Saturday, June 6, 2009

सबक तो ठीक समझा


सत्येंद्र रंजन
पंद्रहवीं लोकसभा में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के पहले अभिभाषण का पहला संकेत यह है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) ने २००९ के जनादेश को सही समझा है। लेफ्ट फ्रंट की हार और यूपीए को अपना बहुमत मिल जाने के बाद से कई हलकों में यह आशंका रही है कि मनमोहन सिंह सरकार अपनी नई पारी में आर्थिक सुधारों के नाम पर नव-उदारवादी एजेंडे को तेजी से और बेलगाम ढंग से लागू करेगी। लेकिन राष्ट्रपति के अभिभाषण के जरिए यूपीए सरकार ने जो एजेंडा देश के सामने रखा है, वह २००४ में तय हुई दिशा के अनुरूप ही लगता है। २००४ में वामपंथी दलों ने यूपीए को समर्थन एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर दिया था, जिसमें मध्यमार्ग से वामपंथ की तरफ झुकाव वाली नीतियां शामिल की गई थीं।

“२००४ में मेरी सरकार ने देश के सामने सबको समाहित कर चलने वाले समाज एवं अर्थव्यवस्था का नजरिया पेश किया था। मेरी सरकार मानती है कि उसे मिला व्यापक जनादेश नीतियों के उसी ढांचे पर जनता की मुहर है”- प्रतिभा पाटिल ने कहा। उन्होंने जोर दिया कि यूपीए की जीत ‘न्यायपूर्ण विकास और धर्मनिरपेक्ष एवं बहुलवादी भारत’ के लिए जनादेश है। जाहिर है, यूपीए ने यह समझा है कि २००४ में सांप्रदायिक फासीवाद और धुर दक्षिणपंथ की मजबूत होती जड़ों से चिंतित जन समुदाय ने यूपीए के रूप में एक विकल्प की तलाश की और मोटे तौर पर उसके कामकाज से संतुष्ट रहते हुए २००९ में उसे और भी बड़ा समर्थन दिया है।

यूपीए की पहली पारी की सबसे खास उपलब्धि शायद यही रही कि आम आदमी की एक बार फिर सरकारी नीतियों में जगह बनी और राष्ट्रीय विमर्श भड़काऊ एवं भावनात्मक मुद्दों से हट कर आम जन की रोजमर्रा की समस्याओं पर केंद्रित हुआ। यह कितना यूपीए, खासकर कांग्रेस के अपने रुझान की वजह से हुआ और कितना लेफ्ट के दबाव में, यह एक अलग बहस का मुद्दा है। लेकिन यह तथ्य है कि इस दौर में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, सूचना के अधिकार का कानून, आदिवासी एवं अन्य वनवासी भू-अधिकार कानून, ऊंचे शिक्षा संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिेए २६ फीसदी आरक्षण आदि जैसे दूरगामी महत्त्व के जनतांत्रिक कदम उठाए गए। इनके साथ अगर किसानों के लिए ६० हजार करो़ड़ रुपए की कर्जमाफी, सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन आदि जैसे कदमों को जोड़ कर देखा जाए तो सरकारी नीतियों की दिशा में हुए बदलाव को और बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।

ताजा अभिभाषण के जरिए सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून बनाने, १०० दिन के भीतर विधायिका में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों के आरक्षण का बिल पेश करने और सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर गंभीरता से अमल का एलान कर नीतियों की उस दिशा पर न सिर्फ कायम रहने, बल्कि उस दिशा में और ठोस पहल करने का इरादा जताया है। इस संदर्भ में राजकोषीय अनुशासन की नव-उदारवादी मांग के मुताबिक चलने से फिलहाल सरकार ने इनकार कर दिया है। हालांकि लेफ्ट के समर्थन पर टिके होने की मजबूरी न होने के साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में विनिवेश की बात लौट आई है, लेकिन नीतियों का कुल झुकाव २००४ में तय हुई दिशा की तरफ ही दिखता है।


इस बात की एक और मिसाल पाकिस्तान के प्रति के सरकार का नजरिया है। आतंकवाद से आशंकित इस देश में पाकिस्तान के खिलाफ भावनाएं भड़का कर अपना सियासी ग्राफ बढ़ाने के मोह से बचते हुए मनमोहन सिंह सरकार ने अपनी नीति में स्थिरता कायम रखी है। राष्ट्रपति की यह टिप्पणी गौरतलब है- “मेरी सरकार पाकिस्तान के साथ रिश्तों को नया रूप देना चाहेगी, लेकिन यह उसकी जमीन से भारत के खिलाफ आतंकवादी हमले करने वाले गुटों का मुकाबला करने में पाकिस्तान सरकार के कदमों की गंभीरता पर निर्भर करेगा।” जमात-उद-दावा के प्रमुख मोहम्मद हाफिज सईद की रिहाई से बने माहौल में यह निश्चित रूप से एक संतुलित बयान है, जिसमें अपने देश की सुरक्षा के चिंता के साथ भारत-पाक रिश्तों में नई शुरुआत की इच्छा जाहिर होती है।


हालांकि, विदेश नीति के मामले में मनमोहन सिंह सरकार के सामने गंभीर चुनौती है। अपने पिछले कार्यकाल में यूपीए सरकार ने अमेरिका से संबंध बनाने में अपना काफी कुछ दांव पर लगा दिया। लेकिन बराक ओबामा के दौर में अमेरिकी रणनीति में भारत का महत्त्व स्पष्टतः घट गया है। ओबामा अपनी नई विश्व दृष्टि के साथ अमेरिकी नीतियों को ढाल रहे हैं, और इसमें इस्लामी दुनिया से विश्वास एवं पारस्परिक सम्मान का रिश्ता बनाना उनकी प्राथमिकता है। जॉर्ज बुश जूनियर के जमाने अपनाई गई एकतरफा कार्रवाई की नीति और दुश्मन एवं दोस्त की परिभाषा ओबामा प्रशासन ने छोड़ दी है। जाहिर है भारत सरकार के सामने विदेश नीति को नए सिरे से ढालने की चुनौती है। इस चुनौती का काफी संबंध पाकिस्तान में हो रही घटनाओं और उसके प्रति अमेरिका एवं पश्चिमी दुनिया के रुख से भी है। राष्ट्रपति पाटिल के अभिभाषण से इस दिशा में भारत सरकार की तैयारियों की झलक शायद नहीं मिली है।

बहरहाल, केंद्र सरकार के ताजा एजेंडे से इस चर्चा को जरूर बल मिलेगा कि क्या कांग्रेस एक बार फिर से नेहरूवादी विचारधारा के ढांचे में अपनी तलाश कर रही है? १९८० के दशक में कांग्रेस ने इस वैचारिक जमीन को छोड़ना शुरू किया और पीवी नरसिंह राव के जमाने में उसने नेहरूवादी विचारों को जैसे पूरी तरह गुडबाय कह दिया। वही कांग्रेस के बिखराव का भी दौर था। १९९८ से सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली और बिखराव की उस प्रक्रिया को रोका। २००४ में सत्ता में आने के बाद कांग्रेस में सबके लिए न्याय के नेहरुवादी सोच के मुताबिक नीतियों को ढालने की झलक मिली। लेकिन भारत-अमेरिका परमाणु करार पर लेफ्ट से कांग्रेस की छिड़ी जंग से यह पूरी परिघटना कई तरह के विवादों और संदेहों के साये में आ गई।

२००९ में कांग्रेस को लेफ्ट फ्रंट की जरूरत नहीं है। लेकिन उसने शायद यह समझा है कि उसे लेफ्ट झुकाव वाली नीतियों और कार्यक्रमों की जरूरत है। इनसे ही उसे वह लोकतांत्रिक वैधता और चुनाव सफलताएं मिल सकती हैं, जिससे देश में उसकी दूरगामी भूमिका बनी रहे। जवाहर लाल नेहरू ने आजादी के बाद देश धर्मनिरपेक्षता और विकास एवं प्रगति का जो एजेंडा रखा, उसकी वजह से ही वो आज भी आजाद भारत के इतिहास के सबसे कद्दावर नेता नजर आते हैं। कांग्रेस अगर इससे सीख लेती रहे तो एक बार फिर उसकी जड़ें मजबूत हो सकती हैं, जैसा संकेत हाल के चुनाव से मिला है। फिलहाल, पहली झलक में लगता है कि कांग्रेस ने सही सीख ग्रहण की है।

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