि लेने की बात की व्याख्या और वर्णन करते हैं। यह एक विचारोत्तेजक और कई मायने में आंखें खोलने वाला वर्णन है।

लेकिन यह संभवतः ज्यादा विवेकपूर्ण होता, अगर “बलि का विमर्श” एक बलि के अन्यायी एवं क्रूर स्वरूप को सामने लाने के लिए दूसरी बलि को उचित ठहराने की हद तक जाता नहीं दिखता। आदिवासियों से जुड़े विमर्श की यह एक बड़ी विडंबना रही है। उनसे हुए ऐतिहासिक अन्याय की बात करते हुए उनकी परंपराओं और जीवन-शैली के महिमामंडन की एक विचित्र प्रवृत्ति हावी हो जाती है। यहां तक कि दुनिया की सारी समस्याओं का हल आदिवासियों की जीवन-शैली में निहित बता दिया जाता है। उनके अंधविश्वास, उनके देवी-देवता, उनकी सामाजिक रीतियां- विवेक और तर्क की कसौटी पर नहीं कसे जाते और उन्हें कुछ उसी तरह पवित्र मान लिया जाता है, जैसे हिंदू परंपरा में गाय या गंगा को समझा जाता है।

फेलिक्स पैडेल ने अंग्रेजों के इस दावे का जिक्र किया है कि उन्होंने कोंड आदिवासियों में बलि की परंपरा खत्म की। इसके लिए कुछ दस्तावेजों का हलावा दिया है। इसके बाद बलि की धारणाओं पर सवाल उठाए हैं। पहले कहा है कि बलि की धारणा सिर्फ आदिवासियों में नहीं रही। यह हिंदू और ईसाई परंपराओं में भी उसी हद तक रही है। और उसके बाद सभ्यता की यात्रा का जिक्र करते हुए कहा है कि इसमें कोई बहुत बड़ी गड़बड़ी हो गई है। आधुनिक युद्धों, नाजियों द्वारा यहूदियों के सफाये की कोशिश, कंबोडिया, अंगोला और यूगोस्लाविया के नरसंहारों का जिक्र करते हुए कहा है कि इन अत्याचारों को आदिम प्रवृत्तियों का उभार कहा गया। इसके बाद सवाल उठाया है कि हम इन्हें सैकड़ों में वर्षों में विकसित हुए उन सत्ता रूपों की तार्किक परिणति क्यों नहीं कह सकते, जिनका रुझान अमानवीयकरण रहा है, जिससे मानव अस्तित्व के सार-तत्व की बलि ली गई है।

अब इन पंक्तियों पर नजर डालिए- “हम मानव बलि की रीतियों को क्रूर एवं गैर-जरूरी, अंध-विश्वास से प्रेरित हत्याओं के रूप में देख सकते हैं, लेकिन इनमें कम से कम जिस मानव जीवन को लिया जाता है, उसकी पवित्रता की पुष्टि की जाती है। लेकिन बलि की शब्दावली से अलग उपरोक्त आधुनिक किस्म की हिंसा में उस पवित्रता से पूरी तरह इनकार किया जाता है। हिंसा के इसी प्रकार ने बार-बार आदिवासियों को निशाना बनाया है।”

फेलिक्स पैडेल ब्रिटिश हैं और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दिनों में हुए अत्याचार को लेकर कई मौकों पर क्षमाप्रार्थी नज़र आते हैं। वे आधुनिक सभ्यता का हिस्सा हैं और इसके आदिवासी विरोधी स्वरूप पर दोष-भावना से ग्रस्त दिखते हैं। ये दोनों बातें उनकी गहरी संवेदनशीलता एवं प्रायःश्चित भावना को जाहिर करती है। इसीलिए वे जो विमर्श प्रस्तुत करते हैं, वह ईमानदार और इन विषयों में दिलचस्पी रखने वाले हर व्यक्ति के लिए एक जरूरी दस्तावेज बन जाता है। इसके बावजूद जब हम बौद्धिक विमर्श के दायरे में प्रवेश करते हैं, इससे उपजने वाले सवालों की हम अनदेखी नहीं कर सकते।

सवाल यह है कि क्या हर हाल में आदिम प्रवृत्तियों का महिमामंडन और मानवीय मेधा से हासिल तकनीक और ज्ञान आधारित उपलब्धियों की अनिवार्य निंदा विवेक एवं तर्क की कसौटियों पर स्वीकार्य हो सकता है? यह मानना कि आदिवासी जो मानव बलि देते थे, उसमें मानव जीवन की पवित्रता का बोध रहता था- एक संतुलित तार्किक नजरिया है या एक तरह का चरमपंथ है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। अभी हमने हरियाणा में खाप पंचायतों का फैसला देखा है। सगोत्रीय विवाह उन इलाकों की परंपरा में पाप है और अब ये पंचायतें चाहती हैं कि इसे कानूनी मान्यता मिले। क्या पारिवारिक इज्जत की उनकी दलीलों को इस आधार पर मान्यता दी जानी चाहिए कि आखिर देश और राष्ट्र की इज्जत के नाम पर अनगिनत युद्ध लडेक गए हैं, जिनमें हजारों लोग मारे गए हैं तो आखिर अगर कुछ युवक-युवतियों की वे हत्या कर देते हैं, तो यह आज की सभ्यता के मूल्यों से ज्यादा अमानवीय नहीं है।

अक्सर यह देखने में आता है कि आदिवासी समाजों से आने वाले नेता और बुद्धिजीवी (अगर वे एनजीओ के मकड़जाल में नहीं हैं तो) आधुनिक विकास के प्रति वैसा द्रोह भाव नहीं रहते, जैसा आदिवासियों के बीच काम करने वाले मध्य वर्ग से आने वाले अन्य कार्यकर्ता रखते हैं। मसलन, आप रामदयाल मुंडा को लें। झारखंड में उन्हें आदिवासी हितों का प्रवक्ता माना जाता है। आदिवासियों को बिजली और आधुनिक जीवन शैली की सुविधाएं मिलें, इसके वे समर्थक हैं। यहां तक कि वे नदियों को जोड़ने की योजना को भी सही मानते हैं। जाहिर है, आदिवासी प्रश्नों को वे प्रगतिशील संदर्भों में देखते हैं। मगर मध्य वर्ग से आए ऐसे बहुत से कार्यकर्ता मिलेते हैं, जो आदिवासियों को उनके ‘प्राकृतिक परिवास’ में सीमित रखने की वकालत पूरी आस्था से करते दिखेंगे।

समाजशास्त्री अमिता बावीसकर खुद आदिवासियों के बीच सक्रिय रही हैं। कुछ साल पहले उन्होंने दृष्टिकोणों के इस अंतर्विरोध के बारे में एक महत्त्वपूर्ण शोध-पत्र लिखा था। उनकी इन बातों पर ध्यान दीजिए- “कार्यकर्ताओं द्वारा टिकाऊ (ससटेनेबल) विकास के लिए आदिवासी समूहों को संगठित करने की पूरी कोशिश के बावजूद यह यूटोपिया हमेशा की तरह दूर ही रहा है। जबकि जहां भी मध्य-वर्गीय कार्यकर्ताओं का हस्तक्षेप नहीं रहा है, आदिवासियों के दावे ने बिल्कुल अलग दिशा पकड़ी है। यह दिशा एक तरह की अल्पसंख्यक अस्मिता की राजनीति की रही है, जिसका टिकाऊ विकास के सिद्धांतों के बारे में अस्पष्ट रुख रहा है। इसकी वजह क्या है? (हमारी) दलील है कि कार्यकर्ता और आदिवासी नेता समाज परिवर्तन के जिन सिद्धांतों को लेकर चलते हैं, ग्रामीण लोगों एवं पर्यावरण के बीच संबंध के बारे में उनकी शुरुआत अलग-अलग परिप्रेक्ष्यों से होती है।”

फेलिक्स पैडेल ने आदिवासियों के बीच काफी समय गुजारा है। वे एक प्रतिभाशाली नृतत्वशास्त्री हैं, इसलिए संभवतः इस बात को चुनौती नहीं दी जा सकती कि वे कोंड आदिवासियों के इतिहास और वर्तमान को गहराई से समझते हैं। लेकिन मुश्किल तब होती है, जब यह विमर्श राजनीतिक संदर्भ लेता है। इसमें संभवतः वही अंतर्विरोध और समस्याएं खड़ी हो जाती हैं, जिनकी व्याख्या अमिता बावीसकर ने की है। साफ है, आदिवासियों से इतिहास में हुए अन्याय को समझना और उसके निराकरण की राजनीति को बल देना एक बात है, लेकिन उस विमर्श को भावनात्मक और रोमांटिक बना देना बिल्कुल दूसरी बात है। रोमिला थापर और फेलिक्स पैडेल जैसे विद्वानों का हस्तक्षेप पहले मकसद में सहायक होता है।

लेकिन इसका दूसरा परिणाम चरमपंथी नजरिए एवं उग्रवादी राजनीति को वैधता देने की तरफ जाता है और इससे सतर्क रहने की जरूरत है। हाल की घटनाओं के क्रम में फेलिक्स पैडेल ऐसी सतर्कता से दूर जाते दिखे हैं, तो इसकी जड़ें संभवतः उनके पूरे वैचारिक रुझान में छिपी है। लेकिन उसे देश की हर जनतांत्रिक शक्ति स्वीकार नहीं कर सकती। आदिवासी विमर्श को आज ज्यादा ठोस और तार्किक रूप देने की जरूरत है।

Tuesday, April 20, 2010

यह क्रिकेट तो कतई नहीं है

सत्येंद्र रंजन

शि थरूर गए। उन्हें जाना ही चाहिए था। थरूर ने अपने मंत्री पद के प्रभाव का इस्तेमाल इंडियन प्रीमियर लीग में कोच्चि की टीम रेंडवू नामक ग्रुप को दिलवाने में किया किया। इसके बदले रेंडवू ने उनकी दोस्त सुनंदा पुष्कर को ७५ करोड़ रुपए की ‘स्वीट इक्विटी’ यानी पुरस्कार स्वरूप शेयर दिए। यह बात तकनीकी रूप से भले घूस के दायरे में न आती हो, लेकिन वास्तविक अर्थ में इसे रिश्वत ही माना जाएगा। गौरतलब है कि थरूर और सुनंदा के जल्द ही शादी करने की चर्चा है। बहरहाल, यह मामला यह खुलासा भी कर गया है कि फ्रेंचाइजी कंपनियों ने पाक-साफ ढंग से आईपीएल की टीमें नहीं हासिल की हैं। इसके पीछे सत्ता के दुरुपयोग और बड़े पैसे का खेल रहा है।

कहा जा रहा है कि शशि थरूर ने अपने प्रभाव के इस्तेमाल से रेंडवू को कोच्चि की टीम दिलवा दी और इस तरह आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी की अडानी और वीडियोकॉन ग्रुपों को अहमदाबाद की टीम देने की मंशा नकाम हो गई। मोदी ने इसका बदला रेंडवू के शेयरधारियों का खुलासा ट्विटर पर अपने संदेश से कर दिया। इस तरह सुनंदा पुष्कर का नाम सामने आ गया और मोदी ने थरूर से बदला ले लिया। इस पर मोदी जरूर खुश होंगे।

लेकिन इस क्रम में आईपीएल के भीतर चल रहा सारा गड़बड़झाला भी सार्वजनिक चर्चा में आ गया है। इसके पहले कि आगे बढ़ें, इन बातों पर गौर कीजिए- “.... बीसीसीआई (पदाधिकारियों) के मालिकों के रूप में (आईपीएल) टीमों में सीधे हित जुड़े हुए हैं, इन लोगों का इसमें (आईपीएल) में सीधा लाभ है और यह एक खतरनाक बात है।.... जो लोग सबके लिए, खेल के सभी पहलुओं के बारे में खेल एवं देश के हित में और दीर्घकाल के लिए नियम बनाते हैं, उन्हें वैसे भी आईपीएल में शामिल होने से अलग रहना चाहिए।”

सोचिए, यह किसका बयान है। यह बयान है देश के खेल मंत्री एमएस गिल का। और ये बातें थरूर-मोदी विवाद सामने आने से काफी पहले कही गईं। इन बातों का मतलब समझने के लिए इस पर गौर कीजिए कि ललित मोदी आईपीएल के अध्यक्ष और कमिश्नर हैं और वे भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के उपाध्यक्ष भी हैं। एन श्रीनिवासन बीसीसीआई के सचिव हैं और इंडिया सीमेंट्स के बड़े पदाधिकारी भी हैं। इंडिया सीमेंट्स कंपनी आईपीएल की टीम चेन्नई सुपर किंग्स की मालिक है। के श्रीकांत भारतीय टीम के मुख्य चयनकर्ता हैं और वे चेन्नई की टीम के एबेंसडर भी हैं।

जब खेल मंत्री ने यह बयान दिया था, उस वक्त यह मालूम नहीं था कि आईपीएल की दो टीमों -राजस्थान रॉयल्स और किंग्स इलेवन पंजाब– में ललित मोदी के दो निकट रिश्तेदारों की हिस्सेदारी है। उस वक्त यह इल्जाम भी सामने नहीं आया था कि मोदी ने टीमों की बिडिंग प्रक्रिया के दौरान गोपनीय जानकारियां अपने लोगों को दीं, जिससे उन्होंने निविदा में आए दामों से थोड़ी ज्यादा रकम का दांव लगा दिया और टीम पाने में सफल हो गए। तब यह भी मालूम नहीं था कि मोदी के एक रिश्तेदार कंपनी को आईपीएल के मोबाइल अधिकार बेचे गए।

लेकिन कोई इस भ्रम में ना रहे कि शशि थरूर इन्हीं बातों से परेशान थे, इसलिए उन्होंने मोदी से लोहा लिया। नहीं, थरूर ने मोदी से कोई लोहा नहीं लिया। बल्कि एक दौर में मोदी से उनकी खूब छनती थी। अब सरसरी तौर पर जो बातें सामने आई हैं, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि दोनों के बीच इस बात पर ठनी कि रेंडवू को टीम मिले या नहीं। मोदी नहीं चाहते थे, थरूर यह करवाने में सफल हो गए। सुनंदा पुष्कर को पुरस्कार दिलवाना इसके पीछे उनकी कितनी बड़ी प्रेरणा थी, कुछ ठोस ढंग से नहीं कहा जा सकता। लेकिन ऐसा करने के बदले सुनंदा को पुरस्कार मिला, यह साफ है।

अब इस भ्रम में भी रहने की जरूरत नहीं है कि इतना बड़ा गड़बड़झाला साफ हो जाने के बाद देश की व्यवस्था आईपीएल को दुरुस्त बनाने और बीसीसीआई को संदेहों के दायरे से बाहर लाने में लग जाएगी। गौर कीजिए कि जिस वक्त मीडिया में ललित मोदी द्वारा नियम-कायदों के उल्लंघन की खबरें जोरदार ढंग से छप रही हैं, उसी वक्त एक टीवी चैनल पर आकर केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने उनका बचाव किया। पवार कुछ समय पहले तक बीसीसीआई के अध्यक्ष थे और जल्द ही अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) के अध्यक्ष बनने वाले हैं। बीसीसीआई के मौजूदा अध्यक्ष शशांक मनोहर उनके ही आदमी माने जाते हैं। बीसीसीआई में नेताओं की मौजूदगी देखनी हो, तो इस सूची में केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला और सीपी जोशी से लेकर राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला और राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव तक नजर आएंगे। कई नेताओं के रिश्तेदार वहां मौजूद हैं। उद्योगपतियों के लोग वहां हैं। और पिछले तीन साल में आईपीएल के साथ देश के क्रिकेट से बॉलीवुड का ग्लैमर भी जुड़ा है।

इसलिए खेल मंत्री एमएस गिल संभवतः विवेक की ऐसी आवाज हैं, जो नक्कारखाने में तूती की तरह है। जहां देश के कई ताकतवर नेता, सबसे बड़े उद्योगपति एवं निवेशक, सबसे सफल फिल्म स्टार और तमाम क्रिकेटर एक पक्ष में हों, वहां सही-गलत की चेतावनी कौन सुनेगा? यह ठीक है कि आज थरूर-मोदी विवाद से उछले कीचड़ की वजह से ललित मोदी का धन एवं सफलता के दर्प से चमकता चेहरा धूमिल हो गया है। यह भी सच है कि कल तक जिस आईपीएल को क्रिकेट की नई लोकप्रियता और क्रिकेट के कारोबार में कामयाबी का प्रतीक माना जा रहा था, वह आयोजन आज संदेह के गहरे घेरे में है। इसके बावजूद आय कर विभाग द्वारा शुरू की गई कार्रवाई जांच के दायरे को व्यापक करते हुए किसी तार्किक परिणाम तक जाएगी, ऐसा सोचना उम्मीद के खिलाफ जैसे उम्मीद करने जैसा है।

बहरहाल, आशंकाओं का दायरा इतना बड़ा है कि अब मेनस्ट्रीम मीडिया में भी इस आयोजन की तुलना अमेरिकन बेसबॉल के ब्लैक सॉक्स घोटाले से की जा रही है। एक दौर में उस टूर्नामेंट में काले धन, अंडरवर्ल्ड, सट्टेबाजों, और मैच फिक्सिंग करने वाले खिलाड़ियों का ऐसा जमावड़ा हो गया था कि उसकी सफाई के लिए प्रशासन को कड़े कदम उठाने पड़े। क्रिकेट में कुछ ऐसा ही नज़ारा १९८० के दशक में शारजाह में देखने को मिला, जहां अब्दुल रहमान बुखातिर ने दाऊद इब्राहिम समेत दूसरे अंडरवर्ल्ड डॉन्स, फिल्मी सितारों, सट्टेबाजों और मैच फिक्सिंग का ऐसा तालमेल रचा, जिससे क्रिकेट की पूरी दुनिया कलंकित हो गई। उस दौर में केसी सिंह संयुक्त अरब अमीरात में भारत के राजदूत थे। थरूर-मोदी का ताजा विवाद उभरने के बाद उन्होंने एक टीवी चैलन पर कहा कि उस दौर में जो शारजाह में हो रहा था, वह अब उससे भी बड़े स्तर पर आईपीएल में देखने को मिल रहा है।

इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि समस्या कितनी गंभीर है। ललित मोदी ने कोच्चि टीम में निवेश के स्वरूप को बेनकाब किया, तो दूसरी टीमों के मालिकाने पर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं। मोदी पर आरोप लगा है कि टीमों के लिए बिडिंग (निविदा) के दौरान वे गोपनीय सूचनाएं लीक करते रहे हैं और कोच्चि की टीम मैदान से हट जाए, इसके लिए उन्होंने सवा दो अरब रुपए घूस देने की पेशकश की थी। टीमों में निवेश के लिए धन कैसे जुटाया गया, इस पर इससे भी गंभीर सवाल हैं। क्या मॉरीशस रूट से पैसा लाकर मनी लॉन्ड्रिंग (काले धन को गैर कानूनी रूप से सफेद करना) के मकसद से उनका कई टीमों में निवेश हुआ है? अगर ऐसा हुआ है तो जाहिर है कि पैसा लगाने वालों का उद्देश्य क्रिकेट की सेवा या खेल से लगाव नहीं, बल्कि अपने काले कारोबार को आगे बढ़ाना ही होगा।

शशि थरूर से सुनंदा पुष्कर का नाम जुड़ा है, तो यह संगीन सवाल भी सामने है कि दक्षिण अफ्रीका की मॉडल गैब्रियला दिमित्रिए़दस के साथ आखिर ललित मोदी के क्या संबंध रहे हैं? आखिर मोदी क्यों चाहते थे कि ग्रैबियला भारत ना आए? ग्रैब्रियला को वीजा न मिले इसके लिए वो थरूर के दफ्तर को भेजे गए उनके ई-मेल उजागर हो चुके हैं। क्या ये बातें यह बयान नहीं करतीं कि आईपीएल हर तरह के भ्रष्ट आचरण, मर्यादा की अनदेखी और संभवतः कानून के उल्लंघन का भी अखाड़ा बना हुआ है?

सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है, इसके संकेत तो लगातार मिल रहे थे। मगर आईपीएल की सफलता का मीडिया में महिमामंडन इस कदर होता रहा है कि सामने दिख रही गड़बड़ियों पर सवाल उठाना अभी तक मुश्किल लगता था। मसलन, आईपीएल के मैच शबाब के डांस और शराब में डूबे धनाढ्य दर्शकों के साथ नाइट क्लब जैसा नजारा पेश करते हैं। एसएमएस से खेले जाने वाले कई खेल बिल्कुल जुआ हैं और ये आईपीएल मैचों में कसिनों का अंदाज जोड़ते रहे हैं। मगर इन सबको एक साथ जोड़ कर आईपीएल द्वारा पेश की जा रही संस्कृति पर किसी हलके से सवाल नहीं पूछे गए।
तेज म्यूजिक, चीयर गर्ल्स के डांस और आतिशबाजियों की चमक एवं शोर के बीच इस बात पर कौन ध्यान देता कि इन सबके बीच क्रिकेट के साथ क्या हो रहा है? बीच-बीच में कभी सौरव गांगुली, तो कभी शेन वॉर्न यह कहते रहे हैं कि चौकों और छक्कों को आसान बनाने के लिए बाउंड्री लगातार छोटी की जा रही है। कभी हरभजन सिंह यह शिकायत जताते रहे कि क्रिकेट के इस नए रूप में गेंदबाज बलि का बकरा बन गए हैं, जिन्हें रोज कटना ही होता है। मदमत्त दर्शक ऊंचे छक्कों पर उछलते हैं, इसलिए छक्के खूब लगें, इसे सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। मैचों के बीच में खिलाड़ियों से कमेंटेटर्स की बातचीत का उनकी एकाग्रता और इस लिहाज से खेल पर क्या असर हो सकता है या अंपायर से बातचीत के बीच कोई उनका अहम फैसला प्रभावित हो सकता है, इस पर भी सोचने की फुर्सत किसी को नहीं रही है।
क्रिकेट गेंद और बल्ले के बीच मुकाबले का खेल है। प्रतिस्पर्धा बराबरी की हो, तभी इस खेल का असली आनंद है। लेकिन आईपीएल में गेंदबाजी को जैसे अप्रसांगिक ही कर देने की कोशिश देखने को मिल रही है। क्रिकेट से लगाव रखने वाले लोग दुनिया भर में इससे चिंतित हैं, मगर आईपीएल के शोर-शराबे में उनकी बात कौन सुनता है?

एक बार फिर खेल मंत्री गिल के बयान की तरफ लौटते हैं। गिल तब आरोप लगाया था कि आईपीएल में नियम बदले जा रहे हैं और मनोरंजन के नाम पर खेल की स्थितियों को बल्लेबाजों के मुताबिक ढाला जा रहा है, जिससे खेल में गेंदबाजों की भूमिका घट रही है। उन्होंने कहा- “गेंदबाज सिर्फ शिकार है और और बल्लेबाजों के लिए अब म़ॉन्गूज बैट है.. मैं कोबरा बैट का इंतजार कर रहा हूं। मैंने सुना है कि बाउंड्रीज छोटी कर दी गई हैं। यह सब लोगों के मनोरंजन के लिए किया जा रहा है। गेंदबाज इस प्रोमोशन में सिर्फ एक हथकंडा बनकर रह गए हैं।” गिल ने कहा- “पांच दिन के टेस्ट मैचों के लिए चुनौती पैदा हो गई है, आप देखते हैं कि उन्हें देखने को कोई नहीं आता। यहां तक कि ५० ओवरों के मैच को भी घटाकर २० ओवरों का कर दिया गया है। कभी-कभी मैं मजाक में कहता हूं कि टी-५ या टी-१ खेलो या फिर आधे ओवर में मैच निपटा दो।”

गिल की इन बातों में हजारों क्रिकेट प्रेमियों का दर्द है। जब ये क्रिकेट प्रेमी नए खेल के कर्ता-धर्ताओं के खेल की समझ पर नजर डालते हैं तो तरस खाने के अलावा उनके पास और कुछ करने को नहीं होता। मसलन, खिलाड़ियों की लगाई गई कीमतों पर ध्यान दीजिए। जब ईशांत शर्मा ग्लेन मैक्ग्रा से महंगे बिकें या काइरन पोलार्ड को रिकी पॉन्टिंग या राहुल द्रविड़ से ज्यादा पैसे मिलें, तो समझा जा सकता है कि आईपीएल में प्रतिभा, खेल की गहराई और उपलब्धियों की कितनी अहमियत है। मगर ये सवाल कौन पूछे? धनी-मानी निवेशकों, प्रचार के भूखे एवं अपनों को फायदे पहुंचाने पर आमादा राजनेताओं, मोदी मार्का क्रिकेट प्रशासकों और प्रायोजकों ने एक ऐसा आभामंडल बुन रखा है, जिसमें बनावटी चीज असली से भी ज्यादा ठोस दिख सकती है।

यह ठीक है कि आईपीएल ने अपना नया बाजार बनाया है। उसने क्रिकेट के दर्शक बनाए हैं। इनके बूते पर आईपीएल मैचों को अपेक्षाकृत ऊंची टीआरपी मिल रही है। इससे प्रसारक टीवी चैनल को ऊंची दरों पर विज्ञापन मिल रहे हैं। साथ ही विज्ञापन का पैसा इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट समाचार माध्यमों में भी बह रहा है। यानी जिनके बड़े दांव हैं, उन सबको फायदा है।

तो सूरत आखिर कैसे बदलेगी? जैसाकि हमने ऊपर देखा है, इस गोरखधंधे के चलते रहने में बड़े-बड़े रसूखदार लोगों के हित हैं। खिलाड़ियों को भी इस धंधे की वजह से उतना पैसा मिल रहा है, जो पहले वे सपने में भी नहीं सोच सकते थे। खिलाड़ियों को पैसा मिले, यह अच्छी बात है। आखिर उनकी ही प्रतिभा से तो यह पूरा धंधा चल रहा है। लेकिन समस्या तब होती है, जब खेल से पैसा मिलने के बजाय खिलाड़ी पैसे के लिए ही खेलने लगते हैं। इसका तार्किक परिणाम सट्टेबाजों के शिकंजे और मैच फिक्सिंग के रूप में सामने आता है, ऐसा कई खेलों का इतिहास हमें बताता है। क्या खेल और दर्शकों के साथ ऐसे विश्वासघात की आशंका को कोई आज बेबुनियाद बता सकता है?

क्रिकेट का यह आईपीएल दौर खिलाड़ियों के नजरिए को कैसे बदल रहा है, इस समझने के लिए हमें राहुल द्रविड़ जैसे दिग्गजों की राय पर गौर करना चाहिए। द्रविड़ एक थिंकिंग (सोचने-समझने वाले) क्रिकेटर माने जाते रहे हैं। कुछ समय पहले क्रिकइन्फो डॉट कॉम की एक चर्चा में उन्होंने कहा कि सुरेश रैना और रोहित शर्मा जैसे आज के प्रतिभाशाली खिलाड़ियों में टेस्ट खेलने की वैसी बेताबी नज़र नहीं आती, जैसी उनकी (द्रविड़ की) पीढ़ी के खिलाड़ियों में होती थी। द्रविड़ ने कहा कि फिर भी वे इन खिलाड़ियों को लेकर चिंतित नहीं हैं, जिनके सामने सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, वीरेंद्र सहवाग जैसे रोल मॉडल्स थे। द्रविड़ की इस सूची में खुद उनका, अनिल कुंबले और वीवीए लक्ष्मण का नाम भी जोड़ा जा सकता है। बहरहाल, द्रविड़ ने भविष्य की पीढ़ी को लेकर गहरी चिंता जताई, जिसके सामने ये रोल मॉडल्स नहीं होंगे। उनके सामने वैसे रोल मॉडल्स होंगे, जिन्हें टेस्ट क्रिकेट अहम नहीं लगता, क्योंकि उनके लिए क्रिकेट खेलने का मतलब तुरत-फुरत में पैसा कमाना है।

पैसे के इस खेल में क्रिकेट को साढ़े तीन घंटे की फिल्म के फॉर्मेट में ढाल दिया गया है। हर शॉट के परिमाण की झलक आप प्रिटी जिंटा, शिल्पा शेट्टी, या शाहरुख खान के चेहरे पर देखते हैं। उनके साथ अर्धनग्न नाचती चीयरगर्ल्स हैं। यानी पूरा मनोरंजन! मनोरंजन के इस कारोबार ने नए दर्शक बनाए हैं। इस कथित क्रिकेट का एक नया बाजार बनाया है। वैसे लोगों का जिन्हें क्रिकेट की बारीकियां बोरिंग लगती हैं, लेकिन धन-दौलत एवं सेक्सी चेहरों का ग्लैमर क्रिेकट लगता है।
भारत में क्रिकेट की गहरी जड़ें रही हैं। इसका आधार औपनिवेशिक समाज की कसौटियों के मुताबिक सभ्रांत होने की दबी-छिपी आकांक्षाओं में छिपा रहा है। १९८३ में विश्व कप में जीत के बाद इस खेल ने लोकप्रियता की जैसे हदें तोड़ दीं। ललित मोदी का नया फॉर्मेट इसी लोकप्रियता को आज भुना रहा है और इसमें नए तत्व जोड़ कर उनकी मार्केटिंग कर रहा है। लेकिन इसमें जो चीज शिकार हो गई है, वह है क्रिकेट और उसकी भावना।

बहरहाल, सरकार अगर अब भी जागे तो क्रिकेट और इसकी भावना को बचाया जा सकता है। ललित मोदी एवं बीसीसीआई के खिलाफ आयकर विभाग की शुरू हुई कार्रवाई सही दिशा में है। लेकिन सवाल यह है कि क्या अंजाम तक पहुंचेगी? सवाल यह भी है कि सरकार आखिर आयकर विभाग के साथ-साथ सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय आदि जैसी एजेंसियों से इस पूरे प्रकरण की जांच क्यों नहीं कराती, ताकि जिस खेल को देश के करोड़ों लोग मजहब का दर्जा देते हैं, उसकी पवित्रता बहाल की जा सके?

ये सब कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनका संबंध क्रिकेट और क्रिकेट प्रेमियों से है, और देश के कानून से भी। इसीलिए इस वक्त बड़ी चिंता की बात यह है कि कहीं यह सारा विवाद थरूर बनाम मोदी बनकर न रह जाए। अगर ऐसा हुआ तो क्रिकेट में लग रहे घुन की सफाई का एक बड़ा मौका हाथ से निकल जाएगा।

जब क्रिकेट इंग्लैंड के सभ्रांत वर्ग का खेल था, तब अंग्रेजी का यह मुहावरा बना कि इट्स नॉट क्रिकेट। यानी यह क्रिकेट नहीं है। यह मुहावरा आम जिंदगी में तब बोला जाता है, जब कोई स्थापित मर्यादा या शिष्ट शैली का आचरण नहीं करता। इसलिए कि क्रिकेट में ये ही दो बातें - मर्यादा और शिष्टता- सर्वोपरि रही हैं। क्रिकेट कभी विश्वव्यापी खेल नहीं रहा। लेकिन अमेरिका और बहुत से देशों में जहां लोग इस खेल को नहीं जानते थे, वहां भी अंग्रेजी भाषी लोग इस मुहावरे का इस्तेमाल करते थे। यह क्रिकेट की महिमा थी। वह महिमा आज खतरे में है। आज हम बेशक और बेहिचक यह कह सकते हैं कि जो हो रहा है, वह क्रिकेट नहीं है।

Friday, April 9, 2010

मानवाधिकारों का मुलम्मा क्यों?

सत्येंद्र रंजन


पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स ने छत्तीसगढ़ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के हमले में सीआरपीएफ के ७६ जवानों के मारे जाने पर यह प्रतिक्रिया जताई है- “पीयूडीआर का मानना है कि छह अप्रैल २०१० की सुबह दांतेवाड़ा में ७० जवानों की मौत सरकार की सरकार की ऑपरेशन ग्रीनहंट को आगे बढ़ाने की हठधर्मी नीति का दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम है।..... चूंकि युद्ध भारत सरकार की प्राथमिकता है, इसलिए अगर लड़ाके मारे जाते हैं, तो उसके लिए सरकार ही दोषी है। हम याद दिलाना चाहते हैं कि जब घात लगाकर हमला किया गया तब सुरक्षा बल तीन दिन की कार्रवाई के बाद लौट रहे थे। नागरिक अधिकार संगठन के रूप में हम ना तो सुरक्षा बलों के लड़ाकों की हत्या की निंदा करते हैं और ना माओवादी लड़ाकों की हत्या की या फिर किन्हीं लड़ाकों के मारे जाने की।”

माओवादियों के हमदर्द बुद्धिजीवी और पीपुल्स मार्च पत्रिका के संपादक गोविंदन कुट्टी ने एक अंग्रेजी टीवी चैनल पर यही बात कुछ और ज्यादा असंवेदनशील ढंग से कही। ऑपरेशन ग्रीनहंट का संदर्भ देते हुए कहा कि सुरक्षा बल जंगल में ‘शिकार’ करने गए थे, तो खुद शिकार हो गए। माओवादियों को आतंकवादी कहे जाने पर कड़ा एतराज जताते हुए उन्होंने जोर दिया कि वे ‘क्रांतिकारी’ हैं।

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने सुरक्षा बलों की हत्या की निंदा तो की है, मगर उसके साथ ही यह मांग भी जोड़ दी है- “हम राष्ट्रीय एवं राज्य सरकारों और माओवादियों से अपील करते हैं कि वे फौरन हिंसा का त्याग कर दें और रचनात्मक बातचीत में शामिल हों, ताकि कॉरपोरेट/ सरकार द्वारा भूमि का जबरन अधिग्रहण, विस्थापन, आदिवासी अधिकारों और शासन के अभाव जैसे जनता को प्रभावित करने वाले असली मुद्दों को हल किया जा सके।” बयान का सीधा निहितार्थ यह है कि “जनता को प्रभावित करने वाले असली मुद्दों” में एक पक्ष माओवादी हैं, और इनके समाधान के लिए उनसे बातचीत जरूरी है।

ये सिर्फ कुछ मिसालें हैं, मानव/ जनतांत्रिक/ नागरिक अधिकारों के नाम पर एक खास राजनीति को आवरण और उसे साख प्रदान करने की कोशिश की। बहरहाल, बातचीत के सवाल पर हम बाद में लौटेंगे। पहले एक “नागरिक अधिकार संगठन” के रूप में पीयूडीआर की भूमिका पर एक नज़र डाल लेते हैं। पिछले महीने की ही बात है। एक सुबह अखबारों में पीयूडीआर समेत कई नागरिक अधिकार संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं/ बुद्धिजीवियों के छपे बयान से खबर मिली कि सीपीआई (माओवादी) के प्रवक्ता आजाद का पुलिस ने ‘अपहरण’ कर लिया है। बयान में आशंका जताई गई कि पुलिस आजाद की फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर सकती है और मांग की गई कि उन्हें जल्द से जल्द अदालत में पेश किया जाए। खबर का स्रोत सीपीआई (माओवादी) का आंतरिक संवाद पत्र था। दो दिन बाद एक ऐसे ही पत्र में बताया गया कि पार्टी को गलतफहमी हुई थी। आजाद महाराष्ट्र गए थे, जहां उनसे संपर्क टूट गया, वे सकुशल हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं/ संगठनों ने इस पत्र पर ब्रह्मवाक्य की तरह भरोसा किया। उसकी अपनी तरफ से पुष्टि की कोई कोशिश नहीं की और माओवादी पार्टी की आशंकाओं और मांग को सार्वजनिक बयान में उल्लिखित कर दिया। लेकिन जब आजाद से माओवादी पार्टी का संपर्क कायम हो गया तो खामोश बैठ गए। जब वही पीयूडीआर कहता है कि वह “ना तो सुरक्षा बलों के लड़ाकों की हत्या की निंदा करता है और ना माओवादी लड़ाकों की हत्या की”, तो जाहिर है, उसकी साख पर कई सवाल खड़े हो जाते हैं।

अगर ये संगठन ईमानदारी से इस बात में विश्वास करते हैं कि माओवादी जिस ‘क्रांति’ के लिए लड़ रहे हैं, उसके सफल हुए बिना आम जन के जनतांत्रिक या मानवाधिकारों की सुरक्षा नहीं हो सकती, तो उन्हें यह बात साफ तौर पर और उतनी ही ईमानदारी से कहनी चाहिए। उन्हें इस पर परदा डालने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वे भी उस ‘क्रांतिकारी’ परियोजना का हिस्सा हैं और इसमें अपनी भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन सच होने पर भी ये संगठन ऐसी बात सार्वजनिक रूप से नहीं कहेंगे। क्योंकि उन्होंने अपनी भूमिका मौजूदा व्यवस्था में मिले जनतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए मौजूदा राज्य-व्यवस्था पर नैतिक प्रश्न खड़े करने और इस तरह जंगलों में छापामार युद्ध (या उनके शब्दों में कहें तो जन युद्ध) लड़ रहे ‘क्रांतिकारियों’ की मदद करने की बनाई हुई है।

क्या माओवादियों से बातचीत की वकालत करने वाले बुद्धिजीवी या कार्यकर्ता इस बात से नावाकिफ़ हैं कि खुद माओवादी पार्टी की बातचीत में कोई रुचि नहीं है। इसके लिए हिंसा छोड़़ने की बुनियादी शर्त मानने को वह तैयार नहीं है। कुछ समय पहले उसके प्रवक्ता आजाद ने एक अंग्रेजी पत्रिका यह लिखा था- “माओवादियों से हथियार डाल देने के लिए कहना उन ऐतिहासिक एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के प्रति घोर अज्ञानता को जाहिर करता है, जिनकी वजह से माओवादी आंदोलन का उभार हुआ है।” फिर माओवादियों से पांच साल पहले आंध्र प्रदेश में हुई बातचीत का अनुभव क्या रहा था?

यह सवाल पूछने का यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि सरकार जब वार्ता की बात करती है, तो उसका इरादा ईमानदार होता है। वह भी जनतांत्रिक दायरे में अपनी कार्रवाई की नैतिक साख कायम करने के मकसद से ही यह शिगूफा छोड़ती है। हकीकत यह है कि दोनों पक्षों के मकसद इतने अलग हैं कि बातचीत की बात महज एक छलावा है। यह दबाव के समय में राहत पाने और अगली लड़ाई की तैयारी करने की एक चाल होती है। राजसत्ता पर सशस्त्र कब्जा माओवादियों का लक्ष्य है, जबकि भारतीय राजसत्ता का मौजूदा स्वरूप अपने समाज की वर्ग संरचना से बना है। जाहिर है, मौजूदा राजसत्ता विषमता और शोषण पर आधारित है। लेकिन अगर वस्तुगत नजरिए से देखा जाए तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय राज्य विभिन्न विकासक्रमों से गुजरते हुए आज जिस मुकाम पर है, वह पहले की तुलना में ज्यादा लोकतांत्रिक है या कम से कम इसके उत्तरोत्तर लोकतांत्रिक होने की संभावना है।

बहरहाल, विषमता और शोषण से संघर्ष का अकेला रास्ता वही नहीं है, जिसे माओवादियों ने अपनाया हुआ है। बल्कि समाज के एक बड़े वाम-जनतांत्रिक दायरे की समझ यह है कि माओवादियों के दुस्साहसी और नकारवादी तौर-तरीकों से राजसत्ता को जन संघर्षों को कुचलने का एक नायाब मौका मिल गया है। बहरहाल, यह ऐसा विमर्श है, जिसमें हस्तक्षेप करने वाले हर संगठन एवं व्यक्ति से यह मांग जरूर की जानी चाहिए कि वह इस बुनियादी सवाल पर एक साफ राजनीतिक स्टैंड ले।

मानवाधिकारों की बात, आदिवासियों के प्रति हमदर्दी, सुरक्षा बलों की ज्यादतियों और सरकार की कथित युद्ध प्राथमिकताओं की बात करते हुए साफ राजनीतिक रुख लेने से बचना, असल में एक खास राजनीति को आगे बढ़ाने का उपक्रम बन जाता है, जिस पर अब परदा नहीं डाला जा सकता। माओवादियों ने बीते महीनों में ‘क्रांति’ के अपने अति उत्साह में अंधाधुंध हिंसा का सहारा लेकर वाम जनतांत्रिक जनमत में फूट पैदा कर दी है। इस क्रम में यह रोज ज्यादा से ज्यादा साफ होता गया है कि वे आदिवासियों या हाशिये पर के अन्य वर्गों के कि किन्हीं खास मुद्दों की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं। बल्कि वे इन मुद्दों का इस्तेमाल उस ‘जन युद्ध’ को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं, जिससे वे राजसत्ता पर कब्जा कर सकें।

इस बात को इसी रूप में कहा जाना चाहिए। इस पर मानवाधिकारों का मुल्लम्मा नहीं चढ़ाया जाना चाहिए। ना ही बातचीत का शिगूफा छोड़ कर माओवादियों को जन हितों का अकेला प्रतिनिधि बताया जाना चाहिए। दरअसल, ऐसी कोशिशों में शामिल होकर मानवाधिकार संगठन खुद अपनी साख खत्म कर रहे हैं। वे उस वाम-जनतांत्रिक दायरे में भी अपनी छवि खराब कर रहे हैं, जिसके समर्थन के बिना समाज में कोई सकारात्मक योगदान नहीं कर सकते।

Wednesday, April 7, 2010

Who creates War Hysteria?

By Satyendra Ranjan


The Sino-Indian relationship came under severe strain in the second half of 2009. There was a very strange aspect in this whole episode. The governments of the both countries were not fueling the tension or were not behind the war hysteria that was seen in Indian mainstream media. It was being fuelled from somewhere else. Apparently it was a war that was being fought by media of both countries. But there was something that may have missed from the eyes of the common people. Before we try to go into the depth of real intentions of war mongers and unearth some of the inherent facts, first we must look into what happened and how the knowledgeable analysts saw those developments.

Mr. B Raman is Additional Secretary (retd), Cabinet Secretariat, Govt. of India, and, presently, Director, Institute for Topical Studies, Chennai. He is also associated with the Chennai Centre for China Studies as well. On September 8, 2009, he wrote for a website, “A dangerous hysteria has taken hold of India-China relations since the anti-Beijing uprising in Lhasa in March last year. This hysteria is not due to any actions or rhetoric by the two Governments, which have been conducting themselves in a balanced and restrained manner. They have been trying to preserve and expand the gains in bilateral relations since the famous visit of Rajiv Gandhi to China in 1988. They have been sincerely trying to adhere to the bilateral agreement on maintaining peace and tranquillity till a final solution is reached to the border dispute between the two countries. This hysteria has been the creation of some sections of the non-governmental strategic communities in the two countries.”

Mr. M. K. Bhadrakumar, a former diplomat, writing in India’s most reliable and prestigious news paper- The Hindu, raised a very important question. He asked- Who stands to gain from war hysteria? And he answered, “What is abundantly clear is that neither India nor China stands to gain from the war hysteria that has been whipped up through the recent months over the relations between the two countries.” He continued, “Yet, on any single day, sections of our corporate media -- print as well as electronic -- are replete with stories that resonate with the sound of distant war drums.

Then, if India and China are not going to gain from the war drums, who was providing forged facts, baseless issues and a sense of hyper patriotism to the journalists? Mr. Bhadrakumar has some clues. Let’s see this- “True, the media cannot be held solely culpable for such irresponsible conduct. In a way, their panache for atavistic themes and Manichean doctrines is quite understandable. Alas, they live in an ephemeral world and their repertoire of survival techniques includes various sorts of gimmickry to attract viewership. However, organisations funded by the government and headed by ex-bureaucrats who held sensitive positions in the government have also joined the fray in building up the present hysteria. One government-owned think-tank even featured in its journal an article recently by Arun Shourie as the lead contributor, who of course duly cast China in an “enemy” image. Again, retired officers of the Indian armed forces who are associated with “think-tanks” funded by the services are visible too in the media enthusiastically piloting the current campaign.”

Though, these experts only indicated towards some vested interests, they refrained from naming someone. But Mr. Prakash Karat, the general secretary of the Communist party of India (Marxist) was more forthcoming. He wrote in the CPI-M’s official organ People's Democracy, that, “"The rightwing circles in the country have been prompt to pick up the theme of a threat from China. All this is being orchestrated to demand greater defence preparedness against China with the unstated requirement being deeper strategic and military ties with the US." He said, "The top ranking commanders of the US armed forces who regularly visit India, unfailingly point to the military threat posed by China. Within India, the lobbies that want the strategic alliance with the US to be cemented are precisely those who seek to thwart the potential of India-China cooperation,"

And, it’s not a new development. Way back in 2004, when rightwing National Democratic alliance (NDA) was in power and after initial hiccups, it began to warm towards China, defence minister Mr. George Fernandes had a successful visit to China. It created a flutter among the right wing sections of society. The Asia Times Online columnist Sultan Shahin noted at time, “ India's China policy of growing rapprochement is, however, not without its critics. Much of the criticism comes from a determined pro-US lobby which wants India to remain firmly in the American camp, regardless of how it is treated by the sole superpower. This lobby would want India to be a part of US policy of containing China”.

Sultan Shahin gave an example of Mohan Malik,who was professor at the Asia-Pacific Centre for Security Studies in Honolulu at that time. Shahin introduced him as “one of those strategic thinkers who is most comfortable with a US-dominated unipolar world and see the emerging scene in Asia as that of unremitting India-China rivalry.” And then he quoted from a two-part article of Malik, in published Force, a defence affairs magazine from New Delhi. In this article Mohan Malik wrote, "Notwithstanding India's desire to remain an independent power, which sometimes results in India's taking policy decisions contrary to the US (eg on Iraq), India prefers a US-led unipolar world to a China-dominated Asia - but ultimately seeks a multi-polar world with itself as a constituent pole."


Mohan went on: "India - much like Japan, Vietnam and Australia - is unlikely to accept Chinese hegemony for historical, cultural, civilizational and more importantly, geopolitical and geo-economic reasons. These countries were never part of the Sinic world order and would prefer a US-led Asia-Pacific for the simple geopolitical reality that the United States is a distant superpower while China is right on their doorstep. Security concerns regarding a rising China have already prompted New Delhi to cultivate Washington, seeing the US military presence as a factor of stability in Asia ... in addition to establishing strategic ties with the US, India's evolving Asia policy reflects a desire to build an arc of strategic partnerships with 'China-wary' Asian countries that would neutralize continuing Chinese military assistance and activity around India."

This is not an isolated view. This view has a following base in the country. And it has a background of gaining acceptability. The French newspaper published an article by Frédéric Bobin on January 26, 2008, on the occasion of the Republic Day of India. It titled, ‘India between China and the U.S.’ The article analysised this base and this background. It said, “At the end of the 1990’s, American strategists recognized the importance of a rapprochement with India. Beyond its democratic ethos and the lure of its economic potential, India shares with Washington its concerns about Islamist terrorism and the rising power of China.

An indicator of the United States’ good intentions was their less than rigorous condemnation of New Delhi’s series of nuclear tests, which had thrown a pall over its international relations in 1998. Better still, in 2006 the Americans signed a civil nuclear cooperation agreement with India, an exceptional gesture since India is not a signatory of the Nuclear Non-Proliferation treaty (NPT). Of course, the interests of these two countries are far from converging on all issues.”

Bobin said, “The day after September 11, 2001, Washington was forced to pander to its historical propinquity with Pakistan, defined as the crucial front line in the war against terrorism, which played out in Afghanistan and its environs.
India, for its part, cultivated a very friendly relationship with the generous oil supplier, Iran, a step that drew some disapproving scowls from the White House. All the same, these respective centrifugal forces did not impede the reconciliation that was in progress.”

The article went on, “The pro-American lobby gaining the greater influence in New Delhi largely engineered this denouement. Free Market economy gave birth to a middle class, which, though nationalist, wanted to divest itself of the old moons of the Nehru-Gandhi era, characterized by the twin markers of support for the Third World and anti-Americanism. The Indian Diaspora in the United States played an active role in promoting the ideological opening up to modernity. India’s trepidations over the Chinese push further consolidated the process. It is not a coincidence that the Hindu nationalists of Bharatiya Janata Party (BJP), in power in 1998, expressly declared China to be among the "threats" which justified their nuclear tests. The mixture of "American temptation" and wariness of Beijing remains acute in India, where the memory of the humiliating defeat of 1962 war is still alive. The disputed border deep in the Himalayas, where the two giants meet, still remains unregulated. Furthermore, India keeps a suspicious eye trained upon China’s diplomatic, military and economic activity in India’s backyard (Pakistan, Burma, Bangladesh, Nepal, Sri-Lanka).”

This sums up the very base vested interests and corporate media tries to exploit. Now we can see how things went to that stage where many people began to think that war was round the corner. All began with a news report that said that China wants to dismember India into many parts, so it never could become a challenge to China. This ‘strategy’ was said to be discussed in a Chinese think tank and its report was published on its website. Indian media presented it as China’s official strategy, though Chinese as well as Indian governments clarified immediately that it was just a private think tank which had propagated that idea. But media was bent upon playing up this so called news.

And after that media kept the war theme alive. As the 60th anniversary of establishment of people’s democratic republic of China was coming nearer, media was busy in searching or fabricating the issues, that could be sold to their clients. As we have seen above boundary dispute is a permanent source of tension between both countries. The anti-China lobbies and corporate media often take advantage of that. One news item that created most sensation was of killing of two Indo-Tibet Border Police (ITBP) soldiers by the Chinese forces. It was told that this happened in Arunachal Pradesh. The newspaper that published it claims to be largest English newspaper of world. But it did not even try to find out the names of the ‘dead’ soldiers. Later on it came to light that the whole news story was untrue. Government of India was obviously very perturbed with these developments and at least in regard of this incident it took a serious step. A case of misinformation was filed against the newspaper and concerned reporters.

In spite of that media has been inventing stories of Chinese incursions into Indian territories. The moot question is what the intention of media is and who are forces behind this trend? To understand this we again quote Mr B. Raman. He wrote, “The post-March 2008 hysteria in the bilateral relations has not been the creation of the two Governments. It has been the outcome of a new activism with regard to each other in the non-governmental strategic communities of the two countries. Sections of the Indian strategic community saw in the Lhasa uprising an opportunity to change the status quo in Tibet by playing the Tibet card against China through helping the Tibetans in securing their legitimate rights from the Han Chinese. By changing the status quo in Tibet—-not militarily which is out of question, but politically by backing the Tibetan people’s efforts to change the status quo themselves— India might be able to change the status quo in the Western sector and preserve the status quo in the Eastern sector. So these analysts believed and started advocating vigorously a policy of playing the Tibet card against China.

Mr. Raman said, “The activism in the Chinese non-governmental strategic community is partly the result of what they see as the Indian activism on Tibet and partly the result of the Indian activism in Arunachal Pradesh for consolidating the status quo. They want their Government to be more assertive in playing the Arunachal Pradesh card and to take advantage of the difficulties faced by India in the North-East to counter any attempt by India to play the Tibet card. This hysteria has resulted in a campaign of mutual demonization and mutual sabre-rattling. This sabre-rattling is only at the non-Governmental level. The two Governments have maintained a distance from this hysteria without trying to discourage it.”

For more elaboration we may now turn to M.K. Bhadrakumar. He described it in length. Let us listen through his own words, “Broadly speaking, three categories of Indian opinion-makers are raising the war hysteria over India’s relations with China. First, it isn’t difficult at all to spot old familiar faces in the foreign and security policy circuit who push the case with great sophistication and aplomb that a growing Chinese menace leaves India with no alternative but to calibrate its foreign policy and edge ever closer to the United States. They are intelligent people, suave and articulate, who held important positions in the government in various capacities in India and abroad. Naturally, their assertion that India should play the “Tibet card” against China carries weight. They will insist they are hardened “realists” but it must be extreme naivety on their part -- or plain dissimulation -- to say China can be pressured over Tibet. They are far too experienced to know that if China reciprocates by playing various sundry “cards,” the game can turn quite rowdyish. See the amount of dust created by just one Chinese article recently about “balkanising” India, written in response to dozens penned in the past two-year period since unrest broke out in Tibet by our fundamentalists fancying a break-up of China into nice little pieces.

Second, an easily identifiable ebullient crowd of retired defence officers presents a one-dimensional case that the civilian leadership is underestimating the Chinese threat and the armed forces should be provided far greater financial and material resources to meet the threat. All militaries have corporate interests and a case needs to be built for earmarking 7 per cent of India’s GDP for the defence budget. The tussle for resources between butter and guns is an ancient one. But, on the other hand, the Indian public opinion has never questioned the country’s defence budget as excessive. The only disquieting aspect is the manifest passion on the part of a growing lot within the military to canvass for weaponry sourced from America.

But then, American arms manufacturers have a way of charming their potential clients.
Third, of course, there are the ubiquitous right-wing Hindu nationalists, the self-appointed custodians of national security, for whom China is the hurdle to India’s emergence as a superpower. They genuinely lack the intellectual wherewithal to comprehend that the time for “superpower-dom” is gone with the wind in world politics. But their doublespeak puzzles. China concluded a memorandum of understanding with the RSS last year and senior RSS figures were hosted by Beijing. It must, therefore, be concluded that they are grandstanding to score a point or two against the ruling party.

These cliques coordinate in their untiring campaign on China’s evil intentions. Indeed, they would have us believe that a war is round the corner and there isn’t much time for preparing Indian defence capabilities.” We do not find many sane voices like Mr. Bhadarakumar and Mr. Raman being aired in mainstream Indian media. Why? To understand this we may have to understand the structure and class base of media here. Over the years Indian media has come under tight grip of corporate sector.

The capitalist class has its own agenda that it tries to impose upon the people through its control over the media. After liberalization and globalization policy was adopted by the government of India, foreign capital was allowed to invest into media houses to a certain limit. This radically changed the character of the most of newspapers and TV channels as representatives of foreign (read, western) investors began to influence the policies and decisions of media houses. Naturally, foreign capital brought its interests and orientations with itself and it began to be reflected in media’s presentation of events and general news.

However, acceptability and presentation of western interests as our owns is not a totally new phenomenon that came with FDI in mainstream media. Even in earlier days media was more and less pro-capital and against anti-capitalist ideologies. The communism has always been on their target. For this very reason a bias against erstwhile USSR and communist bloc as well as China was always visible.

Another factor that contributed to this trend was aggressive public relation exercise of the U.S. lobbies. It has been a general trend that many journalists of mainstream media are given fellowships or invitations to visit the western countries and there they are provided all types of comforts. Simultaneously they take part in discussions and debate organised by sponsoring organisations. The whole package is designed and meant to brain wash the visiting fellows. And usually it happens. The journalists on their return begin to see the world through western lenses.

Now a days the Indian upper and middle classes have a strange dilemma regarding China. On the one hand they look Chinese progress and development, specially its glittering cities and flyways with astonishment, but they as they see the portraits of Marx, Lenin and Mao with it, their biases and fears come out of them. And these are the people who control and run the media. Therefore, the hysteria we are talking about is the expression of the latent feelings and wishes of the Indian elite classes.

And as we have seen in the writings of Mr. Raman and Mr. Bhadrakumar, there are many easily available security and external affairs ‘experts’ to provide and feed the media with their interpretations and analysis of the events. They have talked about the origin of these experts. But one important actor of this whole drama is still out of our discourse. And this is the NGO sector. But before go into them, we first look into the Tibet question, that has been a permanent source of tension between India and China.

Dr. Subramanian Swamy is an economist, a former Cabinet Minister of India and a long-time China expert. Let’s see how he looks the Tibet issue. He wrote in year 2000, “Thus, the status of Tibet, and India's perception of it, has been one of the destabilising factors in Sino-Indian relations. Publicly, the Indian government regards Tibet as an integral part of China. But in popular parlance and in many of its actions, it does not behave as if Tibet is a part of China. For example, the Indian government raised in the 1980s a highly paid special service unit, a 8,000-strong commando group of Tibetans, who woke up every morning in the special camps with cries of "Long liv e the Dalai Lama. We shall liberate Tibet". This commando group is still under the active supervision of the Research and Analysis Wing (RAW) and the Cabinet Secretariat. If India regards Tibet as part of China, then why is there a need to maintain such a special group? Why not instead a regular Army unit with contingency plans? The government has never answered this query of mine.

The treatment extended to the Dalai Lama also reveals this ambivalence in India's attitude towards Tibet. The government says that India has only extended asylum to the Dalai Lama, because his life would be in danger if he returns to Tibet. But the Bureau of the Dalai Lama is quite active in New Delhi propagating the thesis that Tibet is an independent country.” (Frontline issue 2-15, September, 2000.)

Though certain things have changed since then, but many have not. In recent years government of India has tried its best to develop a relationship of friendship and partnership with China. It has re-emphasized many times that Tibet is the integral part of China. But in case of Dalai Lama and his exiled followers it has been vacillating as we saw recently when Dalai Lama was allowed to visit Arunachal Pradesh in spite of strong protest from government of China.

Some analysts believe that history of Sino-Indian relationship of last 50-60 years, growing close relationship with the U.S., and a strong pressure group of NGOs are some factors those discourage any major revision in the Tibet or Dalai Lama policy of government of India. The NGOs or Non-Governmental Organizations are now one of the most organised and influential group in many countries and India is one among them. As we know there many types of NGOs. Some work in developmental sector and they are mainly dependent on public of government funds. But many NGOs work as advocacy groups and they have political agenda with them. It’s a matter to note that often they don’t set their agenda themselves, but they just work under the overall agenda set by their funding agencies. And developed world has a number of such agencies who fund to the NGOs of the developing world and get their agenda implemented through them.

How? Let us get some idea from the words of a knowledgeable person who has tried to understand the NGO business. Mr. Peter Kuria is a resource ecologist of Kenya. He has worked in many African countries like Zimbabwe, South Africa and, Botswana on the issues of people’s rights over natural resources. He has also experience of working with the indigenous people of Costa-Rica in South America and environment department of U.K. In recent years he has been in Finland and is closely associated with the ongoing discourse on climate change. In August-September 2009 he visited India, before leaving from this country he gave an interview to me. I am quoting relevant parts of that interview here:

• It seems you have serious objection to NGOisaion of people’s movements. Why you are opposed to NGOs?

- I am not against NGOs. I am against their operational structures. I am against the way they are designed for. From my personal experience in Kenya I can say they work like politicians and become a dividing force. I have objection to number one, the idea of a NGO being only conditional, and second, not putting money they receive for the set objectives. In Kenya, 80% NGOs are not spending money in proper way. You withdraw that spending from a community and you will find as nothing has happened. The community will not be adversely affected. So, there is no connection between what NGOs are doing and what is happening in a community.

• One criticism of NGOs comes from left parties that these organizations are part of conspiracy of international capitalism, which saw threat from emerging mass movements and tried to co-opt these movements with pouring of money. They say that NGOs are subverting the people’s struggles and thus serving the capitalism. DO you agree with this logic?

- I think there is a line of truth in it. If you look at the evolution of NGOs in Africa, you will see this process is linked to capitalistic approach of life. The NGOs were founded in Africa, when the funding agencies found that most of the governments of the continent are corrupt. Then western agencies got NGOs formed to provide resources to the people. So, NGOs not emerged from the bottom, but they came from outside. In Kenya, NGOs were formed by same govt. officials who were corrupt.
Look at the DFID (department for international development of US). Look at USAID and CIA. They work under the same department. The DFID works under the (US) foreign office. USAID and DFID have deep inroads through their projects (in different developing countries) and collecting enough intelligence that is more than that of govt. itself. So, when a communist party speaks about this question, it seems creditable.

The NGOs, working as advocacy groups generally take issues like Democracy, Human Rights, Rights of the indigenous people, etc. They are funded to raise these issues, so they have to fulfill their assignment. It’s a common knowledge that many NGOs world over are funded to raise the issue of ‘freedom of Tibet’. They have their branches in India too.

Here we must briefly look into the history of neo-liberal project that was initiated with a design to propagate the ideas of unbridled capitalism and to discredit all alternative ideologies and systems. Around 1950s when communism was on rise and even in western world the concept of welfare state was in vogue, the pro-capital elements tried to resurrect themselves with an ideological war. Under this project a number of so called think tanks in the name of democracy and human rights were established. As neo-liberalism marched ahead these think tanks were flooded with funds and they became vehicle to take these ideas and activities to the developing world. Flush with easy funds the NGOs came into being there and spread with a great speed.

We have already seen the influence and interventions such NGOs in former USSR republics. Some years back, from Georgia to Ukraine and Kazakhstan to Belarus, western masters tried to impose colored revolution using the network of the NGOs funded by them. They succeeded in Georgia and Ukraine, but failed in other two places. But how the network of NGOs can create political instability or even coup in a country became obvious. It showed the strength of NGOs to implement the agenda of their funders.

By understanding this NGO phenomenon, we could easily know why Tibet issue creates such ripples. It’s pertinent to raise these questions that why Tibet issue again became so important just before the Beijing Olympics and why Sino-Indian relations came under the strain just when Peoples Republic China was preparing to celebrate its 60th anniversary of establishment?

What we can conclude from recent experiences is that Sino-Indian relations will continue to be put under strain by the vested interests and their henchmen in the both countries. Such efforts would have to be countered by conscious efforts by both governments and enlightened public opinion. As Mr. Bhadrakumar noted, “What is abundantly clear is that neither India nor China stands to gain from the war hysteria that has been whipped up through the recent months over the relations between the two countries.

In a famous essay published in the Pravda newspaper in 1913 titled- Who Stands to Gain?, Vladimir Lenin wrote: “When it is not immediately apparent which political or social groups, forces or alignments advocate certain proposals, measures, etc., one should always ask: “Who stands to gain?”? It is not important who directly advocates particular views. What is important is who stands to gain from these views, proposals, measures.”

What is abundantly clear is that neither India nor China stands to gain from the war hysteria and xenophobia that have been whipped up through the recent months over the relations between the two countries. So much is evidently at stake at this historic juncture for the two Asian powers as they pursue their respective trajectories of growth and development in a highly volatile international environment. Neither India nor China can afford to be distracted from its chosen path that places primacy on development in the national policies. A war for either of them is highly detrimental to core interests. Yet, on any single day, sections of our corporate media -- print as well as electronic -- are replete with stories that resonate with the sound of distant war drums.”

Mr B Raman warns of consequences of such war drums, when he says, “the danger of such hysteria is that it could acquire an uncontrollable momentum and take the two countries towards a precipice from where they may not be able to withdraw. Any confrontation as a result of this hysteria would damage the interests of both the countries.”

Apart from border dispute and other ‘Chinese designs against India’, Tibet is an issue that has been providing fodder for the anti-China campaigners. However, people of India must now understand that Tibet has been a stick in the hands of western capitalist world to beat the Communist China. Their so called think tanks and institutions have been funding for the farce cause of liberation of Tibet just to fulfil their own interests. Many Indians have aligned themselves willingly or inadvertently to this cause and have played into those hands. Now, the time come to understand this fallacy. As Subramanian Swamy says, “those who advocate the 'independence of Tibet' do not and cannot argue on the basis of history. Their advocacy can only be to further political mischief or to enrich themselves at the nation's cost. Sino-Indian relations, therefore, should not be derailed by our misconceptions and misplaced adventurism on Tibet.”

The recent experience has made it abundantly clear that the Sino-Indian relationships need a careful treatment. Just believing that growing trade ties will make relationship stronger will not lead us to the desired goals. It will need detailed efforts to expose the forces those have vested interests in keeping these two countries apart. We must understand their methodology, style of functioning and their strength to create mischief. Simultaneously we have to erase the smokescreen that been generated by the long mistrust between the peoples of India and China. Commonality of interests of both peoples must be emphasized now. There is need of a movement of good people to match and defeat the intentions of bad vested interests.

Sunday, April 4, 2010

बिहार और विकास के प्रश्न

सत्येंद्र रंजन

नीतीश कुमार क्या बिहार के विकास पुरुष हैं? यह सवाल राज्य के सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच एक तीखी बहस छेड़ देता है। जवाब एक हद तक इस पर निर्भर करता है कि बोल रहा व्यक्ति किसी वर्ग एवं जातीय पृष्ठभूमि से आया है, लेकिन इस जवाब में अक्सर विकास के बारे में अलग-अलग समझ भी जाहिर होती है। इस बहस में उभरने वाले दोनों ही पक्षों की अपनी-अपनी दलीलें हैं। नीतीश कुमार के समर्थक कहते हैं कि मुख्यमंत्री ने बिहार को सड़कें दी हैं। बिहार में सफर करते हुए बहुत अच्छी सड़कें तो नहीं दिखतीं, लेकिन अगर वहां पहले आज जैसी सड़कें भी नहीं थीं, तो इसे विकास जरूर माना जाएगा। तो बताया जाता है कि नीतीश कुमार के राज में सड़कें बन रही हैं, और अस्पताल एवं स्कूलों में डॉक्टर और मास्टर उपस्थित रहने लगे हैं। नीतीश कुमार के समर्थक दावा करते हैं कि लालू प्रसाद यादव-राबड़ी देवी के राज में बिहार बर्बाद हो गया था, पिछले पांच वर्षों में वह आबाद हुआ है।

लालू प्रसाद यादव के समर्थक कहते हैं कि लालूजी ने सदियों से शोषित और दबे-कुचले तबकों को ज़ुबान दी। आज उनकी बदौलत उन तबकों के लोग अपने गांवों में खड़े और निडर होकर बोल सकते हैं। उन तबकों के लिए यह विकास कहीं ज्यादा मायने रखता है। इस तर्क से बहुत से वैसे लोग भी सहमत हैं, जो लालू बनाम नीतीश की बहस में सिमटे नहीं रहना चाहते। बल्कि उनकी चिंता एक न्यायपूर्ण, अपेक्षाकृत अधिक लोकतांत्रिक समाज का निर्माण है। इसीलिए ये लोग यह सवाल भी उठाते हैं कि लालू प्रसाद यादव जिस परिघटना के प्रतीक हैं, वह लोगों को ज़ुबान देने के बाद ठहर क्यों गई? वह भूमि सुधार जैसे आर्थिक न्याय, बुनियादी ढांचे के विकास और निवेश से समृद्धि लाने की तैयारियों की दिशा में क्यों नहीं मुड़ी?

अगर एक दूरी बनाकर सोचा जाए, तो दोनों ही पक्षों की दलीलों में दम नज़र आता है। गरीब और बेहद शोषित तबकों के लिए भले यह बहुत मायने न रखता हो, मगर बुनियादी ढांचा और कुशल प्रशासन भी समाज की बेहतरी एवं सुख-समृद्धि के लिए जरूरी है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। मगर अब दुनिया भर में जो विकास की समझ ज्यादा मान्यता पा रही है, उसमें विकास को सिर्फ इन दो पहलुओं में सीमित नहीं माना जाता है। अमर्त्य सेन और महबूब-उल हक जैसी शख्सियतों के बौद्धिक प्रयासों से विकास की परिभाषा पिछले दशकों के दौरान काफी बदल गई है। अब विकास को समाज में स्वतंत्रता के विस्तार के संदर्भ में ज्यादा समझा और देखा जाता है। ऐसे में सड़क का निर्माण अगर विकास है, तो दबे और बुनियादी अधिकारों से वंचित समूहों की स्वतंत्रता में विस्तार उससे कहीं बड़ा विकास है। आर्थिक विकास दर विकास का महज एक पैमाना है। लोगों की सेहत, शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में सुधार इसका उससे कहीं बड़ा पैमाना है। लेकिन यह शायद बिहार का दुर्भाग्य यह है कि आज वहां इन दोनों पैमानों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा माना जा रहा है।

लालू प्रसाद यादव के दौर में बिहार में मंडल की परिघटना ने जातीय उत्पीड़न की जकड़न से दबे-कुचले वर्गों को काफी हद तक मुक्त किया, यह एक तथ्य है। मगर सेहत, शिक्षा एवं आर्थिक मामलों में उस दौर में प्रगति नहीं हुई, यह भी एक तथ्य है। बहरहाल, उस सामाजिक परिघटना ने बिहार की राजनीति की शक्ल बदल दी। राजनीति पर से सवर्ण जातियों का वर्चस्व ऐसा टूटा कि अब उसके फिर कायम होने की कोई सूरत सामने नहीं है। नीतीश कुमार के पीछे भी इस परिघटना की ताकत रही है। लेकिन नीतीश कुमार कभी इस परिघटना के स्वाभाविक नेता नहीं बन सके। यह बात तो १९९५ के विधानसभा चुनाव में ही साफ हो गई थी कि वे सामाजिक न्याय के मुद्दे पर लालू प्रसाद को नहीं पछाड़ सकते। इसी बात की समझ उन्हें भारतीय जनता पार्टी की गोद में ले गई।

भारतीय जनता पार्टी देश के बाकी हिस्सों की तरह बिहार में भी उन वर्गों (जातियों) की प्रतिनिधि ताकत है, जिनका सामाजिक वर्चस्व पिछले दशकों में कमजोर पड़ा है। बिहार और उत्तर प्रदेश में एक दौर में भाजपा इन जातियों पर दबदबे से कांग्रेस को बेदखल करते हुए एक मजबूत ताकत के रूप में उभरी थी। उप्र एवं मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में उसने सोशल इंजीनियरिंग की अपनी सियासी रणनीति के जरिए कुछ पिछड़ी जातियों को अपने इस सामाजिक आधार से जोड़ने में सफलता पाई। लेकिन बिहार में यह रणनीति कभी इतनी कारगर नहीं हुई कि वह लालू प्रसाद यादव को उखाड़ फेंकती। तो उसके लिए भी नीतीश कुमार मजबूरी बन गए। भाजपा का सवर्ण और हिंदुत्व के प्रभाव में आया वोट आधार एवं नीतीश कुमार के नेतृत्व में लालू से नाराज पिछड़ी जातियों के जुड़ने से वह सामाजिक आधार तैयार हुआ, जिसकी बदौलत आखिरकार २००५ में जनता दल (यू)- भाजपा गठबंधन ने लालू प्रसाद यादव को पटखनी दे दी।

आज अगर बिहार की राजनीतिक सरंचना और वहां विकास के सवाल पर खड़ी बहस को समझना है, तो नीतीश कुमार के इस राजनीतिक जनाधार को समझना बहुत जरूरी है। इस जनाधार में कुछ ऐसी जातियां जरूर शामिल रही हैं, जो कभी लालू प्रसाद की ताकत थीं। लेकिन मुख्य रूप से नीतीश कुमार की ताकत वे जातियां हैं, जिनका राजनीतिक वर्चस्व लालू प्रसाद की परिघटना ने तोड़ दिया था। इस अर्थ में यह बात कही जा सकती है कि नीतीश कुमार एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आधार की बदौलत पांच साल पहले सत्ता में आए थे। बहरहाल, मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने ऐसी सियासी चालें चलीं, जिससे वे अपने वोट आधार का विस्तार करने में सफल रहे हैं। इन चालों में अति-पिछड़ी एवं महा-दलित और पसमंदा मुसलमानों के उनके कार्ड सबसे ज्यादा कारगर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव के दौर में चूंकि यादव और कुछ नई ताकतवर जातियों का दबदबा कायम होता गया था, अतः नीतीश कुमार के लिए अति पिछड़ी जातियों को फोड़ लेना आसान रहा है। इसी तरह महा-दलित के नारे के तहत रामविलास पासवान के पांव के नीचे से ज़मीन खींच लेने में भी वे काफी हद तक सफल नजर आते हैं। भाजपा के साथ होने की वजह से मुसलमानों का मामला थोड़ा पेचीदा है, मगर नीतीश ने यहां भी एक भ्रम का माहौल तो बनाए ही रखा है।

इस नई परिघटना में कई सकारात्मक बातें हुई हैं। मसलन, अति पिछड़ों और महा-दलितों को पंचायती राज में मिले आरक्षण से सामाजिक न्याय की प्रक्रिया और आगे बढ़ी है। महिलाओं को वहां पचास फीसदी आरक्षण देकर नीतीश कुमार पूरे देश के सामने एक मिसाल कायम कर ही चुके हैं। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण का समर्थन कर उन्होंने प्रगतिशील खेमे में अपने लिए अच्छी भावनाएं पैदा की हैं। इन अर्थों में कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार ने विकास की नई अवधारणा के संदर्भ में भी बिहार को आगे बढ़ाया है। मगर बात शायद इतनी सीधी नहीं है।

हकीकत यह है कि अपने शासनकाल, बल्कि पिछले डेढ़ दशक में जब से वे भाजपा के साथ गए हैं, नीतीश कुमार बिहार में सामाजिक न्याय की प्रतिक्रिया में गोलबंद हुई ताकतों के सहारे आगे बढ़ते रहे हैं। इन ताकतों से पीछा छुड़ाना कितना कठिन है, इसकी मिसाल बंदोपाध्याय कमेटी से जुड़े विवाद में देखने को मिली। नीतीश कुमार ने सत्ता में आने के बाद यह कमेटी भूमि सुधारों पर अमल के बारे में सुझाव देने के लिए बनाई थी। बताया जाता है कि कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक एक विधेयक का प्रावधान भी तैयार किया गया। लेकिन यह बात नौकरशाही ने लीक कर दी, जिससे भूपति जातियां भड़क गईं। जानकारों के मुताबिक पिछले लोकसभा चुनाव में भारी जीत के कुछ ही समय बाद १८ विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनावों में जेडी (यू)-भाजपा गठबंधन की हार के पीछे इन्हीं जातियों की बगावत थी। इससे नीतीश कुमार ने अपने लिए उचित संदेश ग्रहण किया और भूमि सुधारों की बात अपने एजेंडे से हटा दी।

हर पर्यवेक्षक को यह मालूम है कि नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद बिहार में रिवर्सल की एक प्रक्रिया चली। लालू प्रसाद यादव के १५ साल के राज में जिन नौकरशाहों को जातीय समीकरण के तहत शटिंग में रखा गया था, वे महत्त्वपूर्ण जगहों पर लौट आए। लालू प्रसाद यादव ने कुछ जातियों का वर्चस्व तोड़ने के लिए विकास कार्यों में ठेकेदारी की प्रथा खत्म कर दी थी। इससे विकास जरूर गतिरुद्ध हुआ था, लेकिन इससे शोषक मानी जाने वाली जातियां सामाजिक तौर पर कमजोर पड़ीं। कमजोर तबकों को ज़ुबान मिलना और वर्चस्व वाली जातियों का कमजोर पड़ना- इस एक ही प्रक्रिया के दो पहलू थे। नीतीश कुमार के राज में यह प्रक्रिया पलट गई है। ‘विकास’ को गति तो मिली है, लेकिन ठेकेदारी के जरिए उन जातियों का रुतबा भी लौटा है, जो लालू प्रसाद के निशाने पर रही थीं।

नीतीश के राज में विकास दर में देखी गई बढ़ोतरी का यही वर्गीय आधार है। यह नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की एक बेहतरीन मिसाल है, जिसमें बुनियादी ढांचे और औद्योगिक विकास के साथ सामाजिक विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों की पकड़ और मजबूत होती जाती है। बिहार में फिलहाल औद्योगिक विकास का कोई बड़ा उदाहरण नहीं है। लेकिन जो भी विकास वहां पिछले पांच साल में हुआ है, उसमें सामाजिक और आर्थिक न्याय का कोई पहलू शामिल नहीं रहा है। अति पिछड़ों, महा-दलितों और पसमंदा मुसलमानों की बात जरूर की गई है, जो अपने-आप में सकारात्मक दिखती है, मगर जिसके पीछे मकसद १९९० के दशक में सामाजिक न्याय की शुरू हुई परिघटना को आगे बढ़ाना नहीं, बल्कि उसमें फूट डालकर पुराने वर्चस्ववादी समूहों के हितों को सुरक्षित करना ज्यादा रहा है।

इसके बावजूद अगर सियासी नजरिए से देखें तो नीतीश कुमार आज मजबूत विकेट पर हैं। कुछ महीनों के बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में वे फेवरिट (यानी जिनके जीत की संभावना ज्यादा हो) के रूप में मैदान में उतरेंगे। इसकी एक वजह तो यह है कि उनके राजनीतिक कार्ड अब तक सही पड़े हैं, लेकिन इससे भी बड़ी वजह यह है कि उनके प्रतिद्वंद्वी लालू-पासवान की जोड़ी एक चुकी हुई ताकत लगती है। लालू प्रसाद यादव अपनी राजनीति को लेकर आज कई सवालों के घेरे में हैं। मंडल परिघटना के बाद न्याय की राजनीति को आगे ले जाने में विफलता, परिवारवाद. प्रगतिशील राजनीति को तिलांजलि और किसी भी तरह वापसी के लिए हाथ-पांव मारते हुए अंधविश्वास को बढ़ावा देने की हद तक जाकर उन्होंने भविष्य तो दूर अपनी वर्तमान प्रासंगिकता भी खो दी है। अब लालू-पासवान की जोड़ी की सारी उम्मीदें इस पर टिकी हैं कि कांग्रेस का बिहार में कितना पुनरुद्धार होता है और क्या वह फिर से ऊंची जातियों को अपनी तरफ खींच पाती है? लेकिन कांग्रेस का पुनरुद्धार एक दोधारी तलवार है। अगर कांग्रेस जेडी (यू)-भाजपा का ऊंची जातियों का आधार तोड़ने में सफल होगी, तो वह लालू-पासवान के मुस्लिम-दलित वोट आधार में भी सेंध लगाएगी। अगर राहुल गांधी बिहार के मध्यवर्ग को लुभा कर नीतीश-भाजपा को चोट पहुंचा पाए, तो सोनिया गांधी की गरीब समर्थक छवि से लालू-पासवान को भी नुकसान हो सकता है।

नीतीश कुमार के लिए फायदे की बात यह है कि उनके समर्थकों में मुख्य रूप से उन जातियों के लोग हैं, जो अपने हितों के लेकर ज्यादा जागरूक रहते हैं और इस लिहाज से सियासी कदम ज्यादा सावधानी से उठाते हैं। पिछले पांच साल के ‘विकास’ से इन जातियों को नई ताकत मिली है। दूसरी तरफ लालू-पासवान के समर्थकों के पास नीतीश कुमार के ‘विकास’ को चुनौती देने के तर्क और तथ्य तो हैं, लेकिन उन पर आधारित किसी संगठित राजनीतिक रणनीति का उनके पास अभाव नजर आता है। इसीलिए नीतीश आज मजबूत विकेट पर हैं। अगले छह महीनों में फर्क सिर्फ कांग्रेस ही डाल सकती है, जिसने पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य में फिर से उठ खड़े होने के संकेत दिए थे। लेकिन सवाल यह है कि जब बिहार में सामाजिक न्याय के रिवर्सल (पलटने) की ताकतें अपने हितों के लिए करो या मरो के अंदाज में होंगी, तब क्या वे कांग्रेस को आजमाने का जोखिम उठाएंगी या वे आजमाए हुए नीतीश कुमार के नेतृत्व पर ही दांव लगाने में अपना भला समझेंगी? बहरहाल, यह बात साफ है कि न्याय के साथ विकास के रास्ते से बिहार भटक चुका है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि उसे ‘गरीबों की ज़ुबान’ और ‘विकास’ में से किसी एक को चुनना पड़ रहा है।

बिहार और विकास के प्रश्न

सत्येंद्र रंजन

नीतीश कुमार क्या बिहार के विकास पुरुष हैं? यह सवाल राज्य के सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच एक तीखी बहस छेड़ देता है। जवाब एक हद तक इस पर निर्भर करता है कि बोल रहा व्यक्ति किसी वर्ग एवं जातीय पृष्ठभूमि से आया है, लेकिन इस जवाब में अक्सर विकास के बारे में अलग-अलग समझ भी जाहिर होती है। इस बहस में उभरने वाले दोनों ही पक्षों की अपनी-अपनी दलीलें हैं। नीतीश कुमार के समर्थक कहते हैं कि मुख्यमंत्री ने बिहार को सड़कें दी हैं। बिहार में सफर करते हुए बहुत अच्छी सड़कें तो नहीं दिखतीं, लेकिन अगर वहां पहले आज जैसी सड़कें भी नहीं थीं, तो इसे विकास जरूर माना जाएगा। तो बताया जाता है कि नीतीश कुमार के राज में सड़कें बन रही हैं, और अस्पताल एवं स्कूलों में डॉक्टर और मास्टर उपस्थित रहने लगे हैं। नीतीश कुमार के समर्थक दावा करते हैं कि लालू प्रसाद यादव-राबड़ी देवी के राज में बिहार बर्बाद हो गया था, पिछले पांच वर्षों में वह आबाद हुआ है।

लालू प्रसाद यादव के समर्थक कहते हैं कि लालूजी ने सदियों से शोषित और दबे-कुचले तबकों को ज़ुबान दी। आज उनकी बदौलत उन तबकों के लोग अपने गांवों में खड़े और निडर होकर बोल सकते हैं। उन तबकों के लिए यह विकास कहीं ज्यादा मायने रखता है। इस तर्क से बहुत से वैसे लोग भी सहमत हैं, जो लालू बनाम नीतीश की बहस में सिमटे नहीं रहना चाहते। बल्कि उनकी चिंता एक न्यायपूर्ण, अपेक्षाकृत अधिक लोकतांत्रिक समाज का निर्माण है। इसीलिए ये लोग यह सवाल भी उठाते हैं कि लालू प्रसाद यादव जिस परिघटना के प्रतीक हैं, वह लोगों को ज़ुबान देने के बाद ठहर क्यों गई? वह भूमि सुधार जैसे आर्थिक न्याय, बुनियादी ढांचे के विकास और निवेश से समृद्धि लाने की तैयारियों की दिशा में क्यों नहीं मुड़ी?

अगर एक दूरी बनाकर सोचा जाए, तो दोनों ही पक्षों की दलीलों में दम नज़र आता है। गरीब और बेहद शोषित तबकों के लिए भले यह बहुत मायने न रखता हो, मगर बुनियादी ढांचा और कुशल प्रशासन भी समाज की बेहतरी एवं सुख-समृद्धि के लिए जरूरी है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। मगर अब दुनिया भर में जो विकास की समझ ज्यादा मान्यता पा रही है, उसमें विकास को सिर्फ इन दो पहलुओं में सीमित नहीं माना जाता है। अमर्त्य सेन और महबूब-उल हक जैसी शख्सियतों के बौद्धिक प्रयासों से विकास की परिभाषा पिछले दशकों के दौरान काफी बदल गई है। अब विकास को समाज में स्वतंत्रता के विस्तार के संदर्भ में ज्यादा समझा और देखा जाता है। ऐसे में सड़क का निर्माण अगर विकास है, तो दबे और बुनियादी अधिकारों से वंचित समूहों की स्वतंत्रता में विस्तार उससे कहीं बड़ा विकास है। आर्थिक विकास दर विकास का महज एक पैमाना है। लोगों की सेहत, शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में सुधार इसका उससे कहीं बड़ा पैमाना है। लेकिन यह शायद बिहार का दुर्भाग्य यह है कि आज वहां इन दोनों पैमानों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा माना जा रहा है।

लालू प्रसाद यादव के दौर में बिहार में मंडल की परिघटना ने जातीय उत्पीड़न की जकड़न से दबे-कुचले वर्गों को काफी हद तक मुक्त किया, यह एक तथ्य है। मगर सेहत, शिक्षा एवं आर्थिक मामलों में उस दौर में प्रगति नहीं हुई, यह भी एक तथ्य है। बहरहाल, उस सामाजिक परिघटना ने बिहार की राजनीति की शक्ल बदल दी। राजनीति पर से सवर्ण जातियों का वर्चस्व ऐसा टूटा कि अब उसके फिर कायम होने की कोई सूरत सामने नहीं है। नीतीश कुमार के पीछे भी इस परिघटना की ताकत रही है। लेकिन नीतीश कुमार कभी इस परिघटना के स्वाभाविक नेता नहीं बन सके। यह बात तो १९९५ के विधानसभा चुनाव में ही साफ हो गई थी कि वे सामाजिक न्याय के मुद्दे पर लालू प्रसाद को नहीं पछाड़ सकते। इसी बात की समझ उन्हें भारतीय जनता पार्टी की गोद में ले गई।

भारतीय जनता पार्टी देश के बाकी हिस्सों की तरह बिहार में भी उन वर्गों (जातियों) की प्रतिनिधि ताकत है, जिनका सामाजिक वर्चस्व पिछले दशकों में कमजोर पड़ा है। बिहार और उत्तर प्रदेश में एक दौर में भाजपा इन जातियों पर दबदबे से कांग्रेस को बेदखल करते हुए एक मजबूत ताकत के रूप में उभरी थी। उप्र एवं मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में उसने सोशल इंजीनियरिंग की अपनी सियासी रणनीति के जरिए कुछ पिछड़ी जातियों को अपने इस सामाजिक आधार से जोड़ने में सफलता पाई। लेकिन बिहार में यह रणनीति कभी इतनी कारगर नहीं हुई कि वह लालू प्रसाद यादव को उखाड़ फेंकती। तो उसके लिए भी नीतीश कुमार मजबूरी बन गए। भाजपा का सवर्ण और हिंदुत्व के प्रभाव में आया वोट आधार एवं नीतीश कुमार के नेतृत्व में लालू से नाराज पिछड़ी जातियों के जुड़ने से वह सामाजिक आधार तैयार हुआ, जिसकी बदौलत आखिरकार २००५ में जनता दल (यू)- भाजपा गठबंधन ने लालू प्रसाद यादव को पटखनी दे दी।

आज अगर बिहार की राजनीतिक सरंचना और वहां विकास के सवाल पर खड़ी बहस को समझना है, तो नीतीश कुमार के इस राजनीतिक जनाधार को समझना बहुत जरूरी है। इस जनाधार में कुछ ऐसी जातियां जरूर शामिल रही हैं, जो कभी लालू प्रसाद की ताकत थीं। लेकिन मुख्य रूप से नीतीश कुमार की ताकत वे जातियां हैं, जिनका राजनीतिक वर्चस्व लालू प्रसाद की परिघटना ने तोड़ दिया था। इस अर्थ में यह बात कही जा सकती है कि नीतीश कुमार एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आधार की बदौलत पांच साल पहले सत्ता में आए थे। बहरहाल, मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने ऐसी सियासी चालें चलीं, जिससे वे अपने वोट आधार का विस्तार करने में सफल रहे हैं। इन चालों में अति-पिछड़ी एवं महा-दलित और पसमंदा मुसलमानों के उनके कार्ड सबसे ज्यादा कारगर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव के दौर में चूंकि यादव और कुछ नई ताकतवर जातियों का दबदबा कायम होता गया था, अतः नीतीश कुमार के लिए अति पिछड़ी जातियों को फोड़ लेना आसान रहा है। इसी तरह महा-दलित के नारे के तहत रामविलास पासवान के पांव के नीचे से ज़मीन खींच लेने में भी वे काफी हद तक सफल नजर आते हैं। भाजपा के साथ होने की वजह से मुसलमानों का मामला थोड़ा पेचीदा है, मगर नीतीश ने यहां भी एक भ्रम का माहौल तो बनाए ही रखा है।

इस नई परिघटना में कई सकारात्मक बातें हुई हैं। मसलन, अति पिछड़ों और महा-दलितों को पंचायती राज में मिले आरक्षण से सामाजिक न्याय की प्रक्रिया और आगे बढ़ी है। महिलाओं को वहां पचास फीसदी आरक्षण देकर नीतीश कुमार पूरे देश के सामने एक मिसाल कायम कर ही चुके हैं। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण का समर्थन कर उन्होंने प्रगतिशील खेमे में अपने लिए अच्छी भावनाएं पैदा की हैं। इन अर्थों में कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार ने विकास की नई अवधारणा के संदर्भ में भी बिहार को आगे बढ़ाया है। मगर बात शायद इतनी सीधी नहीं है।

हकीकत यह है कि अपने शासनकाल, बल्कि पिछले डेढ़ दशक में जब से वे भाजपा के साथ गए हैं, नीतीश कुमार बिहार में सामाजिक न्याय की प्रतिक्रिया में गोलबंद हुई ताकतों के सहारे आगे बढ़ते रहे हैं। इन ताकतों से पीछा छुड़ाना कितना कठिन है, इसकी मिसाल बंदोपाध्याय कमेटी से जुड़े विवाद में देखने को मिली। नीतीश कुमार ने सत्ता में आने के बाद यह कमेटी भूमि सुधारों पर अमल के बारे में सुझाव देने के लिए बनाई थी। बताया जाता है कि कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक एक विधेयक का प्रावधान भी तैयार किया गया। लेकिन यह बात नौकरशाही ने लीक कर दी, जिससे भूपति जातियां भड़क गईं। जानकारों के मुताबिक पिछले लोकसभा चुनाव में भारी जीत के कुछ ही समय बाद १८ विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनावों में जेडी (यू)-भाजपा गठबंधन की हार के पीछे इन्हीं जातियों की बगावत थी। इससे नीतीश कुमार ने अपने लिए उचित संदेश ग्रहण किया और भूमि सुधारों की बात अपने एजेंडे से हटा दी।

हर पर्यवेक्षक को यह मालूम है कि नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद बिहार में रिवर्सल की एक प्रक्रिया चली। लालू प्रसाद यादव के १५ साल के राज में जिन नौकरशाहों को जातीय समीकरण के तहत शटिंग में रखा गया था, वे महत्त्वपूर्ण जगहों पर लौट आए। लालू प्रसाद यादव ने कुछ जातियों का वर्चस्व तोड़ने के लिए विकास कार्यों में ठेकेदारी की प्रथा खत्म कर दी थी। इससे विकास जरूर गतिरुद्ध हुआ था, लेकिन इससे शोषक मानी जाने वाली जातियां सामाजिक तौर पर कमजोर पड़ीं। कमजोर तबकों को ज़ुबान मिलना और वर्चस्व वाली जातियों का कमजोर पड़ना- इस एक ही प्रक्रिया के दो पहलू थे। नीतीश कुमार के राज में यह प्रक्रिया पलट गई है। ‘विकास’ को गति तो मिली है, लेकिन ठेकेदारी के जरिए उन जातियों का रुतबा भी लौटा है, जो लालू प्रसाद के निशाने पर रही थीं।

नीतीश के राज में विकास दर में देखी गई बढ़ोतरी का यही वर्गीय आधार है। यह नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की एक बेहतरीन मिसाल है, जिसमें बुनियादी ढांचे और औद्योगिक विकास के साथ सामाजिक विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों की पकड़ और मजबूत होती जाती है। बिहार में फिलहाल औद्योगिक विकास का कोई बड़ा उदाहरण नहीं है। लेकिन जो भी विकास वहां पिछले पांच साल में हुआ है, उसमें सामाजिक और आर्थिक न्याय का कोई पहलू शामिल नहीं रहा है। अति पिछड़ों, महा-दलितों और पसमंदा मुसलमानों की बात जरूर की गई है, जो अपने-आप में सकारात्मक दिखती है, मगर जिसके पीछे मकसद १९९० के दशक में सामाजिक न्याय की शुरू हुई परिघटना को आगे बढ़ाना नहीं, बल्कि उसमें फूट डालकर पुराने वर्चस्ववादी समूहों के हितों को सुरक्षित करना ज्यादा रहा है।

इसके बावजूद अगर सियासी नजरिए से देखें तो नीतीश कुमार आज मजबूत विकेट पर हैं। कुछ महीनों के बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में वे फेवरिट (यानी जिनके जीत की संभावना ज्यादा हो) के रूप में मैदान में उतरेंगे। इसकी एक वजह तो यह है कि उनके राजनीतिक कार्ड अब तक सही पड़े हैं, लेकिन इससे भी बड़ी वजह यह है कि उनके प्रतिद्वंद्वी लालू-पासवान की जोड़ी एक चुकी हुई ताकत लगती है। लालू प्रसाद यादव अपनी राजनीति को लेकर आज कई सवालों के घेरे में हैं। मंडल परिघटना के बाद न्याय की राजनीति को आगे ले जाने में विफलता, परिवारवाद. प्रगतिशील राजनीति को तिलांजलि और किसी भी तरह वापसी के लिए हाथ-पांव मारते हुए अंधविश्वास को बढ़ावा देने की हद तक जाकर उन्होंने भविष्य तो दूर अपनी वर्तमान प्रासंगिकता भी खो दी है। अब लालू-पासवान की जोड़ी की सारी उम्मीदें इस पर टिकी हैं कि कांग्रेस का बिहार में कितना पुनरुद्धार होता है और क्या वह फिर से ऊंची जातियों को अपनी तरफ खींच पाती है? लेकिन कांग्रेस का पुनरुद्धार एक दोधारी तलवार है। अगर कांग्रेस जेडी (यू)-भाजपा का ऊंची जातियों का आधार तोड़ने में सफल होगी, तो वह लालू-पासवान के मुस्लिम-दलित वोट आधार में भी सेंध लगाएगी। अगर राहुल गांधी बिहार के मध्यवर्ग को लुभा कर नीतीश-भाजपा को चोट पहुंचा पाए, तो सोनिया गांधी की गरीब समर्थक छवि से लालू-पासवान को भी नुकसान हो सकता है।

नीतीश कुमार के लिए फायदे की बात यह है कि उनके समर्थकों में मुख्य रूप से उन जातियों के लोग हैं, जो अपने हितों के लेकर ज्यादा जागरूक रहते हैं और इस लिहाज से सियासी कदम ज्यादा सावधानी से उठाते हैं। पिछले पांच साल के ‘विकास’ से इन जातियों को नई ताकत मिली है। दूसरी तरफ लालू-पासवान के समर्थकों के पास नीतीश कुमार के ‘विकास’ को चुनौती देने के तर्क और तथ्य तो हैं, लेकिन उन पर आधारित किसी संगठित राजनीतिक रणनीति का उनके पास अभाव नजर आता है। इसीलिए नीतीश आज मजबूत विकेट पर हैं। अगले छह महीनों में फर्क सिर्फ कांग्रेस ही डाल सकती है, जिसने पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य में फिर से उठ खड़े होने के संकेत दिए थे। लेकिन सवाल यह है कि जब बिहार में सामाजिक न्याय के रिवर्सल (पलटने) की ताकतें अपने हितों के लिए करो या मरो के अंदाज में होंगी, तब क्या वे कांग्रेस को आजमाने का जोखिम उठाएंगी या वे आजमाए हुए नीतीश कुमार के नेतृत्व पर ही दांव लगाने में अपना भला समझेंगी? बहरहाल, यह बात साफ है कि न्याय के साथ विकास के रास्ते से बिहार भटक चुका है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि उसे ‘गरीबों की ज़ुबान’ और ‘विकास’ में से किसी एक को चुनना पड़ रहा है।