Wednesday, May 7, 2008

क्रीमी लेयर और न्यायपालिका


सत्येंद्र रंजन
अन्य पिछड़ी जातियों के लिए ऊंचे सरकारी शिक्षा संस्थानों में सत्ताइस फीसदी आरक्षण को संविधान सम्मत ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विधायिका और न्यायपालिका में एक बड़े टकराव की आशंका टल गई। केंद्र की यूपीए सरकार ने इस फैसले से राहत की सांस ली और इसे अपनी जीत बताकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक इस आरक्षण पर अमल में जुट गई है। लेकिन हकीकत यही है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सामाजिक न्याय की समर्थक शक्तियों की महज आधी जीत है। यह ओबीसी आरक्षण की सैद्धांतिक जीत जरूर है, लेकिन व्यवहार में इस आरक्षण के प्रभावी होने के रास्ते में हाल के न्यायिक फैसले ने कई अड़चनें भी खडी कर दी हैं।

इस आरक्षण को संभव बनाने के लिए संविधान में हुए ९३वें संशोधन के बारे में प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा- जहां तक सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षा संस्थानों की बात है, यह संशोधन संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं करता। इसी संविधान संशोधन के तहत संसद में पारित हुए शिक्षा संस्थान (दाखिला में आरक्षण) कानून २००६ को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान सम्मत करार दिया। इस तरह पूर्णतः सरकारी या सरकारी सहायता से चलने वाले शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी आरक्षण का रास्ता साफ हो गया।

लेकिन यह रास्ता क्रीमी लेयर की अवधारणा पर कोर्ट के काफी जोर देने तथा जजों की कई टिप्पणियों से खासा संकरा हो गया है। कोर्ट ने न सिर्फ क्रीमी लेयर को आरक्षण के फायदे से बाहर रखने का निर्देश दिया, बल्कि यह व्यवस्था भी दे दी है कि अगर आरक्षित सीटें अन्य पिछड़ी जातियों के गैर क्रीमी लेयर उम्मीदवारों से नहीं भरती हैं तो वे सीटें सामान्य श्रेणी के छात्रों के भरी जाएं। पांच जजों ने चार अलग-अलग फैसले सुनाए और इनमें से एक फैसले में यह भी कहा गया कि आम छात्रों से दस फीसदी कम नंबर लाने वाले छात्रों तक ही आरक्षण का लाभ सीमित रहे। क्रीमी लेयर की चर्चा करते हुए एक आदेश यह दिया गया कि मौजूदा और पूर्व सांसदों एवं विधायकों की संतानों को इसमें शामिल किया जाए, ताकि उन्हें आरक्षण का फायदा नहीं मिल सके। इन व्यवस्थाओं से जजों की सोच का साफ संकेत मिलता है। उनकी टिप्पणियां यह साफ करती हैं कि उनकी सोच में ओबीसी आरक्षण सामाजिक न्याय का कोई कदम नहीं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति है, जिस पर लगाम लगाना जरूरी है।

देश की सामाजिक हकीकत से वाकिफ कोई व्यक्ति यह आसानी से समझ सकता है कि जिन शर्तों के साथ आरक्षण को हरी झंडी दी गई है, उनके रहते इस आरक्षण के मकसद को कभी हासिल नहीं किया जा सकता। यहां गौरतलब है कि मौजूदा फैसला इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में १९९३ में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के रोशनी में आया है। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएच कीनिया की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने उस फैसले में मंडल आयोग की सिफारिशों के मुताबिक केंद्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए सत्ताइस फीसदी आरक्षण को सही ठहराया था। लेकिन उसके साथ ही क्रीमी लेयर की अवधारणा भी उससे जोड़ दी थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरक्षण का लाभ क्रीमी लेयर को नहीं मिलना चाहिए, बल्कि जो परिवार आरक्षण का लाभ पाकर आगे बढ़ चुके हैं, धीरे-धीरे उन्हें आरक्षण के फायदे से अलग करने की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए।

तब सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की अवधारणा को इस आधार पर संविधान सम्मत बताया था कि संविधान में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की बात कही गई है, न कि पिछड़ी जातियों को। कोर्ट ने मंडल आयोग के इस निष्कर्ष को माना कि भारतीय समाज में जाति सामाजिक हैसियत और आर्थिक हालत का एक पैमाना है, लेकिन यह स्वीकार नहीं किया कि एक जाति के सभी लोग इस पैमाने के तहत आते हैं। कोर्ट का कहना था कि जाति, आर्थिक हैसियत और शैक्षिक स्थिति को एक साथ लेते हुए वे वर्ग तय किए जा सकते हैं, जिन्हें आरक्षण का फायदा मिले। तब से क्रीमी लेयर की अवधारणा आरक्षण के संदर्भ में मौजूद है और अक्सर यह मांग उठती रही है कि इसे अनुसूचित जातियों और जन जातियों के लिए जारी आरक्षण में भी लागू किया जाए। फिलहाल जब ओबीसी आरक्षण का दायरा ऊंची शिक्षा में फैलाया गया है तो सुप्रीम कोर्ट ने यहां इस पर सख्ती से अमल का आदेश दिया है।

आरक्षण का फायदा उत्तरोत्तर ज्यादा गरीब और वंचित तबकों को मिले, इस पर किसी को कोई एतराज नहीं है। लेकिन मुश्किल इस व्यवस्था से है कि अगर इन तबकों से आरक्षित सीटें नहीं भर पाती हैं तो फिर उन सीटों को सामान्य श्रेणी के छात्रों से भर दिया जाए। यह व्यवस्था आरक्षण के उद्देश्य को विफल कर देती है। सवाल है कि अगर पिछड़ी जातियों के क्रीमी लेयर के छात्र उन सीटों पर नहीं आएंगे तो वे सीटें ऊंची जातियों के क्रीमी लेयर जैसी हैसियत वाले छात्रों को क्यों मिलनी चाहिए? साथ ही इस चर्चा में आरक्षण से जुड़ी एक बेहद अहम बात नजरअंदाज कर दी गई है कि आरक्षण कोई गरीबी हटाओ कार्यक्रम नहीं है। इसका मकसद निर्णय की प्रक्रिया में उन सभी समूहों और जातियों की नुमाइंदगी सुनिश्चित करना है, जो सदियों से जाति व्यवस्था के कठोर कायदों की वजह से इससे वंचित रहे हैं। इसलिए यह व्यवस्था तो ठीक है कि आरक्षण का लाभ देने में प्राथमिकता आर्थिक आधार पर तय हो, लेकिन इसे अंतिम शर्त बना देना आरक्षण की मूल धारणा पर प्रहार है।

दरअसल, ओबीसी आरक्षण के बारे में सुप्रीम कोर्ट का हाल का फैसला ऐसी टिप्पणियों से भरा हुआ है, जो आरक्षण का पक्ष लेने के बजाय आरक्षण पर सवाल खड़ा करती लगती हैं। १९५१ में संविधान में पहला संशोधन सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को संभव बनाने के लिए किया गया था। इस संशोधन के जरिए संविधान के अनुच्छेद १५ में चौथी धारा जोड़ी गई थी। अनुच्छेद १५ (४) के जरिए सरकार को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों अथवा अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जन जातियों की तरक्की के लिए कदम उठाने का अधिकार दिया गया। ताजा फैसले में न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी ने इस कदम के उद्देश्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। उन्होंने टिप्पणी की है कि यह व्यवस्था करते समय पहली संसद संविधान निर्माताओं के उद्देश्य से भटक गई। उसने ऐसा संशोधन पास किया, जिससे जातिवाद कमजोर होने के बजाय मजबूत हुआ। जाहिर है, न्यायपालिका की एक धारा आरक्षण जैसे कदमों के साथ खुद को सहज महसूस नहीं कर रही है। वह न्याय, समानता और संवैधानिक मूल्यों के बारे में समाज के परंपरागत प्रभु वर्ग की सोच के ज्यादा करीब नज़र आती है। इस सोच में यह बात गहरी बैठी हुई है कि अन्याय के शिकार दरअसल, वे जातियां हैं जिनके हाथ से आरक्षण की वजह से प्रशासनिक वर्चस्व एवं रोजगार के महत्त्वपूर्ण अवसर निकल रहे हैं।

हाल के वर्षों में न्यायपालिका का रुझान ऐसे तबकों के हितों की चिंता करना ज्यादा नजर आता रहा है। हाल का फैसला भी काफी कुछ इसी क्रम में है। इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले के पूर्व फैसले, शिक्षा में ओबीसी के लिए आरक्षण के सवाल पर संपूर्ण राजनीतिक सहमति तथा विधायिका में इस पर सर्वसम्मति के माहौल में सुप्रीम कोर्ट ने सिद्धांततः इस आरक्षण को संवैधानिक जरूर माना, लेकिन इसके औचित्य पर कुछ सवाल भी खड़े कर दिए हैं।

अगर लोकतांत्रिक समाजों में न्यायपालिका के इतिहास पर गौर किया जाए तो उसकी इस भूमिका को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। भारतीय संविधान में पहला संशोधन ही इसलिए करना पड़ा क्योंकि कोर्ट ने कुछ जातियों और समुदायों के लिए शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के मद्रास सरकार के फैसले को खारिज कर दिया। इसी तरह न्यायपालिका ने १९६० के दशक में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रीवी पर्स को खत्म करने के सरकार और संसद के फैसले को असंवैधानिक बता दिया था। उसके पहले भूमि सुधारों को लागू करने की सरकार की कोशिश भी न्यायिक हस्तक्षेप से बाधित होती रही, जिसकी वजह से संसद ने संविधान में नौवीं अनुसूची की व्यवस्था की, जिसे पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने निष्प्रभावी कर दिया। ये तमाम फैसले धनी और सामाजिक वर्चस्व रखने वाले समूहों के हित में रहे हैं।

अगर अमेरिकी इतिहास पर गौर करें तो वहां भी ऐसे न्यायिक फैसलों की कोई कमी नहीं है। १८६५ में अमेरिकी संविधान में १३वें संशोधन के जरिए गुलामी प्रथा को खत्म किया गया और १९६८ में १४वें संशोधन के जरिए सभी नागरिकों के लिए कानून के समान संरक्षण की व्यवस्था की गई। ये दौर था जब अश्वेत समुदायों के साथ खुलेआम भेदभाव किया जाता था और उन्हें उन स्कूलों में दाखिला नहीं मिलता था, जिनमें गोरे बच्चे पढ़ते थे। अश्वेत समुदायों को गोरों से अलग रखने की नीतियों को समान संरक्षण कानून के तहत जब १८९८ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि ये नीतियां इस कानून का उल्लंघन नहीं करतीं। १८९० के दशक के मध्य में ही अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आय कर को असंवैधानिक घोषित करते हुए धनी तबकों को बड़ी राहत दी थी। १९३० के दशक में जब भारी मंदी के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलीन डी रूजवेल्ट ने न्यू डील कार्यक्रम के तहत वित्तीय क्षेत्र पर लगाम कसने और कमजोर तबकों को राहत पहुंचाने की कोशिश की, तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया। तब चिढ़ कर रूजवेल्ट ने ये टिप्पणी की थी कि सुप्रीम कोर्ट ने अब फैसला दे दिया है, उसे खुद ही इस पर अमल करने दीजिए!

दरअसल, न्यायपालिका के ऐसे रुझान की वजह उसकी अंदरूनी संरचना से जुड़ी होती है। यहां आम तौर पर समाज के प्रभु वर्ग के लोग पहुंचते हैं और उसी तबके की सोच से उनका मनोविज्ञान प्रभावित रहता है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के दौर में संविधान पर अमल की समीक्षा के लिए बने आयोग की यह टिप्पणी गौरतलब है- उच्चतर न्यायपालिका में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व नाकाफी है। विभिन्न हाई कोर्टों के ६१० जजों में सिर्फ २० जज ही अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के हैं। दरअसल, हर क्षेत्र में ऐसी हालत की वजह से आरक्षण की नीति अपनानी पड़ी। आरक्षण का असली मकसद हर क्षेत्र में ऐसे ही वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी करना है। इसके बिना लोकतंत्र महज एक औपचारिक ढांचा ही बना हुआ है। लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने और सामाजिक न्याय को हकीकत में बदलने के लिए आरक्षण की इस मूल भावना पर अमल जरूरी है। लेकिन हाल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ऐसा अमल मुश्किल हो गया है। राजनीतिक दलों और तमाम लोकतांत्रिक शक्तियों को इस फैसले के इस निहितार्थ को जरूर समझना चाहिए।

इसलिए क्रीमी लेयर की अवधारणा और उसके व्यावहारिक रूप पर आज गंभीर बहस खड़ी किए जाने की जरूरत है। इस पर संसद में न सिर्फ चर्चा होनी चाहिए, बल्कि क्रीमी लेयर कौन है, इसे तय करने का अधिकार भी संसद को खुद अपने हाथ में लेना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि राजनीतिक दल इस जरूरत के प्रति लापरवाह नजर आते हैं। न्यायपालिका ने १९७३ में केशवानंद भारती मामले संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा देकर संसद के हाथ बांध दिए और ये दल खामोश रहे। २००७ में नागरिकों के मूल अधिकार की न्यायिक व्याख्या कर सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक मामलों में अपनी निर्णायक स्थिति बना ली और इस पर भी संसद में चर्चा करने की जरूरत नहीं महसूस की गई। अब यही हाल क्रीमी लेयर की अवधारणा पर होता दिख रहा है। लेकिन ये गौर करने की बात है कि इससे वास्तविक लोकतंत्र का वास्तविक दायरा सिकुड़ रहा है।

No comments: