Sunday, May 3, 2009

संदर्भ लेफ्ट-कांग्रेस सहयोग का


सत्येंद्र रंजन
क्या कांग्रेस और वामपंथी दलों में फिर सहयोग होगा, यह इस समय देश के सामने शायद सबसे अहम राजनीतिक सवाल है। १५वीं लोकसभा की जैसी तस्वीर उभरने का अनुमान लगाया जा रहा है, उसके मद्देनजर यह सवाल लगातार ज्यादा प्रासंगिक होता जा रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी कहा था कि वामपंथी दल उन्हें ‘बंधुआ मजदूर’ बनाना चाहते थे, लेकिन अब उन्होंने खुले तौर पर कहा है कि वे एक बार फिर वामपंथी दलों के साथ मिल कर काम करने को तैयार हैं। कांग्रेस पार्टी ने तो पिछले जुलाई में नाता टूटने के बाद भी कभी वामपंथी दलों के साथ सहयोग की संभावना से इनकार नहीं किया।

वामपंथी दल जरूर भविष्य में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को समर्थन देने की संभावना से इनकार करते रहे हैं। लेकिन पिछले महीनों के दौरान उन्होंने जो तीसरा मोर्चा बनाया है, उसकी सरकार बनाने के लिए कांग्रेस का समर्थन लेने की संभावना से उन्होंने कभी इनकार नहीं किया। हालांकि वामपंथी दलों का घोषित लक्ष्य कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों का विकल्प तैयार करना है, लेकिन विडंबना यह है कि ऐसी वैकल्पिक सरकार कांग्रेस के समर्थन के बिना नहीं बन सकती। वैसे गैर कांग्रेस- गैर भाजपा सरकार की संभावना को लेकर मुश्किल सिर्फ इतनी ही नहीं है।

सबसे बड़ी मुश्किल तीसरा मोर्चे का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य है। मोर्चे में वामपंथी दलों के साथ जो राजनीतिक दल हैं, उनमें किसी का कांग्रेस और भाजपा का विकल्प तैयार करने का वैचारिक आग्रह नहीं है। उनका नजरिया सीमित और कार्यनीतिक (tactical) है। वामपंथी दल भाजपा के सांप्रदायिक फासीवाद और कांग्रेस के नव-उदारवाद एवं साम्राज्यवाद समर्थक नीतियों का विकल्प तैयार करना चाहते हैं। लेकिन तीसरे मोर्चे के उसके सहयोगियों में भी ऐसी कोई इ्च्छा या इसके लिए उत्साह है, इसका कोई संकेत नहीं है। बल्कि तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के चंद्रशेखर राव अभी से कहने लगे हैं कि जो भी पार्टी तेलंगाना राज्य बनाने के हक में होगी, वो उसके साथ जा सकते हैं, भले वो पार्टी भाजपा हो।

चंद्रबाबू नायडू और नवीन पटनायक वामपंथी दलों के एजेंडे के साथ दूर तक चलेंगे, यह शायद वामपंथी नेता भी नहीं मानते होंगे। उन दोनों का अपने राज्यों में मुख्य मुकाबला कांग्रेस से है, जाहिर है धर्मनिरपेक्षता चाहे जितने संकट में हो, वे कांग्रेस के साथ वैसा सहयोग नहीं करेंगे, जैसा २००४ से जुलाई २००८ तक वामपंथी दलों ने किया। जयललिता कब क्या कहें और करे, इसका अंदाजा आखिर कौन लगा सकता है? एलटीटीई के विरोध से तमिल ईलम के समर्थन तक का सफर उन्होंने इसी चुनाव अभियान में पूरा कर लिया है। मायावती वैसे भी अभी तीसरे मोर्चे के साथ नहीं हैं। एचडी देवेगौड़ा, भजनलाल और बाबूलाल मरांडी के साथ कैसी नीतियां और दीर्घकालिक रणनीति बनाई जा सकती है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

इसके बावजूद अगर वामपंथी नेता कांग्रेस को समर्थन देने की संभावना से इनकार कर रहे हैं, तो इसकी वजह राजनीतिक और वैचारिक दोनों है। १९९० के दशक में भाजपा की बढ़ती ताकत और राज्य-व्यवस्था पर उसका शिकंजा कस जाने की गहराती आशंकाओं के बीच वामपंथी दलों ने कांग्रेस से सहयोग की नीति अपनाई। मकसद भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र और देश की संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा करना था। इसी सहयोग का ठोस और व्यावहारिक परिणाम रहा २००४ में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को उनका समर्थन। वामपंथी दलों ने इस मौके का लाभ उठा कर सरकार की नीतियों को मध्य से वामपंथ की तरफ झुकाने की कोशिश की। यह बात यूपीए के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में झलकी। लेकिन कांग्रेस पर नरसिंह राव के जमाने में प्रचलित हुई नव-उदारवादी नीतियां हावी रहीं। नजरिए का यह फर्क बार-बार टकराव का रूप लेता रहा और आखिरकार इसकी परिणति भारत अमेरिका परमाणु सहयोग करार के मुद्दे पर वामपंथी दलों की समर्थन वापसी के रूप में हुई।

लेकिन प्रश्न है कि क्या तीसरा मोर्चा नीतियों के दायरे में वामपंथी एजेंडे को अपना सकेगा? और अगर तीसरे मोर्चे की सरकार कांग्रेस के समर्थन से बननी है तो कांग्रेस अपनी नीतियों की शर्तें उस पर नहीं थोप नहीं सकती है? ये वामपंथी दलों के लिए गंभीर विचार-विमर्श के सवाल हैं।

बहरहाल, ऐसे सवाल कांग्रेस के सामने भी हैं। मनमोहन सिंह ने अमेरिका से परमाणु करार को जैसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बनाया, विश्वासमत के समय जैसी सियासी जोड़तो़ड़ की, सत्ता और पैसे का जैसा दुरुपयोग किया, और संदिग्ध तरीकों से हासिल जीत पर उनकी पार्टी जैसे इतराई, उससे भारत के राष्ट्रीय विमर्श में लंबे समय के संघर्ष और संवाद से पैदा हुई धर्मनिरपेक्ष आम सहमति को गहरी क्षति पहुंची। इसका परिणाम खुद सत्ताधारी यूपीए को भी भुगतना पड़ा है। जब इस आम सहमति के टूटने की शुरुआत हो गई तो यह स्वाभाविक ही था कि सभी दल पहले अपने चुनावी स्वार्थ पर गौर करें। नतीजतन, यूपीए से निकल कर एक चौथा मोर्चा सामने आ गया।

क्या कांग्रेस पार्टी को इस घटनाक्रम, इसकी वजहों और इसके परिणामों का अहसास है? अगर इसका जवाब ‘हां’ में है तो कांग्रेस नेतृत्व एक नई शुरुआत कर सकता है। हकीकत यह है कि धर्मनिरपेक्ष दायरे में आज भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है, और इस लिहाज से सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ उसकी एक बड़ी भूमिका है। लेकिन अब वह इतनी बड़ी पार्टी भी नहीं है कि इस भूमिका को वह अकेले निभा सके। इसके लिए उसे विभिन्न क्षेत्रीय और छोटे दलों को साथ लेना होगा, और फिलहाल ऐसी कोई सूरत नहीं है, जिसमें वह वामपंथी दलों को नजरअंदाज कर यह भूमिका निभा सके।

आज यह ऐतिहासिक जरूरत है कि कांग्रेस और वामपंथी दल दोनों सहयोग की इस अनिवार्यता और अपरिहार्यता को समझें। यह जिम्मेदारी दोनों पर है कि वे नीतियों और कार्यक्रमों पर ऐसी सहमति तैयार करें, जिससे ऐसे सहयोग की व्यावहारिक जमीन तैयार हो सके। अगर वामपंथी दलों को शिकायत है कि कांग्रेस उन बातों पर कायम नहीं रही, जिस पर वह साझा न्यूनतम कार्यक्रम में सहमत हुई थी, तो भविष्य के लिए कोई ऐसा मेकनिज्म बनाया जाना चाहिए, जिससे आगे ऐसा न हो सके। साथ ही धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय आम सहमति भंग होने और वामपंथी दलों से रिश्ते में टूट के जो प्रतीक हैं, अगर उनकी कुर्बानी जरूरी हो तो कांग्रेस को देश के दीर्घकालिक भविष्य के लिए इस पर तैयार होना चाहिए।

धर्मनिरपेक्ष दायरे में आने वाली तमाम शक्तियों को यह समझना चाहिए भारत का वह विचार किसी व्यक्ति या पार्टी से ज्यादा अहम है, जो स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में पैदा हुआ, जो दादा भाई नौरोजी, रवींद्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू की देखरेख में फूला-फला और जिसका मूर्त रूप में हमारा संविधान है। विभिन्न नामों से धर्म आधारित राष्ट्रवाद की बात करने वाली ताकतें भारत के इस विचार के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं, इसलिए उन्हें रोकने के लिए दी गई कोई भी कुर्बानी बड़ी नहीं है। अगर कांग्रेस और वामपंथी दल इस बात को समझें और व्यवहार में भी मानें तो १६ मई के बाद देश को न सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता से बचाया जा सकता है, बल्कि आम जन की भलाई वाली नीतियों के साथ सकारात्मक पहल करने वाली एक सरकार भी अस्तित्व में आ सकती है।

No comments: