Tuesday, February 5, 2008

सांप्रदायिक फासीवाद का गहराता साया


गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत के बाद देश भर के समाचार माध्यमों और आम चर्चा में यह धारणा मजबूत हो गई है कि भाजपा अब केंद्र की सत्ता में लौटने को तैयार है। २००७ के मध्य में उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा की बुरी हार के बाद जो दिल्ली उसके लिए दूर बताई जा रही थी, वह अब उसकी पहुंच में होने की बात जोर-शोर से कही जा रही है। इस अनुमान को समाचार माध्यमों और आम चर्चा पर फौरी माहौल का असर माना जा सकता है। यह कहा जा सकता है कि इन चर्चाओं में समाज की गहरी समझ और दीर्घकालिक दृष्टि नहीं झलकती, इसलिए यादाश्त में जो बात ताजा होती है, उसके आधार पर निष्कर्ष बता दिए जाते हैं। इसीलिए २००५ और २००६ में जब भाजपा कई राज्यों में हारी और नेतृत्व के अंदरूनी संकट से ग्रस्त थी, तब उसे या कम से कम केंद्र की सत्ता में आने की उसकी संभावना को खत्म मान लिया गया था। लेकिन २००७ में पहले पंजाब और उत्तराखंड में और फिर हिमाचल प्रदेश में एंटी इन्कंबेसी लहर के जरिए भाजपा के चुनाव जीतने तथा गुजरात में एक बार फिर मोदी ब्रांड की राजनीति की कामयाबी की बदौलत केंद्र में उसकी वापसी तय बताई जा रही है।
बहरहाल, अगर हम इन माध्यमों के निष्कर्षों को छोड़ दें और देश के राजनीतिक समीकरणों पर पूरी गंभीरता से गौर करें तब भी इस मौके पर हम शायद ऐसे ही निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। शायद यह कहना जल्दबाजी है कि भाजपा का २००९ के आम चुनाव में जीतना तय है। शायद यह बात भी अति उत्साह में ही कही जा सकती है कि कांग्रेस के सारे पत्ते नाकाम हो गए हैं, इसलिए वह २००४ जैसा करिश्मा नहीं दोहरा सकती। लेकिन इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि अगले आम चुनाव में भाजपा और उसके साथी दल एक मजबूत चुनौती और यहां तक कि केंद्र की सत्ता पर अपनी मजबूत दावेदारी भी पेश करेंगे। वैसे हकीकत यह है कि अगर देश के सामाजिक समीकरणों को ध्यान में रखा जाए तो असल में यह चुनौती कभी उतनी कमजोर नहीं हुई थी, जितना समाचार माध्यमों ने बताया और आम चर्चा में जिसे मान लिया गया। भारतीय समाज में विभिन्न हितों का अभी जैसा ध्रुवीकरण है, उसके बीच दक्षिणपंथी-सांप्रदायिकता एक मजबूत शक्ति है औऱ इसकी ताकत को धर्मनिरपेक्ष ताकतें सिर्फ अपने को जोखिम में डाल कर ही नजरअंदाज कर सकती हैं। अगर बात गुजरात से ही शुरू की जाए तो इस बात शायद बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। गुजरात में भाजपा १९९५ से लेकर २००२ तक लगातार तीन चुनाव जीत चुकी थी, इसलिए इस बार यह अनुमान लगाया गया कि एंटी इन्कंबेंसी का वहां शायद असर हो और भाजपा को हार का मुंह देखना पड़े। २००४ के लोकसभा चुनाव के नतीजे भी इस तरफ इशारा कर रहे थे। २००२ के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने वहां १८२ में से १२७ सीटें जीतीं, जबकि २००४ के लोकसभा चुनाव वह राज्य की २६ में से १२ सीटों पर हार गई। बल्कि अगर उन नतीजों को विधानसभा सीटों में तब्दील कर देखा जाए तो ९१ यानी ठीक ५० फीसदी सीटों पर तब राज्य में कांग्रेस ने बढ़त हासिल की। इसलिए यह अनुमान लगाने का ठोस आधार था कि गोधरा और गुजरात दंगों का माहौल ठंडा होने के बाद राज्य में सामान्य राजनीतिक स्थिति बहाल हो गई है और इस हालत में होने वाले चुनाव में सामान्य तर्कों के आधार पर भाजपा की जीत नहीं होनी चाहिए। कई सामाजिक वर्गों- खासकर पटेल और कोली समुदाय में भाजपा से नाराजगी की लगातार मीडिया में आई खबरों ने ऐसे अनुमान के पक्ष में और भी भरोसा पैदा किया। आज के समय में पटेल समुदाय का सबसे बड़ा नेता बताए जाने वाले केशुभाई पटेल की नरेंद्र मोदी से नाराजगी की खबरों ने यह माहौल बनाया कि गुजरात में जो समुदाय १९८० के दशक से भाजपा की रीढ़ है, इस बार वही खिसक सकता है और ऐसे में नरेंद्र मोदी की सत्ता में वापसी मुश्किल है।
मगर गुजरात के चुनाव नतीजों ने यह जाहिर किया कि किसी समुदाय के अपने वर्गीय और जातीय रुझान किसी एक नेता की इच्छा औऱ अनिच्छाओं से ज्यादा मजबूत होते हैं। पटेलों के सामने जब अपने एक नेता की इज्जत और जातीय हित के बीच चुनाव का सवाल आया तो उन्होंने जातीय हित को ज्यादा तरजीह दी। पटेलों को उस कांग्रेस को न जिताने में ही अपना हित दिखा जो क्षत्रिय-दलित-आदिवासी-मुस्लिम के सामाजिक गठबंधन को फिर से खड़ा करने की कोशिश में थी। वह गठबंधन जिसकी वजह से उनके सामाजिक औऱ राजनीतिक वर्चस्व को एक जमाने में चुनौती मिली थी।
गुजरात के चुनाव नतीजों से यही संदेश मिला कि सामाजिक समीकरण और गठबंधन लंबी प्रक्रिया से तय होते हैं। फौरी राजनीतिक वजहों से इनमें बदलाव की उम्मीद करना महज एक सदिच्छा ही हो सकती है। गुजरात में भाजपा का शहरी मध्य वर्गीय आधार न सिर्फ बना रहा बल्कि इसके और मजबूत होने के भी संकेत मिले। सामाजिक समीकरण के राजनीतिक परिणाम की मिसाल राज्य में आदिवासी वोटों में दिखी। इस बार बड़ी संख्या में आदिवासी मतदाता कांग्रेस की तरफ लौटे। आदिवासी २००२ के दंगों के बाद भाजपा खेमे में चले गए थे, लेकिन वहां पटेल और कुछ ओबीसी जातियों के वर्चस्व के बीच उनके लिए टिकाऊ जगह नहीं बन पाई।
अगर गुजरात के राजनीतिक संदेश को सारे देश पर फैला कर देखा जाए तो यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगले आम चुनाव या उसके पहले होने वाले कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक शक्तियों का एक मजबूत ध्रुवीकरण देखने को मिलेगा। सवर्ण जातियां, शहरी मध्य वर्ग, धार्मिक कट्टरपंथी ताकतें औऱ उनके प्रभाव में आने वाले असंख्य अवसरविहीन लोग एक ऐसा सामाजिक आधार पर तैयार करते हैं, जिसके बूते भाजपा चुनावी सफलता की सीढ़ियां चढ़ सकती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्टी में नेतृत्व का कोई अंदरूनी संकट है या नहीं, या पार्टी का नेता कौन है, या पार्टी कैसा कार्यक्रम लेकर चुनावी मैदान में उतरती है।
भारतीय समाज में अभी मुख्य अंतर्विरोध लोकतंत्र के उत्तरोत्तर आगे बढ़ने की परिघटना और लोकतंत्र को पलटने (जिसे हम काउंटर रिवोल्यूशन कह सकते हैं) की कोशिशों के बीच है। इस अंतर्विरोध को समझे बगैर काउंटर रिवोल्यूशन यानी प्रति-क्रांति ताकतों से संघर्ष की कोई माकूल रणनीति नहीं बनाई जा सकती। लोकतंत्र के आगे बढ़ने की परिघटना से सदियों से दबे और शोषित रहे तबके अब अपना अधिकार और सम्मान मांग रहे हैं। इससे सदियों से समाज पर दबदबा रखने वाले समूहों का वर्चस्व खतरे में पड़ रहा है। इसकी प्रतिक्रिया में ये समूह एकजुट हो रहे हैं औऱ दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक विचारों के तहत राजनीतिक रूप से गोलबंद हो रहे हैं। .ये समूह ही भाजपा, एनडीए में उसके साथी दलों और संघ परिवार की ताकत हैं औऱ इनके असर को कम करके नहीं आंका जा सकता।
दूसरी तरफ लोकतांत्रिक संघर्ष से जो ताकतें उभर रही हैं, उनमें राजनीतिक तालमेल का घोर अभाव है। इसकी एक मिसाल बहुजन समाज पार्टी है, जो आज दलितों की आकांक्षाओं की नुमाइंदगी कर रही है। लेकिन बसपा नेता मायावती सांप्रदायिक फासीवाद की चुनौती से बेखबर नजर आती हैं औऱ फिलहाल उनका एकमात्र एजेंडा कांग्रेस को नुकसान पहुंचा कर उसकी राजनीति जगह पर काबिज होना लगता है। इस प्रक्रिया में कांग्रेस के आधार में वे सेंध लगा रही हैं, जिससे भले बसपा न जीत सके, लेकिन कांग्रेस की हार जरूर तय हो जाती है। पिछले साल दिल्ली नगर निगम के चुनाव में बसपा की यह भूमिका भाजपा की भारी जीत की मुख्य वजह रही। हाल के हिमाचल प्रदेश के चुनाव में भी बसपा का यह असर देखने को मिला। अगले चुनावों में कई राज्यों में यह कहानी दोहराई जा सकती है।
वैसे कांग्रेस के सामने सबसे गंभीर समस्या वह खुद है। २००४ में उसे फिर से अपनी तलाश करने का जो ऐतिहासिक मौका मिला, उसे उसने गवां दिया है। पिछले चार साल में पार्टी दलित, आदिवासी, कमजोर वर्गों और गरीबों से खुद को जोड़ने में नाकाम रही है। जबकि यही वो सामाजिक आधार है, जिसकी बदौलत भारतीय राजनीति में वह अपनी जगह बनाए रख सकती है। इसके बजाय कांग्रेस पार्टी ने भ्रमित प्राथमिकताओं को ज्यादा अहमियत दी। अमेरिका से परमाणु करार में उसने अपनी जितनी ऊर्जा लगाई, अगर रोजगार गारंटी कानून, आदिवासी और अन्य वनवासी अधिकार कानून, सूचना का अधिकार कानूनों पर अमल, औऱ कृषि क्षेत्र की समस्याओं को दूर करने एवं सार्वजनिक क्षेत्र को दोबारा खड़ा करने की कोशिशों में भी उतनी ही ऊर्जा लगाती होती तो आज शायद कहानी कुछ और होती। दरअसल, मनमोहन सिंह सरकार ने आम जन के हित में जो काम किए भी अपनी वैचारिक दुविधा से कांग्रेस ने उसका राजनीतिक लाभ लेने के मौके गंवा दिए। उधर मनमोहन सिंह की मार्केट समर्थक छवि भी मध्य वर्ग को कांग्रेस की तरफ खींचने में नाकाम रही। अगर आज भाजपा आक्रामक और कांग्रेस एवं उसके साथी दल रक्षात्मक रुख अपनाए नजर आते हैं तो इसकी असली वजह यही है।
जबकि हकीकत यही है कि आज भी देश में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के कायम रखने के लिहाज से कांग्रेस की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उसने क्षेत्रीय दलों से चुनावी गठबंधन कर और वामपंथी दलों से राजनीतिक तालमेल बना कर २००४ में यह भूमिका बखूबी निभाई थी। लेकिन उसके बाद धर्मनिरपेक्ष को राजनीति को प्रगतिशील एवं जनतांत्रिक स्वरूप देने में वह नाकाम रही।
हमने यूपीए सरकार से पहले छह साल तक सांप्रदायिक शासन का नजारा देखा। उस दौर में राजनीतिक और सामाजिक उत्पीड़न बढ़ने की जैसी मिसालें देखने को मिलीं,बौद्धिक आजादी पर जैसा पहरा रहा, राष्ट्रीय एजेंडे से जन हित के मुद्दे जैसे गायब नजर आए- या अगर एक शब्द में कहें तो धर्मनिरपेक्ष- लोकतंत्र को पलटने की कोशिशें जैसी कामयाब होती नजर आईं, उसे देखते हुए मौजूदा राजनीतिक माहौल के चिंताजनक पहलुओं को समझा जा सकता है। लेकिन हकीकत यही है कि राजनीति में सांप्रदायिकता का कोई क्विक फिक्स जवाब नहीं होता। इसका मुकाबला धर्मनिरपेक्ष औऱ प्रगतिशील ताकतों के दीर्घकालिक एवं प्रतिबद्ध सहयोग और साफ कार्यक्रम एवं एजेंडे के साथ ही किया जा सकता है। इस बात से शायद खुद कांग्रेस नेता भी इनकार नहीं कर सकते कि ऐसा संघर्ष उनकी पार्टी ने नहीं किया है। नतीजा यह है कि २००४ में जिस माहौल से देश बड़ी मुश्किल से निकला था, राजनीतिक क्षितिज पर माहौल फिर से गहराता लग रहा है।

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

मुझे भी इसी बात का डर सता रहा है कि अगला लोकसभा चुनाव कहीं भाजपा न जीत ले। जैसे-जैसे समय नजदीक आ रहा है, मेरा यह डर और बलवान होता जा रहा है। भाजपा की इसी लहर के बीच ज्योति बाबू का 'वैज्ञानिक कम्युनिज्म' से मोहभंग हो गया है - इसका भी फायदा भाजपा को मिलेगा। राहुल गांधी जैसे 'लल्लूलाल' को कांग्रेस का आगामी प्रधानमन्त्री बनने का संकेत देकर कांग्रेस ने भाजपा को और मजबूत कर दिया है।