Monday, May 26, 2008

नेहरू को ना भूलें


सत्येंद्र रंजन
वाहर लाल नेहरू ने आज से ४४ वर्ष पहले दुनिया को अलविदा कहा। तब से उनकी विरासत गंभीर विचार-विमर्श के साथ-साथ गहरे मतभेदों का भी विषय रही है। अपने जीवनकाल में, खासकर आजादी के बाद जब वो भारतीय राजनीति के शिखर पर थे, पंडित नेहरू ने अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल की। इसके बूते उन्होंने अपनी ऐसी हैसियत बनाई कि कहा जाता है, १९६२ के चीन युद्ध में भारत की हार तक राष्ट्रीय मुख्यधारा में उन्हें आलोचना से परे माना जाता था। लेकिन निधन के बाद उनके व्यक्तित्व, उनके योगदान और उनके विचारों पर तीखे मतभेद उभरे। इतने कि यह बात बेहिचक कही जा सकती है कि नेहरू स्वतंत्र भारत में सबसे ज्यादा मत-विभाजन पैदा करने वाली शख्सियत नजर आते हैं। यह बात भी लगभग उतने ही ठोस आधार के साथ कही जा सकती है कि पिछले साढ़े चार दशकों में नेहरू के विरोधी विचारों को देश में लगातार अधिक स्वीकृति मिलती गई है, और आज जिस कांग्रेस पार्टी में नेहरू-गांधी परिवार के प्रति वफादारी आगे बढ़ने का सबसे बड़ा पैमाना है, वह भी पंडित नेहरू के रास्ते पर चल रही है, यह कहना मुश्किल लगता है।

नेहरू के विरोध के कई मोर्चे हैं। एक मोर्चा दक्षिणपंथ का है, जो मानता है कि जवाहर लाल नेहरू ने समाजवाद के प्रति अपने अति उत्साह की वजह से देश की उद्यमशीलता को कुंद कर दिया। एक मोर्चा उग्र वामपंथ का है, जो मानता है कि नेहरू का समाजवाद दरअसल, पूंजीवाद को निर्बाध अपनी जड़ें जमाने का मौका देने का उपक्रम था। एक मोर्चा लोहियावाद का रहा है, जिसकी राय में नेहरू ने व्यक्तिवाद और परिवारवाद को बढ़ावा दिया और पश्चिमी सभ्यता का अंध अनुकरण करते हुए देसी कौशल और जरूरतों की अनदेखी की। लेकिन नेहरू के खिलाफ सबसे तीखा मोर्चा सांप्रदायिक फासीवाद का है, जिसकी राय में देश में आज मौजूद हर बुराई के लिए नेहरू जिम्मेदार हैं।

नेहरू विरोधी इन तमाम ज़ुमलों को इतनी अधिक बार दोहराया गया है कि आज की पीढ़ी के एक बहुत बड़े हिस्से ने बिना किसी आलोचनात्मक विश्लेषण के इन्हें सहज स्वीकार कर लिया है। संभवतः इसीलिए आजादी के पहले महात्मा गांधी के बाद कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता और देश के पहले प्रधानमंत्री के प्रति आज सकारात्मक से ज्यादा नकारात्मक राय मौजूद है। चूंकि ऐसी राय अक्सर बिना ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखे और वर्तमान के पैमानों को अतीत पर लागू करते हुए बनाई जाती है, इसलिए सामान्य चर्चा में इसे चुनौती देना आसान नहीं होता।

इस संदर्भ में सबसे अहम पहलू यह समझना है कि आज जिन चीजों और स्थितियों को को हम तयशुदा मानते हैं, वह हमेशा से ऐसी नहीं थीं। मसलन, देश की एकता, लोकतंत्र का मौजूदा स्वरूप, विकास का ढांचा, प्रगति की परिस्थितियां आज जितनी सुनिश्चित सी लगती हैं, १९४७ में वो महज सपना ही थीं। देश बंटवारे के जलजले और बिखराव की आम भविष्यवाणियों के बीच तब के स्वप्नदर्शी नेता राज्य व्यवस्था के आधुनिक सिद्धांतों पर अमल और व्यक्ति की गरिमा एवं स्वतंत्रता के मूलमंत्र को अपनाने का सपना देख पाए, इस बात की अहमियत को सिर्फ यथार्थवादी ऐतिहासिक नजरिए से ही समझा जा सकता है। नेहरू उन स्वप्नदर्शी नेताओं में एक थे, अपने सपने को साकार करने के लिए उन्होंने संघर्ष किया और प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच अपने विचारों पर अमल का जोखिम उठाया, संभवतः इस बात से कोई असहमत नहीं होगा।
असहमति की शुरुआत अमल के परिणामों को लेकर होती है। यह असहमति एक स्वस्थ बहस का आधार बनी है और निश्चित रूप से आज भी इस बहस को आगे बढ़ाने की जरूरत है। पंडित नेहरू के नेतृत्व में जो विकास नीति अपनाई गई, वह अपने मकसद को कितना हासिल पाई कर पाई, जो नाकामियां उभरीं उसकी कितनी वजह नेहरू के विचारों में मौजूद थी औऱ उनमें कैसे सुधारों की जरूरत है, यह एक सकारात्मक चर्चा है, जो खुद नेहरू के सपने को साकार करने के लिए जरूरी है। लेकिन गौरतलब यह है कि नेहरू का विरोध हमेशा सिर्फ ऐसे ही सवालों की वजह से नहीं होता। नेहरूवाद का एक बड़ा प्रतिवाद सांप्रदायिक फासीवाद है, जिसका मकसद प्रगति और विकास नहीं, बल्कि पुरातन सामाजिक अन्याय और जोर-जबरदस्ती को कायम रखना है।

देश में मौजूद कई विचारधाराओं का सांप्रदायिक फासीवाद से टकराव रहा है। लेकिन यह एक ऐतिहासिक सच है कि सवर्ण और बहुसंख्यक वर्चस्व की समर्थक इन ताकतों के खिलाफ सबसे मजबूत और कामयाब बुलवर्क पंडित नेहरू साबित हुए। देश विभाजन के बाद बने माहौल में भी ये ताकतें अगर कामयाब नहीं हो सकीं, तो उसकी एक प्रमुख वजह नेहरू की धर्मनिरपेक्षता में अखंड आस्था और इसके लिए अपने को दांव पर लगा देने का उनका दमखम रहा। जाहिर है, ये ताकतें आज भी अपना सबसे तीखा हथियार नेहरू पर हमला करने के लिए सुरक्षित रखती हैं। पिछले दो-ढाई दशकों में दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों के ज्यादा प्रचलित होने, संपन्न और सवर्ण पृष्ठभूमि से उभरे मध्य वर्ग के मजबूत होने और अमेरिका-परस्त जमातों का दायरा फैलने के साथ सांप्रदायिक ताकतों को नया समर्थक आधार मिल गया है। नेहरू अपने सपने और आर्थिक एवं विदेश नीतियों की वजह से इन सभी ताकतों के स्वाभाविक निशाने के रूप में उभरते हैं। और ये ताकतें जानती हैं कि जब तक नेहरूवाद को एक खलनायक के रूप में स्थापित नहीं कर दिया जाता, उनकी अंतिम कामयाबी संदिग्ध है।

पिछले डेढ़ दशक में इन ताकतों के बढ़ते खतरे ने बहुत से लोगों को नेहरू की प्रासंगिकता पर नए सिरे से सोचने के लिए प्रेरित किया है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में जिस आधुनिक भारत की कल्पना विकसित हुई और जिसे आजादी के बाद पंडित नेहरू के नेतृत्व में ठोस रूप दिया गया, उसके लिए पैदा हुए खतरे के बीच यह सवाल बेहद गंभीरता से उठा है कि आखिर इस भारत की रक्षा कैसे की जाए? यह विचार मंथन हमें उन रणनीतियों और सोच की अहमियत समझने की नई दृष्टि देता है, जो पंडित नेहरू ने प्रतिक्रियावादी, आधुनिकता विरोधी और अनुदार शक्तियों के खिलाफ अपनाई। उन्होंने इन ताकतों के खिलाफ वैचारिक संघर्ष जरूर जारी रखा, लेकिन उनकी खास रणनीति देश को विकास एवं प्रगित का सकारत्मक एजेंडा देने की रही, जिससे तब की पीढ़ी भविष्य की तरफ देख पाई और आर्थिक एवं सांस्कृतिक पिछड़पन की व्यापक पृष्ठभूमि के बावजूद एक नए एवं आधुनिक भारत का उदय हो सका।

पंडित नेहरू ने उस वक्त के मानव विकासक्रम की स्थिति, उपलब्ध ज्ञान और संसाधनों के आधार पर उस भारत की नींव रखी, जो आज दुनिया में एक बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में उभर रहा है। लेकिन नेहरू की रणनीतियों की नाकामी यह रही कि नए भारत में गरीबी, असमानता और व्यवस्थागत अन्याय को खत्म नहीं किया जा सका। नतीजतन, आज हम एक ऐसे भारत में हैं जहां संपन्नता और विपन्नता की खाई बढ़ती नजर आ रही है, और नेहरू ने समाजवाद के जिन मूल्यों की वकालत की वो आज बेहद खोखले नजर आते हैं। यह विसंगति निसंदेह पंडित नेहरू की विरासत पर बड़ा सवाल है।

लेकिन इस सवाल से उलझते हुए भी आज की पीढ़ी के पास सबसे बेहतरीन विकल्प संभवतः यह नहीं है कि नेहरू की पूरी विरासत को खारिज कर दिया जाए। बल्कि सबको समाहित कर और सबके साथ न्याय की जो बात नेहरू के भारत के सपने के बुनियाद में रही, वह आज भी इस राष्ट्र का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है, जिसकी जड़ें मजबूत किए जाने की जरूरत है। ये दोनों बातें विकास और प्रगति के एक खास स्तर के साथ ही हासिल की जा सकती हैं, नेहरूवाद की यह मूल भावना भी शायद विवाद से परे है। यह जरूर मुमकिन है कि विकास और प्रगति की नई अवरधारणाएं पेश की जाएं और उनकी रोशनी में पुरानी रणनीतियों पर नए सिरे से विचार हो। बहरहाल, विश्व मंच पर भारत अपनी स्वतंत्र पहचान रखे और जिन मूल्यों पर भारतीय राष्ट्र की नींव डाली गई, उनकी इन मंचों पर वह वकालत करे, यह नेहरूवादी विरासत आज भी उतना ही अहम है, जितना जवाहर लाल नेहरू के जीवनकाल में था, इस बात पर भी शायद कोई मतभेद नहीं हो सकता।

दरअसल, बात जब नेहरू की होती है, तब ये विचार ही सबसे अहम हैं। इन पर आज सबसे ज्यादा चर्चा की जरूरत है। नेहरू की नाकामियां जरूर रेखांकित की जानी चाहिए, लेकिन उनके कुल योगदान का विश्लेषण वस्तुगत और तार्किक परिप्रेक्ष्य में ही होना चाहिए। वरना, हम उन ताकतों की ही मदद करते दिखेंगे जो नेहरू की छवि एवं विरासत का ध्वंस दरअसल भारत के उस नए विचार का ध्वंस करने के लिए करती हैं, जो आजादी की लड़ाई के दिनों में पैदा हुआ, आधुनिक समतावादी चितंकों ने जिसे विकसित किया, जो गांधी-नेहरू के नेतृत्व में अस्तित्व में आया और जिसे आज दुनिया भर में सहिष्णुता, सह-अस्तित्व एवं मानव विकास का एक बेहतरीन आदर्श माना जा रहा है। नेहरू इसी भारत के प्रतीक हैं, और इसीलिए वैचारिक मतभेदों के बावजूद उनकी विरासत की आज रक्षा किए जाने की जरूरत है।

Friday, May 9, 2008

डेमोक्रेटिक पार्टी का ‘ओन गोल’


सत्येंद्र रंजन
बराक ओबामा अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार बनने की जंग लगभग जीत चुके हैं। बीते मंगलवार को इंडियाना और नॉर्थ केरोलीना राज्यों की डेमोक्रेटिक प्राइमरी के नतीजों का सभवतः यही पैगाम रहा। हालांकि अब भी छह राज्यों में उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया बाकी है, लेकिन वहां से डेमोक्रेटिक राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए महज २१७ प्रतिनिधि चुने जाने हैं, जबकि अब तक की सूची में ओबामा हिलेरी क्लिंटन पर १६५ प्रतिनिधियों की बढ़त बना चुके हैं। किसी भी हाल में उन छह राज्यों के सभी प्रतिनिधि हिलेरी क्लिंटन को नहीं मिल सकते और इस तरह अब यह तय है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों की आखिरी सूची में ओबामा की बढ़त कायम रहेगी। उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया में हुए मतदान में भी ओबामा की बढ़त जारी है। उन्हें अब तक ४९.६ फीसदी वोट मिले हैं, जबकि हिलेरी क्लिंटन ४७.३ प्रतिशत वोट ही हासिल कर पाई हैं और इस तरह ओबामा से २.३ फीसदी वोटों से पिछड़ी हुई हैं।

इस सूरत के बावजूद अगर हिलेरी क्लिंटन अब भी मैदान में डटी हुई हैं, तो इसके पीछे उनका अपना गणित है। दरअसल, अब यह भी तय हो गया है कि प्राइमरी और कॉकस के जरिए ओबामा या क्लिंटन दोनों में से कोई भी स्वतः उम्मीदवारी हासिल करने के लिए जरूरी २,०२५ प्रतिनिधियों की निर्णायक संख्या हासिल नहीं कर पाएगा। ऐसे में निर्णायक भूमिका उन प्रतिनिधियों की होगी, जिन्हें सुपर डेलीगेट्स कहा जाता है। ये पार्टी के निर्वाचित जन प्रतिनिधि, पूर्व राष्ट्रपति, गवर्नर और पार्टी पदाधिकारी होते हैं और इनकी संख्या ६०१ है। इन प्रतिनिधियों में जिन लोगों ने अपनी पसंद अब तक जाहिर की है, उनमें हिलेरी क्लिंटन की बढ़त बनी हुई है। सुपर डेलीगेट्स के साथ सुविधा यह होती है कि वे आखिरी वक्त कर अपना रुख बदल सकते हैं। हिलेरी क्लिंटन की अब सारी जंग इन लोगों को यह समझाने की है कि डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर बराक ओबामा ने भले भारी समर्थन हासिल किया हो, लेकिन जब बात नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव की आएगी तो ओबामा आम अमेरिकी मतदाताओं के बीच इतना समर्थन हासिल नहीं कर पाएंगे, जिससे वे रिपब्लिकन उम्मीदवार जॉन मैकेन को हरा सकें।

जनमत सर्वेक्षणों पर गौर करें तो क्लिंटन के दावे में दम नजर आता है। अमेरिकी राजनीति की तस्वीर पेश करने वाली वेब साइट रियल क्लीयर पॉलिटिक्स डॉट कॉम के मुताबिक मैकेन पर जहां ओबामा को २.६ फीसदी की बढ़त हासिल है, वहीं हिलेरी क्लिंटन मैकेन से ३.९ फीसदी अंतर से आगे हैं। यानी अगर क्लिंटन उम्मीदवार बनती हैं तो उनके जीतने की संभावना ज्यादा रहेगी। असल में ओबामा भले ही ज्यादातर राज्यों में जीते हों, लेकिन अधिकांश बड़े राज्यों में, जो राष्ट्रपति चुनाव में निर्णायक होते हैं, वहां हिलेरी क्लिंटन को ज्यादा समर्थन मिला है। इसी तरह अगर अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिकों को छोड़ दें तो हिलेरी क्लिंटन को उन सभी समूहों में ज्यादा समर्थन मिला है जो डेमोक्रेटिक पार्टी का वोट आधार रहे हैं।

बराक ओबामा ने दरअसल निर्दलीय समूहों, कुछ पहले रिपब्लिकन पार्टी का समर्थक रहे समूहों और खासकर नौजवानों को ज्यादा आकर्षित किया है। ह्वाइट हाउस की होड़ में वे अपनी इराक युद्ध विरोधी छवि के साथ उतरे। जब इराक युद्ध अमेरिकी जन मानस में एक गहरा नासूर बन चुका था, उस समय बहुत से लोगों को शुरुआत से इस युद्ध का विरोधी होने की ओबामा की छवि ने आकर्षित किया। ओबामा एक ओजस्वी वक्ता के रूप में सामने आए और राजनीति की आम पेचीदगियों में न पड़ते हुए उन्होंने परिवर्तन का नारा दिया, जो सटीक बैठा। ‘वॉशिंगटन ऐस्टैबलिशमेंट’ को अपने निशाने पर लेते हुए उन्होंने एक तीर से दो शिकार किए। इससे उन्होंने जॉर्ज बुश जूनियर के प्रशासन से लोगों की गहरी नाराजगी का फायदा उठाया और साथ ही यह संदेश दिया कि हिलेरी क्लिंटन उसी पुरानी व्यवस्था की नुमाइंदा हैं, जिसकी वजह से आम नागरिकों के हाथ में अपने देश का नियंत्रण नहीं रह गया है।

इस दौर में ओबामा का सारा जोर मतभेद पाटने पर रहा है। नस्ल, वर्ग और क्षेत्र के विभाजनों से ऊपर उठ कर एक अमेरिका का अपना संदेश वे बहुत से लोगों तक पहुंचाने में कामयाब रहे हैं। जब उनके पुराने पादरी जेरमी राइट ने अमेरिका में काले लोगों के साथ अन्याय के सवाल पर जोशीला भाषण दिया तो ओबामा ने फौरन उसकी निंदा करते हुए उनसे अपने को अलग करने का एलान किया। ओबामा के इस भाषण को कई हलकों में ऐतिहासिक में बताया गया है। खासकर धनी गोरे और सभ्रांत हलकों में, जहां नस्ल के सवालों पर परदा डालने की सहज प्रवृत्ति रहती है। लेकिन मुश्किल यह है कि ये तबके रिपब्लिकन पार्टी के वोटर हैं और उनका समर्थन असली मुकाबले में ओबामा के ज्यादा काम नहीं आ सकता है।

डेमोक्रेटिक पार्टी के असली समर्थक तबकों- मसलन, मेहनतकश और मध्य वर्ग के गोरे समुदायों और हिस्पैनिक समूहों में ओबामा ज्यादा लोकप्रिय नहीं हैं। इन तबकों ने हिलेरी क्लिंटन में अपना ज्यादा भरोसा जताया है। इसकी वजह यह है कि ठोस कार्यक्रमों की बात करें तो ओबामा बेहद हलके नजर आते हैं। उन्होंने लच्छेदार भाषा में जोशीले भाषण खूब दिए हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य देखभाल और यहां तक कि विदेश नीति के सवालों पर भी कोई वैकल्पिक कार्यक्रम या नीति पेश करने में नाकाम रहे हैं। इन बिंदुओं पर हिलेरी क्लिंटन कहीं ज्यादा ठोस नजर आती हैं। मसलन, स्वास्थ्य देखभाल के मुद्दे पर उन्होंने पूरी बारीकियों के साथ अपना कार्यक्रम रखा है, जबकि ओबामा यह कह कर इसका मजाक उड़ाते रहे हैं कि हिलेरी सब पर स्वास्थ्य बीमा जबरन थोपना चाहती हैं।

दरअसल, मुद्दों पर स्पष्ट रुख की वजह से ही हिलेरी क्लिंटन को बांटने वाली शख्सियत कहा गया है। जबकि ओबामा साफ रुख न लेकर मतभेदों को पाटने वाली अपनी छवि पेश करने में सफल रहे हैं। इससे उन्हें उन हलकों से खूब समर्थन मिला है, जो परंपरागत रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ नहीं रहे हैं। लेकिन यही उनकी उम्मीदवारी के सामने सबसे बड़ा सवाल है। हिलेरी क्लिंटन की कोशिश अब सुपर डेलीगेट्स को यह समझाने की है कि अफ्रीकी-अमेरिकियों को छोड़कर डेमोक्रेटिक पार्टी का बाकी असली समर्थन आधार उनके साथ है औऱ इसीलिए उनके जीतने की संभावना ज्यादा मजबूत है।

राष्ट्रपति चुनाव के इस साल में रिपब्लिकन पार्टी ने बेहद कमजोर संभावनाओं के साथ कदम रखा। लेकिन उसने जल्दी उम्मीदवार चुन कर अपने लिए एक अनुकूल स्थिति पैदा की। जॉन मैकेन चुनाव प्रचार में उतर चुके हैं और रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक दक्षिणपंथी धनी समूह और मीडिया उनकी छवि उभारने के अभियान में जुटे हुए हैं। दूसरी तरफ डेमोक्रेटिक उम्मीदवारी में होड़ लगातार तीखी होती गई है। इस क्रम में ओबामा और क्लिंटन दोनों ने एक दूसरे पर हमले करने के काफी हथियार अपने विरोधियों को खुद मुहैया कर दिए हैं। तमाम संभावनाएं इस ओर संकेत कर रही हैं कि यह होड़ अभी और लंबा खिंचेगी और यह मुमकिन है कि अगस्त में होने वाले डेमोक्रेटिक पार्टी के अधिवेशन में ही जाकर उम्मीदवारी आखिरी रूप से तय हो।
अगर अंततः डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बराक हुसेन ओबामा ही होते हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं कि रिपब्लिकन चुनाव मशीन नस्ल, और उनके अतीत के कई झूठे-सच्चे किस्से और सवाल जोरशोर से उठाकर मतदाताओं को भरमाने की कोशिश करेगी। बिना ठोस कार्यक्रम के वे डेमोक्रेटिक समर्थन आधार में कैसे उत्साह भरेंगे और ब्लैक समुदाय के एक नेता के राष्ट्रपति बनने की संभावना से भड़कने वाली गोरों की प्रतिक्रिया का तोड़ कैसे निकालेंगे, यह उनकी कामयाबी की असली कसौटी होगी। उधर मौजूदा हालात में अगर हिलेरी क्लिंटन उम्मीदवार बन जाती हैं तो उनके सामने भी चुनौतियां कम नहीं होंगी। इससे रिपब्लिकन पार्टी को यह प्रचार करने का मौका मिलेगा कि डेमोक्रेटिक पार्टी में आम जन के मत का कोई मोल नहीं है, सुपर डेलीगेट यानी पार्टी के मठाधीश वहां जनमत की अवहेलना कर अपनी पसंद के उम्मीदवार को जिता सकते हैं। इससे पार्टी की लोकतांत्रिक छवि प्रभावित होगी।

लेकिन अब हकीकत यही है कि डेमोक्रेटिक पार्टी ने शुरुआत में अपने लिए अनुकूल दिख रहे हालात को उलझा दिया है। ओबामा और हिलेरी क्लिंटन की होड़ में लोगों को मजा खूब आया है और इससे अमेरिकी राजनीति में एक तरह की रफ्तार भी आती नजर आई है, लेकिन चुनाव संभावनाओं के लिहाज से देखें तो यह पूरा दौर, अगर फुटबॉल की शब्दावली में कहें, तो डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए ‘ओन गोल’ करने जैसा है।

Wednesday, May 7, 2008

क्रीमी लेयर और न्यायपालिका


सत्येंद्र रंजन
अन्य पिछड़ी जातियों के लिए ऊंचे सरकारी शिक्षा संस्थानों में सत्ताइस फीसदी आरक्षण को संविधान सम्मत ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विधायिका और न्यायपालिका में एक बड़े टकराव की आशंका टल गई। केंद्र की यूपीए सरकार ने इस फैसले से राहत की सांस ली और इसे अपनी जीत बताकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक इस आरक्षण पर अमल में जुट गई है। लेकिन हकीकत यही है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सामाजिक न्याय की समर्थक शक्तियों की महज आधी जीत है। यह ओबीसी आरक्षण की सैद्धांतिक जीत जरूर है, लेकिन व्यवहार में इस आरक्षण के प्रभावी होने के रास्ते में हाल के न्यायिक फैसले ने कई अड़चनें भी खडी कर दी हैं।

इस आरक्षण को संभव बनाने के लिए संविधान में हुए ९३वें संशोधन के बारे में प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा- जहां तक सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षा संस्थानों की बात है, यह संशोधन संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं करता। इसी संविधान संशोधन के तहत संसद में पारित हुए शिक्षा संस्थान (दाखिला में आरक्षण) कानून २००६ को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान सम्मत करार दिया। इस तरह पूर्णतः सरकारी या सरकारी सहायता से चलने वाले शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी आरक्षण का रास्ता साफ हो गया।

लेकिन यह रास्ता क्रीमी लेयर की अवधारणा पर कोर्ट के काफी जोर देने तथा जजों की कई टिप्पणियों से खासा संकरा हो गया है। कोर्ट ने न सिर्फ क्रीमी लेयर को आरक्षण के फायदे से बाहर रखने का निर्देश दिया, बल्कि यह व्यवस्था भी दे दी है कि अगर आरक्षित सीटें अन्य पिछड़ी जातियों के गैर क्रीमी लेयर उम्मीदवारों से नहीं भरती हैं तो वे सीटें सामान्य श्रेणी के छात्रों के भरी जाएं। पांच जजों ने चार अलग-अलग फैसले सुनाए और इनमें से एक फैसले में यह भी कहा गया कि आम छात्रों से दस फीसदी कम नंबर लाने वाले छात्रों तक ही आरक्षण का लाभ सीमित रहे। क्रीमी लेयर की चर्चा करते हुए एक आदेश यह दिया गया कि मौजूदा और पूर्व सांसदों एवं विधायकों की संतानों को इसमें शामिल किया जाए, ताकि उन्हें आरक्षण का फायदा नहीं मिल सके। इन व्यवस्थाओं से जजों की सोच का साफ संकेत मिलता है। उनकी टिप्पणियां यह साफ करती हैं कि उनकी सोच में ओबीसी आरक्षण सामाजिक न्याय का कोई कदम नहीं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति है, जिस पर लगाम लगाना जरूरी है।

देश की सामाजिक हकीकत से वाकिफ कोई व्यक्ति यह आसानी से समझ सकता है कि जिन शर्तों के साथ आरक्षण को हरी झंडी दी गई है, उनके रहते इस आरक्षण के मकसद को कभी हासिल नहीं किया जा सकता। यहां गौरतलब है कि मौजूदा फैसला इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में १९९३ में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के रोशनी में आया है। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएच कीनिया की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने उस फैसले में मंडल आयोग की सिफारिशों के मुताबिक केंद्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए सत्ताइस फीसदी आरक्षण को सही ठहराया था। लेकिन उसके साथ ही क्रीमी लेयर की अवधारणा भी उससे जोड़ दी थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरक्षण का लाभ क्रीमी लेयर को नहीं मिलना चाहिए, बल्कि जो परिवार आरक्षण का लाभ पाकर आगे बढ़ चुके हैं, धीरे-धीरे उन्हें आरक्षण के फायदे से अलग करने की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए।

तब सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की अवधारणा को इस आधार पर संविधान सम्मत बताया था कि संविधान में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की बात कही गई है, न कि पिछड़ी जातियों को। कोर्ट ने मंडल आयोग के इस निष्कर्ष को माना कि भारतीय समाज में जाति सामाजिक हैसियत और आर्थिक हालत का एक पैमाना है, लेकिन यह स्वीकार नहीं किया कि एक जाति के सभी लोग इस पैमाने के तहत आते हैं। कोर्ट का कहना था कि जाति, आर्थिक हैसियत और शैक्षिक स्थिति को एक साथ लेते हुए वे वर्ग तय किए जा सकते हैं, जिन्हें आरक्षण का फायदा मिले। तब से क्रीमी लेयर की अवधारणा आरक्षण के संदर्भ में मौजूद है और अक्सर यह मांग उठती रही है कि इसे अनुसूचित जातियों और जन जातियों के लिए जारी आरक्षण में भी लागू किया जाए। फिलहाल जब ओबीसी आरक्षण का दायरा ऊंची शिक्षा में फैलाया गया है तो सुप्रीम कोर्ट ने यहां इस पर सख्ती से अमल का आदेश दिया है।

आरक्षण का फायदा उत्तरोत्तर ज्यादा गरीब और वंचित तबकों को मिले, इस पर किसी को कोई एतराज नहीं है। लेकिन मुश्किल इस व्यवस्था से है कि अगर इन तबकों से आरक्षित सीटें नहीं भर पाती हैं तो फिर उन सीटों को सामान्य श्रेणी के छात्रों से भर दिया जाए। यह व्यवस्था आरक्षण के उद्देश्य को विफल कर देती है। सवाल है कि अगर पिछड़ी जातियों के क्रीमी लेयर के छात्र उन सीटों पर नहीं आएंगे तो वे सीटें ऊंची जातियों के क्रीमी लेयर जैसी हैसियत वाले छात्रों को क्यों मिलनी चाहिए? साथ ही इस चर्चा में आरक्षण से जुड़ी एक बेहद अहम बात नजरअंदाज कर दी गई है कि आरक्षण कोई गरीबी हटाओ कार्यक्रम नहीं है। इसका मकसद निर्णय की प्रक्रिया में उन सभी समूहों और जातियों की नुमाइंदगी सुनिश्चित करना है, जो सदियों से जाति व्यवस्था के कठोर कायदों की वजह से इससे वंचित रहे हैं। इसलिए यह व्यवस्था तो ठीक है कि आरक्षण का लाभ देने में प्राथमिकता आर्थिक आधार पर तय हो, लेकिन इसे अंतिम शर्त बना देना आरक्षण की मूल धारणा पर प्रहार है।

दरअसल, ओबीसी आरक्षण के बारे में सुप्रीम कोर्ट का हाल का फैसला ऐसी टिप्पणियों से भरा हुआ है, जो आरक्षण का पक्ष लेने के बजाय आरक्षण पर सवाल खड़ा करती लगती हैं। १९५१ में संविधान में पहला संशोधन सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को संभव बनाने के लिए किया गया था। इस संशोधन के जरिए संविधान के अनुच्छेद १५ में चौथी धारा जोड़ी गई थी। अनुच्छेद १५ (४) के जरिए सरकार को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों अथवा अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जन जातियों की तरक्की के लिए कदम उठाने का अधिकार दिया गया। ताजा फैसले में न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी ने इस कदम के उद्देश्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। उन्होंने टिप्पणी की है कि यह व्यवस्था करते समय पहली संसद संविधान निर्माताओं के उद्देश्य से भटक गई। उसने ऐसा संशोधन पास किया, जिससे जातिवाद कमजोर होने के बजाय मजबूत हुआ। जाहिर है, न्यायपालिका की एक धारा आरक्षण जैसे कदमों के साथ खुद को सहज महसूस नहीं कर रही है। वह न्याय, समानता और संवैधानिक मूल्यों के बारे में समाज के परंपरागत प्रभु वर्ग की सोच के ज्यादा करीब नज़र आती है। इस सोच में यह बात गहरी बैठी हुई है कि अन्याय के शिकार दरअसल, वे जातियां हैं जिनके हाथ से आरक्षण की वजह से प्रशासनिक वर्चस्व एवं रोजगार के महत्त्वपूर्ण अवसर निकल रहे हैं।

हाल के वर्षों में न्यायपालिका का रुझान ऐसे तबकों के हितों की चिंता करना ज्यादा नजर आता रहा है। हाल का फैसला भी काफी कुछ इसी क्रम में है। इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले के पूर्व फैसले, शिक्षा में ओबीसी के लिए आरक्षण के सवाल पर संपूर्ण राजनीतिक सहमति तथा विधायिका में इस पर सर्वसम्मति के माहौल में सुप्रीम कोर्ट ने सिद्धांततः इस आरक्षण को संवैधानिक जरूर माना, लेकिन इसके औचित्य पर कुछ सवाल भी खड़े कर दिए हैं।

अगर लोकतांत्रिक समाजों में न्यायपालिका के इतिहास पर गौर किया जाए तो उसकी इस भूमिका को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। भारतीय संविधान में पहला संशोधन ही इसलिए करना पड़ा क्योंकि कोर्ट ने कुछ जातियों और समुदायों के लिए शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के मद्रास सरकार के फैसले को खारिज कर दिया। इसी तरह न्यायपालिका ने १९६० के दशक में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रीवी पर्स को खत्म करने के सरकार और संसद के फैसले को असंवैधानिक बता दिया था। उसके पहले भूमि सुधारों को लागू करने की सरकार की कोशिश भी न्यायिक हस्तक्षेप से बाधित होती रही, जिसकी वजह से संसद ने संविधान में नौवीं अनुसूची की व्यवस्था की, जिसे पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने निष्प्रभावी कर दिया। ये तमाम फैसले धनी और सामाजिक वर्चस्व रखने वाले समूहों के हित में रहे हैं।

अगर अमेरिकी इतिहास पर गौर करें तो वहां भी ऐसे न्यायिक फैसलों की कोई कमी नहीं है। १८६५ में अमेरिकी संविधान में १३वें संशोधन के जरिए गुलामी प्रथा को खत्म किया गया और १९६८ में १४वें संशोधन के जरिए सभी नागरिकों के लिए कानून के समान संरक्षण की व्यवस्था की गई। ये दौर था जब अश्वेत समुदायों के साथ खुलेआम भेदभाव किया जाता था और उन्हें उन स्कूलों में दाखिला नहीं मिलता था, जिनमें गोरे बच्चे पढ़ते थे। अश्वेत समुदायों को गोरों से अलग रखने की नीतियों को समान संरक्षण कानून के तहत जब १८९८ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि ये नीतियां इस कानून का उल्लंघन नहीं करतीं। १८९० के दशक के मध्य में ही अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आय कर को असंवैधानिक घोषित करते हुए धनी तबकों को बड़ी राहत दी थी। १९३० के दशक में जब भारी मंदी के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलीन डी रूजवेल्ट ने न्यू डील कार्यक्रम के तहत वित्तीय क्षेत्र पर लगाम कसने और कमजोर तबकों को राहत पहुंचाने की कोशिश की, तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया। तब चिढ़ कर रूजवेल्ट ने ये टिप्पणी की थी कि सुप्रीम कोर्ट ने अब फैसला दे दिया है, उसे खुद ही इस पर अमल करने दीजिए!

दरअसल, न्यायपालिका के ऐसे रुझान की वजह उसकी अंदरूनी संरचना से जुड़ी होती है। यहां आम तौर पर समाज के प्रभु वर्ग के लोग पहुंचते हैं और उसी तबके की सोच से उनका मनोविज्ञान प्रभावित रहता है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के दौर में संविधान पर अमल की समीक्षा के लिए बने आयोग की यह टिप्पणी गौरतलब है- उच्चतर न्यायपालिका में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व नाकाफी है। विभिन्न हाई कोर्टों के ६१० जजों में सिर्फ २० जज ही अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के हैं। दरअसल, हर क्षेत्र में ऐसी हालत की वजह से आरक्षण की नीति अपनानी पड़ी। आरक्षण का असली मकसद हर क्षेत्र में ऐसे ही वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी करना है। इसके बिना लोकतंत्र महज एक औपचारिक ढांचा ही बना हुआ है। लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने और सामाजिक न्याय को हकीकत में बदलने के लिए आरक्षण की इस मूल भावना पर अमल जरूरी है। लेकिन हाल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ऐसा अमल मुश्किल हो गया है। राजनीतिक दलों और तमाम लोकतांत्रिक शक्तियों को इस फैसले के इस निहितार्थ को जरूर समझना चाहिए।

इसलिए क्रीमी लेयर की अवधारणा और उसके व्यावहारिक रूप पर आज गंभीर बहस खड़ी किए जाने की जरूरत है। इस पर संसद में न सिर्फ चर्चा होनी चाहिए, बल्कि क्रीमी लेयर कौन है, इसे तय करने का अधिकार भी संसद को खुद अपने हाथ में लेना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि राजनीतिक दल इस जरूरत के प्रति लापरवाह नजर आते हैं। न्यायपालिका ने १९७३ में केशवानंद भारती मामले संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा देकर संसद के हाथ बांध दिए और ये दल खामोश रहे। २००७ में नागरिकों के मूल अधिकार की न्यायिक व्याख्या कर सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक मामलों में अपनी निर्णायक स्थिति बना ली और इस पर भी संसद में चर्चा करने की जरूरत नहीं महसूस की गई। अब यही हाल क्रीमी लेयर की अवधारणा पर होता दिख रहा है। लेकिन ये गौर करने की बात है कि इससे वास्तविक लोकतंत्र का वास्तविक दायरा सिकुड़ रहा है।