Saturday, March 15, 2008

ऐतिहासिक, लेकिन जोखिम भरी प्रक्रिया


सत्येंद्र रंजन
मेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी में उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया लोकतंत्र की एक जीवंत शक्ल पेश कर रही है। मुकाबला इतना सघन है कि अब फैसला अगस्त में होने वाले पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन तक खिंच सकता है। इस साल जब पलड़ा डेमोक्रेटिक पार्टी के हक मे झुका माना जा रहा है, कई जानकारों की राय में अंदरूनी लोकतंत्र की यह लंबी प्रक्रिया पार्टी के लिए भारी भी पड़ सकती है। यह वो दौर है जब डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी हासिल करने की होड़ में जुटे दोनों नेता- बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन का निशाना एक दूसरे पर सधा हुआ है, जबकि रिपब्लिकन पार्टी जॉन मैकेन को अपना उम्मीदवार चुन चुकी है और अब वह असली मुकाबले के लिए संसाधन जुटाने और रणनीति तैयार करने में लगी हुई है। बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन एक दूसरे की राजनीति छवि को विश्लेषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं औऱ इस क्रम में वे कई ऐसे पहलू उजागर कर रहे हैं, जो बाद में रिपब्लिकन पार्टी के काम आ सकते हैं।
इस अंदेशे के बावजूद डेमोक्रेटिक उम्मीदवार चुनने की यह प्रक्रिया इसलिए ऐतिहासिक है कि इसके साथ अमेरिकी सियासत में पुरुष और गोरे वर्चस्व की एक बड़ी दीवार ढह गई है। शुरुआती कॉकस और प्राइमरी मुकाबलों के बाद जब जॉन एडवर्ड्स ने अपना नाम उम्मीदवारी से वापस लिया, उसके बाद अमेरिकी इतिहास में यह पहला मौका आया, जब देश की एक प्रमुख पार्टी की उम्मीदवारी की होड़ में कोई गोरा पुरुष नहीं बचा। इस घटना का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्त्व ही नहीं है। यह उस लोकतांत्रिक परिघटना का चरमोत्कर्ष है, जो १८६० में गुलामी प्रथा खत्म होने और १९६० के दशक में ब्लैक समुदाय के लोगों को मताधिकार देने के साथ आगे बढ़ी। गौरतलब है कि १८६० और १९६० के दशक- दोनों ही मौकों पर अमेरिका को हत्यारे के हाथ अपना एक राष्ट्रपति गंवाना पड़ा। आज उसी ब्लैक समुदाय का एक नेता खुद राष्ट्रपति बनने की दहलीज पर खड़ा है। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम, अमेरिकी स्वतंत्रता का घोषणापत्र, (नागरिकों के) अधिकार घोषणापत्र (बिल ऑफ राइट्स) औऱ अमेरिकी संविधान का अस्तित्व में आना मानव सभ्यता के विकास के अहम मुकाम हैं। सारी दुनिया ने इनसे प्रेरणा ली। मगर यह विडंबना है कि जिन बुनियादी अधिकारों की बात उन घोषणापत्रों में की गई, जिन सिद्धांतों की स्थापना के लिए ब्रिटिश राज के खिलाफ वहां अठारहवीं सदी में विद्रोह हुआ और संविधान में जिन मूल्यों को मूर्त रूप दिया गया, उन्हें वास्तव में लागू करना दूर का मकसद बना रहा। तब भले सभी मनुष्यों को जन्मजात समान घोषित किया गया, लेकिन ब्लैक समुदाय की गुलामी खत्म करने के लिए देश को गृह युद्ध से गुजरना पड़ा और महिलाओं और ब्लैक समुदाय के लोगों को मताधिकार पाने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। यह संघर्ष बीसवीं सदी में आकर ही सफल हो सका। मगर बीसवीं सदी में भी यह बात संभवतः कल्पना से दूर रही कि कोई महिला या ब्लैक देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच सकेगा।
डेमोक्रेटिक पार्टी ने कभी कल्पनातीत लगने वाले इस मकसद को हकीकत बनाने का जोखिम इस बार पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ उठाया है। ज्यादातर राज्यों में पार्टी इस प्रक्रिया से गुजर चुकी है, लेकिन यह तय नहीं है कि आखिरकार इस बार राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक उम्मीदवार कौन होगा? फिलहाल, वोट प्रतिशत और प्रतिनिधियों की संख्या दोनों ही मामलों में बराक ओबामा बढ़त बनाए हुए हैं, लेकिन पिछड़ जाने के बाद दो बार हिलेरी क्लिंटन ने जैसी वापसी की है, उसे देखते हुए उन्हें खारिज करने का जोखिम उठाने को कोई तैयार नहीं है। उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया का अगला मुकाम पेनसिलवेनिया राज्य है, जहां २२ अप्रैल को मतदान होगा। तमाम सर्वेक्षणों के मुताबिक हिलेरी क्लिंटन को वहां भारी बढ़त मिली हुई है। दूसरा बड़ा मुकाम नॉर्थ कैरोलीना है, जो ओबामा का अपना राज्य है और जाहिर है, वहां बढ़त उन्हें हासिल है।
मुकाबला अगर इतना ही कांटे का रहा तो यह मुमकिन है कि दोनों में से कोई उम्मीदवार प्राइमरी और कॉकस के जरिए २०२५ प्रतिनिधि हासिल न कर सके, जो उम्मीदवारी हासिल करने के लिए जरूरी है। उस हालत में सुपर डेलीगेट कहे जाने वाले प्रतिनिधियों की भूमिका निर्णायक हो जाएगी। पार्टी के निर्वाचित प्रतिनिधि, गवर्नर, पार्टी पदाधिकारियों और पूर्व राष्ट्रपतियों को सुपर डेलीगेट का दर्जा मिला होता है। यह मतदान पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में होता है और तब तक शायद लोगों का ध्यान डेमोक्रेटिक पार्टी के अंदर चल रही दिलचस्प होड़ पर ही टिका रह सकता है। यह होड़ इसलिए दिलचस्प है क्योंकि इसमें लोगों की भागीदारी सामान्य से ज्यादा है, दोनों उम्मीदवार व्यक्तिगत खूबियों और खामियों के साथ-साथ ठोस मुद्दों पर भी चर्चा कर रहे हैं और दोनों ने जॉर्ज बुश-डिक चेनी के लगभग निरंकुश और आधुनिक कुलीनतंत्र जैसे शासन से मुक्ति दिलाने की उम्मीद लोगों में जगाई है।
यह एक हकीकत है कि उम्मीदवार चुनने के इस दौर में सबसे ज्यादा जोश बराक ओबामा ने भरा है। उनके ओजस्वी भाषणों ने खासकर नौजवान पीढ़ी और निर्दलीय समूहों में जबरदस्त उत्साह पैदा किया है। उनके नारे- चेंज, येस वी कैन यानी हां, हम परिवर्तन ला सकते हैं- का जादू जैसा असर देखने को मिला है। ओबमा जब परिवर्तन की बात करते हैं तो उनके निशाने पर सिर्फ बुश-चेनी नहीं होते। वो जब कथित वाशिंगटन ऐस्टैबलिशमेंट से मुक्ति की बात करते हैं, परोक्ष रूप से उनके निशाने पर हिलेरी क्लिंटन भी होती हैं। क्लिंटन परिवार आठ साल ह्वाइट हाउस में रह चुका है और अमेरिकी राजनीति में मान्यता है कि इस परिवार के पास एक मजबूत राजनीतिक मशीन है, जिससे वह बहस और राजनीतिक होड़ दोनों को अपनी ओर मोड़ सकता है। लेकिन अब तक के अनुभव से साफ है कि यह मशीन ज्यादा कारगर नहीं रही है, बल्कि इससे कथित रूप से जुड़े होने का हिलेरी क्लिंटन को नुकसान ज्यादा उठाना पड़ा है।
हिलेरी एक ऐसी शख्स मानी जाती हैं जो देश में मत-विभाजन पैदा करती हैं। उनके कट्टर समर्थक हैं और उतने ही कट्टर विरोधी भी। गर्भपात, नारी और समलैंगिकों के अधिकार तथा अन्य प्रगतिशील मुद्दों पर उनकी साफ सोच है, जिससे समर्थन और विरोध की बुनियाद पड़ती है। जब बिल क्लिंटन राष्ट्रपति थे और हिलेरी बतौर प्रथम महिला ह्वाइट हाउस में थीं, तब भी वे सिर्फ पति के साथ खड़ी रहने वाली महिला नहीं रहीं। बल्कि उन्होंने अपनी खास भूमिका बनाई। हेल्थ केयर यानी स्वास्थ्य देखभाल की जो नीति १९९३-९४ में उन्होंने लागू करने की नाकाम कोशिश की, वह डेमोक्रेटिक पार्टी के एजेंडे पर आज भी खास है। बल्कि जब से यह चुनाव अभियान शुरू हुआ है, इराक के बाद अगर कोई सबसे बड़ा मुद्दा इसमें है, तो वह स्वास्थ्य देखभाल ही है। हालांकि इस नीति को ठोस स्वरूप देने में सबसे बड़ी भूमिका जॉन एडवर्ड्स की रही, जिन्होंने इस नीति का व्यावहारिक खाका पेश किया। इसके साथ ही एडवर्ड्स ने कॉरपोरेट तबके से देश को वापस हासिल करने का नारा दिया, जिससे मजदूर एवं वंचित समूहों में पार्टी के समर्थन आधार को फिर से जीवित करने में मदद मिली।
एडवर्ड्स के चुनाव मैदान से हटने के बाद इन नीतियों की वारिस हिलेरी क्लिंटन बनी हुई हैं। अब तक की चुनाव प्रक्रिया से यह साफ है कि उन्हें बराक ओबामा के मुकाबले मजदूर और गरीब तबकों का ज्यादा समर्थन मिल रहा है। साथ लैटिनो यानी लैटिन अमेरिका से आकर बसे तबकों का भी ज्यादा समर्थन उन्हें हासिल हुआ है। इसके विपरीत बराक ओबामा को उच्च मध्य वर्ग के गोरे समुदायों, ब्लैक समुदाय, नौजवानों और उन लोगों का समर्थन ज्यादा मिला है, जो राजनीति से उदासीन रहे हैं। नीतियों और सियासी शख्सियत की उभरती इस पहचान के कारण ही ओबामा आज पूंजीपतियों के ज्यादा प्रिय नजर आते हैं और चंदा उगाहने में उन्होंने हिलेरी क्लिंटन को पीछे छोड़ दिया है।
ओबामा को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने शुरू से इराक पर अमेरिकी हमले का विरोध किया। इसलिए आज जब वे सत्ता में आने पर इराक से फौज वापस बुलाने का वादा करते हैं, तो वह ज्यादा विश्वसनीय लगता है। दूसरी तरफ हिलेरी क्लिंटन ने बतौर सीनेटर इराक पर हमले का अधिकार देने के विधेयक के पक्ष में वोट डाला था, इसलिए बुश की इराक की नीति का जब वो विरोध करती हैं, तो वो खुद ही कई सवालों से घिर जाती हैं। इसके बावजूद शायद यह निष्कर्ष निकालना सही नहीं है कि हिलेरी क्लिंटन बुश-चेनी के न्यू कंजरवेटिव एजेंडे के ज्यादा करीब हैं और ओबामा बुश की एकतरफा कार्रवाई की नीति के सिद्धांततः विरोधी हैं। हकीकत यह है कि ईरान के मामले पर ओबामा आक्रामक बातें करते रहे हैं और आतंकवादियों के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तान पर हमला कर देने जैसी बचकानी बातें भी कह चुके हैं। दरअसल, विदेश नीति एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सत्ता बदल जाने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। फर्क सिर्फ प्राथमिकता का पड़ता है, दिशा का नहीं। अगर इस पहलू को ध्यान में रखा जाए तो हिलेरी आज जो बातें कहती हैं, वह ज्यादा सूझबूझ भरी और व्यावहारिक लगती हैं।
ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन की विभाजक छवि का फायदा उठाने के लिए देश को एकजुट करने का नारा दिया है। इससे उन्होंने अपनी उस छवि को अपनी राजनीतिक पूंजी बनाने की कोशिश भी की है, जिसमें माना जाता है कि वे जो भी कहते हैं, वह दिल की आवाज होती है, उसमें बनावटी कुछ नहीं होता। जबकि हिलेरी क्लिंटन की छवि कुछ इस रूप में पेश की गई है कि वे जो भी कहती हैं, उसके पीछे एक गणित, एक राजनीतिक चाल होती है। ओबामा की इस पूंजी का सिक्का फिलहाल चलता नजर आ रहा है। इसके जरिए उन्होंने हिलेरी क्लिंटन के अनुभव बनाम भोलेपन के मुद्दे को एक तरह से बेअसर कर रखा है। क्लिंटन का अपने भाषणों में यह कहना कि सिर्फ ओजस्वी और लच्छेदार भाषण देश को नई दिशा देने के लिए काफी नहीं है, अब तक ज्यादा असरदार साबित नहीं हुआ है।
जबकि हकीकत यही है कि चाहे सवाल विदेश नीति का हो या स्वास्थ्य देखभाल जैसे बेहद जरूरी घरेलू मुद्दे का, ओबामा ओजस्वी भाषण के अलावा कोई ठोस कार्यक्रम पेश करने में नाकाम रहे हैं। इस लिहाज से शायद यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि राजनीति चाहे कहीं की हो, ठोस कार्यक्रम चुनाव के लिए ज्यादा जरूरी नहीं होते। बल्कि भावनात्मक बातें ज्यादा फायदेमंद साबित होती हैं। वरना, यह कहा जा सकता है कि कार्यक्रम के आधार पर जॉन एडवर्डर्स से बेहतर उम्मीदवार डेमोक्रेटिक पार्टी के पास नहीं था, लेकिन समर्थन न मिलने की वजह से उन्हें शुरुआत में ही हटना पड़ा और अब अपेक्षाकृत ज्यादा ठोस कार्यक्रम पेश कर रहीं हिलेरी क्लिंटन का भी यही हश्र हो सकता है। दूसरी तरफ रिपब्लिकन पार्टी ने वियतनाम युद्ध में हिस्सा ले चुके फौजी जॉन मैकेन को अपना उम्मीदवार चुन लिया है। मैकेन रिपब्लिकन उम्मीदवारों की परंपरा में सटीक बैठते हैं, जिनके पास कोई विचार और कार्यक्रम नहीं होता। वो कॉरपोरेट जगत, जमींदारों, चर्च औऱ कंजरवेटिव समूहों का एक ऐसा मुखौटा होते हैं, जिन्हें बतौर नायक पेश किया जा सके और जो लोगों को अपने कथित प्रभावशाली व्यक्तित्व से लुभा सकें। कोई आस्था और विचार न होने की सच्चाई पर मैकेन अपनी कथित फक्कड़ छवि का परदा डालने की कोशिश करते रहे हैं। असल में उनका व्यक्तित्व अंतर्विरोधों से भरा है। वे करों में कटौती के बुश की पहल के खिलाफ थे, लेकिन अब उसे अनिश्चित काल तक जारी रखने की बात करते हैं। वे मरीजों के स्वास्थ्य की सरकारी तौर पर देखभाल चाहते हैं, लेकिन इसे लोगों का अधिकार नहीं मानते। वो इराक पर हमले के पक्ष में थे, लेकिन हमले के तरीकों पर एतराज जताया और अब सौ साल तक अमेरिकी फौज को अमेरिका में रखने की वकालत कर रहे हैं। ये ऐसे पहलू हैं जिनके आधार पर उनकी सियासी शख्सियत के चिथेड़े बिखेरे जा सकते हैं। लेकिन ऐसा करना इसलिए आसान नहीं है, क्योंकि रिपब्लिकन पार्टी की पीठ पर धनी तबकों और कॉरपोरेट मीडिया का हाथ है।
फिलहाल, मैकेन के साथ सुविधा यह भी है कि डेमोक्रेटिक पार्टी अपने अंतर्द्वंद्व से नहीं उभर सकी है। अभी हिलेरी क्लिंटन और बराक ओबामा का सारा जोर एक दूसरे से आगे निकलने पर है। जब तक यह होड़ खत्म नहीं होती, उनकी असली जंग शुरू नहीं होगी। यह मैकेन और रिपब्लिकन पार्टी के लिए बड़े राहत की बात है।

1 comment:

Rajesh Roshan said...

इतनी ढेर सारी जानकरी देने के लिए धन्यवाद. एक सुझाव है जब आप लिखते हैं टू उसके बीच में पैराग्राफ जरूरी होता है जिसका आपके लेख में अभाव है. इस पर ध्यान दे. यह पाठक को पढने के लिए उकसाता है, वैसे लेख काफी अच्छा है
Rajesh Roshan