सत्येंद्र रंजन
मायावती बनाम रीता बहुगुणा जोशी के विवाद महज नेताओं की खराब होती जुबान का मुद्दा बन कर रह गया, जबकि इससे कई बेहद अहम सामाजिक और राजनीतिक सवाल जुड़े थे। इस मामले में खासकर उत्तर प्रदेश में सियासी गर्द खूब उड़ी, लेकिन इससे देश की राजनीतिक संस्कृति की जो सूरत सामने आई, उस पर गंभीर एवं व्यापक बहस का अभाव ही दिखा। अब जबकि सियासी गर्द कुछ ढल हो चुकी है, यह बहस छेड़े जाने की जरूरत है, क्योंकि इसका संबंध अपने समाज में स्त्री की हालत एवं हैसियत से है। साथ ही इसका रिश्ता अपनी राजनीति के उभरे स्वरूप से है। इस प्रकरण ने एक बार फिर यह सवाल शिद्दत से उठाया है कि क्या भारत की मौजूदा संसदीय राजनीति प्रगति एवं सकारात्मक परिवर्तन की उत्प्रेरक पहलू रह गई है या यह अब सांस्कृतिक पिछड़ेपन और सामंती मूल्यों को मजबूत करने का एजेंट बन गई है।
रीता बहुगुणा जोशी ने जो कहा वह सिर्फ मायावती का अपमान नहीं था। बल्कि उनके उस बयान से एक गहरी बैठी सामाजिक मानसिकता जाहिर हुई। यह वो मानसिकता है, जिसमें स्त्री को एक स्वतंत्र व्यक्ति नहीं, बल्कि घर-परिवार की इज्जत का पैमाना माना जाता है और स्त्री की इज्जत यौन-शुचिता से जुड़ी मानी जाती है। सामंती समाजों में सदियों तक स्त्री के यौन व्यक्तित्व (सेक्सुएलिटी) पर जबरन सामाजिक नियंत्रण रखा गया है। बलात्कार ऐसे नियंत्रण की ही सबसे क्रूर कोशिश है। बलात्कारियों पर किए गए अनेक मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों का यह निष्कर्ष रहा है कि बलात्कार अक्सर यौन संतुष्टि के लिए नहीं किया जाता। बल्कि यह ताकत को जताने के लिए किया जाता है। यह जताने के लिए कि जिंदगी में स्त्री के पास चयन की स्वतंत्रता नहीं है।
इसके साथ ही बलात्कार के पीछे यह सोच भी रहती है कि इसके जरिए महिला की पूरी जिंदगी बर्बाद की जा सकती है। चूंकि इसके लिए यौन शुचिता भंग कर दी जाती है, तो इसका मतलब हुआ कि स्त्री की इज्जत हमेशा के लिए खत्म कर दी जाती है। यह एक ऐसा कलंक है, जिसके साथ किसी बलात्कार पीड़ित महिला को जीवन भर जीना पड़ता है। रीता बहुगुणा ने जब बेहद फूहड़ ढंग से बलात्कार के बदले मायावती को एक करोड़ रुपए मुआवजा देने की बात कही तो दरअसल उनकी जुबान से यही मानसिकता बोल रही थी। इससे उनकी यह सोच जाहिर हो रही थी कि बलात्कार पीड़ित महिलाओं को आर्थिक सहायता देना बेमतलब है, क्योंकि इससे उनकी लुट गई इज्जत वापस नहीं आ सकती।
आज इस सोच को चुनौती दिए जाने की जरूरत है। मोटे तौर पर आज भी जमीनी स्तर पर भारतीय समाज की सोच रीता बहुगुणा जैसी ही है। ऐसे में बलात्कार पीड़ित महिलाओं के लिए सदमे से निकल कर अपनी जिंदगी फिर से संभाल पाना बेहद मुश्किल बना रहता है। वे बिना किसी अपने दोष के ऐसे जघन्य अपराध का शिकार हो गई होती हैं, जिससे उनका पूरा परिवार कलंकित मान लिया जाता है। ऐसे में आर्थिक मदद निश्चित रूप से ऐसी सहायता है, जिससे उनके संभलने की लेकिन एक छोटी, लेकिन महत्त्वपूर्ण संभावना पैदा होती है। मायावती सरकार ने अगर बलात्कार पीड़ितों को ऐसी मदद दी है तो रीता बहुगुणा से यह अपेक्षित था कि वे इसकी तारीफ करतीं और इसके बाद कानून-व्यवस्था का सवाल उठाते हुए राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा करतीं। लेकिन ऐसा कोई नेता या व्यक्ति तभी कर सकता है, जब वह वैचारिक मंथन या सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता के किसी सचेत प्रयास से गुजरा हो।
रीता बहुगुणा बनाम मायावती के मामले से यही सामने आया कि अधिकांश भारतीय नेता और राजनीतिक पार्टियां आज ऐसी जागरूकता का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। कांग्रेस पार्टी कभी भारत में उदार मूल्यों की वाहक और आधुनिकता की शक्ति थी। लेकिन आज वह किस वैचारिक धारा की नुमाइंदगी करती है, इसे समझ पाना मुश्किल है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी से लेकर पार्टी के औपचारिक बयानों में महज यह कोशिश दिखी कि रीता बहुगुणा जोशी के बयान से खुद को अलग दिखाया जाए, लेकिन साथ ही उस बयान के बाद हुई हिंसा की आड़ लेकर मायावती पर उसी जोश से जवाबी हमला बोल दिया जाए। पार्टी से यह न्यूनतम अपेक्षा थी कि वह रीता बहुगुणा को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा कर इस सामंती सोच को सार्वजनिक रूप से अस्वीकार करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
एक पार्टी जिसकी अध्यक्ष एक महिला हो और जिसके भावी नेता का दावा देश के नौजवानों को नेतृत्त्व देने का हो, यह मामला उस पर एक गहरी नकारात्मक टिप्पणी है। अगर यह पार्टी महिलाओं को इंसान से कम स्तर देने वाली सोच, सांस्कृतिक पिछ़ड़ेपन और सामंती मूल्यों के खिलाफ खुलकर सामने नहीं आ सकती, तो आखिर वह किस मुंह से प्रगतिशीलता और आधुनिकता की शक्ति होने का दावा कर सकती है? भारतीय जनता पार्टी के नेता जब रूढिवादी विचारों की वकालत करते हैं, और महिला के चयन की आजादी एवं यौन-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता को नकारते हैं, तो यह बात आसानी से समझ में आती है, क्योंकि भाजपा ऐसी ही पुरातन सोच की प्रतिनिधि ताकत है। मगर कांग्रेस जब ऐसा करती दिखती है या ऐसे अहम सवालों पर टाल-मटोल वाला रुख अख्तियार करती दिखती है, तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि वह अपने इतिहास और पूर्वज नेताओं नेताओं की विरासत को नकार रही है।
अक्सर पर बलात्कार की घटनाएं सामने आने पर भाजपा नेताओं और समाज के प्रतिक्रियावादी हलकों से बलात्कारियों को मौत की सजा देने की मांग उठाई जाती है। कोशिश यह संदेश देने की होती है कि ये लोग बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को स्वीकार करने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं और इसके लिए कठोरतम सजा का प्रावधान चाहते हैं। लेकिन यह सोच यह नहीं समझ पाती कि ज्यादातर मामलों में बलात्कारियों को सजा प्रचलित सामाजिक मानसिकता की वजह से नहीं मिल पाती है। पहली बात तो यह कि बलात्कार होने पर पीड़ित महिला के घर-परिवार की तरफ से पहली कोशिश इस पर परदा डालने की होती है। इसलिए बहुत सी घटनाएं बिना पुलिस में दर्ज हुए ही रह जाती हैं। जो मामले दर्ज होते हैं, उनमें भी पी़ड़ित महिला सदमे से बाहर आकर पूरा वाक्या बयान नहीं कर पाती। इसमें ऐसी खामियां छूट जाती हैं, जिनका फायदा उठाकर अपराधी अदालती प्रक्रिया के दौरान बच निकलते हैं। पुलिस और वकीलों का नजरिया पीड़ित के मन पर प्रहार करने वाला ही होता है।
जब समस्या दोष साबित करने में हो तो फिर सजा का प्रावधान चाहे जो कर लिया जाए, उससे क्या फर्क पड़ जाएगा? इसलिए समस्या कानून की किताब में सजा का प्रावधान नहीं, बल्कि स्त्रियों के बारे में वह सामाजिक नजरिया है, जो आज तक पुलिस से लेकर अदालतों और परिवार से लेकर राजनीति तक पर हावी है। जरूरत इस नजरिए को चुनौती दिए जाने की है। जरूरत बलात्कार को लेकर बनी कलंक की धारणा को चुनौती देने की है। समाज के सामने इस बात को हिम्मत से कहने की आवश्यकता है कि बलात्कार से कोई महिला कलंकित नहीं हो जाती। जबरन यौन शुचिता भंग कर दिए जाने का मतलब यह नहीं है कि पी़ड़ित महिला समाज में दोबारा इज्जत के साथ खड़ी नहीं हो सकती या वह अपने जीवन को फिर से संभाल नहीं सकती। बलात्कार से अगर कोई कलंकित होता है, वह इस अपराध को अंजाम देने वाला पुरुष है, जो मानव सभ्यता के विकासक्रम के इस स्तर पर आकर भी महिला की चयन की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करता।
सवाल है कि अगर किसी के घर में डाका पड़ जाए या किसी के साथ धोखाधड़ी हो जाए तो क्या यह पीड़ित व्यक्ति के लिए शर्मिंदगी की बात है? ऐसे में बलात्कार को इसकी शिकार महिला पर दाग क्यों माना जाता है? और दूसरे अपराधों के शिकार लोगों के लिए जैसे सरकार से आर्थिक एवं अन्य प्रकार की मदद की अपेक्षा की जाती है, अगर वैसी ही मदद बलात्कार पीड़ित महिला को दी जा रही हो, तो इस पर एतराज क्यों जताया जाना चाहिए? महिला भी एक संपूर्ण इंसान है। उसका व्यक्तित्व भी उसकी सोच, उसके विचारों, उसकी चेतना के स्तर, और उसकी अंतरात्मा की उद्दात्तता से बनता है। अपनी मानसिक और शारीरिक क्षमताओं से वह समाज में अपने लिए जगह बनाती है (या बना सकती है)। वह अपने यौन-व्यक्तित्व को खुद नियंत्रित करने और आजादी से उसे जीने में सक्षम है। अगर हम इस समझ को मानते हों, तो यह बेहिचक कह सकते हैं कि महिला पर हुआ यौन हमला उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को खंडित नहीं कर सकता।
लेकिन अपने समाज पर सामंती अवशेषों का असर इतना गहरा है कि यह साधारण सी समझ एक बेगानी बात मालूम पड़ती है। न सिर्फ सांप्रदायिक राजनीतिक दल, बल्कि मध्यमार्गी पार्टियां भी अपने विचारों में रूढ़िवाद से इतनी ग्रस्त हैं कि वे मानव मुक्ति का आधुनिक एजेंडा समाज के सामने नहीं रख पातीं। या फिर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ बोलने से वे इतनी डरती हैं कि अपने तमाम बयानों को घिसे-पिटे सांस्कृतिक मूल्यों के दायरे में ही समेटे रहती हैं। मसलन, हम मायावती को ही ले सकते हैं। वे देश की सबसे बड़ी दलित नेता हैं और भले अब सर्वजन की बात कर रही हों, लेकिन अब भी मुख्य रूप से उनका आधार बहुजन समाज ही है। यह समाज आधुनिक राजनीति के उपकरणों के जरिए सदियों की दमन और शोषण से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहा है। इसके बावजूद यह देख कर हैरत होती है कि रीता बहुगुणा के बयान को स्त्री की आजादी का मुद्दा बनाने के बजाय उन्होंने इसे दलित बनाम सवर्ण मुद्दा बनाने की कोशिश की। इस मुद्दे की बारीकी में वे भी नहीं जाना चाहतीं, इस बात की मिसाल उनकी यह घोषणा है कि अगर बहुजन समाज पार्टी केंद्र की सत्ता में आई तो बलात्कार के लिए मौत की सजा का प्रावधान कर दिया जाएगा।
साफ है कि वामपंथी दलों को छोड़ कर आज भारत में कोई ऐसी राजनीतिक ताकत नहीं है जो सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों में रूढ़ियों और पुरातन मान्यताओं को खुली चुनौती देने की हिम्मत दिखा सके। ऐसी कोई ताकत नहीं है जो अपराध और उसकी मानसिकता की समाजशास्त्रीय समझ देश के सामने पेश करे और सजा के बारे में उदार एवं आधुनिक नजरिए की सार्वजनिक रूप से वकालत करे। क्या कांग्रेस समेत कोई मध्यमार्गी दल या क्षेत्रीय एवं शोषित जातियों की नुमाइंदगी का दावा करने वाली पार्टी यह सवाल उठा सकने की स्थिति में है कि आखिर देश में मौत की सजा का प्रावधान रहना ही क्यों चाहिए? इससे आज तक दुनिया में कहीं भी कोई अपराध नहीं रोका जा सका। यह दरअसल, बदले की भावना पर आधारित अमानवीय सजा है, जिससे अपराध की मानसिकता बदलने में कोई मदद नहीं मिलती।
बलात्कार दरअसल तब रुकेंगे, जब बलात्कार की मानसिकता को चुनौती दी जाएगी। भारतीय समाज में अभी वैवाहिक रिश्तों के भीतर मौजूद बलात्कार की प्रवृत्ति का सवाल नहीं उठाया गया है। चूंकि परंपरागत सोच में पत्नी पर पति का मालिकाना सहज रूप से मान लिया जाता है, इसलिए यह सवाल बहुत से लोगों को अटपटा लग सकता है। लेकिन स्त्री के यौन-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता का हनन चाहे विवाह के भीतर हो या बाहर, एक ही जैसी सोच काम कर रही होती है। इस सोच के खिलाफ अभियान चलाए जाने की जरूरत है।
Wednesday, August 19, 2009
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राहुल गाँधी जब भी एक देश में दो देश का फर्क मिटाने की बात करते हैं, मुझे न जाने क्यों एक पाकिस्तानी पत्रकार दोस्त का सुनाया किस्सा याद आ जाता है. एक बार एक दीन-हीन किसान सूखे की मार से गाँव में परेशान हो गया. खाने तक के लाले हो गए तो किसी सयाने ने शहर जाकर मजदूरी करने की सलाह दी. बेचारा शहर आ गया. शरीर पर पहनने को सिर्फ एक लंगोटी थी. शहर में पहुँचते ही उसने एक बड़ी सी मिल देखी, नाम था अब्दुल्ला राइस मिल. थोडी दूर और चला तो दिखाई दिया अब्दुल्ला कोल्ड स्टोर. फिर आगे चला तो देखा- अब्दुल्ला काम्प्लेक्स. पचास कदम बाद फिर आलीशान कोठी- अब्दुल्ला महल. तब तक चौपला आ गया था. किसान ने वहां ठंडी सी सांस भरी और अपनी लंगोटी भी उतार कर हवा में उछाल दी, साथ ही आसमान में देखते हुए कहा- जब तूने देना ही सब अब्दुल्ला को है, तो यह भी अब्दुल्ला को ही दे दे.
@खुशदीप सहगल जी
अमीर और सफल लोग जो कि अपनी मेहनत और काबिलियत के दम पर यहाँ तक पहुँचे हैं उन्हे सिर्फ बेवकूफी भरे समाजवाद की दुहाई दे कर खलनायक नहीं बनाना चाहिए। ज्यादातर ऐसे खलनायक बिलकुल तिनके से उठ कर अपनी काबिलियत और सोच के बल इस मुकाम तक पहुँचे हैं और यही इस देश को चलाने के लिए अपनी मेहनत से कमाये गये पैसे का बड़ा हिस्सा विभिन्न करों के रूप में देते हैं जिसके बहुत थोड़े हिस्से का उपयोग हमारी समाजवादी सरकारें गरीबों के कल्याण के लिए करती हैं। अब्दुल्ला और उस किसान के बीच फर्क सिर्फ इतना है कि उस किसान ने अपनी सारी असफलताओं का दोष भगवान पर मढ़ते हुए अपनी आखिरी पूँजी भी हवा में उड़ा दी पर शुरुआर से ही अब्दुल्ला अपनी आखिरी पूँजी पर चतुराई पूर्ण दाँव लगा कर यहाँ तक पहुँच गये। अमीरों और गरीबों के बीच की खाई को पाटने के लिए अमीरों लूट कर गरीब बना देने की राबिनहुड सरीकी सोच ही बिलकुल गलत है। ऐसा करने से न तो देश का कल्याण हो सकता है और न ही गरीबों का।
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