Wednesday, June 24, 2009

मीडिया से खफ़ा जन आंदोलन


सत्येंद्र रंजन
संजय संगवई के नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेता थे। इस आंदोलन की वैचारिक और सांगठनिक पहचान बनाने में उनकी खास भूमिका रही है। सामाजिक कार्यकर्ता बनने के पहले वे पत्रकार भी रहे। दो साल पहले छोटी उम्र में उनका निधन हो गया। तब से उनके साथियों और उन्हें जानने वालों को उनकी कमी काफी खलती रही है। बहरहाल, उन्हें श्रद्धांजलि देने का यह एक उचित तरीका ही है कि जिन दो क्षेत्रों में वे सक्रिय रहे, उनके बीच संवाद बनाते हुए उन्हें याद किया जाए। ऐसी ही कोशिश भोपाल में हुई। जन आंदोलनों के कार्यकर्ताओं और मीडियाकर्मियों के बीच आपसी संबंध, तथा एक दूसरे से अपेक्षाओं और शिकायतों पर वहां खुल कर चर्चा हुई।

यह मुद्दा बेहद अहम है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। इसे लोकतंत्र का पहरेदार बताया जाता है। दूसरी तरफ जन आंदोलन हैं, जो लोकतंत्र की जड़ें गहरी बनाने में जुटे हुए हैं। वे उन तबकों की आवाज हैं, जिनकी हमारी व्यवस्था में पहले से आवाज नहीं रही है; जिनके बारे में व्यवस्था यह मान कर चलती रही है कि बिना उनकी परवाह किए भी चला जा सकता है। जो तबके विकास परियोजनाओं की बलि चढ़ते रहे, जिन्हें आज तक अपने श्रम की कीमत खुद तय करने का अवसर नहीं मिला, और जिनके निजी सम्मान और मानवीय गरिमा की कभी कोई कीमत नहीं समझी गई, जन आंदोलन उनके संगठन और संघर्ष का माध्यम बनने की कोशिश कर रहे हैं। यानी लोकतंत्र में मीडिया और जन आंदोलनों- दोनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

लेकिन इन दोनों पक्षों के संवाद से कई कठिन सवाल खड़े हो जाते हैं। इससे मीडिया और जन आंदोलनों के बीच सहमति कम, मतभेद या कई मौकों पर टकराव के स्वर ज्यादा तीखे रूप में उभरते सुने जा सकते हैं। वजह लोकतंत्र के दायरे की समझ है। जन आंदोलनों की समझ है कि मीडिया लोकतंत्र के मौजूदा औपचारिक स्वरूप से संतुष्ट है। वह मौजूदा व्यवस्था का ही एक हिस्सा है, जिस पर पूंजी का वर्चस्व है। उसके संचालक और उसके लक्ष्य (पाठक, श्रोता एवं दर्शक) दोनों मौजूदा व्यवस्था में लाभ की जगहों पर बैठे समूह हैं। ये समूह नहीं चाहते कि उनके सुख और सुविधाओं में वंचित तबकों का कोई दखल हो। विकास एवं आर्थिक संपन्नता की सारी नीतियां इन शासक वर्गों के हितों के मुताबिक ही बनती एवं लागू होती हैं। मीडिया अपने वर्ग चरित्र के मुताबिक उन्हीं नीतियों की वकालत करता है। अक्सर बाकी तबकों की बात मीडिया में दब जाती है, या कई बार मीडिया आक्रामक रूप से उन तबकों के हितों की बात के खिलाफ अभियान छेड़ देता है।

मी़डियाकर्मियों का एक हिस्सा यह मानता है कि इस आलोचना में दम है। पूंजी और मुनाफा आज बुद्धि, पत्रकारीय निष्ठा एवं सार्वजनिक हित के मकसदों पर हावी हो गए हैं। मीडिया किसी भी अन्य औद्योगिक उपक्रम की तरह हो गया है, जिसमें उत्पाद का चरित्र बाजार की मांग एवं जरूरतों से तय होता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि लोकतंत्र के नए सामाजिक प्रयोग मीडिया कवरेज के दायरे से बाहर हो गए हैं। चूंकि ये प्रयोग उन तबकों के बीच या उन तबकों के द्वारा होते हैं; जो बाजार का हिस्सा नहीं हैं, जिनके पास विज्ञापनदाता कंपनियों की महंगी चीजों को खरीदने लायक पैसा नहीं है, इसलिए मीडिया उन तबकों की परवाह भी नहीं करता। जबकि जिन तबकों की ऐसी आर्थिक हैसियत है, मीडिया उनकी सोच, उनकी पसंद-नापसंद और वर्ग नजरिए का ज्यादा ख्याल करता है, ताकि उनके मन में नाराजगी या विपरीत प्रतिक्रिया पैदा ना हो।

आज के दौर में मीडिया में पैसा लगाने वाले घराने शुरू से अंत तक इस बात ख्याल रखते हैं, और इसी मकसद को ध्यान में रखते हुए मीडिया समूहों का अंदरूनी ढांचा तैयार किया जाता है। मीडिया और लोकतंत्र के संवाद से जुड़े विश्लेषक कहते हैं कि इसी वजह से मीडिया संस्थानों के भीतर बौद्धिकता लगातार घट रही है, बल्कि कुछ विश्लेषकों का तो दावा है कि बौद्धिक होना या दिमाग का इस्तेमाल करना आज मीडिया संस्थानों में नुकसान और जोखिम का पहलू बन गया है। नतीजा खबरों का ऐसा स्वरूप उभरना है, जिसमें सच्चाई कई परदों में ढकी रहती है। सनसनी और हलकापन खबर के बिकाऊ हो सकने की अहम कसौटी बन गए हैं। ऐसे में विस्थापितों के लड़ाई, आदिवासियों की अपनी पहचान बचाने की जद्दोजहद, मानवाधिकार हनन का विरोध और ऐसी ही बहुत सी दूसरी लड़ाइयों को मीडिया में जगह एवं सही संदर्भ आखिर कैसे मिल सकता है?

लेकिन ज्यादातर मीडियाकर्मी, खासकर मीडिया में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों का भी एक पक्ष है। वे जोर देते हैं कि आज ना तो देश में आजादी की लड़ाई चल रही है और ना मीडिया का कोई मिशन है। मीडिया एक कारोबार और एक पेशा है। इस कारोबार और पेशे की अपनी तय शर्तें और मांगें हैं, और मीडिया उस दायरे में रहते हुए लोकतंत्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है। आखिर जन प्रतिनिधियों से लेकर नौकरशाहों तक के भ्रष्टाचार और पद के दुरुपयोग का पर्दाफाश यही मीडिया करता है। भुखमरी से लेकर कुपोषण एवं महिलाओं और बच्चों के शोषण की घटनाएं इसी मीडिया के वजह से सामने आती हैं। और जन आंदोलन जब सचमुच कोई प्रभाव पैदा कर सकने की हालत में होते हैं, तो उन्हें भी मीडिया में जगह मिलती है। लेकिन जन आंदोलनों को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि अखबार या टीवी न्यूज चैनल उनके मुखपत्र की तरह काम करेंगे। अगर ये माध्यम जन आंदोलनों के मुद्दों को उनके प्रभाव के मुताबिक जगह देते हैं, तो उन्हें यह भी अधिकार है कि वे जन आंदोलनों के तौर तरीकों और उनके साथी या पीछे की ताकतों का हिसाब-किताब लें।

मीडियाकर्मियों की राय है कि जैसे उन्हें राजनीतिक दलों से सवाल पूछने का हक है, वैसे ही वे जन आंदोलनों के सामने भी कठिन प्रश्न रख सकते हैं और इस पर जन आंदोलनों को यह शिकायत नहीं करनी चाहिए कि मीडिया अपने वर्ग चरित्र की वजह से उन्हें बदनाम करने के लिए ऐसे सवाल उठा रहा है। मीडियाकर्मियों की राय में जन आंदोलनों के सामने सबसे बड़ा सवाल फंडिंग का है। आखिर इन आंदोलनों को पैसा कहां से मिलता है? क्या एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) सेक्टर से उन्हें मदद नहीं मिलती? अगर एनजीओ विदेशी मदद लेते हैं तो क्या जन आंदोलन इस आरोप से बच सकते हैं कि वो विदेशी मदद से चल रहे हैं?

जन आंदोलनों पर एक और आरोप वैचारिक कट्टरपंथ का है। जैसे आधुनिकता, प्रगति और विकास को लेकर कुछ अंधविश्वास या गलतफहमियां हैं, वैसे ही अंधविश्वास और गलतफहमियां इनके विरोध को लेकर भी हो सकती हैं। शायद इस आलोचना में दम है कि जन आंदोलनों के कई नेता एवं विचारकों ने विरोध की कुछ चरमपंथी धारणाएं बना ली हैं, जिन पर खुले दिमाग एवं तथ्यों की रोशनी में चर्चा और बहस से वे दूर भागते हैं। उन्होंने एक ऐसा वैचारिक दायरा बना लिया है, जिसमें हर नई चीज और नया विचार उन्हें डराता है। तब जन हित एवं सभ्यताओं के संघर्ष के नाम पर वे उनके विरोध के तर्क गढ़ लेते हैं। अगर आलोचक या कुछ मीडियाकर्मी यह सवाल पूछते हैं कि आखिर यह विरोधशास्त्र एक सीमित दायरे से बाहर के लोगों को आकर्षित क्यों नहीं करता, क्यों यह सारा विमर्श वर्षों से कुछ गिने-चुने लोगों तक ही सीमित है, तो इस पर गुस्से में प्रतिक्रिया जताने या जवाबी आरोप मढ़ने के बजाय जन आंदोलनों के नेताओं को जरूर गंभीरता से आत्म मंथन करना चाहिए।

एक लोकतांत्रिक समाज में स्वतंत्र मीडिया को सबसे सवाल पूछने और सबको जनता के सामने कठघरे में खड़ा करने का अधिकार है, इस बात को लोकतांत्रिक निष्ठा वाला कोई व्यक्ति या संगठन चुनौती नहीं दे सकता। जन आंदोलनों से अगर कठिन सवाल पूछे जाते हैं, तो उन्हें भी सवाल पूछने वाले की मंशा पर शक करने के बजाय उन सवालों के जवाब देने चाहिए। आखिर कोई समूह सिर्फ दावा कर देने भर से सचमुच जन आंदोलन नहीं हो जा सकता। उसे अपने चरित्र, जन समर्थन और आस्थाओं से सबके सामने यह साबित करना चाहिए कि वे वास्तव में उन तबकों की लड़ाई लड़ रहे हैं, जिन्हें आज तक वास्तविक आजादी नहीं मिली और ना ही जिन्हें लोकतंत्र के मौजूदा ढांचे में जगह मिली है।

बहरहाल, मीडिया के सामने भी यह सवाल जरूर है कि आखिर वह कितना स्वतंत्र है? मीडिया की स्वतंत्रता की जब बात होती है तो सरकार के बरक्स होती है। सरकारी अंकुश से मीडिया बचा रहे, यह लोकतंत्र की एक बुनियादी शर्त है। मगर मीडिया पूरी तरह पूंजी के तंत्र से नियंत्रित हो, यह कितना लोकतंत्र के हित में है, यह सवाल जन आंदोलनों की बैठकों के अलावा कहीं और शायद ही उठाया जाता है। जन आंदोलन की भी इस सवाल पर सोच बहुत साफ है, ऐसा नहीं लगता। बड़े मीडिया घरानों में विदेशी निवेश के साथ उनमें लगी पूंजी के चरित्र में भारी बदलाव देखने को मिला है। इसका असर मीडिया के कवरेज और मीडिया घरानों के अंदरूनी ढांचे पर भी अब साफ दिख रहा है। दरअसल, पूंजी दो तरह से मीडिया को नियंत्रित करती है- एक निवेश के जरिए और दूसरे विज्ञापन की ताकत के जरिए। निवेश (या निवेशकों) की मांग अधिक से अधिक मुनाफा होती है, जो विज्ञापन से आता है और विज्ञापन की दर का संबंध अधिक से अधिक पाठक/ दर्शक हासिल करने से जुड़ा है। इस होड़ में वे मुद्दे और गतिविधियां दूर छूट जाते हैं, जिनका सीधा संबंध निवेश और विज्ञापन के इस बाजार से नहीं है।

इसी वजह से न सिर्फ जन आंदोलनों, बल्कि सभी लोकतांत्रिक ताकतों की मीडिया से शिकायत बढ़ती जा रही है। इस संदर्भ में आलोचकों का एक समूह यह समझ पेश कर रहा है कि मीडिया अब एक नव-उदारवादी संस्था बन चुकी है। एक ऐसी संस्था जो नव-उदारवादी सिद्धांतों से चलती है, नव-उदारवादी आर्थिक सिद्धांतों की वकालत करती है, और नव-उदारवादी हितों के मुताबिक खबरों एवं विश्लेषण/ चर्चा को प्रस्तुत करती है। इन आलोचकों के मुताबिक मीडिया का जन आंदोलनों से जो अंतर्विरोध नजर आता है, वह दरअसल नव-उदारवाद बनाम लोकतंत्र का अंतर्विरोध है। सोच की यह धारा मौजूदा वैश्विक मंदी की मिसाल देते हुए यह दलील पेश कर रही है कि जब दुनिया भर में नव-उदारवाद की साख खत्म हो चुकी है और वित्तीय संस्थानों एवं पूंजीवादी उद्योगों को सरकारें विनियमित कर रही हैं, तो मीडिया के लिए भी विनियमन पर विचार होना चाहिए।

एक विवादास्पद और गंभीर मुद्दा है। आखिर मीडिया को कौन विनियमित करेगा? मुंबई पर आतंकवादी हमले और ऐसे कई संकटपूर्ण मौकों पर यह सवाल उठा है। जाहिर है, मीडिया ऐसे सुझावों का जोरदार विरोध करता है। इसके पीछे सरकारी नियंत्रण कायम होने का खौफ दिखाया जाता है। इमरजेंसी की यादें दिलाई जाती हैं। जब माहौल बहुत प्रतिकूल होता है तो मीडिया की तरफ से खुद से अपने लिए कायदे तय करने की बात होती है। मुंबई पर हमले के बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ऐसे कुछ कायदे पेश भी किए। लेकिन इनसे मीडिया के आलोचक संतुष्ट नहीं दिखते।

तो सवाल है कि क्या जन आंदोलन मीडिया को विनियमित करने की मांग उठाएं? क्या यह मांग संसद से की जाए, जो लोकतंत्र में सर्वाधिक प्रातिनिधिक संस्था है? और इससे भी अहम सवाल यह है कि आखिर इससे हासिल क्या होगा? क्या मीडिया तब जन आंदोलनों और उनके मुद्दों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो सकेगा? गौरतलब है कि किसी को किसी उद्देश्य या मुद्दे के प्रति संवेदनशील होने या कोई खास रुख लेने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। असल में ऐसी अपेक्षा खुद लोकतांत्रिक नहीं है।

साफ है, यह एक बेहद नाजुक सवाल है। इसमें कई जोखिम हैं। मीडिया बेशक व्यापक अर्थों में लोकतांत्रिक ना हो, लेकिन सीमित अर्थों में ही इसने कई मौको पर सकारात्मक भूमिका निभाई है। अमर्त्य सेन का यह बहुचर्चित सिद्धांत है कि स्वतंत्र मीडिया बड़े पैमाने पर भुखमरी और महामारी से मौतें रोकने का साधन है और इस कसौटी पर भारतीय मीडिया का रिकॉर्ड खराब नहीं है। लेकिन मीडिया लोकतंत्र का पहरेदार या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, उसके मौजूदा चरित्र से उसकी इस भूमिका पर फिलहाल गहरे सवाल उठ रहे हैं। अगर मीडिया जन आंदोलनों के पक्ष पर गौर करे, तो वह शायद अपनी लोकतांत्रिक साख फिर से बहाल कर सकता है, जिसे हाल के वर्षों में वह खोता गया है।

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