Saturday, July 3, 2010

मंदी और इंटरनेट की गहरी मार

सत्येंद्र रंजन

भारत में प्रिंट मीडिया अपने खुशहाल दौर में है। अखबारों का सर्कुलेशन बढ़ रहा है और इसी के अनुपात में उनकी आमदनी भी बढ़़ रही है। हर साल दो बार आने वाले इंडियन रीडरशिप सर्वे (आईआरएस) के आंकड़े अखबार घरानों का उत्साह कुछ और बढ़ा जाते हैं। लेकिन यही बात आज पूरी दुनिया के साथ नहीं है। बल्कि धनी देशों में आज प्रिंट मीडिया गहरे संकट में है। संकट पिछले एक दशक से गहराता रहा है, लेकिन पिछले दो वर्षों में आर्थिक मंदी ने कहा जा सकता है कि अखबार मालिकों की कमर तोड़ दी है। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) की ताजा रिपोर्ट ने भी अब इस बात की पुष्टि कर दी है। साफ है कि प्रसार संख्या और विज्ञापन से आमदनी दोनों ही में तेजी से गिरावट आई है। इस रिपोर्ट के इन निष्कर्षों पर गौर कीजिएः

- ओईसीडी के ३० सदस्य देशों में से करीब २० में अखबारों की पाठक संख्या गिरी है। नौजवान पीढ़ी में पाठक सबसे कम हैं। यह पीढ़ी प्रिंट मीडिया को अपेक्षाकृत कम महत्त्व देती है।
- साल २००९ ओईसीडी देशों में अखबारों के लिए सबसे बुरा रहा। सबसे ज्यादा गिरावट अमेरिका, ब्रिटेन, ग्रीस, इटली, कनाडा और स्पेन में दर्ज की गई।
- २००८ के बाद अखबार उद्योग में रोजगार खत्म होने की रफ्तार तेज हो गई। खासकर ऐसा अमेरिका, ब्रिटेन, नीदरलैंड और स्पेन में हुआ।

यह रिपोर्ट इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इसमें न सिर्फ अखबारों के सामने गहराती समस्याओं का जिक्र हुआ है, बल्कि इसने धनी देशों के मीडिया उद्योग की अर्थव्यवस्था और इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव के असर की भी विस्तार से चर्चा की गई है। मसलन, इससे यह बात सामने आती है कि आज दुनिया भर में अखबार सबसे ज्यादा विज्ञापन पर निर्भर हैं। ओईसीडी देशों में उनकी करीब ८७ प्रतिशत कमाई विज्ञापन से होती है। २००९ में अखबारों के ऑनलाइन संस्करणों की आमदनी में भारी गिरावट आई। इसका हिस्सा उनकी कुल आमदनी में महज चार फीसदी रह गया।

जहां तक अखबार घरानों के खर्च का सवाल है, तो सबसे ज्यादा लागत अखबार छापने (प्रोडक्शन), रखरखाव, प्रशासन, प्रचार और वितरण पर आता है। ये खर्च स्थायी हैं, इसलिए मंदी के समय इसमें कटौती आसान नहीं होती और इस वजह से अखबारों के लिए बोझ बहुत बढ़ जाता है। अखबारों की प्रसार संख्या के लिए बड़ी चुनौती इंटरनेट से पैदा हो रही है। कुछ ओईसीडी देशों में तो आधी से ज्यादा आबादी अखबार इंटरनेट पर ही पढ़ती है। दक्षिण कोरिया में यह संख्या ७७ फीसदी तक पहुंच चुकी है। कोई ऐसा ओईसीडी देश नहीं है, जहां कम से कम २० प्रतिशत लोग अखबार ऑनलान ना पढ़ते हों। इसके बावजूद इंटरनेट पर खबर के लिए पैसा देने की प्रवृत्ति बहुत कमजोर है।

दरअसल, मजबूत रुझान यह है कि लोग खबर को कई रूपों में भी पढ़ते हैं और इंटरनेट में भी उनमें से एक माध्यम है। ऐसा देखा गया है कि ऑनलाइन अखबार पढ़ने वालों में ज्यादा संख्या उन लोगों की ही होती है, जो छपे अखबारों को पढ़ते हैं। इसका अपवाद सिर्फ दक्षिण कोरिया है, जहां छपे अखबार पढ़ने का चलन तो कम है, मगर इंटरनेट पर बड़ी संख्या में लोग अखबार पढ़ते हैं।

ऐसा माना जाता है कि युवा वर्ग इंटरनेट पर खबर का सबसे बड़ा पाठक वर्ग है। लेकिन ओईसीडी देश में देखा गया है कि सबसे ज्यादा ऑनलाइन खबर २५ से ३४ वर्ष के लोग पढ़ते हैं। लेकिन ताजा अध्ययन का यह निष्कर्ष है कि आने वाले समय में ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ेगी, जो सिर्फ इंटरनेट पर ही खबरें पढेंगे। हालांकि इसमें इस बात पर चिंता भी जताई गई है कि युवा पीढ़ी के लोग उन खबरों को बहुत कम पढ़ते हैं, जिन्हें परंपरागत रूप से समाचार माना जाता है।

सभी ओईसीडी देशों में ऑनलाइन न्यूज वेब साइट्स पर आने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है। अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक कुल जितने लोग इंटरनेट पर आते हैं, उनमें से करीब पांच फीसदी खबरों की साइट पर भी जाते हैं। बड़े अखबारों का अनुभव है कि अब रोज लाखों लोग उनके पेजों पर आते हैं। यानी इंटरनेट समाचार का माध्यम तो बन गया है, लेकिन मुश्किल यह है कि जिस साइट पर समाचार के लिए पैसा मांगा जाता है, लोग वहां जाना छोड़ देते हैं।

धनी देशं में अखबार पहले से ही इंटरनेट की चुनौती का सामना कर रहे थे। २००८ में आई आर्थिक मंदी ने उनकी मुसीबत बढ़ा दी। तब अनेक अखबारों के बंद हो जाने का अंदाजा लगाया जाने लगा। अमेरिका में बोस्टन ग्लोब और सैन फ्रैंसिस्को क्रोनिकल नाम के अखबारों के बंद होने की अटकलें जब फैलीं तो सनसनी फैल गई। जो अखबार बंद होने के कगार पर नहीं थे, उनकी सेहत भी बहुत अच्छी नहीं थी। अमेरिकन सोसायटी ऑफ न्यूज एडिटर्स के मुताबिक २००७ के बाद से अमेरिका में १३,५०० पत्रकारों की नौकरियां चली गई हैं। लागत में कटौती प्रचलित शब्द हो गया। न्यूजपेपर एसोसिएशन ऑफ अमेरिका के मुताबिक २००८ की पहली तिमाही में अखबारों और उनकी वेबसाइटों को मिलने वाले विज्ञापन में ३५ प्रतिशत की गिरावट आई। सर्कुलेशन में भी भारी गिरावट दर्ज की गई।

संकट यूरोप में भी था। वहां युवा पीढ़ी के इंटरनेट को खबर का मुख्य माध्यम बनाने की समस्या पहले से ही कहीं ज्यादा रही है। ऐसा देखा गया है कि ३५ वर्ष से कम उम्र के बहुत से लोग अब इंटरनेट पर खबर और विश्लेषण पढ़ लेते हैं और अगली सुबह अखबार को छूते तक नहीं हैं। आर्थिक मंदी के दौर यूरोप में यह देखने को मिला कि विज्ञापन अखबार से हटकर वेब साइट्स को जाने लगे। लेकिन पेच यह था कि ये विज्ञापन अखबारों की वेबसाइटों को नहीं, बल्कि सर्च इंजन्स को मिल रहे थे। पिछले दो साल में पूरे यूरोप के मीडिया जगत में अखबारों के अंधकारमय भविष्य की खूब चर्चा रही है।

अखबारों की बुरी हालत का एक उदाहरण फ्रांस का अखबार ले मोंद है। इस अखबार को फ्रांस की अंतरात्मा कहा जाता है। इसकी विशेषता यह रही है कि इसका कोई मालिक कोई पूंजीपति नहीं है। यह पत्रकारों द्वारा संचालित अखबार रहा है। लेकिन आज अखबार दीवालिया होने के कगार पर है। अखबार चलाने वाली कंपनी पर आज १२ करोड़ डॉलर का कर्ज है। अब दीवालिया होने से बचने का एक ही उपाय है कि कंपनी के शेयर किसी पूंजीपति को बेचे जाएं। अगर ऐसा होता है, तो यह पत्रकारों की स्वतंत्रता की कीमत पर होगा। लेकिन इसके अलावा शायद ही कोई विकल्प है।

दरअसल, आर्थिक मंदी और इंटरनेट की चुनौती ने अमेरिका और यूरोप में अखबारों का पूरा स्वरूप ही बदल दिया है। ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनोमिस्ट में छपी एक रिपोर्ट से अखबारों के बदले स्वरूप का अंदाजा लगता है। जब मंदी की गहरी मार पड़ी, तो खासकर अखबारों ने अपना वजूद बचाने के लिए दो तरीके अपनाए- कवर प्राइस यानी दाम बढ़ाना और लागत घटाना। बड़ी संख्या में पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों की नौकरी गई और बहुत से पत्रकारों को अवैतनिक छुट्टी पर भेज दिया गया। कुछ अखबारों में तो एक चौथाई पत्रकार या तो हटा दिए गए या बिना वेतन की छुट्टी पर भेजे गए। इसके अलावा अखबारों ने अपने कई ब्यूरो बंद कर दिए। खास मार विदेशों में स्थित ब्यूरो पर पड़ी।

एक अनुमान के मुताबिक आज अमेरिकी अखबारों में वेतन पर होने वाला खर्च मंदी से पहले की अवधि की तुलना में चालीस फीसदी घट गया है। जिन घरानों के एक से ज्यादा प्रकाशन निकलते हैं, उन्होंने कंटेन्ट साझा करने का नियम अपना लिया। मसलन, अलग-अलग अखबारों और पत्रिकाओं ने एक विषय को कवर करने के लिए पहले जहां अलग-अलग पत्रकार रखे थे, वहीं अब एक पत्रकार द्वारा लिखी गई रिपोर्ट या विश्लेषण ही उस घराने के सभी प्रकाशन छापने लगे।

ये तो वे बदलाव हैं, जिनका पाठकों से सीधा रिश्ता नहीं है। पाठकों को जो बदलाव देखने या झेलने पड़े, उनका संबंध प्रकाशनों के बदले स्वरूप से है। आज अमेरिका के ज्यादातर अखबार पहले की तुलना में कम पेजों वाले हो गए हैं और उनका कंटेन्ट फोकस्ड यानी कुछ विषयों पर केंद्रित हो गया है। मसलन, कई अखबारों ने नई कारों, अन्य दूसरे महंगे उत्पादों और नई फिल्मों की समीक्षा के कॉलम बंद कर दिए हैं। अब जोर उन सूचनाओं को देने पर पर है, जिसका पाठकों से सीधा वास्ता है। यानी पूरी दुनिया और हर क्षेत्र की खबर पेश करने के बजाय अब अखबार किसी खास क्षेत्र और खास वर्ग की सूचना देने की नीति पर चल रहे हैं। मार्केटिंग टीमें उन वर्गों और क्षेत्रों की पहचान पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं, जिनमें अखबार की पहुंच है और उनके माफिक ही अखबार के स्वरूप को ढाला जा रहा है।

परिणाम यह है कि अखबार आज ज्यादातर स्थानीय और खेल की खबरों से भरे रहते हैं। अखबार इन खबरों की रिपोर्टिंग में ही अपने संसाधन लगा रहे हैं। उन पाठकों की चिंता छोड़ दी गई है, जो दुनिया भर और गंभीर मुद्दों के बारे में पढ़ना चाहते हैं। माना जा रहा है कि उन पाठकों की मांग पूरी करना महंगा है, और वैसे पाठकों में विज्ञापनदाताओं की ज्यादा दिलचस्पी नहीं होती।

जानकारों का कहना है कि इन तरीकों से मंदी के दौर में अमेरिकी अखबारों ने अपना वजूद बचा लिया है। मगर कंप्यूटर और आई-पैड पर खबर पढ़ने की बढ़ती प्रवृत्ति से पैदा होने वाली चुनौती का तोड़ वे नहीं ढूंढ पाए हैं। समस्या यह है कि नौजवान पीढ़ी के लोग खबर के लिए पैसा नहीं देना चाहते- चाहे वे अखबार ऑनलाइन पढ़ते हों या ऑफलाइन। अखबारों के दीर्घकालिक भविष्य के लिए इसे बड़ी चुनौती माना जा रहा है।

बहरहाल, अखबारों की ये मुश्किलें अभी धनी देशों की देशों की समस्या ही हैं। विकासशील देशों में रुझान उलटा है। वहां अखबार तेजी से फैल रहे हैं। मसलन, ब्राजील में पिछले एक दशक में सभी अखबारों के पाठकों की कुल संख्या दस लाख बढ़ी है। आज वहां ८२ लाख लोग रोज अखबार पढ़ते हैं। मंदी के दौर में थोड़े समय के लिए वहां भी विज्ञापनों से अखबारों की आमदनी घटी, लेकिन जल्द ही पुरानी स्थिति बहाल हो गई। ब्राजील में तेजी से फैलता मध्य वर्ग अखबारों को नया आधार दे रहा है। लेकिन कंटेन्ट की चुनौती वहां भी है। एक अध्ययन के मुताबिक ब्राजील के अखबारों में ज्यादातर अपराध और सेक्स की खबरें छपती हैं। वहां २००३ में टॉप दस अखबारों में से सिर्फ तीन टैबलॉयड थे, लेकिन इनकी संख्या आज पांच हो चुकी है।

ऐसा ही रुझान हम भारत में भी देख सकते हैं। भारत दुनिया के उन चंद देशों में है, जहां प्रिंट मीडिया का खुशहाल बाजार है। प्रसार संख्या और विज्ञापन से आने वाली रकम- दोनों में हर साल लगातार बढ़ोतरी हो रही है। हिंदी के कम से कम दो अखबारों की पाठक संख्या रोजाना दो करोड़ से ऊपर है। अंग्रेजी के एक अखबार की रोजाना पाठक संख्या सवा करोड़ से ऊपर है। पचास लाख से ऊपर पाठक संख्या वाले अखबार तो कई हैं। इस खुशहाली की बड़ी वजह भारत की आबादी है। पिछले २० वर्षों में देश में शिक्षा का तेजी से प्रसार हुआ है। छोटे शहरों और कस्बों में नव-साक्षरों और नव-शिक्षितों का एक बड़ा वर्ग सामने आया है। यही तबके हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अखबारों का बाजार हैं। मध्य वर्ग के उभार के साथ अंग्रेजी अखबारों का बाजार भी फैला है।

भारतीय अखबारों के सामने इंटरनेट की चुनौती भी अभी नहीं है। इसकी एक वजह इंटरनेट और ब्रॉडबैंड का कम प्रसार और दूसरी वजह इंटरनेट की भाषा आज भी मुख्य तौर पर अंग्रेजी का होना है। इसलिए भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले पाठकों के पास खबर पढ़ने का आज भी एक ही माध्यम है और वह है अखबार। अखबारों का स्वरूप लगातार निखरता गया है। आज प्रोडक्शन क्वालिटी के लिहाज से भारत के अखबार दुनिया के किसी भी हिस्से के अखबारों को टक्कर दे सकते हैं। टीवी न्यूज चैनल अपनी पहुंच और कवरेज के रेंज- दोनों ही लिहाज से एक छोटे दायरे तक सीमित हैं और इसलिए भी अखबारों के व्यापक आधार में सेंध लगाने की हालत में वे नहीं हैं।

लेकिन बात अगर कटेन्ट की करें, तो भारतीय मीडिया के सामने भी वही सवाल और चुनौतियां हैं, जो आज विकसित दुनिया में दिखाई देती हैं। कहा जा सकता है कि मीडिया के सामने आज दोहरा संकट है। पश्चिमी मीडिया मार्केटिंग के संकट से ग्रस्त है और इसका असर उसके कंटेन्ट पर पड़ रहा है। जबकि भारतीय मीडिया मार्केटिंग के लिहाज से खुशहाल है, लेकिन कंटेन्ट के निम्नस्तरीय होने का संकट उसके सामने भी है।