Saturday, July 10, 2010

बंद से कौन डरता है?

सत्येंद्र रंजन

ह गौर करने की बात है कि पेट्रोलियम की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने के फैसले के खिलाफ विपक्ष द्वारा आयोजित भारत बंद से कौन-कौन नाराज हुआ। मनमोहन सिंह सरकार का विपक्ष के इस कदम को चुनौती देना तो स्वाभाविक ही था, तो सरकार ने अखबारों में बड़े-बड़े इश्तहार निकाल कर भारत बंद की अपील के औचित्य पर सवाल उठाए।

मगर ज्यादा परेशानी इस बात से है कि केरल हाई कोर्ट ने भी इस पर ‘परेशानी’ जताई। कोर्ट ने टिप्पणी की कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा आम हड़ताल को गैर कानूनी और असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद भारत बंद आयोजित किया जा रहा है। यहां संदर्भ के तौर पर यह याद कर लेना उचित होगा कि एक दशक पहले केरल हाई कोर्ट ने ही बंद और आम हड़तालों को गैर कानूनी ठहराने का फैसला दिया था और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी उस पर अपनी मुहर लगा दी थी।

बंद से नाराज होने वाला तीसरा समूह उद्योगपतियों का है। एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एसौचैम) ने एक बयान में बंद को अनुचित और बेतुका बताया और अनुमान लगाया कि इससे देश की अर्थव्यवस्था को करीब दस हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। उद्योगपतियों के एक दूसरे संगठन कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) ने इससे तीन हजार करोड़ रुपए से ज्यादा नुकसान होने की बात कही। लेकिन उद्योगपतियों और व्यापारियों के एक और संगठन फिक्की ने शायद इन दोनों आंकड़ों को जोड़ दिया और १३,००० करोड़ रुपए का नुकसान होने की बात कही।

बात आगे बढ़ाने से पहले यह याद कर लेना उचित होगा कि केरल हाई कोर्ट ने जब बंद और हड़तालों को गैर कानूनी घोषित किया था, तो वह फैसला फिक्की की याचिका पर ही दिया गया था। केरल हाई कोर्ट की ताजा टिप्पणी के साथ यह संदर्भ भी गौरतलब है कि इन दिनों में हाई कोर्ट का एक फैसला विवादास्पद बना हुआ है। इस फैसले में सड़कों के किनारे जन सभाओं के आयोजन पर रोक लगा दी गई है। राज्य में सत्ताधारी वाम लोकतांत्रिक मोर्चे ने इस फैसले का सार्वजनिक विरोध किया है और इससे भी हाई कोर्ट के जज दुखी हैं। उन्होंने इस फैसले को लेकर जजों की हुई आलोचना को “खतरनाक” करार दिया है।

तो कहा जा सकता है कि सरकार, न्यायपालिका और उद्योग जगत- ये तीनों आम हड़ताल और बंद जैसे आयोजनों के खिलाफ हैं। इनके साथ मेनस्ट्रीम मीडिया के एक बहुत बड़े हिस्से को भी शामिल किया जा सकता है, जिसके लिए हड़ताल और बंद के दिन खबर वह मुद्दा नहीं होता, जिसके लिए इनकी अपील की जाती है। बल्कि उनके लिए खबर लोगों को हुई कथित परेशानी होती है। अगर किसी बंद को आम जनता के बड़े हिस्से का समर्थन मिलता है, जैसाकि पांच जुलाई को विपक्ष के बंद को मिला, तो सहज बुद्धि से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस मुद्दे ने आम जन की भावनाओं को छुआ है और बंद की सफलता असल में आम जन के बहुसंख्यक हिस्से की भावनाओं की अभिव्यक्ति है। यह भी सामान्य बुद्धि से समझा जा सकता है कि उस मुद्दे की वजह से जनता का वह हिस्सा परेशान होगा, तभी उसने बंद में सक्रिय या परोक्ष भागीदारी की। लेकिन मीडिया के ज्यादातर हिस्से के लिए वह परेशानी खबर नहीं होती। बल्कि उसके बरक्स कुछ अन्य लोगों की परेशानी को खड़ा कर बंद या हड़ताल के पीछे की नैतिकता पर सवाल खड़े किए जाते हैं।

लेकिन सवाल है कि आखिर बंद क्यों होते हैं? इसका एक उत्तर यह हो सकता है कि यह चुनाव में जनता द्वारा नकार दिए गए विपक्षी दलों का सरकार को परेशान करने का हथकंडा है। लेकिन इससे इस बात का जवाब नहीं मिलता कि आखिर जनता का बड़ा हिस्सा उन दलों की अपील पर क्यों आंदोलित हो जाता है? अगर आप जनतंत्र के बुनियादी उसूलों में भरोसा नहीं रखते, तो इसका यह जवाब दे सकते हैं कि वह बहकावे में आ जाता है। लेकिन यह जवाब समस्यामूलक है। अगर जनता विपक्ष के बहकावे में आ जाती है, तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि जो सत्ताधारी पार्टी है, उसके बहकावे में आकर उसने उसे वोट दे दिया था? जाहिर है, बहस की ऐसी दलीलों से लोकतंत्र का पूरा संदर्भ ही सवालों के घेरे में आ जाता है।

बहरहाल, हकीकत यही है कि जो लोग आम जन या विपक्ष के बंद और हड़ताल आयोजित करने के अधिकार को चुनौती देते हैं, उनका लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों में कोई भरोसा नहीं है। अगर ऐसा होता, तो उनके लिए विचार का पहला बिंदु वो नीतियां होतीं, जिनकी वजह से ‘आम आदमी’ का जीना दूभर होता है और वह अपनी दिहाड़ी या एक दिन की कमाई को दांव पर लगा कर उनके प्रति विरोध जताने के लिए मजबूर होता है। प्रतिरोध का यह औजार और इसे जताने का अधिकार लोकतंत्र की बुनियादी परिभाषा का हिस्सा हैं। सरकार और उद्योग जगत का इसके औचित्य पर सवाल उठाना लोकतंत्र को सीमित या नियंत्रित करने की उनकी मंशा को जाहिर करता है। यह दुखद है कि अक्सर अदालतें भी इस प्रयास को नैतिक या संवैधानिक जामा पहना देती हैं। संविधान और कानून की व्याख्या का अधिकार उनके पास जरूर है।

मगर जब ऐसी व्याख्या का आम जन के व्यापक हितों और लोकतंत्र की बुनियादी धारणा से टकराव होता है, तो उसका वही नतीजा होता है, जो पांच जुलाई को देखने को मिला। न्यायपालिका की घोषणाओं के मुताबिक बंद गैर कानूनी और असंवैधानिक है। लेकिन भारत बंद हुआ और जनता की व्यापक भागीदारी से सफल रहा। क्या इससे अदालती घोषणाओं के औचित्य पर प्रश्न खड़े नहीं होते?

आखिर बंद क्यों होते हैं? इसे समझने के लिए पांच जुलाई के बंद को ही लेते हैं। इस बंद की अपील क्यों हुई? इसलिए कि सरकार ने पेट्रोल के दामों को नियंत्रण मुक्त करने का फैसला किया, और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने टोरंटो में हुए जी-२० शिखर सम्मेलन से लौटते हुए इस बारे में कोई भ्रम नहीं रहने दिया कि जल्द ही डीजल की कीमतों को भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया जाएगा। इस फैसले का फौरी नतीजा यह हुआ कि केरोसीन, डीजल. रसोई गैस और पेट्रोल के दाम बढ़ गए। इनका सीधा असर आम महंगाई पर भी होगा, यह बात खुद सरकार भी मानती है। यह समझना मुश्किल है कि जिस वक्त खाद्य पदार्थों की महंगाई दर १५ फीसदी से ऊपर और आम मुद्रास्फीति दो अंकों में चल रही हो, उस समय गरीब तबकों के हितों का ख्याल करने वाली कोई सरकार ऐसा फैसला कैसे ले सकती है?

अगर सरकार की आर्थिक नीति संबंधी प्राथमिकताओं पर गौर किया जाए तो यह साफ होने में देर नहीं लगती कि वित्तीय अनुशासन बरतने या राजकोषीय घाटे को पाटने की सरकार की दलीलें खोखली हैं। अगर राजकोष पर इतना ही दबाव है, तो पिछले बजट में आय कर में छूट देकर संपन्न तबकों को सरकार ने २६ हजार करोड़ रुपए की सौगात क्यों दे दी थी? मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने आंकड़ों और तर्कों के साथ इस बहस में शामिल होते हुए यह साफ कर दिया है कि सरकार का कर ढांचा पेट्रोलियम की महंगाई के लिए जिम्मेदार है। साथ सरकारी तेल कंपनियां सब्सिडी की वजह से कहीं दिवालिया नहीं हो रही हैं, जैसा सरकार दावा करती है। विपक्ष के इस आरोप को हलके से खारिज नहीं किया जा सकता कि पेट्रोलियम की कीमत को नियंत्रण मुक्त करने के पीछे सीधा मकसद निजी क्षेत्र, और उसमें भी कुछ खास उद्योग घरानों को लाभ पहुंचाना है, ताकि पेट्रोलियम के कारोबार में वे लौट सकें।

असल में सारा संदर्भ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की आर्थिक प्राथमिकताओं का ही है। मनमोहन सिंह सरकार अब बेलगाम होकर नव-उदारवादी नीतियों का पालन कर रही है, और इसके तहत अर्थव्यवस्था में सरकार के बचे-खुचे दखल को खत्म करने के रास्ते पर चल रही है। अपने पहले कार्यकाल में वामपंथी दलों के समर्थन पर निर्भर होने की वजह से यूपीए सरकार जिन कदमों को नहीं उठा सकी और अनिच्छा से जन कल्याण के जो कदम उसे उठाने पड़े- उन दोनों ही क्षेत्रों में वह अपनी ‘गलतियों’ को अब वह सुधारना चाहती है। सूचना का अधिकार कानून को बेअसर करने की प्रधानमंत्री की मंशा अब सार्वजनिक हो चुकी है। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून के प्रति सरकार के स्तर पर कोई उत्साह है, इसके लक्षण ढूंढने से भी नहीं मिलते हैं। सरकार खाद्य सुरक्षा कानून के वादे की रस्मअदायगी से आगे नहीं जाना चाहती, यह भी अब साफ हो चुका है। और महंगाई की मार से चंद संपन्न तबकों को छोड़ कर बाकी कौन बचा है! तो सवाल है कि आम लोग क्या करें?

लोकतांत्रिक ढांचे में विपक्ष का यही काम होता है कि वह सरकारी नीतियों की आलोचना जनता के सामने पेश करे। उसे सरकार के विरोध और उसे बेनकाब करने का जनादेश मिला होता है। ऐसा करने के लिए जुलूस, धरना, प्रदर्शन, जन सभा और आम हड़ताल उसके औजार हैं। हमने बंद और हड़ताल की ऐसी अनगिनत अपीलें देखी हैं, जिन पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया। जब ऐसी अपील उनकी भावनाओं को छूती है, तभी वे उसे समर्थन देते हैं। पांच जुलाई का बंद इसलिए सफल रहा, क्योंकि वह लोगों के सामान्य अनुभूतियों से जुड़ा। कांग्रेस पार्टी अगर इसे नहीं समझती है, तो यह उसकी अपनी समस्या है। अक्सर सत्ता का अहंकार पार्टियों को हकीकत से विमुख कर देता है।

कांग्रेस पार्टी अगर सोचती है कि एक बार फिर उसका एकछत्र राज हो गया है, तो पार्टी नेताओं की समझ पर सिर्फ तरस ही खाया जा सकता है। सोनिया गांधी और उनके सलाहकार भले अब यह न देख पा रहे हों, लेकिन सच्चाई यही है कि एक खास ऐतिहासिक परिस्थिति में पार्टी का पुनर्जीवन हुआ। सांप्रदायिक-फासीवाद के बढ़ते खतरे ने उसे धर्मनिरपेक्ष ताकतों के व्यापक गठजोड़ में केंद्रीय भूमिका दी। लेकिन इसके साथ ही उसे समर्थन देने वाले जन समूहों की यह अपेक्षा भी थी कि कांग्रेस उन धुर दक्षिणपंथी नीतियों से अलग मध्यमार्ग पर चले, जिन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने बेलगाम होकर अपनाया था। दरअसल, इन्हीं नीतियों की वजह से नरसिंह राव के जमाने में कांग्रेस जनता से कटते हुए अप्रासंगिक होने के कगार पर पहुंच गई थी।

दुर्भाग्य से २००९ के चुनाव के बाद वामपंथी दलों के दबाव से मुक्त होते ही कांग्रेस नेता इस ऐतिहासिक सबक को पूरी तरह भूल गए हैं। वे यह भूल गए हैं कि नरसिंह राव के जमाने वाली नीतियां दरअसल मनमोहन सिंह की ही थीं। और उन्हें यह भी याद नहीं है कि मनमोहन सिंह एक ऐसे नेता हैं, जिनका कुछ भी दांव पर नहीं लगा है। जनता के बीच वे सिर्फ एक बार गए और उसका क्या नतीजा रहा था, कम से कम यह तो कांग्रेस आलाकमान को याद रखना चाहिए। खास ऐतिहासिक परिस्थितियों ने बैंकर और नव-उदारवाद के इस अनुयायी को देश के सबसे अहम पद पर पिछले छह साल से बनाए रखा है। मगर ये परिस्थितियां हमेशा कांग्रेस के हक में नहीं रहेंगी। आम आदमी के नारे के साथ आम आदमी के हितों पर चोट का खेल बहुत लंबा नहीं चलेगा।

बहरहाल, कांग्रेस जो नीतियां अपनाएगी, उसकी तो फिर जवाबदेही है। जनता उसका हिसाब करेगी। लेकिन एयरकंडीशन्ड कमरों में बैठकर बंद और हड़ताल के खिलाफ उपदेश देने वाले समूहों की तो यह भी जवाबदेही नहीं है। इसलिए यह देश की जनतांत्रिक शक्तियों का कर्त्तव्य है कि वे इस बहस में उतरें और जनता द्वारा अपने अधिकार जताने के लिए लंबे संघर्ष से हासिल औजारों की रक्षा करें। देश का फायदा और नुकसान क्या है, इसका हिसाब लगाने का सारा ठेका फिक्की, एसौचैम और सीआईआई के पास नहीं है। और जनता अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए कैसे लड़े, यह जानने के लिए वह न्यायपालिका की मोहताज नहीं है। पांच जुलाई को देश के जन समूहों ने यह बात फिर पुरजोर ढंग से जता दी है।

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