Saturday, May 23, 2009

अब उस मोर्चे को भूल जाइए


सत्येंद्र रंजन
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने लोकसभा चुनाव में अपनी हार के बाद यह स्वीकार कर लिया है कि उसने तीसरे मोर्चे का जो विकल्प देश के सामने पेश किया, वह विश्वससनीय नहीं था, और देश की जनता ने उसे ठुकरा दिया। हालांकि माकपा ने अपनी यह राय दोहराई है कि देश को गैर कांग्रेस-गैर भाजपा विकल्प की जरूरत है, लेकिन साथ ही उसने अपनी यह नई समझ भी जताई है कि ऐसा विकल्प चुनाव से ठीक पहले जोड़-तोड़ कर नहीं बन सकता। ऐसा विकल्प साझा कार्यक्रम और सहमति के मुद्दों पर लगातार संघर्ष से ही विकसित हो सकता है।

पश्चिम बंगाल और केरल में माकपा, या वाम मोर्चे की क्यों हार हुई, इस पर पार्टी अभी अपनी राज्य शाखाओं के जायजे का इंतजार कर रही है, इसलिए अभी उसने कोई ठोस राय नहीं जताई है। बहरहाल, माकपा महासचिव प्रकाश करात की इस बात में दम है कि वाम मोर्चे की श्रद्धांजलि लिख रहे लोग, जल्दबाजी कर रहे हैं। करात के मुताबिक वाम दल पहले भी ऐसे संकट से गुजरे हैं और हर बार ज्यादा मजबूत होकर उभरे हैं। बदले हालात में यह दावा कितना कारगर होगा, इस सवाल को हम भविष्य पर छोड़ सकते हैं। लेकिन देश में वामपंथ की राजनीति की एक विस्तृत जगह है, यह बात बेहिचक कही जा सकती है।

तीन झलकियों से इस बात को आगे बढ़ाया जा सकता है। एमजे अकबर देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। एक समय कांग्रेस में रहे और पिछले कुछ समय से उन्हें भाजपा के करीब माना जाता है। यानी किसी भी स्थिति में उन्हें वाम मोर्चे का समर्थक या उससे हमदर्दी रखने वाला नहीं माना जा सकता। लेकिन इस बार जब चुनाव नतीजे आ रहे थे, एक टीवी न्यूज चैनल पर उन्होंने कहा- लेफ्ट की हार का मुझे दुख है। ये चेक एंड बैलेंस (अवरोध और संतुलन) की बड़ी ताकत थे और इनकी वो हैसियत बने रहना देश के हित में था।

तकरीबन १६ साल पहले जब पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में मनमोहन सिंह नव-उदारवाद एवं भूमंडलीकरण की नीतियों को तेजी से आगे बढ़ा रहे थे, तभी भविष्य निधि में जमा रकम पर ब्याज दर घटाने और कथित श्रम सुधारों के जरिए मजदूरों की छंटनी को आसान बनाने की कोशिश की जा रही थी। उन दिनों मैं एक अखबार में नौकरी करता था। वहां पेस्टिंग विभाग में एक कर्मचारी था, जो भाजपा के उग्र हिंदुत्व का समर्थक और भाजपा का मतदाता था। जब सरकार वह कानून बनाने पर आमादा नजर आई तो एक दिन उन्होंने उम्मीद जताई कि लेफ्ट वाले कुछ करेंगे। मुझसे पूछा- क्या लेफ्ट सरकार को नहीं रोकेगा? हालांकि उनके पास मेरे इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कि वोट तो आप भाजपा को देते हैं, तो ऐसे मामलों में उम्मीद कम्युनिस्टों से क्यों जोड़ते हैं!

चो रामास्वामी मशहूर पत्रकार हैं। दक्षिणपंथी रुझान रखते हैं। १९९० के दशक के उत्तरार्द्ध से भाजपा के करीब हैं। माना जाता है कि एनडीए सरकार के लिए सहयोगी जुटाने में अहम भूमिका निभाई थी। कुछ साल पहले पत्रकारों को दिए जाने वाले एक पुरस्कार के समारोह में वक्ता थे। वहां उन्होंने एक गौरतलब टिप्पणी की। कहा, इन दिनों ईमानदार नेता सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टियों में पाए जाते हैं, लेकिन उनकी विचारधारा इतनी दोषपूर्ण है कि कंट्री कैन नॉट बी लेफ्ट ऑन द लेफ्ट (यानी देश को वामपंथी दलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता)।

प्रबुद्ध वर्ग से लेकर आम जन में वामपंथी दलों के बारे में मौजूद धारणाओं के ये तीन उदाहरण हैं। ये धारणाएं भारतीय राजनीति के क्षितिज पर वामपंथी दलोँ को एक अलग स्थान प्रदान करती हैं। यह स्थान छोटा है, तथा फिलहाल और सिकुड़ गया है, लेकिन इससे वामपंथी दलों को वह नैतिक ऊंचा स्थल प्राप्त होता है, जहां से वो अपनी बातें जनता के सामने आत्मविश्वास के साथ कह सकें। जारी आर्थिक मंदी के बीच दुनिया भर में वामपंथी विमर्श को नई विश्वसनीयता मिली है। यहां तक कि भारत के कॉरपोरेट मीडिया में भी यह बात स्वीकार की गई है कि अगर लेफ्ट का दबाव न होता और मनमोहन सिंह सरकार कई नव-उदारवादी कदमों को उठाने में सफल हो गई होती, तो मंदी की भारत पर मार और गहरी पड़ी होती।

राज्य-व्यवस्था में आम जन की तरफ से हस्तक्षेप की लोगों की उम्मीद राष्ट्रीय राजनीति में वाम मोर्चे को भूमिका को प्रासंगिक बनाए हुए है। ईमानदारी की उनकी छवि उनकी एक ऐसी थाती है, जिससे वो इस भूमिका में अपनी धार को और तेज बना सकते हैं। लेकिन ऐसा करने में वे तभी कामयाब होगें, जब तीसरे मोर्चे जैसे हाल के प्रयोग से अंतिम रूप से नाता तोड़ लें। अब यह बात स्वीकार किए जाने की जरूरत है कि जयललिता से लेकर मायावती, मुलायम से लेकर लालू यादव, और करुणानिधि से लेकर देवेगौड़ा नीतिगत रूप में कहीं भी एक अलग पहचान या विकल्प पेश नहीं करते। ना ही उनमें बुनियादी वैचारिक ईमानदारी है और ना कोई दीर्घकालिक राजनीतिक निष्ठा। बल्कि इस अर्थ में कांग्रेस की भूमिका ज्यादा स्पष्ट है। भले ही मजबूरी में, लेकिन राजनीतिक सिद्धांत के दायरे में वह एक धर्मनिरपेक्ष ताकत है।

वाम मोर्चा अगर सचमुच तीसरी ताकत उभारना चाहता है, तो उसे देश भर में फैले जन संगठनों और विभिन्न सामाजिक आंदोलनों की तरफ निगाह दौड़ानी चाहिए। कुछ साल पहले माकपा ने ऐसा इरादा जताया था। यह बात ठीक है कि इन संगठनों और आंदोलनों में भी अहंकार एवं सोच की संकीर्णता का प्रभाव अक्सर पाया जाता है, लेकिन माकपा या वाम मोर्चे ने भी संसदीय दायरे से निकल कर उन्हें साथ लेने और उनके साथ असली मोर्चा बनाने की गंभीर कोशिश नहीं की। लंबे समय बाद इस लोकसभा चुनाव में बिहार में यूनाइटेड लेफ्ट ब्लॉक उसने जरूर बनाया, लेकिन उसका दायरा व्यापकतम नहीं था। लेकिन अगर उसे एक शुरुआत माना जाए, मोर्चे को सिर्फ चुनावी मकसदों तक सीमित न रखा जाए, और जिन मुद्दों पर जनता वाम दलों से संघर्ष को नेतृत्व देने की उम्मीद रखती है, उसका एक कार्यक्रम पेश किया जाए तो १५ वीं लोकसभा के चुनाव में लगा झटका दरअसल, देश में वामपंथी राजनीति के लिए एक नया अवसर साबित हो सकता है।

इतिहास के इस मौके पर वामपंथी दलों के पास यही भूमिका है। केंद्र में सरकार को बाहर संचालित करने की महत्त्वाकांक्षा फिलहाल उन्हें छोड़ देनी चाहिए। फिलहाल उन्हें सरकार बनाने वाला नहीं, बल्कि संघर्ष करने वाला तीसरा मोर्चा बनाना चाहिए।

4 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

वामपंथी दलों, विशेष रूप से सीपीएम ने अपना राजनैतिक कार्यक्रम डब्बे में कैद कर दिया है। वहीं से उस का पतन आरंभ हो चुका है। पूरी पार्टी का चरित्र ही बदल चुका है। अब पछताय क्या होय। अब तो नीचे ही गिरना है।

bawlabasant said...

Raise d scarlett standard high... Beneath it's shade we live and die Let cowards flinch and traitors sneer We will keep d Red flag flying here.

अखिलेश्‍वर पांडेय said...

अच्‍छा आकलन। सच के करीब। बधाई।

Anonymous said...

satyendra ji, aapka aalekh dhang ka hai. chunav ladane vale dal hamesa jeetate rahe, yeh ummeed bemani hai. bengal men vam dalon ke khilaf jis terah har din kuprachar abhiyan chalaya jata hai, use dekh kar aashchrya hota hai ki yese men itane salon lak vampanthi sarkar kaise bani rahi. jahir hai vamdalon ki sakh khasi majbut hai. chunav men kam siten pane ka matlab yeh nahi ki vam takten kham ho gaeen hain. ye fir se badhi takat ke saath ubharenge. bengal men mamata ki kamyabi ke bad faili arajakata, logon ko satark karane ke liye kafi hai. yehan jari hinsa ke khilaf desh bhar se aavaj uthai jani chhiye.
s. bhartiya.