सत्येंद्र रंजन
भारतीय जनता पार्टी के सामने चिंतन के कई कठिन प्रश्न हैं। शिमला में १७ अगस्त से होने वाली चिंतन बैठक में पार्टी के बड़े नेता अगर एक दूसरे की जड़ें काटने में ही न लगे रहे, तो उन्हें इन प्रश्नों से उलझना होगा। उनके सामने सबसे बड़ा सवाल शायद यही है कि आखिर भाजपा अब क्यों उतने लोगों के मन पर राज नहीं कर पा रही है, जैसा वह १९९० के दशक में कर रही थी?
बात आगे बढ़ाने से पहले यह साफ कर लेना उचित होगा कि इस लेख का आशय यह कतई नहीं है कि भाजपा एक संभावनाविहीन पार्टी हो गई है। बल्कि स्थिति इसके विपरीत है। देश की इस वक्त जैसी राजनीतिक बनावट है, उसे देखते हुए यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले लंबे समय तक भाजपा एक मजबूत ताकत बनी रहेगी। जिस पार्टी को अभी हाल में ही राष्ट्रीय स्तर पर १८ फीसदी से ऊपर वोट मिले हों, जिसके पास लोकसभा में सौ से ऊपर सीटें हों और जो कई राज्यों में सत्ता में हो, उसकी संभावनाओं को ऐसे ही खारिज नहीं किया जा सकता। दरअसल, आज भी कई पहलू भाजपा के पक्ष में हैं। अनेक राज्यों (मसलन- गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, झारखंड, दिल्ली आदि) में भाजपा लगातार राजनीति की एक धुरी बनी हुई है। इसके अलावा कई दूसरे राज्यों (मसलन- महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब आदि) में अपने सहयोगी दलों के साथ वह राजनीति की एक धुरी है। इन राज्यों में वह सत्ताधारी या मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में है, यानी मतदाताओं के सामने वह एक सहज विकल्प है।
राजनीतिक दलों की प्रासंगिकता इस बात से तय होती है कि वे किन आर्थिक हितों, सामाजिक वर्गों और सांस्कृतिक मान्यताओं की नुमाइंदगी करते हैं। भाजपा ने पिछले दो दशक में इन तीनों ही कसौटियों पर अपने लिए एक निश्चित आधार तैयार किया है। वह धुर दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों की समर्थक, सामाजिक इंजीनियरिंग के साथ सवर्णवादी ढांचे की रक्षक, और रूढ़िवादी एवं धार्मिक बहुसंख्यक वर्चस्ववादी नीतियों की वकील के रूप में आज हमारे सामने है। ये तीनों पहलू कई स्तरों पर कई जन समुदायों को आकर्षित करते हैं। ये मोटे तौर पर वैसे जन समुदाय हैं, जिनकी व्यवस्था पर मजबूत पकड़ है। जाहिर है, ये एक मजबूत वोट आधार का निर्माण करते हैं। जब ऐसा समर्थक आधार किसी पार्टी के साथ हो, तो उसे अप्रासंगिक मानने का कोई वस्तुगत कारण नहीं है। इसलिए भाजपा के सामने अस्तित्व का संकट नहीं है। एक मजबूत और मुखर राजनीतिक पार्टी के रूप में उसकी हैसियत आने वाले कई वर्षों तक सुरक्षित है, यह बात निसंदेह कही जा सकती है।
असल में भाजपा मुश्किलें इससे अलग हैं। अगर इसे सहज भाषा और एक वाक्य में कहा जाए तो भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसने अपने कट्टर समर्थक आधार समूहों से बाहर के लोगों को आकर्षित करने की क्षमता खो दी है। इसकी एक बड़ी वजह पार्टी नेताओं की साख में आई कमी है। छह साल केंद्र की सत्ता में रहते हुए भाजपा नेताओं ने जैसा ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ दिखाया, उससे ‘सबसे अलग’ पार्टी होने का उनका दावा खोखला साबित हो गया। नतीजा यह है कि जिन मुद्दों पर भाजपा अब आक्रामक होती है, वे अब आम लोगों को अहम नहीं लगते। अगर मुद्दे उन्हें सही लगें, तब भी उन्हें यही लगता है कि भाजपा का यह महज एक राजनीतिक दांव है। भाजपा का उठान किसी वैकल्पिक आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम के आधार पर नहीं हुआ था। यह कुछ ऐसे मुद्दों पर था, जिनके जरिए तब उसने बाकी दलों को रक्षात्मक रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया था।
ऐसा होने की राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी सिद्धांत पर लगातार समझौता करने और भाजपा का राजनीतिक ग्राफ बढ़ने के बीच सीधे संबंध की तलाश की जा सकती है। अगर १९८०-९० के दशकों में कांग्रेस में लगातार बढ़ते दक्षिणपंथी रुझानों और गैर कांग्रेस- गैर भाजपा दलों में बिखराव एवं उनके सिकुड़ने को भी शामिल कर लिया जाए, तो उस दौर की परिघटनाओं को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। कांग्रेस १९८० के दशक में साफ तौर पर बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं उभार कर उसका राजनीतिक फायदा उठाने की रणनीति पर चल रही थी। पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद को पहले बढ़ावा देने और फिर उसे कुचलने, सिख विरोधी दंगे, बाबरी मस्जिद- राम जन्मभूमि मंदिर का ताला खुलवाने, विश्व हिंदू परिषद के ईंट पूजन अभियान को परोक्ष इजाजत देने, दूरदर्शन पर धार्मिक सीरियलों को बढ़ावा देने, आदि जैसी कुछ मिसालों का यहां इस सिलसिले में जिक्र किया जा सकता है। कांग्रेस तब शायद यह नहीं समझ पा रही थी वह अपनी स्वाभाविक राजनीति नहीं कर रही है। बल्कि वह इन मुद्दों को हवा देकर ऐसा वोट आधार तैयार कर रही है, जो आखिरकार इस राजनीति के स्वाभाविक वारिस के पास चला जाएगा। बहुसंख्यकवाद की इस राजनीति को संतुलित करने की कोशिश में जब राजीव गांधी सरकार ने शाह बानो मामले में मुस्लिम कट्टरपंथ के सामने समर्पण किया, तो इससे इस बात का रास्ता साफ हो गया।
भाजपा ने छद्म धर्मनिपरेक्षता को एक मुद्दे के रूप में उठाया, तो लोगों को इसमें दम नजर आया। जब धर्मनिरपेक्षता को एक राजनीतिक मूल्य के रूप में देश में स्थापित करने में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली कांग्रेस खुलेआम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के कार्ड खेलती दिख रही थी, तब लोग यह सुनने को सहज तैयार थे कि धर्मनिरपेक्षता कुछ और नहीं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति की एक चाल है। इस माहौल में भाजपा के लिए अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण और हिंदुओं से भेदभाव की बात को हिंदुओं के बड़े हिस्से, खासकर मध्य वर्ग के मन में बैठा देना आसान था। इमरजेंसी कांग्रेस की लोकतांत्रिक साख को पहले ही प्रभावित कर चुकी थी। राजीव गांधी और फिर पीवी नरसिंह राव के जमाने में ऊंचे स्तरों पर लगे भ्रष्टाचार के दाग ने कांग्रेस के विकल्प की तलाश के लिए लोगों की बेचैनी और बढ़ा दी थी।
जनता दल जैसी मध्यमार्गी पार्टियों में जब तक विकल्प की संभावना नजर आई, लोगों ने उन्हें आजमाया। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की नाकामी ने मध्यमार्गी दलों की छवि खराब कर दी। भाजपा से सहयोग के पिछले रिकॉर्ड से धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर उनकी साख पहले ही प्रभावित हो चुकी थी। ऐसे में भाजपा बड़ी आसानी से इन तमाम दलों को छद्म धर्मनिरपेक्ष जमात के रूप में पेश करने में सफल रही। मध्य वर्ग का समर्थन मिलने का लाभ यह हुआ कि मीडिया और दूसरे सार्वजनिक मंचों पर भाजपा और उसकी विचारधारा को स्वीकृति मिलती गई। साथ ही इससे भाजपा को स्वाभाविक विकल्प और सबसे अलग पार्टी के रूप में पेश करने के लिए चतुराई से तैयार किए गए प्रचार अभियान को भी ताकत मिली। इस अभियान में भाजपा की शायद सबसे बड़ी थाती थे, उसके दो नेता- अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी। दो ऐसे नेता, जिसे तब की तमाम पीढ़ियां दशकों से जानती थीं और इमरजेंसी के बाद हुए जनता पार्टी जैसे प्रयोग ने जिन्हें राष्ट्रीय छवि प्रदान कर दी थी।
इसी पृष्ठभूमि ने १९९० के दशक के उत्तरार्द्ध में भाजपा को देश की प्रमुख राजनीतिक धुरी बना दिया। गैर-कांग्रेसवाद उस वक्त तक एक मजबूत रुझान था, जिसकी वजह से भाजपा को एक विशाल गठबंधन बनाने में मदद मिली। इस परिघटना से भाजपा को सत्ता मिली। लेकिन उसके छह साल के शासनकाल के अनुभव ने देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण की दूसरी परिघटनाएं शुरू कर दीं। प्रशासन में चौतरफा नाकामी, आम आदमी विरोधी आर्थिक नीतियों, भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे क्षेत्र में देश को निर्णायक नेतृत्व दे पाने में विफलता, आदि ने भाजपा के दावों की हकीकत से देश को वाकिफ करा दिया। उग्र हिंदुत्ववादी राजनीति से इन तमाम विफलताओं को नहीं ढका जा सकता था। इस दौर ने १९६० के दशक से भारतीय राजनीति में चले आ रहे गैर-कांग्रेसवाद को अप्रासंगिक कर दिया। नतीजतन समाज के वंचित तबकों, अल्पसंख्यकों और प्रगतिशील समूहों में एक अदृश्य गठबंधन बना और २००४ के आम चुनाव में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई।
उसके बाद से कांग्रेस ने अपना पुनरुद्धार किया है। पार्टी ने आम आदमी से अपने तार जोड़ने की फिर कोशिश की है। वह अगर धर्मनिरपेक्षता के पक्ष बेलाग ढंग से खड़ी नहीं हुई है, तो कम से कम उसने पहले जैसे समझौते भी नहीं किए हैं। दरअसल, कांग्रेस अपनी सोशल डेमोक्रिटिक (सामाजिक जनतांत्रिक) पहचान को वापस पाने की गंभीर कोशिश करती दिखी है। साथ ही सर्वोच्च नेतृत्व के स्तर पर अपनी अपेक्षाकृत बेहतर साख एवं बेहतरीन तालमेल से सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की जोड़ी लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रही है। इससे कांग्रेस भले पहले जैसी सर्वव्यापी पार्टी के रूप में न उभरी हो, लेकिन वह राजनीति की ऐसी मजबूत धुरी जरूर बन गई है, जो एक स्थिर सरकार का नेतृत्व कर सके।
दूसरी तरफ भाजपा केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद से लगातार भ्रमों और आपसी झगड़े का शिकार दिखी है। हिंदुत्व की राजनीति उसके लिए फायदेमंद है या नहीं, २००९ के आम चुनाव के बाद से उसके भीतर यह बुनियादी सवाल खड़ा हो गया है। यह सवाल भी एक गहरे आत्मनिरीक्षण के बजाय नेताओं द्वारा एक दूसरे पर हमला बोलने के मकसद से ज्यादा उठाया गया है। बहरहाल, यह तो तय है कि भाजपा हिंदुत्व की राजनीति से नहीं हट सकती। अगर वह ऐसा करती है, तो उसके सामने सचमुच अस्तिव का संकट खड़ा हो सकता है। यही पार्टी के सामने सबसे बड़ी दुविधा है। जो राजनीति अभी वह कर रही है, वह एक सीमित दायरे के बाहर के लोगों को खींच नहीं पा रही है। अगर यह राजनीति वह छोड़ती है, तो जो लोग साथ हैं, उनके भी साथ छोड़ जाने की आशंका है।
सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की जोड़ी मध्य वर्ग की कल्पनाओं को बेहतर ढंग से अपनी तरफ खींच रही है। इससे भाजपा का वह आधार खिसक रहा है, जो कांग्रेस में नेतृत्व के संकट से उसकी तरफ आया था। असल में अब नेतृत्व का संकट भाजपा के सामने है। अटल-आडवाणी की जोड़ी के बाद अखिल भारतीय छवि का कोई नेता पार्टी के पास नहीं है। ऐसा नेता, जिसे पीढ़ियां जानती रही हों और मतभेदों के बावजूद बतौर नेता जिसकी सहज स्वीकृति बन जाए। पार्टी के पास फिलहाल ऐसा युवा नेता भी नजर नहीं आता, जो अपने और पार्टी के प्रति देश के एक बड़े तबके में नया जोश पैदा कर पाए। बराक ओबामा जैसे नेता की बात छोड़िए, पार्टी के पास क्या आज कोई ऐसी सोनिया गांधी जैसी नेता भी है, जिसकी छवि के साथ त्याग, व्यापक हित और सार्वजनिक मर्यादा जैसी बातें जुड़ी हुई हों?
आतंकवाद जैसे मुद्दे पर भी अगर लोग भाजपा से ज्यादा कांग्रेस पर भरोसा कर रहे हों, तो भाजपा के सामने कितने मुश्किल सवाल हैं, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जिन राजनीतिक परिस्थितियों में भाजपा का उभार हुआ, उनके फिर से पैदा होने की फिलहाल कम ही संभावनाएं नजर आती हैं। साफ है कि कांग्रेस ने अपनी पिछली गलतियों से सबक लिया है। देश के मतदाताओं ने भाजपा के छह साल के शासन से सबक लिया है। वे अब कांग्रेस को सजा देने के उतावलेपन में भाजपा को गले लगाने की गलती फिर से शायद ही करें। इन परिघटनाओं से देश का राजनीतिक विमर्श बदल गया है। आज लोग अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसी बातों से उद्वेलित नहीं हो रहे हैं। बल्कि अब आम जन की रोजमर्रा की समस्याएं और विकास एवं प्रगति से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय एजेंडे पर ऊपर हो गए हैं।
ऐसे में अर्थशास्त्र में जिसे डिमिनिशिंग रिटर्न (यानी घटते मुनाफे) का सिद्धांत कहा जाता है, वह भाजपा के प्रिय मुद्दों पर लागू होते साफ तौर पर दिखा है। यानी जैसे काठ की हाड़ी बार-बार नहीं चढ़ती, वैसा ही भाजपा के उठाए मुद्दों के साथ अब हो रहा है। तो अब सवाल है कि भाजपा कहां से और कौन से नए मुद्दे लाए? अगर भाजपा के पास सबको लुभाने वाला कोई राजनीतिक प्लैटफॉर्म है और उसके पास आम जन के मन में भरोसा पैदा करने वाले नेता नहीं हैं, तो पार्टी देश की प्रमुख राजनीतिक धुरी फिर से बनने की बात आखिर कैसे सोच सकती है? अगर पार्टी नेता इन सवालों का जवाब ढूंढ कर नहीं ला सके, तो चिंतन बैठक एक विफल प्रयास ही माना जाएगा।
Wednesday, August 19, 2009
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2 comments:
क्या बात है भाई बहुत खूब!
बहुत उम्दा !
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