Wednesday, March 19, 2008

वाम एकता के अहम सवाल


सत्येंद्र रंजन
भारत की दोनों बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियां जब मार्च के अंतिम दस दिनों में अपनी राष्ट्रीय कांग्रेस का आयोजन कर रही हैं, तो उनके सामने एक बड़ा सवाल वामपंथी ताकतों की एकता को कायम रखने तथा इसे और व्यापक बनाने का है। देश में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र कायम रहे और राज्य-व्यवस्था में आम जन के हितों के लिए एक न्यूनतम जगह बनी रहे, इसके लिए यह एकता आज बेहद महत्त्वपूर्ण है। चार साल पहले वामपंथी दलों को इस संदर्भ में जो जनादेश मिला, कहा जा सकता है कि उन्होंने इसे जिम्मेदारी के साथ निभाया है। कम से कम मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए तो यह बात जरूर ही कही जा सकती है। कम्युनिस्ट शब्दावली में जिसे ‘संघर्ष और सहयोग साथ-साथ’ की नीति कहा जाता है, उस पर वाम मोर्चा परिस्थितियों के मुताबिक कमोबेश ठीक ढंग से चला है।

हालांकि वाम मोर्चे के अन्य घटक दलों- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, आरएसपी और फॉरवर्ड ब्लॉक ने कई बार अपनी तीखी जुबान से ठोस हालात के प्रति गैर-जिम्मेदार रवैये का परिचय दिया है, मगर वो कुल मिलाकर धर्मनिरपेक्ष एकता को भंग करने की हद तक नहीं गए हैं औऱ इसकी तारीफ की जानी चाहिए। जहां तक तीखी जुबान का सवाल है, उसका संबंध राजनीति या विचारधारा से कहीं ज्यादा मनोविज्ञान से है, जिसे राजनीतिक समूहों का विश्लेषण करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए। अक्सर देखा जाता है कि जो राजनीतिक गुट या दल जितना छोटा होता है, उसकी नीतियों में उतनी ही ज्यादा उग्रता होती है। इसकी एक वजह संभवतः अपनी अलग पहचान दिखाने की मजबूरी होती है और दूसरी यह कि चूंकि वह गुट या दल किसी बड़े समूह, हित या आकांक्षा की नुमाइंदगी नहीं करता, इसलिए उसकी जवाबदेही भी कम ही होती है।

जब बात वामपंथी, जनतांत्रिक या प्रगतिशील ताकतों की एकता की हो, तब यह मनोविज्ञान खासा अहम हो जाता है। इसलिए कि एकता के इस दायरे में जिन ताकतों को आना चाहिए या कम से कम जिनके बीच एक दोस्ताना संवाद बनना चाहिए, उनमें खुद को एक दूसरे से अलग दिखाने की होड़ बहुत तीखी होती है और इस क्रम में उनकी नीतियों या कहें शब्दजाल की उग्रता बढ़ती जाती है। इसीलिए आज देश में भले जन संघर्ष मजबूत हो रहे हों, और समान मकसद वाले संगठनों का दायरा फैल रहा हो, लेकिन उनके बीच संवाद और सहयोग का पुल बनने की गुंजाइश बेहद कम नजर आती है। बल्कि उनके बीच ऐसे मुद्दों पर अपनी ताकत झोंक देने या कहें बर्बाद कर देने की प्रवृत्ति खूब दिखाई देती है, जिनका कोई प्रगतिशील तार्किक परिणाम नहीं हो सकता और जिनसे कुल मिलाकर जनता के हितों को नुकसान ही पहुंचता है।

हाल में एक ऐसा ही मुद्दा नंदीग्राम रहा। औद्योगिकरण के मुद्दे पर पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार का रुख सही है या गलत, यह एक बहस का मुद्दा है। नंदीग्राम का सवाल इसी मुद्दे से खड़ा हुआ। लेकिन शुरुआती विरोध के साथ ही पश्चिम बंगाल सरकार ने एलान कर दिया कि प्रस्तावित औद्योगिक इकाई उस जगह पर नहीं लगेगी। सवाल है कि उसके बाद दस महीनों तक वहां आंदोलन किसलिए चलता रहा और उस आंदोलन में सक्रिय ताकतें कौन थीं? लेकिन बहुत सी जनतांत्रिक शक्तियों ने यह सवाल नहीं उठाया। इसके विपरीत उन्हें माकपा पर बरसाने के लिए नंदीग्राम का नाम का एक डंडा मिल गया और उस पर अपने रुख की व्याख्या के लिए दलीलें गढ़ ली गईं।

माकपा और भाकपा के सामने चुनौती इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए वाम एकता के सवाल पर विचार करने की है। लेकिन यह चुनौती सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। असली चुनौती तो उस मकसद की समझ बनाना और उसे जनता के सामने पेश करना है, जिसके लिए यह एकता आज सबसे ज्यादा जरूरी हो गई है। निसंदेह सबसे बड़ा सवाल धर्मनिरपेक्षता का है, और वामपंथी दलों के सामने ऐसी रणनीति बनाने की चुनौती है, जिससे अगले लोकसभा चुनाव के बाद भी सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोका जा सके। दूसरा बड़ा मकसद विदेश नीति में देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता कायम रखने की है, जिसका सौदा करने के लिए देश का प्रभु वर्ग आज सहज तैयार नजर आता है। इस विदेश नीति का सीधा संबंध देश के भीतर आर्थिक और शासन संबंधी दूसरी नीतियों से है। स्वतंत्र विदेश नीति की समर्थक ताकतें वे हैं जो देश के भीतर वंचित और उपेक्षित तबकों के हितों की वकालत करती हैं। जबकि सुविधाप्राप्त समूहों का सीधा हित साम्राज्यवादपरस्ती से जुड़ गया है। यानी अगर कुल मिलाकर कहें तो असली मुद्दा जनतांत्रिक संघर्ष को नए आयाम देने का है।

माकपा ने कांग्रेस और भाजपा की पूंजीवादी समूहों की हितैषी पार्टी के रूप में जो पहचान की है, वह सिद्धांततः सही है। इस लिहाज से जनतांत्रिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए तीसरे मोर्चे के गठन का उसका फॉर्मूला भी सही है। लेकिन दिक्कत इसे व्यावहारिक रूप देने में है। इसके लिए माकपा ने जिन साथियों की तलाश की है, उनमें कोई अपने वर्ग चरित्र, राजनीतिक चाल-ढाल, या उद्देश्यों में भी कांग्रेस से अलग है, यह कहना मुश्किल है। चाहे समाजवादी पार्टी हो या तेलुगू देशम पार्टी या यूएनपीए के दूसरे घटक दल, अवसरवाद, परिवारवाद और भ्रष्टाचार की कसौटियों पर कहीं ज्यादा दागदार नजर आते हैं। इन दलों को लेकर कैसा तीसरा मोर्चा बन सकता है, यह आसानी से समझा जा सकता है। जाहिर है, माकपा पिछले तीन साल तक कार्यक्रम और संघर्ष आधारित जिस तीसरे मोर्चे की बात करती रही, उसे अचानक छोड़ कर यूएनपीए से दोस्ती कर लेने के उसके दांव पर गंभीर सवाल खड़े किए जा सकते हैं। साफ है, यह प्रयास किसी दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा नहीं हो सकता।

प्रश्न यह है कि क्या यह सिर्फ एक फौरी कार्यनीतिक दांव है, जिसका मकसद इन दलों से अभी से संवाद कायम करना है, ताकि लोकसभा चुनाव के बाद उन्हें भाजपा के करीब जाने से रोकने की कोशिश करने की गुंजाइश बनी रहे? संभवतः इस लिहाज से यह एक उपयोगी कार्यनीति हो सकती है, लेकिन १९९८ और १९९९ में यूएनपीए में शामिल दलों ने धर्मनिरपेक्षता जैसे मूलभूत सिद्धांत के प्रति जैसी बेरुखी दिखाई, उसके मद्देनजर इस कार्यनीति के कामयाब होने की कम ही उम्मीद है। इस कार्यनीति का एक दूसरा मकसद मौजूद राजनीतिक ताकतों के साथ मिलकर एक ऐसा दबाव समूह बनाना हो सकता है, जिससे केंद्र की यूपीए सरकार को विदेश नीति और दूसरे मुद्दों पर साझा न्यूनतम कार्यक्रम से भटकने से रोका जा सके। फौरी तौर पर इस प्रयास के कुछ नतीजे भी दिखे हैं। लेकिन लंबी अवधि की राजनीति की कोई दिशा या राह इससे निकल सकेगी, फिलहाल इसकी उम्मीद करने का कोई ठोस आधार नहीं है।

यह बात वामपंथी नेता भी समझते होंगे और दरअसल, राजनीति की साधारण समझ रखने वाले सभी लोग इसे महसूस करते हैं कि अभी के हालात में कांग्रेस को दरकिनार कर कोई भाजपा विरोधी गठबंधन कारगर नहीं हो सकता। लेकिन कांग्रेस के अपने रुझानों और वर्ग चरित्र को देखते हुए यह भी साफ है कि उसके साथ व्यापक जन हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई गठबंधन बनने की संभावना नहीं है। और न ही दीर्घकालिक कार्यक्रम पर आधारित किसी तीसरे मोर्चे के उभरने की गुंजाइश है। ऐसे में वाम और जनतांत्रिक एकता एक पेचीदा और उलझा हुआ सवाल है।

हकीकत यह है कि इस एकता के दायरे में जो भी दल आते हैं, उनमें किसी को छोड़ कर चलने या किसी के साथ दूर और दीर्घकाल तक चलने की रणनीति वामपंथी दल नहीं बना सकते। दरअसल, एकता का आधार कोई बड़ा उद्देश्य, नीतियां और कार्यक्रम नहीं, बल्कि चुनावी समीकरण हैं और इसमें जहां जो गणित माफिक पड़ेगा, वहां उसके मुताबिक कार्यनीति अपनाने को वामपंथी दल भी मजबूर हैं। इन समीकरणों की जो सूरत चार साल पहले उभरी थी, उसमें बदलाव की आज भी ज्यादा गुंजाइश नहीं है। ऐसे में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कांग्रेस से कोई नई राजनीतिक दिशा निकलने की उम्मीद नहीं जोड़ी जानी चाहिए। उनसे ऐसी समालोचना की उम्मीद जरूर है जिससे देश के जागरूक लोग मौजूदा हालात की गंभीरता और इन हालात में अपने फर्ज को बेहतर ढंग से समझ सकें।

1 comment:

राम पारेख said...

आप बड़े ढपोरशंखी प्रतीत होते हैं। लेफ्ट भी हैं लिबरल भी। इंकलाब भी करना चाहते हैं और नौकरी में मोटी तनख्वाह और पदोन्नती का लालच भी। बड़े बड़े लेख लिखते हैं ताकी कोई पूरा पढ़कर आपके विचारों के खोखलेपन को भांप ना ले। ये मत सोचियेगा कि मैं आपका कोई दुशमन हू। मैं एक आम पाठक हूं। पिछले तीन-चार हफ्ते के दौरान आपके इन निहायत बोरिंग और वाहियात लेखों को पढ़ने में वक्त बरबाद किया और तब इस नतीजे पर पहुंचा। अब समझ में आ रहा है कि एनडीटीवी चैनल इतना पकाऊ क्यों है। आप जैसे लोगों को भी इसका बड़ा श्रेय मिलना चाहीये।