Tuesday, October 16, 2007

माओवाद से कैसे बने संवाद?


सत्येंद्र रंजन
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सत्रहवीं राष्ट्रीय कांग्रेस में एक एजेंडा देश को फिर से माओवादी विचारों के रास्ते पर ले जाने का भी है। पार्टी महासचिव और राष्ट्रपति हू जिन ताओ ने पिछले पांच साल में इस दिशा में कई पहल की है। उनकी कोशिश अपने उत्तराधिकारी के रूप में उन नेताओं को सामने लाने की रही है, जो पार्टी में सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़े हैं और जो विषमता के शिकार तबकों औऱ इलाकों की नुमाइंदगी करते हैं। दरअसल, हू की कोशिश पार्टी और सरकार में आर्थिक विकास और समानता के उद्देश्य के बीच संतुलन बनाने की रही है। माओवादी दौर में समानता का मूल्य और मकसद सर्वोपरि था। इसके लिए उस दौर में जो प्रयास किए गए, उसे जोर-जबर्दस्ती बता कर पूंजीवादी मीडिया में उसकी कड़ी निंदा की जाती रही है। लेकिन हकीकत यही है कि चीन में उस विकास और समृद्धि की बुनियाद उसी दौर में पड़ी, जिस पर आगे चल कर देंग शियाओ फिंग के विचारों के मुताबिक आर्थिक सुधार लागू किए गए। देंग का प्रभाव भी आज चीन पर उतना ही अमिट लगता है, जितना माओ का रहा।
लेकिन देंग के प्रभाव में और जियांग जेमिन के दौर में लागू किए सुधारों से आई समृद्धि की कीमत देश को बढ़ती गैर-बराबरी के रूप में चुकानी पड़ी। हू जिन ताओ ने अपने पांच साल के कार्यकाल में इन दोनों पलड़ों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की है। बहरहाल, नव-जनवादी क्रांति के बाद से चीन की यात्रा ने यह जरूर साफ किया है कि अगर ठोस हकीकत को ध्यान में रखते हुए रणनीति बनाई जाए तो परिवर्तन, प्रगति और विकास की वह राह जरूर ढूंढी जा सकती है, जो हर प्रगतिशील क्रांति का उद्देश्य रही है। एक सुखी मानव समाज बनाने के लिए समानता और समृद्धि दोनों जरूरी हैं। क्रांतिकारी शक्तियों के सामने चुनौती इन दोनों को हासिल करने की रणनीति बनाने की है और इस दिशा में चीन के कम्युनिस्ट नेताओं ने अपना खास योगदान दिया है।
चीन का यह अनुभव भारत में परिवर्तन और प्रगति से वास्ता रखने वाले हर समूह के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। खास उन शक्तियों के लिए जो खुद को माओवादी मानती हैं और जिनका असर आज देश के एक बड़े हिस्से में फैल गया है। यह सच है कि जो भी ताकतें जमीन पर चाहे जिस तरह का संघर्ष कर रही हों, उन्हें बाहर से सलाह की जरूरत नहीं होती। ये ताकतें अपनी समझ, स्थितियों के अपने विश्लेषण और अपनी शक्ति के मूल्यांकन के आधार पर संघर्ष करती हैं। ऐसे में किसी बाहरी टिप्पणी को खारिज कर देने का रुझान अगर उनमें हो, तो उसे स्वाभाविक माना जा सकता है। लेकिन जब किसी संगठन का मकसद नई व्यवस्था बनाना हो, तो यह उसके लिए भी जरूरी होता है कि वह लोकतांत्रिक विमर्श और संवाद में शामिल हो।
भारतीय माओवादियों के सामने अपने पड़ोस के दो अनुभव हैं। पहला अनुभव जाहिर तौर पर चीन का है, जहां माओवादी व्यवस्था अब विकासक्रम के एक नए चरण में है। दूसरा अनुभव नेपाल का है, जहां के माओवादियों ने व्यापक मोर्चा बनाकर साथ-साथ संघर्ष एवं सहयोग की रणनीति पर व्यावहारिक ढंग से अमल किया है और तमाम मुश्किलों के बीच देश को विकास के नए स्तर पहुंचाने की कोशिशों में भागीदार बने हैं। इन दोनों अनुभवों या वहां हुए मौजूदा सभी प्रयोगों को संशोधनवादी या भटकाव कह कर खारिज देना संभवतः एक सुविधाजनक राजनीतिक रुख हो सकता है, लेकिन ऐसा सीखने और अपने नजरिए को बड़ा बनाने के लिए उपलब्ध सबक को खो देने की कीमत पर ही किया जा सकता है।
भारत में न्याय की लड़ाई से जुड़े सभी लोगों के लिए इस सबक की खास अहमियत है। ऐसे सभी लोगों के लिए यह भी अहम है कि वे भारत में जारी माओवादी संघर्ष को उसके संपूर्ण संदर्भ में देखें। संभवतः यह माओवादियों के लिए भी जरूरी है कि बड़े परिप्रेक्ष्य को अपनी विचार प्रक्रिया में शामिल करें। बहरहाल, सबसे पहला सवाल यही है कि भारत में आखिर माओवादियों की क्या प्रासंगिकता है और आखिर उनकी ताकत का स्रोत कहा हैं? इस सवाल को समझने के लिए हमें अपनी राज्य-व्यवस्था के स्वरूप और लोकतांत्रिक प्रयोगों की सीमाओं या उनके रास्ते में आड़े आ रही रुकावटों पर गौर करना होगा।
माओवादी निसंदेह राजनीति में चरमपंथी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।
चरमपंथी सोच में यह अंतर्निहित है कि अपनी समझ के अलावा बाकी सभी समझ को सिरे से नकार दिया जाए। बल्कि न सिर्फ दूसरों की समझ को गलत माना जाए, बल्कि उनके इरादे पर भी शक किया जाए या फिर माना जाए कि उनकी असहमति के पीछे दरअसल वर्ग दृष्टि का फर्क है। यह सोच अपने मकसद और कार्यों के लिए गहरी निष्ठा पैदा करती है और अपने उद्देश्य के लिए जूझने का हौसला भरती है। लेकिन इसकी सीमा यह है कि समाज और अर्थव्यवस्था की वस्तुस्थिति और राजनीति के असली स्वरूप की यथार्थ समझ यह नहीं बनने देती। आम इंसान कैसे व्यवहार करता है, उसके बुनियादी रुझान कैसे होते हैं और ये किस बात से प्रभावित या प्रेरित होते हैं, इसकी बिना सही समझ बनाए सामाजिक विश्लेषण की कोशिश एक मनोगत जड़ता पैदा करती है। कुल मिलाकर हालत यह बनती है कि इस सोच से चलने वाला संगठन या व्यक्ति दुनिया जैसी है, उसे उसी रूप में देखने के बजाय वह जैसा सोचता है, उसे उस रूप में देखने लगता है।
इसके बावजूद अगर चरमपंथी राजनीतिक विचारधारा को आज देश में ज्यादा समर्थन मिल रहा है तो इसकी ठोस वजहें हैं। सीधे तौर पर इसके पीछे दो वजहें तलाशी जा सकती हैं। इनमें पहली वजह है, देश के एक बड़े तबके में मौजूदा व्यवस्था के भीतर न्याय की उम्मीद लगातार कम होते जाना। अगर आजादी के साठ साल बाद भी भूमि सुधारों पर अमल नहीं हुआ है या आदिवासियों को जंगल और जमीन पर बुनियादी हक नहीं मिले तो आखिर भूमिहीनों और आदिवासियों में इस व्यवस्था से इंसाफ की उम्मीद क्यों होनी चाहिए? इससे जुड़ी एक दूसरी वजह है, जो पहले से ही मौजूद शिकायत को और गहरा बना रही है। शासक और अभिजात्य समूहों में लोकतंत्र की प्रक्रिया को बाधित करने और कई तरीकों से इसे पलटने की कोशिशों से देश के व्यापक जन समुदाय में नाराजगी बढ़ती जा रही है। न्यायपालिका और कई संवैधानिक संस्थाएं जिस तरह अभिजात्य समूहों के हित और उनके नजरिए को लागू करने में संवैधानिक लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों की अवहेलना कर रही हैं, उससे शासन की मौजूदा व्यवस्था में वंचित तबकों का भरोसा और कमजोर हो रहा है। अगर नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों, रूढिवादी सामाजिक नजरिए और संस्थागत गैर बराबरी को आगे बढ़ाने में संवैधानिक संस्थाएं शामिल नज़र आएंगी तो सदियों से वंचित लेकिन अब जागरूक हो रहे समूहों में व्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना निश्चित रूप से ज्यादा भड़कती जाएगी। कहा जा सकता है कि शासक समूह भी एक तरह के चरमपंथ का सहारा ले रहे हैं, जिससे माओवादी चरमपंथ को तर्क, समर्थक और कार्यकर्ता मिल रहे हैं।
परिणाम यह है कि देश के बड़े हिस्से में आज माओवादी एक बड़ी ताकत बन गए हैं और वे वहां के जन जीवन को अपनी ताकत और मंशा से संचालित करने की हैसियत में पहुंच गए हैं। अब तक के अनुभव से यह साफ है कि केंद्र और राज्य सरकारों के पास इस चरमपंथी राजनीतिक चुनौती से निपटने का कोई असरदार रास्ता नहीं है। खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों की मजबूती और चुस्ती के साथ-साथ अब विकास और लोगों की शिकायतें दूर करने की बातें भी सरकारी बयानों का हिस्सा बन गई हैं। लेकिन ये सारी बातें खोखली हैं, इसे जानने के लिए किसी गंभीर अध्ययन की जरूरत नहीं है। विकास और लोगों की शिकायतें दूर करने की सरकारों के पास कोई रणनीति नहीं है और ऐसे में सारा जोर सुरक्षा बलों की तैनाती पर आकर खत्म हो जाता है। लेकिन जिस चरमपंथी आंदोलन के पीछे एक राजनीतिक विचारधारा और उद्देश्य हो, उसे इस तरीके से खत्म नहीं किया जा सकता, इस बात की मिसाल १९६७ से आज तक के नक्सलवादी आंदोलन का इतिहास ही है। इस परिस्थिति में यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि माओवादी लंबे समय तक भारतीय राज्य के लिए एक चुनौती बने रहेंगे। बल्कि देश के एक बड़े हिस्से में उनकी तूती बोलती रहेगी।
लेकिन माओवादियों के सामने भी कुछ यक्षप्रश्न हैं। आखिर माओवादियों का क्या उद्देश्य है? जाहिर है, चूंकि वे माओवादी हैं, इसलिए उनका घोषित लक्ष्य राज्य सत्ता पर कब्जा करना है। इसके लिए उनकी रणनीति गांवों में अपना आधार मजबूत करते हुए शहरों को घेरने और आखिरकार राजधानी को घेर कर वहां कब्जा कर लेने की है। यानी वही रणनीति जिसके जरिए माओ जे दुंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने १९४९ में च्यांग काई शेक के कुओमिंनतांग के खिलाफ इन्कलाब को अंजाम दिया था। लेकिन सवाल है कि क्या सचमुच आज के हालात में और भारत की मौजूद परिस्थितियों में यह मुमकिन है? क्या जो रणनीति पतनशील सामंतवादी चीनी समाज में सफल रही, वह भारत की मिश्रित व्यवस्था के बीच कामयाब हो सकती है? उस रणनीति को कारगर बताने के लिए माओवादी भले आज भी भारतीय व्यवस्था को अर्ध सामंती- अर्ध औपनिवेशिक मानते हों, लेकिन किसी वस्तुगत विश्लेषण से यह बात अब साबित नही की जा सकती। न ही यह साबित किया जा सकता है कि भारतीय शासक वर्ग साम्राज्यवाद का दलाल है। ऐसी समझ को गलत सिद्ध करने के लिए अमेरिका से असैनिक परमाणु करार का मामला ही काफी है, जिसे बुश प्रशासन की प्राथमिकताओं के बावजूद अब ठंडे बस्ते में जाना पड़ा है।
खुद बहुत से मार्क्सवादी कार्यकर्ता आज यह मानते हैं कि कम्युनिस्टों ने साम्राज्यवाद और सामंतवाद से संघर्ष की तो कारगर रणनीति विकसित की और कई देशों में उसे सफल भी बनाया, लेकिन कहीं विकसित पूंजीवाद को वे परास्त नही कर सके। इस बात की एक भी मिसाल नही है, जब किसी पूंजीवादी देश में कम्युनिस्ट क्रांति को अंजाम दिया गया हो। भारत की मिश्रित व्यवस्था में पूंजीवाद अपना एक मजबूत अस्तिव बना चुका है। शासन व्यवस्था में इसकी जबरदस्त पकड़ है। क्या माओवादियों के पास इस व्यवस्था को अपने कथित जन युद्ध से हरा देने की तरकीब और ताकत है?
दरअसल, संसदीय लोकतंत्र के दायरे में बदलाव के कुछ प्रयोग ऐसे हैं, जो समाज के सबसे वंचित और सदियों से शोषित रहे तबकों के लिए इस व्यवस्था में जगह बना रहे हैं। इनमें एक प्रयोग बहुजन समाज पार्टी का है, जिसने लाखों दलितों के सम्मान और समान अवसर पाने की लड़ाई को एक खास मुकाम तक पहुंचाया है। अन्य पिछड़ी जातियों ने संवैधानिक आरक्षण के जरिए व्यवस्था में अपने लिए जगह की तलाश की है। इन समूहों की नुमाइंदगी करने वाले दलों और नेताओं ने अपने अवसरवादी चरित्र के बावजूद सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
संघर्ष का यह मॉडल आदर्श नहीं है। इसलिए कि समाज में आए बदलावों के बावजूद व्यवस्था पर पूंजी और आर्थिक विशेषाधिकारों का दबदबा कमजोर नहीं पड़ा है। खुद संवैधानिक व्यवस्था के भीतर इससे नए टकराव और तनाव पैदा हो रहे हैं। इसके बावजूद संवैधानिक व्यवस्था के भीतर भी लोकतत्रीकरण की परिघटना आगे बढ़ी है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
भारतीय माओवाद सिर्फ ठोस हकीकत से आंख मूंद कर ही इस अनुभव को खारिज कर सकता है। लेकिन ऐसा कर वह एक ऐसे दड़बे में बंद रहेगा, जहां से बाहरी दुनिया की हकीकत उसकी नजरों से दूर बनी रहेगी। दुर्गम जंगलों और दूर-दराज के इलाकों में वह अपना गढ़ जरूर बनाए रखेगा, लेकिन अपने अंतिम मकसद के लिए वह कोई रणनीति विकसित कर पाएगा, इसमें संदेह है। लेकिन माओवादी व्यापक लोकतांत्रिक विमर्श और प्रक्रिया का हिस्सा बनें इसके लिए यह भी जरूरी है कि मुख्यधाऱा की वामपंथी ताकतें और दूसरे राजनीतिक दल उन्हें अपराधी या भटके हुए कार्यकर्ता के बतौर देखना छोड़ें। उन्हें इस हकीकत को स्वीकार करना चाहिए कि भले माओवादियो का तरीका चरमपंथी हो, लेकिन वे मौजूदा व्यवस्था से न्याय और आत्म सम्मान की उम्मीद छोड़ चुके समूहों की आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति दे रहे हैं। साथ ही वे उस परिघटना का प्रतिवाद हैं जो लोकतंत्र को लगातार दक्षिणपंथी और अभिजात्यवादी हितों के मुताबिक परिभाषित कर रही है और इसमें न्याय की संभावना को लगातार संकुचित कर रही है। भारत की सभी न्यायप्रिय लोकतांत्रिक शक्तियां अगर ऐसे विमर्श के लिए आगे आएं तो आम जन के लोकतंत्र की स्थापना और उसकी मजबूती का एक बेहतर रास्ता निकल सकता है।

3 comments:

Srijan Shilpi said...

सत्येन्द्र जी,

आपका चिट्ठा देखा। आपकी विश्लेषण क्षमता अदभुत है। समसामयिक ज्वलंत विषयों पर आपकी समझ और दृष्टि काफी स्पष्ट है।

चीन के राष्ट्रपति हू जिन ताओ ने पार्टी और सरकार में व्याप्त व्यापक भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की जो कसरत शुरू की है, वह बहुत महत्वपूर्ण है।

विकास योजनाओं का फल समाज के निचले वर्ग तक नहीं पहुंच पाने की सबसे बड़ी वजह भ्रष्टाचार ही है। यदि भारत के चरमपंथी कहे जाने वाले कम्यूनिस्ट भ्रष्टाचार उन्मूलन को अपना लक्ष्य बना लें तो उनको जनता का व्यापक समर्थन मिल सकेगा।

लेकिन यदि वे पुराने शोषक और अत्याचारी को हटा कर खुद शोषक और अत्याचारी की तरह व्यवहार करते रहेंगे तो लोगों को यथास्थितिवाद ही बेहतर लगेगा।

देश में निचले स्तर तक खुशहाली लाने का उपाय तो जनता को स्वास्थ्य की समुचित सुविधाएं प्रदान करना, युवाओं को रोजगारपरक प्रशिक्षण और शिक्षा प्रदान करना तथा उन्हें लाभप्रद रोजगार तथा आय प्राप्ति के नवीन साधनों से जोड़ना ही है। गैर-बराबरी को पाटने के लिए निम्न तथा निम्न-मध्य वर्ग को ही अधिक मेहनत करनी होगी और जुझारुपन दिखाना होगा। संपत्ति और समृद्धि अपने-आप उन तक रिस कर नहीं पहुंचेगी। समृद्धि की सरिताओं में से कुछ नहरें निकालनी होंगी ताकि वह समाज के हाशिये के वर्गों के सूखे खेतों तक पहुंचकर उन्हें उर्वर बना सके।

अफ़लातून said...

क्या भाई ,मानवाधिकारवादी ! मेरी टिप्पणी रोक दी?

अफ़लातून said...

माफ़ कीजिएगा ,यह ध्यान नहीं दिया कि आप इतनी धड़ाधड़ लिख रहे हैं ।