Friday, December 14, 2007

क्योंकि हर शब्द के पीछे है एक सोच


सत्येंद्र रंजन
फि
ल्म आजा नचले के गाने को लेकर उठा विवाद फिल्म निर्माता के जाति सूचक शब्दों को गाने से हटा देने और माफी मांग लेने के साथ खत्म हो गया। लेकिन इससे एक बड़ा सवाल आम चर्चा में सामने आया। यह बहुत से लोगों को समझ में नहीं आया कि आखिर मोची शब्द के इस्तेमाल पर क्या एतराज है? दलील दी गई कि मोची कोई जाति नहीं, बल्कि एक पेशा है। जैसे अंग्रेजी में कॉबलर शब्द है, वैसा ही हिंदी में मोची है। चूंकि इस गाने पर सबसे पहले रोक उत्तर प्रदेश सरकार ने लगाई, इसलिए वहां की मुख्यमंत्री मायावती को घेरने के लिए मीडिया के एक हिस्से यह सवाल भी उठा दिया कि मायावती खुद जातियों के नाम जनसभाओं में लेती रही हैं औऱ इसलिए इस गाने पर उनकी सरकार की प्रतिक्रिया उनके दोहरे मानदंडों को दिखाती है। फिर यह सवाल भी उठा कि क्या आम चर्चा में जातियों के नाम नहीं लिए जाने चाहिए?
चूंकि इस गाने में यह कहा गया था कि मोची खुद के सोनार होने का दावा कर रहा है, इसलिए इस विशेष संदर्भ में बहस की ज्यादा गुंजाइश नहीं थी। गाने के बोल में यह साफ था कि इसमें जातीय क्रम में मोची को निचले स्थान पर मानने की मानसिकता साफ झलकती है। यानी सारे पेशे समान हैं, अंतर सिर्फ उनके प्रकार और सेवा देने के क्षेत्र में है, इस आदर्श का यह गाना खुलेआम उल्लंघन कर रहा था। शायद यह बात जल्द ही फिल्म निर्माताओं, मीडिया और आम लोगों को भी समझ में आ गई, इसलिए इस विशेष संदर्भ में ज्यादा बखेड़ा खड़ा नहीं किया गया। लेकिन इस संदर्भ से जो बड़े सवाल उठे हैं, उन पर खुल कर चर्चा नहीं हुई है, जिसकी आज बेहद जरूरत है। यह जरूरत इसलिए है कि लोकतंत्र और कानून के शासन के जिस मकसद को लेकर भारतीय संवैधानिक व्यवस्था खड़ी की गई है, जिसमें हर नागरिक को समान माना गया है और उसे समान अवसर देने की बात की गई है, उस उद्देश्य के आगे ये सवाल एक बड़ी बाधा बन कर खड़े हैं। दरअसल, इस बहस के सवाल सिर्फ जाति व्यवस्था से नहीं जुड़े हैं, बल्कि इनके पीछे इंसान औऱ इंसान में फर्क मानने और इंसान की मौजूदा हालत के पीछे किसी दैवी व्यवस्था का हाथ समझने की गहरी एवं व्यापक सोच हैं। अब जबकि सदियों से शोषित और उत्पीड़ित जन समूहों में अपने अधिकारों और अपनी मानवीय गरिमा के प्रति नई चेतना आ रही है, तो इन सवालों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आजा नचले के गाने के संदर्भ में कहा गया कि जूता बनाने और मरम्मत करने का पेशा करने वालों को मोची नहीं कहा जाए, तो फिर क्या कहा जाए? यह हवाला दिया गया कि जूतों के एक बड़े शोरूम ने खुद अपना नाम ‘मोचीज’ रखा हुआ है। तो फिर ये सारा शोर क्यों? ऐसे सवाल आम तौर पर उन हलकों से आते हैं, जिनमें मुमकिन है कि बहुत से लोगों का मकसद बुरा न हो। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि ऐसे लोग भारतीय समाज के ऐतिहासिक ढांचे और उसमें अंतर्निहित उत्पीड़न से नावाकिफ हैं। आबादी के एक बड़े हिस्से को मूलभूत मानव अधिकारों से वंचित रखने की कैसी व्यवस्था यहां बनी, वह कैसे चलती रही औऱ आधुनिकता के तमाम आगमन के बावजूद आज भी वह कैसे जारी है, इसकी समाजशास्त्रीय दृष्टि अपनाने में संभवतः वे लोग नाकाम हैं। वरना, मोची औऱ कॉबलर की तुलना किसी भी रूप में नहीं हो सकती। अंग्रेजों के समाज में कॉबलर कोई रूढ़ पेशा नहीं है। कॉबलर का बेटा आसानी से अपनी क्षमता और योग्यता के मुताबिक किसी नए पेशे को अपना सकता है। लेकिन सदियों तक ऐसा करना भारत में संभव नहीं था। यहां मोची का बेटा मोची ही हो सकता था। जब हम मोची कहते हैं तो एक दीन-हीन ऐसे व्यक्ति की छवि दिमाग में उभरती है जो जूता मरम्मत करने के सामान लेकर कहीं सड़क के किनारे बैठा हो। बेशक उसका पेशा भी उतना ही गरिमामय है, जितना वेद पाठ करने वाले पंडित, या लेख लिखने वाले पत्रकार का, लेकिन वर्ण व्यवस्था इस इंसानी सिद्धांत को नहीं मानती।
वरना, मोची का छुआ पानी पीने से धर्म भ्रष्ट होने की व्यवस्था क्यों बनाई जाती? जिस जातीय मानसिकता में हम जीते रहे हैं, उसमें अक्सर मोची को उसकी ईमानदारी की मेहनत का पैसा ऐसे दिया जाता है, जिससे उसका स्पर्श न हो जाए। क्या लंदन के किसी पेशेवर कॉबलर का भी ऐसा ही अपमान या उसकी मानवीय गरिमा का ऐसा उल्लंघन होता है? दरअसल, जब आप मोची कहते हैं, तो भारतीय संदर्भ में इससे किसी एक पेशेवर इंसान का नहीं, बल्कि एक जाति, एक पूरे समाज का बोध होता है, जिसके लिए सवर्ण मानसिकता में कोई इज्जत नहीं है। जाहिर है, बिल्कुल यही हालत सोनार के साथ नहीं है। सोनार के जहां जेवरात खरीदने गया कोई व्यक्ति वहां बैठता है, पानी पीता है। अगर वह सवर्ण जाति का हो, तो अपने को श्रेष्ठ जरूर समझेगा, लेकिन सोनार को वैसे ही अपमान के भाव से नहीं देखेगा, जैसा वह मोची को देखता है।
इसलिए गाने में मोची शब्द आने और उसके खुद को सोनार मानने की लाइन पर दलितों में गुस्सा भड़का तो यह बेवजह नहीं था। इसके पीछे सामाजिक अन्याय से लड़ने एवं आगे औऱ अपमान न सहने की उनकी नवजाग्रत संघर्ष भावना है। अगर हम इंसानियत की बुनियाद पर समाज बनाने का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं, तो हमें इस भावना का जरूर सम्मान करना चाहिए। इसके बजाय किसी शोरूम का नाम ‘मोचीज’ होने या मायावती के खुद जातियों का जिक्र करने की मिसाल इस नवजाग्रत भावना से जन्मी प्रतिक्रिया को गलत साबित करने के लिए दी जाती है, तो यह समझने की जरूरत है कि इसके पीछे मानसिकता यथास्थितिवादी ताकतों को मजबूती देना है।
हम नहीं जानते कि ‘मोचीज’ शोरूम किसका है। लेकिन अगर वह सचमुच किसी मोची का भी हो तो यह समाज के सामने अपनी पुरानी पहचान के साथ बिना किसी शर्म के खड़े होने की एक कोशिश मानी जा सकती है। लेकिन इससे यह हकीकत नहीं बदल सकती कि देश के लाखों मोची आज भी जिंदगी की मानवीय परिस्थितियों और बुनियादी नागरिक अधिकारों से वंचित हैं। एक ऐसी मिसाल पूरे समाज की विसंगतियों को नहीं ढक सकती। और अगर मायावती ने किसी जन सभा में महार शब्द का इस्तेमाल किया हो, यह कहते हुए कि इस जाति के किसी व्यक्ति को किसी राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाना है, तो इसकी तुलना नफरत औऱ हेय हृष्टि के साथ महार शब्द का इस्तेमाल करने वाले लोगों के साथ नहीं की जा सकती। किसी जाति या समुदाय के लोगों का नाम उन्हें ऐतिहासिक अन्याय से मुक्ति दिलाने के लिए लेने की तुलना उस अन्याय की भावना से भरे रहकर उस जाति के उल्लेख से नहीं की जा सकती। ठीक उसी तरह जैसे सामाजिक न्याय के मान्य एवं संवैधानिक सिद्धांत के तहत आरक्षण देने के लिए जातियों की सूची बनाना, और जाति के परंपरागत ढांचे में कैद रहने या दूसरों को रखने के लिए जाति का जिक्र एक ही बात नहीं है। जहां एक के पीछे भावना ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने की है, वहीं दूसरी सोच का मकसद उस अन्याय को जारी रखना है। इसीलिए आजा नचले के गाने से उठी बहस को विराम देने की जरूरत नहीं है। बल्कि इसे एक अंजाम तक ले जाने की आवश्यकता है। आखिर ऐसी बहसों से आम सामाजिक चेतना का विस्तार होता है और उससे एक बेहतर समाज बनाने के मकसद में मदद मिलती है। मसलन, हम विकलांगों से जुड़े शब्दों पर गौर कर सकते हैं। अभी बहुत लंबा वक्त नहीं गुजरा, जब आम बोलचाल में अंधा, बहरा, लंगड़ा, काना, लूल्हा जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर एतराज नहीं किया जाता था। अपने रूढ़ अर्थ में ये शब्द शारीरिक रूप से किसी अंग से कमजोर व्यक्ति के प्रति एक तिरस्कार का भाव दिखाते हैं। प्रकरांतर में ये शब्द इस सामाजिक अंधविश्वास की पुष्टि करते हैं कि पिछले जन्म का पाप या किसी दैवी शक्ति के प्रकोप की वजह से कोई व्यक्ति विकलांग हुआ है। इसलिए उससे सहानुभूति रखने या उसे विशेष अवसर देने की जरूरत नहीं है। बल्कि ईश्वर या प्रकृति ने उसे सजा दी है तो लोगों को भी उससे वैसा ही सलूक करना चाहिए। लेकिन स्वास्थ्य विज्ञान के विकास और सामाजिक चेतना के विस्तार के साथ ऐसी सोच को चुनौती मिली। इससे छिड़ी बहस का ये परिणाम हुआ कि विकलांग लोगों के प्रति सामाजिक क्रूरता घटी और धीरे-धीरे उनके प्रति समाज ने अपनी जिम्मेदारी समझी। उनके लिए क्रूरता और अपमान का भाव रखने वाले शब्दों का इस्तेमाल न हो, यह जरूरत भी तब समझी गई। इसका नतीजा यह है कि आज पहले के किसी युग की तुलना में हम विकलांगों के प्रति ज्यादा मानवीय नजरिया देख सकते हैं।
ठीक यही स्थिति नस्ल या रंगभेद के सिलसिले में भी है। पश्चिमी समाजों में इस बारे में चली बहस का नतीजा यह है कि वहां आज नस्लीय टिप्पणी को एक बड़ा अपराध मान लिया गया है। साम्राज्यवाद के दौर में पश्चिम समाजों ने कुछ खास नस्लों के साथ जो ज्यादती की, कम से कम आम चर्चा में उनके प्रति एक क्षमा याचना का भाव आज वहां जरूर देखने को मिलता है। इसीलिए मंकी चैंट यानी बंदर की आवाज निकालना अब काले समुदाय के प्रति अपमानजनक माना जाता है और इसलिए उसे रोकने के बाकायदा कानून बनाए गए हैं। लेकिन इस मोर्चे पर भारतीय समाज अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है। हाल में जब ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम भारत दौरे पर आई, तो वहां के मूलवासी खिलाड़ी एंड्र्यू साइमंड्स को चिढ़ाने के लिए स्टेडियम्स में जैसे मंकी चैंट्स किए गए, उससे भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से में बैठी नस्ल और रंगभेदी मानसिकता की झलक मिली। दरअसल, यह सिर्फ गलतफहमी है कि भारत के लोग नस्ल या रंगभेदी नहीं हैं। अगर फिल्मी गानों की ही बात करें तो उनमें गोरे रंग का जैसा महिमामंडन होता है, वह परेशान करने वाला है। आजा पिया तोहे प्यार दूं, गोरे बहियां तो पे वार दूं, जैसे गाने लिखने वाले गीतकार के मन में यह सवाल कभी नहीं उठा कि जिस स्त्री की बाहें गोरी नहीं हैं, क्या वह अपने पिया से कम प्यार करती है? और अगर वह अपने प्यार का इजहार करना चाहे तो आखिर कैसे करे? या सिर्फ प्यार करना गोरी स्त्रियों का ही अधिकार है? दरअसल, यह तो सिर्फ एक मिसाल है। हिंदी फिल्मों के गाने गोरे रंग पर गुमान की भावना से भरे पड़े हैं। और जब गोरा रंग गुमान करने की बात हो तो इसमें कोई हैरत नहीं कि गोरापन बढ़ाने वाले कॉस्मेटिक्स से आज बाजार भर गए हैं। उनके इश्तहार गोरेपन का आम मीडिया पर गुणगान कर रहे हैं।
सवाल है कि यह रंग भेद नहीं तो और क्या है? क्या इंसान की भावनाएं उसके शरीर के रंग औऱ रूप से तय होती हैं, या रंग किसी की प्रतिभा का पैमाना है? आखिर भारतीय क्रिकेट दर्शक रिकी पोन्टिंग को उनके रंग के आधार पर क्यों नहीं चिढ़ाते, क्यों साइमंड्स ही उन्हें मखौल का पात्र नजर आते हैं? क्यों वैवाहिक विज्ञापनों में अक्सर गोरी दुल्हन बतौर एक शर्त के रूप में मांगी जाती है? इतनी मिसालों के बावजूद क्या यह दावा किया जा सकता है कि भारतीय समाज में भले जातिवादी मानसिकता हो, लेकिन यहां रंग भेद या नस्ल भेद नहीं है?
दरअसल, ये तमाम मानसिकताएं आज एक मानवीय और आधुनिक समाज बनाने के रास्ते में बाधा हैं। इसीलिए जाति, नस्ल और रंगभेद के मुद्दों पर बहस को तेज करने की जरूरत है। इस बात पर जोर दिए जाने की जरूरत है कि मनुष्य का शरीर परिवार की आर्थिक हैसियत, आनुवंशिक कारणों, जलवायु, और भौगोलिक पहलुओं से तय होता है। इसलिए अगर कोई काला है तो यह अपमान का विषय नहीं है या गोरा होना गर्व करने की वजह नहीं हो सकती। न ही चेहरा इंसानियत को मापने का पैमाना हो सकता है।
आजा नचले गाने पर जिस ढंग की प्रतिक्रिया हुई और उस पर जिस तरह बिना विरोध जताए सुधार कर लिया गया, वह एक सकारात्मक संकेत है। इससे कम से कम यह बात तो जाहिर हुई कि पुरानी मान्यताएं और मानसिकता अब नई उभर ताकतें चुपचाप स्वीकार नहीं करेंगी। साथ ही जो ताकतें जाने या अनजाने में पुरातन सोच से प्रभावित रहती हैं, वे यह समझने लगी हैं कि अब समय उनके साथ नहीं है। वे समय की उठ रही नई धारा के रास्ते में ज्यादा समय तक रुकावट बन कर खड़ी नहीं रह सकतीं। साइमंड्स के मामले में भले ही हलकी ही, लेकिन कानूनी कार्रवाई की शुरुआत और उन्हें चिढ़ाने के तरीके की सार्वजनिक निंदा ने भी कुछ ऐसा ही पैगाम दिया। अब जरूरत इस सकारात्मक रुझान को आगे बढ़ाते हुए सार्वजनिक विमर्श से उन सभी शब्दों को हटाने की है, जो भेदभाव की सोच को जाहिर करते हैं। दरअसल, चुनौती उस मानसिकता को खत्म करने की है, जो जन्म और शरीर के आधार पर इंसान का मूल्यांकन करती है। लेकिन यह एक लंबी लड़ाई है। यह मकसद दरअसल, सिर्फ बहस से नहीं, बल्कि व्यवस्था के विभिन्न मोर्चों पर सीधे जन संघर्ष से ही हासिल किया जा सकता है। फिलहाल, इस दिशा में एक शुरुआत संतोष की बात है।

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