Tuesday, January 1, 2008
सानिया से सवाल क्यों?
सत्येंद्र रंजन
सानिया मिर्जा आधुनिकता की एक वक्तव्य हैं, इस कथन पर शायद ही किसी को एतराज हो। दरअसल, सानिया में ऐसी कई खूबियां हैं, जिनके आधार पर इस कथन की व्याख्या की जा सकती है। मसलन, सानिया ने एक बेहद प्रतिस्पर्धी खेल में दुनिया में अपनी जगह बनाई है, वे खेल को खेल की भावना से खेलती हैं, वे सोच-समझ कर और अर्थपूर्ण बातें बोलती हैं, असल में उनका हर इंटरव्यू उनकी बुद्धिमत्ता की मिसाल होता है, और भटकाव की तमाम परिस्थितियों के बावजूद उनका ध्यान अपने मकसद, यानी खेल पर अब तक टिका रहा है। शायद इन्हीं खूबियों की वजह से वे टेनिस की दुनिया में ‘बिग लीग’ तक पहुंच सकी हैं। सानिया की ये तमाम खूबियां ऐसी हैं, जिनकी वजह से किसी समाज और राष्ट्र को सहज ही उन पर फख्र हो सकता है। इसीलिए भारत में उन पर करोड़ों लोगों को फख्र है। जिस खेल में गिने-चुने मौकों को छोड़ कर भारत का नाम हाशिये पर ही रहा है, बल्कि महिला टेनिस की बात करें तो शायद हाशिये पर भी कभी नाम नहीं रहा, उसमें उन्होंने ग्रैंड स्लैम जैसे मुकामों तक इस देश का दांव पहुंचा दिया है। यह उनकी प्रतिभा और उनके पक्के इरादे का ही नतीजा है कि इस देश के खेल प्रेमी अब सचमुच इस खेल में भी सफलता के सपने देखने लगे हैं। अपनी सफलताओं के साथ सानिया ने बहुत छोटी उम्र में पूरे मुल्क का ध्यान अपनी तरफ खींचा। हमेशा ही अपने उत्पाद के इश्तहार के लिए मॉडल की तलाश में रहने वाले कारपोरेट जगत को उनमें एक आदर्श मॉडल की संभावनाएं नजर आईं। इसलिए उन पर पैसों की बरसात की खबरें मीडिया में छायी रही हैं। लेकिन इसके साथ ही ऐसी आशंकाएं भी उभरीं कि इस चमक-दमक में सानिया ऐसे खो और उलझ सकती हैं, जिससे खेल की उनकी संभावनाएं धूमिल हो जाएं। मगर साल २००७ इन आशंकाओं को गलत साबित करते हुए खत्म हुआ। इसके पहले के साल में डगमगाने के बाद गुजरे वर्ष में सानिया ने अपना फॉर्म फिर हासिल किया और बड़े विश्व मुकाबलों में भी अपनी छाप छोड़ी। इस तरह उन्होंने यह दिखाया कि खेल और कारोबार दोनों में संतुलन बनाए रखने के गुर उन्होंने सीख लिए हैं। अगर खेल के मैदान पर सानिया मिर्जा की खूबियों पर गौर करें तो संघर्ष भावना, और गलतियों से सीखने के साथ-साथ शांत बने रहना उनके बड़े सकारात्मक पहलू माने जा सकते हैं। सानिया वैसे नाज-नखरे नहीं दिखातीं, जैसा कई टेनिस खिलाड़ियों की आदत में शुमार होता है। न जीत में उनके चेहरे पर घमंड की झलक मिलती है और न हार में हताशा। कहा जा सकता है कि हर लिहाज से सानिया मिर्जा एक ऐसी खिलाड़ी हैं, जिनका अनुकरण करने के लिए दूसरे खिलाड़ियों को कहा जा सकता है। उनकी एक खूबी यह भी है कि अपने अब तक करियर में सानिया मिर्जा ने अपनी तरफ से कोई विवाद खड़ा नहीं किया है। इसके बावजूद अक्सर विवाद उन्हें घेर लेते हैं, यह शायद एक विडंबना ही है। यह इससे भी बड़ी विडंबना है कि इन विवादों का खेल से कोई संबंध नहीं होता।
अभी हाल में हैदराबाद की एक मस्जिद में एक इश्तहार की शूटिंग को लेकर उन्हें विवाद में घेरने की कोशिश हुई। इसे उनकी तेज बुद्धि की ही मिसाल माना जाएगा कि बिना ज्यादा वक्त गंवाए इस मजहबी मुद्दे पर माफी मांग कर उन्होंने विवाद से अपना पीछा छुड़ाया। और यह बात भी बहुत पुरानी नहीं हुई जब स्कर्ट पहनकर टेनिस कोर्ट में उनके उतरने के खिलाफ मजहबी फतवा जारी किया गया। यह बात बड़ी विचित्र लगती है कि जिस युवती पर उसके समुदाय को बेहद फख्र होना चाहिए, वह उसके ध्यान को ऐसे गैर जरूरी मुद्दे उठा कर भटकाने की कोशिश करे। एक बार फिर यहां सानिया के जज्बे और हिम्मत की दाद देनी होगी कि ऐसी कोशिशों के बावजूद वे अपना संतुलन कायम रखने में कामयाब रही हैं। बहरहाल, सानिया पर उठने वाले ऐसे सवाल सिर्फ उनसे ही संबंधित नहीं हैं। ये सवाल एक पूरी सोच की नुमाइंदगी करते हैं। इस सोच को समझने, बेनकाब करने और उससे संघर्ष करने की आज बेहद जरूरत है। इसलिए कि ये सवाल किसी एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि आधुनिक औऱ इंसानी उसूलों पर आधारित समाज बनाने की तमाम जद्दोजहद के रास्ते की रुकावट हैं। गौरतलब है कि सिडनी ओलंपिक के समय पश्चिम एशिया के एक इस्लामी संगठन ने बीच (समुद्र तटीय) वॉलीबॉल खेल के खिलाफ ही फतवा जारी कर दिया था। शिकायत यह थी कि उस खेल की खिलाड़ी बहुत कम कपड़े पहनती हैं और वो भड़काऊ नजर आती हैं। उनके वैसे अंग नजर आते हैं जिन्हें अगर उस संगठन या उसके जैसी सोच वाले लोगों की मानें तो, ढक कर रखे जाने चाहिए।
बात सिर्फ कुछ अंगों की नहीं है। दरअसल, इस सोच ने सदियों तक स्त्रियों को परदे में रहने को मजबूर किया। तब बात किसी खास अंग तक नहीं, बल्कि पूरी की पूरी स्त्री को ही बाहरी दुनिया की निगाहों से अलग रखने की रही। यह रवायत या सोच आज के दौर में भी खत्म हो गई हो, ऐसा नहीं है। और इस सोच पर किसी एक मजहब का एकाधिकार हो, ऐसा भी नहीं है। असल में ऐसे सवालों ने इंसान की सोच, उसकी स्वतंत्र चेतना और उसके व्यक्तित्व को बेड़ियों में जकड़े रखा है। इसलिए जब सानिया मिर्जा पर ऐसे सवाल उठते हैं तो उनका मुकाबला करने के लिए इस २० साल की लड़की को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता। बल्कि यह संघर्ष सानिया का दायरा नहीं है। सानिया अपने रहन-सहन और अपने व्यक्तित्व से इन सवालों को चुनौती दे रही हैं तो उनसे यह अपेक्षा भी नहीं रखनी चाहिए कि वे एक सामाजिक कार्यकर्ता की तरह विचार और राजनीति के मैदान में उतर कर कठमुल्लों और कट्टरपंथियों से संघर्ष करें। यह संघर्ष असल में उन तमाम लोगों का है, जो स्वतंत्रता, समता और लोकतंत्र के आधुनिक मूल्यों में यकीन करते हैं।
इसलिए यह विचारणीय प्रश्न है कि सानिया का व्यक्तित्व आखिर क्या कहता है? सानिया का व्यक्तित्व असल में यह कहता है कि एक लड़की अपनी स्वतंत्र इच्छा से अपनी जिंदगी की दायरा तय कर सकती है। वह उस दायरे की जरूरतों के मुताबिक वस्त्र चुन सकती है और कामयाबी से बनी अपनी हैसियत को अपने ढंग से जी सकती है। सवाल है कि ऐसे वक्तव्य से आखिर किसे परेशानी होती है? इससे परेशानी उन समूहों को होती है जो स्त्री, उसके व्यक्तित्व, खास कर उसके यौन व्यक्तित्व (सेक्सुएलिटी) और उसकी इच्छाओं पर नियंत्रण कायम रखना चाहते हैं। वे यह नियंत्रण इसलिए कायम रखना चाहते हैं कि बिना इसके पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था कायम नहीं रह सकती औऱ अगर ऐसा नहीं रहा तो गैर-बराबरी और दूसरों के शोषण पर आधारित व्यवस्था की जड़ें हिल सकती हैं।
इस व्यवस्था ने सामाजिक मानसिकता में कई कुंठाएं भर रखी हैं। इसके रिवाजों ने इंसान की बहुत सी स्वाभाविक भावनाओं को दमित कर रखा है। इन रिवाजों न सिर्फ स्त्री, बल्कि पुरुष के व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास की संभावनाएं भी कुंद कर रखी हैं। जाहिर है, ऐसा रहते समाज में स्त्री और पुरुष के सहज एवं स्वाभाविक रिश्ते नहीं बन पाते औऱ इससे कुंठाएं लगातार गहरी होती जाती हैं। ये कुंठाएं कभी सानिया को स्कर्ट में देख कर भड़क सकती हैं तो कभी बीच वॉलीबॉल के मुकाबलों को देख कर। ऐसी कुंठाओं से भरी सोच यह नहीं समझ सकती कि स्वीमिंग पूल में कोई बुर्का पहन कर नहीं उतर सकता!
वास्तव में यह सोच ऐसी कई साधारण और सहज बातें नहीं समझ पाती। उसके लिए यह स्वीकार करना मुश्किल होता है कि स्त्री और पुरुष दोनों समान हैं और इनमें किसी के यौन पहलू के साथ परिवार या समाज की इज्जत का कोई संबंध नहीं है। अगर मैच खेलते वक्त सानिया मिर्जा के पांव नजर आते हैं तो इससे किसी समुदाय की इज्जत नहीं जाती। या अगर कोई लड़की किसी दूसरे समुदाय में शादी कर ले तो यह लड़के के समुदाय की जीत और लड़की के समुदाय की हार नहीं है। लेकिन क्या आज के दौर तक बॉलीवुड की अंतर-धर्मीय प्रेम और विवाह पर बनी एक भी ऐसी मुख्यधारा की फिल्म बताई जा सकती है, जिसमें लड़की मुस्लिम रही हो? ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि देश के बहुसंख्यक समुदाय की मानसिकता यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि उसके यहां की कोई लड़की अपनी इच्छा से किसी मुस्लिम से प्रेम या विवाह कर ले। सानिया पर बार-बार उठने वाले सामाजिक सवाल ऐसी पारंपरिक सोच की झलक हैं। चूंकि सानिया सफल हैं, उन पर मीडिया की नजर होती है, इसलिए उन पर सवाल उठा कर यह सोच अपने इजहार का एक मौका तलाशती है। यह सोच यह दिखाना चाहती है कि सानिया अगर आधुनिकता की एक प्रतीक हैं तो उन्हें बार-बार पुरातन सोच के आगे झुकना होगा। इसके पीछे संदेश यह होता है कि कोई यह न मान ले कि पुरातनता कमजोर पड़ गई है या आज के नौजवान अपनी इच्छा से जी सकते हैं।
इसी वजह से सानिया मिर्जा को बार-बार विवाद में घेरने की कोशिश होती है। चूंकि सानिया की मंजिल कहीं और है, इसलिए उनका ऐसे विवादों से बच कर निकल जाने की कोशिश उनकी बुद्धिमत्ता की ही निशानी है। लेकिन आधुनिक भारतीय समाज इस चुनौती का सीधे मुकाबला करने से नहीं बच सकता। जो कट्टरपंथी मानसिकता सानिया की जीवन शैली पर सवाल खड़े करती है, उसे यह खुल कर चुनौती देने का वक्त है। उसे यह बताने की जरूरत है कि मजहब और परंपराओं के नाम पर अब किसी के व्यक्तित्व पर बेड़ियां नहीं लगाई जा सकतीं। अगर कोई मजहब या परंपरा किसी इंसान की स्वतंत्र शख्सियत और अपनी राह खुद तय करने के उसके बुनियादी हक को नही मानती, तो उसकी आज के दौर में कोई अहमियत नहीं है। सानिया इस दौर की, यानी आधुनिक जीवन शैली की एक सहज मिसाल हैं। वे भारत की दुनिया में उभरती ताकत की एक प्रतीक हैं और इस आधार पर इस देश के नौजवानों में आत्म विश्वास भरने वाली एक शख्सियत बन गई हैं। इसीलिए हम सबको उन पर नाज़ है। यह कहा जा सकता है कि उन पर उठने वाली तमाम अंगुलियां दरअसल, हमारे गर्व, हमारे आत्म-विश्वास औऱ भारत की आधुनिक छवि पर संशय पैदा करने की कोशिश का हिस्सा हैं। इसलिए इन्हें चुपचाप स्वीकार नहीं किया जा सकता। ठीक उसी तरह जैसे एमएफ हुसैन की कला और तसलीमा नसरीन की विचार की आजादी पर हिंसक हमलों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
सानिया, हुसैन, तसलीमा- ये उस भारत के प्रतीक हैं, जिसकी अवधारणा उपनिवेशवाद से संघर्ष करते हुए पैदा हुई और जिसे पिछले साठ साल में व्यवहार में उतारने की कोशिश हुई है। इंसान की बुनियादी आजादी, विरोध के प्रति सहनशीलता और लोकतांत्रिक संवाद भारत की इस अवधारणा में के आधार हैं। इसके हक में उन सभी लोगों को मजबूती से खड़ा होना होगा, जिन्हें इस भारत से प्यार है। इसीलिए सानिया का सवाल हम सबसे जुड़ा हुआ है, कट्टरपंथ के कुंठित हमलों से हम अपनी इस प्रतिभा को बर्बाद नहीं होने दे सकते।
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3 comments:
नववर्ष की शुभकामनाएँ ।
बहुत अच्छा लेख लिखा है । जब हम जीवन में स्वयं कुछ नहीं कर पाते तो दूसरों के जीवन में टाँग अड़ाने लगते हैं ।
घुघूती बासूती
सत्येद्र भाई, लेख के लिये बधाई।
घोर कलयुग हैं भाई! हिन्दोस्तान में “सर्वहारा की राजनीति” के अंतिम बचे झंडाबरदारों को गाँधीवादी समाजवादी, पूँजीवादी विचारक, एन.जी.ओ., तथाकथित बुद्धिजीवी, उग्र वामपंथी, कारपोरेट मीड़िया सभी मार्क्सवाद सिखाने पर आमादा है। ज्योति बसु के कथित “समाजवाद अभी संभव नहीं” बयान पर जैसा बवाल मचाया गया उससे ऎसा लगने लगा कि जैसे मानो देश में आज ही क्रांति की जाना हो और वामपंथी इस क्रांति के राह में सबसे बड़े रोड़े हो। हिटलर के फासीवाद को आदर्श मानने वाले संघ परिवार ने तो एक कदम आगे बढ़कर माओवादीयों के सूर में सूर मिलाते हुवे भारतीय कम्युनिस्टों को चीन का अनुसरण तक करने की समझाईश दे ड़ाली। उधर ज्योति बसु की टिप्पणी के बहाने अव्यवहारिकता के धरातल पर खडे तथाकथित प्रगतिशील-समाजवादी चिंतको ने “वैचारिक दरिद्रता” का परिचय देते हुवे एक बार पुन: “समाजवाद” के हसीन ख्वाब को वामपंथी यथार्थवाद की चुनौती के रूप में पेश करने का प्रयास किया।
रही बात “समाजवाद त्यागने” संबंधी बयान की तो ऎसी कोई भी टिप्पणी ज्योति बसु ने कभी की ही नही। इसके विपरीत 22 वें बंगाल राज्य सम्मेलन के अवसर पर ब्रिगेड मैदान पर दसियो हजार लोगो की रैली को संबोधित करते हुवे ज्योति बसु ने कहा कि :- “हम मार्क्सवादी व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते है क्योकि हमारा अंतिम लक्ष्य वर्गविहीन और शोषणविहीन समाज की स्थापना के लिये समाजवाद निर्माण का है। लेकिन मात्र तीन राज्यो में अपनी सरकारों के दम पर यह लक्ष्य तत्काल हासिल करना संभव नहीं है। समाजवाद की प्रगति तभी हासिल की जा सकती है, जब वामपंथी व जनतांत्रिक शक्तिया इतनी मजबूत हो जाए की राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प का निर्माण कर सके। जनता का विश्वास जीतकर मार्क्सवादी इस लक्ष्य को हासिल करने के भरसक प्रयास करेंगे।” इस टिप्पणी से हमारे प्रिय बुद्विजीवी जो मतलब निकालना चाहे निकाले, लेकिन ज्योति बसु की उपरोक्त टिप्पणी व बुद्धदेव, प्रकाश करात के बयानो में कहीं कुछ भी नया नहीं है, यह तो माकपा के तीन दशक पुराने पार्टी कार्यक्रम की लाईन है। हमारा कार्यक्रम तो दशको से देश के सामने है, लेकिन क्या हमारे समाजवादी बंधु स्पष्ट करेंगे कि भारत में समाजवाद स्थापना के लिये उनके पास क्या कार्यक्रम है? समाजवाद-समाजवाद का नारा लगाने से समाजवाद का निर्माण नहीं होने वाला। पूँजीवाद को कोसकर व समाजवाद को आस्था का प्रश्न बनाकर बहस से बचा जाना प्रगतिशील ताकतो के घोर गैर-जिम्मेदाराना चरित्र का द्योतक है। समाजवाद हासिल करने के राह में मौजूद चुनौतियों से जुझने व जनता को लामबंद करने की जिम्मेदारी समस्त प्रगतिशील ताकतो की है, लेकिन आज भारतीय वामपंथ को कोसने के अलावा इस दिशा में वे (गैर-वामपंथी प्रगतिशील ताकते) ओर क्या कर रहें है स्पष्ट करना चाहिये।
वामपंथी व जनतांत्रिक विकल्प को और विकास के अखिल भारतीय पूंजीवादी माडल के दायरे में एक हद तक सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए किये जा रहे संघर्ष का जनता के बीच बढ़ता हुआ समर्थन माकपा का किसी मृतप्राय: डोग्मा के बनिस्बत अपनाये गये अधिक व्यवहारिक रणनीति की प्रासंगिकता का सबूत है। साम्राज्यवाद के बाजारवादी हमलो के बीच अंतिम आदमी के अधिकारों की रक्षा “समाजवाद” का यूटोपियाई स्वप्न नहीं कर सकता। लक्ष्य प्राप्ति के लिये एक मंच पर आकर देश में व्यवहारिक सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक विकल्प पेश करना समस्त प्रगतिशील-वामपंथी ताकतो का फर्ज है और यही आज की ऎतिहासिक जरूरत भी है।
The only criteria to appreciat the performance of any Muslim is how much he is compatible to Islamic laws. Sania is that same girl who is curiouos to wear six inch dress as she said in Hindustan leader meeting 2005. Islam is not bundle of foolishness. It knows well to counter sex agenda of the west and zionist. I suggest you to reread western and also Indian scholarships and their foolish kind of justice and right standards.
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