Thursday, May 28, 2009

न्यायपालिका सबसे ऊपर है?

सत्येंद्र रंजन
क्या जजों को अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक रूप से देना चाहिए? यह सवाल अगर राजनेताओं या नौकरशाहों के बारे में पूछा जाए, तो हर क्षेत्र से इसका एक ही जवाब आएगा- हां। खुद न्यायपालिका भी यही राय जताएगी। लेकिन जब बात न्यायाधीशों की आती है तो न्यायपालिका एक अलग और विचित्र किस्म की प्रतिक्रिया दिखाती नजर आती है। अपने मामले में वह सूचना के अधिकार कानून के पक्ष में नहीं है।

मद्रास हाई कोर्ट के कैंपस में वकीलों और पुलिस के बीच भिड़ंत हुई। हिंसा पर वकील भी उतरे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सारा ठीकरा पुलिस के सिर फोड़ दिया। यहां तक कि वकीलों ने काम पर लौटने की खुद सुप्रीम कोर्ट की अपील की भी अवहेलना कर दी। लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख आरंभ में नरम ही रहा। बाद में जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा की रिपोर्ट के बाद न्यायपालिका के रुख में कुछ संतुलन आया। मगर मद्रास हाई कोर्ट प्रशासन के प्रति वकीलों की तुलना में ज्यादा सख्त बना रहा। ये और ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो न्यायपालिका के खुद को सबसे ऊपर मानने के संकेत देते हैं। प्रश्न है कि क्या यह लोकतंत्र के हित में है?

कुछ समय पहले दिल्ली के अखबार मिड डे के मामले में न्यायपालिका और मीडिया आमने-सामने आए। मिड डे के दो पत्रकारों, एक कार्टूनिस्ट और प्रकाशक को कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराया गया। मसला दिल्ली में सीलिंग संबंधी सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के फैसलों का था जिसके एक सदस्य पूर्व प्रधान न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल थे। आरोप यह है कि इन फैसलों से न्यायमूर्ति सब्बरवाल के बेटों को फायदा पहुंचा, जो उनके सरकारी निवास में रहते हुए अपना कारोबार चला रहे थे। हाई कोर्ट ने इस संबंध में मिड डे अखबार में छपी रिपोर्ट की सच्चाई पर गौर करने के बजाय अखबार को सुप्रीम कोर्ट की नीयत पर शक करने का दोषी ठहरा दिया।

यह पहला मामला नहीं था, जब न्यायपालिका ने उसे आईना दिखाने की कोशिश पर ऐसा रुख अख्तियार किया हो। उसके कुछ ही समय पहले ज़ी न्यूज चैनल के पत्रकार को खुद सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के ही मामले में माफी मांगने का आदेश दिया। उस पत्रकार का दोष यह था कि उसने गुजरात की निचली अदालतों में जारी भ्रष्टाचार का खुलासा करने के लिए स्टिंग ऑपरेशन किया। वहां पैसा देकर राष्ट्रपति और खुद तब के सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ उसने वारंट जारी करवा दिए।

उसी दौर में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय सुनाया कि किसी न्यायिक अधिकारी के गलत फैसला देने पर उसके खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती, न ही उसे सजा दी जा सकती है। यह मामला उत्तर प्रदेश के एक ऐसे न्यायिक अधिकारी के मामले में आया, जिस पर घूस लेने का आरोप लगा था। इसकी जांच कराई गई। इसके आधार पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस न्यायिक अधिकारी की दो वेतनवृद्धि रोकने और पदावनति करने की सजा सुनाई। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ इस फैसले को खारिज कर दिया, बल्कि हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने वाले न्यायिक अधिकारी को जिला जज के रूप में नियुक्त करने और उसके खिलाफ कार्यवाही की अवधि के सभी वेतन -भत्तों का भुगतान करने का आदेश भी दिया। (द हिंदू, १९ अप्रैल २००७)

इसके पहले हाई कोर्टों में दो जजों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति की आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया। इनमें न्यायमूर्ति एसएल भयाना के खिलाफ जेसिका लाल हत्याकांड में दिल्ली हाई कोर्ट ने कड़ी टिप्पणियां की थीं। उधर न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला पर रिलायंस एनर्जी को लाभ पहुंचाने का आरोप था। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम से इन दोनों की तरक्की पर पुनर्विचार करने की अपील की थी। लेकिन जजों के इस समूह यानी कॉलेजियम ने इन आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए न्यायमूर्ति भयाना को दिल्ली हाई कोर्ट का जज नियुक्त कर दिया। न्यायमूर्ति भल्ला को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया।

इन फैसलों ने अवमानना संबंधी कानून और लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की जिम्मेदारी और भूमिकाओं पर नई बहस खड़ी की। जहां तक नियुक्तियों में कार्यपालिका के आगे न झुकने की बात है तो इसे सामान्य स्थितियों में इसे एक स्वस्थ परिघटना माना जाता। तीन दशक पहले जब कार्यपालिका सर्वशक्तिमान दिखाई देती थी और सरकार जजों की नियुक्ति अपनी सुविधा से करती थी, उस समय न्यायिक स्वतंत्रता की ऐसी मांग देश में पुरजोर तरीके से उठी थी। लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि न्यायपालिका में अपनी स्वतंत्रता जताने के साथ-साथ राज्य-व्यवस्था के दूसरे समकक्ष अंगों के कार्य और अधिकार क्षेत्र में दखल देने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। इसे न्यायिक सक्रियता का नाम दिया गया है। यानी ऐसी सक्रियता जो दूसरे अंगों में मौजूद बुराइयों और लापरवाहियों को दूर करने के लिए एक मुहिम के रूप में शुरू की गई है।

जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार और जन समस्याओं के प्रति उनके उदासीन रवैये पर जज अक्सर कड़ी फटकार लगाते हैं, जिसे मीडिया में खूब जगह मिलती रही है। जज कानून के साथ-साथ अक्सर नैतिकता को भी परिभाषित करते सुने गए हैं। इसका एक लाभ यह हुआ कि शासन के विभिन्न अंगों के उत्तरदायित्व को लेकर जनता के बड़े हिस्से में जागरूकता पैदा हुई है। इससे सार्वजनिक जीवन में आचरण की कुछ कसौटियां आम लोगों के दिमाग में कायम हुई हैं। यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग उन कसौटियों को न्यायपालिका पर भी लागू करना चाहें। आखिर लोकतंत्र की आम धारणा और अपनी संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका भी जनता की एक सेवक है। उसके सुपरिभाषित कार्य और अधिकार क्षेत्र हैं। लोगों को यह अपेक्षा रहती है कि शासन का हर अंग अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए अपने इन कर्त्तव्यों का सही ढंग से पालन करे। साथ ही जब सार्वजनिक आचरण की अपेक्षाओं को खुद न्यायपालिका ने काफी ऊंचा कर दिया है, तो उस कसौटी पर खुद वह भी खरी उतरे।

गौरतलब है कि केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता और न्यायिक सक्रियता एक ही दौर की परिघटनाएं हैं। १९९० के दशक में भारतीय समाज एक बड़ी उथल पुथल से गुजरा। एक तरफ बढ़ती आकांक्षा से कमजोर तबके सामाजिक न्याय के लिए गोलबंद हुए, तो दूसरी तरफ उसकी प्रतिक्रिया में शासक समूहों ने उग्र दक्षिणपंथी रुख अख्तियार किया। इस टकराव का एक परिणाम राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आया। किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना लगातार दूर की संभावना बनता गया। ऐसे में केंद्र में कमजोर सरकारों का दौर आया, और संसद में बिखराव ज्यादा नजर आने लगा। नतीजा यह हुआ कि शासन व्यवस्था के इन दोनों अंगों के लिए अपने अधिकार को जताना लगातार मुश्किल होता गया। ऐसे दौर में न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने भी अपनी नई भूमिका बनाई। इस दौर में राजनेताओं की अकुशलता और शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार ज्यादा खुलकर सामने आने लगे, जिससे आम जन में विरोध और नाराजगी का गहरा भाव पैदा हुआ। ऐसे में जब न्यायपालिका ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती बरती या शासन के आम कार्यों में दखल देना शुरू किया तो मोटे तौर पर लोगों ने उसका स्वागत किया।

यह बात ध्यान में रखने की है कि न्यायपालिका इसलिए लोगों का समर्थन पा सकी क्यों कि आम तौर पर उसकी एक अच्छी छवि लोगों के मन में मौजूद रही है। अगर यह छवि मैली होती है तो फिर न्यायपालिका वैसे ही जन समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकती। वह छवि बनी रहे, इसके लिए अंग्रेजी की यह कहावत शायद मार्गदर्शक हो सकती है कि सीज़र की पत्नी को शक के दायरे से ऊपर होना चाहिए। यह विचारणीय है कि क्या हर हाल में, न्यायपालिका के हर हिस्से का बचाव ऐसी छवि को बनाए रखने में सहायक हो सकता है?

यहां हम इस बात को नहीं भूल सकते कि न्यायिक सक्रियता के इसी दौर में न्यायपालिका की वर्गीय प्राथमिकताओं पर बहस तेज होती जा रही है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की तरफ से कराए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष रहा है कि न्यायपालिका ने प्रगतिशील फैसलों और जन हित याचिकाओं पर सशक्त पहल के दौर को अब पलट दिया है और उसने जन विरोधी लबादा ओढ़ लिया है। इस अध्ययन में कहा गया- हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों ने कई जन विरोधी फैसले दिए हैं। इनसे उनकी प्राथमिकताओं में पूरा बदलाव जाहिर हुआ है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। (डीएनए, १६ अप्रैल, २००७) शायद इससे कड़ी आलोचना और कोई नहीं हो सकती।


बौद्धिक क्षेत्र में न्यायपालिका की इन प्राथमिकताओं को भारतीय लोकतंत्र में चल रहे विभिन्न हितों के व्यापक संघर्षों की पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। दरअसल, जिस दौर में न्यायिक सक्रियता शुरू हुई, उसी दौर में राजनीतिक सत्ता के ढांचे में बदलाव की ऐतिहासिक प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी है। सदियों से दबाकर रखे गए समूहों ने लोकतंत्र की आधुनिक व्यवस्था के तहत मिले मौकों का फायदा उठाते हुए अपनी राजनीतिक शक्ति विकसित की और यह शक्ति आज किसकी सरकार बनेगी, यह तय करने में काफी हद तक निर्णायक हो गई है। एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के जिस सिद्धांत को भारतीय संविधान में अपनाया गया, उसका असली असर दिखने में कुछ दशक जरूर लगे, लेकिन उससे एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हुई, जिसने भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल दिया है। राज सत्ता पर बढ़ते अधिकार के साथ अब ये समूह सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी अपने लिए अधिकार और विशेष अवसरों की मांग कर रहे हैं। जाहिर है, जिनका सदियों से इन संसाधनों पर वर्चस्व है, वो आसानी से समझौता करने को तैयार नहीं हैं।


राजनीतिक रूप से लगातार कमजोर पड़ते जाने के बाद इन तबकों की आखिरी उम्मीद अब कुछ संवैधानिक संस्थाओं से जोड़ी है। इसलिए कि इन संस्थाओं में आम तौर पर अभिजात्य वर्गों के लोग ही आते हैं और उनका अपना नजरिया भी यथास्थितिवादी होता है। सार्वजनिक नीतियों के मामले में न्यायपालिका के अगर पिछले एक दशक के रुझान पर नजर डाली जाए तो इस वर्गीय नजरिए की वहां काफी झलक देखी जा सकती है। यह रुझान मोटे तौर पर ऐसा रहा है-

मजदूर और वंचित समूहों के अधिकारों को न्यायिक फैसलों से संकुचित करने की कोशिश की गई है। बंद और आम हड़़ताल को गैर कानूनी ठहरा दिया गया है। पांच साल पहले तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारियों के मामले में तो यह फैसला दे दिया गया कि कर्मचारियों को हड़ताल का अधिकार ही नहीं है। इस तरह मजदूर तबके ने लंबी लड़ाई से सामूहिक सौदेबाजी का जो अधिकार हासिल किया, उसे कलम की एक नोक से खत्म कर देने की कोशिश हुई। कर्मचारियों और मजदूरों के प्रबंधन से निजी विवादों के मामले में लगभग यह साफ कर दिया गया है कि मजदूरों को कोई अधिकार नहीं है, प्रबंधन कार्य स्थितियों को अपने ढंग से तय कर सकता है। अगर इसके साथ ही विस्थापन, विकास और पूंजीवादी परियोजनाओं के मुद्दों को जोड़ा जाए तो देखा जा सकता है कि कैसे न्यायपालिका के फैसले से मौजूदा शासक समूहों के हित में गए हैं।

अब अगर सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर गौर करें तो कई संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से न सिर्फ लोकतंत्र को सीमित करने बल्कि कई मौकों पर लोकतंत्र के रोलबैक की कोशिश होती हुई भी नजर आती है। इसकी एक बड़ी मिसाल शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का मामला है। वरिष्ठ वकील एमपी राजू ने इस आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाए जाने के बाद लेख में लिखा- यह फैसला काफी हद तक प्रतिगामी भेदभाव (रिवर्स डिस्क्रिमिनेसन) के अमेरिकी सिद्धांत पर आधारित है। ये सिद्धांत यह है कि विशेष सुविधाएं देने के लिए जो वर्गीकरण किया जाएगा, उससे उन वर्गों से बाहर रह गए तबकों को नुकसान नहीं होना चाहिए। आरक्षण के प्रकरण में इसका मतलब है कि अगड़ी जातियों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इससे यह सवाल जरूर उठा कि क्या न्यायपालिका ऊंची जातियों और अभिजात्य वर्गों के हित रक्षक की भूमिका में सामने आ रही है? और क्या संसद और सरकारों के प्रति उसका कड़ा, कई बार इन अंगों के प्रति अपमानजनक सा लगने वाला उसका नजरिया असल में इसलिए ऐसा है कि लोकतंत्र के इन अंगों में कमजोर वर्गों का अब निर्णायक प्रतिनिधित्व होने लगा है?

इन सवालों पर न्यायपालिका से जुड़े अंगों और व्यापक रूप से पूरे देश में आज जरूर बहस होनी चाहिए। आधुनिक लोकतंत्र स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सर्वमान्य मूल्यों और शक्तियों के पृथक्करण के बुनियादी सिद्धांत पर टिका हुआ है। इसमें कोई असंतुलन पूरी व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकता है। आजादी के बाद शुरुआती दशकों में कार्यपालिका के वर्चस्व और केंद्र की प्रभुता की वजह से कई विसंगतियां पैदा हुईं, जिससे देश के कई हिस्सों में राजनीतिक हिंसा की स्थितियां और अलगाव की भावना पैदा हुई। विकेंद्रीकरण और आम जन की लोकतांत्रिक अपेक्षाओं को प्रतिनिधित्व देने वाली नई शक्तियों के उभार से वह असंतुलन काफी हद तक दूर होता नजर आया है। लेकिन इस नए दौर में न्यायपालिका का रुख नई चिंताएं पैदा करता गया है।

अनावश्यक दखल?
अदालतों के अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर दखल देने की बढ़ती की शिकायत के बीच पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एके माथुर और मार्कंडेय काटजू ने जजों को उनकी संवैधानिक सीमा की याद दिलाई। दोनों जजों ने यह बेलाग शब्दों में कहा कि अगर कोई काम सरकारें नहीं कर पातीं, तो उनका हल यह नहीं है कि न्यायपालिका संसद और सरकारों का काम अपने हाथ में ले ले, क्योंकि इससे न सिर्फ संविधान से तय शक्तियों का नाजुक संतुलन बिगड़ जाएगा, बल्कि न्यायपालिका के पास न तो इन कार्यों को अंजाम देने की महारत है और न ही उसके पास इसके लिए जरूरी संसाधन हैं। न्यायमूर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू ने न्यायपालिका के अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर दखल की कई मिसालें अपने एक फैसले में गिनाईं और जजों को सलाह दी कि वो अपनी सीमाओं को समझें एवं सरकार चलाने की कोशिश न करें। उन्होंने कहा कि जजों में विनम्रता होनी चाहिए और उन्हें सम्राटों जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। संभवतः न्यायिक सक्रियता या अदालतों के अपनी हद लांघने की शिकायत पर इससे कड़ी टिप्पणी कोई और नहीं हो सकती।

इन टिप्पणियों के साथ सुप्रीम कोर्ट की इस खंडपीठ ने राज्य-व्यवस्था के तीनों अंगों के बीच शक्तियों के संतुलन को लेकर चल रही बहस को एक नया आयाम दिया। लेकिन वह फैसला आने के दो दिन बाद ही प्रधान न्यायाधीश केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली एक बेंच ने यह कह कर कि अदालत दो जजों की टिप्पणियों से बंधी हुई नहीं है, इस फैसले को बेअसर करने की कोशिश की। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर उभरी दो तरह की राय को इस बात की मिसाल ही मान गया कि मौजूदा समय में भारतीय लोकतंत्र से जुडी एक अहम बहस लगातार तीखी होती जा रही है और इस सवाल पर न्यायपालिका भी एकमत नहीं है।

न्यायमुर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू की टिप्पणियों के पीछे एक लंबी पृष्ठभूमि है। इस संदर्भ में यह गौरतलब है कि जन हित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायपालिका ने खासकर १९८० के दशक से अपनी एक नई भूमिका बनाई। इसी से न्यायिक सक्रियता की उत्पत्ति हुई। इस परिघटना के समर्थक समूहों का कहना है कि न्यायिक सक्रियता के जरिए अदालतों ने कमजोर और गरीब तबकों के हित में दखल दिया और सरकारों को जवाबदेह बनाया।

लेकिन अगर हम पिछले ढाई दशकों में भारतीय न्यायपालिका के इतिहास पर समग्र रूप से विचार करें तो यह कथन एक अर्धसत्य नजर आता है। अदालतों ने जन हित याचिकाओं पर बंधुआ मजदूरी जैसे कई मामलों में जरूर ऐसे फैसले दिए, जिन्हें प्रगतिशील कहा जा सकता है। लेकिन ऐसी ही याचिकाओं पर अदालतों ने बंद को असंवैधानिक, एवं हड़ताल को गैर कानूनी घोषित करने और नौकरी संबंधी कई स्थितियों में मजदूरों के हितों के खिलाफ फैसले भी दिए। १९९० के बाद जैसे-जैसे नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां शासन व्यवस्था का हिस्सा बनती गईं, न्यायपालिका के ऐसे फैसलों का सिलसिला बढ़ता गया, जिनसे मजदूर एवं कर्मचारी तबकों के लिए व्यक्तिगत या सामूहिक सौदेबाजी मुश्किल होती गई। पर्यावरण रक्षा की अभिजात्यवादी समझ को न्यायिक समर्थन मिलता गया, जिससे हजारों परिवार उजड़ गए। विकास परियोजनाओं से विस्थापित हुए समूह अदालती चिंता के दायरे से बाहर होते गए।

साथ ही अदालतें सार्वजनिक नीतियों में खुलेआम दखल देने लगीं। मिसाल के तौर पर, असम में लागू गैर कानूनी आव्रजक (ट्रिब्यूनल से निर्धारण) कानून को रद्द करने से लेकर आंध्र प्रदेश में अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के सरकारी फैसलों पर न्यायपालिका का रुख समाज में मौजूद एक खास ढंग के पूर्वाग्रह को मजबूत करने वाला रहा है। शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के प्रस्ताव पर पहले रोक लगा कर और फिर शर्तों के साथ उसे हरी झंडी देकर सुप्रीम कोर्ट ने संसद के अधिकार क्षेत्र में दखल दिया। गौरतलब है कि इस आरक्षण के लिए पास कानून पर सभी दलों में सहमति की दुर्लभ मिसाल देखने को मिली थी। ऐसी मिसाल दिल्ली में अवैध निर्माणों की सीलिंग रोकने के संदर्भ में भी देखने को मिली थी। लेकिन संसद में आम सहमति से पास वह कानून भी सुप्रीम कोर्ट की कसौटी पर खरा नहीं उतरा।

इससे सवाल यह उठा कि जब कोई ऐसी सार्वजनिक नीति बने, जिस पर देश की जनता की नुमाइंदगी करने वाले सभी दल एकमत हों, तो उस पर रोक लगाकर आखिर अदालत किसके हित की रक्षा करती है? गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट संविधान की नौवीं अनुसूची को असंवैधानिक ठहरा चुका है, जिसके जरिए संसद उन फैसलों को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखती थी, जिन पर आम सहमति होती थी, लेकिन जिन्हें संवैधानिक प्रावधानों, अनुच्छेद और धाराओं की यांत्रिक न्यायिक व्याख्या से रद्द किए जाने की आशंका होती थी। न्यायपालिका अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाते हुए यह फैसला दे चुकी है कि संसद का कोई भी कानून या संविधान संशोधन अब न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं है। अगर अदालत समझती है कि उस कानून या संशोधन से किसी के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन होता है तो उसे वह रद्द कर देगी।

इस तरह संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा को स्थापित करने के बाद बुनियादी अधिकारों को आधार बनाते हुए न्यायपालिका ने शासन व्यवस्था के भीतर खुद के सर्वोच्च होने की स्थिति बना ली है। जाहिर है, यह नई स्थिति भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप नहीं है। दरअसल, अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम और फ्रांस की क्रांति के दौरान शासन के जिन मूल्यों का विकास हुआ और जिन्हें लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के रूप में अपनाया गया, यह उसके भी खिलाफ है। शक्तियों के अलगाव, राज्य-व्यवस्था के अंगों के बीच अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्था, और जन भावना की सर्वोच्चता के इन मूल्यों के बिना कोई भी लोकतंत्र महज एक ढांचा ही हो सकता है, वह वास्तविक लोकतंत्र नहीं हो सकता।

आरक्षण का सवाल
पिछले साल अन्य पिछड़ी जातियों के लिए ऊंचे सरकारी शिक्षा संस्थानों में सत्ताइस फीसदी आरक्षण को संविधान सम्मत ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विधायिका और न्यायपालिका में एक बड़े टकराव की आशंका टल गई। लेकिन हकीकत यही है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सामाजिक न्याय की समर्थक शक्तियों की महज आधी जीत ही थी, क्योंकि इस आरक्षण के लागू होने के रास्ते में उस न्यायिक फैसले ने कई अड़चनें भी खडी कर दीं। यह रास्ता क्रीमी लेयर की अवधारणा पर कोर्ट के काफी जोर देने तथा जजों की कई टिप्पणियों से खासा संकरा हो गया। कोर्ट ने न सिर्फ क्रीमी लेयर को आरक्षण के फायदे से बाहर रखने का निर्देश दिया, बल्कि यह व्यवस्था भी दे दी कि अगर आरक्षित सीटें अन्य पिछड़ी जातियों के गैर क्रीमी लेयर उम्मीदवारों से नहीं भरती हैं तो वे सीटें सामान्य श्रेणी के छात्रों के भरी जाएं। पांच जजों ने चार अलग-अलग फैसले सुनाए और इनमें से एक फैसले में यह भी कहा गया कि आम छात्रों से दस फीसदी कम नंबर लाने वाले छात्रों तक ही आरक्षण का लाभ सीमित रहे। क्रीमी लेयर की चर्चा करते हुए एक आदेश यह दिया गया कि मौजूदा और पूर्व सांसदों एवं विधायकों की संतानों को इसमें शामिल किया जाए, ताकि उन्हें आरक्षण का फायदा नहीं मिल सके।

देश की सामाजिक हकीकत से वाकिफ कोई व्यक्ति यह आसानी से समझ सकता है कि जिन शर्तों के साथ आरक्षण को हरी झंडी दी गई, उनके रहते इस आरक्षण के मकसद को कभी हासिल नहीं किया जा सकता। यहां गौरतलब है कि मौजूदा फैसला इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में १९९३ में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के रोशनी में आया। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएच कीनिया की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने उस फैसले में मंडल आयोग की सिफारिशों के मुताबिक केंद्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए सत्ताइस फीसदी आरक्षण को सही ठहराया था। लेकिन उसके साथ ही क्रीमी लेयर की अवधारणा भी उससे जोड़ दी थी।

तब सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की अवधारणा को इस आधार पर संविधान सम्मत बताया था कि संविधान में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की बात कही गई है, न कि पिछड़ी जातियों को। कोर्ट ने मंडल आयोग के इस निष्कर्ष को माना था कि भारतीय समाज में जाति सामाजिक हैसियत और आर्थिक हालत का एक पैमाना है, लेकिन यह स्वीकार नहीं किया कि एक जाति के सभी लोग इस पैमाने के तहत आते हैं। कोर्ट का कहना था कि जाति, आर्थिक हैसियत और शैक्षिक स्थिति को एक साथ लेते हुए वे वर्ग तय किए जा सकते हैं, जिन्हें आरक्षण का फायदा मिले।

आरक्षण का फायदा उत्तरोत्तर ज्यादा गरीब और वंचित तबकों को मिले, इस पर किसी को कोई एतराज नहीं हो सकता। लेकिन मुश्किल इस व्यवस्था से है कि अगर इन तबकों से आरक्षित सीटें नहीं भर पाती हैं तो फिर उन सीटों को सामान्य श्रेणी के छात्रों से भर दिया जाए। यह व्यवस्था आरक्षण के उद्देश्य को विफल कर देती है। सवाल है कि अगर पिछड़ी जातियों के क्रीमी लेयर के छात्र उन सीटों पर नहीं आएंगे तो वे सीटें ऊंची जातियों के क्रीमी लेयर जैसी हैसियत वाले छात्रों को क्यों मिलनी चाहिए? साथ ही इस चर्चा में आरक्षण से जुड़ी एक बेहद अहम बात नजरअंदाज कर दी गई है कि आरक्षण कोई गरीबी हटाओ कार्यक्रम नहीं है। इसका मकसद निर्णय की प्रक्रिया में उन सभी समूहों और जातियों की नुमाइंदगी सुनिश्चित करना है, जो सदियों से जाति व्यवस्था के कठोर कायदों की वजह से इससे वंचित रहे हैं। इसलिए यह व्यवस्था तो ठीक है कि आरक्षण का लाभ देने में प्राथमिकता आर्थिक आधार पर तय हो, लेकिन इसे अंतिम शर्त बना देना आरक्षण की मूल धारणा पर प्रहार है।

दरअसल, ऊंची शिक्षा में ओबीसी आरक्षण के बारे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐसी टिप्पणियों से भरा हुआ है, जो आरक्षण का पक्ष लेने के बजाय आरक्षण पर सवाल खड़ा करती लगती हैं। १९५१ में संविधान में पहला संशोधन सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को संभव बनाने के लिए किया गया था। इस संशोधन के जरिए संविधान के अनुच्छेद १५ में चौथी धारा जोड़ी गई थी। अनुच्छेद १५ (४) के जरिए सरकार को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों अथवा अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जन जातियों की तरक्की के लिए कदम उठाने का अधिकार दिया गया। पिछले साल आए फैसले में न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी ने इस कदम के उद्देश्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया। उन्होंने टिप्पणी की कि यह व्यवस्था करते समय पहली संसद संविधान निर्माताओं के उद्देश्य से भटक गई। उसने ऐसा संशोधन पास किया, जिससे जातिवाद कमजोर होने के बजाय मजबूत हुआ। जाहिर है, न्यायपालिका की एक धारा आरक्षण जैसे कदमों के साथ खुद को सहज महसूस नहीं कर रही है। वह न्याय, समानता और संवैधानिक मूल्यों के बारे में समाज के परंपरागत प्रभु वर्ग की सोच के ज्यादा करीब नज़र आती है।

अगर भारतीय लोकतंत्र के विकासक्रम में न्यायपालिका के रुख पर गौर करें तो यह कोई नई बात नहीं है। न्यायपालिका ने १९६० के दशक में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रीवी पर्स को खत्म करने के सरकार और संसद के फैसले को असंवैधानिक बता दिया था। उसके पहले भूमि सुधारों को लागू करने की सरकार की कोशिश भी न्यायिक हस्तक्षेप से बाधित होती रही, जिसकी वजह को संसद को संविधान में नौवीं अनुसूची की व्यवस्था करनी पड़ी, जिसे २००७ में सुप्रीम कोर्ट ने निष्प्रभावी कर दिया। ये तमाम फैसले धनी और सामाजिक वर्चस्व रखने वाले समूहों के हित में रहे हैं।

लेकिन बात सिर्फ भारत की नहीं है। अगर अमेरिकी इतिहास पर गौर करें तो वहां भी ऐसे न्यायिक फैसलों की कोई कमी नहीं है। १८६५ में अमेरिकी संविधान में १३वें संशोधन के जरिए गुलामी प्रथा को खत्म किया गया और १९६८ में १४वें संशोधन के जरिए सभी नागरिकों के लिए कानून के समान संरक्षण की व्यवस्था की गई। ये दौर था जब अश्वेत समुदायों के साथ खुलेआम भेदभाव किया जाता था और उन्हें उन स्कूलों में दाखिला नहीं मिलता था, जिनमें गोरे बच्चे पढ़ते थे। अश्वेत समुदायों को गोरों से अलग रखने की नीतियों को समान संरक्षण कानून के तहत जब १८९८ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि ये नीतियां इस कानून का उल्लंघन नहीं करतीं। १८९० के दशक के मध्य में ही अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आय कर को असंवैधानिक घोषित करते हुए धनी तबकों को बड़ी राहत दी थी। १९३० के दशक में जब भारी मंदी के दौर में तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलीन डी रूजवेल्ट ने न्यू डील कार्यक्रम के तहत वित्तीय क्षेत्र पर लगाम कसने और कमजोर तबकों को राहत पहुंचाने की कोशिश की, तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया।

लोकतांत्रिक विकास के क्रम में न्यायपालिका की ऐसी भूमिका को आज समझे जाने की बेहद जरूरत है। जानकार मानते हैं कि न्यायपालिका के ऐसे रुझान की वजह उसकी अंदरूनी संरचना से जुड़ी होती है। यहां आम तौर पर समाज के प्रभु वर्ग के लोग पहुंचते हैं और उसी तबके की सोच से उनका मनोविज्ञान प्रभावित रहता है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के दौर में संविधान पर अमल की समीक्षा के लिए बने आयोग की यह टिप्पणी गौरतलब है- उच्चतर न्यायपालिका में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व नाकाफी है। विभिन्न हाई कोर्टों के ६१० जजों में सिर्फ २० जज ही अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के हैं। (तब के आंकड़े)

दरअसल, हर क्षेत्र में ऐसी हालत की वजह से आरक्षण की नीति अपनानी पड़ी। आरक्षण का असली मकसद हर क्षेत्र में ऐसे ही वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी करना है। इसके बिना लोकतंत्र महज एक औपचारिक ढांचा ही बना हुआ है।

सेतु समुद्रम का मामला
२००७ में तमिलनाडु सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति बीएन अग्रवाल की टिप्पणियों ने आखिरकार विभिन्न राजनीतिक दलों को न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका एवं विधायिका के अधिकार क्षेत्र के अतिक्रमण के सवाल पर बोलने को मजबूर कर दिया। तब सेतु समुद्रम मुद्दे पर आयोजित तमिलनाडु बंद को सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक करार दिए जाने के बाद मुख्यमंत्री मुतुवेल करुणानिधि और उनकी सहयोगी पार्टियों ने भूख हड़ताल पर बैठने का फैसला किया। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी कर दी कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने का आदेश दे सकता है। इस पर पूर्व कानून मंत्री और वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट अपनी हदों से बाहर जा रहा है और इसे रोकने का नैतिक साहस केंद्र सरकार नहीं दिखा पा रही है।

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट द्वारा बंद पर प्रतिबंध लगा देने से एक बार फिर कुछ बुनियादी सवाल सार्वजनिक चर्चा में आए। सुप्रीम कोर्ट ने १९९८ में बंद और आम हड़ताल को असंवैधानिक ठहरा दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला केरल हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के बाद दिया था। केरल हाई कोर्ट ने राज्य के चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की याचिका पर सुनवाई करते हुए बंद और आम हड़ताल पर रोक लगा दी थी। हाई कोर्ट ने यह फैसला भी दिया था कि बंद के दौरान होने वाले सार्वजनिक या निजी संपत्ति के किसी नुकसान की भरपाई बंद की अपील करने वाले संगठन को करनी होगी। यहां यह गौरतलब है कि यह फैसला बड़े व्यापारियों और उद्योगपतियों की याचिका पर दिया गया। यानी उन तबकों की याचिका पर जिनका हित सीधे तौर पर मेहनतकश तबकों और आम जन के अधिकारों पर नियंत्रण लगाने से जुड़ा है।

अदालत की दलील है कि आम लोगों का अधिकार बंद आयोजित करने के पार्टियों के अधिकार से बड़ा है। लेकिन सवाल है कि आखिर वे आम लोग कौन हैं? लोकतांत्रिक विमर्श में बंद और आम हड़ताल को आम तौर पर उन तबकों का हथियार माना जाता है, जिनकी बात इस व्यवस्था में नहीं सुनी जाती। या फिर यह राजनीतिक दलों या संगठनों का अपने कार्यक्रम और नीतियों पर जनमत बनाने का एक माध्यम माना जाता है। ऐसी कार्रवाइयों से जनता की राजनीतिक चेतना में विस्तार होता है, इससे वह अपने अधिकारों के लिए जागरूक होती है और इससे राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में वे मुद्दे सामने आते हैं, जो आम राजनीतिक गतिविधियों की वजह से सामने नहीं आ पाते। अगर बंद और आम हड़ताल पर प्रतिबंध होता, या उस प्रतिबंध का उल्लंघन नहीं किया गया होता तो देश का स्वतंत्रता आंदोलन कभी व्यापक जन आंदोलन नहीं बन पाता। न ही आजादी के बाद सदियों से दबा कर रखे गए समूहों में लोकतांत्रिक चेतना का विस्तार हो पाता।


स्पष्ट है, न्यायपालिका अपनी ऐसी सक्रियता से बड़े राजनीतिक सवाल खड़े कर रही है, जिन पर अब गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है। लोकतंत्र के उत्तरोत्तर आगे बढ़ने की प्रक्रिया बाधित न हो, इसके लिए जरूरी है कि संसद और सरकारों के अधिकार क्षेत्र उन्हें वापस मिलें। इसके लिए ये कदम फौरन उठाए जाने की जरूरत हैं-

१- संसद को संविधान के बुनियादी ढांचे पर चर्चा की शुरुआत करनी चाहिए। यह संसद को तय करना चाहिए कि संविधान का बुनियादी ढांचा क्या है, जिसमें संशोधन नहीं हो सकता। साथ ही पहल के उस दायरे को भी तय किया जाना चाहिए जो सबको समान अवसर देने की संवैधानिक वचनबद्धता को पूरा करने के लिए जरूरी है। इस दायरे को न्यायिक समीक्षा से ऊपर कर दिया जाना चाहिए और इस तरह संविधान की नौवीं अनुसूची की प्रासंगिकता फिर से बहाल की जानी चाहिए।

२- कोर्ट द्वारा नियुक्ति मोनिटरिंग कमेटियों के दखल को सिरे से नकार दिया जाना चाहिए। ये कमेटिया कार्यपालिका के काम को बिना आम जन के प्रति संवेदनशील हुए अंजाम देती रही हैं, जिससे लाखों लोगों, खासकर कमजोर तबकों के लोगों के लिए मुश्किलें पैदा हुई है। दिल्ली में सीलिंग से जुडी मोनिटरिंग कमेटी इसकी सबसे उम्दा मिसाल है। यह लोकतंत्र में कैसे मुमकिन है कि जो कानून संसद में सभी दलों की सहमति से बना हो, उसे कोर्ट खारिज कर दे और किसी मोनिटरिंग कमेटी को निर्वाचित सरकार या नगर निगम से ज्यादा शक्तिशाली बना दे?

३- संसद को कानून बनाकर, या जरूरत हो तो संविधान संशोधन कर शांतिपूर्ण बंद और आम हड़ताल को विरोध जताने के बुनियादी और वैध अधिकार के रूप में मान्यता देनी चाहिए। इस तरह १९९८ के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी कर देना चाहिए।
४- न्यायपालिका की अवमानना का प्रावधान लचीला बना दिया जाना चाहिए। जैसाकि एक बार न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने सुझाव दिया था कि अवमानना की कार्यवाही सिर्फ तभी चलनी चाहिए जब कोई न्याय प्रक्रिया में भौतिक रूप से बाधा डाले। न्यायिक फैसलों और आम तौर पर न्यायपालिका की आलोचना पर अवमानना का कानून लागू नहीं होना चाहिए। कुछ समय पहले न्यायपालिका के अवमानना कानून में संशोधन किया गया था। उसके तहत सत्य को ऐसे मामलों में अतिमहत्त्वपूर्ण बचाव (डिफेंस) के रूप में स्वीकार किया गया। लेकिन इस मामले में अंतिम फैसले का अधिकार अब भी अदालतों के ही पास है। यह बात अब हर विकसित समाज में मानी जाती है कि अवमानना की व्यवस्था राजतंत्र के जमाने की बात है, जब इंसाफ राजा करते थे और यह माना जाता था कि राजा कोई गलती कर ही नहीं सकता। राजा के इंसाफ पर कोई सवाल न उठाए, इसलिए अवमानना के कानून की व्यवस्था की गई थी। लेकिन लोकतांत्रिक संदर्भ में न्यायपालिका भी जनता की सेवक है और ऐसे में इस तरह के कानून की कोई प्रासंगिकता नहीं है। अगर जनता मालिक है तो वह अपने हर सेवक के कामकाज की समीक्षा और आलोचना कर सकती है, और न्यायपालिका भी इससे परे नहीं है।

अगर यह पहल की जा सके तो संवैधानिक लोकतंत्र का संतुलन फिर से बहाल हो सकता है। आजादी के बाद भारत अपने नियति से मिलन की जिस यात्रा पर चला था, वह यात्रा सफल हो, इसके लिए यह जरूरी है।

2 comments:

admin said...

आपने बहुत गम्भीर बातें उठाई हैं, इनपर जनता के बीच चर्चा होना चाहिए।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

लोकेश Lokesh said...

बहुत गंभीर विषय पर है यह लेख। चर्चा तो होनी ही चाहिए।

देखते हैं आने वाली टिप्पणियाँ क्या कहती हैं,
कितनी आती हैं :-)