Tuesday, October 23, 2007

इस हिंसा को समझें


दिवासी एवं अन्य वनवासी वन अधिकार कानून के पास हुए तकरीबन एक साल हो गया है। लेकिन अब तक इस पर अमल शुरू नहीं हुआ है, क्योंकि सरकार ने इसे लागू करने के नियमों को अधिसूचित नहीं किया है। खबर है कि आदिवासी मामलों का मंत्रालय इन नियमों को अंतिम रूप दे चुका है, लेकिन ऐन वक्त पर कांग्रेस आलाकमान के इस पर रोक लगा देने की वजह से कानून पर अमल रुका हआ है। खबरों के मुताबिक वन्य जीव लॉबी ने कांग्रेस के अभिजात्यवादी रुझान वाले नौजवान सांसदों के जरिए कांग्रेस आलाकमान को अपने प्रभाव में लिया और उसे यह समझाने में कामयाब रहा कि अगर मौजूदा रूप में यह कानून लागू हुआ तो बाघ जैसे जंगली जानवरों का सफाया तय है। इस तरह यह कानून बनने के पहले जिस मुद्दे पर तेज बहस हुई और जिस पर पहले ही काफी संतुलन कायम करने के लिए कई समझौते किए गए, उसे पिछले दरवाजे से फिर खड़ा कर दिया गया है।
यह इस बात की मिसाल है कि सत्ता के हलकों में इंसान पर पर्यावरण और जंगली जानवरों को तरजीह देने वाली मानसिकता किस कदर हावी है। यह कहने का मतलब यह नहीं है कि हम पर्यावरण और जंगली जानवरों को बचाने के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन यह बात मजबूत तर्कों के साथ साबित की जा चुकी है कि जंगल और जंगली जीव दोनों की सबसे बेहतरीन सुरक्षा आदिवासी समूहों के जंगल पर अधिकार मानने के साथ ही हो सकती है। ये वो समूह हैं जिनका अपने परिवेश से सीधा लगाव है। लेकिन उन्हें उस भूमि पर कानूनी अधिकार मिले, जिस पर वे सदियों से रहते आए हैं, यह सुविधा संपन्न तबकों को मंजूर नहीं है। और इन तबकों का असर इतना ज्यादा है कि राजनीतिक दल अपने वोट के तात्कालिक फायदे को नज़रअंदाज कर भी उनकी बात मानने को तैयार हो जाते हैं। फिर इन दलों के ऊपर अदालतें हैं जो हर मुद्दे पर अभिजात्यवादी व्याख्या के साथ तैयार हैं।
यह मिसाल सिर्फ यह दिखाने के लिए दी गई है कि गरीब और वंचित तबकों का इस व्यवस्था में हक पाना कितना कठिन है। यहां बात उन तबकों की है, जो एक इलाके में रहते हैं और जो संसदीय जनतंत्र में बतौर वोट समूह के अपनी एक अहमियत रखते हैं। जिन समूहों के रहने की भी कोई तय जगह नहीं हो, उनके लिए चुनौती कितनी मुश्किल है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। खानाबदोश समूहों के लिए इस लोकतंत्र में क्या जगह है और उनके कानूनी अधिकार क्या हैं, हाल की घटनाओं ने इस सवाल को बेहद अहम बना दिया है। बिहार के वैशाली जिले में नट जाति के दस लोगों को पीट मार डालने की घटना के साथ वहां के ग्रामीण समुदाय, पुलिस और राज्य सरकार की जो मानसिकता जाहिर हुई, उसके आधार पर सिर्फ यही कहा जा सकता है कि जातियों और समूहों पर कलंक थोपने और उन्हें सच मानने की अमानवीय और उपनिवेशवादी सोच से हमारा समाज आज तक नहीं उबर पाया है।
केंद्र सरकार ने इन समूहों के लिए पिछले साल एक आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने अपनी रपटो में इन जातियों और समूहों की दुर्दशा की तरफ ध्यान खींचा है। इनमें से ज्यादातर जातियां वे हैं जिन्हें अंग्रेजों के जमाने में अपराधी जाति घोषित कर दिया गया था। यानी इन जातियों में जन्म लेना ही अपराधी होने का प्रमाण था। अपराध सामाजिक व्यवस्था में निहित अन्याय औऱ हिंसा का परिणाम है और अपराधी बनने के पीछे समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक वजहें होती हैं, इस वैज्ञानिक समझ के उलट कुछ जातियों और समूहों को जन्मजात अपराधी बता देना मानव के मूलभूत अधिकारों पर प्रहार है। लेकिन ऐसा लगता है कि स्वतंत्र भारत में इन जातियों को डिनोटिफाई करने यानी अपराधी सूची से इन्हें हटाने के बावजूद बहुत से लोगों और प्रशासन की समझ इस मानव विरोधी सोच से उबर नहीं सकी है।
आदिवासियों और खानाबदोश जातियों के प्रति शासक और संपन्न वर्गो का यह रुख मौजूदा व्यवस्था में निहित हिंसा की एक मिसाल है। कहा जा सकता है कि यह अंतर्निहित हिसा ही आज लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
- सत्येंद्र रंजन

Tuesday, October 16, 2007

माओवाद से कैसे बने संवाद?


सत्येंद्र रंजन
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सत्रहवीं राष्ट्रीय कांग्रेस में एक एजेंडा देश को फिर से माओवादी विचारों के रास्ते पर ले जाने का भी है। पार्टी महासचिव और राष्ट्रपति हू जिन ताओ ने पिछले पांच साल में इस दिशा में कई पहल की है। उनकी कोशिश अपने उत्तराधिकारी के रूप में उन नेताओं को सामने लाने की रही है, जो पार्टी में सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़े हैं और जो विषमता के शिकार तबकों औऱ इलाकों की नुमाइंदगी करते हैं। दरअसल, हू की कोशिश पार्टी और सरकार में आर्थिक विकास और समानता के उद्देश्य के बीच संतुलन बनाने की रही है। माओवादी दौर में समानता का मूल्य और मकसद सर्वोपरि था। इसके लिए उस दौर में जो प्रयास किए गए, उसे जोर-जबर्दस्ती बता कर पूंजीवादी मीडिया में उसकी कड़ी निंदा की जाती रही है। लेकिन हकीकत यही है कि चीन में उस विकास और समृद्धि की बुनियाद उसी दौर में पड़ी, जिस पर आगे चल कर देंग शियाओ फिंग के विचारों के मुताबिक आर्थिक सुधार लागू किए गए। देंग का प्रभाव भी आज चीन पर उतना ही अमिट लगता है, जितना माओ का रहा।
लेकिन देंग के प्रभाव में और जियांग जेमिन के दौर में लागू किए सुधारों से आई समृद्धि की कीमत देश को बढ़ती गैर-बराबरी के रूप में चुकानी पड़ी। हू जिन ताओ ने अपने पांच साल के कार्यकाल में इन दोनों पलड़ों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की है। बहरहाल, नव-जनवादी क्रांति के बाद से चीन की यात्रा ने यह जरूर साफ किया है कि अगर ठोस हकीकत को ध्यान में रखते हुए रणनीति बनाई जाए तो परिवर्तन, प्रगति और विकास की वह राह जरूर ढूंढी जा सकती है, जो हर प्रगतिशील क्रांति का उद्देश्य रही है। एक सुखी मानव समाज बनाने के लिए समानता और समृद्धि दोनों जरूरी हैं। क्रांतिकारी शक्तियों के सामने चुनौती इन दोनों को हासिल करने की रणनीति बनाने की है और इस दिशा में चीन के कम्युनिस्ट नेताओं ने अपना खास योगदान दिया है।
चीन का यह अनुभव भारत में परिवर्तन और प्रगति से वास्ता रखने वाले हर समूह के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। खास उन शक्तियों के लिए जो खुद को माओवादी मानती हैं और जिनका असर आज देश के एक बड़े हिस्से में फैल गया है। यह सच है कि जो भी ताकतें जमीन पर चाहे जिस तरह का संघर्ष कर रही हों, उन्हें बाहर से सलाह की जरूरत नहीं होती। ये ताकतें अपनी समझ, स्थितियों के अपने विश्लेषण और अपनी शक्ति के मूल्यांकन के आधार पर संघर्ष करती हैं। ऐसे में किसी बाहरी टिप्पणी को खारिज कर देने का रुझान अगर उनमें हो, तो उसे स्वाभाविक माना जा सकता है। लेकिन जब किसी संगठन का मकसद नई व्यवस्था बनाना हो, तो यह उसके लिए भी जरूरी होता है कि वह लोकतांत्रिक विमर्श और संवाद में शामिल हो।
भारतीय माओवादियों के सामने अपने पड़ोस के दो अनुभव हैं। पहला अनुभव जाहिर तौर पर चीन का है, जहां माओवादी व्यवस्था अब विकासक्रम के एक नए चरण में है। दूसरा अनुभव नेपाल का है, जहां के माओवादियों ने व्यापक मोर्चा बनाकर साथ-साथ संघर्ष एवं सहयोग की रणनीति पर व्यावहारिक ढंग से अमल किया है और तमाम मुश्किलों के बीच देश को विकास के नए स्तर पहुंचाने की कोशिशों में भागीदार बने हैं। इन दोनों अनुभवों या वहां हुए मौजूदा सभी प्रयोगों को संशोधनवादी या भटकाव कह कर खारिज देना संभवतः एक सुविधाजनक राजनीतिक रुख हो सकता है, लेकिन ऐसा सीखने और अपने नजरिए को बड़ा बनाने के लिए उपलब्ध सबक को खो देने की कीमत पर ही किया जा सकता है।
भारत में न्याय की लड़ाई से जुड़े सभी लोगों के लिए इस सबक की खास अहमियत है। ऐसे सभी लोगों के लिए यह भी अहम है कि वे भारत में जारी माओवादी संघर्ष को उसके संपूर्ण संदर्भ में देखें। संभवतः यह माओवादियों के लिए भी जरूरी है कि बड़े परिप्रेक्ष्य को अपनी विचार प्रक्रिया में शामिल करें। बहरहाल, सबसे पहला सवाल यही है कि भारत में आखिर माओवादियों की क्या प्रासंगिकता है और आखिर उनकी ताकत का स्रोत कहा हैं? इस सवाल को समझने के लिए हमें अपनी राज्य-व्यवस्था के स्वरूप और लोकतांत्रिक प्रयोगों की सीमाओं या उनके रास्ते में आड़े आ रही रुकावटों पर गौर करना होगा।
माओवादी निसंदेह राजनीति में चरमपंथी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।
चरमपंथी सोच में यह अंतर्निहित है कि अपनी समझ के अलावा बाकी सभी समझ को सिरे से नकार दिया जाए। बल्कि न सिर्फ दूसरों की समझ को गलत माना जाए, बल्कि उनके इरादे पर भी शक किया जाए या फिर माना जाए कि उनकी असहमति के पीछे दरअसल वर्ग दृष्टि का फर्क है। यह सोच अपने मकसद और कार्यों के लिए गहरी निष्ठा पैदा करती है और अपने उद्देश्य के लिए जूझने का हौसला भरती है। लेकिन इसकी सीमा यह है कि समाज और अर्थव्यवस्था की वस्तुस्थिति और राजनीति के असली स्वरूप की यथार्थ समझ यह नहीं बनने देती। आम इंसान कैसे व्यवहार करता है, उसके बुनियादी रुझान कैसे होते हैं और ये किस बात से प्रभावित या प्रेरित होते हैं, इसकी बिना सही समझ बनाए सामाजिक विश्लेषण की कोशिश एक मनोगत जड़ता पैदा करती है। कुल मिलाकर हालत यह बनती है कि इस सोच से चलने वाला संगठन या व्यक्ति दुनिया जैसी है, उसे उसी रूप में देखने के बजाय वह जैसा सोचता है, उसे उस रूप में देखने लगता है।
इसके बावजूद अगर चरमपंथी राजनीतिक विचारधारा को आज देश में ज्यादा समर्थन मिल रहा है तो इसकी ठोस वजहें हैं। सीधे तौर पर इसके पीछे दो वजहें तलाशी जा सकती हैं। इनमें पहली वजह है, देश के एक बड़े तबके में मौजूदा व्यवस्था के भीतर न्याय की उम्मीद लगातार कम होते जाना। अगर आजादी के साठ साल बाद भी भूमि सुधारों पर अमल नहीं हुआ है या आदिवासियों को जंगल और जमीन पर बुनियादी हक नहीं मिले तो आखिर भूमिहीनों और आदिवासियों में इस व्यवस्था से इंसाफ की उम्मीद क्यों होनी चाहिए? इससे जुड़ी एक दूसरी वजह है, जो पहले से ही मौजूद शिकायत को और गहरा बना रही है। शासक और अभिजात्य समूहों में लोकतंत्र की प्रक्रिया को बाधित करने और कई तरीकों से इसे पलटने की कोशिशों से देश के व्यापक जन समुदाय में नाराजगी बढ़ती जा रही है। न्यायपालिका और कई संवैधानिक संस्थाएं जिस तरह अभिजात्य समूहों के हित और उनके नजरिए को लागू करने में संवैधानिक लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों की अवहेलना कर रही हैं, उससे शासन की मौजूदा व्यवस्था में वंचित तबकों का भरोसा और कमजोर हो रहा है। अगर नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों, रूढिवादी सामाजिक नजरिए और संस्थागत गैर बराबरी को आगे बढ़ाने में संवैधानिक संस्थाएं शामिल नज़र आएंगी तो सदियों से वंचित लेकिन अब जागरूक हो रहे समूहों में व्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना निश्चित रूप से ज्यादा भड़कती जाएगी। कहा जा सकता है कि शासक समूह भी एक तरह के चरमपंथ का सहारा ले रहे हैं, जिससे माओवादी चरमपंथ को तर्क, समर्थक और कार्यकर्ता मिल रहे हैं।
परिणाम यह है कि देश के बड़े हिस्से में आज माओवादी एक बड़ी ताकत बन गए हैं और वे वहां के जन जीवन को अपनी ताकत और मंशा से संचालित करने की हैसियत में पहुंच गए हैं। अब तक के अनुभव से यह साफ है कि केंद्र और राज्य सरकारों के पास इस चरमपंथी राजनीतिक चुनौती से निपटने का कोई असरदार रास्ता नहीं है। खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों की मजबूती और चुस्ती के साथ-साथ अब विकास और लोगों की शिकायतें दूर करने की बातें भी सरकारी बयानों का हिस्सा बन गई हैं। लेकिन ये सारी बातें खोखली हैं, इसे जानने के लिए किसी गंभीर अध्ययन की जरूरत नहीं है। विकास और लोगों की शिकायतें दूर करने की सरकारों के पास कोई रणनीति नहीं है और ऐसे में सारा जोर सुरक्षा बलों की तैनाती पर आकर खत्म हो जाता है। लेकिन जिस चरमपंथी आंदोलन के पीछे एक राजनीतिक विचारधारा और उद्देश्य हो, उसे इस तरीके से खत्म नहीं किया जा सकता, इस बात की मिसाल १९६७ से आज तक के नक्सलवादी आंदोलन का इतिहास ही है। इस परिस्थिति में यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि माओवादी लंबे समय तक भारतीय राज्य के लिए एक चुनौती बने रहेंगे। बल्कि देश के एक बड़े हिस्से में उनकी तूती बोलती रहेगी।
लेकिन माओवादियों के सामने भी कुछ यक्षप्रश्न हैं। आखिर माओवादियों का क्या उद्देश्य है? जाहिर है, चूंकि वे माओवादी हैं, इसलिए उनका घोषित लक्ष्य राज्य सत्ता पर कब्जा करना है। इसके लिए उनकी रणनीति गांवों में अपना आधार मजबूत करते हुए शहरों को घेरने और आखिरकार राजधानी को घेर कर वहां कब्जा कर लेने की है। यानी वही रणनीति जिसके जरिए माओ जे दुंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने १९४९ में च्यांग काई शेक के कुओमिंनतांग के खिलाफ इन्कलाब को अंजाम दिया था। लेकिन सवाल है कि क्या सचमुच आज के हालात में और भारत की मौजूद परिस्थितियों में यह मुमकिन है? क्या जो रणनीति पतनशील सामंतवादी चीनी समाज में सफल रही, वह भारत की मिश्रित व्यवस्था के बीच कामयाब हो सकती है? उस रणनीति को कारगर बताने के लिए माओवादी भले आज भी भारतीय व्यवस्था को अर्ध सामंती- अर्ध औपनिवेशिक मानते हों, लेकिन किसी वस्तुगत विश्लेषण से यह बात अब साबित नही की जा सकती। न ही यह साबित किया जा सकता है कि भारतीय शासक वर्ग साम्राज्यवाद का दलाल है। ऐसी समझ को गलत सिद्ध करने के लिए अमेरिका से असैनिक परमाणु करार का मामला ही काफी है, जिसे बुश प्रशासन की प्राथमिकताओं के बावजूद अब ठंडे बस्ते में जाना पड़ा है।
खुद बहुत से मार्क्सवादी कार्यकर्ता आज यह मानते हैं कि कम्युनिस्टों ने साम्राज्यवाद और सामंतवाद से संघर्ष की तो कारगर रणनीति विकसित की और कई देशों में उसे सफल भी बनाया, लेकिन कहीं विकसित पूंजीवाद को वे परास्त नही कर सके। इस बात की एक भी मिसाल नही है, जब किसी पूंजीवादी देश में कम्युनिस्ट क्रांति को अंजाम दिया गया हो। भारत की मिश्रित व्यवस्था में पूंजीवाद अपना एक मजबूत अस्तिव बना चुका है। शासन व्यवस्था में इसकी जबरदस्त पकड़ है। क्या माओवादियों के पास इस व्यवस्था को अपने कथित जन युद्ध से हरा देने की तरकीब और ताकत है?
दरअसल, संसदीय लोकतंत्र के दायरे में बदलाव के कुछ प्रयोग ऐसे हैं, जो समाज के सबसे वंचित और सदियों से शोषित रहे तबकों के लिए इस व्यवस्था में जगह बना रहे हैं। इनमें एक प्रयोग बहुजन समाज पार्टी का है, जिसने लाखों दलितों के सम्मान और समान अवसर पाने की लड़ाई को एक खास मुकाम तक पहुंचाया है। अन्य पिछड़ी जातियों ने संवैधानिक आरक्षण के जरिए व्यवस्था में अपने लिए जगह की तलाश की है। इन समूहों की नुमाइंदगी करने वाले दलों और नेताओं ने अपने अवसरवादी चरित्र के बावजूद सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
संघर्ष का यह मॉडल आदर्श नहीं है। इसलिए कि समाज में आए बदलावों के बावजूद व्यवस्था पर पूंजी और आर्थिक विशेषाधिकारों का दबदबा कमजोर नहीं पड़ा है। खुद संवैधानिक व्यवस्था के भीतर इससे नए टकराव और तनाव पैदा हो रहे हैं। इसके बावजूद संवैधानिक व्यवस्था के भीतर भी लोकतत्रीकरण की परिघटना आगे बढ़ी है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
भारतीय माओवाद सिर्फ ठोस हकीकत से आंख मूंद कर ही इस अनुभव को खारिज कर सकता है। लेकिन ऐसा कर वह एक ऐसे दड़बे में बंद रहेगा, जहां से बाहरी दुनिया की हकीकत उसकी नजरों से दूर बनी रहेगी। दुर्गम जंगलों और दूर-दराज के इलाकों में वह अपना गढ़ जरूर बनाए रखेगा, लेकिन अपने अंतिम मकसद के लिए वह कोई रणनीति विकसित कर पाएगा, इसमें संदेह है। लेकिन माओवादी व्यापक लोकतांत्रिक विमर्श और प्रक्रिया का हिस्सा बनें इसके लिए यह भी जरूरी है कि मुख्यधाऱा की वामपंथी ताकतें और दूसरे राजनीतिक दल उन्हें अपराधी या भटके हुए कार्यकर्ता के बतौर देखना छोड़ें। उन्हें इस हकीकत को स्वीकार करना चाहिए कि भले माओवादियो का तरीका चरमपंथी हो, लेकिन वे मौजूदा व्यवस्था से न्याय और आत्म सम्मान की उम्मीद छोड़ चुके समूहों की आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति दे रहे हैं। साथ ही वे उस परिघटना का प्रतिवाद हैं जो लोकतंत्र को लगातार दक्षिणपंथी और अभिजात्यवादी हितों के मुताबिक परिभाषित कर रही है और इसमें न्याय की संभावना को लगातार संकुचित कर रही है। भारत की सभी न्यायप्रिय लोकतांत्रिक शक्तियां अगर ऐसे विमर्श के लिए आगे आएं तो आम जन के लोकतंत्र की स्थापना और उसकी मजबूती का एक बेहतर रास्ता निकल सकता है।

Sunday, October 14, 2007

अच्छा किए जो हकीकत समझे


अब देश, खासकर धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र में यकीन रखने वाले लोगों ने राहत की सांस ली है। आखिरकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ठोस सियासी हालात को अब समझा है। उन्होंने यह मान लिया है कि भले उनकी राय में भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु सहयोग समझौता देश हित में हो, लेकिन देश का बहुमत इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है और लोकतंत्र में जनता का बहुमत की सर्वोपरि है। उनका यह कहना कि उनकी सरकार सिर्फ एक मुद्दे की सरकार नहीं है औऱ किसी सवाल पर निजी निराशा के बावजूद जिंदगी चलती रहती है, हकीकत का एक बयान है।
यह साफ है कि कांग्रेस पार्टी के भीतर इस समझ को बनाने में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की खास भूमिका रही है। इस तरह सोनिया गांधी ने एक बार फिर ऐतिहासिक महत्त्व की भूमिका निभाई है। सोनिया गांधी की ऐसी ही अंतर्दृष्टि से भाजपा नेतृत्व वाले शासन के समय धर्मनिरपेक्ष दलों के राजनीतिक ध्रुवीकरण की राह तैयार हुई थी, जिस पर अब खतरा मंडराने लगा था। एक बार फिर अपनी सूझबूझ से सोनिया गांधी ने उस खतरे को टाल दिया है। इस तरह धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक शक्तियों के बिखराव का अंदेशा फिलहाल टल गया है।
इस देश में विवेकशील लोगों के बीच भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस राय से इत्तेफाक़ रखते हैं कि अमेरिका से परमाणु समझौता देश के हित में और भविष्य के लिहाज से जरूरी है। मनमोहन सिंह सरकार ने यथासंभव सर्वोत्तम करार हासिल करने में कामयाबी पाई, इसे भी ठोस विश्लेषण के आधार पर माना जा सकता है। इसके बावजूद यह समझौता पर्याप्त राजनीतिक समर्थन नहीं जुटा सका तो इसकी वजह है समझौते का पूरा संदर्भ। इस समझौते को अमेरिका की व्यापक सामरिक रणनीति के हिस्से के रूप में देखा गया और ऐसे में साम्राज्यवाद विरोधी इतिहास और संस्कृति के पूरे परिप्रेक्ष्य में इसे जन समर्थन मिल सकना मुश्किल हो गया। कहा जा सकता है कि इस समझौते की मौत उसी दिन हो गई जब भारत ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में ईरान के खिलाफ मतदान किया। इससे लोगों का यह शक गहरा हो गया कि यह समझौता हासिल करने के लिए मनमोहन सिंह सरकार किसी भी हद तक जा रही है औऱ वह देश की ऐतिहासिक विचारधारात्मक विरासत से समझौता कर रही है।
कम्युनिस्ट पार्टियों की साम्राज्यवाद के संदर्भ में स्पष्ट विचारधारा को देखते हुए यूपीए और मनमोहन सिंह सरकार को पहले ही इस समझौते को प्रतिष्ठा का सवाल नहीं बनाना चाहिए था। उन्हें यह समझना चाहिए था कि उनकी सत्ता के आधार का एक बड़ा हिस्सा उन ताकतों का है जो किसी भी हाल में इस मुद्दे पर समझौता नहीं कर सकतीं। इन ताकतों ने अगर सांप्रदायिक फासीवाद के खतरे को देखते हुए यूपीए को समर्थन दिया है तो उनके लिए साम्राज्यवाद का सवाल भी उतना ही बड़ा है। बहरहाल, देर से ही सही कांग्रेस, उसके साथी दलों और सरकार ने यह बात समझी है तो इससे भारतीय लोकतंत्र की शक्ति जाहिर होती है।
परमाणु करार पर यूपीए और वामपंथी दलों के बीच समिति अभी इस बारे में विचार-विमर्श कर रही है। अगर इसमें कोई सहमति बनती है तो उसके मुताबिक इस करार पर जरूर अमल होना चाहिए। अगर सहमति नहीं बनती है तो इसे भविष्य के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। यूपीए के घटक दलों और वामपंथी दलों के सामने फौरी मकसद धर्मनिरपेक्ष तालमेल को मजबूती देने का है। मध्यावधि चुनाव भले टल गया हो, लेकिन आम चुनाव भी बहुत दूर नहीं है। उस चुनाव में यह एकजुटता बनी रहे और सांप्रदायिक फासीवाद को फिर से देश की केंद्रीय राजनीतिक शक्ति बनने का मौका न मिले, इसे सुनिश्चित करना फिलहाल सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। वामपंथी दलों को भारतीय जनता पार्टी के इस बयान पर गौर करना चाहिए कि अगर वह सत्ता में आती है तो परमाणु करार पर अमेरिका से फिर से बातचीत करेगी।
यहां यह नहीं भूला जा सकता कि अमेरिका के साथ भारत के रणनीतिक संबंधों की नींव भाजपा नेतृत्व वाले शासन के दौरान ही डाली गई। भाजपा की अपनी सोच साम्राज्यवाद समर्थक और धुर दक्षिणपंथी है। इसके लिए सांप्रदायिकता को आधार बनाकर राजनीतिक बहुमत जुटाना उसकी रणनीति है। ऐसे में उसके शासन में आने पर न सिर्फ परमाणु करार पर अमल तय है, बल्कि भारत का अमेरिका का जूनियर पार्टनर बनना भी निश्चित है। इस खतरे के मद्देनजर भी धर्मनिरपेक्ष एकता की मजबूती का महत्त्व सबको समझना चाहिए। सोनिया गांधी के हस्तक्षेप और प्रधानमंत्री के राजनीतिक वास्तविकता को स्वीकार कर लेने से इस एकता के लिए पैदा हुआ खतरा टल गया है। यह स्वागतयोग्य है। लेकिन इससे भी बड़ी चुनौतियां और इससे भी बड़ा उद्देश्य अभी आगे है।
- सत्येंद्र रंजन

Tuesday, October 9, 2007

सवाल उठाया तो जवाब सुनिए


सत्येंद्र रंजन
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने रविवार को हरियाणा के झज्जर में भारत-अमेरिका परमाणु सहयोग समझौते के विरोधियों को जो चुनौती दी, वह उतनी ही गलत समझ और राजनीतिक गणना पर आधारित है, जितनी अगस्त की शुरुआत में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के लिए वामपंथी दलों को चुनौती देना था। कोलकाता के अखबार द टेलीग्राफ को दिए मनमोहन सिंह के उस इंटरव्यू से भड़का राजनीतिक विवाद सोनिया गांधी के बयान से अपने चरम बिंदु पर पहुंच गया है। इसके साथ ही लोकसभा का मध्यावधि चुनाव अब अपरिहार्य सा लगने लगा है। इसलिए कि धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर बनी राष्ट्रीय आम सहमति अब टूटने के कगार पर है। मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी के लिए अमेरिका से रिश्ते मजबूत करना इस आम सहमति से ज्यादा अहम बन गया है और ऐसे में चुनाव ही अकेला विकल्प नजर आता है।
बहरहाल, कांग्रेस के नेता कुछ बातें अपने सामने साफ कर लें तो बेहतर है। अगर वे सोच रहे हैं कि इस वक्त देश में उनकी लहर चल रही है तो वे बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार हैं। पांच महीने पहले के उत्तर प्रदेश चुनाव से अगर वे सबक लें तो उनकी आंखें खुल सकती हैं, जहां उनका राहुल गांधी कार्ड भी बेनकाब हो गया। फिर जिस करार के लिए वे अपनी सरकार और उससे भी बड़ी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय आम सहमति को कुर्बान करने जा रहे हैं, वह वैसे भी अमल में नहीं आएगा। चुनाव की परिस्थिति बनने के साथ यह करार ठहर जाएगा और यह तो कांग्रेस नेता शायद सपने में भी नहीं सोचते होंगे कि अगले चुनाव में उन्हें या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को अपना बहुमत मिल जाएगा। चुनाव बाद भी यूपीए की सरकार अगर बनी तो उसके लिए वामपंथी दलों के समर्थन की जरूरत होगी और तब इस करार पर आगे न बढ़ना इन दलों की पूर्व शर्त होगी। और अगर भारतीय जनता पार्टी एवं उसके सहयोगी दल सत्ता में आ गए तो फिर कांग्रेस विपक्ष में बैठ कर अमेरिका का कितना समर्थन कर पाएगी, यह सवाल उसके सामने है।
सोनिया गांधी ने इस विवाद में अपने को झोंक कर एक बड़ा नुकसान किया है। गौरतलब है कि पिछले साढ़े तीन साल में तमाम राजनीतिक विवादों के बीच वामपंथी दलों या व्यापक तौर पर धर्मनिरपेक्ष- लोकतांत्रिक शक्तियों ने उन पर कभी हमला नहीं किया। इसलिए कि ये शक्तियां भारतीय राजनीति के मौजूदा मुकाम पर उनकी अहमियत और प्रासंगिकता को जानती हैं। ये शक्तियां यह समझती हैं कि अभी सांप्रदायिक-फासीवाद एवं सामाजिक रूढ़िवाद से संघर्ष में कांग्रेस पार्टी की एक बड़ी भूमिका है और कांग्रेस पार्टी का चरित्र ऐसा है कि वह यह भूमिका तभी निभा सकती है, जब उसका नेतृत्व नेहरु-गांधी परिवार से आए नेता के पास हो। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित भारतीय राष्ट्र की नेहरूवादी अवधारणा को कायम रखने में आज भी कांग्रेस पार्टी की खास भूमिका है। सोनिया गांधी ने निजी तौर पर भी इन मूल्यों को मूर्त बनाए रखने में अपना अहम योगदान दिया है।
सोनिया गांधी की खूबी यह रही कि उन्होंने राजनीति में कदम पार्टी के विपक्ष में होने के समय रखा। संघ परिवार और उसके जॉर्ज फर्नांडिस जैसे लोहियावादी सहयोगियों के तमाम निजी हमलों और चरित्र हनन के अभियान को सहते हुए भी वे भाजपा नेतृत्व वाले सांप्रदायिक-फासीवादी शासन से संघर्ष में एक केंद्रीय व्यक्तित्व के रूप में उभरीं और सांप्रदायिकता विरोधी शक्तियों में राजनीतिक गठबंधन का स्रोत बनीं। इन शक्तियों को बहुमत मिलने के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री पद ठुकरा कर अपनी शख्सियत को इतना ऊंचा कर लिया, कि वे आधुनिक भारत के निर्माण में उनकी खास जगह बन गई। पिछले साढ़े तीन साल में उन्होंने अक्सर वंचित तबकों, लोकतांत्रिक आकांक्षाओं और धर्मनिरपेक्ष आम सहमति की तरफ से मौजूदा शासन में हस्तक्षेप किया। ऐसे में उनसे यही अपेक्षा रही है कि परमाणु करार के सवाल पर उठे विवाद में वे एक ऐसा पुल बनी रहेंगी, जिससे मतभेद की तमाम खाइयों को पाटा जा सकेगा।
इसीलिए झज्जर की सभा में उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उससे देश के विवेकशील लोगों को सदमा लगा है। सोनिया गांधी का यह कहना कि जो लोग परमाणु करार के खिलाफ हैं, वे न सिर्फ कांग्रेस बल्कि विकास का दुश्मन हैं, उनकी अपनी शख्सियत पर ग्रहण लगाता है। बहरहाल, जब उन्होंने यह मुद्दा उठा दिया है, तो उन्हें इसका जवाब जरूर दिया जाना चाहिए। सबसे पहली बात यह है कि संसद का बहुमत जिस समझौते के खिलाफ है, उस पर अमल नहीं हो सकता, यह एक बुनियादी लोकतांत्रिक सिद्धांत और हकीकत है। मौजूदा लोकसभा में तकरीबन ३०० सदस्य भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते के खिलाफ हैं, जो यह जाहिर करता है कि इस देश का बहुमत इस समझौते के हक में नहीं है। ऐसे में यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या देश के विकास पर कांग्रेस का एकाधिकार है, जिसे वह हर हाल में लागू करेगी, भले देश का बहुमत इसे नही चाहता हो?
इसी से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या जो लोग सरकार के किसी एक कदम या पहल से सहमत नहीं हों, उन्हें काग्रेस पार्टी अपना दुश्मन मानती है? अगर ऐसा है तो क्या यह असहिष्णुता और लोकतंत्र में आस्था न होने की मिसाल नहीं है? कांग्रेस नेता यह जरूर सोच सकते हैं कि वामपंथी दल करीब साठ लोकसभा सीटों की बदौलत देश का एजेंडा तय नहीं कर सकते। लेकिन यही सवाल कांग्रेस के भी सामने है। वह तकरीबन १४५ के साथ देश के विकास का ठेका नहीं ले सकती। दरअसल, कांग्रेस नेताओं की यह सोच सिर्फ यह जताती है कि उन्होंने २००४ के जनादेश को नहीं समझा। वे यह नहीं समझ सके कि उस जनादेश से सत्ता का जो आधार बना, उसमें कांग्रेस, यूपीए के दूसरे घटक और वामपंथी दल सभी शामिल हैं। असल में, साझा न्यूनतम कार्यक्रम इसी सत्ता आधार का कार्यक्रम था, जिसके प्रति प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार ने सिर्फ मजबूरी में ही सम्मान का भाव दिखाया है।
इस कार्यक्रम के प्रति यूपीए सरकार की बेरुखी के उदाहरण भरे पड़े हैं। इनमें सबसे ताजा मिसाल आदिवासियों और अन्य जन जातियों को जंगल पर अधिकार देने का कानून है, जो साल भर से संसद से पास होकर पड़ा है, लेकिन नियम तय नहीं किए जाने की वजह से जिसे आज तक अधिसूचित नहीं किया गया है। जबकि इस कानून के प्रावधानों को लेकर गुजरात में नरेंद्र मोदी और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की भाजपा सरकारों ने पहल कर दी है। उन्होंने आदिवासियों को जमीन का पट्टा देने की शुरुआत कर दी है, हालांकि सुप्रीम कोर्ट के स्टे से फिलहाल गुजरात में यह काम ठहर गया है। यह स्टे इसीलिए लगा है क्योंकि केंद्र सरकार ने अभी तक इस बारे में कायदे तय नहीं किए हैं। आखिर केंद्र के सामने क्या मुश्किल है कि उसने अपनी पहल का राजनीतिक लाभ अपने विरोधी को ले लेने का मौका दे दिया है? यह मुश्किल दरअसल प्रतिबद्धता की कमी है।
बेहतर होता, सोनिया गांधी इस मसले पर दखल देतीं। इससे जहां आदिवासियों से हुए ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने की प्रक्रिया पर अमल शुरू होता, वहीं कांग्रेस पार्टी के लिए वोटों का भी लाभ होता। लेकिन ऐसा करने के बजाय झज्जर की सभा में सोनिया गांधी ने जो भाषण दिया, उससे यह संदेश गया कि पार्टी में ऊपर से नीचे तक की प्राथमिकताएं भटक गई हैं।
इससे पैदा हुईं ताजा परिस्थितियों के बीच सांप्रदायिक शक्तियों को फिर से उभरने का अनुकूल मौका मिल गया है। अगर चुनाव होते हैं तो इसमें बचाव की मुद्रा में कांग्रेस और उसके साथी दल होंगे। एक प्रमुख मुद्दा राष्ट्रीय स्वावलंबन बनाम अमेरिकी साम्राज्यवाद होगा, जिस पर यूपीए को भाजपा से लेकर वामपंथी दलों के हमले झेलने होंगे। मई २००४ में धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर लोकतांत्रिक भारत के जिस पुनर्निर्माण की शुरुआत हुई थी, उससे जुड़े सारे प्रयास पृष्ठभूमि में चले जाएंगे। चूंकि उस प्रयास से जुड़ी सभी शक्तियां एकजुट मैदान में नहीं होंगी, इसलिए इस विभाजन का फायदा सीधे तौर पर धुर दक्षिणपंथी ताकतों को मिलेगा। १९९० के दशक में देश में जो राजनीतिक ध्रुवीकरण शुरू हुआ, वह आज तक कमोबेश कायम है औऱ इसके बीच चुनाव नतीजे सिर्फ दो पहलुओं से तय होते हैं। इनमें पहला पहलू गठबंधन का गणित है और दूसरा एंटी-इन्कंबेंसी यानी सत्ताधारी के प्रति असंतोष की भावना। मौजूदा हालात में ये दोनों पहलू धर्मनिरपेक्ष ताकतों के खिलाफ होंगे।
कांग्रेस ने अगर चुनाव में उतरने का मन बना लिया है तो उसे इन सभी पहलुओं पर गौर कर लेना चाहिए। उसे इनके परिणामों के लिए तैयार रहना चाहिए। आधुनिक भारतीय राष्ट्र और देश के कमजोर एवं वंचित तबकों के लिए इसके परिणामों की उन्हें चिंता नहीं है, तो कम से कम अपने भविष्य के बारे में कांग्रेस नेताओं को जरूर सोचना चाहिए। वरना, आत्महत्या करने से किसी को कौन रोक पाता है?

Tuesday, October 2, 2007

ये तीन कदम जरूरी हैं

सत्येंद्र रंजन
मिलनाडु सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति बीएन अग्रवाल की टिप्पणियों ने आखिरकार विभिन्न राजनीतिक दलों को न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका एवं विधायिका के अधिकार क्षेत्र के अतिक्रमण के सवाल पर बोलने को मजबूर कर दिया है। अच्छी बात यह है कि अब कानून की दुनिया के कुछ मशहूर नाम भी इस सवाल पर खुल कर अपनी राय दे रहे हैं।
पूर्व कानून मंत्री और मशहूर वकील राम जेठमलानी ने एक टीवी चैनल की चर्चा में साफ कहा कि न्यायपालिका अपनी हद से बाहर जा रही है। उन्होंने कहा कि इसका जवाब देने के लिए बड़े नैतिक साहस और निष्ठा की जरूरत है, जिसके अभाव में केंद्र सरकार ने न्यायपालिका के आगे समर्पण किया हुआ है।
इसी चर्चा में केंद्रीय संसदीय कार्यमंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने कहा कि विधायिका के सदस्य मूर्ख नहीं हैं और वे जानते हैं कि उन्हें क्या करना है। जब सुप्रीम कोर्ट के जज तमिलनाडु सरकार की बर्खास्तगी की सिफारिश करने की चेतावनी दे चुके थे, उसके बाद दासमुंशी ने प्रेस कांफ्रेंस में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि की खुली तारीफ की। उन्होंने कहा- दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और पिछड़े तबकों का लगातार समर्थन कर और उनके लिए चिंता जता कर करुणानिधि एक मिसाल पेश कर चुके हैं। बंद पर सुप्रीम कोर्ट के रोक के बाद करुणानिधि का भूख हड़ताल पर बैठना विरोध जताने का गांधीवादी तरीका है और इससे राज्य में संवैधानिक व्यवस्था भंग नहीं हुई है।
एक अन्य टीवी चैनल के कार्यक्रम में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नेता वृंदा करात ने कहा- सुप्रीम कोर्ट की तानाशाही नहीं चलेगी। विरोध जताने के बुनियादी हक से राजनीतिक दलों और आम लोगों को वंचित नहीं किया जा सकता। चर्चा के दौरान आवेश के एक क्षण में उन्होंने कहा- तो सारी विधायिका भंग कर दीजिए, सभी दलों को समाप्त कर दीजिए, सरकार को खत्म कर दीजिए और सुप्रीम कोर्ट को ही देश चलाने दीजिए! माकपा और दूसरे वामपंथी दलों ने सार्वजनिक बयान जारी कर ऐसी ही भावनाएं जताई हैं।
अगर पूरे संदर्भ पर गौर करें तो ऐसी प्रतिक्रिया खुद न्यायपालिका ने आमंत्रित की है। लोकतंत्र की शासक और संपन्न समूहों के हितों के मुताबिक व्याख्या कर और उसके मुताबिक विधायिका और कार्यपालिका के दायरे में लगातार कदम फैलाते हुए न्यायपालिका ने अब यह स्थिति पैदा कर दी है, जब वंचित और व्यवस्था में अपना हिस्सा पाने के लिए संघर्ष कर रहे समूहों की नुमाइंदगी करने वाले राजनीतिक संगठनों के पास इस स्थिति का सीधा मुकाबला करने के अलावा कोई और चारा नहीं है। लेकिन यह लड़ाई आसान नहीं है। चूंकि न्यायपालिका के पीछे देश के समृद्ध समूहों की शक्ति खड़ी है, इसलिए उसे उसके संवैधानिक दायरे में वापस पहुंचाने के किसी संघर्ष को लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ बता दिए जाने की पूरी स्थितियां मौजूद हैं। इस काम में सुविधा-संपन्न समूहों की सबसे बड़ी ताकत कॉरपोरेट मीडिया है, जिस पर उनका पूरा नियंत्रण है।
लेकिन इस संघर्ष में इससे भी बड़ी बाधा नैतिक साहस और निष्ठा का अभाव है, जिसकी चर्चा राम जेठमलानी ने की। कांग्रेस जैसी यथास्थितिवादी पार्टी, जिसने कानून मंत्रालय का जिम्मा हंसराज भारद्वाज जैसे लोकतंत्र के प्रति संदिग्ध निष्ठा वाले व्यक्ति के हाथ में सौंप रखा है, उससे एक मजबूत, निरंतर और परिणामों की चिंता किए बिना प्रतिबद्ध संघर्ष की उम्मीद नहीं की जा सकती।
बहरहाल, जो राजनीतिक दल वास्तव में विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र की रक्षा के लिए आगे आना चाहते हैं, उन्हें तुरंत तीन मुद्दों पर कदम उठाने चाहिए
१- संसद के अगले सत्र में संविधान के बुनियादी ढांचे पर चर्चा की शुरुआत की जानी चाहिए। यह संसद को तय करना चाहिए कि संविधान का बुनियादी ढांचा क्या है, जिसमें संशोधन नहीं हो सकता। साथ ही पहल के उस दायरे को भी तय किया जाना चाहिए जो सबको समान अवसर देने की संवैधानिक वचनबद्धता को पूरा करने के लिए जरूरी है। इस दायरे को न्यायिक समीक्षा से ऊपर कर दिया जाना चाहिए और इस तरह संविधान की नौवीं अनुसूची की प्रासंगिकता फिर से बहाल की जानी चाहिए।
२- दूसरी बात यह कि मोनिटरिंग कमेटियों के दखल को सिरे से नकार दिया जाना चाहिए। ये कमेटिया कार्यपालिका के काम को बिना आमजन के प्रति संवेदनशील हुए अंजाम दे रही हैं, जिससे लाखों लोगों, खासकर कमजोर तबकों के लोगों के लिए मुश्किलें पैदा हो रही हैं। दिल्ली में सीलिंग से जुडी मोनिटरिंग कमेटी इसकी सबसे उम्दा मिसाल है।
यह लोकतंत्र में कैसे मुमकिन है कि जो कानून संसद मुख्य विपक्षी दल समेत सभी पार्टियों की सहमति से बनाती है, उसे कोर्ट खारिज कर दे और किसी मोनिटरिंग कमेटी को निर्वाचित सरकार या नगर निगम से ज्यादा शक्तिशाली बना दे?
३- संसद को अगले सत्र में कानून बनाकर शांतिपूर्ण बंद और आम हड़ताल को विरोध जताने के बुनियादी और वैध अधिकार के रूप में मान्यता देनी चाहिए। इस तरह १९९८ के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी कर देना चाहिए।
अगर राजनीतिक पार्टियां इन कदमों को उठाने का इरादा जताएं तो वे आम जन के लोकतांत्रिक अधिकारों को सीमित करने और लोकतंत्र को समृद्ध समूहों के आपसी द्वंद्व तक सीमित करने के प्रयासों को न सिर्फ रोक सकती हैं, बल्कि पिछले डेढ़ दशकों में हुई ऐसी कोशिशों के परिणामों को बेअसर भी कर सकती हैं।

Monday, October 1, 2007

बापू को नमन


लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती



सत्येंद्र रंजन
सेतु समुद्रम मुद्दे पर आयोजित तमिलनाडु बंद को सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक करार दिए जाने के बाद मुख्यमंत्री मुतुवेल करुणानिधि और उनकी सहयोगी पार्टियों ने भूख हड़ताल पर बैठने का सही फैसला किया। इससे भी ज्यादा कारगर फैसला शायद यह होता कि वे राज्य की जनता से एक दिन के अनशन की अपील करते। इस तरह वे गांधीवादी रास्ते से लोकतंत्र को नियंत्रित करने के एक प्रयास को माकूल जवाब देते। रॉलेट ऐक्ट पास होने और जलियांवाला बाग कांड के बाद जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की अपील की तो उन्होंने लोगों से प्रार्थना और उपवास करने को कहा। उनसे यह पूछा गया कि क्या वे आम हड़ताल की अपील कर रहे हैं तो उनका जवाब था- सिर्फ प्रार्थना और उपवास। महात्मा गांधी राजनीतिक आंदोलनों में धार्मिक शब्दावली का बखूबी उपयोग करते थे, इसलिए उनके लिए इन शब्दों को व्यापक प्रतिरोध का हथियार बना देना आसान था।
करुणानिधि और उनके कई साथी दलों की तर्कवादी राजनीति में शायद इसकी गुंजाइश नहीं है। चूंकि करुणानिधि इस वक्त सत्ता में हैं, इसलिए उनका सीधे सुप्रीम कोर्ट के आदेश की सिविल नाफरमानी करना भी मुमकिन नहीं है। इसके बावजूद आम जन से भूख हड़ताल के जरिए एक सार्वजनिक आंदोलन का हिस्सा बनने की अपील करने का रास्ता उनके सामने था, जिसका वे ज्यादा प्रभावशाली इस्तेमाल कर सकते थे। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट का बंद पर प्रतिबंध लगा देना लोकतांत्रिक संदर्भ में बड़े सवाल खड़ा करता है, जिसका जवाब देश में जनतंत्र और जन अधिकारों में आस्था रखने वाली ताकतों को अब जरूर ढूंढना होगा।
रिकॉर्ड के लिए इसका जिक्र कर लेना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने ताजा आदेश १९९८ के अपने फैसले की रोशनी में दिया है, जिसमें बंद और आम हड़ताल को असंवैधानिक ठहरा दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला केरल हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के बाद दिया था। केरल हाई कोर्ट ने राज्य के चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की याचिका पर सुनवाई करते हुए बंद और आम हड़ताल पर रोक लगा दी थी। हाई कोर्ट ने यह फैसला भी दिया था कि बंद के दौरान होने वाले सार्वजनिक या निजी संपत्ति के किसी नुकसान की भरपाई बंद की अपील करने वाले संगठन को करनी होगी। यहां यह गौरतलब है कि यह फैसला बड़े व्यापारियों और उद्योगपतियों की याचिका पर दिया गया। यानी उन तबकों की याचिका पर जिनका हित सीधे तौर पर मेहनतकश तबकों और आम जन के अधिकारों पर नियंत्रण लगाने से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले पर मुहर लगा दी। अदालत की दलील है कि आम लोगों का अधिकार पार्टियों के अधिकार से बड़ा है।
लेकिन सवाल है कि आखिर वे आम लोग कौन हैं? बंद और आम हड़ताल आम तौर पर उन तबकों के हथियार हैं, जिनकी बात इस व्यवस्था में नहीं सुनी जाती। या फिर यह राजनीतिक दलों या संगठनों का अपने कार्यक्रम और नीतियों पर जनमत बनाने का एक माध्यम है। ऐसी कार्रवाइयों से जनता की राजनीतिक चेतना में विस्तार होता है, इससे वह अपने अधिकारों के लिए जागरूक होती है और इससे राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में वे मुद्दे सामने आते हैं, जो आम राजनीतिक गतिविधियों की वजह से नहीं आ पाते। अगर बंद और आम हड़ताल पर प्रतिबंध होता, या उस प्रतिबंध का उल्लंघन नहीं किया गया होता तो देश का स्वतंत्रता आंदोलन कभी व्यापक जन आंदोलन नहीं बन पाता। न ही आजादी के बाद सदियों से दबा कर रखे गए समूहों में लोकतांत्रिक चेतना का विस्तार हो पाता।
असल में समस्या यही चेतना है, जिस पर अंकुश लगाना सत्ता और सुविधाओं पर कब्जा जमाए बैठे तबकों की आज सबसे बड़ी चिंता बन गई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि न्यायपालिका और कई दूसरी संवैधानिक संस्थाएं इस प्रयास का हिस्सा बनी हुई हैं। हालांकि इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। न्यायपालिका को संचालित करने वाले समूहों का वर्ग आधार आम तौर पर अभिजात्यवर्गीय रहता है। ऐसा सिर्फ भारत में नहीं है, बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी, जहां लोकतंत्र के प्रयोग हुए, इसकी मिसाल देखी जा सकती है। भारत में सन् साठ के दशक में न्यायपालिका ने प्रीवी पर्स खत्म करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे प्रगतिशील कदमों पर रोक लगा दी, तो १८९० के दशक के मध्य में अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने आय कर को असंवैधानिक करार देकर धनी तबकों को बड़ा लाभ पहुंचाया था। आज भी अमेरिका में न्यायपालिका को मोटे तौर पर दक्षिणपंथी हितों का रक्षक माना जाता है।
इसलिए अगर लोकतंत्र को नियंत्रित करने की मंशाओं के साथ कुछ संवैधानिक संस्थाओं का मेल हो जाए तो इसमें कोई हैरत की बात नहीं है। हैरत की बात उस पर राजनीतिक दलों की दब्बू प्रतिक्रिया है। १९९८ में जब यह फैसला आया, तभी विधायिका को इस पर पहल कर लोकतांत्रिक अधिकारों में कटौती की इस कोशिश को नाकाम कर देना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से विधायिका में एक बड़ा हिस्सा दक्षिणपंथी हितों का रक्षक है औऱ एक दूसरा बड़ा हिस्सा अवसरवादी है, जिसके पास इस देश को लेकर कोई सपना नहीं है। ऐसे में विधायिका भले चुनी जनता से जाती हो, लेकिन वह मजबूती से जन अधिकारों की रक्षा नहीं कर रही है।
बहरहाल, यह सवाल उस समय उठा है, जब एक दूसरे मामले में मीडियाकर्मी और न्यायपालिका आमने-सामने हैं। पत्रकार मिड डे अखबार के अवमानना मामले को अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रहार बताकर अपने अधिकारों की रक्षा के लिए मैदान में उतरे हुए हैं। यह न्यायोचित संघर्ष है, और इसमें सबको भागीदार बनना चाहिए। लेकिन मीडियाकर्मियों के सामने भी यह सवाल है कि क्या उन्हें सिर्फ अपने अधिकारों की चिंता है, या फिर वे जनता के व्यापक अधिकारों से भी वास्ता रखते हैं? अगर इनसे वास्ता रखते हैं तो उन्हें जन अधिकारों की कटौती से ऐसे सभी सवालों को उठाना चाहिए। अगर पत्रकारों का आंदोलन यह नहीं करता है तो बड़े जनतांत्रिक संदर्भ में उस आंदोलन का कोई मतलब नहीं है।
तमिलनाडु के मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश उन फैसलों की शृंखला का ही हिस्सा है, जो हाल के वर्षों में उसकी खास पहचान बने रहे हैं। आम मेहनतकश जनता के अधिकारों के संघर्ष पर लगाम, उसे लंबे संघर्ष से मिली आजादियों पर अंकुश और पूंजीवादी हितों की रक्षा इसके खास रुझान रहे हैं। ऐसा हर फैसला यही संदेश देता गया है कि लोकतांत्रिक शक्तियां लंबे समय तक इस परिस्थिति की अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकतीं। उन्हें साहस दिखाना होगा और न्यायपालिका को यह बताना होगा कि उसकी संवैधानिक हदें कहां हैं।