Saturday, July 10, 2010

शिखर पर फुटबॉल के सौंदर्य

सत्येंद्र रंजन


योहान क्रायफ स्पेन के कैटेलोनिया में रहते हैं। खबरों के मुताबिक नीदरलैंड और स्पेन के बीच विश्व कप के बहु-प्रतिक्षित फाइनल के बारे में जब राय जानने के लिए मीडिया ने उनसे संपर्क किया, तो उन्होंने बात करने से मना कर दिया। क्रायफ की दुविधा समझी जा सकती है। फाइनल में एक टीम उनके देश की है, और दूसरी वह जिसके खेलने का अंदाज उनके ज्यादा करीब बैठता है। आज मुकाबला उन दो टीमों में है, जिन पर क्रायफ की विरासत का साया है।

क्रायफ ने 1970 के दशक में टोटल फुटबॉल की शैली दुनिया के सामने पेश की थी। छोटे पास और बिना पूर्व निर्धारित दिशा के दौड़ते हुए उनकी टीम के खिलाड़ियों ने आक्रामक फुटबॉल का जो नज़ारा पेश किया था, उसकी आज तक बड़े रोमांच के साथ चर्चा की जाती है। उसी दशक में लगातार दो विश्व कप में नीदरलैंड फाइनल तक पहुंचा। 1974 में वह पश्चिम जर्मनी से हारा और 1978 में अर्जेंटीना से। हालांकि फुटबॉल की लोककथाओं में यह दर्ज है कि दोनों बार नीदरलैंड के साथ नाइंसाफी हुई- टीम गलत फैसलों की वजह से हारी।

क्रायफ का युग बीतने के बाद नीदरलैंड ने अपने खेलने का ढंग बदल लिया। आक्रमण तो फिर उसमें रहा, लेकिन साथ ही ढांचे और तय रणनीति की शैली को भी अपना लिया गया। फुटबॉल की यूरोपीय संस्कृति के मुताबिक जीतना इसमें अहम हो गया। मौजूदा विश्व कप शुरू होने के पहले टीम के कोच बर्ट वान मारविक ने कहा था- ‘अगर हम खूबसूरत फुटबॉल खेलते हुए जीत सके, तो यह शानदार बात होगी। लेकिन दो साल पहले जब मैं कोच बना, तो मैंने खिलाड़ियों से कहा कि तुम्हें बदसूरत मैचों को जीतने में भी सक्षम बनना पड़ेगा।’ क्रायफ सार्वजनिक रूप से नीदरलैंड टीम के मौजूदा रुझान की आलोचना कर चुके हैं।

जब अपना देश उनके रास्ते से हट गया तो क्रायफ स्पेन चले गए। 1988 में एफसी बार्सिलोना के कोच बने। तब से वे स्पेन में फुटबॉल की अपनी स्टाइल को लोकप्रिय बनाने में जुटे रहे हैं। और इसमें वे कामयाब भी हुए हैं। आज स्पेन की राष्ट्रीय टीम की शैली क्रायफ की शैली के लगभग करीब है। और हो भी क्यों नहीं? जर्मनी के खिलाफ मैच में स्पेन के जो आरंभिक ग्यारह खिलाड़ी उतरे, उनमें छह एफसी बार्सिलोना के थे। इस क्लब में क्रायफ के बाद कई कोच आए-गए, लेकिन उसने अपने खेलने का तरीका नहीं बदला। टीम के मिडफील्ड में ज़ावी, एंद्रेस एनियेस्ता और बुस्के हैं, जो बार्सिलोना के लिए खेलते हैं। दरअसल, स्पेन की पूरी टीम ही ऐसे ही खिलाड़ियों से बनी है। इंग्लैंड के कोच फेबियो कपेलो कहते हैं कि स्पेन के खिलाड़ी दुनिया के चाहे जिस टीम में खेलें, अपनी ही शैली का फुटबॉल खेलते हैं। इसलिए जब वे अपनी राष्ट्रीय टीम में जाते हैं, तो उन्हें तालमेल बनाने में कोई दिक्कत नहीं होती। जर्मनी के कोच जोओखिम लोव का कहना है- ‘ऐसे (आक्रामक) खेल में उन्हें (स्पेन के खिलाड़ियों को) महारत है। इस बात की मिसाल आप उनके हर पास में देख सकते हैं।’

तो मुकाबला दो ऐसी टीमों के बीच है, जिन पर एक खास स्टाइल के फुटबॉल की छाप है। 1980 के दशक के नीदरलैंड के मशहूर खिलाड़ी रुड गुलिट का कहना है- ‘हम जो देख रहे हैं, वह आक्रामक फुटबॉल की विजय है और लोग तो यही देखना चाहते हैं।’ इतिहास नीदरलैंड के पक्ष में ज्यादा है। पिछले अठारह विश्व कप टूर्नामेंटों से आठ में नीदरलैंड की टीम खेली है। इसमें चार बार क्वार्टर फाइनल में, तीन बार सेमीफाइनल में और दो बार फाइनल में पहुंची है। स्पेन की टीम अब से पहले बारह बार विश्व कप में खेली है। उसका सर्वोत्तम प्रदर्शन 1950 में रहा, जब टीम चौथे नंबर पर रही। लेकिन उस वक्त यह टूर्नामेंट राउंड रोबिन आधार पर खेला गया था। वैसे स्पेन की टीम चार बार क्वार्टर फाइनल तक पहुंची है। इस लिहाज से इस बार फाइनल में पहुंच कर वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुकी है।

नीदरलैंड को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिए आज जीतना ही होगा। स्पेन के सामने लक्ष्य अपने सर्वश्रेष्ठ और बड़ा एवं और यादगार बनाने का है। जबकि फुटबॉल के दीवानों की निगाह यह देखने पर है कि योहान क्रायफ जैसा विशुद्ध आक्रामक और खूबसूरत फुटबॉल जीतता है, या उसमें ढांचे को जोड़ कर जो नया फॉर्मेट तैयार किया गया है, उसकी विजय होती है।
गौरतलब है कि स्पेन की टीम ऊंची उम्मीदों के साथ इस विश्व कप में पहुंची। दुनिया भर में एक स्वर से उसे विश्व चैंपियन होने का फेवरिट (यानी दावेदार) माना गया। ऐसी धारणा पिछले दो साल से रही है, जब इस टीम ने पहली बार यूरो चैंपियनशिप जीता था। उस जीत के साथ स्पेन ने अंडरअचीवर यानी अपनी क्षमता की तुलना में कम हासिल करने का धब्बा धो दिया था। उसके बाद से टीम सपनों जैसी उड़ान पर रही है।

दक्षिण अफ्रीका पहुंचने से पहले टीम के स्ट्राइकर फर्नांडो तोरेस ने कहा था- “दुनिया में आप जहां जाएं, हमें फेवरिट माना जाता है। ब्राजील में फेवरिट ब्राजील और स्पेन को कहा जाता है, इंग्लैंड में इंग्लैंड और स्पेन को, अर्जेंटीना में अर्जेंटीना और स्पेन को, और जर्मनी में जर्मनी और स्पेन को। यानी हर जगह हमारा नाम तो जरूर है।” लेकिन दक्षिण अफ्रीका में स्पेन की शुरुआत निराशाजनक रही, जब वह अपने पहले ही मैच में स्विट्जरलैंड से 0-1 से हार गई। उसके बाद के चार मैच भी उसने वैसे नहीं खेले, जैसी उसकी प्रतिष्ठा है। तो अंडरअचीवर की चर्चा फिर लौट आई।

मगर टीम ने तब क्लिक किया, जब उसकी सचमुच जरूरत थी। सेमी फाइनल में उसके सामने जर्मनी की टीम थी, जिसे टूर्नामेंट से पहले फेवरिट नहीं माना गया था, लेकिन जो दक्षिण अफ्रीका पहुंच कर अपने प्रदर्शन से फेवरिट बन गई थी। टीम फ्री फ्लो में थी। बेहतरीन तालमेल था। टीम की आंतरिक शक्ति उभार पर थी। लेकिन सेमी फाइनल में स्पेन के आगे जैसे उसने समर्पण कर दिया। उस रोज स्पेन ने दिखाया कि उसे आज क्यों खूबसूरत फुटबॉल का सिरमौर कहा जाता है। छोटे पास, बॉल पोजेशन, साफ-सुथरा खेल, फाउल से बचना, आपसी तालमेल से आगे बढ़ना और विपक्षी गोलपोस्ट पर दबाव बनाए रखना नए स्पेन की शैली है।

दूसरी नीदरलैंड टूर्नामेंट की अकेली टीम है, जिसने अब तक अपने सभी छह मैच जीते हैं। टीम की रक्षा और आक्रमण पंक्ति में तालमेल बना रहा है। हालांकि सेमीफाइनल में उरुग्वे के खिलाफ उसका प्रदर्शन प्रभावशाली नहीं रहा, लेकिन यह भी सच है कि पूरे टूर्नामेंट में टीम कभी ल़ड़खड़ाती नजर नहीं आई है। दो जुलाई को क्वार्टर फाइनल में इस टीम ने इस टूर्नामेंट में फेवरिट मानी जा रही एक और टीम ब्राजील को हरा दिया। उस दिन हाफ टाइम तक नीदरलैंड की टीम ब्राजील से 0-1 से पिछड़ी हुई थी। जब ब्रेक हुआ तो टीम के खिलाड़ियों से नीदरलैंड के कोच बर्ट वान मारविक ने कहा- ‘अभी तक तुम लोग जैसे खेल रहे हो, वैसे ही खेलते रहे तो यह मैच हम लोग तीन या चार गोल से हारेंगे और कल हमारी घर वापसी हो जाएगी। या फिर तुम्हारे सामने दूसरा तरीका है कि जाओ और अपने ढंग का खेल खेलो, ताकि ब्राजील के खिलाड़ी तुम्हारे पीछे दौड़ें।’ इस गुरु मंत्र का जादुई असर हुआ। जैसा कोच चाहते थे, वही असल में मैदान पर घटित हुआ! नीदरलैंड ने उसी ढंग से खेल से मैदान मार लिया, जिस शैली पर ब्राजील की महारत रही है। यह नीदरलैंड की टीम की आंतरिक शक्ति और खिलाड़ियों के दृढ़ निश्चय की एक मिसाल है।

वैसे खेल की खूबसूरती सिर्फ स्पेन हो या नीदरलैंड की थाती हो, आज ऐसा नहीं है। इस विश्व कप की एक विशेषता यह भी है कि इस बार 1980-90 के दशकों की यूरोपीय फुटबॉल शैली का पूरा पराभव हो गया। कहा जाता है कि उस शैली में शारीरिक ताकत का ज्यादा जोर होता था। जबकि उसके बरक्स दक्षिण अमेरिकी शैली थी, जिसे कलात्मक और खूबसूरत फुटबॉल कहा जाता था। क्या ऐसा कोई अंतर इस बार आपको नज़र आया है? शायद नहीं। जैसे छोटे पास ब्राजील या अर्जेंटीना की विशेषता थे, उसे अब स्पेन या जर्मनी कहीं ज्यादा अंजाम देते नजर आए हैं। जिस तरह दक्षिण अमेरिकी टीमें पहले तालमेल से आक्रमण के लिए बढ़ती थीं, उसे अब बड़ी यूरोपीय टीमों ने भी उतनी ही खूबी के साथ अपना लिया है। बॉल पोजेशन यानी गेंद को अपने पास ज्यादा से ज्यादा समय रखना पहले ब्राजील और अर्जेंटीना की खासियत मानी जाती थी। अब वही फुटबॉल स्पेन, नीदरलैंड, जर्मनी सभी खेल रहे हैं।

क्वार्टर फाइनल दौर से पहले फीफा के आंकड़ों पर आधारित एक अध्ययन से सामने आया कि पांच टॉप टीमें वो थीं, जिनके सफलता से पास देने की दर सबसे ज्यादा थी। ब्राजील, स्पेन, अर्जेंटीना, जर्मनी और नीदरलैंड की यह दर कम से कम 84 फीसदी थी। इंग्लैंड के खिलाड़ी सिर्फ 78 फीसदी सफल पास दे पाए और उनकी जल्द विदाई हो गई। इंग्लैंड के क्लब मैनचेस्टर यूनाइटेड के पूर्व स्ट्राइकर एंडी कोल ने इस संबंध में टिप्पणी की- “अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल में आज पोजेशन सबसे अहम पहलू है। जो टीमें छोटे पास देने और वन टच गेम खेलने में माहिर हैं, वही सबसे ज्यादा सफल हैं।”

वो 1980-90 के दशकों का दौर था, जब यूरोपीय टीमें ताकतवर स्ट्राइकर्स और हट्ठे-कट्ठे खिलाड़ियों को केंद्र में रख कर तैयार की जाती थीं। तब नॉर्वे की टीम इस लिहाज से खासी चर्चित हुई थी। लंबे शॉट लगाने और विपक्षी टीम को ताकत से टैकल करने की रणनीति अपना कर यह टीम फीफा वर्ल्ड रैंकिंग में दूसरे नंबर पर पहुंच गई थी। वो लगातार दो बार वर्ल्ड कप टूर्नामेंट तक पहुंची। लेकिन अब उसी टीम के कोच रहे एजिल ओलसन का कहना है कि अब उसे नहीं दोहराया जा सकता। अब खेल अलग ढंग से खेला जाता है, जिसमें गेंद को पांव से सटा कर रखने और छोटे पास देने पर जोर है।
दरअसल, यह बदलाव अनायास नहीं आ गया। 1990 के विश्व कप टूर्नामेंट में खेले गए नीरस और जोर-जबरदस्ती वाले खेल ने फीफा और फुटबॉल प्रेमियों को गहरी चिंता में डाला। तब से नियमों में कई बदलाव लाए गए। गोलकीपर को बैकपास देने और पीछे से किसी खिलाड़ी को टैकल करने पर रोक लगा दी गई। फाउल के नियम कड़े कर दिए गए। ऑफ साइड का नियम बदल दिया गया, जिससे टीमें अपने पेनाल्टी इलाके को बचाने का जो जाल बिछाती थीं, वह करना नामुमकिन हो गया।

नतीजा यह है कि फुटबॉल का खेल ज्यादा खूबसूरत हुआ है। कुछ जानकार इसका एक नुकसान यह जरूर बताते हैं कि इससे दुनिया भर में यह खेल ऐसा जैसा हो गया है। अब टीमों के स्टाइल, टैक्सिस और स्ट्रेटेजी में अंतर बहुत बारीक ही रह गया है। अब संभवतः असली बात टीम में तालमेल और उसकी आंतरिक शक्ति है और उसी से नतीजा तय होता है। मगर खूबसूरती के फैलने पर क्या अफसोस? अब जोगा बोनितो (खूबसूरत खेल) पर सिर्फ ब्राजील या दक्षिण अमेरिका का ही एकाधिकार नहीं है। और यूरोप में इसके दो सबसे बड़े अनुयायी-स्पेन और नीदरलैंड- आज फुटबॉल के चरमोत्कर्ष पर हैं। आज उनका मुकाबला देखना कतई ना भूलिएगा!

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