सत्येंद्र रंजन
मुंबई पर २६ नवंबर को अचानक आतंकवादी हमले से सकते में रह जाने के बाद इस मामले में पाकिस्तान की जांच से भारत के लोग एक बार फिर अचंभित रह गए। पाकिस्तान सरकार सचमुच गंभीरता से जांच करेगी और हमले की साजिश की कुछ नई परतें उससे खुलेंगी, इसकी उम्मीद इस देश में बड़े से बड़े आशावादी को भी नहीं थी। पाकिस्तान ने इस मामले में जब भारत के डोज़ियर का जवाब दिया तो उस पर क्या प्रतिक्रिया जताई जाए, यह तय करना देर तक मुश्किल बना रहा।
फिर मीडिया और सिक्युरिटी एक्सपर्ट्स को समझ में आया कि अंतरराष्ट्रीय दबाव में पाकिस्तान के पास इसके अलावा कोई और चारा नहीं था। भारत सरकार ने पाकिस्तान की शुरुआती जांच को एक ‘सकारात्मक घटनाक्रम’ बताया, लेकिन इसके साथ ही विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने संसद में यह भी दोहरा दिया कि जब तक पाकिस्तान इस जांच को तार्किक नतीजे तक नहीं पहुंचाता और पाकिस्तान में आतंकवाद का ढांचा नष्ट नहीं होता, भारत चुप नहीं बैठेगा।
भारत में पाकिस्तान को लेकर होने वाले विमर्श को समझने के लिहाज से ये प्रतिक्रियाएं बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। मीडिया के ज्यादातर हिस्से में अब खबर की प्रस्तुति नाटक का रूप ले चुकी है। सनसनी इसका एक अहम पहलू है। इसके कथानक में नायक और खलनायक का होना अनिवार्य होता है। खलनायक जितना दैत्याकार हो, खबर उतनी सनसनीखेज़ हो सकती है। ऐतिहासिक कारणों से पाकिस्तान एक ऐसे खलनायक के स्वाभाविक किरदार के रूप में उपलब्ध होता है।
इसलिए मीडिया के विमर्श में पाकिस्तान का खौफ़नाक चेहरा उभारना और फिर उस पर बरसना खबर के नाम पर जारी ड्रामा या अब मेलोड्रामा का सहज हिस्सा बन गया है। सरकार भी इस नाटक के दर्शक और पाठक वर्ग की उपेक्षा नहीं कर सकती। तो उसे भी उनकी तुष्टि के लिए कुछ शब्द ज़रूर बोलने पड़ते हैं। और इस वक्त जब देश आम चुनाव के लिए तैयार हो रहा है, राजनीतिक दलों के लिए पाकिस्तान एक बड़ा मुद्दा है। सत्ताधारी कांग्रेस आसानी से इस मुद्दे पर देशभक्ति का ज्वार उभार कर वोट पाने के लालच से नहीं बच सकती।
लेकिन इस विमर्श का नुकसान यह है कि देश की जनता एक बेहद पेचीदा हालत के बारे में जानने और उसके विभिन्न पहलुओं को समझने से वंचित हो गई है। पाकिस्तान की स्थितियां जटिल हैं। कहा जा सकता है कि पाकिस्तान अपने वजूद के संकट से जूझ रहा है। उसका इतिहास और उसकी बुनियाद से जुड़े सवाल बेहद विकराल रूप में उसके सामने खड़े हैं। वह जिस इस्लाम के नाम पर बना, उसकी चरमपंथी धारा उसकी राज्य-व्यवस्था को चुनौती दे रही है। जिस अमेरिकी साम्राज्यवाद के सहारे उसकी राज्य-व्यवस्था चलती रही, उससे अब देश के आम जन मानस का गहरा अंतर्विरोध खड़ा हो गया है। देश की असली सत्ता किसके हाथ में है, यह समझ पाना मुश्किल है।
यह परिस्थिति विस्फोटक रूप भी ले सकती है। अमेरिका और पश्चिमी देश इसके खतरे से कहीं बेहतर वाकिफ नजर आते हैं। लेकिन हालात को संभावने के सूत्र उनके हाथ में भी नहीं हैं। एक बड़ी आबादी वाला देश, जिसके पास परमाणु हथियार हों, लेकिन जिसकी सत्ता का ढांचा बिखरता हुआ दिखे और जहां धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद तेजी से पांव फैला रहा हो, इसके परिणामों के बारे में सोचना भी डरावना है। मगर हर जिम्मेदार अंतरराष्ट्रीय ताकत को आज इसके बारे में सोचना पड़ रहा है।
अगर ऐसी सोच का कहीं अभाव दिखता है तो वह भारत ही है। हमारे विमर्श में पूरा पाकिस्तान एक इकाई है। और सारा पाकिस्तान भारत का दुश्मन है। लेकिन इस विमर्श में यह कोई नहीं बताता कि आखिर इस दुश्मन से कैसे निपटा जा सकता है? मीडिया और सियासतदां की जुबानी जंग को क्या असली जंग में बदला जा सकता है? क्या भारत सचमुच पाकिस्तान के परमाणु हथियारों की अनदेखी कर पाकिस्तान से युद्ध का जोखिम मोल ले सकता है? या भारत के पास इस जटिल स्थिति से निकलने का कोई और भी विकल्प है?
अगर हम पिछले दो दशकों के विकासक्रम को समझने और मीडिया के मार्केट नैरेटिव (दर्शक या पाठक बढ़ाने की बाजार रणनीति) से निकल कर आगे देखने की क्षमता रखते हों, तो दूसरे विकल्प जरूर नजर आ सकते हैं। पाकिस्तान की बुनियाद और पहचान भले भारत विरोध के आधार पर खड़ी हुई हो, लेकिन पाकिस्तान की आज पीढ़ी ऐसी एकरूप सोच से नहीं चलती है। वहां चलने वाली बहस देश के भीतर देश के बुनियादी मुद्दों पर तेज होते अंतर्विरोधों की झलक देते हैं। जरूरत इस बारीकी को समझने की है। लेकिन भारत में इस समझ का साफ अभाव नजर आता है।
सवाल यह है कि आखिर हम चाहते हैं क्या हैं? हमारा लक्ष्य पाकिस्तान को नष्ट करना या उसकी परेशानियों पर खुश होना है, या हम शांति और प्रगति की ऐसी परिस्थितियां बनाना चाहते हैं, जिसमें पूरा दक्षिण एशिया और प्रकारातंर में पूरी दुनिया मानव विकास एवं स्वतंत्रता के उच्चतर स्तर हासिल कर सके? अगर हमारा लक्ष्य दूसरा है तो हमें पाकिस्तान के हालात को बारीकी से समझना चाहिए। वहां कट्टरपंथ और सिविल सोसायटी के बीच के अंतर्विरोधों को समझना चाहिए। वहां के सत्ता ढांचे के अंतर्विरोधों पर गौर करना चाहिए। और इनके बीच हमें ऐसी नीतियां अपनानी चाहिए, जिससे वहां प्रगति और स्थिरता की ताकतों को बल मिले।
अगर पाकिस्तान ने मुंबई हमले की शुरुआती जांच गंभीरता से की तो इसके पीछे मंसूबे तलाशने के बजाय उसे खुले दिल से हमें स्वीकार करना चाहिए। अगर इससे पाकिस्तन सरकार के साथ आतंकवाद के मुद्दे पर सहयोग का कोई रास्ता निकलता है, तो उस पर चलने से भारत सरकार को नहीं हिचकना चाहिए। कट्टरपंथ और आतंकवाद दो ऐसे खतरे हैं, जिनके खिलाफ एकजुटता की आज बेहद जरूरत है। लेकिन यह एकजुटता दोमुंहेपन के साथ नहीं बन सकती। स्वात घाटी के तालिबान और भारत की राम, बजरंग और शिवसेनाओं के प्रति रुख में फर्क के साथ ये लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अगर आज देश पर तालिबान के कब्जे का अंदेशा जताते हैं, तो हमें इस खतरे से भी आगाह रहना चाहिए कि कभी भारत में भी संघ परिवार के कब्जे का खतरा पैदा हो सकता है।
दरअसल, आतंकवाद से संघर्ष में जितनी भूमिका सुरक्षा और खुफिया तंत्र की है, उससे कहीं ज्यादा विचारों और राजनीतिक नीतियों की है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि राजनीतिक दलों को इस लड़ाई में जैसा नेतृत्व देना चाहिए, वो नहीं दे रहे हैं। बल्कि उन्होंने आतंकवाद पर सारे विमर्श को संकीर्ण दायरे में समेट दिया है। यही भूमिका मीडिया भी निभा रहा है। पाकिस्तान को दैत्य के रूप में पेश करना और उसमें अंतर्निहित सांप्रदायिक मनोभावों का शोषण कर फायदा उठाना एक आसान रास्ता बना हुआ है। लेकिन यह रास्ता हमें अपने लक्ष्यों की तरफ नहीं ले जाता है। इसीलिए भारत को आज अपने पाकिस्तान विमर्श पर अनिवार्य रूप से पुनर्विचार करना चाहिए।
Friday, February 20, 2009
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