सत्येंद्र रंजन
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने रविवार को हरियाणा के झज्जर में भारत-अमेरिका परमाणु सहयोग समझौते के विरोधियों को जो चुनौती दी, वह उतनी ही गलत समझ और राजनीतिक गणना पर आधारित है, जितनी अगस्त की शुरुआत में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के लिए वामपंथी दलों को चुनौती देना था। कोलकाता के अखबार द टेलीग्राफ को दिए मनमोहन सिंह के उस इंटरव्यू से भड़का राजनीतिक विवाद सोनिया गांधी के बयान से अपने चरम बिंदु पर पहुंच गया है। इसके साथ ही लोकसभा का मध्यावधि चुनाव अब अपरिहार्य सा लगने लगा है। इसलिए कि धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर बनी राष्ट्रीय आम सहमति अब टूटने के कगार पर है। मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी के लिए अमेरिका से रिश्ते मजबूत करना इस आम सहमति से ज्यादा अहम बन गया है और ऐसे में चुनाव ही अकेला विकल्प नजर आता है।
बहरहाल, कांग्रेस के नेता कुछ बातें अपने सामने साफ कर लें तो बेहतर है। अगर वे सोच रहे हैं कि इस वक्त देश में उनकी लहर चल रही है तो वे बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार हैं। पांच महीने पहले के उत्तर प्रदेश चुनाव से अगर वे सबक लें तो उनकी आंखें खुल सकती हैं, जहां उनका राहुल गांधी कार्ड भी बेनकाब हो गया। फिर जिस करार के लिए वे अपनी सरकार और उससे भी बड़ी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय आम सहमति को कुर्बान करने जा रहे हैं, वह वैसे भी अमल में नहीं आएगा। चुनाव की परिस्थिति बनने के साथ यह करार ठहर जाएगा और यह तो कांग्रेस नेता शायद सपने में भी नहीं सोचते होंगे कि अगले चुनाव में उन्हें या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को अपना बहुमत मिल जाएगा। चुनाव बाद भी यूपीए की सरकार अगर बनी तो उसके लिए वामपंथी दलों के समर्थन की जरूरत होगी और तब इस करार पर आगे न बढ़ना इन दलों की पूर्व शर्त होगी। और अगर भारतीय जनता पार्टी एवं उसके सहयोगी दल सत्ता में आ गए तो फिर कांग्रेस विपक्ष में बैठ कर अमेरिका का कितना समर्थन कर पाएगी, यह सवाल उसके सामने है।
सोनिया गांधी ने इस विवाद में अपने को झोंक कर एक बड़ा नुकसान किया है। गौरतलब है कि पिछले साढ़े तीन साल में तमाम राजनीतिक विवादों के बीच वामपंथी दलों या व्यापक तौर पर धर्मनिरपेक्ष- लोकतांत्रिक शक्तियों ने उन पर कभी हमला नहीं किया। इसलिए कि ये शक्तियां भारतीय राजनीति के मौजूदा मुकाम पर उनकी अहमियत और प्रासंगिकता को जानती हैं। ये शक्तियां यह समझती हैं कि अभी सांप्रदायिक-फासीवाद एवं सामाजिक रूढ़िवाद से संघर्ष में कांग्रेस पार्टी की एक बड़ी भूमिका है और कांग्रेस पार्टी का चरित्र ऐसा है कि वह यह भूमिका तभी निभा सकती है, जब उसका नेतृत्व नेहरु-गांधी परिवार से आए नेता के पास हो। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित भारतीय राष्ट्र की नेहरूवादी अवधारणा को कायम रखने में आज भी कांग्रेस पार्टी की खास भूमिका है। सोनिया गांधी ने निजी तौर पर भी इन मूल्यों को मूर्त बनाए रखने में अपना अहम योगदान दिया है।
सोनिया गांधी की खूबी यह रही कि उन्होंने राजनीति में कदम पार्टी के विपक्ष में होने के समय रखा। संघ परिवार और उसके जॉर्ज फर्नांडिस जैसे लोहियावादी सहयोगियों के तमाम निजी हमलों और चरित्र हनन के अभियान को सहते हुए भी वे भाजपा नेतृत्व वाले सांप्रदायिक-फासीवादी शासन से संघर्ष में एक केंद्रीय व्यक्तित्व के रूप में उभरीं और सांप्रदायिकता विरोधी शक्तियों में राजनीतिक गठबंधन का स्रोत बनीं। इन शक्तियों को बहुमत मिलने के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री पद ठुकरा कर अपनी शख्सियत को इतना ऊंचा कर लिया, कि वे आधुनिक भारत के निर्माण में उनकी खास जगह बन गई। पिछले साढ़े तीन साल में उन्होंने अक्सर वंचित तबकों, लोकतांत्रिक आकांक्षाओं और धर्मनिरपेक्ष आम सहमति की तरफ से मौजूदा शासन में हस्तक्षेप किया। ऐसे में उनसे यही अपेक्षा रही है कि परमाणु करार के सवाल पर उठे विवाद में वे एक ऐसा पुल बनी रहेंगी, जिससे मतभेद की तमाम खाइयों को पाटा जा सकेगा।
इसीलिए झज्जर की सभा में उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उससे देश के विवेकशील लोगों को सदमा लगा है। सोनिया गांधी का यह कहना कि जो लोग परमाणु करार के खिलाफ हैं, वे न सिर्फ कांग्रेस बल्कि विकास का दुश्मन हैं, उनकी अपनी शख्सियत पर ग्रहण लगाता है। बहरहाल, जब उन्होंने यह मुद्दा उठा दिया है, तो उन्हें इसका जवाब जरूर दिया जाना चाहिए। सबसे पहली बात यह है कि संसद का बहुमत जिस समझौते के खिलाफ है, उस पर अमल नहीं हो सकता, यह एक बुनियादी लोकतांत्रिक सिद्धांत और हकीकत है। मौजूदा लोकसभा में तकरीबन ३०० सदस्य भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते के खिलाफ हैं, जो यह जाहिर करता है कि इस देश का बहुमत इस समझौते के हक में नहीं है। ऐसे में यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या देश के विकास पर कांग्रेस का एकाधिकार है, जिसे वह हर हाल में लागू करेगी, भले देश का बहुमत इसे नही चाहता हो?
इसी से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या जो लोग सरकार के किसी एक कदम या पहल से सहमत नहीं हों, उन्हें काग्रेस पार्टी अपना दुश्मन मानती है? अगर ऐसा है तो क्या यह असहिष्णुता और लोकतंत्र में आस्था न होने की मिसाल नहीं है? कांग्रेस नेता यह जरूर सोच सकते हैं कि वामपंथी दल करीब साठ लोकसभा सीटों की बदौलत देश का एजेंडा तय नहीं कर सकते। लेकिन यही सवाल कांग्रेस के भी सामने है। वह तकरीबन १४५ के साथ देश के विकास का ठेका नहीं ले सकती। दरअसल, कांग्रेस नेताओं की यह सोच सिर्फ यह जताती है कि उन्होंने २००४ के जनादेश को नहीं समझा। वे यह नहीं समझ सके कि उस जनादेश से सत्ता का जो आधार बना, उसमें कांग्रेस, यूपीए के दूसरे घटक और वामपंथी दल सभी शामिल हैं। असल में, साझा न्यूनतम कार्यक्रम इसी सत्ता आधार का कार्यक्रम था, जिसके प्रति प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार ने सिर्फ मजबूरी में ही सम्मान का भाव दिखाया है।
इस कार्यक्रम के प्रति यूपीए सरकार की बेरुखी के उदाहरण भरे पड़े हैं। इनमें सबसे ताजा मिसाल आदिवासियों और अन्य जन जातियों को जंगल पर अधिकार देने का कानून है, जो साल भर से संसद से पास होकर पड़ा है, लेकिन नियम तय नहीं किए जाने की वजह से जिसे आज तक अधिसूचित नहीं किया गया है। जबकि इस कानून के प्रावधानों को लेकर गुजरात में नरेंद्र मोदी और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की भाजपा सरकारों ने पहल कर दी है। उन्होंने आदिवासियों को जमीन का पट्टा देने की शुरुआत कर दी है, हालांकि सुप्रीम कोर्ट के स्टे से फिलहाल गुजरात में यह काम ठहर गया है। यह स्टे इसीलिए लगा है क्योंकि केंद्र सरकार ने अभी तक इस बारे में कायदे तय नहीं किए हैं। आखिर केंद्र के सामने क्या मुश्किल है कि उसने अपनी पहल का राजनीतिक लाभ अपने विरोधी को ले लेने का मौका दे दिया है? यह मुश्किल दरअसल प्रतिबद्धता की कमी है।
बेहतर होता, सोनिया गांधी इस मसले पर दखल देतीं। इससे जहां आदिवासियों से हुए ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने की प्रक्रिया पर अमल शुरू होता, वहीं कांग्रेस पार्टी के लिए वोटों का भी लाभ होता। लेकिन ऐसा करने के बजाय झज्जर की सभा में सोनिया गांधी ने जो भाषण दिया, उससे यह संदेश गया कि पार्टी में ऊपर से नीचे तक की प्राथमिकताएं भटक गई हैं।
इससे पैदा हुईं ताजा परिस्थितियों के बीच सांप्रदायिक शक्तियों को फिर से उभरने का अनुकूल मौका मिल गया है। अगर चुनाव होते हैं तो इसमें बचाव की मुद्रा में कांग्रेस और उसके साथी दल होंगे। एक प्रमुख मुद्दा राष्ट्रीय स्वावलंबन बनाम अमेरिकी साम्राज्यवाद होगा, जिस पर यूपीए को भाजपा से लेकर वामपंथी दलों के हमले झेलने होंगे। मई २००४ में धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर लोकतांत्रिक भारत के जिस पुनर्निर्माण की शुरुआत हुई थी, उससे जुड़े सारे प्रयास पृष्ठभूमि में चले जाएंगे। चूंकि उस प्रयास से जुड़ी सभी शक्तियां एकजुट मैदान में नहीं होंगी, इसलिए इस विभाजन का फायदा सीधे तौर पर धुर दक्षिणपंथी ताकतों को मिलेगा। १९९० के दशक में देश में जो राजनीतिक ध्रुवीकरण शुरू हुआ, वह आज तक कमोबेश कायम है औऱ इसके बीच चुनाव नतीजे सिर्फ दो पहलुओं से तय होते हैं। इनमें पहला पहलू गठबंधन का गणित है और दूसरा एंटी-इन्कंबेंसी यानी सत्ताधारी के प्रति असंतोष की भावना। मौजूदा हालात में ये दोनों पहलू धर्मनिरपेक्ष ताकतों के खिलाफ होंगे।
कांग्रेस ने अगर चुनाव में उतरने का मन बना लिया है तो उसे इन सभी पहलुओं पर गौर कर लेना चाहिए। उसे इनके परिणामों के लिए तैयार रहना चाहिए। आधुनिक भारतीय राष्ट्र और देश के कमजोर एवं वंचित तबकों के लिए इसके परिणामों की उन्हें चिंता नहीं है, तो कम से कम अपने भविष्य के बारे में कांग्रेस नेताओं को जरूर सोचना चाहिए। वरना, आत्महत्या करने से किसी को कौन रोक पाता है?
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने रविवार को हरियाणा के झज्जर में भारत-अमेरिका परमाणु सहयोग समझौते के विरोधियों को जो चुनौती दी, वह उतनी ही गलत समझ और राजनीतिक गणना पर आधारित है, जितनी अगस्त की शुरुआत में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के लिए वामपंथी दलों को चुनौती देना था। कोलकाता के अखबार द टेलीग्राफ को दिए मनमोहन सिंह के उस इंटरव्यू से भड़का राजनीतिक विवाद सोनिया गांधी के बयान से अपने चरम बिंदु पर पहुंच गया है। इसके साथ ही लोकसभा का मध्यावधि चुनाव अब अपरिहार्य सा लगने लगा है। इसलिए कि धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर बनी राष्ट्रीय आम सहमति अब टूटने के कगार पर है। मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी के लिए अमेरिका से रिश्ते मजबूत करना इस आम सहमति से ज्यादा अहम बन गया है और ऐसे में चुनाव ही अकेला विकल्प नजर आता है।
बहरहाल, कांग्रेस के नेता कुछ बातें अपने सामने साफ कर लें तो बेहतर है। अगर वे सोच रहे हैं कि इस वक्त देश में उनकी लहर चल रही है तो वे बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार हैं। पांच महीने पहले के उत्तर प्रदेश चुनाव से अगर वे सबक लें तो उनकी आंखें खुल सकती हैं, जहां उनका राहुल गांधी कार्ड भी बेनकाब हो गया। फिर जिस करार के लिए वे अपनी सरकार और उससे भी बड़ी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय आम सहमति को कुर्बान करने जा रहे हैं, वह वैसे भी अमल में नहीं आएगा। चुनाव की परिस्थिति बनने के साथ यह करार ठहर जाएगा और यह तो कांग्रेस नेता शायद सपने में भी नहीं सोचते होंगे कि अगले चुनाव में उन्हें या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को अपना बहुमत मिल जाएगा। चुनाव बाद भी यूपीए की सरकार अगर बनी तो उसके लिए वामपंथी दलों के समर्थन की जरूरत होगी और तब इस करार पर आगे न बढ़ना इन दलों की पूर्व शर्त होगी। और अगर भारतीय जनता पार्टी एवं उसके सहयोगी दल सत्ता में आ गए तो फिर कांग्रेस विपक्ष में बैठ कर अमेरिका का कितना समर्थन कर पाएगी, यह सवाल उसके सामने है।
सोनिया गांधी ने इस विवाद में अपने को झोंक कर एक बड़ा नुकसान किया है। गौरतलब है कि पिछले साढ़े तीन साल में तमाम राजनीतिक विवादों के बीच वामपंथी दलों या व्यापक तौर पर धर्मनिरपेक्ष- लोकतांत्रिक शक्तियों ने उन पर कभी हमला नहीं किया। इसलिए कि ये शक्तियां भारतीय राजनीति के मौजूदा मुकाम पर उनकी अहमियत और प्रासंगिकता को जानती हैं। ये शक्तियां यह समझती हैं कि अभी सांप्रदायिक-फासीवाद एवं सामाजिक रूढ़िवाद से संघर्ष में कांग्रेस पार्टी की एक बड़ी भूमिका है और कांग्रेस पार्टी का चरित्र ऐसा है कि वह यह भूमिका तभी निभा सकती है, जब उसका नेतृत्व नेहरु-गांधी परिवार से आए नेता के पास हो। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित भारतीय राष्ट्र की नेहरूवादी अवधारणा को कायम रखने में आज भी कांग्रेस पार्टी की खास भूमिका है। सोनिया गांधी ने निजी तौर पर भी इन मूल्यों को मूर्त बनाए रखने में अपना अहम योगदान दिया है।
सोनिया गांधी की खूबी यह रही कि उन्होंने राजनीति में कदम पार्टी के विपक्ष में होने के समय रखा। संघ परिवार और उसके जॉर्ज फर्नांडिस जैसे लोहियावादी सहयोगियों के तमाम निजी हमलों और चरित्र हनन के अभियान को सहते हुए भी वे भाजपा नेतृत्व वाले सांप्रदायिक-फासीवादी शासन से संघर्ष में एक केंद्रीय व्यक्तित्व के रूप में उभरीं और सांप्रदायिकता विरोधी शक्तियों में राजनीतिक गठबंधन का स्रोत बनीं। इन शक्तियों को बहुमत मिलने के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री पद ठुकरा कर अपनी शख्सियत को इतना ऊंचा कर लिया, कि वे आधुनिक भारत के निर्माण में उनकी खास जगह बन गई। पिछले साढ़े तीन साल में उन्होंने अक्सर वंचित तबकों, लोकतांत्रिक आकांक्षाओं और धर्मनिरपेक्ष आम सहमति की तरफ से मौजूदा शासन में हस्तक्षेप किया। ऐसे में उनसे यही अपेक्षा रही है कि परमाणु करार के सवाल पर उठे विवाद में वे एक ऐसा पुल बनी रहेंगी, जिससे मतभेद की तमाम खाइयों को पाटा जा सकेगा।
इसीलिए झज्जर की सभा में उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उससे देश के विवेकशील लोगों को सदमा लगा है। सोनिया गांधी का यह कहना कि जो लोग परमाणु करार के खिलाफ हैं, वे न सिर्फ कांग्रेस बल्कि विकास का दुश्मन हैं, उनकी अपनी शख्सियत पर ग्रहण लगाता है। बहरहाल, जब उन्होंने यह मुद्दा उठा दिया है, तो उन्हें इसका जवाब जरूर दिया जाना चाहिए। सबसे पहली बात यह है कि संसद का बहुमत जिस समझौते के खिलाफ है, उस पर अमल नहीं हो सकता, यह एक बुनियादी लोकतांत्रिक सिद्धांत और हकीकत है। मौजूदा लोकसभा में तकरीबन ३०० सदस्य भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते के खिलाफ हैं, जो यह जाहिर करता है कि इस देश का बहुमत इस समझौते के हक में नहीं है। ऐसे में यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या देश के विकास पर कांग्रेस का एकाधिकार है, जिसे वह हर हाल में लागू करेगी, भले देश का बहुमत इसे नही चाहता हो?
इसी से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या जो लोग सरकार के किसी एक कदम या पहल से सहमत नहीं हों, उन्हें काग्रेस पार्टी अपना दुश्मन मानती है? अगर ऐसा है तो क्या यह असहिष्णुता और लोकतंत्र में आस्था न होने की मिसाल नहीं है? कांग्रेस नेता यह जरूर सोच सकते हैं कि वामपंथी दल करीब साठ लोकसभा सीटों की बदौलत देश का एजेंडा तय नहीं कर सकते। लेकिन यही सवाल कांग्रेस के भी सामने है। वह तकरीबन १४५ के साथ देश के विकास का ठेका नहीं ले सकती। दरअसल, कांग्रेस नेताओं की यह सोच सिर्फ यह जताती है कि उन्होंने २००४ के जनादेश को नहीं समझा। वे यह नहीं समझ सके कि उस जनादेश से सत्ता का जो आधार बना, उसमें कांग्रेस, यूपीए के दूसरे घटक और वामपंथी दल सभी शामिल हैं। असल में, साझा न्यूनतम कार्यक्रम इसी सत्ता आधार का कार्यक्रम था, जिसके प्रति प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार ने सिर्फ मजबूरी में ही सम्मान का भाव दिखाया है।
इस कार्यक्रम के प्रति यूपीए सरकार की बेरुखी के उदाहरण भरे पड़े हैं। इनमें सबसे ताजा मिसाल आदिवासियों और अन्य जन जातियों को जंगल पर अधिकार देने का कानून है, जो साल भर से संसद से पास होकर पड़ा है, लेकिन नियम तय नहीं किए जाने की वजह से जिसे आज तक अधिसूचित नहीं किया गया है। जबकि इस कानून के प्रावधानों को लेकर गुजरात में नरेंद्र मोदी और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की भाजपा सरकारों ने पहल कर दी है। उन्होंने आदिवासियों को जमीन का पट्टा देने की शुरुआत कर दी है, हालांकि सुप्रीम कोर्ट के स्टे से फिलहाल गुजरात में यह काम ठहर गया है। यह स्टे इसीलिए लगा है क्योंकि केंद्र सरकार ने अभी तक इस बारे में कायदे तय नहीं किए हैं। आखिर केंद्र के सामने क्या मुश्किल है कि उसने अपनी पहल का राजनीतिक लाभ अपने विरोधी को ले लेने का मौका दे दिया है? यह मुश्किल दरअसल प्रतिबद्धता की कमी है।
बेहतर होता, सोनिया गांधी इस मसले पर दखल देतीं। इससे जहां आदिवासियों से हुए ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने की प्रक्रिया पर अमल शुरू होता, वहीं कांग्रेस पार्टी के लिए वोटों का भी लाभ होता। लेकिन ऐसा करने के बजाय झज्जर की सभा में सोनिया गांधी ने जो भाषण दिया, उससे यह संदेश गया कि पार्टी में ऊपर से नीचे तक की प्राथमिकताएं भटक गई हैं।
इससे पैदा हुईं ताजा परिस्थितियों के बीच सांप्रदायिक शक्तियों को फिर से उभरने का अनुकूल मौका मिल गया है। अगर चुनाव होते हैं तो इसमें बचाव की मुद्रा में कांग्रेस और उसके साथी दल होंगे। एक प्रमुख मुद्दा राष्ट्रीय स्वावलंबन बनाम अमेरिकी साम्राज्यवाद होगा, जिस पर यूपीए को भाजपा से लेकर वामपंथी दलों के हमले झेलने होंगे। मई २००४ में धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर लोकतांत्रिक भारत के जिस पुनर्निर्माण की शुरुआत हुई थी, उससे जुड़े सारे प्रयास पृष्ठभूमि में चले जाएंगे। चूंकि उस प्रयास से जुड़ी सभी शक्तियां एकजुट मैदान में नहीं होंगी, इसलिए इस विभाजन का फायदा सीधे तौर पर धुर दक्षिणपंथी ताकतों को मिलेगा। १९९० के दशक में देश में जो राजनीतिक ध्रुवीकरण शुरू हुआ, वह आज तक कमोबेश कायम है औऱ इसके बीच चुनाव नतीजे सिर्फ दो पहलुओं से तय होते हैं। इनमें पहला पहलू गठबंधन का गणित है और दूसरा एंटी-इन्कंबेंसी यानी सत्ताधारी के प्रति असंतोष की भावना। मौजूदा हालात में ये दोनों पहलू धर्मनिरपेक्ष ताकतों के खिलाफ होंगे।
कांग्रेस ने अगर चुनाव में उतरने का मन बना लिया है तो उसे इन सभी पहलुओं पर गौर कर लेना चाहिए। उसे इनके परिणामों के लिए तैयार रहना चाहिए। आधुनिक भारतीय राष्ट्र और देश के कमजोर एवं वंचित तबकों के लिए इसके परिणामों की उन्हें चिंता नहीं है, तो कम से कम अपने भविष्य के बारे में कांग्रेस नेताओं को जरूर सोचना चाहिए। वरना, आत्महत्या करने से किसी को कौन रोक पाता है?
2 comments:
मनमोहन सिंह ने जो कुछ लेफ्ट के लिए कहा क्या वो सोनिया गांधी के इशारे पर नहीं था और एक बार फिर से सोनिया गांधी का उसी बात को दोहराना यह साबित करता है कि कांग्रेस को लगने लगा है कि उसे लेफ्ट के साथ की जरूरत नहीं। लेफ्ट के बिना भी वो सत्ता में दुबारा आ सकती है पर यह कांग्रेस के अपने ताबूत में कील ठोंकने से ज्यादा कुछ नहीं होगा। लेकिन इस बार को भी नकारा नहीं जा सकता कि भाजपा इन दिनों कुछ ज्यादा ही निष्क्रिय है हो सकता है इससे कांग्रेस के हौसले बुलंद हों।
वैसे क्या तो सोनिया गान्धी और क्या उनकी राजनैतिक सोच ? यह तो इस देश का राजनैतिक दुर्भाग्य है कि देश ऐसी शख्सियत के हाथों में है जिन्हे अपने कुनबे से आगे कुछ नही दीखता.यह तो हुई पहली बात.दूसरी यह कि सोनिया गान्धी को पता नहीं कैसे अपने लाडले में कुछ ज्यादा ही भरोसा जाग गया है,उन्हे लगता है कि युवराज के रूप में तिलक कर देने भर से जनता उस बच्चे को सत्ता सौंप देगी. फिर जनता की पर्वाह ही किसे है. कंग्रेसी तो चरण चाटन के लिये तैयार हैं ही.
तीसरी बात ये कि विकल्प ही कहां है ?
भाजपा में जूतम पैजार है. क्षेत्रीय दलों में इतनी कूवत कहां कि वे चुनौती दे सकें? उनकी भूमिका पासंग भर की है, इधर ओ या उधर्.
http://bhaarateeyam.blogspot.com
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