Saturday, May 30, 2009
जनादेश और कांग्रेस की समझ
सत्येंद्र रंजन
कांग्रेस ने २००९ के जनादेश का मतलब किस रूप में समझा है, इसका कुछ अंदाजा मनमोहन सिंह की नई मंत्रिपरिषद को देख कर लगता है। मंत्रिपरिषद में कांग्रेस की राजनीतिक जरूरतों का ख्याल जरूर रखा गया है, लेकिन कुल मिला कर इस पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सोच और शैली की छाप है। सभ्रांत वर्ग की ‘काम’, ‘गुणवत्ता’ और ‘योग्यता’ की धारणाएं मंत्रियों के चयन में संभवतः सबसे निर्णायक पहलू रही हैं। नौकरशाही से आए, या विदेशों में पढ़े-लिखे, नफ़ासत पसंद, विशेष हित समूहों के नुमाइंदे और अभिजात्य छवि वाली शख्सियतें नई मंत्रिपरिषद में सबसे ज्यादा नजर आती हैं। जबकि देसी, ग्रामीण और आदिवासी जैसी जीवन शैलियों की झलक इसमें ढूंढने पर ही शायद कहीं नजर आ पाए।
कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां कांग्रेस की हार हुई, उन्हें अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व और आंध्र प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को, जिनकी वजह से कांग्रेस की जीत इतनी बड़ी नजर आती है, कम नुमाइंदगी मिलना, सियासी कसौटियों पर समझ पाना मुश्किल है। यही बात मुसलमानों और दूसरे वंचित तबकों को मिली नुमाइंदगी पर भी लागू होती है। बहरहाल, आम तौर पर कही जाने वाली इस बात को अगर मान लिया जाए कि मंत्रिमंडल का गठन प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है, तब भी चुने गए चेहरों से सत्ताधारी दल की सोच और मंसूबों का अनुमान जरूर लगाया जा सकता है।
सबसे ज्यादा हैरत सहयोगी दलों के प्रति कांग्रेस के नजरिए को देखकर होती है। स्पष्ट है कि धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की एकता का नारा कांग्रेस ने झटके से छोड़ दिया। सहयोगी दलों के प्रति उसका नजरिया उन्हें नजरअंदाज करने से लेकर उन्हें अपमानित करने तक का नजर आता है। लोकसभा में अपनी सीटों की संख्या २०० से ऊपर जाते ही कांग्रेस नेताओं ने यह फ़ॉर्मूला पेश कर दिया कि नई सरकार में सिर्फ कांग्रेस से चुनाव पूर्व सहयोगी दलों को ही शामिल किया जाएगा। इसके बावजूद झारखंड मुक्ति मोर्चा और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट को शामिल नहीं किया गया है। क्या इसलिए कि उनके नेताओं में वैसी सभ्रांतता नहीं है, जिसकी प्रधानमंत्री अपेक्षा रखते हैं?
चुनाव नतीजे आने से पहले तक कांग्रेस नेता सार्वजनिक तौर पर कहते थे कि राष्ट्रीय जनता दल यूपीए में है, भले उससे इस बार चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं हुआ हो। तब उन्हें अंदाजा था कि नतीजे ऐसे आएंगे कि बहुमत जुटाने के लिए एक-एक सीट की मारामारी होगी। इसलिए तब धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वे सभी संभावित सहयोगियों को खुश रखने की कोशिश में थे। लेकिन यूपीए की सीटों की संख्या २६० के पार जाते ही यह नजरिया बदल गया। इससे कांग्रेस पर लगने वाला यह आरोप गहरा ही हुआ है कि उसके लिए गठबंधन सिर्फ एक मजबूरी है। यह देश में उभर रही नई राजनीतिक परिस्थितियों की समझ के आधार पर धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील धारा को मजबूत करने की किसी निष्ठा का यह परिणाम नहीं है।
चुनाव परिणाम के सारे आंकड़े आ जाने के बाद अब यह साफ है कि क्षेत्रीय दलों के वोट हिस्से में कोई गिरावट नहीं आई है। बल्कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के साझा वोटों में १.३ फीसदी की गिरावट आई है। ये दोनों पार्टियां राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को अपने बीच समेट कर दो दलीय व्यवस्था कायम करने का सपना देखती हैं। ताजा चुनाव परिणामों से सरसरी पर तौर पर ऐसा आभास हुआ कि देश की राज्य-व्यवस्था उस दिशा में बढी है, लेकिन चुनावी आंकड़ों से जाहिर होता है कि हकीकत ऐसी नहीं है। ऐसे में गठबंधन और संभावित सहयोगियों की अनदेखी अल्पदृष्टि ही हो सकती है।
कांग्रेस के प्रवक्ताओं के मुताबिक नई मंत्रिपरिषद का गठन निरंतरता और स्थिरता की नीति को अपनाते हुए किया गया है। लेकिन यह निरंतरता उन मंत्रालयों में ज्यादा नजर आती है, जिनका वास्ता संभावित आर्थिक सुधारों और बड़े आर्थिक हितों से है। मसलन, राज्यसभा के सदस्य मुरली देवड़ा पेट्रोलियम मंत्रालय में लौट आए हैं। लेकिन ग्रामीण विकास जैसे मंत्रालय में इसकी जरूरत नहीं समझी गई, जबकि कभी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना को सरकारी धन की बर्बादी बताने वाला कॉरपोरेट मीडिया भी चुनाव नतीजों के आने के बाद से इसे कांग्रेस को मिली कामयाबी की एक बड़ी वजह बता रहा है। क्या रघुवंश प्रसाद सिंह को इस मंत्रालय में वापस लाना निरंतरता और स्थिरता की नीति का हिस्सा नहीं होता? आखिर इस योजना को मिली सीमित कामयाबी में इसके लिए सिंह के उत्साह की भी एक भूमिका थी। लेकिन सिंह आरजेडी के नेता हैं, जिसे चुनावी हार के बाद कांग्रेस नेता उसकी हैसियत बताना चाहते हैं, तो उस मंत्रालय में अब एक नया चेहरा है।
लोकसभा चुनाव के नतीजों के विश्लेषण से यह साफ है कि यूपीए को सकारात्मक समर्थन जरूर मिला, लेकिन उसकी जीत कुछ दूसरी वजहों से भी संभव हुई। मसलन, आंध्र प्रदेश में चिरंजीवी की प्रजा राज्यम पार्टी के १५.७ फीसदी वोट हासिल कर लेने से कांग्रेस की राह आसान हुई, तो तमिलनाडु में विजयकांत की डीएमडीके ने डीएमके नेतृत्व वाले मोर्चे से नाराज बहुत से लोगों को अपनी तरफ खींच कर उसे बचा लिया। उत्तर प्रदेश ने हैरतअंगेज नतीजे दिए, जिसकी किसी को अपेक्षा नहीं थी। अगर इन तीन राज्यों से अप्रत्याशित नतीजे नहीं आए होते तो कांग्रेस संभवतः गठबंधन धर्म की अलग व्याख्या करती सुनी जाती। यह बात यूपीए की जीत की अहमियत कम करके बताने की नहीं कही जा रही है। यह सिर्फ इस बात पर जोर देने के लिए है कि देश की राजनीतिक हकीकत बहुत नहीं बदली है, इसलिए गठबंधन की राजनीति का जीवनकाल लंबा है। इस बात की उपेक्षा कर कांग्रेस सिर्फ अपनी नासमझी का परिचय दे रही है। छोटे और क्षेत्रीय दलों के प्रति उसका मौजूदा नजरिया एक बार फिर से गैर-कांग्रेसवाद की परिघटना को बल प्रदान कर सकता है, जिसका आकर्षण पिछले पांच से सात साल में काफी घट गया है।
देश के लाखों मतदाताओं के लिए कांग्रेस की सबसे बड़ी प्रासंगिकता यही है कि संघ परिवार के सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ वह एक ताकत है। भाजपा की लोकप्रियता में स्पष्ट गिरावट के बावजूद आज भी यह बात पूरे भरोसे के साथ नहीं कही जा सकती कि सांप्रदायिक ताकतें फिर से सिर नहीं उठा सकेंगी। लाखों की मतदाताओं की इस चिंता का लाभ भी हाल के चुनाव में कांग्रेस को मिला। लेकिन उन मतदाताओं की चिंता का कांग्रेस ख्याल और सम्मान कर रही है, चुनाव बाद की घटनाओं को देखते हुए ऐसा कहना मुश्किल लगता है।
Thursday, May 28, 2009
न्यायपालिका सबसे ऊपर है?
सत्येंद्र रंजन
क्या जजों को अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक रूप से देना चाहिए? यह सवाल अगर राजनेताओं या नौकरशाहों के बारे में पूछा जाए, तो हर क्षेत्र से इसका एक ही जवाब आएगा- हां। खुद न्यायपालिका भी यही राय जताएगी। लेकिन जब बात न्यायाधीशों की आती है तो न्यायपालिका एक अलग और विचित्र किस्म की प्रतिक्रिया दिखाती नजर आती है। अपने मामले में वह सूचना के अधिकार कानून के पक्ष में नहीं है।
मद्रास हाई कोर्ट के कैंपस में वकीलों और पुलिस के बीच भिड़ंत हुई। हिंसा पर वकील भी उतरे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सारा ठीकरा पुलिस के सिर फोड़ दिया। यहां तक कि वकीलों ने काम पर लौटने की खुद सुप्रीम कोर्ट की अपील की भी अवहेलना कर दी। लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख आरंभ में नरम ही रहा। बाद में जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा की रिपोर्ट के बाद न्यायपालिका के रुख में कुछ संतुलन आया। मगर मद्रास हाई कोर्ट प्रशासन के प्रति वकीलों की तुलना में ज्यादा सख्त बना रहा। ये और ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो न्यायपालिका के खुद को सबसे ऊपर मानने के संकेत देते हैं। प्रश्न है कि क्या यह लोकतंत्र के हित में है?
कुछ समय पहले दिल्ली के अखबार मिड डे के मामले में न्यायपालिका और मीडिया आमने-सामने आए। मिड डे के दो पत्रकारों, एक कार्टूनिस्ट और प्रकाशक को कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराया गया। मसला दिल्ली में सीलिंग संबंधी सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के फैसलों का था जिसके एक सदस्य पूर्व प्रधान न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल थे। आरोप यह है कि इन फैसलों से न्यायमूर्ति सब्बरवाल के बेटों को फायदा पहुंचा, जो उनके सरकारी निवास में रहते हुए अपना कारोबार चला रहे थे। हाई कोर्ट ने इस संबंध में मिड डे अखबार में छपी रिपोर्ट की सच्चाई पर गौर करने के बजाय अखबार को सुप्रीम कोर्ट की नीयत पर शक करने का दोषी ठहरा दिया।
यह पहला मामला नहीं था, जब न्यायपालिका ने उसे आईना दिखाने की कोशिश पर ऐसा रुख अख्तियार किया हो। उसके कुछ ही समय पहले ज़ी न्यूज चैनल के पत्रकार को खुद सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के ही मामले में माफी मांगने का आदेश दिया। उस पत्रकार का दोष यह था कि उसने गुजरात की निचली अदालतों में जारी भ्रष्टाचार का खुलासा करने के लिए स्टिंग ऑपरेशन किया। वहां पैसा देकर राष्ट्रपति और खुद तब के सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ उसने वारंट जारी करवा दिए।
उसी दौर में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय सुनाया कि किसी न्यायिक अधिकारी के गलत फैसला देने पर उसके खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती, न ही उसे सजा दी जा सकती है। यह मामला उत्तर प्रदेश के एक ऐसे न्यायिक अधिकारी के मामले में आया, जिस पर घूस लेने का आरोप लगा था। इसकी जांच कराई गई। इसके आधार पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस न्यायिक अधिकारी की दो वेतनवृद्धि रोकने और पदावनति करने की सजा सुनाई। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ इस फैसले को खारिज कर दिया, बल्कि हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने वाले न्यायिक अधिकारी को जिला जज के रूप में नियुक्त करने और उसके खिलाफ कार्यवाही की अवधि के सभी वेतन -भत्तों का भुगतान करने का आदेश भी दिया। (द हिंदू, १९ अप्रैल २००७)
इसके पहले हाई कोर्टों में दो जजों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति की आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया। इनमें न्यायमूर्ति एसएल भयाना के खिलाफ जेसिका लाल हत्याकांड में दिल्ली हाई कोर्ट ने कड़ी टिप्पणियां की थीं। उधर न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला पर रिलायंस एनर्जी को लाभ पहुंचाने का आरोप था। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम से इन दोनों की तरक्की पर पुनर्विचार करने की अपील की थी। लेकिन जजों के इस समूह यानी कॉलेजियम ने इन आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए न्यायमूर्ति भयाना को दिल्ली हाई कोर्ट का जज नियुक्त कर दिया। न्यायमूर्ति भल्ला को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया।
इन फैसलों ने अवमानना संबंधी कानून और लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की जिम्मेदारी और भूमिकाओं पर नई बहस खड़ी की। जहां तक नियुक्तियों में कार्यपालिका के आगे न झुकने की बात है तो इसे सामान्य स्थितियों में इसे एक स्वस्थ परिघटना माना जाता। तीन दशक पहले जब कार्यपालिका सर्वशक्तिमान दिखाई देती थी और सरकार जजों की नियुक्ति अपनी सुविधा से करती थी, उस समय न्यायिक स्वतंत्रता की ऐसी मांग देश में पुरजोर तरीके से उठी थी। लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि न्यायपालिका में अपनी स्वतंत्रता जताने के साथ-साथ राज्य-व्यवस्था के दूसरे समकक्ष अंगों के कार्य और अधिकार क्षेत्र में दखल देने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। इसे न्यायिक सक्रियता का नाम दिया गया है। यानी ऐसी सक्रियता जो दूसरे अंगों में मौजूद बुराइयों और लापरवाहियों को दूर करने के लिए एक मुहिम के रूप में शुरू की गई है।
जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार और जन समस्याओं के प्रति उनके उदासीन रवैये पर जज अक्सर कड़ी फटकार लगाते हैं, जिसे मीडिया में खूब जगह मिलती रही है। जज कानून के साथ-साथ अक्सर नैतिकता को भी परिभाषित करते सुने गए हैं। इसका एक लाभ यह हुआ कि शासन के विभिन्न अंगों के उत्तरदायित्व को लेकर जनता के बड़े हिस्से में जागरूकता पैदा हुई है। इससे सार्वजनिक जीवन में आचरण की कुछ कसौटियां आम लोगों के दिमाग में कायम हुई हैं। यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग उन कसौटियों को न्यायपालिका पर भी लागू करना चाहें। आखिर लोकतंत्र की आम धारणा और अपनी संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका भी जनता की एक सेवक है। उसके सुपरिभाषित कार्य और अधिकार क्षेत्र हैं। लोगों को यह अपेक्षा रहती है कि शासन का हर अंग अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए अपने इन कर्त्तव्यों का सही ढंग से पालन करे। साथ ही जब सार्वजनिक आचरण की अपेक्षाओं को खुद न्यायपालिका ने काफी ऊंचा कर दिया है, तो उस कसौटी पर खुद वह भी खरी उतरे।
गौरतलब है कि केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता और न्यायिक सक्रियता एक ही दौर की परिघटनाएं हैं। १९९० के दशक में भारतीय समाज एक बड़ी उथल पुथल से गुजरा। एक तरफ बढ़ती आकांक्षा से कमजोर तबके सामाजिक न्याय के लिए गोलबंद हुए, तो दूसरी तरफ उसकी प्रतिक्रिया में शासक समूहों ने उग्र दक्षिणपंथी रुख अख्तियार किया। इस टकराव का एक परिणाम राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आया। किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना लगातार दूर की संभावना बनता गया। ऐसे में केंद्र में कमजोर सरकारों का दौर आया, और संसद में बिखराव ज्यादा नजर आने लगा। नतीजा यह हुआ कि शासन व्यवस्था के इन दोनों अंगों के लिए अपने अधिकार को जताना लगातार मुश्किल होता गया। ऐसे दौर में न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने भी अपनी नई भूमिका बनाई। इस दौर में राजनेताओं की अकुशलता और शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार ज्यादा खुलकर सामने आने लगे, जिससे आम जन में विरोध और नाराजगी का गहरा भाव पैदा हुआ। ऐसे में जब न्यायपालिका ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती बरती या शासन के आम कार्यों में दखल देना शुरू किया तो मोटे तौर पर लोगों ने उसका स्वागत किया।
यह बात ध्यान में रखने की है कि न्यायपालिका इसलिए लोगों का समर्थन पा सकी क्यों कि आम तौर पर उसकी एक अच्छी छवि लोगों के मन में मौजूद रही है। अगर यह छवि मैली होती है तो फिर न्यायपालिका वैसे ही जन समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकती। वह छवि बनी रहे, इसके लिए अंग्रेजी की यह कहावत शायद मार्गदर्शक हो सकती है कि सीज़र की पत्नी को शक के दायरे से ऊपर होना चाहिए। यह विचारणीय है कि क्या हर हाल में, न्यायपालिका के हर हिस्से का बचाव ऐसी छवि को बनाए रखने में सहायक हो सकता है?
यहां हम इस बात को नहीं भूल सकते कि न्यायिक सक्रियता के इसी दौर में न्यायपालिका की वर्गीय प्राथमिकताओं पर बहस तेज होती जा रही है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की तरफ से कराए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष रहा है कि न्यायपालिका ने प्रगतिशील फैसलों और जन हित याचिकाओं पर सशक्त पहल के दौर को अब पलट दिया है और उसने जन विरोधी लबादा ओढ़ लिया है। इस अध्ययन में कहा गया- हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों ने कई जन विरोधी फैसले दिए हैं। इनसे उनकी प्राथमिकताओं में पूरा बदलाव जाहिर हुआ है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। (डीएनए, १६ अप्रैल, २००७) शायद इससे कड़ी आलोचना और कोई नहीं हो सकती।
बौद्धिक क्षेत्र में न्यायपालिका की इन प्राथमिकताओं को भारतीय लोकतंत्र में चल रहे विभिन्न हितों के व्यापक संघर्षों की पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। दरअसल, जिस दौर में न्यायिक सक्रियता शुरू हुई, उसी दौर में राजनीतिक सत्ता के ढांचे में बदलाव की ऐतिहासिक प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी है। सदियों से दबाकर रखे गए समूहों ने लोकतंत्र की आधुनिक व्यवस्था के तहत मिले मौकों का फायदा उठाते हुए अपनी राजनीतिक शक्ति विकसित की और यह शक्ति आज किसकी सरकार बनेगी, यह तय करने में काफी हद तक निर्णायक हो गई है। एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के जिस सिद्धांत को भारतीय संविधान में अपनाया गया, उसका असली असर दिखने में कुछ दशक जरूर लगे, लेकिन उससे एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हुई, जिसने भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल दिया है। राज सत्ता पर बढ़ते अधिकार के साथ अब ये समूह सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी अपने लिए अधिकार और विशेष अवसरों की मांग कर रहे हैं। जाहिर है, जिनका सदियों से इन संसाधनों पर वर्चस्व है, वो आसानी से समझौता करने को तैयार नहीं हैं।
राजनीतिक रूप से लगातार कमजोर पड़ते जाने के बाद इन तबकों की आखिरी उम्मीद अब कुछ संवैधानिक संस्थाओं से जोड़ी है। इसलिए कि इन संस्थाओं में आम तौर पर अभिजात्य वर्गों के लोग ही आते हैं और उनका अपना नजरिया भी यथास्थितिवादी होता है। सार्वजनिक नीतियों के मामले में न्यायपालिका के अगर पिछले एक दशक के रुझान पर नजर डाली जाए तो इस वर्गीय नजरिए की वहां काफी झलक देखी जा सकती है। यह रुझान मोटे तौर पर ऐसा रहा है-
मजदूर और वंचित समूहों के अधिकारों को न्यायिक फैसलों से संकुचित करने की कोशिश की गई है। बंद और आम हड़़ताल को गैर कानूनी ठहरा दिया गया है। पांच साल पहले तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारियों के मामले में तो यह फैसला दे दिया गया कि कर्मचारियों को हड़ताल का अधिकार ही नहीं है। इस तरह मजदूर तबके ने लंबी लड़ाई से सामूहिक सौदेबाजी का जो अधिकार हासिल किया, उसे कलम की एक नोक से खत्म कर देने की कोशिश हुई। कर्मचारियों और मजदूरों के प्रबंधन से निजी विवादों के मामले में लगभग यह साफ कर दिया गया है कि मजदूरों को कोई अधिकार नहीं है, प्रबंधन कार्य स्थितियों को अपने ढंग से तय कर सकता है। अगर इसके साथ ही विस्थापन, विकास और पूंजीवादी परियोजनाओं के मुद्दों को जोड़ा जाए तो देखा जा सकता है कि कैसे न्यायपालिका के फैसले से मौजूदा शासक समूहों के हित में गए हैं।
अब अगर सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर गौर करें तो कई संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से न सिर्फ लोकतंत्र को सीमित करने बल्कि कई मौकों पर लोकतंत्र के रोलबैक की कोशिश होती हुई भी नजर आती है। इसकी एक बड़ी मिसाल शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का मामला है। वरिष्ठ वकील एमपी राजू ने इस आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाए जाने के बाद लेख में लिखा- यह फैसला काफी हद तक प्रतिगामी भेदभाव (रिवर्स डिस्क्रिमिनेसन) के अमेरिकी सिद्धांत पर आधारित है। ये सिद्धांत यह है कि विशेष सुविधाएं देने के लिए जो वर्गीकरण किया जाएगा, उससे उन वर्गों से बाहर रह गए तबकों को नुकसान नहीं होना चाहिए। आरक्षण के प्रकरण में इसका मतलब है कि अगड़ी जातियों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इससे यह सवाल जरूर उठा कि क्या न्यायपालिका ऊंची जातियों और अभिजात्य वर्गों के हित रक्षक की भूमिका में सामने आ रही है? और क्या संसद और सरकारों के प्रति उसका कड़ा, कई बार इन अंगों के प्रति अपमानजनक सा लगने वाला उसका नजरिया असल में इसलिए ऐसा है कि लोकतंत्र के इन अंगों में कमजोर वर्गों का अब निर्णायक प्रतिनिधित्व होने लगा है?
इन सवालों पर न्यायपालिका से जुड़े अंगों और व्यापक रूप से पूरे देश में आज जरूर बहस होनी चाहिए। आधुनिक लोकतंत्र स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सर्वमान्य मूल्यों और शक्तियों के पृथक्करण के बुनियादी सिद्धांत पर टिका हुआ है। इसमें कोई असंतुलन पूरी व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकता है। आजादी के बाद शुरुआती दशकों में कार्यपालिका के वर्चस्व और केंद्र की प्रभुता की वजह से कई विसंगतियां पैदा हुईं, जिससे देश के कई हिस्सों में राजनीतिक हिंसा की स्थितियां और अलगाव की भावना पैदा हुई। विकेंद्रीकरण और आम जन की लोकतांत्रिक अपेक्षाओं को प्रतिनिधित्व देने वाली नई शक्तियों के उभार से वह असंतुलन काफी हद तक दूर होता नजर आया है। लेकिन इस नए दौर में न्यायपालिका का रुख नई चिंताएं पैदा करता गया है।
अनावश्यक दखल?
अदालतों के अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर दखल देने की बढ़ती की शिकायत के बीच पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एके माथुर और मार्कंडेय काटजू ने जजों को उनकी संवैधानिक सीमा की याद दिलाई। दोनों जजों ने यह बेलाग शब्दों में कहा कि अगर कोई काम सरकारें नहीं कर पातीं, तो उनका हल यह नहीं है कि न्यायपालिका संसद और सरकारों का काम अपने हाथ में ले ले, क्योंकि इससे न सिर्फ संविधान से तय शक्तियों का नाजुक संतुलन बिगड़ जाएगा, बल्कि न्यायपालिका के पास न तो इन कार्यों को अंजाम देने की महारत है और न ही उसके पास इसके लिए जरूरी संसाधन हैं। न्यायमूर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू ने न्यायपालिका के अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर दखल की कई मिसालें अपने एक फैसले में गिनाईं और जजों को सलाह दी कि वो अपनी सीमाओं को समझें एवं सरकार चलाने की कोशिश न करें। उन्होंने कहा कि जजों में विनम्रता होनी चाहिए और उन्हें सम्राटों जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। संभवतः न्यायिक सक्रियता या अदालतों के अपनी हद लांघने की शिकायत पर इससे कड़ी टिप्पणी कोई और नहीं हो सकती।
इन टिप्पणियों के साथ सुप्रीम कोर्ट की इस खंडपीठ ने राज्य-व्यवस्था के तीनों अंगों के बीच शक्तियों के संतुलन को लेकर चल रही बहस को एक नया आयाम दिया। लेकिन वह फैसला आने के दो दिन बाद ही प्रधान न्यायाधीश केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली एक बेंच ने यह कह कर कि अदालत दो जजों की टिप्पणियों से बंधी हुई नहीं है, इस फैसले को बेअसर करने की कोशिश की। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर उभरी दो तरह की राय को इस बात की मिसाल ही मान गया कि मौजूदा समय में भारतीय लोकतंत्र से जुडी एक अहम बहस लगातार तीखी होती जा रही है और इस सवाल पर न्यायपालिका भी एकमत नहीं है।
न्यायमुर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू की टिप्पणियों के पीछे एक लंबी पृष्ठभूमि है। इस संदर्भ में यह गौरतलब है कि जन हित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायपालिका ने खासकर १९८० के दशक से अपनी एक नई भूमिका बनाई। इसी से न्यायिक सक्रियता की उत्पत्ति हुई। इस परिघटना के समर्थक समूहों का कहना है कि न्यायिक सक्रियता के जरिए अदालतों ने कमजोर और गरीब तबकों के हित में दखल दिया और सरकारों को जवाबदेह बनाया।
लेकिन अगर हम पिछले ढाई दशकों में भारतीय न्यायपालिका के इतिहास पर समग्र रूप से विचार करें तो यह कथन एक अर्धसत्य नजर आता है। अदालतों ने जन हित याचिकाओं पर बंधुआ मजदूरी जैसे कई मामलों में जरूर ऐसे फैसले दिए, जिन्हें प्रगतिशील कहा जा सकता है। लेकिन ऐसी ही याचिकाओं पर अदालतों ने बंद को असंवैधानिक, एवं हड़ताल को गैर कानूनी घोषित करने और नौकरी संबंधी कई स्थितियों में मजदूरों के हितों के खिलाफ फैसले भी दिए। १९९० के बाद जैसे-जैसे नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां शासन व्यवस्था का हिस्सा बनती गईं, न्यायपालिका के ऐसे फैसलों का सिलसिला बढ़ता गया, जिनसे मजदूर एवं कर्मचारी तबकों के लिए व्यक्तिगत या सामूहिक सौदेबाजी मुश्किल होती गई। पर्यावरण रक्षा की अभिजात्यवादी समझ को न्यायिक समर्थन मिलता गया, जिससे हजारों परिवार उजड़ गए। विकास परियोजनाओं से विस्थापित हुए समूह अदालती चिंता के दायरे से बाहर होते गए।
साथ ही अदालतें सार्वजनिक नीतियों में खुलेआम दखल देने लगीं। मिसाल के तौर पर, असम में लागू गैर कानूनी आव्रजक (ट्रिब्यूनल से निर्धारण) कानून को रद्द करने से लेकर आंध्र प्रदेश में अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के सरकारी फैसलों पर न्यायपालिका का रुख समाज में मौजूद एक खास ढंग के पूर्वाग्रह को मजबूत करने वाला रहा है। शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के प्रस्ताव पर पहले रोक लगा कर और फिर शर्तों के साथ उसे हरी झंडी देकर सुप्रीम कोर्ट ने संसद के अधिकार क्षेत्र में दखल दिया। गौरतलब है कि इस आरक्षण के लिए पास कानून पर सभी दलों में सहमति की दुर्लभ मिसाल देखने को मिली थी। ऐसी मिसाल दिल्ली में अवैध निर्माणों की सीलिंग रोकने के संदर्भ में भी देखने को मिली थी। लेकिन संसद में आम सहमति से पास वह कानून भी सुप्रीम कोर्ट की कसौटी पर खरा नहीं उतरा।
इससे सवाल यह उठा कि जब कोई ऐसी सार्वजनिक नीति बने, जिस पर देश की जनता की नुमाइंदगी करने वाले सभी दल एकमत हों, तो उस पर रोक लगाकर आखिर अदालत किसके हित की रक्षा करती है? गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट संविधान की नौवीं अनुसूची को असंवैधानिक ठहरा चुका है, जिसके जरिए संसद उन फैसलों को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखती थी, जिन पर आम सहमति होती थी, लेकिन जिन्हें संवैधानिक प्रावधानों, अनुच्छेद और धाराओं की यांत्रिक न्यायिक व्याख्या से रद्द किए जाने की आशंका होती थी। न्यायपालिका अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाते हुए यह फैसला दे चुकी है कि संसद का कोई भी कानून या संविधान संशोधन अब न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं है। अगर अदालत समझती है कि उस कानून या संशोधन से किसी के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन होता है तो उसे वह रद्द कर देगी।
इस तरह संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा को स्थापित करने के बाद बुनियादी अधिकारों को आधार बनाते हुए न्यायपालिका ने शासन व्यवस्था के भीतर खुद के सर्वोच्च होने की स्थिति बना ली है। जाहिर है, यह नई स्थिति भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप नहीं है। दरअसल, अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम और फ्रांस की क्रांति के दौरान शासन के जिन मूल्यों का विकास हुआ और जिन्हें लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के रूप में अपनाया गया, यह उसके भी खिलाफ है। शक्तियों के अलगाव, राज्य-व्यवस्था के अंगों के बीच अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्था, और जन भावना की सर्वोच्चता के इन मूल्यों के बिना कोई भी लोकतंत्र महज एक ढांचा ही हो सकता है, वह वास्तविक लोकतंत्र नहीं हो सकता।
आरक्षण का सवाल
पिछले साल अन्य पिछड़ी जातियों के लिए ऊंचे सरकारी शिक्षा संस्थानों में सत्ताइस फीसदी आरक्षण को संविधान सम्मत ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विधायिका और न्यायपालिका में एक बड़े टकराव की आशंका टल गई। लेकिन हकीकत यही है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सामाजिक न्याय की समर्थक शक्तियों की महज आधी जीत ही थी, क्योंकि इस आरक्षण के लागू होने के रास्ते में उस न्यायिक फैसले ने कई अड़चनें भी खडी कर दीं। यह रास्ता क्रीमी लेयर की अवधारणा पर कोर्ट के काफी जोर देने तथा जजों की कई टिप्पणियों से खासा संकरा हो गया। कोर्ट ने न सिर्फ क्रीमी लेयर को आरक्षण के फायदे से बाहर रखने का निर्देश दिया, बल्कि यह व्यवस्था भी दे दी कि अगर आरक्षित सीटें अन्य पिछड़ी जातियों के गैर क्रीमी लेयर उम्मीदवारों से नहीं भरती हैं तो वे सीटें सामान्य श्रेणी के छात्रों के भरी जाएं। पांच जजों ने चार अलग-अलग फैसले सुनाए और इनमें से एक फैसले में यह भी कहा गया कि आम छात्रों से दस फीसदी कम नंबर लाने वाले छात्रों तक ही आरक्षण का लाभ सीमित रहे। क्रीमी लेयर की चर्चा करते हुए एक आदेश यह दिया गया कि मौजूदा और पूर्व सांसदों एवं विधायकों की संतानों को इसमें शामिल किया जाए, ताकि उन्हें आरक्षण का फायदा नहीं मिल सके।
देश की सामाजिक हकीकत से वाकिफ कोई व्यक्ति यह आसानी से समझ सकता है कि जिन शर्तों के साथ आरक्षण को हरी झंडी दी गई, उनके रहते इस आरक्षण के मकसद को कभी हासिल नहीं किया जा सकता। यहां गौरतलब है कि मौजूदा फैसला इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में १९९३ में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के रोशनी में आया। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएच कीनिया की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने उस फैसले में मंडल आयोग की सिफारिशों के मुताबिक केंद्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए सत्ताइस फीसदी आरक्षण को सही ठहराया था। लेकिन उसके साथ ही क्रीमी लेयर की अवधारणा भी उससे जोड़ दी थी।
तब सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की अवधारणा को इस आधार पर संविधान सम्मत बताया था कि संविधान में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की बात कही गई है, न कि पिछड़ी जातियों को। कोर्ट ने मंडल आयोग के इस निष्कर्ष को माना था कि भारतीय समाज में जाति सामाजिक हैसियत और आर्थिक हालत का एक पैमाना है, लेकिन यह स्वीकार नहीं किया कि एक जाति के सभी लोग इस पैमाने के तहत आते हैं। कोर्ट का कहना था कि जाति, आर्थिक हैसियत और शैक्षिक स्थिति को एक साथ लेते हुए वे वर्ग तय किए जा सकते हैं, जिन्हें आरक्षण का फायदा मिले।
आरक्षण का फायदा उत्तरोत्तर ज्यादा गरीब और वंचित तबकों को मिले, इस पर किसी को कोई एतराज नहीं हो सकता। लेकिन मुश्किल इस व्यवस्था से है कि अगर इन तबकों से आरक्षित सीटें नहीं भर पाती हैं तो फिर उन सीटों को सामान्य श्रेणी के छात्रों से भर दिया जाए। यह व्यवस्था आरक्षण के उद्देश्य को विफल कर देती है। सवाल है कि अगर पिछड़ी जातियों के क्रीमी लेयर के छात्र उन सीटों पर नहीं आएंगे तो वे सीटें ऊंची जातियों के क्रीमी लेयर जैसी हैसियत वाले छात्रों को क्यों मिलनी चाहिए? साथ ही इस चर्चा में आरक्षण से जुड़ी एक बेहद अहम बात नजरअंदाज कर दी गई है कि आरक्षण कोई गरीबी हटाओ कार्यक्रम नहीं है। इसका मकसद निर्णय की प्रक्रिया में उन सभी समूहों और जातियों की नुमाइंदगी सुनिश्चित करना है, जो सदियों से जाति व्यवस्था के कठोर कायदों की वजह से इससे वंचित रहे हैं। इसलिए यह व्यवस्था तो ठीक है कि आरक्षण का लाभ देने में प्राथमिकता आर्थिक आधार पर तय हो, लेकिन इसे अंतिम शर्त बना देना आरक्षण की मूल धारणा पर प्रहार है।
दरअसल, ऊंची शिक्षा में ओबीसी आरक्षण के बारे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐसी टिप्पणियों से भरा हुआ है, जो आरक्षण का पक्ष लेने के बजाय आरक्षण पर सवाल खड़ा करती लगती हैं। १९५१ में संविधान में पहला संशोधन सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को संभव बनाने के लिए किया गया था। इस संशोधन के जरिए संविधान के अनुच्छेद १५ में चौथी धारा जोड़ी गई थी। अनुच्छेद १५ (४) के जरिए सरकार को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों अथवा अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जन जातियों की तरक्की के लिए कदम उठाने का अधिकार दिया गया। पिछले साल आए फैसले में न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी ने इस कदम के उद्देश्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया। उन्होंने टिप्पणी की कि यह व्यवस्था करते समय पहली संसद संविधान निर्माताओं के उद्देश्य से भटक गई। उसने ऐसा संशोधन पास किया, जिससे जातिवाद कमजोर होने के बजाय मजबूत हुआ। जाहिर है, न्यायपालिका की एक धारा आरक्षण जैसे कदमों के साथ खुद को सहज महसूस नहीं कर रही है। वह न्याय, समानता और संवैधानिक मूल्यों के बारे में समाज के परंपरागत प्रभु वर्ग की सोच के ज्यादा करीब नज़र आती है।
अगर भारतीय लोकतंत्र के विकासक्रम में न्यायपालिका के रुख पर गौर करें तो यह कोई नई बात नहीं है। न्यायपालिका ने १९६० के दशक में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रीवी पर्स को खत्म करने के सरकार और संसद के फैसले को असंवैधानिक बता दिया था। उसके पहले भूमि सुधारों को लागू करने की सरकार की कोशिश भी न्यायिक हस्तक्षेप से बाधित होती रही, जिसकी वजह को संसद को संविधान में नौवीं अनुसूची की व्यवस्था करनी पड़ी, जिसे २००७ में सुप्रीम कोर्ट ने निष्प्रभावी कर दिया। ये तमाम फैसले धनी और सामाजिक वर्चस्व रखने वाले समूहों के हित में रहे हैं।
लेकिन बात सिर्फ भारत की नहीं है। अगर अमेरिकी इतिहास पर गौर करें तो वहां भी ऐसे न्यायिक फैसलों की कोई कमी नहीं है। १८६५ में अमेरिकी संविधान में १३वें संशोधन के जरिए गुलामी प्रथा को खत्म किया गया और १९६८ में १४वें संशोधन के जरिए सभी नागरिकों के लिए कानून के समान संरक्षण की व्यवस्था की गई। ये दौर था जब अश्वेत समुदायों के साथ खुलेआम भेदभाव किया जाता था और उन्हें उन स्कूलों में दाखिला नहीं मिलता था, जिनमें गोरे बच्चे पढ़ते थे। अश्वेत समुदायों को गोरों से अलग रखने की नीतियों को समान संरक्षण कानून के तहत जब १८९८ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि ये नीतियां इस कानून का उल्लंघन नहीं करतीं। १८९० के दशक के मध्य में ही अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आय कर को असंवैधानिक घोषित करते हुए धनी तबकों को बड़ी राहत दी थी। १९३० के दशक में जब भारी मंदी के दौर में तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलीन डी रूजवेल्ट ने न्यू डील कार्यक्रम के तहत वित्तीय क्षेत्र पर लगाम कसने और कमजोर तबकों को राहत पहुंचाने की कोशिश की, तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया।
लोकतांत्रिक विकास के क्रम में न्यायपालिका की ऐसी भूमिका को आज समझे जाने की बेहद जरूरत है। जानकार मानते हैं कि न्यायपालिका के ऐसे रुझान की वजह उसकी अंदरूनी संरचना से जुड़ी होती है। यहां आम तौर पर समाज के प्रभु वर्ग के लोग पहुंचते हैं और उसी तबके की सोच से उनका मनोविज्ञान प्रभावित रहता है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के दौर में संविधान पर अमल की समीक्षा के लिए बने आयोग की यह टिप्पणी गौरतलब है- उच्चतर न्यायपालिका में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व नाकाफी है। विभिन्न हाई कोर्टों के ६१० जजों में सिर्फ २० जज ही अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के हैं। (तब के आंकड़े)
दरअसल, हर क्षेत्र में ऐसी हालत की वजह से आरक्षण की नीति अपनानी पड़ी। आरक्षण का असली मकसद हर क्षेत्र में ऐसे ही वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी करना है। इसके बिना लोकतंत्र महज एक औपचारिक ढांचा ही बना हुआ है।
सेतु समुद्रम का मामला
२००७ में तमिलनाडु सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति बीएन अग्रवाल की टिप्पणियों ने आखिरकार विभिन्न राजनीतिक दलों को न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका एवं विधायिका के अधिकार क्षेत्र के अतिक्रमण के सवाल पर बोलने को मजबूर कर दिया। तब सेतु समुद्रम मुद्दे पर आयोजित तमिलनाडु बंद को सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक करार दिए जाने के बाद मुख्यमंत्री मुतुवेल करुणानिधि और उनकी सहयोगी पार्टियों ने भूख हड़ताल पर बैठने का फैसला किया। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी कर दी कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने का आदेश दे सकता है। इस पर पूर्व कानून मंत्री और वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट अपनी हदों से बाहर जा रहा है और इसे रोकने का नैतिक साहस केंद्र सरकार नहीं दिखा पा रही है।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट द्वारा बंद पर प्रतिबंध लगा देने से एक बार फिर कुछ बुनियादी सवाल सार्वजनिक चर्चा में आए। सुप्रीम कोर्ट ने १९९८ में बंद और आम हड़ताल को असंवैधानिक ठहरा दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला केरल हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के बाद दिया था। केरल हाई कोर्ट ने राज्य के चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की याचिका पर सुनवाई करते हुए बंद और आम हड़ताल पर रोक लगा दी थी। हाई कोर्ट ने यह फैसला भी दिया था कि बंद के दौरान होने वाले सार्वजनिक या निजी संपत्ति के किसी नुकसान की भरपाई बंद की अपील करने वाले संगठन को करनी होगी। यहां यह गौरतलब है कि यह फैसला बड़े व्यापारियों और उद्योगपतियों की याचिका पर दिया गया। यानी उन तबकों की याचिका पर जिनका हित सीधे तौर पर मेहनतकश तबकों और आम जन के अधिकारों पर नियंत्रण लगाने से जुड़ा है।
अदालत की दलील है कि आम लोगों का अधिकार बंद आयोजित करने के पार्टियों के अधिकार से बड़ा है। लेकिन सवाल है कि आखिर वे आम लोग कौन हैं? लोकतांत्रिक विमर्श में बंद और आम हड़ताल को आम तौर पर उन तबकों का हथियार माना जाता है, जिनकी बात इस व्यवस्था में नहीं सुनी जाती। या फिर यह राजनीतिक दलों या संगठनों का अपने कार्यक्रम और नीतियों पर जनमत बनाने का एक माध्यम माना जाता है। ऐसी कार्रवाइयों से जनता की राजनीतिक चेतना में विस्तार होता है, इससे वह अपने अधिकारों के लिए जागरूक होती है और इससे राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में वे मुद्दे सामने आते हैं, जो आम राजनीतिक गतिविधियों की वजह से सामने नहीं आ पाते। अगर बंद और आम हड़ताल पर प्रतिबंध होता, या उस प्रतिबंध का उल्लंघन नहीं किया गया होता तो देश का स्वतंत्रता आंदोलन कभी व्यापक जन आंदोलन नहीं बन पाता। न ही आजादी के बाद सदियों से दबा कर रखे गए समूहों में लोकतांत्रिक चेतना का विस्तार हो पाता।
स्पष्ट है, न्यायपालिका अपनी ऐसी सक्रियता से बड़े राजनीतिक सवाल खड़े कर रही है, जिन पर अब गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है। लोकतंत्र के उत्तरोत्तर आगे बढ़ने की प्रक्रिया बाधित न हो, इसके लिए जरूरी है कि संसद और सरकारों के अधिकार क्षेत्र उन्हें वापस मिलें। इसके लिए ये कदम फौरन उठाए जाने की जरूरत हैं-
१- संसद को संविधान के बुनियादी ढांचे पर चर्चा की शुरुआत करनी चाहिए। यह संसद को तय करना चाहिए कि संविधान का बुनियादी ढांचा क्या है, जिसमें संशोधन नहीं हो सकता। साथ ही पहल के उस दायरे को भी तय किया जाना चाहिए जो सबको समान अवसर देने की संवैधानिक वचनबद्धता को पूरा करने के लिए जरूरी है। इस दायरे को न्यायिक समीक्षा से ऊपर कर दिया जाना चाहिए और इस तरह संविधान की नौवीं अनुसूची की प्रासंगिकता फिर से बहाल की जानी चाहिए।
२- कोर्ट द्वारा नियुक्ति मोनिटरिंग कमेटियों के दखल को सिरे से नकार दिया जाना चाहिए। ये कमेटिया कार्यपालिका के काम को बिना आम जन के प्रति संवेदनशील हुए अंजाम देती रही हैं, जिससे लाखों लोगों, खासकर कमजोर तबकों के लोगों के लिए मुश्किलें पैदा हुई है। दिल्ली में सीलिंग से जुडी मोनिटरिंग कमेटी इसकी सबसे उम्दा मिसाल है। यह लोकतंत्र में कैसे मुमकिन है कि जो कानून संसद में सभी दलों की सहमति से बना हो, उसे कोर्ट खारिज कर दे और किसी मोनिटरिंग कमेटी को निर्वाचित सरकार या नगर निगम से ज्यादा शक्तिशाली बना दे?
३- संसद को कानून बनाकर, या जरूरत हो तो संविधान संशोधन कर शांतिपूर्ण बंद और आम हड़ताल को विरोध जताने के बुनियादी और वैध अधिकार के रूप में मान्यता देनी चाहिए। इस तरह १९९८ के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी कर देना चाहिए।
४- न्यायपालिका की अवमानना का प्रावधान लचीला बना दिया जाना चाहिए। जैसाकि एक बार न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने सुझाव दिया था कि अवमानना की कार्यवाही सिर्फ तभी चलनी चाहिए जब कोई न्याय प्रक्रिया में भौतिक रूप से बाधा डाले। न्यायिक फैसलों और आम तौर पर न्यायपालिका की आलोचना पर अवमानना का कानून लागू नहीं होना चाहिए। कुछ समय पहले न्यायपालिका के अवमानना कानून में संशोधन किया गया था। उसके तहत सत्य को ऐसे मामलों में अतिमहत्त्वपूर्ण बचाव (डिफेंस) के रूप में स्वीकार किया गया। लेकिन इस मामले में अंतिम फैसले का अधिकार अब भी अदालतों के ही पास है। यह बात अब हर विकसित समाज में मानी जाती है कि अवमानना की व्यवस्था राजतंत्र के जमाने की बात है, जब इंसाफ राजा करते थे और यह माना जाता था कि राजा कोई गलती कर ही नहीं सकता। राजा के इंसाफ पर कोई सवाल न उठाए, इसलिए अवमानना के कानून की व्यवस्था की गई थी। लेकिन लोकतांत्रिक संदर्भ में न्यायपालिका भी जनता की सेवक है और ऐसे में इस तरह के कानून की कोई प्रासंगिकता नहीं है। अगर जनता मालिक है तो वह अपने हर सेवक के कामकाज की समीक्षा और आलोचना कर सकती है, और न्यायपालिका भी इससे परे नहीं है।
अगर यह पहल की जा सके तो संवैधानिक लोकतंत्र का संतुलन फिर से बहाल हो सकता है। आजादी के बाद भारत अपने नियति से मिलन की जिस यात्रा पर चला था, वह यात्रा सफल हो, इसके लिए यह जरूरी है।
क्या जजों को अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक रूप से देना चाहिए? यह सवाल अगर राजनेताओं या नौकरशाहों के बारे में पूछा जाए, तो हर क्षेत्र से इसका एक ही जवाब आएगा- हां। खुद न्यायपालिका भी यही राय जताएगी। लेकिन जब बात न्यायाधीशों की आती है तो न्यायपालिका एक अलग और विचित्र किस्म की प्रतिक्रिया दिखाती नजर आती है। अपने मामले में वह सूचना के अधिकार कानून के पक्ष में नहीं है।
मद्रास हाई कोर्ट के कैंपस में वकीलों और पुलिस के बीच भिड़ंत हुई। हिंसा पर वकील भी उतरे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सारा ठीकरा पुलिस के सिर फोड़ दिया। यहां तक कि वकीलों ने काम पर लौटने की खुद सुप्रीम कोर्ट की अपील की भी अवहेलना कर दी। लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख आरंभ में नरम ही रहा। बाद में जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा की रिपोर्ट के बाद न्यायपालिका के रुख में कुछ संतुलन आया। मगर मद्रास हाई कोर्ट प्रशासन के प्रति वकीलों की तुलना में ज्यादा सख्त बना रहा। ये और ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो न्यायपालिका के खुद को सबसे ऊपर मानने के संकेत देते हैं। प्रश्न है कि क्या यह लोकतंत्र के हित में है?
कुछ समय पहले दिल्ली के अखबार मिड डे के मामले में न्यायपालिका और मीडिया आमने-सामने आए। मिड डे के दो पत्रकारों, एक कार्टूनिस्ट और प्रकाशक को कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराया गया। मसला दिल्ली में सीलिंग संबंधी सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के फैसलों का था जिसके एक सदस्य पूर्व प्रधान न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल थे। आरोप यह है कि इन फैसलों से न्यायमूर्ति सब्बरवाल के बेटों को फायदा पहुंचा, जो उनके सरकारी निवास में रहते हुए अपना कारोबार चला रहे थे। हाई कोर्ट ने इस संबंध में मिड डे अखबार में छपी रिपोर्ट की सच्चाई पर गौर करने के बजाय अखबार को सुप्रीम कोर्ट की नीयत पर शक करने का दोषी ठहरा दिया।
यह पहला मामला नहीं था, जब न्यायपालिका ने उसे आईना दिखाने की कोशिश पर ऐसा रुख अख्तियार किया हो। उसके कुछ ही समय पहले ज़ी न्यूज चैनल के पत्रकार को खुद सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के ही मामले में माफी मांगने का आदेश दिया। उस पत्रकार का दोष यह था कि उसने गुजरात की निचली अदालतों में जारी भ्रष्टाचार का खुलासा करने के लिए स्टिंग ऑपरेशन किया। वहां पैसा देकर राष्ट्रपति और खुद तब के सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ उसने वारंट जारी करवा दिए।
उसी दौर में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय सुनाया कि किसी न्यायिक अधिकारी के गलत फैसला देने पर उसके खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती, न ही उसे सजा दी जा सकती है। यह मामला उत्तर प्रदेश के एक ऐसे न्यायिक अधिकारी के मामले में आया, जिस पर घूस लेने का आरोप लगा था। इसकी जांच कराई गई। इसके आधार पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस न्यायिक अधिकारी की दो वेतनवृद्धि रोकने और पदावनति करने की सजा सुनाई। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ इस फैसले को खारिज कर दिया, बल्कि हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने वाले न्यायिक अधिकारी को जिला जज के रूप में नियुक्त करने और उसके खिलाफ कार्यवाही की अवधि के सभी वेतन -भत्तों का भुगतान करने का आदेश भी दिया। (द हिंदू, १९ अप्रैल २००७)
इसके पहले हाई कोर्टों में दो जजों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति की आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया। इनमें न्यायमूर्ति एसएल भयाना के खिलाफ जेसिका लाल हत्याकांड में दिल्ली हाई कोर्ट ने कड़ी टिप्पणियां की थीं। उधर न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला पर रिलायंस एनर्जी को लाभ पहुंचाने का आरोप था। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम से इन दोनों की तरक्की पर पुनर्विचार करने की अपील की थी। लेकिन जजों के इस समूह यानी कॉलेजियम ने इन आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए न्यायमूर्ति भयाना को दिल्ली हाई कोर्ट का जज नियुक्त कर दिया। न्यायमूर्ति भल्ला को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया।
इन फैसलों ने अवमानना संबंधी कानून और लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की जिम्मेदारी और भूमिकाओं पर नई बहस खड़ी की। जहां तक नियुक्तियों में कार्यपालिका के आगे न झुकने की बात है तो इसे सामान्य स्थितियों में इसे एक स्वस्थ परिघटना माना जाता। तीन दशक पहले जब कार्यपालिका सर्वशक्तिमान दिखाई देती थी और सरकार जजों की नियुक्ति अपनी सुविधा से करती थी, उस समय न्यायिक स्वतंत्रता की ऐसी मांग देश में पुरजोर तरीके से उठी थी। लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि न्यायपालिका में अपनी स्वतंत्रता जताने के साथ-साथ राज्य-व्यवस्था के दूसरे समकक्ष अंगों के कार्य और अधिकार क्षेत्र में दखल देने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। इसे न्यायिक सक्रियता का नाम दिया गया है। यानी ऐसी सक्रियता जो दूसरे अंगों में मौजूद बुराइयों और लापरवाहियों को दूर करने के लिए एक मुहिम के रूप में शुरू की गई है।
जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार और जन समस्याओं के प्रति उनके उदासीन रवैये पर जज अक्सर कड़ी फटकार लगाते हैं, जिसे मीडिया में खूब जगह मिलती रही है। जज कानून के साथ-साथ अक्सर नैतिकता को भी परिभाषित करते सुने गए हैं। इसका एक लाभ यह हुआ कि शासन के विभिन्न अंगों के उत्तरदायित्व को लेकर जनता के बड़े हिस्से में जागरूकता पैदा हुई है। इससे सार्वजनिक जीवन में आचरण की कुछ कसौटियां आम लोगों के दिमाग में कायम हुई हैं। यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग उन कसौटियों को न्यायपालिका पर भी लागू करना चाहें। आखिर लोकतंत्र की आम धारणा और अपनी संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका भी जनता की एक सेवक है। उसके सुपरिभाषित कार्य और अधिकार क्षेत्र हैं। लोगों को यह अपेक्षा रहती है कि शासन का हर अंग अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए अपने इन कर्त्तव्यों का सही ढंग से पालन करे। साथ ही जब सार्वजनिक आचरण की अपेक्षाओं को खुद न्यायपालिका ने काफी ऊंचा कर दिया है, तो उस कसौटी पर खुद वह भी खरी उतरे।
गौरतलब है कि केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता और न्यायिक सक्रियता एक ही दौर की परिघटनाएं हैं। १९९० के दशक में भारतीय समाज एक बड़ी उथल पुथल से गुजरा। एक तरफ बढ़ती आकांक्षा से कमजोर तबके सामाजिक न्याय के लिए गोलबंद हुए, तो दूसरी तरफ उसकी प्रतिक्रिया में शासक समूहों ने उग्र दक्षिणपंथी रुख अख्तियार किया। इस टकराव का एक परिणाम राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आया। किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना लगातार दूर की संभावना बनता गया। ऐसे में केंद्र में कमजोर सरकारों का दौर आया, और संसद में बिखराव ज्यादा नजर आने लगा। नतीजा यह हुआ कि शासन व्यवस्था के इन दोनों अंगों के लिए अपने अधिकार को जताना लगातार मुश्किल होता गया। ऐसे दौर में न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने भी अपनी नई भूमिका बनाई। इस दौर में राजनेताओं की अकुशलता और शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार ज्यादा खुलकर सामने आने लगे, जिससे आम जन में विरोध और नाराजगी का गहरा भाव पैदा हुआ। ऐसे में जब न्यायपालिका ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती बरती या शासन के आम कार्यों में दखल देना शुरू किया तो मोटे तौर पर लोगों ने उसका स्वागत किया।
यह बात ध्यान में रखने की है कि न्यायपालिका इसलिए लोगों का समर्थन पा सकी क्यों कि आम तौर पर उसकी एक अच्छी छवि लोगों के मन में मौजूद रही है। अगर यह छवि मैली होती है तो फिर न्यायपालिका वैसे ही जन समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकती। वह छवि बनी रहे, इसके लिए अंग्रेजी की यह कहावत शायद मार्गदर्शक हो सकती है कि सीज़र की पत्नी को शक के दायरे से ऊपर होना चाहिए। यह विचारणीय है कि क्या हर हाल में, न्यायपालिका के हर हिस्से का बचाव ऐसी छवि को बनाए रखने में सहायक हो सकता है?
यहां हम इस बात को नहीं भूल सकते कि न्यायिक सक्रियता के इसी दौर में न्यायपालिका की वर्गीय प्राथमिकताओं पर बहस तेज होती जा रही है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की तरफ से कराए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष रहा है कि न्यायपालिका ने प्रगतिशील फैसलों और जन हित याचिकाओं पर सशक्त पहल के दौर को अब पलट दिया है और उसने जन विरोधी लबादा ओढ़ लिया है। इस अध्ययन में कहा गया- हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों ने कई जन विरोधी फैसले दिए हैं। इनसे उनकी प्राथमिकताओं में पूरा बदलाव जाहिर हुआ है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। (डीएनए, १६ अप्रैल, २००७) शायद इससे कड़ी आलोचना और कोई नहीं हो सकती।
बौद्धिक क्षेत्र में न्यायपालिका की इन प्राथमिकताओं को भारतीय लोकतंत्र में चल रहे विभिन्न हितों के व्यापक संघर्षों की पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। दरअसल, जिस दौर में न्यायिक सक्रियता शुरू हुई, उसी दौर में राजनीतिक सत्ता के ढांचे में बदलाव की ऐतिहासिक प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी है। सदियों से दबाकर रखे गए समूहों ने लोकतंत्र की आधुनिक व्यवस्था के तहत मिले मौकों का फायदा उठाते हुए अपनी राजनीतिक शक्ति विकसित की और यह शक्ति आज किसकी सरकार बनेगी, यह तय करने में काफी हद तक निर्णायक हो गई है। एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के जिस सिद्धांत को भारतीय संविधान में अपनाया गया, उसका असली असर दिखने में कुछ दशक जरूर लगे, लेकिन उससे एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हुई, जिसने भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल दिया है। राज सत्ता पर बढ़ते अधिकार के साथ अब ये समूह सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी अपने लिए अधिकार और विशेष अवसरों की मांग कर रहे हैं। जाहिर है, जिनका सदियों से इन संसाधनों पर वर्चस्व है, वो आसानी से समझौता करने को तैयार नहीं हैं।
राजनीतिक रूप से लगातार कमजोर पड़ते जाने के बाद इन तबकों की आखिरी उम्मीद अब कुछ संवैधानिक संस्थाओं से जोड़ी है। इसलिए कि इन संस्थाओं में आम तौर पर अभिजात्य वर्गों के लोग ही आते हैं और उनका अपना नजरिया भी यथास्थितिवादी होता है। सार्वजनिक नीतियों के मामले में न्यायपालिका के अगर पिछले एक दशक के रुझान पर नजर डाली जाए तो इस वर्गीय नजरिए की वहां काफी झलक देखी जा सकती है। यह रुझान मोटे तौर पर ऐसा रहा है-
मजदूर और वंचित समूहों के अधिकारों को न्यायिक फैसलों से संकुचित करने की कोशिश की गई है। बंद और आम हड़़ताल को गैर कानूनी ठहरा दिया गया है। पांच साल पहले तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारियों के मामले में तो यह फैसला दे दिया गया कि कर्मचारियों को हड़ताल का अधिकार ही नहीं है। इस तरह मजदूर तबके ने लंबी लड़ाई से सामूहिक सौदेबाजी का जो अधिकार हासिल किया, उसे कलम की एक नोक से खत्म कर देने की कोशिश हुई। कर्मचारियों और मजदूरों के प्रबंधन से निजी विवादों के मामले में लगभग यह साफ कर दिया गया है कि मजदूरों को कोई अधिकार नहीं है, प्रबंधन कार्य स्थितियों को अपने ढंग से तय कर सकता है। अगर इसके साथ ही विस्थापन, विकास और पूंजीवादी परियोजनाओं के मुद्दों को जोड़ा जाए तो देखा जा सकता है कि कैसे न्यायपालिका के फैसले से मौजूदा शासक समूहों के हित में गए हैं।
अब अगर सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर गौर करें तो कई संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से न सिर्फ लोकतंत्र को सीमित करने बल्कि कई मौकों पर लोकतंत्र के रोलबैक की कोशिश होती हुई भी नजर आती है। इसकी एक बड़ी मिसाल शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का मामला है। वरिष्ठ वकील एमपी राजू ने इस आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाए जाने के बाद लेख में लिखा- यह फैसला काफी हद तक प्रतिगामी भेदभाव (रिवर्स डिस्क्रिमिनेसन) के अमेरिकी सिद्धांत पर आधारित है। ये सिद्धांत यह है कि विशेष सुविधाएं देने के लिए जो वर्गीकरण किया जाएगा, उससे उन वर्गों से बाहर रह गए तबकों को नुकसान नहीं होना चाहिए। आरक्षण के प्रकरण में इसका मतलब है कि अगड़ी जातियों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इससे यह सवाल जरूर उठा कि क्या न्यायपालिका ऊंची जातियों और अभिजात्य वर्गों के हित रक्षक की भूमिका में सामने आ रही है? और क्या संसद और सरकारों के प्रति उसका कड़ा, कई बार इन अंगों के प्रति अपमानजनक सा लगने वाला उसका नजरिया असल में इसलिए ऐसा है कि लोकतंत्र के इन अंगों में कमजोर वर्गों का अब निर्णायक प्रतिनिधित्व होने लगा है?
इन सवालों पर न्यायपालिका से जुड़े अंगों और व्यापक रूप से पूरे देश में आज जरूर बहस होनी चाहिए। आधुनिक लोकतंत्र स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सर्वमान्य मूल्यों और शक्तियों के पृथक्करण के बुनियादी सिद्धांत पर टिका हुआ है। इसमें कोई असंतुलन पूरी व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकता है। आजादी के बाद शुरुआती दशकों में कार्यपालिका के वर्चस्व और केंद्र की प्रभुता की वजह से कई विसंगतियां पैदा हुईं, जिससे देश के कई हिस्सों में राजनीतिक हिंसा की स्थितियां और अलगाव की भावना पैदा हुई। विकेंद्रीकरण और आम जन की लोकतांत्रिक अपेक्षाओं को प्रतिनिधित्व देने वाली नई शक्तियों के उभार से वह असंतुलन काफी हद तक दूर होता नजर आया है। लेकिन इस नए दौर में न्यायपालिका का रुख नई चिंताएं पैदा करता गया है।
अनावश्यक दखल?
अदालतों के अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर दखल देने की बढ़ती की शिकायत के बीच पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एके माथुर और मार्कंडेय काटजू ने जजों को उनकी संवैधानिक सीमा की याद दिलाई। दोनों जजों ने यह बेलाग शब्दों में कहा कि अगर कोई काम सरकारें नहीं कर पातीं, तो उनका हल यह नहीं है कि न्यायपालिका संसद और सरकारों का काम अपने हाथ में ले ले, क्योंकि इससे न सिर्फ संविधान से तय शक्तियों का नाजुक संतुलन बिगड़ जाएगा, बल्कि न्यायपालिका के पास न तो इन कार्यों को अंजाम देने की महारत है और न ही उसके पास इसके लिए जरूरी संसाधन हैं। न्यायमूर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू ने न्यायपालिका के अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर दखल की कई मिसालें अपने एक फैसले में गिनाईं और जजों को सलाह दी कि वो अपनी सीमाओं को समझें एवं सरकार चलाने की कोशिश न करें। उन्होंने कहा कि जजों में विनम्रता होनी चाहिए और उन्हें सम्राटों जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। संभवतः न्यायिक सक्रियता या अदालतों के अपनी हद लांघने की शिकायत पर इससे कड़ी टिप्पणी कोई और नहीं हो सकती।
इन टिप्पणियों के साथ सुप्रीम कोर्ट की इस खंडपीठ ने राज्य-व्यवस्था के तीनों अंगों के बीच शक्तियों के संतुलन को लेकर चल रही बहस को एक नया आयाम दिया। लेकिन वह फैसला आने के दो दिन बाद ही प्रधान न्यायाधीश केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली एक बेंच ने यह कह कर कि अदालत दो जजों की टिप्पणियों से बंधी हुई नहीं है, इस फैसले को बेअसर करने की कोशिश की। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर उभरी दो तरह की राय को इस बात की मिसाल ही मान गया कि मौजूदा समय में भारतीय लोकतंत्र से जुडी एक अहम बहस लगातार तीखी होती जा रही है और इस सवाल पर न्यायपालिका भी एकमत नहीं है।
न्यायमुर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू की टिप्पणियों के पीछे एक लंबी पृष्ठभूमि है। इस संदर्भ में यह गौरतलब है कि जन हित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायपालिका ने खासकर १९८० के दशक से अपनी एक नई भूमिका बनाई। इसी से न्यायिक सक्रियता की उत्पत्ति हुई। इस परिघटना के समर्थक समूहों का कहना है कि न्यायिक सक्रियता के जरिए अदालतों ने कमजोर और गरीब तबकों के हित में दखल दिया और सरकारों को जवाबदेह बनाया।
लेकिन अगर हम पिछले ढाई दशकों में भारतीय न्यायपालिका के इतिहास पर समग्र रूप से विचार करें तो यह कथन एक अर्धसत्य नजर आता है। अदालतों ने जन हित याचिकाओं पर बंधुआ मजदूरी जैसे कई मामलों में जरूर ऐसे फैसले दिए, जिन्हें प्रगतिशील कहा जा सकता है। लेकिन ऐसी ही याचिकाओं पर अदालतों ने बंद को असंवैधानिक, एवं हड़ताल को गैर कानूनी घोषित करने और नौकरी संबंधी कई स्थितियों में मजदूरों के हितों के खिलाफ फैसले भी दिए। १९९० के बाद जैसे-जैसे नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां शासन व्यवस्था का हिस्सा बनती गईं, न्यायपालिका के ऐसे फैसलों का सिलसिला बढ़ता गया, जिनसे मजदूर एवं कर्मचारी तबकों के लिए व्यक्तिगत या सामूहिक सौदेबाजी मुश्किल होती गई। पर्यावरण रक्षा की अभिजात्यवादी समझ को न्यायिक समर्थन मिलता गया, जिससे हजारों परिवार उजड़ गए। विकास परियोजनाओं से विस्थापित हुए समूह अदालती चिंता के दायरे से बाहर होते गए।
साथ ही अदालतें सार्वजनिक नीतियों में खुलेआम दखल देने लगीं। मिसाल के तौर पर, असम में लागू गैर कानूनी आव्रजक (ट्रिब्यूनल से निर्धारण) कानून को रद्द करने से लेकर आंध्र प्रदेश में अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के सरकारी फैसलों पर न्यायपालिका का रुख समाज में मौजूद एक खास ढंग के पूर्वाग्रह को मजबूत करने वाला रहा है। शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के प्रस्ताव पर पहले रोक लगा कर और फिर शर्तों के साथ उसे हरी झंडी देकर सुप्रीम कोर्ट ने संसद के अधिकार क्षेत्र में दखल दिया। गौरतलब है कि इस आरक्षण के लिए पास कानून पर सभी दलों में सहमति की दुर्लभ मिसाल देखने को मिली थी। ऐसी मिसाल दिल्ली में अवैध निर्माणों की सीलिंग रोकने के संदर्भ में भी देखने को मिली थी। लेकिन संसद में आम सहमति से पास वह कानून भी सुप्रीम कोर्ट की कसौटी पर खरा नहीं उतरा।
इससे सवाल यह उठा कि जब कोई ऐसी सार्वजनिक नीति बने, जिस पर देश की जनता की नुमाइंदगी करने वाले सभी दल एकमत हों, तो उस पर रोक लगाकर आखिर अदालत किसके हित की रक्षा करती है? गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट संविधान की नौवीं अनुसूची को असंवैधानिक ठहरा चुका है, जिसके जरिए संसद उन फैसलों को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखती थी, जिन पर आम सहमति होती थी, लेकिन जिन्हें संवैधानिक प्रावधानों, अनुच्छेद और धाराओं की यांत्रिक न्यायिक व्याख्या से रद्द किए जाने की आशंका होती थी। न्यायपालिका अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाते हुए यह फैसला दे चुकी है कि संसद का कोई भी कानून या संविधान संशोधन अब न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं है। अगर अदालत समझती है कि उस कानून या संशोधन से किसी के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन होता है तो उसे वह रद्द कर देगी।
इस तरह संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा को स्थापित करने के बाद बुनियादी अधिकारों को आधार बनाते हुए न्यायपालिका ने शासन व्यवस्था के भीतर खुद के सर्वोच्च होने की स्थिति बना ली है। जाहिर है, यह नई स्थिति भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप नहीं है। दरअसल, अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम और फ्रांस की क्रांति के दौरान शासन के जिन मूल्यों का विकास हुआ और जिन्हें लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के रूप में अपनाया गया, यह उसके भी खिलाफ है। शक्तियों के अलगाव, राज्य-व्यवस्था के अंगों के बीच अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्था, और जन भावना की सर्वोच्चता के इन मूल्यों के बिना कोई भी लोकतंत्र महज एक ढांचा ही हो सकता है, वह वास्तविक लोकतंत्र नहीं हो सकता।
आरक्षण का सवाल
पिछले साल अन्य पिछड़ी जातियों के लिए ऊंचे सरकारी शिक्षा संस्थानों में सत्ताइस फीसदी आरक्षण को संविधान सम्मत ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विधायिका और न्यायपालिका में एक बड़े टकराव की आशंका टल गई। लेकिन हकीकत यही है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सामाजिक न्याय की समर्थक शक्तियों की महज आधी जीत ही थी, क्योंकि इस आरक्षण के लागू होने के रास्ते में उस न्यायिक फैसले ने कई अड़चनें भी खडी कर दीं। यह रास्ता क्रीमी लेयर की अवधारणा पर कोर्ट के काफी जोर देने तथा जजों की कई टिप्पणियों से खासा संकरा हो गया। कोर्ट ने न सिर्फ क्रीमी लेयर को आरक्षण के फायदे से बाहर रखने का निर्देश दिया, बल्कि यह व्यवस्था भी दे दी कि अगर आरक्षित सीटें अन्य पिछड़ी जातियों के गैर क्रीमी लेयर उम्मीदवारों से नहीं भरती हैं तो वे सीटें सामान्य श्रेणी के छात्रों के भरी जाएं। पांच जजों ने चार अलग-अलग फैसले सुनाए और इनमें से एक फैसले में यह भी कहा गया कि आम छात्रों से दस फीसदी कम नंबर लाने वाले छात्रों तक ही आरक्षण का लाभ सीमित रहे। क्रीमी लेयर की चर्चा करते हुए एक आदेश यह दिया गया कि मौजूदा और पूर्व सांसदों एवं विधायकों की संतानों को इसमें शामिल किया जाए, ताकि उन्हें आरक्षण का फायदा नहीं मिल सके।
देश की सामाजिक हकीकत से वाकिफ कोई व्यक्ति यह आसानी से समझ सकता है कि जिन शर्तों के साथ आरक्षण को हरी झंडी दी गई, उनके रहते इस आरक्षण के मकसद को कभी हासिल नहीं किया जा सकता। यहां गौरतलब है कि मौजूदा फैसला इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में १९९३ में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के रोशनी में आया। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएच कीनिया की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने उस फैसले में मंडल आयोग की सिफारिशों के मुताबिक केंद्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए सत्ताइस फीसदी आरक्षण को सही ठहराया था। लेकिन उसके साथ ही क्रीमी लेयर की अवधारणा भी उससे जोड़ दी थी।
तब सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की अवधारणा को इस आधार पर संविधान सम्मत बताया था कि संविधान में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की बात कही गई है, न कि पिछड़ी जातियों को। कोर्ट ने मंडल आयोग के इस निष्कर्ष को माना था कि भारतीय समाज में जाति सामाजिक हैसियत और आर्थिक हालत का एक पैमाना है, लेकिन यह स्वीकार नहीं किया कि एक जाति के सभी लोग इस पैमाने के तहत आते हैं। कोर्ट का कहना था कि जाति, आर्थिक हैसियत और शैक्षिक स्थिति को एक साथ लेते हुए वे वर्ग तय किए जा सकते हैं, जिन्हें आरक्षण का फायदा मिले।
आरक्षण का फायदा उत्तरोत्तर ज्यादा गरीब और वंचित तबकों को मिले, इस पर किसी को कोई एतराज नहीं हो सकता। लेकिन मुश्किल इस व्यवस्था से है कि अगर इन तबकों से आरक्षित सीटें नहीं भर पाती हैं तो फिर उन सीटों को सामान्य श्रेणी के छात्रों से भर दिया जाए। यह व्यवस्था आरक्षण के उद्देश्य को विफल कर देती है। सवाल है कि अगर पिछड़ी जातियों के क्रीमी लेयर के छात्र उन सीटों पर नहीं आएंगे तो वे सीटें ऊंची जातियों के क्रीमी लेयर जैसी हैसियत वाले छात्रों को क्यों मिलनी चाहिए? साथ ही इस चर्चा में आरक्षण से जुड़ी एक बेहद अहम बात नजरअंदाज कर दी गई है कि आरक्षण कोई गरीबी हटाओ कार्यक्रम नहीं है। इसका मकसद निर्णय की प्रक्रिया में उन सभी समूहों और जातियों की नुमाइंदगी सुनिश्चित करना है, जो सदियों से जाति व्यवस्था के कठोर कायदों की वजह से इससे वंचित रहे हैं। इसलिए यह व्यवस्था तो ठीक है कि आरक्षण का लाभ देने में प्राथमिकता आर्थिक आधार पर तय हो, लेकिन इसे अंतिम शर्त बना देना आरक्षण की मूल धारणा पर प्रहार है।
दरअसल, ऊंची शिक्षा में ओबीसी आरक्षण के बारे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐसी टिप्पणियों से भरा हुआ है, जो आरक्षण का पक्ष लेने के बजाय आरक्षण पर सवाल खड़ा करती लगती हैं। १९५१ में संविधान में पहला संशोधन सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को संभव बनाने के लिए किया गया था। इस संशोधन के जरिए संविधान के अनुच्छेद १५ में चौथी धारा जोड़ी गई थी। अनुच्छेद १५ (४) के जरिए सरकार को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों अथवा अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जन जातियों की तरक्की के लिए कदम उठाने का अधिकार दिया गया। पिछले साल आए फैसले में न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी ने इस कदम के उद्देश्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया। उन्होंने टिप्पणी की कि यह व्यवस्था करते समय पहली संसद संविधान निर्माताओं के उद्देश्य से भटक गई। उसने ऐसा संशोधन पास किया, जिससे जातिवाद कमजोर होने के बजाय मजबूत हुआ। जाहिर है, न्यायपालिका की एक धारा आरक्षण जैसे कदमों के साथ खुद को सहज महसूस नहीं कर रही है। वह न्याय, समानता और संवैधानिक मूल्यों के बारे में समाज के परंपरागत प्रभु वर्ग की सोच के ज्यादा करीब नज़र आती है।
अगर भारतीय लोकतंत्र के विकासक्रम में न्यायपालिका के रुख पर गौर करें तो यह कोई नई बात नहीं है। न्यायपालिका ने १९६० के दशक में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रीवी पर्स को खत्म करने के सरकार और संसद के फैसले को असंवैधानिक बता दिया था। उसके पहले भूमि सुधारों को लागू करने की सरकार की कोशिश भी न्यायिक हस्तक्षेप से बाधित होती रही, जिसकी वजह को संसद को संविधान में नौवीं अनुसूची की व्यवस्था करनी पड़ी, जिसे २००७ में सुप्रीम कोर्ट ने निष्प्रभावी कर दिया। ये तमाम फैसले धनी और सामाजिक वर्चस्व रखने वाले समूहों के हित में रहे हैं।
लेकिन बात सिर्फ भारत की नहीं है। अगर अमेरिकी इतिहास पर गौर करें तो वहां भी ऐसे न्यायिक फैसलों की कोई कमी नहीं है। १८६५ में अमेरिकी संविधान में १३वें संशोधन के जरिए गुलामी प्रथा को खत्म किया गया और १९६८ में १४वें संशोधन के जरिए सभी नागरिकों के लिए कानून के समान संरक्षण की व्यवस्था की गई। ये दौर था जब अश्वेत समुदायों के साथ खुलेआम भेदभाव किया जाता था और उन्हें उन स्कूलों में दाखिला नहीं मिलता था, जिनमें गोरे बच्चे पढ़ते थे। अश्वेत समुदायों को गोरों से अलग रखने की नीतियों को समान संरक्षण कानून के तहत जब १८९८ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि ये नीतियां इस कानून का उल्लंघन नहीं करतीं। १८९० के दशक के मध्य में ही अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आय कर को असंवैधानिक घोषित करते हुए धनी तबकों को बड़ी राहत दी थी। १९३० के दशक में जब भारी मंदी के दौर में तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलीन डी रूजवेल्ट ने न्यू डील कार्यक्रम के तहत वित्तीय क्षेत्र पर लगाम कसने और कमजोर तबकों को राहत पहुंचाने की कोशिश की, तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया।
लोकतांत्रिक विकास के क्रम में न्यायपालिका की ऐसी भूमिका को आज समझे जाने की बेहद जरूरत है। जानकार मानते हैं कि न्यायपालिका के ऐसे रुझान की वजह उसकी अंदरूनी संरचना से जुड़ी होती है। यहां आम तौर पर समाज के प्रभु वर्ग के लोग पहुंचते हैं और उसी तबके की सोच से उनका मनोविज्ञान प्रभावित रहता है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के दौर में संविधान पर अमल की समीक्षा के लिए बने आयोग की यह टिप्पणी गौरतलब है- उच्चतर न्यायपालिका में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व नाकाफी है। विभिन्न हाई कोर्टों के ६१० जजों में सिर्फ २० जज ही अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के हैं। (तब के आंकड़े)
दरअसल, हर क्षेत्र में ऐसी हालत की वजह से आरक्षण की नीति अपनानी पड़ी। आरक्षण का असली मकसद हर क्षेत्र में ऐसे ही वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी करना है। इसके बिना लोकतंत्र महज एक औपचारिक ढांचा ही बना हुआ है।
सेतु समुद्रम का मामला
२००७ में तमिलनाडु सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति बीएन अग्रवाल की टिप्पणियों ने आखिरकार विभिन्न राजनीतिक दलों को न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका एवं विधायिका के अधिकार क्षेत्र के अतिक्रमण के सवाल पर बोलने को मजबूर कर दिया। तब सेतु समुद्रम मुद्दे पर आयोजित तमिलनाडु बंद को सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक करार दिए जाने के बाद मुख्यमंत्री मुतुवेल करुणानिधि और उनकी सहयोगी पार्टियों ने भूख हड़ताल पर बैठने का फैसला किया। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी कर दी कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने का आदेश दे सकता है। इस पर पूर्व कानून मंत्री और वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट अपनी हदों से बाहर जा रहा है और इसे रोकने का नैतिक साहस केंद्र सरकार नहीं दिखा पा रही है।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट द्वारा बंद पर प्रतिबंध लगा देने से एक बार फिर कुछ बुनियादी सवाल सार्वजनिक चर्चा में आए। सुप्रीम कोर्ट ने १९९८ में बंद और आम हड़ताल को असंवैधानिक ठहरा दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला केरल हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के बाद दिया था। केरल हाई कोर्ट ने राज्य के चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की याचिका पर सुनवाई करते हुए बंद और आम हड़ताल पर रोक लगा दी थी। हाई कोर्ट ने यह फैसला भी दिया था कि बंद के दौरान होने वाले सार्वजनिक या निजी संपत्ति के किसी नुकसान की भरपाई बंद की अपील करने वाले संगठन को करनी होगी। यहां यह गौरतलब है कि यह फैसला बड़े व्यापारियों और उद्योगपतियों की याचिका पर दिया गया। यानी उन तबकों की याचिका पर जिनका हित सीधे तौर पर मेहनतकश तबकों और आम जन के अधिकारों पर नियंत्रण लगाने से जुड़ा है।
अदालत की दलील है कि आम लोगों का अधिकार बंद आयोजित करने के पार्टियों के अधिकार से बड़ा है। लेकिन सवाल है कि आखिर वे आम लोग कौन हैं? लोकतांत्रिक विमर्श में बंद और आम हड़ताल को आम तौर पर उन तबकों का हथियार माना जाता है, जिनकी बात इस व्यवस्था में नहीं सुनी जाती। या फिर यह राजनीतिक दलों या संगठनों का अपने कार्यक्रम और नीतियों पर जनमत बनाने का एक माध्यम माना जाता है। ऐसी कार्रवाइयों से जनता की राजनीतिक चेतना में विस्तार होता है, इससे वह अपने अधिकारों के लिए जागरूक होती है और इससे राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में वे मुद्दे सामने आते हैं, जो आम राजनीतिक गतिविधियों की वजह से सामने नहीं आ पाते। अगर बंद और आम हड़ताल पर प्रतिबंध होता, या उस प्रतिबंध का उल्लंघन नहीं किया गया होता तो देश का स्वतंत्रता आंदोलन कभी व्यापक जन आंदोलन नहीं बन पाता। न ही आजादी के बाद सदियों से दबा कर रखे गए समूहों में लोकतांत्रिक चेतना का विस्तार हो पाता।
स्पष्ट है, न्यायपालिका अपनी ऐसी सक्रियता से बड़े राजनीतिक सवाल खड़े कर रही है, जिन पर अब गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है। लोकतंत्र के उत्तरोत्तर आगे बढ़ने की प्रक्रिया बाधित न हो, इसके लिए जरूरी है कि संसद और सरकारों के अधिकार क्षेत्र उन्हें वापस मिलें। इसके लिए ये कदम फौरन उठाए जाने की जरूरत हैं-
१- संसद को संविधान के बुनियादी ढांचे पर चर्चा की शुरुआत करनी चाहिए। यह संसद को तय करना चाहिए कि संविधान का बुनियादी ढांचा क्या है, जिसमें संशोधन नहीं हो सकता। साथ ही पहल के उस दायरे को भी तय किया जाना चाहिए जो सबको समान अवसर देने की संवैधानिक वचनबद्धता को पूरा करने के लिए जरूरी है। इस दायरे को न्यायिक समीक्षा से ऊपर कर दिया जाना चाहिए और इस तरह संविधान की नौवीं अनुसूची की प्रासंगिकता फिर से बहाल की जानी चाहिए।
२- कोर्ट द्वारा नियुक्ति मोनिटरिंग कमेटियों के दखल को सिरे से नकार दिया जाना चाहिए। ये कमेटिया कार्यपालिका के काम को बिना आम जन के प्रति संवेदनशील हुए अंजाम देती रही हैं, जिससे लाखों लोगों, खासकर कमजोर तबकों के लोगों के लिए मुश्किलें पैदा हुई है। दिल्ली में सीलिंग से जुडी मोनिटरिंग कमेटी इसकी सबसे उम्दा मिसाल है। यह लोकतंत्र में कैसे मुमकिन है कि जो कानून संसद में सभी दलों की सहमति से बना हो, उसे कोर्ट खारिज कर दे और किसी मोनिटरिंग कमेटी को निर्वाचित सरकार या नगर निगम से ज्यादा शक्तिशाली बना दे?
३- संसद को कानून बनाकर, या जरूरत हो तो संविधान संशोधन कर शांतिपूर्ण बंद और आम हड़ताल को विरोध जताने के बुनियादी और वैध अधिकार के रूप में मान्यता देनी चाहिए। इस तरह १९९८ के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी कर देना चाहिए।
४- न्यायपालिका की अवमानना का प्रावधान लचीला बना दिया जाना चाहिए। जैसाकि एक बार न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने सुझाव दिया था कि अवमानना की कार्यवाही सिर्फ तभी चलनी चाहिए जब कोई न्याय प्रक्रिया में भौतिक रूप से बाधा डाले। न्यायिक फैसलों और आम तौर पर न्यायपालिका की आलोचना पर अवमानना का कानून लागू नहीं होना चाहिए। कुछ समय पहले न्यायपालिका के अवमानना कानून में संशोधन किया गया था। उसके तहत सत्य को ऐसे मामलों में अतिमहत्त्वपूर्ण बचाव (डिफेंस) के रूप में स्वीकार किया गया। लेकिन इस मामले में अंतिम फैसले का अधिकार अब भी अदालतों के ही पास है। यह बात अब हर विकसित समाज में मानी जाती है कि अवमानना की व्यवस्था राजतंत्र के जमाने की बात है, जब इंसाफ राजा करते थे और यह माना जाता था कि राजा कोई गलती कर ही नहीं सकता। राजा के इंसाफ पर कोई सवाल न उठाए, इसलिए अवमानना के कानून की व्यवस्था की गई थी। लेकिन लोकतांत्रिक संदर्भ में न्यायपालिका भी जनता की सेवक है और ऐसे में इस तरह के कानून की कोई प्रासंगिकता नहीं है। अगर जनता मालिक है तो वह अपने हर सेवक के कामकाज की समीक्षा और आलोचना कर सकती है, और न्यायपालिका भी इससे परे नहीं है।
अगर यह पहल की जा सके तो संवैधानिक लोकतंत्र का संतुलन फिर से बहाल हो सकता है। आजादी के बाद भारत अपने नियति से मिलन की जिस यात्रा पर चला था, वह यात्रा सफल हो, इसके लिए यह जरूरी है।
Monday, May 25, 2009
A Classic Final Awaits
PRIYANSH
The whole world is waiting with baited breath for Sir Alex Ferguson and Josep Guardiola, as they are going to lead out their sides on the biggest stage of European Club football this Wednesday. Their teams have already enchanted the world throughout this season and all their players are now ready to pull on their shirts one more time to capture European glory.
On 27th may 2009, the 54th European Cup final will be played at the Stadio Olimpico in Rome. This year, it will be contested between defending champions Manchester United and Spanish giants Barcelona. United are bidding to become the first team since Milan in 1990, to defend their title successfully. They are also the first team since Juventus in 1998, to reach two consecutive European Cup finals. On the other hand, Barca have won the European Cup twice as opposed to United’s three. They last won the European Cup in 2006, when they beat Arsenal 2-1, in Paris.
Manchester United in its road to Rome have seen off the likes of Villareal, Inter and Arsenal. This year’s team has been called as the best-ever team of all-time in United’s history. They have already won the Club World Cup, Premier League and League Cup this season. The only tournament where they have been unsuccessful is the FA Cup, in which Everton beat a weakened United squad on penalties.
United have endured a memorable season, in which they have equalled Liverpool’s 18 domestic titles. Sir Alex Ferguson, the legendary manger of the Manchester United, has said time and again that criticism of United’s earlier failed European conquests is genuine and that makes it imperative for them to take their opportunities, as they come. They will have a full squad at their disposal except the suspended Darren Fletcher, while talismanic defender Rio Ferdinand is yet to prove his full fitness.
In Spain, Barcelona have themselves had a great season and drawn comparisons with the Johann Cruyff-led side of the 1970s. They have won the Primera Liga and Copa Del Rey or the King’s Cup, as the Spanish domestic cup competition is known. They have scored a record number of goals in a season and have been lauded for their beautiful football all around the world. Barcelona have never won the League, Cup and European Cup in the same season.
Their road to Rome was easy till the semis as they brushed aside Lyon and Bayern in the knockout phase. But in the semis, they faced a determined Chelsea side, which resulted in a goalless draw at home. In the second leg, Chelsea took the lead through a wonder strike by Essien. But after that there were a series of controversial decisions by the Norwegian referee Tom Henning Ovrebo, which lead to three clear penalty decisions going against Chelsea and Barca’s Eric Abidal was wrongly sent off. Iniesta scored a 93rd minute equaliser, to send Barca through to the final on the away goals rule. In the final, Barca will miss defenders Dani Alves and Abidal through suspension and Marquez through injury. Both Iniesta and Henry will undergo late fitness tests before the final.
The final is also being billed as the battle between two of the world’s finest players- Lionel Messi and Cristiano Ronaldo. Ronaldo is the current World and European Player of the Year and is the joint top-scorer in the Premier League with Nicolas Anelka of Chelsea this season. After an injury at the start of the season, due to which he was out for the first two months, he has come back strongly, recapturing his form of last season.
On the other hand, Messi has had a dream season this year, scoring and creating goals at will. He has often been compared to the Argentinean legend Diego Maradona, who is now the manager of the Argentinean national team. While Messi’s ball control is god-like, Ronaldo himself is a wonderful dribbler. He is also deadly in dead ball situations, and is world-renowned for his free kicks.
There is shadow of a doubt over Ronaldo’s future, as Real Madrid have reportedly renewed their interest in him, and he is one of their top transfer targets in the summer. But there are no such problems with Messi, as he has time and again made it clear that he is fully committed to Barca, the club with which he has been since he was a kid.
While Ronaldo is criticised in some quarters for going down too easily when he’s tackled by defenders, Messi is yet to prove himself in a big-game environment like the Champions League final, as he missed out due to injury in 2006, when Barca beat Arsenal. Last year, United beat Barca in the semi final, but both Messi and Ronaldo couldn’t do much as the tie was sealed by a brilliant strike by Paul Scholes.
Except Ronaldo and Messi, both the teams have world-class players who have it in them to win games single-handedly. For United, Wayne Rooney and Carlos Tevez are excellent strikers, who also have the ability to create chances out of nothing. In Carrick and Anderson, they have top-level ball-winning midfielders who pass the ball really well. In the defence, Ferdinand and Vidic are one of the top defensive pairings in the world who are ably supported by the Dutch keeper, Van Der Sar.
Barcelona themselves look very threatening on paper. Etoo is their goal machine. He has scored a record number of goals this season. If Henry will be fit, he will be another threat to the United defence. In the midfield, Xavi n Iniesta, if the latter plays, rarely give the ball away and their passing is absolutely brilliant. Yaya Toure, is a no-compromising, hard, defensive midfielder, who will make life tough for United’s attackers.
Though Barca’s defence is weakened, they still have formidable defenders in Gerard Pique, who is an ex-Manchester United player and Carles Puyol. Though their goalkeeper, Victor Valdes, is a bit eccentric, he’s still a world-class shot stopper.
Both teams’ managers are vastly different in experience. While Sir Alex Ferguson is in his 23rd season in charge at United, this is the first taste of football management for Guardiola, who was appointed at the start of this season. Sir Alex has won 11 league titles, 8 domestic cups and 3 European trophies with United. Under his wings, players like Beckham, Giggs, Scholes and Gary Neville have come through the ranks and have went on to become legends in their own right. He has knocked off Liverpool at the top of the perch of English football and has been the longest serving manager in the world.
On the other hand, Guardiola was a successful footballer, who played for Spain and Barcelona. He won the European Cup in 1992 with Barcelona and is trying to be a part of a select-band of people who have won the Champions League both as a player and as a manager. He became the manager this season, after Frank Rijkaard was sacked after two seasons without any silverware. In the days leading up to the final, both managers have showed respect for their opponent teams.
This European final is one of the most awaited-finals in recent history. Both teams play wonderful, attacking football and currently, are the best club sides in the world. With both teams in top form, a classic match is awaited. Whoever wins the match, football will be the ultimate winner.
Priyansh
Saturday, May 23, 2009
अब उस मोर्चे को भूल जाइए
सत्येंद्र रंजन
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने लोकसभा चुनाव में अपनी हार के बाद यह स्वीकार कर लिया है कि उसने तीसरे मोर्चे का जो विकल्प देश के सामने पेश किया, वह विश्वससनीय नहीं था, और देश की जनता ने उसे ठुकरा दिया। हालांकि माकपा ने अपनी यह राय दोहराई है कि देश को गैर कांग्रेस-गैर भाजपा विकल्प की जरूरत है, लेकिन साथ ही उसने अपनी यह नई समझ भी जताई है कि ऐसा विकल्प चुनाव से ठीक पहले जोड़-तोड़ कर नहीं बन सकता। ऐसा विकल्प साझा कार्यक्रम और सहमति के मुद्दों पर लगातार संघर्ष से ही विकसित हो सकता है।
पश्चिम बंगाल और केरल में माकपा, या वाम मोर्चे की क्यों हार हुई, इस पर पार्टी अभी अपनी राज्य शाखाओं के जायजे का इंतजार कर रही है, इसलिए अभी उसने कोई ठोस राय नहीं जताई है। बहरहाल, माकपा महासचिव प्रकाश करात की इस बात में दम है कि वाम मोर्चे की श्रद्धांजलि लिख रहे लोग, जल्दबाजी कर रहे हैं। करात के मुताबिक वाम दल पहले भी ऐसे संकट से गुजरे हैं और हर बार ज्यादा मजबूत होकर उभरे हैं। बदले हालात में यह दावा कितना कारगर होगा, इस सवाल को हम भविष्य पर छोड़ सकते हैं। लेकिन देश में वामपंथ की राजनीति की एक विस्तृत जगह है, यह बात बेहिचक कही जा सकती है।
तीन झलकियों से इस बात को आगे बढ़ाया जा सकता है। एमजे अकबर देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। एक समय कांग्रेस में रहे और पिछले कुछ समय से उन्हें भाजपा के करीब माना जाता है। यानी किसी भी स्थिति में उन्हें वाम मोर्चे का समर्थक या उससे हमदर्दी रखने वाला नहीं माना जा सकता। लेकिन इस बार जब चुनाव नतीजे आ रहे थे, एक टीवी न्यूज चैनल पर उन्होंने कहा- लेफ्ट की हार का मुझे दुख है। ये चेक एंड बैलेंस (अवरोध और संतुलन) की बड़ी ताकत थे और इनकी वो हैसियत बने रहना देश के हित में था।
तकरीबन १६ साल पहले जब पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में मनमोहन सिंह नव-उदारवाद एवं भूमंडलीकरण की नीतियों को तेजी से आगे बढ़ा रहे थे, तभी भविष्य निधि में जमा रकम पर ब्याज दर घटाने और कथित श्रम सुधारों के जरिए मजदूरों की छंटनी को आसान बनाने की कोशिश की जा रही थी। उन दिनों मैं एक अखबार में नौकरी करता था। वहां पेस्टिंग विभाग में एक कर्मचारी था, जो भाजपा के उग्र हिंदुत्व का समर्थक और भाजपा का मतदाता था। जब सरकार वह कानून बनाने पर आमादा नजर आई तो एक दिन उन्होंने उम्मीद जताई कि लेफ्ट वाले कुछ करेंगे। मुझसे पूछा- क्या लेफ्ट सरकार को नहीं रोकेगा? हालांकि उनके पास मेरे इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कि वोट तो आप भाजपा को देते हैं, तो ऐसे मामलों में उम्मीद कम्युनिस्टों से क्यों जोड़ते हैं!
चो रामास्वामी मशहूर पत्रकार हैं। दक्षिणपंथी रुझान रखते हैं। १९९० के दशक के उत्तरार्द्ध से भाजपा के करीब हैं। माना जाता है कि एनडीए सरकार के लिए सहयोगी जुटाने में अहम भूमिका निभाई थी। कुछ साल पहले पत्रकारों को दिए जाने वाले एक पुरस्कार के समारोह में वक्ता थे। वहां उन्होंने एक गौरतलब टिप्पणी की। कहा, इन दिनों ईमानदार नेता सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टियों में पाए जाते हैं, लेकिन उनकी विचारधारा इतनी दोषपूर्ण है कि कंट्री कैन नॉट बी लेफ्ट ऑन द लेफ्ट (यानी देश को वामपंथी दलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता)।
प्रबुद्ध वर्ग से लेकर आम जन में वामपंथी दलों के बारे में मौजूद धारणाओं के ये तीन उदाहरण हैं। ये धारणाएं भारतीय राजनीति के क्षितिज पर वामपंथी दलोँ को एक अलग स्थान प्रदान करती हैं। यह स्थान छोटा है, तथा फिलहाल और सिकुड़ गया है, लेकिन इससे वामपंथी दलों को वह नैतिक ऊंचा स्थल प्राप्त होता है, जहां से वो अपनी बातें जनता के सामने आत्मविश्वास के साथ कह सकें। जारी आर्थिक मंदी के बीच दुनिया भर में वामपंथी विमर्श को नई विश्वसनीयता मिली है। यहां तक कि भारत के कॉरपोरेट मीडिया में भी यह बात स्वीकार की गई है कि अगर लेफ्ट का दबाव न होता और मनमोहन सिंह सरकार कई नव-उदारवादी कदमों को उठाने में सफल हो गई होती, तो मंदी की भारत पर मार और गहरी पड़ी होती।
राज्य-व्यवस्था में आम जन की तरफ से हस्तक्षेप की लोगों की उम्मीद राष्ट्रीय राजनीति में वाम मोर्चे को भूमिका को प्रासंगिक बनाए हुए है। ईमानदारी की उनकी छवि उनकी एक ऐसी थाती है, जिससे वो इस भूमिका में अपनी धार को और तेज बना सकते हैं। लेकिन ऐसा करने में वे तभी कामयाब होगें, जब तीसरे मोर्चे जैसे हाल के प्रयोग से अंतिम रूप से नाता तोड़ लें। अब यह बात स्वीकार किए जाने की जरूरत है कि जयललिता से लेकर मायावती, मुलायम से लेकर लालू यादव, और करुणानिधि से लेकर देवेगौड़ा नीतिगत रूप में कहीं भी एक अलग पहचान या विकल्प पेश नहीं करते। ना ही उनमें बुनियादी वैचारिक ईमानदारी है और ना कोई दीर्घकालिक राजनीतिक निष्ठा। बल्कि इस अर्थ में कांग्रेस की भूमिका ज्यादा स्पष्ट है। भले ही मजबूरी में, लेकिन राजनीतिक सिद्धांत के दायरे में वह एक धर्मनिरपेक्ष ताकत है।
वाम मोर्चा अगर सचमुच तीसरी ताकत उभारना चाहता है, तो उसे देश भर में फैले जन संगठनों और विभिन्न सामाजिक आंदोलनों की तरफ निगाह दौड़ानी चाहिए। कुछ साल पहले माकपा ने ऐसा इरादा जताया था। यह बात ठीक है कि इन संगठनों और आंदोलनों में भी अहंकार एवं सोच की संकीर्णता का प्रभाव अक्सर पाया जाता है, लेकिन माकपा या वाम मोर्चे ने भी संसदीय दायरे से निकल कर उन्हें साथ लेने और उनके साथ असली मोर्चा बनाने की गंभीर कोशिश नहीं की। लंबे समय बाद इस लोकसभा चुनाव में बिहार में यूनाइटेड लेफ्ट ब्लॉक उसने जरूर बनाया, लेकिन उसका दायरा व्यापकतम नहीं था। लेकिन अगर उसे एक शुरुआत माना जाए, मोर्चे को सिर्फ चुनावी मकसदों तक सीमित न रखा जाए, और जिन मुद्दों पर जनता वाम दलों से संघर्ष को नेतृत्व देने की उम्मीद रखती है, उसका एक कार्यक्रम पेश किया जाए तो १५ वीं लोकसभा के चुनाव में लगा झटका दरअसल, देश में वामपंथी राजनीति के लिए एक नया अवसर साबित हो सकता है।
इतिहास के इस मौके पर वामपंथी दलों के पास यही भूमिका है। केंद्र में सरकार को बाहर संचालित करने की महत्त्वाकांक्षा फिलहाल उन्हें छोड़ देनी चाहिए। फिलहाल उन्हें सरकार बनाने वाला नहीं, बल्कि संघर्ष करने वाला तीसरा मोर्चा बनाना चाहिए।
Monday, May 18, 2009
झटका तगड़ा और चोट गहरी है
सत्येंद्र रंजन
वामपंथ को लगा झटका तगड़ा है। खासकर पश्चिम बंगाल में। भूगोल की भाषा में जिसे टेक्टोनिक शिफ्ट यानी जमीन के अंदर चट्टान का दरकना कहा जाता है, मामला कुछ वैसा है। राज्य के उद्योगीकरण का उत्साह लेफ्ट फ्रंट को महंगा पड़ा। नंदीग्राम और सिंगूर से उठी कंपन जमीन के नीचे फ्रंट की जड़ों तक पहुंच गई। यह साफ है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सहयोगी दल पहले से इस बात का अंदाजा नहीं लगा सके, हालांकि पंचायत चुनाव और कई उपचुनावों से इसके संकेत मिल रहे थे।
नंदीग्राम और सिंगूर ने कुछ वैसे तबकों को नाराज किया, जो वाम मोर्चे का पिछले तीन दशक से आधार थे। चूंकि नंदीग्राम में मुस्लिम समुदाय के किसान ज्यादा थे, इसलिए इस मुद्दे ने मुस्लिम समुदाय में गुस्सा भर दिया। उधर वाम मोर्चा विरोधी सभी ताकतें एकजुट हो गईं। यह ममता बनर्जी से लेकर माओवादियों तक का गठबंधन था, जिसमें सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर जैसी ताकतों को भी अपनी भूमिका और प्रासंगिकता ढूंढने का मौका मिल गया। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में चुनावी गठजोड़ हो जाने से वाम मोर्चा विरोधी वोटरों को एक ठोस विकल्प मिल गया। नतीजा ऐसे चुनाव परिणाम हैं, जिसका अगर वाम मोर्चा को अंदेशा नहीं था, तो उसके विरोधियों को भी इसकी उम्मीद नहीं थी।
अगर पश्चिम बंगाल में यह झटका नहीं लगता तो केरल में पराजय को हर पांच साल में वहां से आने वाले उलटे नतीजों की बात कह कर वामपंथी पार्टियां गहरे आत्म मंथन से बच सकती थीं। लेकिन अब उनके पास ऐसा कोई बहाना नहीं है। इसलिए उन्हें अब यह सोचना पड़ रहा है कि आखिर क्यों उनका अपना जनाधार खिसक गया। बहरहाल, स्थानीय कारणों के अलावा कुछ और वजहें हैं, जिन पर इन दलों के सिद्धांतकारों को अब सोचना चाहिए।
वामपंथी दलों ने २००४ में एक सुविचारित राजनीतिक लाइन के तहत कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार को केंद्र में बाहर से समर्थन दिया था। २००८ में उन्होंने सिद्धांत के आधार यह समर्थन वापस लिया। इन दोनों कदमों के राजनीतिक तर्क थे और इससे लेफ्ट की छवि उसके समर्थक और उससे सहानुभूति रखने वालों तबकों में ऊंची हुई। लेकिन इसके बाद वामपंथी दलों ने तीसरा मोर्चा बनाने की जो राजनीतिक लाइन ली, वह उसके बहुत से समर्थकों के भी गले नहीं उतरी।
कांग्रेस और भाजपा का विकल्प तैयार किया जाए, देश में बहुत से लोग चाहते हैं। लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या मायावती, जयललिता, चंद्रबाबू नायडू, भजनलाल, बाबूलाल मरांडी और नवीन पटनायक ऐसा विकल्प दे सकते हैं? गैर कांग्रेस- गैर भाजपा विकल्प धुर दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों और सांप्रदायिकता की विरोधी ताकतें ही मुहैया करा सकती हैं। ऊपर जिन नेताओं का जिक्र आया है, उनमें सभी उस दौर में भाजपा से हाथ मिला चुके हैं, जब वह आक्रामक सांप्रदायिकता की सियासत कर रही थी, और उन नेताओं के दलों की आर्थिक नीतियां किसी भी रूप में कांग्रेस या भाजपा से अलग हैं, यह बात कोई विवेकशील व्यक्ति नहीं कह सकता।
तो क्या ये दल सिर्फ इसलिए कांग्रेस और भाजपा का विकल्प हो सकते थे कि वामपंथी दलों के साथ उन्होंने कार्यनीतिक (टैक्टिकल) समझौता कर लिया? चुनाव नतीजों से जाहिर है कि वामपंथी दल उन दलों को तो जनता की निगाह में वैधता तो नहीं दिला सके, खुद उनकी साख पर सवाल जरूर उठ खड़े हुए। अब वामपंथी दलों के सामने चुनौती खोयी साख को फिर से वापस पाने की है। इन दलों को अब इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि क्या सिद्धांतहीन तीसरा विकल्प देने की राह पर चलना अब भी उचित है? क्या बेहतर यह नहीं होगा कि वो सिद्धांतनिष्ठ वामपंथी विकल्प तैयार करें? भले यह देश की राजनीति में छोटी ताकत रहे, लेकिन उसका नैतिक कद और रुतबा ज्यादा प्रभावशाली हो सके?
यह विडंबना ही है कि २००४ से साढ़े चार साल तक रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका निभाने के बाद लेफ्ट फ्रंट बेहद कमजोर होकर १५वीं लोकसभा में लौटा है, जबकि यूपीए सरकार ने जो कदम लेफ्ट के दबाव में उठाए उसका फायदा उठाते हुए कांग्रेस १८ साल में सबसे बेहरतीन प्रदर्शन कर पाई है। कांग्रेस की सफलता के पीछे मनमोहन सिंह सरकार के प्रदर्शन को एक बड़ी वजह बताया जा रहा है। इस प्रदर्शन में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, आदिवासी एवं अन्य वनवासी भू-अधिकार कानून, सूचना का अधिकार कानून और किसानों के लिए कर्ज माफी को अहम बताया गया है। राजनीति पर निगाह रखने वाले किसी भी शख्स को यह कहने में शायद ही कोई हिचक हो कि यूपीए सरकार ने इनमें से हर कदम लेफ्ट के दबाव में उठाया।
जबकि लेफ्ट के दबाव की वजह से रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता, बैंकों में विदेशी निवेश, और कई सरकारी कारखानों में विनिवेश रोके जा सके। अगर ऐसा नहीं होता विश्वव्यापी मंदी की भारत पर मार और गहरी होती। यानी जिन कदमों के लिए यूपीए सरकार में उत्साह नहीं था वो उसे उठाने पड़े और जिन कई कदमों के लिए अति उत्साह था, उन्हें वह नहीं उठा सकी। इसका सीधा श्रेय वामपंथी दलों को था। लेकिन इसका फायदा कांग्रेस को मिला, जबकि वामपंथी दलों की कमर टूट गई। वामपंथी दलों के लिए यह भी गहरे विचार-विमर्श का विषय है कि आखिर वो अपने राजनीतिक संघर्षों का फायदा क्यों नहीं उठा सके?
२००९ के जनादेश ने वामपंथी दलों को मनमोहन सिंह सरकार को समर्थन देने या ना देने की दुविधा से बचा दिया है। इस जनादेश ने उनकी संभवतः वैसी हैसियत भी नहीं छोड़ी है कि वो कोई बड़ी राष्ट्रीय भूमिका निभाने का भ्रम पाल सकें। ताजा जनादेश ने भाजपा को भी १९९१ से पहले की हालत में पहुंचा दिया है, इसलिए सांप्रदायिकता विरोधी कार्यनीति को अपनाने की मजबूरी भी फिलहाल उनके सामने नहीं है। ऐसे में यह झटका लेफ्ट के लिए एक अवसर भी साबित हो सकता है। वो गंभीर मंथन करें तो २०११ से पहले ऐसे सुधार के कदम उठा सकते हैं, जिससे पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वो अपना गढ़ बचा सकें। अगर वो तीसरा मोर्चे जैसे विकल्प का भ्रम छोड़ दें और वाम मोर्चे को वैचारिक एवं सांगठनिक रूप से मजबूत करें तो कम से कम नीतियों में वो देश के सामने वामपंथी विकल्प जरूर पेश कर सकते हैं। लेकिन केंद्र सरकार पर ऐसी नीतियों का दबाव बन सके, इसके लिए अब उन्हें कम से कम पांच साल इंतजार करना होगा।
Sunday, May 17, 2009
एक संतोष ओर ढेरों आशंकाएं
सत्येंद्र रंजन
विजेता का जयगान मीडिया और बुद्धिजीवियों का स्वभाव है, इसलिए इसमें कोई हैरत नहीं कि लोकसभा चुनाव के अप्रत्याशित नतीजों के बाद कांग्रेस और उसके नेताओं के उन पहलुओं में भी गुण ढूंढे जा रहे हैं, जिनकी सामान्य स्थितियों में आलोचना की जाती। बहरहाल, अंग्रेजी की कहावत- Nothing succeeds like success- (यानी सफल होने से ज्यादा बड़ी सफलता कोई और नहीं होती) के चरितार्थ होने को अगर दरकिनार कर दें, तो हम ताजा जनादेश के मतलब को व्यापक और दूरगामी लोकतांत्रिक संदर्भों में कहीं बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। इस जनादेश ने कुछ मिथकों को तोड़ा है, सकारात्मक राजनीति के लिए अनुकूल स्थितियां पेश की हैं, लेकिन जनतांत्रिक आकांक्षाओं के लिए नई चुनौतियां भी इससे सामने आई हैं।
सबसे बड़ा मिथक उत्तर प्रदेश से आए नतीजों से टूटा है। ये मिथक यह था कि जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बीच जिस पार्टी या नेता का कोई जातिगत वोट बैंक नहीं है, वह चुनाव नहीं जीत सकता। कांग्रेस के बारे में आम धारणा थी कि देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य में उसका सांगठनिक ढांचा नष्ट हो चुका है, ऐसे में उसके वोट तो बढ़ सकते हैं, लेकिन वे वोट सीटों में तब्दील नहीं हो सकते। जानकार पत्रकारों ने चुनाव रिपोर्टिंग के दौरान लिखा कि इस बार उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए काफी सद्भभावना है। लेकिन यह भविष्यवाणी वो भी नहीं कर पाए कि यह सद्भभावना चुनावी सफलता में बदलेगी। संभवतः यूपी में कांग्रेस के पुनरुद्धार का संदेश यह है कि कोई पार्टी अपने नेता एवं एजेंडे के नाम पर भी वोट पा सकती है और अगर वह बुद्धिमानी से उम्मीदवार चुने तो उन वोटों से जीत भी हासिल कर सकती है। इस लिहाज से यूपी के ताजा नतीजों का बिहार के लिए भी एक संदेश है, जहां भी कांग्रेस के फिर से खड़ा हो सकने की संभावना को न्यूनतम माना जाता है।
यह साफ है कि कांग्रेस के लिए समर्थन की एक अंतर्धारा कुछ अपवादों को छोड़ कर पूरे देश में थी। तभी २५ साल बाद कोई राजनीतिक पार्टी लोकसभा की २०० से ऊपर सीटें जीत पाई है। इसका एक दूसरा परिणाम यह है कि भारतीय जनता पार्टी १८ साल में अपने सबसे न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। भाजपा के वोटों में भी गिरावट साफ है। और यही रुझान एक सकारात्मक संभावना पैदा करता है। बहुसंख्यक समुदाय में उत्पीड़ित होने का भाव भरने, उसकी आशंकाओं को भुनाने और हिंदुत्व के नाम पर राजनीतिक गोलबंदी करने की भाजपा और संघ परिवार की रणनीति को २००४ में देश की जनता ने बुद्धि के साथ मतदान से ठुकराया था। २००९ में यह परिघटना और आगे बढ़ी है।
देश के भूगोल में ऐसे इलाके सिकुड़े हैं, जहां भाजपा प्रमुख ताकत है। यानी अब ऐसे राज्यों की संख्या बढ़ी है जहां लोगों के पास दो धर्मनिरपेक्ष विकल्प हों। दूरगामी राजनीति के लिहाज से यह एक संतोषजनक घटनाक्रम है। कहा जा सकता है कि १९८०-९० के दशकों में भारतीय राजनीति में क्रमिक रूप से उभरा से सांप्रदायिक फासीवाद का खतरा ताजा चुनाव परिणामों के साथ काफी घट गया है और अब धर्मनिरपेक्ष भारत के भविष्य के प्रति ज्यादा आश्वस्त हुआ जा सकता है।
लेकिन शायद ऐसी ही आश्वस्ति अब जनतांत्रिक आकांक्षाओं को लेकर नहीं हो सकती। कहा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी को यह जीत इसलिए मिली कि मनमोहन सिंह सरकार ने पिछले पांच साल में बेहतर प्रदर्शन किया। सवाल है कि वह प्रदर्शन क्या था? कुछ उपलब्धियां गिनाई जा सकती हैं। मसलन, राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, सूचना का अधिकार कानून, आदिवासी एवं अन्य वनवासी भूमि अधिकार कानून, किसानों की कर्ज माफी, वगैरह। इस बात की तरफ भी ध्यान खींचा गया है कि विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का भारत पर उतना बुरा असर नहीं पड़ा, जितना दुनिया के बहुत के देशों पर पड़ा है। कांग्रेस के नेता कहते हैं कि अमेरिका में १६ बैंक ध्वस्त हो गए, जबकि भारत में एक भी बैंक के साथ ऐसा नहीं हुआ।
ये तमाम बातें सही हैं। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मनमोहन सिंह सरकार के इन सभी कदमों के पीछे असली प्रेरक कारण वामपंथी दलों का दबाव था। रोजगार गारंटी हो या सूचना का अधिकार कानून, मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी कभी उसके लिए उत्साहित नजर नहीं आई। यह जोड़ी रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता को लागू पर अड़ी हुई थी और इसके लिए सारी तैयारियां कर ली गई थीं, यह हम सभी जानते हैं। यह सिर्फ वामपंथी दलों का दबाव था कि ऐसा नहीं हुआ। अगर ऐसा हो गया होता और भारतीय बैंकों में विदेशी निवेश की इजाजत मिल गई होती तो कोई बैंक ध्वस्त नहीं हुआ, जैसे दावे करने की स्थिति में कांग्रेस के नेता नहीं होते। इसी तरह बहुत से सार्वजनिक प्रतिष्ठानों का विनिवेश वामपंथी दलों के दबाव में रुका।
यह एक विडंबना ही है कि जिन दलों ने आर्थिक सुरक्षा और सार्वजनिक निवेश पर सरकार को मजबूर किया, उन्हें इस चुनाव में अनपेक्षित हार का सामना करना प़ड़ा है और जिस सरकार ने अनिच्छा से उन कदमों को अपनाया, उसे उसका फायदा मिला है। जिस पार्टी ने पश्चिम बंगाल के औद्योगिकरण की संभावनाओं को रोका, उसके साथ गठजोड़ कर कांग्रेस पार्टी ने विकास करने वाली पार्टी के रूप में कामयाबी हासिल कर ली है। बहरहाल, यहां सवाल श्रेय लेने का नहीं है। असली सवाल यह है कि मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी जिन नव-उदारवादी नीतियों की प्रतीक है, अब उन पर कोई सियासी या संसदीय ब्रेक नहीं होगा।
इस लिहाज से ताजा चुनाव नतीजे देश के उच्च और उच्च मध्यवर्ग के हसीन सपनों को पूरा करने वाले हैं। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी नई पारी में मनमोहन सिंह की सरकार कॉरपोरेट मीडिया की डार्लिंग होगी। वहां एक ऐसा आवरण बुना जाएगा जिसमें बहुत से जनतांत्रिक सवाल दब सकते हैं। नई सरकार के गठन के साथ यह जनतांत्रिक ताकतों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। क्या ये ताकतें संसद के बाहर विरोध और संघर्ष की कोई रणनीति और व्यावहारिक कार्यक्रम अपना सकती हैं, जिससे मनमोहन सिंह को यह पैगाम दिया जा सके कि देश की जनता ने उन्हें कोई ब्लैंक चेक नहीं दे दिया है।
देश की प्रगतिशील शक्तियां शायद इसी रूप में इन चुनाव परिणामों को देख सकती हैं। धर्मनिरपेक्षता के ज्यादा सुरक्षित होने का संतोष और आर्थिक एवं विदेश नीतियों के ज्यादा दक्षिणपंथी होने की आशंका इस मौके पर की संभवतः सबसे ठोस तस्वीर है।
Sunday, May 3, 2009
संदर्भ लेफ्ट-कांग्रेस सहयोग का
सत्येंद्र रंजन
क्या कांग्रेस और वामपंथी दलों में फिर सहयोग होगा, यह इस समय देश के सामने शायद सबसे अहम राजनीतिक सवाल है। १५वीं लोकसभा की जैसी तस्वीर उभरने का अनुमान लगाया जा रहा है, उसके मद्देनजर यह सवाल लगातार ज्यादा प्रासंगिक होता जा रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी कहा था कि वामपंथी दल उन्हें ‘बंधुआ मजदूर’ बनाना चाहते थे, लेकिन अब उन्होंने खुले तौर पर कहा है कि वे एक बार फिर वामपंथी दलों के साथ मिल कर काम करने को तैयार हैं। कांग्रेस पार्टी ने तो पिछले जुलाई में नाता टूटने के बाद भी कभी वामपंथी दलों के साथ सहयोग की संभावना से इनकार नहीं किया।
वामपंथी दल जरूर भविष्य में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को समर्थन देने की संभावना से इनकार करते रहे हैं। लेकिन पिछले महीनों के दौरान उन्होंने जो तीसरा मोर्चा बनाया है, उसकी सरकार बनाने के लिए कांग्रेस का समर्थन लेने की संभावना से उन्होंने कभी इनकार नहीं किया। हालांकि वामपंथी दलों का घोषित लक्ष्य कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों का विकल्प तैयार करना है, लेकिन विडंबना यह है कि ऐसी वैकल्पिक सरकार कांग्रेस के समर्थन के बिना नहीं बन सकती। वैसे गैर कांग्रेस- गैर भाजपा सरकार की संभावना को लेकर मुश्किल सिर्फ इतनी ही नहीं है।
सबसे बड़ी मुश्किल तीसरा मोर्चे का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य है। मोर्चे में वामपंथी दलों के साथ जो राजनीतिक दल हैं, उनमें किसी का कांग्रेस और भाजपा का विकल्प तैयार करने का वैचारिक आग्रह नहीं है। उनका नजरिया सीमित और कार्यनीतिक (tactical) है। वामपंथी दल भाजपा के सांप्रदायिक फासीवाद और कांग्रेस के नव-उदारवाद एवं साम्राज्यवाद समर्थक नीतियों का विकल्प तैयार करना चाहते हैं। लेकिन तीसरे मोर्चे के उसके सहयोगियों में भी ऐसी कोई इ्च्छा या इसके लिए उत्साह है, इसका कोई संकेत नहीं है। बल्कि तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के चंद्रशेखर राव अभी से कहने लगे हैं कि जो भी पार्टी तेलंगाना राज्य बनाने के हक में होगी, वो उसके साथ जा सकते हैं, भले वो पार्टी भाजपा हो।
चंद्रबाबू नायडू और नवीन पटनायक वामपंथी दलों के एजेंडे के साथ दूर तक चलेंगे, यह शायद वामपंथी नेता भी नहीं मानते होंगे। उन दोनों का अपने राज्यों में मुख्य मुकाबला कांग्रेस से है, जाहिर है धर्मनिरपेक्षता चाहे जितने संकट में हो, वे कांग्रेस के साथ वैसा सहयोग नहीं करेंगे, जैसा २००४ से जुलाई २००८ तक वामपंथी दलों ने किया। जयललिता कब क्या कहें और करे, इसका अंदाजा आखिर कौन लगा सकता है? एलटीटीई के विरोध से तमिल ईलम के समर्थन तक का सफर उन्होंने इसी चुनाव अभियान में पूरा कर लिया है। मायावती वैसे भी अभी तीसरे मोर्चे के साथ नहीं हैं। एचडी देवेगौड़ा, भजनलाल और बाबूलाल मरांडी के साथ कैसी नीतियां और दीर्घकालिक रणनीति बनाई जा सकती है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
इसके बावजूद अगर वामपंथी नेता कांग्रेस को समर्थन देने की संभावना से इनकार कर रहे हैं, तो इसकी वजह राजनीतिक और वैचारिक दोनों है। १९९० के दशक में भाजपा की बढ़ती ताकत और राज्य-व्यवस्था पर उसका शिकंजा कस जाने की गहराती आशंकाओं के बीच वामपंथी दलों ने कांग्रेस से सहयोग की नीति अपनाई। मकसद भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र और देश की संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा करना था। इसी सहयोग का ठोस और व्यावहारिक परिणाम रहा २००४ में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को उनका समर्थन। वामपंथी दलों ने इस मौके का लाभ उठा कर सरकार की नीतियों को मध्य से वामपंथ की तरफ झुकाने की कोशिश की। यह बात यूपीए के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में झलकी। लेकिन कांग्रेस पर नरसिंह राव के जमाने में प्रचलित हुई नव-उदारवादी नीतियां हावी रहीं। नजरिए का यह फर्क बार-बार टकराव का रूप लेता रहा और आखिरकार इसकी परिणति भारत अमेरिका परमाणु सहयोग करार के मुद्दे पर वामपंथी दलों की समर्थन वापसी के रूप में हुई।
लेकिन प्रश्न है कि क्या तीसरा मोर्चा नीतियों के दायरे में वामपंथी एजेंडे को अपना सकेगा? और अगर तीसरे मोर्चे की सरकार कांग्रेस के समर्थन से बननी है तो कांग्रेस अपनी नीतियों की शर्तें उस पर नहीं थोप नहीं सकती है? ये वामपंथी दलों के लिए गंभीर विचार-विमर्श के सवाल हैं।
बहरहाल, ऐसे सवाल कांग्रेस के सामने भी हैं। मनमोहन सिंह ने अमेरिका से परमाणु करार को जैसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बनाया, विश्वासमत के समय जैसी सियासी जोड़तो़ड़ की, सत्ता और पैसे का जैसा दुरुपयोग किया, और संदिग्ध तरीकों से हासिल जीत पर उनकी पार्टी जैसे इतराई, उससे भारत के राष्ट्रीय विमर्श में लंबे समय के संघर्ष और संवाद से पैदा हुई धर्मनिरपेक्ष आम सहमति को गहरी क्षति पहुंची। इसका परिणाम खुद सत्ताधारी यूपीए को भी भुगतना पड़ा है। जब इस आम सहमति के टूटने की शुरुआत हो गई तो यह स्वाभाविक ही था कि सभी दल पहले अपने चुनावी स्वार्थ पर गौर करें। नतीजतन, यूपीए से निकल कर एक चौथा मोर्चा सामने आ गया।
क्या कांग्रेस पार्टी को इस घटनाक्रम, इसकी वजहों और इसके परिणामों का अहसास है? अगर इसका जवाब ‘हां’ में है तो कांग्रेस नेतृत्व एक नई शुरुआत कर सकता है। हकीकत यह है कि धर्मनिरपेक्ष दायरे में आज भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है, और इस लिहाज से सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ उसकी एक बड़ी भूमिका है। लेकिन अब वह इतनी बड़ी पार्टी भी नहीं है कि इस भूमिका को वह अकेले निभा सके। इसके लिए उसे विभिन्न क्षेत्रीय और छोटे दलों को साथ लेना होगा, और फिलहाल ऐसी कोई सूरत नहीं है, जिसमें वह वामपंथी दलों को नजरअंदाज कर यह भूमिका निभा सके।
आज यह ऐतिहासिक जरूरत है कि कांग्रेस और वामपंथी दल दोनों सहयोग की इस अनिवार्यता और अपरिहार्यता को समझें। यह जिम्मेदारी दोनों पर है कि वे नीतियों और कार्यक्रमों पर ऐसी सहमति तैयार करें, जिससे ऐसे सहयोग की व्यावहारिक जमीन तैयार हो सके। अगर वामपंथी दलों को शिकायत है कि कांग्रेस उन बातों पर कायम नहीं रही, जिस पर वह साझा न्यूनतम कार्यक्रम में सहमत हुई थी, तो भविष्य के लिए कोई ऐसा मेकनिज्म बनाया जाना चाहिए, जिससे आगे ऐसा न हो सके। साथ ही धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय आम सहमति भंग होने और वामपंथी दलों से रिश्ते में टूट के जो प्रतीक हैं, अगर उनकी कुर्बानी जरूरी हो तो कांग्रेस को देश के दीर्घकालिक भविष्य के लिए इस पर तैयार होना चाहिए।
धर्मनिरपेक्ष दायरे में आने वाली तमाम शक्तियों को यह समझना चाहिए भारत का वह विचार किसी व्यक्ति या पार्टी से ज्यादा अहम है, जो स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में पैदा हुआ, जो दादा भाई नौरोजी, रवींद्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू की देखरेख में फूला-फला और जिसका मूर्त रूप में हमारा संविधान है। विभिन्न नामों से धर्म आधारित राष्ट्रवाद की बात करने वाली ताकतें भारत के इस विचार के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं, इसलिए उन्हें रोकने के लिए दी गई कोई भी कुर्बानी बड़ी नहीं है। अगर कांग्रेस और वामपंथी दल इस बात को समझें और व्यवहार में भी मानें तो १६ मई के बाद देश को न सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता से बचाया जा सकता है, बल्कि आम जन की भलाई वाली नीतियों के साथ सकारात्मक पहल करने वाली एक सरकार भी अस्तित्व में आ सकती है।
Friday, May 1, 2009
एक सहयोग, जो मजबूरी है
सत्येंद्र रंजन
आम चुनाव जब अपने अंतिम दौर में पहुंच रहा है, राजनीतिक दलों में अगली लोकसभा की तस्वीर को लेकर एक मोटी समझ बनने के संकेत मिलने लगे हैं। कांग्रेस अब वामपंथी दलों के साथ एक बार फिर से पुल जोड़ना चाहती है। उधर वामपंथी दल भी मानने लगे हैं कि उनका गैर कांग्रेस- गैर भाजपा सरकार का सपना अगर पूरा हो सका तो यह कांग्रेस के समर्थन से ही होगा। निष्कर्ष यह है कि अगर भारतीय जनता पार्टी ने कोई आश्चर्यजनक जीत हासिल नहीं की तो कांग्रेस और वामपंथी दलों में सहयोग अनिवार्य हो जाएगा।
भाजपा की संभावनाओं में आश्चर्यजनक उभार सिर्फ उत्तर प्रदेश से हो सकता है। क्या पार्टी यहां अपनी सीटों की संख्या २००४ की तुलना में तीन गुना या ढाई गुना बढ़ा सकेगी? यह दूर की कौड़ी है, लेकिन असंभव नहीं है। बहरहाल, अगर ऐसा होता है तो भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभर सकती है। उस हाल में उसके लिए नए सहयोगी पाना आसान हो जा सकता है और उसके तथाकथित मजबूत नेता के नेतृत्व में एक कमजोर सरकार बन सकती है। लेकिन यह एक बहुत ही दूर की संभावना है।
ज्यादा ठोस संभावना यही लगती है कि कांग्रेस, उसके सहयोगी दल, यूपीए के बिखरे उसके सहयोगी और तीसरे मोर्चे के दल मिल कर लोकसभा की ३०० से ज्यादा सीटें जीत लें। उस स्थिति में एक नए ढंग के समीकरण का रास्ता तैयार होगा। कांग्रेस बेशक सबसे बड़ी पार्टी होगी और अगली सरकार का नेतृत्व करने पर उसका मजबूत दावा होगा। लेकिन वा्मपंथी दलों के लिए उसे २००४ की तरह समर्थन देना शायद मुमकिन नहीं है। बात सिर्फ नीतियों में मतभेद की नहीं है। बल्कि वामपंथी दलों ने जो तीसरा मोर्चा बनाया है, उसमें तेलुगू देशम पार्टी और बीजू जनता दल जैसे घटक भी हैं, जिनका अपने-अपने राज्यों में सीधा मुकाबला कांग्रेस से है। उनके लिए कांग्रेस को समर्थन देना बेहद मुश्किल है।
वामपंथी दल अपने मौजूदा सहयोगी दलों को अधर में नहीं छोड़ सकते। ऐसा वे अपनी दीर्घकालिक साख पर बट्टा लगाते हुए ही करेंगे। इसीलिए उनका जोर १९९६ के संयुक्त मोर्चा सरकार जैसे प्रयोग पर रहेगा। लेकिन यह संख्याओं का खेल है और जब तक संख्याओं की तस्वीर साफ नहीं होती, इस बारे में कोई अनुमान लगाना कठिन है। बहरहाल, इस परिप्रेक्ष्य में यह बात साफ होती जा रही है कि भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता की रक्षा लगातार एक अहम और प्रभावी मुद्दा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति के दायरे में आने वाले दलों के बीच आर्थिक और विदेश नीतियों पर चाहे जितने गहरे मतभेद हों, सांप्रदायिक-फासीवाद के खिलाफ उनके बीच सहयोग की जरूरत अभी लंबे समय तक बनी रहेगी।
अगर कांग्रेस ने इस बात को समझा होता तो २००८ में वह २००४ के जनादेश से विश्वासघात करने की हद तक नहीं जाती। लेकिन इससे भी ज्यादा दुर्भाग्य की बात यह है कि इस बात को राष्ट्रीय जनता दल, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, और समाजवादी पार्टी जैसे क्षेत्रीय दलों ने भी नहीं समझा। इन पार्टियों के नेताओं के स्वार्थ, अहंकार और तुच्छ गणनाओं ने एक बेहद अहम मौके पर उन्हें कांग्रेस का पिछलग्गू बन जाने को मजबूर कर दिया। भारत-अमेरिका परमाणु सहयोग के करार के सवाल पर अगर वे मजबूत रुख लेते तो आज शायद चुनावी मुकाबले की तस्वीर कुछ और होती। इन दलों को तब यह समझना चाहिए था कि मुद्दा सिर्फ करार का नहीं था। सवाल यह था कि क्या वह करार इतना अहम था, जिसके लिए धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर बनी राष्ट्रीय आम सहमति को तोड़ दिया जाए? तब एक सैद्धांतिक मुद्दे पर विश्वासघात करने में वे कांग्रेस के सहभागी बने और फिर बाद में खुद कांग्रेस के विश्वासघात के शिकार बने।
अब उस करार की प्रासंगिकता और फायदे पर खुद वो लोग सवाल उठा रहे हैं, जो उस वक्त मीडिया में उसके बड़े पैरोकार थे। वे मान रहे हैं कि इस करार से ना तो देश की ऊर्जा की जरूरतें हल होंगी और ना ही अंतरराष्ट्रीय रणनीतिक मामलों में अमेरिका का भारत को कोई बिना शर्त समर्थन मिल रहा है। करार के पैरोकार अब लिखने लगे हैं कि इस मुद्दे पर जितना ऊंचा और महंगा दांव प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी ने खेला, वह उसके योग्य नहीं था। लेकिन मुश्किल यह है कि केंद्र में पहले भाजपा और फिर कांग्रेस नेतृत्व वाली जो दो गठबंधन सरकारें सत्ता में रहीं, उनमें शामिल क्षेत्रीय दलों ने कभी नीति और सिद्धांत के सवाल पर ठोस रुख नहीं अपनाया। वो सत्ता के फायदों के बंटवारे में ही मशगूल रहे और गठबंधन का नेतृत्व कर रही पार्टी को मनमानी करने दिया।
क्या २००९ में यह स्थिति बदलेगी? क्या १५वीं लोकसभा के गठन के साथ गठबंधन की संसदीय राजनीति का कोई नया विकासक्रम देखने को मिलेगा? दरअसल, वामपंथी दलों के सामने इन सवालों के जवाब खोजना ही शायद इस वक्त की सबसे बड़ी चुनौती है। क्या वे एक ऐसा राजनीतिक संवाद बना सकते हैं, जिससे सत्ता के बंटवारे के साथ-साथ देश के दूरगामी भविष्य और हमारी राज्य-व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों की रक्षा का कोई व्यावहारिक कार्यक्रम सामने आ सके? और क्या अब क्षेत्रीय दलों में यह समझ ज्यादा ठोस रूप लेगी कि अहम मुद्दों पर किसी बड़े दल का पिछलग्गू बन जाने का नुकसान अंततः उन्हें भी झेलना पड़ता है?
क्षेत्रीय और स्थानीय हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों की राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती मौजूदगी देश में गहरे और मजबूत हो रहे लोकतंत्र की मिसाल है। इससे सत्ता और सुविधाओं पर पुराने प्रभु वर्गों का शिकंजा कुछ ढीला हुआ है। लेकिन यह परिघटना सामाजिक ढांचे में जितना जाहिर होती है, उतनी आर्थिक या व्यापक वैचारिक दायरे में नहीं झलकती। नई उभरी ताकतें आसानी से पुराने आर्थिक हितों और पुरातन विचारों के साथ घुलमिल जाती हैं। नतीजा यह होता है कि लोकतंत्र के गहरा होने के साथ प्रगतिशील और आधुनिक विचारों एवं नीतियों को लेकर जैसा भरोसा होना चाहिए, वह नहीं हो पाया है।
अगर वामपंथी दल अब किसी ऐसे संवाद की धुरी बनते हैं, जिससे ऐसा भरोसा पैदा हो सके तो यह आम चुनाव भारतीय लोकतंत्र को विकास की एक नई मंजिल तक ले जा सकेगा। लेकिन फौरी तौर पर १६ मई के बाद कांग्रेस और वामपंथी दलों को संभवतः किसी समीकरण का हिस्सा बनना पड़ेगा। जब तक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का ठोस और प्रगतिशील सामाजिक आधार तैयार नहीं होता, धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए वामपंथी दलों और कांग्रेस दोनों के सामने ऐसी मजबूरी बनी रहेगी।
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