Tuesday, January 15, 2008
समाजवादः आस्था या नारा?
सत्येंद्र रंजन
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के इस बयान ने वामपंथी हलके में काफी हलचल पैदा की है कि उनकी सरकार के सामने पूंजीवादी विकास के रास्ते पर चलने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। भट्टाचार्य का जब ये बयान आया तो मीडिया में ऐसी अटकलें लगाई गईं कि उन्होंने पार्टी लाइन से हट कर कोई बात कही है, जिस पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सफाई पेश कर देगी। मगर ठीक इसके उलट पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने बुद्धदेब भट्टाचार्य के बयान का समर्थन किया। फिर पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने भी इन दोनों नेताओं की राय से सहमति जताई। इस घटनाक्रम पर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसी पार्टियों और कॉरपोरेट मीडिया को चुटकी लेने का मौका जरूर मिला। लेकिन इसमें कोई हैरत की बात नहीं है। हैरत आरएसपी जैसी वामपंथी पार्टी की प्रतिक्रिया से हुई। इस प्रतिक्रिया का सार यह है कि माकपा अपनी मूल आस्था हट रही है औऱ अब वह खुल कर पूंजीवाद का गुणगान करने लगी है। माकपा अपनी बुनियादी आस्थाओं पर कितनी अडिग है, यह एक सार्वजनिक परीक्षण का विषय है। आस्था के परीक्षण की सबसे बेहतरीन कसौटी किसी सिद्धांत या विचारधारा के प्रति किसी पार्टी या संगठन के नेताओं और कार्यकर्ताओं की निष्ठा है। यह निष्ठा उनके व्यवहार में झलकनी चाहिए। जो पार्टी समाजवाद की बात करती हो, उसके नेताओँ और कार्यकर्ताओँ से यह अपेक्षा जरूर रहेगी कि वे अपनी निजी जिंदगी में ईमानदार रहें, सादगी बरतें और उस आम जन के साथ एक सामंजस्य कायम करें, जिसकी बेहतरी के लिए वे राजनीति में होने का दावा करते हैं। इस लिहाज से शायद महात्मा गांधी का जीवन सबके लिए आदर्श हो सकता है। और संभवतः ऐसी ही जीवनशैली की वजह से गांधीजी यह कहने का साहस जुटा पाए कि, ‘मेरा जीवन मेरा संदेश है।’
बहरहाल, माकपा नेताओं के ताजा बयान से पर चर्चा इस व्यापक संदर्भ में कम, और राजनीतिक नारेबाजी के संदर्भ में ज्यादा हो रही दिखती है। पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण, सिंगूर और नंदीग्राम जैसे मुद्दों पर माकपा के रुख से उसके विरोधियों को उस पर डंडा चलाने का जो एक मौका मिला, उसमें इन ताजा बयानों से कुछ और ताकत जुड़ गई है। आखिरकार अपने बचाव में माकपा को यह सफाई देनी पड़ी है कि वह ‘वर्गविहीन, शोषण-मुक्त और समाजवादी राज्य-व्यवस्था’ कायम करने के लिए काम करने पर अडिग है, लेकिन सिर्फ तीन राज्यों में सत्ता में रहते हुए समाजवाद कायम कर पाना मुमकिन नहीं है, इसलिए फिलहाल उसकी नीति वामपंथी एजेंडे को आगे बढ़ाना है। यानी पूंजीवादी विकास के क्रम में मजदूर, किसान और गरीब तबकों के हितों की रक्षा फिलहाल उसकी रणनीति है।
इस घटनाक्रम ने समाजवाद शब्द को एक बार फिर राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में चर्चित कर दिया है। ये शायद संयोग ही हो, लेकिन इसी मौके पर सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका ने भी इस चर्चा को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दिया है। इस याचिका में यह अपील की गई कि संविधान की प्रस्तावना में इमरजेंसी के दौरान जोड़े गए ‘समाजवाद’ शब्द को इससे हटा दिया जाए। साथ ही जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कर सभी राजनीति दलों के लिए समाजवाद में आस्था रखने की लगाई गई शर्त को भी रद्द कर दी जाए। सुप्रीम कोर्ट ने पहली अपील तो ‘समाजवाद’ की अपनी व्याख्या पेश करते हुए खारिज कर दी, लेकिन जन प्रतिनिधित्व कानून के संदर्भ में संबंधित पक्षों को नोटिस जरूर जारी कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने ‘समाजवाद’ की अपनी व्याख्या में कहा कि यह लोकतंत्र का ही एक और चेहरा है। हमें ‘समाजवाद’ को व्यापक और मानवीय संदर्भ में लेना चाहिए, न कि कम्युनिस्टों द्वारा पेश की जाने वाली व्याख्या के रूप में।
यह कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने ‘समाजवाद’ की एक अराजनीतिक व्याख्या पेश की है और इसे एक दशक से पहले ‘हिंदुत्व’ की पेश व्याख्या के क्रम में रखा जा सकता है, जब सुप्रीम कोर्ट ‘हिंदुत्व’ को एक जीवन प्रणाली करार दिया था और जिससे दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक राजनीति को एक कानूनी आवरण मिला था। बहरहाल, समाजवाद का सवाल कहीं गंभीर है। खासकर उन लोगों के लिए जो एक वैकल्पिक व्यवस्था बनाना चाहते हैं। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जन्म के आधार पर सुविधाएं तय नहीं हों और सबको अपनी क्षमता और प्रतिभा के विकास का समान अवसर मिले। एक ऐसी व्यवस्था में जिसमें जिंदगी की बुनियादी सुविधाएं मूल मानव अधिकार मानी जाएं और इन्हें उपलब्ध कराना सरकार, राज्य व्यवस्था या समाज की जिम्मेदारी हो। एक ऐसी व्यवस्था जो आम जन के प्रति जवाबदेह हो और जिसमें किसी स्त्री-पुरुष के बौद्धिक एवं आत्मिक विकास पर कोई प्रतिबंध नहीं हो। इसीलिए इस बहस को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की आस्था, रणनीति और कार्यनीतियों से अलग कर देखने की जरूरत है।
मगर इस बहस को अराजनीतिक संदर्भ में भी नहीं देखा दा सकता। यह एक विशुद्ध राजनीतिक सवाल है। असल में समाजवाद की अवधारणा राजनीतिक चिंतन के विकासक्रम का हिस्सा है औऱ इस पर इसी संदर्भ में विचार होना चाहिए। यहां पर सबसे अहम सवाल यह है कि आखिर समाजवाद कोई व्यवस्था है, या नारा या फिर एक ऐसा आदर्श जिसे व्यवहार में पूरी तरह कभी हासिल नहीं किया जा सकता? मार्क्सवाद से अलग सोच में अक्सर समाजवाद को एक विचारधारा और एक आदर्श माना गया है, हालांकि ज्यादातर मौकों पर यह मान्यता नारेबाजी में तब्दील होकर रह गई है। कुछ मामलों में यह आस्था की एक ऐसी अमूर्त धारणा रही है, जिस अमल उतराने की रणनीति के बारे में सोचना तो दूर, बल्कि उसकी वस्तुगत व्याख्या भी मुश्किल रही है। इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं कि आज भी बहुत से समूहों, संगठनं और चिंतकों के लिए समाजवाद एक ऐसी धार्मिक आस्था की तरह है, जिस पर कोई तार्किक बहस उन्हें मंजूर नहीं होती। मार्क्सवादी चिंतन में समाजवाद कभी आदर्श नहीं रहा। अगर कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एगंल्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद पर गौर करें तो समाजवाद, साम्यवाद से पहले का एक चरण है। एक ऐसा मुकाम, जहां से साम्यवाद के लिए यात्रा शुरू होगी। सोवियत संघ के जमाने में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी का यह दावा था कि सोवियत खेमे में समाजवाद की स्थापना हो गई है, और वहां से साम्यवाद की तरफ जाने का सफर शुरू हो गया है। लेकिन १९९० तक आते-आते यह सफर उलटी दिशा में नजर आया। १९१७ की बोल्शेविक क्रांति के बाद सोवियत संघ में जिस समाजवाद की स्थापना हुई थी, वह बिखर गया और सोवियत खेमे में शामिल रहे देशों में खुला पूंजीवाद लौट आया। इसी दौर में चीन ने विकास की जो राह पकड़ी और उसमें जिस तरह उत्पादक शक्तियों की व्याख्या की गई, उसे भी समाजवाद की शास्त्रीय मार्क्सवादी समझ पर कुछ सवाल उठे। जाहिर है, इन दोनों घटनाक्रमों से पूरी दुनिया में समाजवाद के विमर्श में भारी बदलाव आया।
मार्क्सवादी व्यवस्थाओं ने समाजवाद का जो मॉडल पेश किया, उसकी एक बड़ी आलोचना यह रही है कि उनमें लोकतंत्र का अभाव था औऱ जहां वे व्यवस्थाएं वजूद में आईं, वहां के लोगों को नागरिक और राजनीतिक अधिकार नहीं मिले। कभी जोसेफ स्टालिन ने भले ये दावा किया कि समाजवाद ही लोकतंत्र का सर्वश्रेष्ठ रूप है, लेकिन अब इस आलोचना को मार्क्सवादी विचारकों का एक समूह पूरी गंभीरता से स्वीकार कर रहा है। ये विचारक यह मान रहे हैं कि समाजवाद की स्थापना के किसी चरण में लोकतंत्र से इनकार नहीं किया जाना चाहिए। यानी मानव के संपूर्ण विकास के लिए आर्थिक अधिकार जितने अहम हैं, राजनीतिक अधिकार भी उतने ही अहम हैं।
इस सिद्धांत पर दुनिया भर में (जाहिर है भारत में भी) अनेक विचारकों और राजनेताओं ने उसी दौर में जोर दिया था, जब सोवियत संघ एक मजबूत ताकत के रूप में उभर रहा था। सोवियत प्रयोग की एक दूसरी आलोचना वहां अपनाई गई विकास नीति भी थी। एक समय के बाद कहा जाने लगा कि सोवियत संघ ने राज्य के मालिकाने में दरअसल, पूंजीवादी नीति ही अपना ली है। आलोचकों ने सोवियत व्यवस्था को सरकारी पूंजीवाद करार दिया। आखिरकार, वह व्यवस्था अपने अंदरूनी अंतर्विरोधों से ढह गई। चीन आज ऐसी ही आलोचनाओं के रू-ब-रू है। वहां हम एक विशिष्ट प्रयोग होता देख रहे हैं, लेकिन इसका अंतिम परिणाम क्या होगा, यह अभी भविष्य की गर्त में है।
भारत में बाकी दुनिया से अलग एक नया प्रयोग यह हुआ कि यहां वोट की ताकत से कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई- पहले केरल में और फिर पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में। पूरी पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर किसी एक या एक से ज्यादा राज्य में किसी कम्युनिस्ट पार्टी का सत्ता में रहना अपने आप में एक वैचारिक विसंगति है। यह कहा जा सकता है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इस विसंगति के बीच अब तक अपने लिए सटीक रास्ता और रणनीति तैयार करने में कामयाब रही है। वामपंथी ताकतों के साथ व्यापक एकता बनाना और भूमि-सुधार जैसे कार्यक्रमों को लागू अपने लिए ठोस जनाधार बनाना, और पंचायती व्यवस्था पर प्रभावी अमल कर इस जनाधार को कायम रखना उसकी कामयाबी के सूत्र रहे हैं। लेकिन पिछले एक साल के दौरान पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण के सवाल पर लंबे समय से कायम इस वामपंथी एकता और जनाधार में दरारें पड़ती नजर आई हैं।
वामपंथी एकता में दरार की वजह शायद समाजवादी और वामपंथी राजनीति की समझ को लेकर पैदा हुए मतभेद ही हैं। एक तरफ माकपा ऐतिहासिक विकासक्रम की अपनी समझ पर आगे बढ़ती दिख रही है तो दूसरी तरफ इसे अपनी समाजवादी आस्थाओं के खिलाफ मानते हैं। निजी पूंजी के निवेश, निवेशकों को कुछ जरूरी सुविधाएं और सुरक्षा देना और बड़े उद्योगों की स्थापना मतभेद के खास मुद्दे हैं। इस जारी बहस के बीच माकपा का सार्वजनिक तौर पर यह कहना अहम है कि भारत समाज अभी विकास के जिस स्तर पर है, उसमें पूंजीवादी विकास को अपनाना और वामपंथी राजनीति को आगे बढ़ाना एक अनिवार्यता है।
माकपा की इस लाइन के विरोधियों के आगे यह सवाल है कि अगर यह समझ गलत है तो आखिर इसका विकल्प है क्या है? पश्चिम बंगाल सरकार को राज्य के विकास की कैसी नीति अपनानी चाहिए, जिससे राज्य में रोजगार के अवसर पैदा हों और राज्य का आधुनिकीकरण हो? क्या उद्योगों का समाजवाद से कोई विरोध है? और क्या पूंजीवाद हर हाल में एक बुरी व्यवस्था है? गौरतलब है कि खुद मार्क्सवादी विचारधारा के तहत पूंजीवाद को सामंतवादी गुलामी और शोषण से मुक्ति दिलाने वाली व्यवस्था माना गया है औऱ इतिहास के एक दौर में इसकी भूमिका प्रगतिशील मानी गई है। सवाल है कि भारत की मौजूदा हालत के बीच क्या पूंजीवाद की यह भूमिका पूरी तरह खत्म हो गई है?
यहां एक अहम सवाल खुद वामपंथ की राजनीति पर है। अगर पूंजीवाद का खात्मा वामपंथी दलों का मकसद है तो पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर उनके संसदीय राजनीति में हिस्सा लेने और सरकार बनाने का क्या तर्क है? अगर सरकार पूंजीवादी माहौल में बनेगी, तो उसे पूंजीवादी विकास के कई पहलुओं को स्वीकार करना होगा। अगर वामपंथी दल इसे स्वीकार नहीं कर सकते तो क्या यह उनके लिए उचित नहीं होगा कि वे इस व्यवस्था से अलग होकर माओवादियों के रास्ते का अनुकरण करें और बंदूक के जोर से सत्ता पर काबिज होने के रास्ते पर चलें? यहां यह गौरतलब है कि वामपंथ दरअसल पूंजीवादी संदर्भ में ही एक प्रासंगिक शब्द है। जब समाजवाद की स्थापना हो जाएगी, यानी व्यवस्था ही समाजवादी हो जाएगी तब वामपंथ यानी आम जन के हितों की वकालत की क्या प्रासंगिकता रहेगी?
दरअसल, समाजवाद भले मकसद हो, लेकिन वहां तक पहुंचने की राह में मौजूद चुनौतियों से कोई प्रगतिशील ताकत मुंह नहीं मोड़ सकती। जनता के लंबे संघर्षों से लोकतंत्र के जिस मुकाम तक भारत पहुंचा है, उसकी रक्षा और वहां से आगे बढ़ने की राह तैयार करना हर प्रगतिशील शक्ति की फर्ज है। इस लिहाज से माकपा की रणनीति प्रासंगिक लगती है, लेकिन अगर उसके साथियों के मन में कोई सवाल है तो विश्वसनीय तर्कों से उन्हें संतुष्ट करने की जिम्मेदारी भी उसकी है। बहरहाल, इस बहस का एक पैगाम उन लोगों के लिए भी है जो पूंजीवाद के विकास के साथ इतिहास का अंत मानते हैं। पैगाम यह है कि इतिहास की विकास यात्रा पूंजीवाद के साथ खत्म नहीं हुई है। मानव की स्वतंत्रता औऱ सबके लिए समान अवसर एवं अधिकार प्राप्त करना इस यात्रा की मंजिल है, औऱ उस मंजिल तक पहुंचने की प्रक्रिया तेज करने की कोशिश में जुटी शक्तियां लगातार इसके नए उपाय ढूंढ रही हैं।
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1 comment:
सत्येद्र भाई, लेख के लिये बधाई।
घोर कलयुग हैं भाई! हिन्दोस्तान में “सर्वहारा की राजनीति” के अंतिम बचे झंडाबरदारों को गाँधीवादी समाजवादी, पूँजीवादी विचारक, एन.जी.ओ., तथाकथित बुद्धिजीवी, उग्र वामपंथी, कारपोरेट मीड़िया सभी मार्क्सवाद सिखाने पर आमादा है। ज्योति बसु के कथित “समाजवाद अभी संभव नहीं” बयान पर जैसा बवाल मचाया गया उससे ऎसा लगने लगा कि जैसे मानो देश में आज ही क्रांति की जाना हो और वामपंथी इस क्रांति के राह में सबसे बड़े रोड़े हो। हिटलर के फासीवाद को आदर्श मानने वाले संघ परिवार ने तो एक कदम आगे बढ़कर माओवादीयों के सूर में सूर मिलाते हुवे भारतीय कम्युनिस्टों को चीन का अनुसरण तक करने की समझाईश दे ड़ाली। उधर ज्योति बसु की टिप्पणी के बहाने अव्यवहारिकता के धरातल पर खडे तथाकथित प्रगतिशील-समाजवादी चिंतको ने “वैचारिक दरिद्रता” का परिचय देते हुवे एक बार पुन: “समाजवाद” के हसीन ख्वाब को वामपंथी यथार्थवाद की चुनौती के रूप में पेश करने का प्रयास किया।
रही बात “समाजवाद त्यागने” संबंधी बयान की तो ऎसी कोई भी टिप्पणी ज्योति बसु ने कभी की ही नही। इसके विपरीत 22 वें बंगाल राज्य सम्मेलन के अवसर पर ब्रिगेड मैदान पर दसियो हजार लोगो की रैली को संबोधित करते हुवे ज्योति बसु ने कहा कि :- “हम मार्क्सवादी व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते है क्योकि हमारा अंतिम लक्ष्य वर्गविहीन और शोषणविहीन समाज की स्थापना के लिये समाजवाद निर्माण का है। लेकिन मात्र तीन राज्यो में अपनी सरकारों के दम पर यह लक्ष्य तत्काल हासिल करना संभव नहीं है। समाजवाद की प्रगति तभी हासिल की जा सकती है, जब वामपंथी व जनतांत्रिक शक्तिया इतनी मजबूत हो जाए की राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प का निर्माण कर सके। जनता का विश्वास जीतकर मार्क्सवादी इस लक्ष्य को हासिल करने के भरसक प्रयास करेंगे।” इस टिप्पणी से हमारे प्रिय बुद्विजीवी जो मतलब निकालना चाहे निकाले, लेकिन ज्योति बसु की उपरोक्त टिप्पणी व बुद्धदेव, प्रकाश करात के बयानो में कहीं कुछ भी नया नहीं है, यह तो माकपा के तीन दशक पुराने पार्टी कार्यक्रम की लाईन है। हमारा कार्यक्रम तो दशको से देश के सामने है, लेकिन क्या हमारे समाजवादी बंधु स्पष्ट करेंगे कि भारत में समाजवाद स्थापना के लिये उनके पास क्या कार्यक्रम है? समाजवाद-समाजवाद का नारा लगाने से समाजवाद का निर्माण नहीं होने वाला। पूँजीवाद को कोसकर व समाजवाद को आस्था का प्रश्न बनाकर बहस से बचा जाना प्रगतिशील ताकतो के घोर गैर-जिम्मेदाराना चरित्र का द्योतक है। समाजवाद हासिल करने के राह में मौजूद चुनौतियों से जुझने व जनता को लामबंद करने की जिम्मेदारी समस्त प्रगतिशील ताकतो की है, लेकिन आज भारतीय वामपंथ को कोसने के अलावा इस दिशा में वे (गैर-वामपंथी प्रगतिशील ताकते) ओर क्या कर रहें है स्पष्ट करना चाहिये।
वामपंथी व जनतांत्रिक विकल्प को और विकास के अखिल भारतीय पूंजीवादी माडल के दायरे में एक हद तक सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए किये जा रहे संघर्ष का जनता के बीच बढ़ता हुआ समर्थन माकपा का किसी मृतप्राय: डोग्मा के बनिस्बत अपनाये गये अधिक व्यवहारिक रणनीति की प्रासंगिकता का सबूत है। साम्राज्यवाद के बाजारवादी हमलो के बीच अंतिम आदमी के अधिकारों की रक्षा “समाजवाद” का यूटोपियाई स्वप्न नहीं कर सकता। लक्ष्य प्राप्ति के लिये एक मंच पर आकर देश में व्यवहारिक सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक विकल्प पेश करना समस्त प्रगतिशील-वामपंथी ताकतो का फर्ज है और यही आज की ऎतिहासिक जरूरत भी है।
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