Tuesday, April 27, 2010

आदिवासी विमर्श के आयाम

सत्येंद्र रंजन

दिवासी आज आधुनिक भारतीय राष्ट्र के सामने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं। ये प्रश्न आज बौद्धिक हलकों को गंभीर विचार मंथन के लिए उद्वेलित किए हुए हैं। निसंदेह एक सीमा तक इसका श्रेय माओवादियों को दिया जाना चाहिए। उन्होंने अपने सशस्त्र संघर्ष से भारतीय राजसत्ता को चुनौती दी है। उनका केंद्रीय आधार भले छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में हो और उनकी सघन गतिविधियों के दायरे में देश के करीब साठ अन्य जिले ही हों, लेकिन वहां जारी हिंसा और प्रति-हिंसा की धमक सारे देश में है। संयोगवश माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में ज्यादातर आदिवासी बहुल इलाके हैं। संयोग से उनमें अधिकांश खनिज संपदा से समृद्ध इलाके हैं। इसलिए बड़ी कंपनियों की उन पर निगाहें हैं, जिनसे आदिवासियों के विस्थापित होने का खतरा है और इससे माओवादियों को अपने संघर्ष को मौजूदा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विमर्श में एक बड़ी ढाल मिल गई है।

इस विमर्श में एक सरकारी और यथास्थितिवादी तबकों का पक्ष है, जिसके मुताबिक माओवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। यह पक्ष कभी यह नहीं कहता कि यह खतरा इसलिए इतना बड़ा हुआ है, क्योंकि आजादी के साठ साल बाद भी सबको न्याय देने का संवैधानिक वादा हमारी वर्तमान व्यवस्था पूरी नहीं कर पाई। दूसरा पक्ष माओवाद समर्थक बुद्धिजीवियों का है, जिनकी राय में माओवादी आदिवासियों को विस्थापन से बचाने और उन्हें बाहरी शोषकों से मुक्ति दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन यह पक्ष कभी इसका जिक्र नहीं करता कि माओवादियों के लिए आदिवासियों के प्रश्न महज कार्यनीतिक (टैक्टिकल) मुद्दे हैं, जो राजसत्ता पर सशस्त्र कब्जे की उनकी व्यापक रणनीति का महज एक पहलू है।

बहरहाल, अभी छिड़ी बहस में आदिवासियों से जुड़े कई ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मुद्दे भी सामने आ रहे हैं। मसलन, मशहूर इतिहासकार रोमिला थापर और अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी के एक संयुक्त लेख की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए- “अतीत के ग्रंथों में जंगल के लोगों, वनवासियों को आम तौर पर ‘अन्य’ के रूप में पेश किया गया है- राक्षस के रूप में- ऐसे लोग जो काले बादलों की तरह और खूनी आंखों के साथ जंगल में विचरण करते थे, जो हर गलत चीज खाते और पीते थे, जिनके यौन संबंधों के गलत नियम थे, जो एक विचित्र प्राणी थे, हो ‘हमसे’ बहुत अलग थे।” इसी लेख में यह बताया गया कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में आदिवासियों को उपद्रवी बताकर उनकी निंदा की गई है, जबकि सम्राट अशोक ने उन लोगों को धमकी दी थी, हालांकि यह नहीं बताया था कि यह धमकी क्यों दी गई।

लेख में आगे कहा गया- “विभिन्न राजवंशों के जंगलों में विस्तार से जो हित जुड़े थे, उसके स्पष्ट कारण हैं। जंगलों से सेना के लिए हाथी मिलते थे, लोहा समेत दूसरी खनिज संपदा वहां थी, मकान के लिए लकड़ी मिलती थी, जंगलों की सफाई से खेती की जमीन में इजाफा होता था और इसके परिणास्वरूप ज्यादा जमीन पर खेती से राजस्व में बढ़ोतरी होती थी। बाद के युगों में, उन स्थितियों में भी जब वनवासियों पर निर्भरता रहती थी, उनके प्रति परंपरागत नजरिया यही था कि ये लोग सामाजिक दायरे से बाहर हैं और उनसे दूर ही रहना है।” यह कहने के बाद रोमिला थापर और अमित भादुड़ी ने सवाल उठाया कि क्या यह तौर-तरीका आज से अलग था?

तो आज क्या हो रहा है? इस विषय में एक महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप ब्रिटिश नृतत्वशास्त्री (एंथ्रोपॉलिजिस्ट) फेलिक्स पैडेल का है। उन्होंने अपनी किताब “सैक्रिफाइसिंग पीपुल- इनवेज़न ऑफ ए ट्राइबल लैंडस्केप” का नया संस्करण पेश कर अभी जारी विमर्श में कुछ खास तथ्य और एक अहम नज़रिया जोड़ा है। इस किताब की भूमिका लिखते हुए ह्यूज ब्रॉडी ने लिखा है कि जब वे मध्य प्रदेश की यात्रा पर गए थे, तो कई मानवीय दृष्टि वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने धीमे स्वरों में उनसे चर्चा की थी कि दूरदराज के गांवों में आदिवासी बच्चों की बलि देते हैं। जबकि जिन मंत्रियों और अर्थशास्त्रियों से वे मिले, उन्होंने बुलंद आवाज में कहा कि कुछ ग्रामीणों को “राष्ट्र के हित में” अपनी बलि देनी होगी।

फेलिक्स पैडेल की यह किताब बलि की इन्हीं दोनों धारणाओं को चर्चा के केंद्र में रखते हुए आगे बढ़ी है। यह जान लेना दिलचस्प होगा कि फेलिक्स पैडेल ने शिक्षा भले ऑक्सफोर्ड से पाई हो, लेकिन पिछले डेढ़ दशक में उनका काफी समय उड़ीसा के आदिवासी इलाकों में बीता है। बल्कि उड़ीसा एक तरह से उनका आधा घर है। वे वेल्स (ब्रिटेन) और उड़ीसा दोनों को अपना निवास बताते हैं। वे भारतीय और पश्चिमी दोनों परंपराओं के संगीत के दक्ष कलाकार हैं। आदिवासियों की बात करते हुए फेलिक्स पैडेल अपनी बात को जितनी बौद्धिक ऊंचाइयों तक ले जाते हैं, उतने ही जोश और आक्रोश के साथ वे उसे अभिव्यक्त भी करते हैं।

“सैक्रिफाइसिंग पीपुल” का विषय उड़ीसा के कोंड आदिवासी हैं। लेकिन यह महज उनका नृतत्वशास्त्रीय या उनके इतिहास का अध्ययन नहीं है। यह कोंड आदिवासियों के माध्यम से ब्रिटिश उपनिवेशवाद, ईसाई मिशनरियों की दुनिया को ‘सभ्य’ बनाने की मुहिम, आधुनिक विकास और इन सबके लिए आदिवासियों से ली गई बलि का एक विस्तृत आख्यान है। फेलिक्स पैडेल ने बात यहां से शुरू की है कि कोंड आदिवासियों में नरबलि की परंपरा कैसे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों और ईसाई मिशनरियों के लिए उन्हें अपने अधीन करने और उनके संसाधनों पर कब्जा जमाने का माध्यम बन गई। इस पूरी कथा को आगे बढ़ाते हुए फेलिक्स पैडेल आज के दौर तक आते हैं और “राष्ट्र के हित” में आदिवासियों से बलि लेने की बात की व्याख्या और वर्णन करते हैं। यह एक विचारोत्तेजक और कई मायने में आंखें खोलने वाला वर्णन है।

लेकिन यह संभवतः ज्यादा विवेकपूर्ण होता, अगर “बलि का विमर्श” एक बलि के अन्यायी एवं क्रूर स्वरूप को सामने लाने के लिए दूसरी बलि को उचित ठहराने की हद तक जाता नहीं दिखता। आदिवासियों से जुड़े विमर्श की यह एक बड़ी विडंबना रही है। उनसे हुए ऐतिहासिक अन्याय की बात करते हुए उनकी परंपराओं और जीवन-शैली के महिमामंडन की एक विचित्र प्रवृत्ति हावी हो जाती है। यहां तक कि दुनिया की सारी समस्याओं का हल आदिवासियों की जीवन-शैली में निहित बता दिया जाता है। उनके अंधविश्वास, उनके देवी-देवता, उनकी सामाजिक रीतियां- विवेक और तर्क की कसौटी पर नहीं कसे जाते और उन्हें कुछ उसी तरह पवित्र मान लिया जाता है, जैसे हिंदू परंपरा में गाय या गंगा को समझा जाता है।

फेलिक्स पैडेल ने अंग्रेजों के इस दावे का जिक्र किया है कि उन्होंने कोंड आदिवासियों में बलि की परंपरा खत्म की। इसके लिए कुछ दस्तावेजों का हलावा दिया है। इसके बाद बलि की धारणाओं पर सवाल उठाए हैं। पहले कहा है कि बलि की धारणा सिर्फ आदिवासियों में नहीं रही। यह हिंदू और ईसाई परंपराओं में भी उसी हद तक रही है। और उसके बाद सभ्यता की यात्रा का जिक्र करते हुए कहा है कि इसमें कोई बहुत बड़ी गड़बड़ी हो गई है। आधुनिक युद्धों, नाजियों द्वारा यहूदियों के सफाये की कोशिश, कंबोडिया, अंगोला और यूगोस्लाविया के नरसंहारों का जिक्र करते हुए कहा है कि इन अत्याचारों को आदिम प्रवृत्तियों का उभार कहा गया। इसके बाद सवाल उठाया है कि हम इन्हें सैकड़ों में वर्षों में विकसित हुए उन सत्ता रूपों की तार्किक परिणति क्यों नहीं कह सकते, जिनका रुझान अमानवीयकरण रहा है, जिससे मानव अस्तित्व के सार-तत्व की बलि ली गई है।

अब इन पंक्तियों पर नजर डालिए- “हम मानव बलि की रीतियों को क्रूर एवं गैर-जरूरी, अंध-विश्वास से प्रेरित हत्याओं के रूप में देख सकते हैं, लेकिन इनमें कम से कम जिस मानव जीवन को लिया जाता है, उसकी पवित्रता की पुष्टि की जाती है। लेकिन बलि की शब्दावली से अलग उपरोक्त आधुनिक किस्म की हिंसा में उस पवित्रता से पूरी तरह इनकार किया जाता है। हिंसा के इसी प्रकार ने बार-बार आदिवासियों को निशाना बनाया है।”

फेलिक्स पैडेल ब्रिटिश हैं और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दिनों में हुए अत्याचार को लेकर कई मौकों पर क्षमाप्रार्थी नज़र आते हैं। वे आधुनिक सभ्यता का हिस्सा हैं और इसके आदिवासी विरोधी स्वरूप पर दोष-भावना से ग्रस्त दिखते हैं। ये दोनों बातें उनकी गहरी संवेदनशीलता एवं प्रायःश्चित भावना को जाहिर करती है। इसीलिए वे जो विमर्श प्रस्तुत करते हैं, वह ईमानदार और इन विषयों में दिलचस्पी रखने वाले हर व्यक्ति के लिए एक जरूरी दस्तावेज बन जाता है। इसके बावजूद जब हम बौद्धिक विमर्श के दायरे में प्रवेश करते हैं, इससे उपजने वाले सवालों की हम अनदेखी नहीं कर सकते।

सवाल यह है कि क्या हर हाल में आदिम प्रवृत्तियों का महिमामंडन और मानवीय मेधा से हासिल तकनीक और ज्ञान आधारित उपलब्धियों की अनिवार्य निंदा विवेक एवं तर्क की कसौटियों पर स्वीकार्य हो सकता है? यह मानना कि आदिवासी जो मानव बलि देते थे, उसमें मानव जीवन की पवित्रता का बोध रहता था- एक संतुलित तार्किक नजरिया है या एक तरह का चरमपंथ है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। अभी हमने हरियाणा में खाप पंचायतों का फैसला देखा है। सगोत्रीय विवाह उन इलाकों की परंपरा में पाप है और अब ये पंचायतें चाहती हैं कि इसे कानूनी मान्यता मिले। क्या पारिवारिक इज्जत की उनकी दलीलों को इस आधार पर मान्यता दी जानी चाहिए कि आखिर देश और राष्ट्र की इज्जत के नाम पर अनगिनत युद्ध लडेक गए हैं, जिनमें हजारों लोग मारे गए हैं तो आखिर अगर कुछ युवक-युवतियों की वे हत्या कर देते हैं, तो यह आज की सभ्यता के मूल्यों से ज्यादा अमानवीय नहीं है।

अक्सर यह देखने में आता है कि आदिवासी समाजों से आने वाले नेता और बुद्धिजीवी (अगर वे एनजीओ के मकड़जाल में नहीं हैं तो) आधुनिक विकास के प्रति वैसा द्रोह भाव नहीं रहते, जैसा आदिवासियों के बीच काम करने वाले मध्य वर्ग से आने वाले अन्य कार्यकर्ता रखते हैं। मसलन, आप रामदयाल मुंडा को लें। झारखंड में उन्हें आदिवासी हितों का प्रवक्ता माना जाता है। आदिवासियों को बिजली और आधुनिक जीवन शैली की सुविधाएं मिलें, इसके वे समर्थक हैं। यहां तक कि वे नदियों को जोड़ने की योजना को भी सही मानते हैं। जाहिर है, आदिवासी प्रश्नों को वे प्रगतिशील संदर्भों में देखते हैं। मगर मध्य वर्ग से आए ऐसे बहुत से कार्यकर्ता मिलेते हैं, जो आदिवासियों को उनके ‘प्राकृतिक परिवास’ में सीमित रखने की वकालत पूरी आस्था से करते दिखेंगे।

समाजशास्त्री अमिता बावीसकर खुद आदिवासियों के बीच सक्रिय रही हैं। कुछ साल पहले उन्होंने दृष्टिकोणों के इस अंतर्विरोध के बारे में एक महत्त्वपूर्ण शोध-पत्र लिखा था। उनकी इन बातों पर ध्यान दीजिए- “कार्यकर्ताओं द्वारा टिकाऊ (ससटेनेबल) विकास के लिए आदिवासी समूहों को संगठित करने की पूरी कोशिश के बावजूद यह यूटोपिया हमेशा की तरह दूर ही रहा है। जबकि जहां भी मध्य-वर्गीय कार्यकर्ताओं का हस्तक्षेप नहीं रहा है, आदिवासियों के दावे ने बिल्कुल अलग दिशा पकड़ी है। यह दिशा एक तरह की अल्पसंख्यक अस्मिता की राजनीति की रही है, जिसका टिकाऊ विकास के सिद्धांतों के बारे में अस्पष्ट रुख रहा है। इसकी वजह क्या है? (हमारी) दलील है कि कार्यकर्ता और आदिवासी नेता समाज परिवर्तन के जिन सिद्धांतों को लेकर चलते हैं, ग्रामीण लोगों एवं पर्यावरण के बीच संबंध के बारे में उनकी शुरुआत अलग-अलग परिप्रेक्ष्यों से होती है।”

फेलिक्स पैडेल ने आदिवासियों के बीच काफी समय गुजारा है। वे एक प्रतिभाशाली नृतत्वशास्त्री हैं, इसलिए संभवतः इस बात को चुनौती नहीं दी जा सकती कि वे कोंड आदिवासियों के इतिहास और वर्तमान को गहराई से समझते हैं। लेकिन मुश्किल तब होती है, जब यह विमर्श राजनीतिक संदर्भ लेता है। इसमें संभवतः वही अंतर्विरोध और समस्याएं खड़ी हो जाती हैं, जिनकी व्याख्या अमिता बावीसकर ने की है। साफ है, आदिवासियों से इतिहास में हुए अन्याय को समझना और उसके निराकरण की राजनीति को बल देना एक बात है, लेकिन उस विमर्श को भावनात्मक और रोमांटिक बना देना बिल्कुल दूसरी बात है। रोमिला थापर और फेलिक्स पैडेल जैसे विद्वानों का हस्तक्षेप पहले मकसद में सहायक होता है।

लेकिन इसका दूसरा परिणाम चरमपंथी नजरिए एवं उग्रवादी राजनीति को वैधता देने की तरफ जाता है और इससे सतर्क रहने की जरूरत है। हाल की घटनाओं के क्रम में फेलिक्स पैडेल ऐसी सतर्कता से दूर जाते दिखे हैं, तो इसकी जड़ें संभवतः उनके पूरे वैचारिक रुझान में छिपी है। लेकिन उसे देश की हर जनतांत्रिक शक्ति स्वीकार नहीं कर सकती। आदिवासी विमर्श को आज ज्यादा ठोस और तार्किक रूप देने की जरूरत है।

2 comments:

अफ़लातून said...

फ़ेलिक्स से बातचीत के आधार पर एक पोस्ट- ‘विपरीत नृशास्त्र’ का प्रबल प्रवक्ता ,चार्ल्स डारविन का वंशज फ़ेलिक्स पैडल । समरेन्द्र दास के साथ लिखी उसकी नई किताब-Out of this Earth : East India Adivasis and the Aluminium Cartel का लोकार्पण ३० अप्रैल,२०१० को दिल्ली में होगा।

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

आदिवासियों को बहुत सी किताबों में अन्य या राक्शस की कैटेगरी में रखा जाता था, उन्हें खून पीने वाले या सभ्य समाज से अलग रखा जाता था।
लेकिन स्थितियां आज भी कहां बदली हैं, आज भी वे सभ्य समाज से कटे ही हैं, आज भी उनका संघर्ष हर दिन वैसा ही है बल्कि पहले से ज्यादा है, पहले कम से कम वे अपनी क्लोज्ड सोसाइटी में अपने ढंग से जी तो रहे थे लेकिन आधुनिकता के नाम पर हमने उनसे उनकी जगह भी छिन ली।