सत्येंद्र रंजन
कोपेनहेगन सम्मेलन के आखिरी दिन एक अंग्रेजी अखबार ने लिखा- ‘धरती बचाने पहुंचे नेता अपना चेहरा बचाने में जुटे हैं।’ जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर कोपेनहेगन में चल रहे संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में तब तकरीबन १३० देशों के सरकार प्रमुख पहुंच चुके थे, जबकि १९४ देशों के प्रतिनिधि पिछले दस दिन से वार्ताओं और सौदेबाजियों में लगे थे, लेकिन सम्मेलन नाकाम होने के कगार पर दिख रहा था। आखिरकार सम्मेलन की आखिरी रात अचानक चेहरा बचाने वाला एक समझौता कर लिया गया। और इस तरह सचमुच धनी देशों के नेता, और उनमें भी खासकर अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अपना चेहरा बचाने में कामयाब हो गए। हम भारतीयों का दुर्भाग्य यह है कि धनी देशों की इस कोशिश में हमारी सरकार भी सहभागी बनी। पहले से चर्चा के केंद्र में रहे तमाम मसविदों को दरकिनार कर एक नए मसविदे के साथ धनी देशों को चेहरा बचाने का नक़ाब चार देशों के गुट- बेसिक- यानी ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन- ने ही मुहैया कराया। अगुआई चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने की और मनमोहन सिंह, लुइज इनेसियो लुला दा सिल्वा और जैकब जुमा ने बाकी विकासशील देशों को अंधेरे में भटकता छोड़ कथित रूप से अपने देशों के हितों की चिंता करते हुए समझौते का एक नाटक गढ़ लिया। यह उनका दिया ही तोहफा है कि कोपेनहेगन सम्मेलन की खुली नाकामी के बावजूद एक ऐसे समझौते की बदौलत जो असल में समझौता है नहीं, बराक ओबामा सम्मेलन को कामयाब बता रहे हैं। पहले कोपेनहेगन में ओबामा ने बेसिक देशों के साथ बनी सहमति को “सार्थक समझौता” बताया और फिर वाशिंगटन पहुंच कर वे यह दावा कर सके कि “बेहद मुश्किल और पेचीदा बातचीत के बाद हासिल हुई इस महत्त्वपूर्ण सफलता से आने वाले वर्षों में अंतरराष्ट्रीय कदमों के लिए आधार तैयार हुआ है।”
लेकिन यह समझौता दुनिया के जागरूक जनमत को नहीं बहला सका है। कथित समझौते के बाद १८ दिसंबर की रात जब विभिन्न देशों के नेता कोपेनहेगन से लौटने की अफरातफरी में थे, उस वक्त की स्थितियों का बयान करते हुए ग्रीनपीस संस्था की ब्रिटिश शाखा के कार्यकारी निदेशक जॉन सोवेन ने कहा- “कोपेनहेगन शहर में आज रात एक अपराध का नज़ारा है, जिसमें अपराधी हवाई अड्डे की तरफ भागते दिखे हैं।” छोटे से द्वीप तुवालू से लेकर बोलिविया, वेनेजुएला, निकरागुआ, सूडान, पाकिस्तान और मलेशिया आदि की प्रतिक्रियाओं में नाकामी को समझौते की आड़ देने की कोशिशों के प्रति विकासशील देशों के गुस्से का इज़हार हुआ। तुवालू के प्रतिनिधि इयन फ्राई ने कहा- “अगर बाइबिल का संदर्भ देते हुए कहूं तो यह ऐसा लगता है जैसे हमें अपना भविष्य बेच देने के बदले चांदी के ३० टुकड़े दिए गए हैं।” दरअसल, यूरोपीय नेता भी अपनी मायूसी छिपा नहीं पाए। ब्रिटिश प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन और जर्मनी की चांसलर एंगेला मार्केल ने स्वीकार किया कि सम्मेलन के नतीजों से वे निराश हैं, तो यूरोपीय संघ के अध्यक्ष होजे मनुएल बारोसो ने कहा- “समझौते में बाध्यकारी प्रावधान शामिल न होने से मैं निराश हूं।”
गुस्सा इसलिए है क्योंकि इस समझौते में जलवायु न्याय की बात छोड़ दी गई है। मायूसी इसलिए है क्योंकि समझौते के नाम पर जो दस्तावेज पेश किया गया है, उसमें इस सदी के अंत तक धरती का तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से दो डिग्री सेल्शियस से ज्यादा न बढ़ने देने का इरादा जताने के बावजूद ग्लोबल वॉर्मिंग को कैसे रोका जाएगा, इसका कोई उपाय इसमें वर्णित नहीं है। बाढ़-सूखा जैसी स्थितियों से निपटने और ग्रीन टेक्नोलॉजी अपनाने में मदद के लिए २०२० तक गरीब देशों के लिए १०० अरब डॉलर जुटाने की बात इसमें जरूर है, लेकिन उस रकम में किस देश का कितना योगदान होगा, इसका कोई जिक्र नहीं है।
वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर हैं कि धरती का तापमान बढ़ने से रोकने के लिए सबसे अहम कदम ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती है। यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) और उसी के अगले कदम के बतौर हुए क्योतो प्रोटोकॉल में यह माना गया था कि धरती को बचाने की जिम्मेदारी सबकी है, लेकिन जिसने तापमान बढ़ाने में जितना योगदान किया है, उसे उतनी कुर्बानी देनी होगी। कोपेनहेगन में इस सिद्धांत की जैसे बलि चढ़ा दी गई है। न तो किसी देश के लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती का कोई फौरी लक्ष्य तय किया गया और ना ही इसे बाध्यकारी बनाने के लिए किसी कानूनी प्रावधान पर जोर दिया गया। और इस तरह बराक ओबामा, गॉर्डन ब्राउन, निकलस सार्कोजी, एंगेला मार्केल आदि का मकसद पूरा हो गया। वे ग्रीन शब्दावली बोलते हुए भी बिना कोई जिम्मेदारी लिए अपनी-अपनी राजधानियों में लौट गए। जबकि अगर सम्मेलन खुले तौर पर नाकाम रहता तो अपनी जनता के सामने उन्हें जवाबदेह होना पड़ता। उनके देशों में जलवायु परिवर्तन एक मुद्दा है और इस पर एक जागरूक जनमत है, जिसे बहलाने का झुनझुना वे अब कोपेनहेगन से लेकर गए हैं।
जिसने वातावरण को जितना प्रदूषित किया, वह उसकी उतनी कीमत चुकाए- न्याय पर आधारित इस सिद्धांत को स्थापित करने के लिए विकासशील देशों को लंबा संघर्ष करना पड़ा था। इन देशों के सबसे बड़े प्रवक्ताओं ने ही कोपेनहेगन में इस सिद्धांत की अहमियत नहीं समझी, यह दुखद और निराश करने वाली बात जरूर है, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं है। पिछले वर्षों में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विमर्श जिस दिशा में बढ़ रहा था, यह उसका ही नतीजा है। बल्कि अगर इस सवाल हम और भी व्यापक फलक पर ले जाकर देखें तो बात और साफ हो सकती है। भारत एवं चीन जैसे देशों की आंतरिक सत्ता संरचना के साथ-साथ विदेश नीति में पिछले दशकों में दिखे रुझानों की यह स्वाभाविक परिणति है।
कोपेनहेगन की तैयारियों के दौर में ही पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की प्रधानमंत्री को लिखी वह चिट्ठी लीक हुई थी, जिसमें उन्होंने अमेरिका का दामन थाम लेने की खुली वकालत की थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को निजी तौर पर इस सोच से कोई असहमति रही होगी, उनके कुल रुझान को देखकर ऐसा नहीं लगता। अमेरिका से असैनिक परमाणु सहयोग के समझौते को जिस तरह उन्होंने अपनी निजी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था और उनके शासनकाल में भारत को अमेरिका का जूनियर पार्टनर बनाने की नीतियों पर जैसे अमल किया गया है, उसे देखते हुए जलवायु परिवर्तन या किसी भी दूसरे सवाल पर उनकी सरकार के अमेरिका के सामने उससे अलग रुख लेते हुए खड़े होने की उम्मीद महज भोलेपन में ही की जा सकती है। अमेरिकी हितों की यूपीए सरकार को कितनी चिंता है, इसकी एक मिसाल सरकार की असैनिक परमाणु देनदारी विधेयक पेश करने की तैयारी है। इस बिल के जरिए यह पहले से ही तय कर दिया जाने वाला है कि भारत में परमाणु रिएक्टर लगाने वाली विदेशी कंपनियों को भविष्य में किसी हादसे की हालत में अधिकतम कितना मुआवजा देना होगा। रूस और फ्रांस की कंपनियां तो बिना इस प्रावधान के भी भारत में रिएक्टर लगाने का करार कर चुकी हैं, मगर अमेरिकी कंपनियां अपने लिए पहले से ऐसी कानूनी सुरक्षा चाहती हैं। वे सिर्फ इससे संतुष्ट नहीं हैं कि भोपाल गैस कांड में भी भारत की सरकारें घुटनाटेक अवस्था में ही रहीं और उन्होंने यूनियन कार्बाइड के प्रमुख एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए कभी गंभीर कोशिश नहीं की। एक तरफ किसी हद तक जाकर अमेरिका को खुश करने की यह बेताबी है, तो दूसरी तरफ ओबामा प्रशासन असैनिक परमाणु करार और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी से मिली छूट के बावजूद भारत को यूरेनियम संवर्धन एवं रीप्रोसेसिंग तकनीक मिलने के रास्ते में हर संभव बाधा खड़ी कर रहा है।
मगर भारत के प्रभु वर्ग को लगता है कि उसके हित अमेरिका से जुड़े हुए हैं, इसलिए भारत में वामपंथी दलों को छोड़ दें तो बाकी पूरे राजनीतिक परिदृश्य में अमेरिका का जूनियर पार्टनर बनने के सवाल पर सहमति नजर आती है। और जो हाल भारत में है वही चीन में है। चीन में तो माओ त्से तुंग के जमाने में ही हेनरी किसिंजर- रिचर्ड निक्सन की पिंग-पोंग कूटनीति कामयाब हो गई थी। राष्ट्रीय हित को सिद्धांत से ऊपर मानने का भ्रम वहां तभी जड़ें जमाने लगा था और देंग श्याओ फिंग के जमाने में तो इसे पूरी तरह स्थापित कर दिया गया। सामाजिक साम्राज्यवाद का जुमला गढ़कर सोवियत संघ को मुख्य दुश्मन और अमेरिका को कार्यनीतिक दोस्त मानने से शुरू हुई यह परंपरा विदेश नीति में अपने फौरी फायदे से आगे कोई बड़ा उद्देश्य न देखने तक में सीमित हो चुकी है। तो आज चीन यह सोचने की फिक्र क्यों करे कि तुवालू या मालदीव का क्या होगा? हू जिन ताओ और वेन जिआबाओ यह क्यों सोचें कि वातावरण में बढ़ते कार्बन की मात्रा का आज से ४० या ५० साल खुद उनकी आबादी पर क्या असर होगा? देंग के जमाने में अपनाए गए पूंजीवादी विकास के रास्ते पर तेजी से चलते हुए चीन ने आज अपने पास दुनिया की सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा जमा कर ली है, भले इसके साथ वह सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश भी बन गया है- मगर इंसान के लिए इसके भावी परिणामों की फिक्र उसके आज के नेता क्यों करें?
दक्षिण अफ्रीका ने नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में मानवीय प्रतिष्ठा की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ी। मगर मंडेला के बाद राष्ट्रपति बने थाबो मबेकी के दौर में ही अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस को पूंजी का गतिशास्त्र समझ में आ गया। उससे पार्टी में असंतोष फैला और उसी की वजह से कई गंभीर आरोपों से घिरे होने के बावजूद जैकब जुमा राष्ट्रपति बन सके। उन्हें वैसे भी कोई अंतर्दृष्टि वाला नेता नहीं माना जाता, इसलिए उनसे कोई ज्यादा उम्मीद भी नहीं रहती। उधर लूला लैटिन अमेरिका में पिछले एक दशक में चली वामपंथ की लहर के अग्रणी नेता जरूर थे, लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्होंने ‘विरोध की विरासत’ से जल्द ही नाता तोड़ लिया और सत्ता के सामाजिक-आर्थिक ढांचों के समीकरणों के साथ हो लिए। इसलिए अगर ये दोनों भी ओबामा एंड कंपनी को चेहरा बचाने का नकाब देने में शामिल हो गए, तो इसमें हैरत की कोई बात नहीं है।
ये नेता यह दावा जरूर करेंगे कि जहां जॉर्ज बुश के जमाने में अमेरिका जलवायु परिवर्तन की बात से ही इनकार करता था, वहां बराक ओबामा धरती के तापमान में बढ़ोतरी को रोकने की जरूरत तो महसूस कर रहे हैं तो उनसे किसी भी तरह का एक समझौता कर लेना ही दुनिया के हित में था। जहां तक ओबामा की बात है उन्हें इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में जलवायु परिवर्तन को एक मुद्दा बनाया और उनके राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका की घरेलू नीति में कुछ बदलाव देखने को मिले हैं। ओबामा प्रशासन के दबाव में वहां का ऑटो-मोबाइल उद्योग ग्रीन टेक्नोलॉजी अपनाने पर सहमत हुआ है। लेकिन जैसाकि ब्रिटिश अखबार ‘द गार्जियन’ के एक टीकाकार ने लिखा कि ओबामा आखिरकार अमेरिका के राष्ट्रपति हैं और अमेरिका की नीतियां वहां के निहित स्वार्थों के दबाव में बनती हैं। वहां निहित स्वार्थों की लॉबी कितनी मजबूत है, यह बात पिछले जून में हाउस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव में जलवायु परिवर्तन पर बिल पेश किए जाने के समय जाहिर हुई थी। डेमोक्रेटिक पार्टी के भारी बहुमत के बावजूद यह बिल 219-212 के अंतर से ही पास हो सका। विरोधियों ने बिल पर जोरदार हमले किए। जॉर्जिया राज्य से चुने गए प्रतिनिधि पॉल ब्राउन ने तो यह कहने की जुर्रत भी दिखा दी कि जलवायु परिवर्तन की बात वैज्ञानिकों द्वारा फैलाये जा रहे एक धोखे के अलावा और कुछ नहीं है। इस पर दोनों ही पार्टियों के सांसदों ने खूब तालियां बजाईँ। हाउस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव में हुई बहस को देखने को बाद नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन ने द न्यूयॉर्क टाइम्स में अपने कॉलम में लिखा- “जलवायु परिवर्तन की बात से इनकार करने वालों की दलीलें सुनते हुए मैं यही सोचता रहा कि मैं एक तरह की गद्दारी देख रहा हूं- अपनी धरती से गद्दारी। जलवायु परिवर्तन की बात से इनकार करना कितना गैर-जिम्मेदारी भरा और अनैतिक है, इसे ताजा अनुसंधानों पर गौर करके समझा जा सकता है, जिनसे जलवायु परिवर्तन की बेहद गंभीर स्थिति सामने आई है।”
कोपेनहेगन में जुटे नेताओं के सामने इस गंभीर स्थिति की पूरी तस्वीर थी। लेकिन छोटे और फौरी स्वार्थों में उन्होंने भी एक तरह से धरती से गद्दारी ही की है। भारत सरकार का इसमें सहभागी बन जाना हम सबके लिए शर्मनाक है।
Wednesday, December 23, 2009
Friday, November 27, 2009
महाभारत से पहले कृष्ण-कूटनीति
सत्येंद्र रंजन
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की पैरवी कर रहे बुद्धिजीवियों की यह सदिच्छा सराहनीय है कि सरकार ऑपरेशन ग्रीनहंट शुरू करने के बजाय माओवादियों से बातचीत करे। इस मांग के नैतिक महत्त्व को संभवतः सरकार भी समझती है, इसीलिए उसने इस मुद्दे पर अपनी चालें चली हैं। यह बिल्कुल नया रुझान है कि माओवादियों की हिंसा या तोड़-फोड़ की हर कार्रवाई के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय सार्वजनिक बयान जारी करता है, जिसमें ऐसे तौर-तरीकों पर माओवादियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश के साथ-साथ उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को भी चुनौती दी जाती है। उनसे कहा जाता है कि वे ऐसी कार्रवाइयों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करें। इसी क्रम में माओवादियों से बातचीत की मांग उठाए जाने के बाद गृह मंत्री पी चिदंबरम ने इस मांग की नैतिक हवा निकालने की कोशिश की। उन्होंने यह शर्त रख दी कि अगर माओवादी हिंसा रोक दें तो सरकार उनसे हर मुद्दे पर बातचीत को तैयार है। इसके पहले सरकार का रुख यह होता था कि नक्सली या हथियारबंद लड़ाई लड़ रहे किसी गुट या संगठन से वह तभी बात करेगी, जब वे हथियार डाल दें। चिदंबरम ने साफ किया कि वे अभी माओवादियों से हथियार डालने को नहीं कह रहे हैं और माओवादियों के पैरोकारों से कहा कि वे इस गुट को हिंसा छोड़ कर बातचीत की मेज पर आने को राजी करें।
बहरहाल, सरकार से बातचीत के सवाल पर सीपीआई (माओवादी) ने अपना जो रुख जताया है वह गौरतलब है। पार्टी की सेंट्रल कमेटी के प्रवक्ता आजाद ने कहा है- “माओवादियों से हथियार डाल देने के लिए कहना उन ऐतिहासिक एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के प्रति घोर अज्ञानता को जाहिर करता है, जिनकी वजह से माओवादी आंदोलन का उभार हुआ है।” आजाद ने कहा- “इसके बावजूद, दोनों पक्षों की तरफ से युद्धविराम पर सहमति बन सकती है, अगर सरकार माओवादियों द्वारा हिंसा छोड़ने के बारे में अपना अतार्किक रुख छोड़ दे। उसे आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और इस पर फैसला करना चाहिए कि क्या वह सरकारी आतंकवाद एवं जनता के खिलाफ अनियंत्रित हिंसा छोड़ने को तैयार है।” माओवादियों का कहना है कि कि सरकार अगर बातचीत चाहती है, वह पहले इसके लिए ‘अनुकूल माहौल’ बनाए। लेकिन पेच यह है कि इस ‘अनुकूल माहौल’ के लिए जो पूर्व-शर्तें रखी गई हैं, वह अगर सरकार पूरी कर दे तो शायद बातचीत की जरूरत ही नहीं रह जाएगी! यह एक लंबी फेहरिश्त है। इसमें माओवाद प्रभावित इलाकों से अर्धसैनिक बलों की वापसी से लेकर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के ‘अमानवीय अत्याचार’ की जांच के लिए निष्पक्ष न्यायिक आयोग की स्थापना; गिरफ्तार हुए माओवादी पार्टी से जुड़े और उसके समर्थक तमाम लोगों की रिहाई से लेकर गैर-कानूनी गतिविधि (निरोधक) कानून, छत्तीसगढ़ विशेष लोक सुरक्षा कानून, सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून आदि जैसे कानूनों को रद्द करने; आदिवासियों के लिए सरकारी पुनर्वास शिविरों को बंद करने से लेकर सलवा जुडुम के हाथों विस्थापित हुए ‘दो लाख आदिवासियों’ एवं ‘सरकारी आतंक’ का शिकार हुए अन्य लोगों को उचित मुआवजा देने; बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं बड़े व्यापारिक घरानों से खनन के लिए हुए सभी सहमति-पत्रों को रद्द करने से लेकर सभी विशेष आर्थिक क्षेत्रों को खत्म करने की मांगें शामिल हैं। यानी जब सरकार इतनी मांगें मान लेगी तभी सीपीआई (माओवादी) बातचीत के लिए तैयार होगी।
ऑपरेशन ग्रीनहंट के लिए सरकार की चल रही तैयारियों और माओवादियों के इस रुख को देखते हुए यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन दोनों पक्षों के बीच आखिर बातचीत की कितनी गुंजाइश है। ऐसा लगता है कि इन दोनों पक्षों ने महाभारत की कथा के उस प्रकरण से सीख ली है, जिसके मुताबिक कृष्ण को यह मालूम था कि युद्ध होगा, इसके बावजूद उन्होंने शांति प्रस्ताव कौरवों के सामने रखे, ताकि जब युद्ध हो तो उसकी जिम्मेदारी कौरवों के माथे पर ही जाए। यानी यहां सरकार और माओवादी दोनों में कोई भ्रम में नहीं है कि आगे का रास्ता किधर है। अगर कोई भ्रम में है तो सिर्फ बातचीत की पैरवी कर रहे बुद्धिजीवी ही हैं।
लोकतंत्र में बातचीत निसंदेह विवादों और मुद्दों को हल करने का सबसे बड़ा माध्यम है। लेकिन यह माध्यम तभी कारगर होता है जब मुद्दे ठोस और सुपरिभाषित हों। अगर मुद्दे महज असली मकसद को ढकने के लिए उठाए गए हों, तो बातचीत से कुछ हासिल नहीं होता। इस संदर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि क्या सीपीआई (माओवादी) सचमुच उन्हीं मुद्दों के लिए लड़ रही है, जिन्हें उठाकर उसने आदिवासी और कुछ दूसरे वंचित समूहों में अपना जनाधार बनाया है, या उसका असली मकसद ‘सशस्त्र क्रांति’ के जरिए राजसत्ता पर कब्जा करना है? इस सवाल का जवाब हम सभी जानते हैं। इसलिए जो बुद्धिजीवी या संगठन शांति और न्याय के नाम पर बातचीत की वकालत कर रहे हैं, उन्हें खुलकर यह बताना चाहिए कि क्या वे माओवादियों की धारणा के मुताबिक क्रांति का समर्थन करते हैं?
यह प्रश्न इसलिए ज्यादा अहम है, क्योंकि अभी जारी विमर्श में यह संदेश देने की कोशिश हो रही है कि मौजूदा हालात में सिर्फ दो पक्ष हैं- एक सरकार और दूसरा माओवादी। परोक्ष रूप से कहा यह जा रहा है कि माओवादी देश में न्याय, आदिवासियों के बुनियादी हितों की रक्षा और बेहतर भविष्य की एकमात्र शक्ति हैं, और जिनकी भी इन बातों में आस्था हो, उनके पास माओवादियों का समर्थन करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। चरमपंथी दलीलों के बीच माओवादियों के अराजकतावादी तौर-तरीकों, उनके वैचारिक दिवालियेपन और नकारवादी नजरिए को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस चर्चा में यह बात पूरी तरह गौण हो जाती है कि कैसे अपनी दुस्साहसी कार्रवाइयों से माओवादियों ने खनिज पदार्थों से संपन्न इलाकों में तमाम प्रतिरोध को तोड़ देने का मौका सरकार को मुहैया करा दिया है।
माओवादियों की इन कार्रवाइयों ने देश में वाम जनतांत्रिक शक्तियों के बीच फूट पैदा कर दी है। वाम जनतांत्रिक शक्तियों के बीच इस बात पर वर्षों से आम सहमति थी कि वाम चरमपंथ के फैलाव के लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं और इस मसले से सिर्फ राजनीतिक रूप से ही निपटा जा सकता है। लेकिन माओवादियों ने देश की राजनीतिक परिस्थिति पर बिना गौर किए और अपनी ताकत के फर्जी अहंकार में संसदीय वामपंथ पर ही हमला बोल दिया है। यह उनके बिरादराना द्रोह और अवसरवाद की ही पराकाष्ठा है कि पश्चिम बंगाल में उन्हें ममता बनर्जी अपनी दोस्त नजर आने लगीं। इस बात को भूलकर कि ममता बनर्जी किन सामाजिक ताकतों की नुमाइंदगी करती हैं और उनका अपना मकसद क्या है, माओवादियों के प्रवक्ता यह खुला बयान देने लगे कि वे ममता को राज्य की भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं।
गौरतलब है कि ममता बनर्जी आज केंद्र में मंत्री हैं और माओवादियों के लिए वह हर शक्ति दोस्त है, जो भारतीय राज्य (सरकार) से लड़ रही हो। चाहे यूनाइटेड़ लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) और उत्तर पूर्व के अन्य नस्लीय राष्ट्रवादी आतंकवादी संगठन हों या फिर इस्लामी आतंकवादी- माओवादियों की नजर में ये सभी मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे हैं। उल्फा, एनएससीएन और पीएलए जैसे उत्तर-पूर्वी राज्यों के नस्लवादी संगठनों के साथ उन्होंने भारतीय राज्य के खिलाफ संघर्ष में सहयोग का समझौता किया है। पाकिस्तान की स्वात घाटी, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत, संघ शासित कबीलाई इलाके (फाटा) और दूसरे इलाकों में तालिबान एवं इस्लामी चरमपंथियों की आतंकवादी कार्रवाइयां उन्हें ‘राष्ट्रीय मुक्ति का संघर्ष’ नजर आती हैं। जब पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद अपने चरम पर था, कई नक्सली संगठन उसे भी मुक्ति का आंदोलन मानते थे। यानी जो भी और जहां भी चाहे जिस उद्देश्य से भारतीय राज्य से लड़ रहा हो, वह माओवादियों की निगाह में सकारात्मक शक्ति है।
यह लाइन लेते हुए इस बात की बिल्कुल अनदेखी कर दी जाती है कि धर्मांध और प्रतिक्रियावादी ताकतें किस तरह प्रगतिशील मानव–मूल्यों के खिलाफ खड़ी हैं। खालिस्तानी गुटों या इस्लामी चरमपंथी संगठनों का महिलाओं की आजादी के प्रति क्या नजरिया है, अथवा क्या वे अपने धर्म के भीतर किसी तरह की असहमति को सहने को तैयार हैं, ऐसे सवाल माओवादियों के विमर्श में नहीं आते। उल्फा का नस्लीय उग्रवाद किस तरह गरीब बिहारी मजदूरों के खून का प्यासा हो जाता है, इस पर भी गौर नहीं किया जाता। क्या मजहब और नस्ल के आधार पर खड़े संगठनों का समता और मूलभूत मानवीय स्वतंत्रता के साथ कोई मेल है, इस सवाल पर अपने को माओवादी कहने वाली पार्टी खुद को किसी के प्रति जवाबदेह नहीं मानती।
सीपीआई (माओवादी) खुद को कम्युनिस्ट पार्टी मानती है, लेकिन उसे तालिबान और उन इस्लामी चरमपंथी ताकतों का समर्थन करने में कोई अंतर्विरोध नजर नहीं आता, जिनकी बुनियाद में साम्यवाद का विरोध शामिल रहा है। ये ताकतें उसी अमेरिका की मदद से खड़ी हुईं, जिससे आज वे अपनी वजहों से लड़ रही हैं और इस कारण माओवादी उन्हें मुक्ति के योद्धा मान रहे हैं। श्रीलंका में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम और उसके तानाशाह नेता वी प्रभाकरण के खात्मे पर माओवादियों ने खूब आंसू बहाए। इसे भारत, दक्षिण एशिया और पूरी दुनिया में ‘क्रांतिकारी आंदोलन’ के लिए ‘नकारात्मक प्रभाव’ वाली घटना बताया गया। श्रीलंका में तमिल संघर्ष का कोई भी पर्यवेक्षक यह जानता है कि कैसे एलटीटीई और प्रभाकरण की युद्ध-पिपासा ने तमिलों के बाकी सभी संगठनों का खात्मा कर दिया। उनके आतंकवादी तौर-तरीकों ने वहां सबसे ज्यादा नुकसान तमिलों को ही पहुंचाया और अंत में खुद ही अपने दुस्साहसी अभियान का शिकार हो गए। लेकिन चूंकि वे लड़ रहे थे, चाहे उनके तरीके और मकसद कुछ भी हों, वे माओवादियों के लिए ‘क्रांतिकारी’ थे।
सीपीआई (माओवादी) ने अपने ऐसे ही नकारवादी रुख की वजह से आज वाम जनमत के एक बड़े हिस्से की हमदर्दी खो दी है। इसकी एक मिसाल सुमंत बनर्जी हैं, जो अपनी किताब ‘इन द वेक ऑफ नक्सलबाड़ीः ए हिस्ट्री ऑफ नक्सलाइट मूवमेंट इन इंडिया’ के लिए जाने जाते हैं। उन्हें नक्सलवादी धारा का हमदर्द समझा जाता रहा है। लेकिन अब उनकी यह टिप्पणी ध्यान देने लायक है- ‘बहस का बुनियादी मुद्दा भारत की कुल मौजूदा स्थिति के बारे में माओवादी नेतृत्व की विचारधारात्मक समझ, और उनकी नैतिक साख है। भारत के विभिन्न शोषित समूह विभिन्न तरह के संघर्षों के जरिए उपलब्ध लोकतांत्रिक अवसरों का उपयोग करने की कोशिश कर रहे हैं। इसे स्वीकार करने और सबको समाहित करने वाले कार्यक्रम में इन्हें साथ लेकर चलने के बजाय सीपीआई (माओवादी) के नेता भारतीय जन मानस का अतिवादी अनुमान लगाते हुए उपलब्ध विकल्पों की अनदेखी कर रहे हैं और सशस्त्र संघर्ष के अकेले रास्ते को प्राथमिकता दे रहे हैं। उनकी अपरिपक्वता का एक और कदम यह है कि वे अंध-नस्लवादी सशस्त्र संगठनों या ममता बनर्जी जैसी अवसरवादी राजनेताओं से समझौते कर लेते हैं, जिससे उनकी नैतिकता आरोपों के घेरे में आ जाती है। ऐसी सैन्यवादी प्राथमिकताओं और अल्पकालिक लाभ के राजनीतिक कदमों से उनके कार्यकर्ताओं की विचारधारात्मक प्रतिबद्धताएं क्षीण हो रही हैं।’
उपरोक्त टिप्पणी राजनीतिक समझ पर आधारित एक विश्लेषण है। अपने ग्लैमर, सेलिब्रिटी स्टेटस और उच्च मध्यवर्गीय सुख-सुविधाओं में जीने के साथ-साथ अपनी जन-पक्षीय छवि बनाने के लिए आतुर बुद्धिजीवी ऐसी समझ दिखाने में नाकाम रहे हैं। लेकिन यह साफ है कि उनकी शैली में वाम चरमपंथ का समर्थन देश में लोकतांत्रिक विमर्श को संकुचित कर रहा है। इस वक्त जरूरत सरकारों की नव-उदारवादी नीतियों और पूंजी परस्त प्राथमिकताओं का विरोध करने के साथ-साथ वाम चरमपंथ के वैचारिक खोखलेपन और दुस्साहस के खतरों को बेनकाब करने की है। सिर्फ इससे ही उस जनतांत्रिक दायरे की रक्षा की जा सकती है, जो देश में लोकतंत्र की उपलब्धियों की रक्षा और वाम राजनीति के उत्तरोत्तर विकास के लिए जरूरी है। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय राज्य-व्यवस्था में बढ़ते दक्षिणपंथी रुझान को रोकने की शर्त वाम राजनीति की मजबूती है। सीपीआई (माओवादी) इस बुनियादी बात की अनदेखी कर और वाम-जनतांत्रिक दायरे में विभाजन पैदा कर असल में सत्ताधारी तबकों की ही मदद कर रही है। ऐसे में कथित माओवादी समस्या का हल बातचीत द्वारा ढूंढने की वकालत भले सराहनीय हो, लेकिन यह ठोस राजनीतिक विश्लेषण पर आधारित नहीं है और इसीलिए इस सदिच्छा के पूरी होने की कोई ठोस जमीन नजर नहीं आती।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की पैरवी कर रहे बुद्धिजीवियों की यह सदिच्छा सराहनीय है कि सरकार ऑपरेशन ग्रीनहंट शुरू करने के बजाय माओवादियों से बातचीत करे। इस मांग के नैतिक महत्त्व को संभवतः सरकार भी समझती है, इसीलिए उसने इस मुद्दे पर अपनी चालें चली हैं। यह बिल्कुल नया रुझान है कि माओवादियों की हिंसा या तोड़-फोड़ की हर कार्रवाई के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय सार्वजनिक बयान जारी करता है, जिसमें ऐसे तौर-तरीकों पर माओवादियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश के साथ-साथ उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को भी चुनौती दी जाती है। उनसे कहा जाता है कि वे ऐसी कार्रवाइयों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करें। इसी क्रम में माओवादियों से बातचीत की मांग उठाए जाने के बाद गृह मंत्री पी चिदंबरम ने इस मांग की नैतिक हवा निकालने की कोशिश की। उन्होंने यह शर्त रख दी कि अगर माओवादी हिंसा रोक दें तो सरकार उनसे हर मुद्दे पर बातचीत को तैयार है। इसके पहले सरकार का रुख यह होता था कि नक्सली या हथियारबंद लड़ाई लड़ रहे किसी गुट या संगठन से वह तभी बात करेगी, जब वे हथियार डाल दें। चिदंबरम ने साफ किया कि वे अभी माओवादियों से हथियार डालने को नहीं कह रहे हैं और माओवादियों के पैरोकारों से कहा कि वे इस गुट को हिंसा छोड़ कर बातचीत की मेज पर आने को राजी करें।
बहरहाल, सरकार से बातचीत के सवाल पर सीपीआई (माओवादी) ने अपना जो रुख जताया है वह गौरतलब है। पार्टी की सेंट्रल कमेटी के प्रवक्ता आजाद ने कहा है- “माओवादियों से हथियार डाल देने के लिए कहना उन ऐतिहासिक एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के प्रति घोर अज्ञानता को जाहिर करता है, जिनकी वजह से माओवादी आंदोलन का उभार हुआ है।” आजाद ने कहा- “इसके बावजूद, दोनों पक्षों की तरफ से युद्धविराम पर सहमति बन सकती है, अगर सरकार माओवादियों द्वारा हिंसा छोड़ने के बारे में अपना अतार्किक रुख छोड़ दे। उसे आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और इस पर फैसला करना चाहिए कि क्या वह सरकारी आतंकवाद एवं जनता के खिलाफ अनियंत्रित हिंसा छोड़ने को तैयार है।” माओवादियों का कहना है कि कि सरकार अगर बातचीत चाहती है, वह पहले इसके लिए ‘अनुकूल माहौल’ बनाए। लेकिन पेच यह है कि इस ‘अनुकूल माहौल’ के लिए जो पूर्व-शर्तें रखी गई हैं, वह अगर सरकार पूरी कर दे तो शायद बातचीत की जरूरत ही नहीं रह जाएगी! यह एक लंबी फेहरिश्त है। इसमें माओवाद प्रभावित इलाकों से अर्धसैनिक बलों की वापसी से लेकर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के ‘अमानवीय अत्याचार’ की जांच के लिए निष्पक्ष न्यायिक आयोग की स्थापना; गिरफ्तार हुए माओवादी पार्टी से जुड़े और उसके समर्थक तमाम लोगों की रिहाई से लेकर गैर-कानूनी गतिविधि (निरोधक) कानून, छत्तीसगढ़ विशेष लोक सुरक्षा कानून, सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून आदि जैसे कानूनों को रद्द करने; आदिवासियों के लिए सरकारी पुनर्वास शिविरों को बंद करने से लेकर सलवा जुडुम के हाथों विस्थापित हुए ‘दो लाख आदिवासियों’ एवं ‘सरकारी आतंक’ का शिकार हुए अन्य लोगों को उचित मुआवजा देने; बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं बड़े व्यापारिक घरानों से खनन के लिए हुए सभी सहमति-पत्रों को रद्द करने से लेकर सभी विशेष आर्थिक क्षेत्रों को खत्म करने की मांगें शामिल हैं। यानी जब सरकार इतनी मांगें मान लेगी तभी सीपीआई (माओवादी) बातचीत के लिए तैयार होगी।
ऑपरेशन ग्रीनहंट के लिए सरकार की चल रही तैयारियों और माओवादियों के इस रुख को देखते हुए यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन दोनों पक्षों के बीच आखिर बातचीत की कितनी गुंजाइश है। ऐसा लगता है कि इन दोनों पक्षों ने महाभारत की कथा के उस प्रकरण से सीख ली है, जिसके मुताबिक कृष्ण को यह मालूम था कि युद्ध होगा, इसके बावजूद उन्होंने शांति प्रस्ताव कौरवों के सामने रखे, ताकि जब युद्ध हो तो उसकी जिम्मेदारी कौरवों के माथे पर ही जाए। यानी यहां सरकार और माओवादी दोनों में कोई भ्रम में नहीं है कि आगे का रास्ता किधर है। अगर कोई भ्रम में है तो सिर्फ बातचीत की पैरवी कर रहे बुद्धिजीवी ही हैं।
लोकतंत्र में बातचीत निसंदेह विवादों और मुद्दों को हल करने का सबसे बड़ा माध्यम है। लेकिन यह माध्यम तभी कारगर होता है जब मुद्दे ठोस और सुपरिभाषित हों। अगर मुद्दे महज असली मकसद को ढकने के लिए उठाए गए हों, तो बातचीत से कुछ हासिल नहीं होता। इस संदर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि क्या सीपीआई (माओवादी) सचमुच उन्हीं मुद्दों के लिए लड़ रही है, जिन्हें उठाकर उसने आदिवासी और कुछ दूसरे वंचित समूहों में अपना जनाधार बनाया है, या उसका असली मकसद ‘सशस्त्र क्रांति’ के जरिए राजसत्ता पर कब्जा करना है? इस सवाल का जवाब हम सभी जानते हैं। इसलिए जो बुद्धिजीवी या संगठन शांति और न्याय के नाम पर बातचीत की वकालत कर रहे हैं, उन्हें खुलकर यह बताना चाहिए कि क्या वे माओवादियों की धारणा के मुताबिक क्रांति का समर्थन करते हैं?
यह प्रश्न इसलिए ज्यादा अहम है, क्योंकि अभी जारी विमर्श में यह संदेश देने की कोशिश हो रही है कि मौजूदा हालात में सिर्फ दो पक्ष हैं- एक सरकार और दूसरा माओवादी। परोक्ष रूप से कहा यह जा रहा है कि माओवादी देश में न्याय, आदिवासियों के बुनियादी हितों की रक्षा और बेहतर भविष्य की एकमात्र शक्ति हैं, और जिनकी भी इन बातों में आस्था हो, उनके पास माओवादियों का समर्थन करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। चरमपंथी दलीलों के बीच माओवादियों के अराजकतावादी तौर-तरीकों, उनके वैचारिक दिवालियेपन और नकारवादी नजरिए को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस चर्चा में यह बात पूरी तरह गौण हो जाती है कि कैसे अपनी दुस्साहसी कार्रवाइयों से माओवादियों ने खनिज पदार्थों से संपन्न इलाकों में तमाम प्रतिरोध को तोड़ देने का मौका सरकार को मुहैया करा दिया है।
माओवादियों की इन कार्रवाइयों ने देश में वाम जनतांत्रिक शक्तियों के बीच फूट पैदा कर दी है। वाम जनतांत्रिक शक्तियों के बीच इस बात पर वर्षों से आम सहमति थी कि वाम चरमपंथ के फैलाव के लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं और इस मसले से सिर्फ राजनीतिक रूप से ही निपटा जा सकता है। लेकिन माओवादियों ने देश की राजनीतिक परिस्थिति पर बिना गौर किए और अपनी ताकत के फर्जी अहंकार में संसदीय वामपंथ पर ही हमला बोल दिया है। यह उनके बिरादराना द्रोह और अवसरवाद की ही पराकाष्ठा है कि पश्चिम बंगाल में उन्हें ममता बनर्जी अपनी दोस्त नजर आने लगीं। इस बात को भूलकर कि ममता बनर्जी किन सामाजिक ताकतों की नुमाइंदगी करती हैं और उनका अपना मकसद क्या है, माओवादियों के प्रवक्ता यह खुला बयान देने लगे कि वे ममता को राज्य की भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं।
गौरतलब है कि ममता बनर्जी आज केंद्र में मंत्री हैं और माओवादियों के लिए वह हर शक्ति दोस्त है, जो भारतीय राज्य (सरकार) से लड़ रही हो। चाहे यूनाइटेड़ लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) और उत्तर पूर्व के अन्य नस्लीय राष्ट्रवादी आतंकवादी संगठन हों या फिर इस्लामी आतंकवादी- माओवादियों की नजर में ये सभी मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे हैं। उल्फा, एनएससीएन और पीएलए जैसे उत्तर-पूर्वी राज्यों के नस्लवादी संगठनों के साथ उन्होंने भारतीय राज्य के खिलाफ संघर्ष में सहयोग का समझौता किया है। पाकिस्तान की स्वात घाटी, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत, संघ शासित कबीलाई इलाके (फाटा) और दूसरे इलाकों में तालिबान एवं इस्लामी चरमपंथियों की आतंकवादी कार्रवाइयां उन्हें ‘राष्ट्रीय मुक्ति का संघर्ष’ नजर आती हैं। जब पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद अपने चरम पर था, कई नक्सली संगठन उसे भी मुक्ति का आंदोलन मानते थे। यानी जो भी और जहां भी चाहे जिस उद्देश्य से भारतीय राज्य से लड़ रहा हो, वह माओवादियों की निगाह में सकारात्मक शक्ति है।
यह लाइन लेते हुए इस बात की बिल्कुल अनदेखी कर दी जाती है कि धर्मांध और प्रतिक्रियावादी ताकतें किस तरह प्रगतिशील मानव–मूल्यों के खिलाफ खड़ी हैं। खालिस्तानी गुटों या इस्लामी चरमपंथी संगठनों का महिलाओं की आजादी के प्रति क्या नजरिया है, अथवा क्या वे अपने धर्म के भीतर किसी तरह की असहमति को सहने को तैयार हैं, ऐसे सवाल माओवादियों के विमर्श में नहीं आते। उल्फा का नस्लीय उग्रवाद किस तरह गरीब बिहारी मजदूरों के खून का प्यासा हो जाता है, इस पर भी गौर नहीं किया जाता। क्या मजहब और नस्ल के आधार पर खड़े संगठनों का समता और मूलभूत मानवीय स्वतंत्रता के साथ कोई मेल है, इस सवाल पर अपने को माओवादी कहने वाली पार्टी खुद को किसी के प्रति जवाबदेह नहीं मानती।
सीपीआई (माओवादी) खुद को कम्युनिस्ट पार्टी मानती है, लेकिन उसे तालिबान और उन इस्लामी चरमपंथी ताकतों का समर्थन करने में कोई अंतर्विरोध नजर नहीं आता, जिनकी बुनियाद में साम्यवाद का विरोध शामिल रहा है। ये ताकतें उसी अमेरिका की मदद से खड़ी हुईं, जिससे आज वे अपनी वजहों से लड़ रही हैं और इस कारण माओवादी उन्हें मुक्ति के योद्धा मान रहे हैं। श्रीलंका में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम और उसके तानाशाह नेता वी प्रभाकरण के खात्मे पर माओवादियों ने खूब आंसू बहाए। इसे भारत, दक्षिण एशिया और पूरी दुनिया में ‘क्रांतिकारी आंदोलन’ के लिए ‘नकारात्मक प्रभाव’ वाली घटना बताया गया। श्रीलंका में तमिल संघर्ष का कोई भी पर्यवेक्षक यह जानता है कि कैसे एलटीटीई और प्रभाकरण की युद्ध-पिपासा ने तमिलों के बाकी सभी संगठनों का खात्मा कर दिया। उनके आतंकवादी तौर-तरीकों ने वहां सबसे ज्यादा नुकसान तमिलों को ही पहुंचाया और अंत में खुद ही अपने दुस्साहसी अभियान का शिकार हो गए। लेकिन चूंकि वे लड़ रहे थे, चाहे उनके तरीके और मकसद कुछ भी हों, वे माओवादियों के लिए ‘क्रांतिकारी’ थे।
सीपीआई (माओवादी) ने अपने ऐसे ही नकारवादी रुख की वजह से आज वाम जनमत के एक बड़े हिस्से की हमदर्दी खो दी है। इसकी एक मिसाल सुमंत बनर्जी हैं, जो अपनी किताब ‘इन द वेक ऑफ नक्सलबाड़ीः ए हिस्ट्री ऑफ नक्सलाइट मूवमेंट इन इंडिया’ के लिए जाने जाते हैं। उन्हें नक्सलवादी धारा का हमदर्द समझा जाता रहा है। लेकिन अब उनकी यह टिप्पणी ध्यान देने लायक है- ‘बहस का बुनियादी मुद्दा भारत की कुल मौजूदा स्थिति के बारे में माओवादी नेतृत्व की विचारधारात्मक समझ, और उनकी नैतिक साख है। भारत के विभिन्न शोषित समूह विभिन्न तरह के संघर्षों के जरिए उपलब्ध लोकतांत्रिक अवसरों का उपयोग करने की कोशिश कर रहे हैं। इसे स्वीकार करने और सबको समाहित करने वाले कार्यक्रम में इन्हें साथ लेकर चलने के बजाय सीपीआई (माओवादी) के नेता भारतीय जन मानस का अतिवादी अनुमान लगाते हुए उपलब्ध विकल्पों की अनदेखी कर रहे हैं और सशस्त्र संघर्ष के अकेले रास्ते को प्राथमिकता दे रहे हैं। उनकी अपरिपक्वता का एक और कदम यह है कि वे अंध-नस्लवादी सशस्त्र संगठनों या ममता बनर्जी जैसी अवसरवादी राजनेताओं से समझौते कर लेते हैं, जिससे उनकी नैतिकता आरोपों के घेरे में आ जाती है। ऐसी सैन्यवादी प्राथमिकताओं और अल्पकालिक लाभ के राजनीतिक कदमों से उनके कार्यकर्ताओं की विचारधारात्मक प्रतिबद्धताएं क्षीण हो रही हैं।’
उपरोक्त टिप्पणी राजनीतिक समझ पर आधारित एक विश्लेषण है। अपने ग्लैमर, सेलिब्रिटी स्टेटस और उच्च मध्यवर्गीय सुख-सुविधाओं में जीने के साथ-साथ अपनी जन-पक्षीय छवि बनाने के लिए आतुर बुद्धिजीवी ऐसी समझ दिखाने में नाकाम रहे हैं। लेकिन यह साफ है कि उनकी शैली में वाम चरमपंथ का समर्थन देश में लोकतांत्रिक विमर्श को संकुचित कर रहा है। इस वक्त जरूरत सरकारों की नव-उदारवादी नीतियों और पूंजी परस्त प्राथमिकताओं का विरोध करने के साथ-साथ वाम चरमपंथ के वैचारिक खोखलेपन और दुस्साहस के खतरों को बेनकाब करने की है। सिर्फ इससे ही उस जनतांत्रिक दायरे की रक्षा की जा सकती है, जो देश में लोकतंत्र की उपलब्धियों की रक्षा और वाम राजनीति के उत्तरोत्तर विकास के लिए जरूरी है। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय राज्य-व्यवस्था में बढ़ते दक्षिणपंथी रुझान को रोकने की शर्त वाम राजनीति की मजबूती है। सीपीआई (माओवादी) इस बुनियादी बात की अनदेखी कर और वाम-जनतांत्रिक दायरे में विभाजन पैदा कर असल में सत्ताधारी तबकों की ही मदद कर रही है। ऐसे में कथित माओवादी समस्या का हल बातचीत द्वारा ढूंढने की वकालत भले सराहनीय हो, लेकिन यह ठोस राजनीतिक विश्लेषण पर आधारित नहीं है और इसीलिए इस सदिच्छा के पूरी होने की कोई ठोस जमीन नजर नहीं आती।
Thursday, November 5, 2009
यह सिर्फ ध्रुवों की कहानी नहीं है
सत्येंद्र रंजन
“माओवादी अपनी लापरवाह कार्रवाइयों से जनतांत्रिक जनमत को विमुख करने वाले हरसंभव कदम उठा रहे हैं। हर गुजरते दिन के साथ वे इसे ज्यादा साफ कर देते हैं कि नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह और कॉमरेड चारू मजूमदार की विरासत से वे कितनी दूर भटक गए हैं।”- ये भारत की कम्युनिस्ट पार्टी- मार्क्सवादी-लेनिनवादी (लिबरेशन) के मुखपत्र के संपादकीय की पंक्तियां हैं। मुखपत्र ‘लिबरेशन’ के ताजा अंक के ही एक अन्य लेख में इस बात को और विस्तार देते हुए यह टिप्पणी की गई है- “... इस बीच माओवादी अपनी हर लापरवाह अराजकतावादी कार्रवाई, किसी पुलिस अधिकारी का सिर काटने जैसे हर कदम, जन-आंदोलन को अपने खास ढंग के माओवादी सैनिक संघर्ष में बदलने की हर घटना के साथ आम लोकतांत्रिक जनमत को विमुख और विरोधी बना रहे हैं और सरकार को दमन के कड़े कदम उठाने का मौका मुहैया करा रहे हैं।”
कुछ समय पहले एक इंटरव्यू में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने कहा- “हालांकि वे (माओवादी) अपने को कम्युनिस्ट पार्टी कहते हैं, लेकिन उनकी विचारधारा और व्यवहार मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट पार्टी को जिस रूप में होना चाहिए, उसके बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ हैं। ... वे भारत की हकीकत की पहचान नहीं कर पाते। वे कहते हैं कि भारत अभी भी अर्ध-औपनिवेशिक देश है। उनकी राजनीति बंदूक के इस्तेमाल और हिंसा पर आधारित है, जिससे निश्चित रूप से मजदूर वर्ग के आंदोलनों और जन गोलबंदी में रुकावट आती है। विवेकहीन हिंसा में शामिल हो कर, जो अधिकतर अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ होती है, वे उसी जनता के खिलाफ कार्रवाई करने में सरकार के मददगार बन रहे हैं, जिनका समर्थक होने का वे दावा करते हैं।”
चालीस से ऊपर बुद्धिजीवियों, लेखकों और कलाकारों ने एक बयान में कहा है- “हम यह गंभीरता से महसूस करते हैं कि उनके (माओवादियों) द्वारा संहार और हत्या की कार्रवाइयां करते समय माओ दे दुंग जैसी सम्मानित हस्ती के नाम का का इस्तेमाल निंदनीय है।” बयान पर दस्तखत करने वालों में इरफान हबीब, तीस्ता सीतलवा़ड़, प्रभात पटनायक, जयती घोष, डीएन झा आदि जैसे मशहूर नाम हैं।
ये बयान गृह मंत्री पी चिदंबरम या व्यापक राजनीतिक-सामाजिक सवालों पर भी सुरक्षा केंद्रित नजरिया रखने वाले विशेषज्ञों के नहीं हैं। ये उन लोगों (या शक्तियों) के बयान हैं, जो देश में जनतांत्रिक जनमत का हिस्सा हैं। आखिर इन बयानों का संदेश क्या है? संदेश यह है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के तौर-तरीके जनतांत्रिक संघर्ष के पूरे संदर्भ को कमजोर कर रहे हैं। माओवादी भले दावा सबसे कमजोर और वंचित समूहों की तरफ से लड़ने का करते हों, लेकिन वे वास्तव में इन समूहों की मुश्किलों को बढ़ा रहे हैं। इसलिए देश की मौजूदा ठोस हकीकत के भीतर अगर इन समूहों के हितों की वकालत करनी है, तो ऐसे वामपंथी चरमपंथ का राजनीतिक विरोध जरूरी है। दरअसल, यह सभी वामपंथी औऱ जनतांत्रिक शक्तियों की जिम्मेदारी है, वे सरकार के जन विरोधी कदमों के साथ-साथ दुस्साहसी चरमपंथ के खतरों को भी जनता के सामने उजागर करें। यह बात साफ किए जाने की जरूरत है कि मौजूदा जनतांत्रिक विमर्श या संघर्षों के बीच सिर्फ सरकार और माओवादी- ये ही दो पक्ष नहीं हैं।
जबकि महाश्वेता देवी, अरुंधती राय जैसे बुद्धिजीवियों और कई नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं का विमर्श सुनें तो लगता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) देश में न्याय का अकेला प्रतिनिधि संगठन है। ये बुद्धिजीवी यह मांग ठीक ही उठा रहे हैं कि सरकार सेना का अपनी ही जनता के खिलाफ इस्तेमाल न करे। सरकार की बड़े पैमाने पर अर्धसैनिक बलों की तैयारी है। इस कार्रवाई में भी आदिवासी और दूसरे वंचित समूहों के नागरिक अधिकारों का हनन होगा, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। इसलिए विकसित होते घटनाक्रम पर मानवाधिकारों में आस्था रखने वाले लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है।
लेकिन जनतांत्रिक जनमत का जो हिस्सा माओवादियों को जन-संघर्ष का अकेला ध्रुव मान बैठा है, वह अपनी सियासी रुमानियत में जन संघर्षों के व्यापक परिप्रेक्ष्य की अनदेखी कर रहा है। आदिवासियों व दूसरे शोषित समूहों के हित, खनिज पदार्थों की लूट के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सरकार की मिलीभगत, इमरजेंसी की आहट, आदि जैसी दलीलें देकर उसकी तरफ से यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि माओवादी अकेली ऐसी ताकत हैं, जो शोषण के मजबूत चक्र को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। अर्जुन सेनगुप्ता समिति की बहुचर्चित रिपोर्ट के आंकड़ों को बार-बार दोहरा कर माओवादियों की नकारवादी अराजक राजनीति को सही ठहराने की कोशिश अक्सर उनकी चर्चाओं में होते हम देख सकते हैं।
इन बातों से सरकारों के सामने कुछ प्रश्न जरूर खड़े होते हैं, लेकिन उनसे इन सवालों के जवाब नहीं मिलते कि भारतीय व्यवस्था की मनोगत समझ के साथ की गई दुस्साहसी कार्रवाइयों से स्थितियां कैसे बदलेंगी? कोई राजनीतिक शक्ति अपने संघर्ष में मानवाधिकारों एवं मानवता के बुनियादी सिद्धांतों का हनन आखिर कैसे कर सकती है? स्कूल में जाकर बच्चों के सामने किसी शिक्षक की हत्या या किसी अपहृत पुलिस अधिकारी का गला काट देने से क्रांति का कारवां कैसे आगे बढ़ता है? यह दलील दी जा सकती है कि माओवादी ऐसी कार्रवाई उन लोगों के खिलाफ करते हैं, जिनके पुलिस का मुखबिर होने का शक होता है या जिनके खिलाफ जन-आक्रोश रहता है। लेकिन क्या आक्रोश और आवेग में की गई कार्रवाइयों को क्रांतिकारी भी कहा जा सकता है, यह सवाल आज वामपंथ के पक्ष में होने का दावा करने वाले हर शख्स के सामने है।
माओवादियों ने अपने लिए यह सुविधा गढ़ रखी है कि वे अपने किसी विरोधी से संवाद नहीं करते। उसे वे सीधे व्यवस्था का दलाल, या संशोधनवादी या बुर्जुआ विमर्श से प्रभावित लोग करार देते हैं। दरअसल, उनके लिए वे मुद्दे भी खास मायने नहीं रखते, जिनकी वजह से उनका देश के कई इलाकों में जनाधार बना हुआ है। ये मुद्दे उनके लिए महज उस व्यापक सशस्त्र संघर्ष का माध्यम हैं, जिसके जरिए वे राजसत्ता पर कब्जा जमाना चाहते हैं। इसके बीच संवाद और बहस की गुंजाइश सचमुच बहुत कम है। यहां असहमति के लिए जगह बेहद संकरी है।
दूसरी तरफ सरकार विकास की जिस समझ से चलती है और जिन आर्थिक हितों की नुमाइंदगी करती है, उसे समझना कठिन नहीं है। इसलिए उसका विरोध जरूरी है। सरकार दावा कर रही है कि इस बार उसने वामपंथी चरमपंथ से निपटने की स्थायी योजना बनाई है। इसके तहत सुरक्षा बलों की कार्रवाई के साथ-साथ प्रभावित इलाकों का विकास भी किया जाएगा। पहले की तरह सुरक्षा बल कार्रवाई कर संबंधित इलाकों से फौरन वापस नहीं आएंगे। बल्कि वे वहां टिके रहेंगे और उनके संरक्षण में उन इलाकों में सड़क, अस्पताल, स्कूल आदि बनाए जाएंगे। सरकार का मानना है कि इस योजना से यह शिकायत दूर हो जाएगी कि माओवाद विकास की कमी की वजह से फैला है। लेकिन इस रणनीति में बुनियादी गड़बड़ी है, यह बात पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है।
अगर माओवादियों को देश के कमजोर और वंचित समूहों का समर्थन मिलता है, तो उसकी वजह विकास की कमी नहीं, बल्कि व्यवस्था में न्याय का अभाव है। मसलन, बिहार की मिसाल लें। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भूमि सुधार पर सुझाव देने के लिए बंदोपाध्याय कमेटी बनाई। कमेटी की सिफारिशें आ गईं तो पहले उस पर टालमटोल करते रहे और आखिरकार उस पर अमल से इनकार कर दिया। भूमि सुधारों पर अमल न होना ग्रामीण इलाकों में परंपरागत शोषण और बहुत बड़ी आबादी की बदहाली का सबसे बड़ा कारण है। अगर सरकारें आज भी इसके लिए तैयार नहीं हैं, तो वे खुद को न्याय के पक्ष में नहीं दिखा सकतीं। ऐसा ही मामला आदिवासी एवं अन्य वनवासी भू-अधिकार कानून पर अमल करने में कोताही है। अरुंधती राय और अन्य बुद्धिजीवी जब यह कहते हैं कि माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई के पीछे मुख्य मकसद खनिज पदार्थों से भरपूर इलाकों में विस्थापन विरोधी प्रतिरोध को तोड़ कर इस संपदा को बड़ी या बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपना है, तो सरकारों के ऐसे रुख की वजह से उनकी बात बहुत से लोगों को विश्वसनीय लगती है।
मगर दिक्कत यह है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की रणनीति, तौर-तरीकों और उनका मकसद इस विमर्श से गायब रह जाता है। व्यक्तिगत हत्या और तोड़फोड़ के जिस रास्ते पर यह पार्टी चल रही है, क्या उससे भारत की मौजूदा परिस्थितियों के बीच सचमुच किसी क्रांति को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, यह सवाल ये बुद्धिजीवी नहीं पूछते। इस पार्टी ने भारत की मौजूदा व्यवस्था और उसमें वर्ग संघर्ष के बीच दोस्त और दुश्मन की जो पहचान की है, वह कितनी वस्तुगत है और कितनी मनोगत, यह सवाल भी वे नहीं उठाते। शायद वो समझते हों कि इन सवालों को अभी उठाने से सरकार का पक्ष मजबूत होगा, लेकिन वे शायद यह नहीं समझते हैं कि बगैर इस सवाल को उठाए जब वे सरकार से कार्रवाई की योजना रोकने और माओवादियों से बातचीत की मांग उठाते हैं, तो समूचे जनतांत्रिक एवं व्यापक वामपंथी दायरे में भी उसकी साख नहीं बन पाती। इसीलिए सरकार उनके ‘रोमांटिक’ होने की छवि बनाने में कहीं ज्यादा सफल हो गई है।
मुश्किल यह है कि यह पूरी चर्चा दो ध्रुवों पर सिमट कर रह गई दिखती है। एक ध्रुव पर सरकार है और दूसरे पर माओवादी। सरकार का पक्ष है कि वह सार्वजनिक-व्यवस्था की रक्षा के लिए कार्रवाई करने जा रही है और इसके लिए उसके पास लोकतांत्रिक जनादेश है। माओवादियों के हमदर्द बुद्धिजीवियों की बात का सार है कि सीपीआई (माओवादी) उन समुदायों के संघर्ष की नुमाइंदगी कर रहे हैं, जिनकी आजीविका और स्थानीय संसाधनों पर कुदरती हक खतरे में है। क्या मौजूदा हकीकत सचमुच महज दो ध्रुवों की कहानी है?
हालत ऐसी बिल्कुल नहीं है। सीपीआई (माओवादी) सारे जन संघर्षों की बात तो दूर पूरे वामपंथ की भी नुमाइंदगी नहीं करती। असल में वह पूरी माओवादी धारा की भी प्रतिनिधि नहीं है। इस धारा की कई दूसरी पार्टियां हैं, जिन्होंने पिछले चार दशक के अनुभवों से सबक सीखा है और वे आज सीपीआई (माओवादी) की तरह न तो हिंसा के लिए उत्साहित रहते हैं औऱ ना ही वैसी दुस्साहसी लाइन पर चल रहे हैं। वामपंथ की ताकतें संसदीय राजनीति में भी हैं, जिन्होंने सांप्रदायिकता और नव-उदारवाद के खिलाफ संघर्ष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सीपीआई (माओवादी) इन सभी शक्तियों को ‘संशोधनवादी’ मानती है और पश्चिम बंगाल में तो उसने दरअसल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ ही असली युद्ध छेड़ा हुआ है।
यह रणनीति असल में देश में प्रगतिशील धाराओं और वामपंथ को कमजोर कर रही है। साथ ही हिंसा के प्रति अति उनके उत्साह और दुस्साहसी कार्रवाइयों ने व्यवस्था (यानी सरकार) को माओवादियों के असर वाले इलाकों में बड़े पैमाने पर कार्रवाई का मौका दे दिया है। तो इस कार्रवाई में नागरिक अधिकारों का जो हनन होगा, क्या उसकी कुछ जिम्मेदारी सीपीआई (माओवादी) पर भी नहीं होगी? असली सवाल यह है कि व्यवस्था में अंतर्निहित और संगठित हिंसा से क्या उसी तरह लड़ा जाना चाहिए, जैसे माओवादी लड़ रहे हैं? अगर माओवादी समझते हैं कि भारत में सशस्त्र क्रांति से राजसत्ता पर कब्जा करने का वक्त आ चुका है, तो वे बेशक यह दिवास्वप्न देख सकते हैं। लेकिन उनके असर वाले इलाकों के आम लोगों को उनकी इस रूमानियत की कीमत क्यों चुकानी चाहिए?
रूमानी ‘क्रांतिकारियों’ के समर्थक या हमदर्द बुद्धिजीवियों को भी यह जरूर समझना चाहिए कि पेचीदा सवालों की अनदेखी और हालात को महज काले एवं सफेद में चित्रित कर वंचित समूहों की पैरवी नहीं की जा सकती। सीपीआई (माओवादी) नकारवादी अराजकता के रास्ते पर रही है। सरकार की जनतांत्रिक साख पर सवाल उठते वक्त इस खतरनाक रास्ते की आलोचना भी जरूर होनी चाहिए। वरना, हम दो में से किसी एक ध्रुव पर सिमटने को मजबूर हो जाएंगे और इनकी लड़ाई के बीच जन-अधिकारों की लड़ाई के कहीं पीछे छूट जाएगी।
इसीलिए देश के वाम-जनतांत्रिक समुदाय के सामने आज यह एक बड़ी चुनौती है कि जनतांत्रिक विमर्श को महज सरकार और माओवादियों के ध्रुवों में समेटने की कोशिशों के प्रति वह जागरूक हो और इसके खतरों से जनता को अवगत कराए। और इसके लिए यह जरूरी है कि सीपीआई (माओवादी) भारत में सभी जनतांत्रिक शक्तियों की बात तो दूर, माओवादी-नक्सलवादी धारा की भी अकेली प्रतिनिधि नहीं है, इस बात को खुल कर कहा जाए।
“माओवादी अपनी लापरवाह कार्रवाइयों से जनतांत्रिक जनमत को विमुख करने वाले हरसंभव कदम उठा रहे हैं। हर गुजरते दिन के साथ वे इसे ज्यादा साफ कर देते हैं कि नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह और कॉमरेड चारू मजूमदार की विरासत से वे कितनी दूर भटक गए हैं।”- ये भारत की कम्युनिस्ट पार्टी- मार्क्सवादी-लेनिनवादी (लिबरेशन) के मुखपत्र के संपादकीय की पंक्तियां हैं। मुखपत्र ‘लिबरेशन’ के ताजा अंक के ही एक अन्य लेख में इस बात को और विस्तार देते हुए यह टिप्पणी की गई है- “... इस बीच माओवादी अपनी हर लापरवाह अराजकतावादी कार्रवाई, किसी पुलिस अधिकारी का सिर काटने जैसे हर कदम, जन-आंदोलन को अपने खास ढंग के माओवादी सैनिक संघर्ष में बदलने की हर घटना के साथ आम लोकतांत्रिक जनमत को विमुख और विरोधी बना रहे हैं और सरकार को दमन के कड़े कदम उठाने का मौका मुहैया करा रहे हैं।”
कुछ समय पहले एक इंटरव्यू में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने कहा- “हालांकि वे (माओवादी) अपने को कम्युनिस्ट पार्टी कहते हैं, लेकिन उनकी विचारधारा और व्यवहार मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट पार्टी को जिस रूप में होना चाहिए, उसके बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ हैं। ... वे भारत की हकीकत की पहचान नहीं कर पाते। वे कहते हैं कि भारत अभी भी अर्ध-औपनिवेशिक देश है। उनकी राजनीति बंदूक के इस्तेमाल और हिंसा पर आधारित है, जिससे निश्चित रूप से मजदूर वर्ग के आंदोलनों और जन गोलबंदी में रुकावट आती है। विवेकहीन हिंसा में शामिल हो कर, जो अधिकतर अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ होती है, वे उसी जनता के खिलाफ कार्रवाई करने में सरकार के मददगार बन रहे हैं, जिनका समर्थक होने का वे दावा करते हैं।”
चालीस से ऊपर बुद्धिजीवियों, लेखकों और कलाकारों ने एक बयान में कहा है- “हम यह गंभीरता से महसूस करते हैं कि उनके (माओवादियों) द्वारा संहार और हत्या की कार्रवाइयां करते समय माओ दे दुंग जैसी सम्मानित हस्ती के नाम का का इस्तेमाल निंदनीय है।” बयान पर दस्तखत करने वालों में इरफान हबीब, तीस्ता सीतलवा़ड़, प्रभात पटनायक, जयती घोष, डीएन झा आदि जैसे मशहूर नाम हैं।
ये बयान गृह मंत्री पी चिदंबरम या व्यापक राजनीतिक-सामाजिक सवालों पर भी सुरक्षा केंद्रित नजरिया रखने वाले विशेषज्ञों के नहीं हैं। ये उन लोगों (या शक्तियों) के बयान हैं, जो देश में जनतांत्रिक जनमत का हिस्सा हैं। आखिर इन बयानों का संदेश क्या है? संदेश यह है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के तौर-तरीके जनतांत्रिक संघर्ष के पूरे संदर्भ को कमजोर कर रहे हैं। माओवादी भले दावा सबसे कमजोर और वंचित समूहों की तरफ से लड़ने का करते हों, लेकिन वे वास्तव में इन समूहों की मुश्किलों को बढ़ा रहे हैं। इसलिए देश की मौजूदा ठोस हकीकत के भीतर अगर इन समूहों के हितों की वकालत करनी है, तो ऐसे वामपंथी चरमपंथ का राजनीतिक विरोध जरूरी है। दरअसल, यह सभी वामपंथी औऱ जनतांत्रिक शक्तियों की जिम्मेदारी है, वे सरकार के जन विरोधी कदमों के साथ-साथ दुस्साहसी चरमपंथ के खतरों को भी जनता के सामने उजागर करें। यह बात साफ किए जाने की जरूरत है कि मौजूदा जनतांत्रिक विमर्श या संघर्षों के बीच सिर्फ सरकार और माओवादी- ये ही दो पक्ष नहीं हैं।
जबकि महाश्वेता देवी, अरुंधती राय जैसे बुद्धिजीवियों और कई नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं का विमर्श सुनें तो लगता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) देश में न्याय का अकेला प्रतिनिधि संगठन है। ये बुद्धिजीवी यह मांग ठीक ही उठा रहे हैं कि सरकार सेना का अपनी ही जनता के खिलाफ इस्तेमाल न करे। सरकार की बड़े पैमाने पर अर्धसैनिक बलों की तैयारी है। इस कार्रवाई में भी आदिवासी और दूसरे वंचित समूहों के नागरिक अधिकारों का हनन होगा, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। इसलिए विकसित होते घटनाक्रम पर मानवाधिकारों में आस्था रखने वाले लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है।
लेकिन जनतांत्रिक जनमत का जो हिस्सा माओवादियों को जन-संघर्ष का अकेला ध्रुव मान बैठा है, वह अपनी सियासी रुमानियत में जन संघर्षों के व्यापक परिप्रेक्ष्य की अनदेखी कर रहा है। आदिवासियों व दूसरे शोषित समूहों के हित, खनिज पदार्थों की लूट के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सरकार की मिलीभगत, इमरजेंसी की आहट, आदि जैसी दलीलें देकर उसकी तरफ से यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि माओवादी अकेली ऐसी ताकत हैं, जो शोषण के मजबूत चक्र को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। अर्जुन सेनगुप्ता समिति की बहुचर्चित रिपोर्ट के आंकड़ों को बार-बार दोहरा कर माओवादियों की नकारवादी अराजक राजनीति को सही ठहराने की कोशिश अक्सर उनकी चर्चाओं में होते हम देख सकते हैं।
इन बातों से सरकारों के सामने कुछ प्रश्न जरूर खड़े होते हैं, लेकिन उनसे इन सवालों के जवाब नहीं मिलते कि भारतीय व्यवस्था की मनोगत समझ के साथ की गई दुस्साहसी कार्रवाइयों से स्थितियां कैसे बदलेंगी? कोई राजनीतिक शक्ति अपने संघर्ष में मानवाधिकारों एवं मानवता के बुनियादी सिद्धांतों का हनन आखिर कैसे कर सकती है? स्कूल में जाकर बच्चों के सामने किसी शिक्षक की हत्या या किसी अपहृत पुलिस अधिकारी का गला काट देने से क्रांति का कारवां कैसे आगे बढ़ता है? यह दलील दी जा सकती है कि माओवादी ऐसी कार्रवाई उन लोगों के खिलाफ करते हैं, जिनके पुलिस का मुखबिर होने का शक होता है या जिनके खिलाफ जन-आक्रोश रहता है। लेकिन क्या आक्रोश और आवेग में की गई कार्रवाइयों को क्रांतिकारी भी कहा जा सकता है, यह सवाल आज वामपंथ के पक्ष में होने का दावा करने वाले हर शख्स के सामने है।
माओवादियों ने अपने लिए यह सुविधा गढ़ रखी है कि वे अपने किसी विरोधी से संवाद नहीं करते। उसे वे सीधे व्यवस्था का दलाल, या संशोधनवादी या बुर्जुआ विमर्श से प्रभावित लोग करार देते हैं। दरअसल, उनके लिए वे मुद्दे भी खास मायने नहीं रखते, जिनकी वजह से उनका देश के कई इलाकों में जनाधार बना हुआ है। ये मुद्दे उनके लिए महज उस व्यापक सशस्त्र संघर्ष का माध्यम हैं, जिसके जरिए वे राजसत्ता पर कब्जा जमाना चाहते हैं। इसके बीच संवाद और बहस की गुंजाइश सचमुच बहुत कम है। यहां असहमति के लिए जगह बेहद संकरी है।
दूसरी तरफ सरकार विकास की जिस समझ से चलती है और जिन आर्थिक हितों की नुमाइंदगी करती है, उसे समझना कठिन नहीं है। इसलिए उसका विरोध जरूरी है। सरकार दावा कर रही है कि इस बार उसने वामपंथी चरमपंथ से निपटने की स्थायी योजना बनाई है। इसके तहत सुरक्षा बलों की कार्रवाई के साथ-साथ प्रभावित इलाकों का विकास भी किया जाएगा। पहले की तरह सुरक्षा बल कार्रवाई कर संबंधित इलाकों से फौरन वापस नहीं आएंगे। बल्कि वे वहां टिके रहेंगे और उनके संरक्षण में उन इलाकों में सड़क, अस्पताल, स्कूल आदि बनाए जाएंगे। सरकार का मानना है कि इस योजना से यह शिकायत दूर हो जाएगी कि माओवाद विकास की कमी की वजह से फैला है। लेकिन इस रणनीति में बुनियादी गड़बड़ी है, यह बात पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है।
अगर माओवादियों को देश के कमजोर और वंचित समूहों का समर्थन मिलता है, तो उसकी वजह विकास की कमी नहीं, बल्कि व्यवस्था में न्याय का अभाव है। मसलन, बिहार की मिसाल लें। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भूमि सुधार पर सुझाव देने के लिए बंदोपाध्याय कमेटी बनाई। कमेटी की सिफारिशें आ गईं तो पहले उस पर टालमटोल करते रहे और आखिरकार उस पर अमल से इनकार कर दिया। भूमि सुधारों पर अमल न होना ग्रामीण इलाकों में परंपरागत शोषण और बहुत बड़ी आबादी की बदहाली का सबसे बड़ा कारण है। अगर सरकारें आज भी इसके लिए तैयार नहीं हैं, तो वे खुद को न्याय के पक्ष में नहीं दिखा सकतीं। ऐसा ही मामला आदिवासी एवं अन्य वनवासी भू-अधिकार कानून पर अमल करने में कोताही है। अरुंधती राय और अन्य बुद्धिजीवी जब यह कहते हैं कि माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई के पीछे मुख्य मकसद खनिज पदार्थों से भरपूर इलाकों में विस्थापन विरोधी प्रतिरोध को तोड़ कर इस संपदा को बड़ी या बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपना है, तो सरकारों के ऐसे रुख की वजह से उनकी बात बहुत से लोगों को विश्वसनीय लगती है।
मगर दिक्कत यह है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की रणनीति, तौर-तरीकों और उनका मकसद इस विमर्श से गायब रह जाता है। व्यक्तिगत हत्या और तोड़फोड़ के जिस रास्ते पर यह पार्टी चल रही है, क्या उससे भारत की मौजूदा परिस्थितियों के बीच सचमुच किसी क्रांति को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, यह सवाल ये बुद्धिजीवी नहीं पूछते। इस पार्टी ने भारत की मौजूदा व्यवस्था और उसमें वर्ग संघर्ष के बीच दोस्त और दुश्मन की जो पहचान की है, वह कितनी वस्तुगत है और कितनी मनोगत, यह सवाल भी वे नहीं उठाते। शायद वो समझते हों कि इन सवालों को अभी उठाने से सरकार का पक्ष मजबूत होगा, लेकिन वे शायद यह नहीं समझते हैं कि बगैर इस सवाल को उठाए जब वे सरकार से कार्रवाई की योजना रोकने और माओवादियों से बातचीत की मांग उठाते हैं, तो समूचे जनतांत्रिक एवं व्यापक वामपंथी दायरे में भी उसकी साख नहीं बन पाती। इसीलिए सरकार उनके ‘रोमांटिक’ होने की छवि बनाने में कहीं ज्यादा सफल हो गई है।
मुश्किल यह है कि यह पूरी चर्चा दो ध्रुवों पर सिमट कर रह गई दिखती है। एक ध्रुव पर सरकार है और दूसरे पर माओवादी। सरकार का पक्ष है कि वह सार्वजनिक-व्यवस्था की रक्षा के लिए कार्रवाई करने जा रही है और इसके लिए उसके पास लोकतांत्रिक जनादेश है। माओवादियों के हमदर्द बुद्धिजीवियों की बात का सार है कि सीपीआई (माओवादी) उन समुदायों के संघर्ष की नुमाइंदगी कर रहे हैं, जिनकी आजीविका और स्थानीय संसाधनों पर कुदरती हक खतरे में है। क्या मौजूदा हकीकत सचमुच महज दो ध्रुवों की कहानी है?
हालत ऐसी बिल्कुल नहीं है। सीपीआई (माओवादी) सारे जन संघर्षों की बात तो दूर पूरे वामपंथ की भी नुमाइंदगी नहीं करती। असल में वह पूरी माओवादी धारा की भी प्रतिनिधि नहीं है। इस धारा की कई दूसरी पार्टियां हैं, जिन्होंने पिछले चार दशक के अनुभवों से सबक सीखा है और वे आज सीपीआई (माओवादी) की तरह न तो हिंसा के लिए उत्साहित रहते हैं औऱ ना ही वैसी दुस्साहसी लाइन पर चल रहे हैं। वामपंथ की ताकतें संसदीय राजनीति में भी हैं, जिन्होंने सांप्रदायिकता और नव-उदारवाद के खिलाफ संघर्ष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सीपीआई (माओवादी) इन सभी शक्तियों को ‘संशोधनवादी’ मानती है और पश्चिम बंगाल में तो उसने दरअसल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ ही असली युद्ध छेड़ा हुआ है।
यह रणनीति असल में देश में प्रगतिशील धाराओं और वामपंथ को कमजोर कर रही है। साथ ही हिंसा के प्रति अति उनके उत्साह और दुस्साहसी कार्रवाइयों ने व्यवस्था (यानी सरकार) को माओवादियों के असर वाले इलाकों में बड़े पैमाने पर कार्रवाई का मौका दे दिया है। तो इस कार्रवाई में नागरिक अधिकारों का जो हनन होगा, क्या उसकी कुछ जिम्मेदारी सीपीआई (माओवादी) पर भी नहीं होगी? असली सवाल यह है कि व्यवस्था में अंतर्निहित और संगठित हिंसा से क्या उसी तरह लड़ा जाना चाहिए, जैसे माओवादी लड़ रहे हैं? अगर माओवादी समझते हैं कि भारत में सशस्त्र क्रांति से राजसत्ता पर कब्जा करने का वक्त आ चुका है, तो वे बेशक यह दिवास्वप्न देख सकते हैं। लेकिन उनके असर वाले इलाकों के आम लोगों को उनकी इस रूमानियत की कीमत क्यों चुकानी चाहिए?
रूमानी ‘क्रांतिकारियों’ के समर्थक या हमदर्द बुद्धिजीवियों को भी यह जरूर समझना चाहिए कि पेचीदा सवालों की अनदेखी और हालात को महज काले एवं सफेद में चित्रित कर वंचित समूहों की पैरवी नहीं की जा सकती। सीपीआई (माओवादी) नकारवादी अराजकता के रास्ते पर रही है। सरकार की जनतांत्रिक साख पर सवाल उठते वक्त इस खतरनाक रास्ते की आलोचना भी जरूर होनी चाहिए। वरना, हम दो में से किसी एक ध्रुव पर सिमटने को मजबूर हो जाएंगे और इनकी लड़ाई के बीच जन-अधिकारों की लड़ाई के कहीं पीछे छूट जाएगी।
इसीलिए देश के वाम-जनतांत्रिक समुदाय के सामने आज यह एक बड़ी चुनौती है कि जनतांत्रिक विमर्श को महज सरकार और माओवादियों के ध्रुवों में समेटने की कोशिशों के प्रति वह जागरूक हो और इसके खतरों से जनता को अवगत कराए। और इसके लिए यह जरूरी है कि सीपीआई (माओवादी) भारत में सभी जनतांत्रिक शक्तियों की बात तो दूर, माओवादी-नक्सलवादी धारा की भी अकेली प्रतिनिधि नहीं है, इस बात को खुल कर कहा जाए।
Sunday, October 25, 2009
माओवाद की नाकामी की कहानी
A tale of failures and their persistence
Thu, 2009-10-22 15:48 | Srinivasan Ramani
The Indian Maoists have been described as the greatest security threat to the nation by the Indian government and although there is a great degree of exaggeration involved in the statement, it is also a fact that the Indian Maoists have reached a position of significance that they did not enjoy just a few years ago.Consequent to these descriptions, the Indian government has suggested through feelers that it contemplates a military solution to the "Maoist problem", one that involves special task paramilitary forces that would take on the Maoist Peoples' Liberation Army to frontal combat. This has also been flanked by statements on addressing the socio-economic situation that has given rise to the "Maoist problem" in the first place. The trouble with the government's view is that its emphasis on a military solution would entail a long drawn out "civil war" against a primarily guerilla outfit which has thus far managed hits and runs and and not graduated into a more stronger "liberation army" howmuchsoever the government wants to "escalate" its threat value. Having said that, there has been a definite spurt in Maoist violence across the country in the past few years, notwithstanding setbacks to the Maoist forces.
The strength of the Indian Maoists has increased especially since the merger of the two large insurrectionist Naxalite organisations, the Peoples' War Group and the Maoist Communist Centre in 2004. Since then, the Maoists first tried out a political compromise when they emerged for talks with the Andhra Pradesh government, which eventually fizzled out as the AP government used the interregnum for talks to consolidate their position and weaken the Maoists. They were then militarily defeated in Andhra Pradesh by the concerted actions of the police force- particularly the "elite" Greyhound commando forces[i], which was far better a security tool that approximated the guerilla strategies of the Maoists' People's Liberation Army than just the police and was eventually able to overcome the Maoists in the state, so much so, that the Maoists' leadership had to take refuge in the "Dandakaranya region" adjoining Chhattisgarh, Orissa and Andhra Pradesh. As recently deceased human rights activist, K. Balagopal pointed out in a telling essay some years ago, the Maoists were defeated not just by the brute force of the state's machinery, but also by their own praxis. By shifting their praxis from grievance and alternative politics driven to military based mobilisation, the Maoists eventually lost much support - a must in a guerilla struggle and were forced to retreat from Andhra Pradesh.Lately, even the mass organisations of the Maoists have been marginalised; some Maoist sympathisers have tried to bandwagon with the new political outfit launched by actor Chiranjeevi[ii], which had promised a pro-poor agenda. But those ambitions have been frustrated with the Praja Rajyam Party's defeat as well as by the entry of opportunist "money bag elements" into the party.
The MCC component, which has been commented to be more anarchic in its activities[iii] than the more "organised" PWG component, meanwhile continued its unabated activities in the Jharkhand state, where they have also indulged in extortion activities used to fund their "war chest". The Maoists meanwhile have targetted newer areas where there is severe discontent to work out their political and military praxis. The Bastar region of Chhattisgarh was one such, where the mining contractor - bureaucrat – politician- industrial nexus was intact and which gave reasons for the Maoists to mobilise tribals against this nexus. In retaliation, the state polity brought about the dangerous Salwa Judum programme, which pits tribal against tribal and created a vigilante force against the Maoists and the tribals who support them. The result was severe displacement of tribals from their villages into relief camps and widespread anarchy with tribals caught in the crossfire between the Salwa Judum and the Maoists. The Bastar region remains volatile, as even social service organisations such as the Vanvasi Chetna Ashram have been caught in this crossfire. The state has targetted any social/ civil society outfit as being Maoist sympathisers using draconian laws such as the Public Security Act, while the Maoist actions such as abductions of local level state government officials or wanton disruption of elections has given fillips to a vengeful state to retaliate. The Maoists on the other hand, have also indulged in wanton murder of village headmen, sarpanches; have bent on militarising the tribals and thrown them in the deep well of the violence among themselves[iv].
For years, the Maoists have been steadily building a political movement in other tribal dominated areas severely hampered by under-development and social backwardness, such as in Gadchiroli in south eastern Maharashtra. The recent spurt in violence in the district is a direct consequence of the state trying to get back its "influence" in the area after systematic neglect for years. The Maoists have also been active for a few years in the Kalahandi region of Orissa, which is another zone of poverty, and commercial exploitation of natural resources. Over the past year or so, the Maoists have been trying to expand their influence into the communally sensitive areas of Orissa, such as in the Kandhamal district. By definite accounts, the Maoists were responsible in the Vishwa Hindu Parishad leader Laxmananda Saraswati murder, which triggered a murderous reaction by the Hindu communalists of the Sangh Parivar against Christian tribals and institutions. Kandhamal is still not off the boil, as the Sangh Parivar has simply used the Maoist actions as a ruse to target Christian tribals.
The Maoists have been unsuccessful in trying to work out their praxis in other regions; Karnataka for example. Here, the entire state unit of Karnataka split from the Maoists detailing their dissidence on the basis of their opposition to the anarchic violence and the "incorrect" understanding of the Indian society and polity by the party[v]. The Karnataka wing has now become a "non-violent" political and left organisation.
The pattern of Maoist involvement in many areas in the country is revealing. The Maoists have tactically descended upon the idea of working their praxis not immediately on an all-India level, but in assorted areas where it is difficult for the organs of the state to defeat them militarily and to build their base areas in these locations[vi]. There is a great degree of social discontent and there is very little development in these areas or what transpires for "development" activity is merely a front for commercial exploitation of tribal/rural habitats. The Maoists then enmesh themselves in these areas through opposition and mobilisation against the state and try to work out their political praxis of working out a base area, consolidating their hold by targetting institutions of the state by violent means. These means include disruption of the formal activity of elections, damaging developmental work such as roads, schools and others set up by the state, killing people identified with political outfits that are seen to be antithetical to the Maoists[vii]. Invariably the state retaliates and the very people whom the Maoists show their concern for, are caught in the crossfire. The Maoists then explain these actions to reveal the "naked face of the state"; while the state invariably takes recourse to draconian laws and actions to justify their security based response against the Maoists.
Maoist actions in West Bengal
That now takes us to West Bengal. Contradictory to many an assertion by the political opposition in the state, the movement against land acquisition in Nandigram was triggered with more than substantive work by the Maoists. The Maoists have themselves acknowledged this in a number of interviews. One such interesting interview of Koteshwar Rao[viii] suggests that the Maoists were also involved in the Keshpur incidents in the early part of this decade, then pitting themselves against the Trinamul led elements. The Maoists have indulged in "hit and run" work from Jharkhand in west Midnapore for sometime now. Yet, importantly, the Maoist (Naxalite to be precise) presence and influence in West Bengal was significantly reduced[ix] - primarily because of the Left government's earlier successes in land reforms and focussed rural development and strengthening of local democracy.
Having said that, studies (EPW Special Issue, February 2009, “Local Government in Rural West Bengal”), have identified trends that explain the fraying away of the rural "gains" made by the left. While panchayati raj has instituted local democracy and shifted the loci of government to the local village panchayat making it the most powerful institution in the rural areas;long and entrenched rule of the left has developed tendencies of corruption or more protractedly clientalism at the local grassroots levels in parts of the state. Systems of patronage based on political allegiances have been effected in many rural areas that has fed in discontent at some levels[x]. The objective conditions in Lalgarh for example, mirror this story as some reports point out. Malini Bhattacharya's article on Lalgarh points out to an objective assessment that tries to understand the reasons for the discontent while putting into perspective, the Maoists' turf war against the CPI(M) in the area.
A key question remains- what is the end that the Maoists are trying to achieve in West Midnapore or even in West Bengal? Are they thinking that they would keep building a liberated base area in the region, knowing fully well that they would invite sovereign action by the state in the form of security measures to protect state institutions - here, Panchayat samitis, zilla parishads, gram sabhas in the area? Why would any state government remain a mute spectator to a virtual take over of its sovereign actions by extra-legal elements? The Maoists think they are justified in doing so, because it flows from their praxis of creating alternate power structures, but given their failure elsewhere to prevent the hold of electoral democracy or democratic instruments on the electorate and the poor, what makes them think that they would be successful in doing so in a state, where the formal instruments of democracy are even more vibrant and entrenched? That annihilation of anyone having different political allegiances is a way out of winning a so called "class war" is inherently a diabolic, anarchic, authoritarian and in every sense a Pol-Potist discourse. And the Maoists in this case are adopting the methods of annihilation and rampant killing to defeat the Left, tacitly supported by the opportunist right wing forces such as the Trinamul and the Congress, who are looking for a ruse to dismiss the Left Front government in the state.
Surely the Maoists are leading the tribals to a violent abyss by these anarchic actions and they do it realising this very well. The Maoists are trying to foment a revolution - there is no doubt about that. They consider that the bourgeois democracy in India is a facade that hides entrenched class interests and class control over levers of power. They consider that it is not just enough to force the state to bring in welfare measures as they are crumbs to the needy which doesn't hide the structural orientation of the comprador-bureaucratic-bourgeoisie ruled state. But in this endeavour, they consider that it is the "parliamentary Left" that is their primary enemy now as is evidenced by their strategy in West Bengal, which has prefaced their tacit understanding with political parties such as the Trinamul Congress.
Setback to the left movement in the entire country
Any simple reading of the electoral system and polity in India would reveal that there is a derived bipolarity between the Congress and the BJP in the electoral system and large consensus on economic policy among the ruling classes. This consensus is evaded only by the left parties at the national level, which has articulated a break from both neoliberalism and greater integration with “imperialism” at the world level, may it be in the form that the left opposed the implementation of neoliberal policy formulations or in the way the entire nuclear deal issue was played out. Even radical parties such as the CPI(ML)-Liberation acknowledge the loss of the left voice in Parliament as a setback despite their reservations about the praxis of the larger left parties[xi]. And even those who believe in social democracy and in upholding Constitutional values have lamented the loss of the left, may it be in articulating a social agenda for the nation as a whole or in articulating an independent voice in foreign policy. But the Maoists, here have considered the left front as their primary enemy and embark upon a similar praxis as is evident in their work in other states (incidentally none of them is Congress ruled).
The Lalgarh incidents and the rampant killings of CPI(M) party workers might put the CPI(M) led Left Front on the back foot in the state of West Bengal. The Left is now in a state of introspection over the defeat in the recent parliamentary elections. The deliberate mobilisations against the left from a varied coalition of forces from the ultra-right (the Sangh parivar's intrusion in Darjeeling) to the right (the Trinamul and Congress Alliance, which is now using violence to quell the left's hold after elections) to the ultra-left (the Maoists) has only pushed the left movement in the country as a whole further into the backfoot. That is because the actions by the Maoists seem to want to push the balance of support toward rightist forces in the state of West Bengal - in other words, the opportunist Trinamul Congress and the distinctly neoliberal Congress. Any leftist would bristle at this culmination despite reservations with the governance and policies of the long running left front government in the state of late.
Lessons to be drawn
The central government repeated harping on the "greatest internal security threat" that the Maoists provide, is certainly hyperbolic. But the insistence on such a rhetoric is primarily driven by the fact that the Maoists have increasingly concentrated in areas, which are rich in natural resources and are coveted by big companies for commercial purposes. Of late, however, the central government has started to make statements about socio-economic development of the regions currently under some influence of the Maoists. Consequently, the Maoists have responded in attacking the developmental agencies and structures of the state in a manner that has brought in greater repression. In many ways, even if the Maoist actions and the state counter-actions (or vice versa) are not the "greatest internal security" problem, the situation is indeed a great tragic livelihood problem in the tribal dominated areas where the Maoists have a significant presence.
The existing crossfire, be it in the form of battles between vigilante tribal forces and the Maoists in Chhattisgarh or the violent turf war launched by the Maoists against ruling party supporters in West Bengal or the tactic of individual "annihilation" of perceived enemies by the Maoists in Orissa has created a great cesspool of violence and counter-violence. The immanent "massive" paramilitary response, without a concomitant administrative impetus on livelihood issues would only widen this cesspool. The Indian state by embarking upon a wholly militant offensive, would further alienate an already traumatised population if it resorts to a full scale offensive against the guerilla army of the Maoists on the lines of what transpired in Sri Lanka against the Liberation Tigers of Tamil Eelam. Having said that, the anarchic use of violence, and the terroristic acts of "annihilation" have drawn such as response, for which the Maoists are completely to blame. In this respect they have much to learn from their Nepali counterparts who have successfully established great bases of support among the Nepali populace through varied tactics of democratic engagement going beyond mere military consolidation. And indeed from the failures of similar anarchic and military oriented Maoist organisations such as the Sendero Luminoso in Peru.
The inability of the Maoists to transform their spark in 1967 into a prairie fire as late as 2009 is indicative of the stupendous failure of the Maoist praxis. And the continuing presence of under-development, poor human development indicators, exploitation and oppression in areas where the Maoists are strong; point toward the failure of formal Indian democracy. There has to be a great substantive basis for Indian democratic institutions objectively and a more wholesome democratic agency that is people-centric to achieve the same. That is the challenge to be addressed by progressive and democratic sections of Indian polity today.
References
Bannerjee, Sumanta (2006), “Beyond Naxalbari”, Economic and Political Weekly, July 22-28
Bhattacharya, Dwaipayan (2009), “Of Control and Factions: The Changing “Party-society” in West Bengal, Economic and Political Weekly, Febraury 22
Kumar, Arun (2003), Violence and Political Culture - Politics of the Ultra Left in Bihar, Economic and Political Weekly, November 22
Sundar, Nandini (2006), Bastar, Maoism and Salwa Judum, Economic and Political Weekly, July 22-28
Thu, 2009-10-22 15:48 | Srinivasan Ramani
The Indian Maoists have been described as the greatest security threat to the nation by the Indian government and although there is a great degree of exaggeration involved in the statement, it is also a fact that the Indian Maoists have reached a position of significance that they did not enjoy just a few years ago.Consequent to these descriptions, the Indian government has suggested through feelers that it contemplates a military solution to the "Maoist problem", one that involves special task paramilitary forces that would take on the Maoist Peoples' Liberation Army to frontal combat. This has also been flanked by statements on addressing the socio-economic situation that has given rise to the "Maoist problem" in the first place. The trouble with the government's view is that its emphasis on a military solution would entail a long drawn out "civil war" against a primarily guerilla outfit which has thus far managed hits and runs and and not graduated into a more stronger "liberation army" howmuchsoever the government wants to "escalate" its threat value. Having said that, there has been a definite spurt in Maoist violence across the country in the past few years, notwithstanding setbacks to the Maoist forces.
The strength of the Indian Maoists has increased especially since the merger of the two large insurrectionist Naxalite organisations, the Peoples' War Group and the Maoist Communist Centre in 2004. Since then, the Maoists first tried out a political compromise when they emerged for talks with the Andhra Pradesh government, which eventually fizzled out as the AP government used the interregnum for talks to consolidate their position and weaken the Maoists. They were then militarily defeated in Andhra Pradesh by the concerted actions of the police force- particularly the "elite" Greyhound commando forces[i], which was far better a security tool that approximated the guerilla strategies of the Maoists' People's Liberation Army than just the police and was eventually able to overcome the Maoists in the state, so much so, that the Maoists' leadership had to take refuge in the "Dandakaranya region" adjoining Chhattisgarh, Orissa and Andhra Pradesh. As recently deceased human rights activist, K. Balagopal pointed out in a telling essay some years ago, the Maoists were defeated not just by the brute force of the state's machinery, but also by their own praxis. By shifting their praxis from grievance and alternative politics driven to military based mobilisation, the Maoists eventually lost much support - a must in a guerilla struggle and were forced to retreat from Andhra Pradesh.Lately, even the mass organisations of the Maoists have been marginalised; some Maoist sympathisers have tried to bandwagon with the new political outfit launched by actor Chiranjeevi[ii], which had promised a pro-poor agenda. But those ambitions have been frustrated with the Praja Rajyam Party's defeat as well as by the entry of opportunist "money bag elements" into the party.
The MCC component, which has been commented to be more anarchic in its activities[iii] than the more "organised" PWG component, meanwhile continued its unabated activities in the Jharkhand state, where they have also indulged in extortion activities used to fund their "war chest". The Maoists meanwhile have targetted newer areas where there is severe discontent to work out their political and military praxis. The Bastar region of Chhattisgarh was one such, where the mining contractor - bureaucrat – politician- industrial nexus was intact and which gave reasons for the Maoists to mobilise tribals against this nexus. In retaliation, the state polity brought about the dangerous Salwa Judum programme, which pits tribal against tribal and created a vigilante force against the Maoists and the tribals who support them. The result was severe displacement of tribals from their villages into relief camps and widespread anarchy with tribals caught in the crossfire between the Salwa Judum and the Maoists. The Bastar region remains volatile, as even social service organisations such as the Vanvasi Chetna Ashram have been caught in this crossfire. The state has targetted any social/ civil society outfit as being Maoist sympathisers using draconian laws such as the Public Security Act, while the Maoist actions such as abductions of local level state government officials or wanton disruption of elections has given fillips to a vengeful state to retaliate. The Maoists on the other hand, have also indulged in wanton murder of village headmen, sarpanches; have bent on militarising the tribals and thrown them in the deep well of the violence among themselves[iv].
For years, the Maoists have been steadily building a political movement in other tribal dominated areas severely hampered by under-development and social backwardness, such as in Gadchiroli in south eastern Maharashtra. The recent spurt in violence in the district is a direct consequence of the state trying to get back its "influence" in the area after systematic neglect for years. The Maoists have also been active for a few years in the Kalahandi region of Orissa, which is another zone of poverty, and commercial exploitation of natural resources. Over the past year or so, the Maoists have been trying to expand their influence into the communally sensitive areas of Orissa, such as in the Kandhamal district. By definite accounts, the Maoists were responsible in the Vishwa Hindu Parishad leader Laxmananda Saraswati murder, which triggered a murderous reaction by the Hindu communalists of the Sangh Parivar against Christian tribals and institutions. Kandhamal is still not off the boil, as the Sangh Parivar has simply used the Maoist actions as a ruse to target Christian tribals.
The Maoists have been unsuccessful in trying to work out their praxis in other regions; Karnataka for example. Here, the entire state unit of Karnataka split from the Maoists detailing their dissidence on the basis of their opposition to the anarchic violence and the "incorrect" understanding of the Indian society and polity by the party[v]. The Karnataka wing has now become a "non-violent" political and left organisation.
The pattern of Maoist involvement in many areas in the country is revealing. The Maoists have tactically descended upon the idea of working their praxis not immediately on an all-India level, but in assorted areas where it is difficult for the organs of the state to defeat them militarily and to build their base areas in these locations[vi]. There is a great degree of social discontent and there is very little development in these areas or what transpires for "development" activity is merely a front for commercial exploitation of tribal/rural habitats. The Maoists then enmesh themselves in these areas through opposition and mobilisation against the state and try to work out their political praxis of working out a base area, consolidating their hold by targetting institutions of the state by violent means. These means include disruption of the formal activity of elections, damaging developmental work such as roads, schools and others set up by the state, killing people identified with political outfits that are seen to be antithetical to the Maoists[vii]. Invariably the state retaliates and the very people whom the Maoists show their concern for, are caught in the crossfire. The Maoists then explain these actions to reveal the "naked face of the state"; while the state invariably takes recourse to draconian laws and actions to justify their security based response against the Maoists.
Maoist actions in West Bengal
That now takes us to West Bengal. Contradictory to many an assertion by the political opposition in the state, the movement against land acquisition in Nandigram was triggered with more than substantive work by the Maoists. The Maoists have themselves acknowledged this in a number of interviews. One such interesting interview of Koteshwar Rao[viii] suggests that the Maoists were also involved in the Keshpur incidents in the early part of this decade, then pitting themselves against the Trinamul led elements. The Maoists have indulged in "hit and run" work from Jharkhand in west Midnapore for sometime now. Yet, importantly, the Maoist (Naxalite to be precise) presence and influence in West Bengal was significantly reduced[ix] - primarily because of the Left government's earlier successes in land reforms and focussed rural development and strengthening of local democracy.
Having said that, studies (EPW Special Issue, February 2009, “Local Government in Rural West Bengal”), have identified trends that explain the fraying away of the rural "gains" made by the left. While panchayati raj has instituted local democracy and shifted the loci of government to the local village panchayat making it the most powerful institution in the rural areas;long and entrenched rule of the left has developed tendencies of corruption or more protractedly clientalism at the local grassroots levels in parts of the state. Systems of patronage based on political allegiances have been effected in many rural areas that has fed in discontent at some levels[x]. The objective conditions in Lalgarh for example, mirror this story as some reports point out. Malini Bhattacharya's article on Lalgarh points out to an objective assessment that tries to understand the reasons for the discontent while putting into perspective, the Maoists' turf war against the CPI(M) in the area.
A key question remains- what is the end that the Maoists are trying to achieve in West Midnapore or even in West Bengal? Are they thinking that they would keep building a liberated base area in the region, knowing fully well that they would invite sovereign action by the state in the form of security measures to protect state institutions - here, Panchayat samitis, zilla parishads, gram sabhas in the area? Why would any state government remain a mute spectator to a virtual take over of its sovereign actions by extra-legal elements? The Maoists think they are justified in doing so, because it flows from their praxis of creating alternate power structures, but given their failure elsewhere to prevent the hold of electoral democracy or democratic instruments on the electorate and the poor, what makes them think that they would be successful in doing so in a state, where the formal instruments of democracy are even more vibrant and entrenched? That annihilation of anyone having different political allegiances is a way out of winning a so called "class war" is inherently a diabolic, anarchic, authoritarian and in every sense a Pol-Potist discourse. And the Maoists in this case are adopting the methods of annihilation and rampant killing to defeat the Left, tacitly supported by the opportunist right wing forces such as the Trinamul and the Congress, who are looking for a ruse to dismiss the Left Front government in the state.
Surely the Maoists are leading the tribals to a violent abyss by these anarchic actions and they do it realising this very well. The Maoists are trying to foment a revolution - there is no doubt about that. They consider that the bourgeois democracy in India is a facade that hides entrenched class interests and class control over levers of power. They consider that it is not just enough to force the state to bring in welfare measures as they are crumbs to the needy which doesn't hide the structural orientation of the comprador-bureaucratic-bourgeoisie ruled state. But in this endeavour, they consider that it is the "parliamentary Left" that is their primary enemy now as is evidenced by their strategy in West Bengal, which has prefaced their tacit understanding with political parties such as the Trinamul Congress.
Setback to the left movement in the entire country
Any simple reading of the electoral system and polity in India would reveal that there is a derived bipolarity between the Congress and the BJP in the electoral system and large consensus on economic policy among the ruling classes. This consensus is evaded only by the left parties at the national level, which has articulated a break from both neoliberalism and greater integration with “imperialism” at the world level, may it be in the form that the left opposed the implementation of neoliberal policy formulations or in the way the entire nuclear deal issue was played out. Even radical parties such as the CPI(ML)-Liberation acknowledge the loss of the left voice in Parliament as a setback despite their reservations about the praxis of the larger left parties[xi]. And even those who believe in social democracy and in upholding Constitutional values have lamented the loss of the left, may it be in articulating a social agenda for the nation as a whole or in articulating an independent voice in foreign policy. But the Maoists, here have considered the left front as their primary enemy and embark upon a similar praxis as is evident in their work in other states (incidentally none of them is Congress ruled).
The Lalgarh incidents and the rampant killings of CPI(M) party workers might put the CPI(M) led Left Front on the back foot in the state of West Bengal. The Left is now in a state of introspection over the defeat in the recent parliamentary elections. The deliberate mobilisations against the left from a varied coalition of forces from the ultra-right (the Sangh parivar's intrusion in Darjeeling) to the right (the Trinamul and Congress Alliance, which is now using violence to quell the left's hold after elections) to the ultra-left (the Maoists) has only pushed the left movement in the country as a whole further into the backfoot. That is because the actions by the Maoists seem to want to push the balance of support toward rightist forces in the state of West Bengal - in other words, the opportunist Trinamul Congress and the distinctly neoliberal Congress. Any leftist would bristle at this culmination despite reservations with the governance and policies of the long running left front government in the state of late.
Lessons to be drawn
The central government repeated harping on the "greatest internal security threat" that the Maoists provide, is certainly hyperbolic. But the insistence on such a rhetoric is primarily driven by the fact that the Maoists have increasingly concentrated in areas, which are rich in natural resources and are coveted by big companies for commercial purposes. Of late, however, the central government has started to make statements about socio-economic development of the regions currently under some influence of the Maoists. Consequently, the Maoists have responded in attacking the developmental agencies and structures of the state in a manner that has brought in greater repression. In many ways, even if the Maoist actions and the state counter-actions (or vice versa) are not the "greatest internal security" problem, the situation is indeed a great tragic livelihood problem in the tribal dominated areas where the Maoists have a significant presence.
The existing crossfire, be it in the form of battles between vigilante tribal forces and the Maoists in Chhattisgarh or the violent turf war launched by the Maoists against ruling party supporters in West Bengal or the tactic of individual "annihilation" of perceived enemies by the Maoists in Orissa has created a great cesspool of violence and counter-violence. The immanent "massive" paramilitary response, without a concomitant administrative impetus on livelihood issues would only widen this cesspool. The Indian state by embarking upon a wholly militant offensive, would further alienate an already traumatised population if it resorts to a full scale offensive against the guerilla army of the Maoists on the lines of what transpired in Sri Lanka against the Liberation Tigers of Tamil Eelam. Having said that, the anarchic use of violence, and the terroristic acts of "annihilation" have drawn such as response, for which the Maoists are completely to blame. In this respect they have much to learn from their Nepali counterparts who have successfully established great bases of support among the Nepali populace through varied tactics of democratic engagement going beyond mere military consolidation. And indeed from the failures of similar anarchic and military oriented Maoist organisations such as the Sendero Luminoso in Peru.
The inability of the Maoists to transform their spark in 1967 into a prairie fire as late as 2009 is indicative of the stupendous failure of the Maoist praxis. And the continuing presence of under-development, poor human development indicators, exploitation and oppression in areas where the Maoists are strong; point toward the failure of formal Indian democracy. There has to be a great substantive basis for Indian democratic institutions objectively and a more wholesome democratic agency that is people-centric to achieve the same. That is the challenge to be addressed by progressive and democratic sections of Indian polity today.
References
Bannerjee, Sumanta (2006), “Beyond Naxalbari”, Economic and Political Weekly, July 22-28
Bhattacharya, Dwaipayan (2009), “Of Control and Factions: The Changing “Party-society” in West Bengal, Economic and Political Weekly, Febraury 22
Kumar, Arun (2003), Violence and Political Culture - Politics of the Ultra Left in Bihar, Economic and Political Weekly, November 22
Sundar, Nandini (2006), Bastar, Maoism and Salwa Judum, Economic and Political Weekly, July 22-28
Tuesday, September 1, 2009
जिनका जायज है जिन्ना प्रेम !
सत्येंद्र रंजन
भारत में जिन्ना प्रेम के हो रहे प्रवाह पर आश्चर्य करें या हंसें- यह समझ पाना मुश्किल है। २००५ में जो लहर लालकृष्ण आडवाणी के जज्बातों के साथ उठकर दब गई थी, वह जसवंत सिंह की नवजाग्रत श्रद्धा के साथ फिर उठ खड़ी हुई है। इस बार राम जेठमलानी से लेकर मेघनाद देसाई और पूर्व आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन तक इस पर सवार हैं। इन बौद्धिकों की मेधा ने मोहम्मद अली जिन्ना की महानता पर से परदा हटा दिया है, जिसे गांधी-नेहरू-पटेल ने अपनी साजिश से ढक दिया था। तो आखिरकार सच्चाई सामने आ गई है!
इन मनीषियों द्वारा सामने लाई गई सच्चाई यह है कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रवादी थे। वे गांधीजी के मुस्लिम कट्टरपंथियों से सहयोग के विरोधी थे। खिलाफत आंदोलन को गांधीजी के समर्थन से वे इतने दुखी हुए कि कई वर्षों के लिए लंदन में बसेरा किया। १९४० के पहले तक उन्होंने अलग पाकिस्तान की मांग में अपनी ताकत नहीं झोंकी। लेकिन जब गांधीजी लगातार उनकी उपेक्षा करते रहे, और नेहरू एवं पटेल उनके वाजिब हक से उन्हें वंचित करते रहे तो जिन्ना आखिर क्या करते! चूंकि वे महान व्यक्ति थे, इसलिए जब एक बार पाकिस्तान हासिल करने का मन बना लिया तो फिर उसे पाकर ही दम लिया। भले इसके लिए हिंदुओं के खिलाफ उन्हें ‘सीधी कार्रवाई’ करनी पड़ी। भले विभाजन की प्रक्रिया में लाखों लोगों की जान गई और इतिहास का आबादी का सबसे बड़ा स्थानांतरण हुआ।
जसवंत सिंह अब यह ‘खोज’ कर लाए हैं कि यह तो नेहरू और पटेल की जिद या सत्ता लिप्सा थी, जिसकी वजह से देश बंटा। वरना, जिन्ना तो आखिरी वक्त तक चाहते थे कि सब लोग मिलजुल कर रहें। उन्हें कैबिनेट मिशन का प्रस्ताव मंजूर था, जिसके तहत आजादी के बाद भारत को ऐसा परिसंघ बनाना था, जिससे जो प्रांत जब चाहता अलग हो सकता था। जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने यह मंजूर नहीं किया, इसलिए भारत बंटा। जिन्ना भारत के पूरब और पश्चिम दोनों तरफ ‘अपना हिस्सा’ लेकर अलग हो गए। लेकिन धर्मनिरपेक्षता में उनकी आस्था देखिए- ११ अगस्त १९४७ को पाकिस्तान की संविधान सभा में उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में सबको मजहबी आजादी होगी, पाकिस्तान धर्म आधारित राज्य नहीं होगा।
इतिहासकार मुशीरुल हसन ने इस संदर्भ में गालिब के इस शेर का ठीक ही हवाला दिया है- ‘कि मेरे कत्ल के बाद, उसने जफ़ा से किया तौबा।’ एक इतिहासकार टीकाकार ने एक अंग्रेजी अखबार में लिखा है कि वो जसवंत सिंह की किताब को हास्य की श्रेणी में रखेंगे। इसलिए कि ऐसी ‘बौद्धिक खोज और उसके निष्कर्ष’ वहीं रहने के लायक हैं। इसलिए कि यह किताब और उसके साथ चली जिन्ना प्रेम की लहर कोई नया तथ्य सामने नहीं लाई है। यह दशकों से मौजूद पूर्वाग्रहों को लिखित रूप में पेश करने की एक कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है।
इसलिए जसवंत सिंह की किताब से शुरू हुई चर्चा के संदर्भ में ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह समझना है कि आखिर ये किसके पूर्वाग्रह हैं और इनके निशाने पर कौन है? बहरहाल, निशाना तो साफ है। निशाना नेहरू हैं। आखिर क्यों? क्योंकि नेहरू ने कांग्रेस और देश को एक नई दिशा दी। वे देश को आधुनिकता और लोकतंत्र के रास्ते पर ले गए। धर्मनिरपेक्षता को उन्होंने नए भारत की बुनियाद बनाया। इससे पुरातन विशेषाधिकारों वाली सामाजिक व्यवस्था में भारी उथल-पुथल हुई। सामाजिक वर्चस्व की व्यवस्था की जड़ें हिल गईं। राजा प्रजा बन गए। समाजवाद एक प्रचलित शब्द बन गया।
तो इसमें क्या आश्चर्य कि राजा जसवंत सिंह नेहरू से नाराज हुए? सेना छोड़ी तो उस पार्टी में गए जिसने अपनी पहचान ही नेहरू और नेहरूवाद के विरोध से बनाई थी। उस पार्टी से बिगाड़ इसलिए हुआ कि उस पार्टी ने नेहरू पर हमला बोलने के लिए पटेल को ढाल बनाया था। लेकिन पटेल के लौह पुरुष वाले व्यक्तित्व की वजह से ही आखिर जसवंत सिंहों की रियासतें गई थीं, तो पटेल उन्हें क्यों रास आते! इसलिए राजा साहब ने जिन्ना की तलाश की, जो राजसी ठाट-बाट से जीते थे और अगर उनके मंसूबे के मुताबिक कैबिनेट मिशन का प्रस्ताव मान लिया गया होता तो देसी रियासतें खत्म नहीं होती। सामंतवाद पूरे भारत में उसी तरह फूलता-फलता रहता, जैसा आज भी पाकिस्तान में है। नेहरू-पटेल की जोड़ी ने वो संभावना यहां खत्म कर दी।
वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सपनों का ‘अखंड भारत’ होता। यहां का राज धर्म-गुरुओं की मर्जी के मुताबिक चलता। हिंदू बहुल इलाकों में हिंदू धर्म-गुरुओं और मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम धर्म-गुरुओं के मुताबिक। गांधीजी ने कहा था कि भारत का विभाजन उनकी लाश पर होगा। लेकिन जब ऐसे भारत की संभावना नजर आई तो वे नेहरू और पटेल के साथ हो लिए। देश का विभाजन मंजूर कर लिया। केएस सुदर्शन इससे आज तक दुखी हैं। आखिर गांधी के ‘नेहरू प्रेम’ ने सुदर्शन कल्पना वाले भारत की संभावना नष्ट कर दी!
जिन्ना के कई रूप हैं। पश्चिमी जीवनशैली वाले जिन्ना, सांप्रदायिक राजनीति के विरोधी जिन्ना, बांटो और राज करो की ब्रिटिश नीति का औजार बने जिन्ना, कट्टर और हिंसक सांप्रदायिकता के समर्थक जिन्ना और ११ अगस्त १९४७ वाले जिन्ना। आप इनमें से जिन्हें चाहे चुन सकते हैं। आ़डवाणी, जसवंत सिंह, और सुदर्शन ने अपने-अपने जिन्ना चुन लिए हैं। मगर भारत की अपने विवेक से चलने वाली जनता जिन्ना को उनके संपूर्ण रूप में देखना ही पसंद करती है। किसी भी व्यक्ति की पूरी शख्सियत उसकी कुल भूमिका और योगदान के योग से उभरती है। उसके काम के नतीजे से भी उसकी छवि बनती है।
जिन्ना का काम सबके सामने है। आखिर में उन्होंने दो-राष्ट्र के सिद्धांत में यकीन किया। इसके आधार पर मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनवाया। २४ साल के अंदर वह पाकिस्तान टूट गया। बचा हिस्सा आज अपने वजूद के संकट से जूझ रहा है। दूसरी तरफ गांधी-नेहरू-पटेल का भारत है। यह किसी एक मजहब का भारत नहीं है। यह वो भारत है, जिसके बिखर जाने की तमाम भविष्यवाणियां गलत साबित हो चुकी हैं। अगर पूरा नहीं तो कम से कम, जैसाकि इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा है, राष्ट्रीय एकता का ८० फीसदी लक्ष्य यह राष्ट्र पूरा कर चुका है। राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना के बाद अब यह सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की अपनी यात्रा शुरू कर चुका है। लेकिन जसवंत सिंह, सुदर्शन, जेठमलानी और मेघनाद देसाई जैसों के लिए ये सारी बुरी खबरें हैं। इसलिए उनका जिन्ना प्रेम जायज है!
भारत में जिन्ना प्रेम के हो रहे प्रवाह पर आश्चर्य करें या हंसें- यह समझ पाना मुश्किल है। २००५ में जो लहर लालकृष्ण आडवाणी के जज्बातों के साथ उठकर दब गई थी, वह जसवंत सिंह की नवजाग्रत श्रद्धा के साथ फिर उठ खड़ी हुई है। इस बार राम जेठमलानी से लेकर मेघनाद देसाई और पूर्व आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन तक इस पर सवार हैं। इन बौद्धिकों की मेधा ने मोहम्मद अली जिन्ना की महानता पर से परदा हटा दिया है, जिसे गांधी-नेहरू-पटेल ने अपनी साजिश से ढक दिया था। तो आखिरकार सच्चाई सामने आ गई है!
इन मनीषियों द्वारा सामने लाई गई सच्चाई यह है कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रवादी थे। वे गांधीजी के मुस्लिम कट्टरपंथियों से सहयोग के विरोधी थे। खिलाफत आंदोलन को गांधीजी के समर्थन से वे इतने दुखी हुए कि कई वर्षों के लिए लंदन में बसेरा किया। १९४० के पहले तक उन्होंने अलग पाकिस्तान की मांग में अपनी ताकत नहीं झोंकी। लेकिन जब गांधीजी लगातार उनकी उपेक्षा करते रहे, और नेहरू एवं पटेल उनके वाजिब हक से उन्हें वंचित करते रहे तो जिन्ना आखिर क्या करते! चूंकि वे महान व्यक्ति थे, इसलिए जब एक बार पाकिस्तान हासिल करने का मन बना लिया तो फिर उसे पाकर ही दम लिया। भले इसके लिए हिंदुओं के खिलाफ उन्हें ‘सीधी कार्रवाई’ करनी पड़ी। भले विभाजन की प्रक्रिया में लाखों लोगों की जान गई और इतिहास का आबादी का सबसे बड़ा स्थानांतरण हुआ।
जसवंत सिंह अब यह ‘खोज’ कर लाए हैं कि यह तो नेहरू और पटेल की जिद या सत्ता लिप्सा थी, जिसकी वजह से देश बंटा। वरना, जिन्ना तो आखिरी वक्त तक चाहते थे कि सब लोग मिलजुल कर रहें। उन्हें कैबिनेट मिशन का प्रस्ताव मंजूर था, जिसके तहत आजादी के बाद भारत को ऐसा परिसंघ बनाना था, जिससे जो प्रांत जब चाहता अलग हो सकता था। जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने यह मंजूर नहीं किया, इसलिए भारत बंटा। जिन्ना भारत के पूरब और पश्चिम दोनों तरफ ‘अपना हिस्सा’ लेकर अलग हो गए। लेकिन धर्मनिरपेक्षता में उनकी आस्था देखिए- ११ अगस्त १९४७ को पाकिस्तान की संविधान सभा में उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में सबको मजहबी आजादी होगी, पाकिस्तान धर्म आधारित राज्य नहीं होगा।
इतिहासकार मुशीरुल हसन ने इस संदर्भ में गालिब के इस शेर का ठीक ही हवाला दिया है- ‘कि मेरे कत्ल के बाद, उसने जफ़ा से किया तौबा।’ एक इतिहासकार टीकाकार ने एक अंग्रेजी अखबार में लिखा है कि वो जसवंत सिंह की किताब को हास्य की श्रेणी में रखेंगे। इसलिए कि ऐसी ‘बौद्धिक खोज और उसके निष्कर्ष’ वहीं रहने के लायक हैं। इसलिए कि यह किताब और उसके साथ चली जिन्ना प्रेम की लहर कोई नया तथ्य सामने नहीं लाई है। यह दशकों से मौजूद पूर्वाग्रहों को लिखित रूप में पेश करने की एक कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है।
इसलिए जसवंत सिंह की किताब से शुरू हुई चर्चा के संदर्भ में ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह समझना है कि आखिर ये किसके पूर्वाग्रह हैं और इनके निशाने पर कौन है? बहरहाल, निशाना तो साफ है। निशाना नेहरू हैं। आखिर क्यों? क्योंकि नेहरू ने कांग्रेस और देश को एक नई दिशा दी। वे देश को आधुनिकता और लोकतंत्र के रास्ते पर ले गए। धर्मनिरपेक्षता को उन्होंने नए भारत की बुनियाद बनाया। इससे पुरातन विशेषाधिकारों वाली सामाजिक व्यवस्था में भारी उथल-पुथल हुई। सामाजिक वर्चस्व की व्यवस्था की जड़ें हिल गईं। राजा प्रजा बन गए। समाजवाद एक प्रचलित शब्द बन गया।
तो इसमें क्या आश्चर्य कि राजा जसवंत सिंह नेहरू से नाराज हुए? सेना छोड़ी तो उस पार्टी में गए जिसने अपनी पहचान ही नेहरू और नेहरूवाद के विरोध से बनाई थी। उस पार्टी से बिगाड़ इसलिए हुआ कि उस पार्टी ने नेहरू पर हमला बोलने के लिए पटेल को ढाल बनाया था। लेकिन पटेल के लौह पुरुष वाले व्यक्तित्व की वजह से ही आखिर जसवंत सिंहों की रियासतें गई थीं, तो पटेल उन्हें क्यों रास आते! इसलिए राजा साहब ने जिन्ना की तलाश की, जो राजसी ठाट-बाट से जीते थे और अगर उनके मंसूबे के मुताबिक कैबिनेट मिशन का प्रस्ताव मान लिया गया होता तो देसी रियासतें खत्म नहीं होती। सामंतवाद पूरे भारत में उसी तरह फूलता-फलता रहता, जैसा आज भी पाकिस्तान में है। नेहरू-पटेल की जोड़ी ने वो संभावना यहां खत्म कर दी।
वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सपनों का ‘अखंड भारत’ होता। यहां का राज धर्म-गुरुओं की मर्जी के मुताबिक चलता। हिंदू बहुल इलाकों में हिंदू धर्म-गुरुओं और मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम धर्म-गुरुओं के मुताबिक। गांधीजी ने कहा था कि भारत का विभाजन उनकी लाश पर होगा। लेकिन जब ऐसे भारत की संभावना नजर आई तो वे नेहरू और पटेल के साथ हो लिए। देश का विभाजन मंजूर कर लिया। केएस सुदर्शन इससे आज तक दुखी हैं। आखिर गांधी के ‘नेहरू प्रेम’ ने सुदर्शन कल्पना वाले भारत की संभावना नष्ट कर दी!
जिन्ना के कई रूप हैं। पश्चिमी जीवनशैली वाले जिन्ना, सांप्रदायिक राजनीति के विरोधी जिन्ना, बांटो और राज करो की ब्रिटिश नीति का औजार बने जिन्ना, कट्टर और हिंसक सांप्रदायिकता के समर्थक जिन्ना और ११ अगस्त १९४७ वाले जिन्ना। आप इनमें से जिन्हें चाहे चुन सकते हैं। आ़डवाणी, जसवंत सिंह, और सुदर्शन ने अपने-अपने जिन्ना चुन लिए हैं। मगर भारत की अपने विवेक से चलने वाली जनता जिन्ना को उनके संपूर्ण रूप में देखना ही पसंद करती है। किसी भी व्यक्ति की पूरी शख्सियत उसकी कुल भूमिका और योगदान के योग से उभरती है। उसके काम के नतीजे से भी उसकी छवि बनती है।
जिन्ना का काम सबके सामने है। आखिर में उन्होंने दो-राष्ट्र के सिद्धांत में यकीन किया। इसके आधार पर मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनवाया। २४ साल के अंदर वह पाकिस्तान टूट गया। बचा हिस्सा आज अपने वजूद के संकट से जूझ रहा है। दूसरी तरफ गांधी-नेहरू-पटेल का भारत है। यह किसी एक मजहब का भारत नहीं है। यह वो भारत है, जिसके बिखर जाने की तमाम भविष्यवाणियां गलत साबित हो चुकी हैं। अगर पूरा नहीं तो कम से कम, जैसाकि इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा है, राष्ट्रीय एकता का ८० फीसदी लक्ष्य यह राष्ट्र पूरा कर चुका है। राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना के बाद अब यह सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की अपनी यात्रा शुरू कर चुका है। लेकिन जसवंत सिंह, सुदर्शन, जेठमलानी और मेघनाद देसाई जैसों के लिए ये सारी बुरी खबरें हैं। इसलिए उनका जिन्ना प्रेम जायज है!
तो भाजपा जसवंत के साथ क्या करती?
सत्येंद्र रंजन
जसवंत सिंह के भारतीय जनता पार्टी से निष्कासन पर सामने आ रही ज्यादातर प्रतिक्रियाओं में पार्टी सिस्टम की बुनियादी समझ का विचित्र अभाव दिखता है। भारतीय जनता पार्टी के मूल चरित्र की अनदेखी के कारण ये टिप्पणियां और भी हवाई नजर आती हैं। कुछ ऐसी ही प्रतिक्रियाएं पिछले साल पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से निकाले जाने के समय भी देखने को मिली थीं। इन दोनों मौकों पर निकाले गए नेताओं को पीड़ित या सताए गए पक्ष के रूप में चित्रित करने का आम रुझान मीडिया में रहा है। जसवंत सिंह के मामले में विचार की
स्वतंत्रता या एक बौद्धिक प्रयास के प्रति असहनशीलता के तर्क भी जोड़ दिए गए हैं।
यहां इस बात के पक्ष में दलील देने का कतई इरादा नहीं है कि भाजपा विचारों की स्वतंत्रता की समर्थक है या वह बौद्धिक प्रयासों के प्रति उदार रुख रखती है। दरअसल, गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार ने जसवंत सिंह की किताब- ‘जिन्नाः इंडिया-पार्टिशन, इंडिपेंन्डेंस’ पर प्रतिबंध लगाकर यह एक बार फिर साफ कर दिया है कि भाजपा किसी भी रूप में और किसी सीमा तक विचार स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करती और उसे मतभेद बर्दाश्त नहीं हैं। यह बात भाजपा के मूल स्वभाव में शामिल है। वह जिन सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है, उनकी सोच में वर्चस्व और प्रगति विरोधी प्रवृत्तियां शामिल हैं। इसीलिए भाजपा और उसके संघ परिवार को भारत के लोकतांत्रिक प्रयोगों का एंटी-थीसीस (प्रतिवाद) माना जाता है।
लेकिन जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने का मुद्दा मतभेदों के प्रति सहिष्णुता से नहीं जुड़ा है। यह सीधे तौर पर एक राजनीतिक दल की सार्वजनिक पहचान और उसकी ‘मूलभूत आस्थाओं’ से जुड़ा है। अपनी किताब में मोहम्मद अली जिन्ना के महिमामंडन और सरदार वल्लभभाई पटेल की आलोचना (उन्हें विभाजन के लिए दोषी ठहराने) के बाद भाजपा में जसवंत सिंह की जगह खत्म हो गई थी। यह मुमकिन नहीं है कि कोई नेता अपनी पार्टी की ‘मूलभूत आस्थाओं’ के खिलाफ किताब लिखे और पार्टी में भी बना रहे। राजनीति शास्त्र की परिभाषा में राजनीतिक दल समान विचारों और समान आस्थाओं के लोगों का एक संगठन होता है। वह अपने इसी स्वरूप के साथ जनता के बीच जाता है और अपने एजेंडे के लिए उनका समर्थन पाने का प्रयास करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर पार्टी के भीतर मतभेद और बहस की गुंजाइश जरूर रहनी चाहिए, लेकिन इसके लिए सही जगह पार्टी के अंदरूनी मंच हैं। इन मंचों पर जो विचार और राजनीतिक दिशा तय होते हैं, उनका पालन हर नेता के लिए जरूरी होता है और ऐसा ही होना चाहिए।
भाजपा ने जसवंत सिंह से उनके किताब लिखने या जिन्ना के महिमामंडन का अधिकार नहीं छीना है। उन्हें सिर्फ पार्टी से बाहर कर दिया गया है और अब वे अपने ‘बौद्धिक प्रयासों’ के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। इतिहास का ‘पुनर्मूल्यांकन’ करने के ‘महति प्रयास’ में जुटा एक ‘बौद्धिक’ नेता एक राजनीतिक दल में बने रहने का आग्रह क्यों पाले हुए है, यह सवाल यहां ज्यादा प्रासंगिक है। खासकर यह सवाल इस संदर्भ में और भी ज्यादा अहम हो जाता है, जब हम इस तथ्य पर गौर करते हैं कि गुजरे वर्षों में लोकतंत्र, बहुलता और आधुनिक मूल्यों को कुचलने की इस पार्टी की हर कोशिश में वह नेता सहभागी रहा है।
सोमनाथ चटर्जी ने जुलाई २००८ में लोकसभा अध्यक्ष पद की गरिमा की दलील देते हुए माकपा की उस वक्त की राजनीतिक लाइन को मानने से इनकार कर दिया था। माकपा ने तब उन्हें पार्टी से बाहर का दरवाजा दिखाया। तब भी अहम सवाल यही था कि जनवादी केंद्रीयता (डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म) के सिद्धांत से चलने वाली एक पार्टी के पास इसके अलावा और क्या विकल्प था? आखिर कोई पार्टी राजनीतिक अराजकता के बीच तो नहीं चल सकती। एक ऐसी पार्टी आम जन के बीच निश्चित रूप से अपनी पहचान खो देगी और जाहिर है, तब उसकी जनता में कोई साख भी नहीं बचेगी। इसलिए माकपा ने अपने वरिष्ठ नेता के खिलाफ निष्कासन का फैसला लिया। उसने सोमनाथ चटर्जी से लोकसभा अध्यक्ष पद की ‘गरिमा’ बचाए रखने का अधिकार नहीं छीना।
चूंकि मध्य-वर्ग और कॉरपोरेट मीडिया में राजनीति और राजनीतिक दलों के प्रति मोटे तौर पर हिकारत का भाव है, इसलिए वे राजनीति के मूलभूत सिद्धांतों को समझने की कोशिश कभी नहीं करते। उन्हें राजनीतिक दलों के हर काम के पीछे सौदेबाजी, साजिश या वोट बैंक की राजनीति नजर आती है। इसी अलोकतांत्रिक नजरिए में जसवंत सिंह या सोमनाथ चटर्जी ‘शहीद’ नजर आने हैं। इस नजरिए में विभिन्न पार्टियों की संरचना, उनके इतिहास और उनकी प्रासंगिकता का बिल्कुल ही ख्याल नहीं किया जाता।
अब यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न जरूर है कि क्या जिन्ना और पटेल का संबंध भाजपा की मूलभूत आस्थाओं से है? कुछ टीकाकारों ने इस सिलसिले में विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर का जिक्र किया है, जिन्होंने कुछ समय पहले लिखी अपनी किताब ‘इंडियाः फ्रॉम मिडनाइट टू मिलेलियम एंड बियोंड’ में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी पर नकारात्मक टिप्पणियां की थीं। कहा गया है कि अगर इसके बावजूद कांग्रेस उन्हें लोकसभा का टिकट दे सकती है और मंत्री बना सकती है, तो भाजपा जसवंत सिंह को क्यों नहीं बर्दाश्त कर सकती थी? इसका जवाब दोनों पार्टियों के इतिहास और चरित्र छिपा है।
भाजपा कोई सुस्पष्ट और विवेकपूर्ण विचारधारा पर आधारित पार्टी नहीं है। यह पुरातन मान्यताओं, ऐतिहासिक एवं सामाजिक पूर्वाग्रहों और बहुसंख्यक वर्चस्व की प्रवृत्ति से संचालित संघ परिवार का हिस्सा है। इस पूरे परिवार का विमर्श अंध-आस्था, द्रोह भाव और जाने-अनजाने में तैयार की गई झूठी धारणों पर टिका है। इसीलिए भाजपा नेताओं को अल्पकालिक लाभ के लिए कुछ भी कह देने में कोई दिक्कत नहीं होती। ऐसा एक दांव २००५ में लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान खेला, जब उन्होंने न सिर्फ जिन्ना की मज़ार पर जाकर श्रद्धांजलि दी, बल्कि भारत के विभाजन और हिंदुओं के खिलाफ ‘सीधी कार्रवाई’ के इस सूत्रधार को ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने का सर्टिफिकेट भी दे दिया। निगाहें भारत के उदारवादी लोगों और मुसलमानों पर थीं। आडवाणी ने सोचा था कि इस दांव वे अपनी अटल बिहारी वाजपेयी जैसी कथित उदार छवि बना लेंगे और इस तरह प्रधानमंत्री के रूप में अपनी स्वीकार्यता मजबूत कर लेंगे। लेकिन दांव उलटा पड़ा। संघ परिवार में इसके खिलाफ इतनी घोर प्रतिक्रिया हुई कि उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा। बहुत से जानकारों की भी अभी भी यही राय है कि उसके बाद आडवाणी फिर कभी अपना पहले जैसा रुतबा हासिल नहीं कर सके। बहरहाल, उसी संदर्भ में भाजपा ने जिन्ना पर अपनी राय तय की। प्रस्ताव पास कर यह साफ कर दिया कि जिन्ना का महिमामंडन मंजूर नहीं है। जसवंत सिंह उस प्रस्ताव के सहभागी थे।
संघ परिवार और भाजपा की मुश्किल यह है कि स्वतंत्रता आंदोलन में उसके नायक नहीं हैं। वजह साफ है। जब देश की मुख्यधारा अंग्रेजों से आजादी के लिए लड़ रही थी, संघ परिवार हिंदुत्व की अपनी कट्टरपंथी धारणा के प्रचार-प्रसार में लगा था। विनायक सावरकर अपनी वीरता की कहानियों के साथ ऐसा एक नायक हो सकते थे, लेकिन बाद के दिनों में अंग्रजों से सहयोग और महात्मा गांधी की हत्या में अपने कथित हाथ की वजह से उनकी छवि नष्ट हो गई। फिर भी भाजपा ने एनडीए के शासन के दौरान सावरकर की पुर्स्थापना में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन सावरकर की संघ परिवार के बाहर कोई प्रतिष्ठा नहीं है। ऐसे में भाजपा ने सरदार पटेल की एक हकीकत से अलग छवि गढ़ने और खुद को उनकी विरासत में दिखाने की कोशिश की है। जवाहर लाल नेहरू से सरदार पटेल के कई मुद्दों पर मतभेदों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हुए यह छवि गढ़ने की कोशिश की गई है कि पटेल कांग्रेस के भीतर संघ परिवार के प्रवक्ता थे। यह कोरा झूठ है, लेकिन संघ परिवार इस कोशिश में लगातार जुटा रहा है।
उसी सरदार पटेल को जब जसवंत सिंह ने भारत के विभाजन के लिए जिन्ना से ज्यादा जिम्मेदार ठहरा दिया तो इस पर भाजपा नेताओं का भड़कना स्वाभाविक है। सरदार पटेल से नाराजगी की जसवंत सिंह की अपनी वजहें हो सकती हैं। आखिर पटेल की वजह से ही वो देसी रियासतें खत्म हो गईं, जिनमें से एक के जसवंत सिंह वारिस हैं। बहरहाल, यहां गौरतलब यह है कि जसवंत सिंह ने जो कुछ अपनी किताब में कहा है, वह उनकी विचारधारा-विहीन और गढ़ी गई मान्यताओं से चलने वाली (पूर्व) पार्टी की ‘मूलभूत आस्थाओं’ पर प्रहार करता है। इसे भाजपा नहीं सह सकती थी। इस बिंदु पर उसका कदम ना तो गलत है और ना अनपेक्षित।
इस मामले में भाजपा की कांग्रेस से तुलना नहीं हो सकती। कांग्रेस भले आज व्यक्तियों के इर्द-गिर्द ही चलती हो, लेकिन उसके पास सवा सौ साल में विकसित हुई एक विचारधारा है, जो सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रमों पर टिकी है। इसलिए वह अपने अहम व्यक्तित्वों की निंदा करने वालों के साथ भी चल सकती है, लेकिन भाजपा ऐसा नहीं कर सकती।
बहराहल, इस प्रकरण ने जसवंत सिंह जैसे नेताओं की अवसरवादी और अधकचरी बौद्धिकता और भाजपा के विचारधारात्मक खोखलेपन को अगर बेनकाब किया है तो राजनीतिक प्रक्रियाओं और व्यवहार के प्रति कॉरपोरेट मीडिया एवं मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग की नासमझी को भी एक बार फिर उजागर कर दिया है। इससे यह साफ हुआ है कि पिछले साल सोमनाथ चटर्जी के मामले में बेवजह प्रलाप के बाद गुजरी अवधि में इन समूहों का विमर्श थोड़ा भी परिपक्व नहीं हुआ है।
जसवंत सिंह के भारतीय जनता पार्टी से निष्कासन पर सामने आ रही ज्यादातर प्रतिक्रियाओं में पार्टी सिस्टम की बुनियादी समझ का विचित्र अभाव दिखता है। भारतीय जनता पार्टी के मूल चरित्र की अनदेखी के कारण ये टिप्पणियां और भी हवाई नजर आती हैं। कुछ ऐसी ही प्रतिक्रियाएं पिछले साल पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से निकाले जाने के समय भी देखने को मिली थीं। इन दोनों मौकों पर निकाले गए नेताओं को पीड़ित या सताए गए पक्ष के रूप में चित्रित करने का आम रुझान मीडिया में रहा है। जसवंत सिंह के मामले में विचार की
स्वतंत्रता या एक बौद्धिक प्रयास के प्रति असहनशीलता के तर्क भी जोड़ दिए गए हैं।
यहां इस बात के पक्ष में दलील देने का कतई इरादा नहीं है कि भाजपा विचारों की स्वतंत्रता की समर्थक है या वह बौद्धिक प्रयासों के प्रति उदार रुख रखती है। दरअसल, गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार ने जसवंत सिंह की किताब- ‘जिन्नाः इंडिया-पार्टिशन, इंडिपेंन्डेंस’ पर प्रतिबंध लगाकर यह एक बार फिर साफ कर दिया है कि भाजपा किसी भी रूप में और किसी सीमा तक विचार स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करती और उसे मतभेद बर्दाश्त नहीं हैं। यह बात भाजपा के मूल स्वभाव में शामिल है। वह जिन सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है, उनकी सोच में वर्चस्व और प्रगति विरोधी प्रवृत्तियां शामिल हैं। इसीलिए भाजपा और उसके संघ परिवार को भारत के लोकतांत्रिक प्रयोगों का एंटी-थीसीस (प्रतिवाद) माना जाता है।
लेकिन जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने का मुद्दा मतभेदों के प्रति सहिष्णुता से नहीं जुड़ा है। यह सीधे तौर पर एक राजनीतिक दल की सार्वजनिक पहचान और उसकी ‘मूलभूत आस्थाओं’ से जुड़ा है। अपनी किताब में मोहम्मद अली जिन्ना के महिमामंडन और सरदार वल्लभभाई पटेल की आलोचना (उन्हें विभाजन के लिए दोषी ठहराने) के बाद भाजपा में जसवंत सिंह की जगह खत्म हो गई थी। यह मुमकिन नहीं है कि कोई नेता अपनी पार्टी की ‘मूलभूत आस्थाओं’ के खिलाफ किताब लिखे और पार्टी में भी बना रहे। राजनीति शास्त्र की परिभाषा में राजनीतिक दल समान विचारों और समान आस्थाओं के लोगों का एक संगठन होता है। वह अपने इसी स्वरूप के साथ जनता के बीच जाता है और अपने एजेंडे के लिए उनका समर्थन पाने का प्रयास करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर पार्टी के भीतर मतभेद और बहस की गुंजाइश जरूर रहनी चाहिए, लेकिन इसके लिए सही जगह पार्टी के अंदरूनी मंच हैं। इन मंचों पर जो विचार और राजनीतिक दिशा तय होते हैं, उनका पालन हर नेता के लिए जरूरी होता है और ऐसा ही होना चाहिए।
भाजपा ने जसवंत सिंह से उनके किताब लिखने या जिन्ना के महिमामंडन का अधिकार नहीं छीना है। उन्हें सिर्फ पार्टी से बाहर कर दिया गया है और अब वे अपने ‘बौद्धिक प्रयासों’ के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। इतिहास का ‘पुनर्मूल्यांकन’ करने के ‘महति प्रयास’ में जुटा एक ‘बौद्धिक’ नेता एक राजनीतिक दल में बने रहने का आग्रह क्यों पाले हुए है, यह सवाल यहां ज्यादा प्रासंगिक है। खासकर यह सवाल इस संदर्भ में और भी ज्यादा अहम हो जाता है, जब हम इस तथ्य पर गौर करते हैं कि गुजरे वर्षों में लोकतंत्र, बहुलता और आधुनिक मूल्यों को कुचलने की इस पार्टी की हर कोशिश में वह नेता सहभागी रहा है।
सोमनाथ चटर्जी ने जुलाई २००८ में लोकसभा अध्यक्ष पद की गरिमा की दलील देते हुए माकपा की उस वक्त की राजनीतिक लाइन को मानने से इनकार कर दिया था। माकपा ने तब उन्हें पार्टी से बाहर का दरवाजा दिखाया। तब भी अहम सवाल यही था कि जनवादी केंद्रीयता (डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म) के सिद्धांत से चलने वाली एक पार्टी के पास इसके अलावा और क्या विकल्प था? आखिर कोई पार्टी राजनीतिक अराजकता के बीच तो नहीं चल सकती। एक ऐसी पार्टी आम जन के बीच निश्चित रूप से अपनी पहचान खो देगी और जाहिर है, तब उसकी जनता में कोई साख भी नहीं बचेगी। इसलिए माकपा ने अपने वरिष्ठ नेता के खिलाफ निष्कासन का फैसला लिया। उसने सोमनाथ चटर्जी से लोकसभा अध्यक्ष पद की ‘गरिमा’ बचाए रखने का अधिकार नहीं छीना।
चूंकि मध्य-वर्ग और कॉरपोरेट मीडिया में राजनीति और राजनीतिक दलों के प्रति मोटे तौर पर हिकारत का भाव है, इसलिए वे राजनीति के मूलभूत सिद्धांतों को समझने की कोशिश कभी नहीं करते। उन्हें राजनीतिक दलों के हर काम के पीछे सौदेबाजी, साजिश या वोट बैंक की राजनीति नजर आती है। इसी अलोकतांत्रिक नजरिए में जसवंत सिंह या सोमनाथ चटर्जी ‘शहीद’ नजर आने हैं। इस नजरिए में विभिन्न पार्टियों की संरचना, उनके इतिहास और उनकी प्रासंगिकता का बिल्कुल ही ख्याल नहीं किया जाता।
अब यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न जरूर है कि क्या जिन्ना और पटेल का संबंध भाजपा की मूलभूत आस्थाओं से है? कुछ टीकाकारों ने इस सिलसिले में विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर का जिक्र किया है, जिन्होंने कुछ समय पहले लिखी अपनी किताब ‘इंडियाः फ्रॉम मिडनाइट टू मिलेलियम एंड बियोंड’ में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी पर नकारात्मक टिप्पणियां की थीं। कहा गया है कि अगर इसके बावजूद कांग्रेस उन्हें लोकसभा का टिकट दे सकती है और मंत्री बना सकती है, तो भाजपा जसवंत सिंह को क्यों नहीं बर्दाश्त कर सकती थी? इसका जवाब दोनों पार्टियों के इतिहास और चरित्र छिपा है।
भाजपा कोई सुस्पष्ट और विवेकपूर्ण विचारधारा पर आधारित पार्टी नहीं है। यह पुरातन मान्यताओं, ऐतिहासिक एवं सामाजिक पूर्वाग्रहों और बहुसंख्यक वर्चस्व की प्रवृत्ति से संचालित संघ परिवार का हिस्सा है। इस पूरे परिवार का विमर्श अंध-आस्था, द्रोह भाव और जाने-अनजाने में तैयार की गई झूठी धारणों पर टिका है। इसीलिए भाजपा नेताओं को अल्पकालिक लाभ के लिए कुछ भी कह देने में कोई दिक्कत नहीं होती। ऐसा एक दांव २००५ में लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान खेला, जब उन्होंने न सिर्फ जिन्ना की मज़ार पर जाकर श्रद्धांजलि दी, बल्कि भारत के विभाजन और हिंदुओं के खिलाफ ‘सीधी कार्रवाई’ के इस सूत्रधार को ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने का सर्टिफिकेट भी दे दिया। निगाहें भारत के उदारवादी लोगों और मुसलमानों पर थीं। आडवाणी ने सोचा था कि इस दांव वे अपनी अटल बिहारी वाजपेयी जैसी कथित उदार छवि बना लेंगे और इस तरह प्रधानमंत्री के रूप में अपनी स्वीकार्यता मजबूत कर लेंगे। लेकिन दांव उलटा पड़ा। संघ परिवार में इसके खिलाफ इतनी घोर प्रतिक्रिया हुई कि उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा। बहुत से जानकारों की भी अभी भी यही राय है कि उसके बाद आडवाणी फिर कभी अपना पहले जैसा रुतबा हासिल नहीं कर सके। बहरहाल, उसी संदर्भ में भाजपा ने जिन्ना पर अपनी राय तय की। प्रस्ताव पास कर यह साफ कर दिया कि जिन्ना का महिमामंडन मंजूर नहीं है। जसवंत सिंह उस प्रस्ताव के सहभागी थे।
संघ परिवार और भाजपा की मुश्किल यह है कि स्वतंत्रता आंदोलन में उसके नायक नहीं हैं। वजह साफ है। जब देश की मुख्यधारा अंग्रेजों से आजादी के लिए लड़ रही थी, संघ परिवार हिंदुत्व की अपनी कट्टरपंथी धारणा के प्रचार-प्रसार में लगा था। विनायक सावरकर अपनी वीरता की कहानियों के साथ ऐसा एक नायक हो सकते थे, लेकिन बाद के दिनों में अंग्रजों से सहयोग और महात्मा गांधी की हत्या में अपने कथित हाथ की वजह से उनकी छवि नष्ट हो गई। फिर भी भाजपा ने एनडीए के शासन के दौरान सावरकर की पुर्स्थापना में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन सावरकर की संघ परिवार के बाहर कोई प्रतिष्ठा नहीं है। ऐसे में भाजपा ने सरदार पटेल की एक हकीकत से अलग छवि गढ़ने और खुद को उनकी विरासत में दिखाने की कोशिश की है। जवाहर लाल नेहरू से सरदार पटेल के कई मुद्दों पर मतभेदों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हुए यह छवि गढ़ने की कोशिश की गई है कि पटेल कांग्रेस के भीतर संघ परिवार के प्रवक्ता थे। यह कोरा झूठ है, लेकिन संघ परिवार इस कोशिश में लगातार जुटा रहा है।
उसी सरदार पटेल को जब जसवंत सिंह ने भारत के विभाजन के लिए जिन्ना से ज्यादा जिम्मेदार ठहरा दिया तो इस पर भाजपा नेताओं का भड़कना स्वाभाविक है। सरदार पटेल से नाराजगी की जसवंत सिंह की अपनी वजहें हो सकती हैं। आखिर पटेल की वजह से ही वो देसी रियासतें खत्म हो गईं, जिनमें से एक के जसवंत सिंह वारिस हैं। बहरहाल, यहां गौरतलब यह है कि जसवंत सिंह ने जो कुछ अपनी किताब में कहा है, वह उनकी विचारधारा-विहीन और गढ़ी गई मान्यताओं से चलने वाली (पूर्व) पार्टी की ‘मूलभूत आस्थाओं’ पर प्रहार करता है। इसे भाजपा नहीं सह सकती थी। इस बिंदु पर उसका कदम ना तो गलत है और ना अनपेक्षित।
इस मामले में भाजपा की कांग्रेस से तुलना नहीं हो सकती। कांग्रेस भले आज व्यक्तियों के इर्द-गिर्द ही चलती हो, लेकिन उसके पास सवा सौ साल में विकसित हुई एक विचारधारा है, जो सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रमों पर टिकी है। इसलिए वह अपने अहम व्यक्तित्वों की निंदा करने वालों के साथ भी चल सकती है, लेकिन भाजपा ऐसा नहीं कर सकती।
बहराहल, इस प्रकरण ने जसवंत सिंह जैसे नेताओं की अवसरवादी और अधकचरी बौद्धिकता और भाजपा के विचारधारात्मक खोखलेपन को अगर बेनकाब किया है तो राजनीतिक प्रक्रियाओं और व्यवहार के प्रति कॉरपोरेट मीडिया एवं मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग की नासमझी को भी एक बार फिर उजागर कर दिया है। इससे यह साफ हुआ है कि पिछले साल सोमनाथ चटर्जी के मामले में बेवजह प्रलाप के बाद गुजरी अवधि में इन समूहों का विमर्श थोड़ा भी परिपक्व नहीं हुआ है।
वाम राजनीति के मुश्किल दिन
सत्येंद्र रंजन
भारत में वाम राजनीति आज जितने संकट में है, आजादी के बाद उतना शायद कभी नहीं थी। यह विडंबना ही है कि जब सांप्रदायिक ताकतों के सत्ता में आने का खतरा काफी घट गया है और दशकों के बाद सकारात्मक राजनीति की संभावना बेहतर हुई है, तब वामपंथी पार्टियों के सामने खुद को प्रासंगिक बनाए रखने का सवाल खड़ा हो गया है। यह वो मौका है, जब कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार की नीतियों का वामपंथी विकल्प पेश करने के लिए न सिर्फ अनुकूल स्थितियां है, बल्कि यह एक ऐतिहासिक जरूरत भी है। लेकिन संसद में अपनी बेहद कमजोर उपस्थिति की वजह से वामपंथी दल यह भूमिका निभाने में अक्षम हो गए हैँ। सच्चाई तो यह है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सहयोगी दलों के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती पश्चिम बंगाल में अपना किला बचाने की है। पिछले आम चुनाव में यह किला बुरी तरह हिल चुका है और उसके बाद भी पराभव रुकने के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं।
माकपा के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा आज कई दिशाओं से निशाने पर है। एक तरफ पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का मोर्चा है, तो दूसरी तरफ अल्ट्रा लेफ्ट यानी उग्र वामपंथी ताकतें हैं। अल्ट्रा लेफ्ट में माओवादी, अन्य नक्सली संगठन और एसयूसीएआई जैसी हाशिये पर की पार्टियां प्रमुख हैं। वैचारिक हमला करने के लिए कथित जन आंदोलन और उनके समर्थक बुद्धिजीवी भी हैं। इन सबमें उद्देश्य का एक अद्भुत साझापन बन गया है। यानी उनके अंतिम मकसद चाहे जो हों, फिलहाल माकपा की जड़ें उखाड़ना उनका समान उद्देश्य बना हुआ है।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और कांग्रेस के इर्द-गिर्द पूर्व सामंती ताकतों, बड़े व्यापारियों, मध्य वर्ग और नव धनिक तबकों की हमेशा से गोलबंदी रही है। इन तबकों का लेफ्ट विचारधारा से हितों का सीधा अंतर्विरोध है। भूमि सुधार और पंचायती व्यवस्था से राज्य का जो सामाजिक-राजनीतिक चेहरा बदला, उसका सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं तबकों को हुआ। ताजा परिस्थितियों में प्रति-क्रांति का इन तबकों का मंसूबा नई बुलंदियों पर है। लेकिन अल्ट्रा लेफ्ट की ताकतों के उग्र विरोध की वजहें राजनीतिक से ज्यादा मनोवैज्ञानिक हैं। माकपा ने अपनी नीतियों और उन पर अमल से एक ठोस वोट आधार का निर्माण करते हुए संसदीय राजनीति में हस्तक्षेप की अपनी हैसियत बनाई और कमोबेश इसे अब तक कायम रखा है। यह हैसियत देश में किसी दूसरी वामपंथी पार्टी या संगठन की नहीं है।
राजनीतिक मनोविज्ञान के विशेषज्ञ यह जानते हैं कि ऐसी सफलताएं समान वैचारिक पृष्ठभूमि के संगठनों और कार्यकर्ताओं में कैसा बिरादराना द्रोह और ईर्ष्या का भाव पैदा करती हैं। माओवादी या दूसरे नक्सलवादी संगठन यह जानते हैं कि जब तक माकपा को उसकी मौजूदा हैसियत से बेदखल नहीं किया जाता, वे वामपंथी विरासत और इसकी राजनीतिक भूमि को उससे नहीं हथिया सकेंगे। वैचारिक रूप से बहुत पहले माकपा को संशोधनवादी घोषित कर कम्युनिस्ट शब्दावली में उसकी नैतिक साख को वे अपनी तरफ से खत्म कर चुके हैं। लेकिन राजनीति के व्यापक परिदृश्य पर यह साख अब तक बची हुई है और यही माकपा की प्रासंगिकता है। अब नए हालात में उग्र वामपंथी ताकतों को लगता है कि माकपा की वैचारिक और नैतिक साख के साथ-साथ उसकी सांगठनिक मजबूती एवं राजनीतिक जमीन को नष्ट करने का भी उनके पास बेहतरीन मौका है।
जो मानसिकता अल्ट्रा लेफ्ट की ताकतों की है, वही कमोबेश अपने को जन आंदोलन कहने वाले संगठनों की भी है। अलग-अलग मुद्दों पर देश के अलग-अलग हिस्सों में उभरे इन संगठनों को भी इस नई स्थिति में अपने लिए राजनीतिक प्रासंगिकता बनाने का मौका दिख रहा है। नंदीग्राम और सिंगूर ने इन तीनों तरह की ताकतों को एक मंच पर आने का बहाना मुहैया कराया। लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चे की हार से इनका हौसला बढ़ा और अब वो इस प्रयोग को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं। सबका निशाना अब २०११ में होने वाला पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव है। उस चुनाव ने दो साल पहले से ही एक ऐतिहासिक महत्त्व हासिल कर लिया है। आखिर उस चुनाव से देश में वामपंथ का भविष्य तय होना है।
लोकसभा चुनाव के बाद कमजोर हुई माकपा पर माओवादियों ने हिंसक हमले तेज कर रखे हैं। चूंकि तृणमूल कांग्रेस का मकसद राज्य में स्थिति को बेकाबू दिखाना है, इसलिए वह ऐसी घटनाओं के प्रति दोहरा रुख अपनाते हुए सामने आती है। आम तौर पर माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानने वाली कांग्रेस इसे नजरअंदाज करती है, क्योंकि उसे ममता बनर्जी की जरूरत है, जिनके कंधों पर सवार हो कर वह ३४ साल बाद पश्चिम बंगाल की सत्ता में साझीदार बनने का मंसूबा पाले हुए है। इन सभी दलों की रणनीति और अल्पकालिक कार्यनीति पर गौर करते हुए यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल के लिए अगले दो साल बेहद मुश्किल रहने वाले हैं। इस अवधि में वहां हिंसा और प्रति-हिंसा का दौर शायद तेज होता जाएगा। माकपा विरोधी ताकतों की रणनीति यह भी है कि राज्य की वाम मोर्चा सरकार को प्रशासन के मोर्चे पर कोई ऐसा सुधार या पहल करने का मौका न दिया जाए, जिससे वह अगले दो साल में अपने खोये जनाधार को दोबारा हासिल कर ले।
वाम मोर्चे ने २००९ के चुनाव में पांच साल पहले की तुलना में ७ फीसदी वोट गंवाए। उसके सामने चुनौती यही है कि क्या अगले दो साल में वह इन्हें वापस अपने खेमे में ला सकेगा? कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के साथ आ जाने से वाम मोर्चा विरोधी विरोधी वोटों के बंटवारे का फायदा पाने की उम्मीद नहीं कर सकता। तो वाम मोर्चा सरकार के सामने अब क्या विकल्प हैं? पिछले तीन महीनों में वाम दायरे में हुई चर्चाओं में वाम मोर्चे के समर्थन खोने के पीछे कई वजहों की पहचान की गई है। इनमें सबसे प्रमुख है उद्योग लगाने के लिए किसानों की जमीन के अधिग्रहण की कोशिशें, जिससे कृषक समाज में भय और आक्रोश पैदा हुआ। इसके अलावा राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, सार्वजनिक वितरण प्रणाली आदि जैसी योजनाओं पर अमल में लापरवाही और अल्पसंख्यकों के लिए विशेष उपाय करने में कोताही ऐसे पहलुओं के रूप में सामने आए हैं, जिससे अपने समर्थक आधार में वाम मोर्चा को लेकर मोहभंग जैसी स्थिति पैदा हुई।
जाहिर है, लोकसभा चुनाव में लेफ्ट फ्रंट को लगे झटके का सीधा शिकार पश्चिम बंगाल के औद्योगिकरण की कोशिशें हुई हैं। राज्य में निवेश आमंत्रित करने का वाम मोर्चा सरकार का उत्साह ठंडा हो गया है। वाम बुद्धिजीवियों के बीच इस मुद्दे पर सबसे तीखी बहस चल रही है कि क्या बिना उद्योग लगाए राज्य को विकास के अगले चरण में ले जाया जा सकता है? क्या इसके बिना बढ़ती आबादी के लिए रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकते हैं, और इसके बगैर खेती पर से आबादी का बोझ घटाने के क्या उपाय हो सकते हैं? क्या किसी भी राज्य सरकार के पास इतने संसाधन हैं कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग लगाकर अपनी आबादी की विभिन्न जरूरतें पूरी कर सके? और अगर उद्योग लगने हैं तो जमीन के अधिग्रहण का विकल्प क्या है?
माकपा के हमदर्द बुद्धिजीवी भी यह मानते हैं कि पार्टी इन सवालों का जवाब खोजे बिना मौजूदा संकट से नहीं निकल सकती। मसलन, मशहूर अर्थशास्त्री और मार्क्सवादी विचारक प्रभात पटनायक ने अपने हाल के एक लेख में लिखा है- “लेफ्ट साम्राज्यवाद के अपने प्रतिरोध को आगे नहीं बढ़ा सकता, अगर वह ‘विकास’ के प्रति वैकल्पिक नजरिया नहीं अपनाता है, वैसा नजरिया जो उस नव-उदारवाद से अलग हो, जिसे साम्राज्यवादी एजेंसियां हर जगह आगे बढ़ा रही हैं। .....इस नजरिए की प्रमुख विशेषता लेफ्ट के समर्थक वर्ग आधार के हितों की रक्षा होनी चाहिए। विकास को जनवादी क्रांति को आगे बढ़ाने के संदर्भ में परिभाषित किया जाना चाहिए, एक ऐसी परिघटना के रूप में जो लेफ्ट के समर्थक ‘आधारभूत वर्गों’ की आर्थिक हालत को सुधारने में मददगार हो।”
दरअसल, वाम मोर्चे के तीन दशक के शासन ने कई ऐसी सामाजिक-आर्थिक स्थियां पैदा की हैं, जिनका हल तलाश करना आसान नहीं है। कुछ जानकार मानते हैं कि राज्य में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून (नरेगा) पर अमल में इसलिए ढिलाई बरती गई, क्योंकि भूमि सुधार से गांवों में जो छोटे किसान अस्तित्व में आए, वे नहीं चाहते कि खेतिहर मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत बढ़े। नरेगा खेतिहर मजदूरों की स्थिति मजबूत बनाता है और आम तौर पर इससे न्यूनतम मजदूरी का स्तर बढता है। पश्चिम बंगाल के छोटे किसान वाम मोर्चे की नीतियों से वजूद में आए और उसका समर्थन आधार हैं। बहरहाल, मजदूरों की उपेक्षा ने उन्हें वाम मोर्चे से नाराज कर दिया और वे अल्ट्रा लेफ्ट के खेमे में जा रहे हैं। चुनाव झटका लगने के बाद खबर है कि वाम मोर्चा नरेगा को लागू करने में कुछ ज्यादा ही उत्साह दिखा रहा है। इसका क्या परिणाम होगा, अभी कहना मुश्किल है। इससे खेतिहर मजदूरों में खोया समर्थन आधार एक हद तक वापस आ सकता है, लेकिन इससे छोटे किसान नाराज हुए तो वाम मोर्चे को लेने के देने भी पड़ सकते हैं।
चुनौती सांगठनिक स्तर पर भी है। १९६० के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर १९७७ तक माकपा कार्यकर्ताओं ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और संघर्ष भावना से पार्टी का वह आधार बनाया, जिससे वो सत्ता में आ सकी। लेकिन अब ऐसे कार्यकर्ताओं का अभाव पार्टी में महसूस किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री और मार्क्सवादी विचारक अशोक मित्र ने लिखा है- “सीपीएम एक अभूतपूर्व स्थिति का सामना कर रही है और इस संकट से उबरना है तो उसे अपने सांगठनिक ढांचे और कार्यक्रम संबंधी रणनीति एवं गतिविधियों पर संपूर्ण पुनर्विचार करना होगा। इसके सामने एक कठिनाई यह है कि पश्चिम बंगाल में उसके तीन लाख कार्डधारी सदस्यों में ९० फीसदी ऐसे हैं, जिनका जन्म १९७७ के बाद हुआ। इन लोगों ने सिर्फ अच्छे दिन देखे हैं, जब पार्टी लगातार सत्ता में रही है। दरअसल उनमें से बहुत से लोग सिर्फ इसीलिए पार्टी के साथ हैं कि वह सत्ता में है। अगर वह सत्ता में नहीं रही तो यह प्रजाति कहीं गायब हो जाएगी।”
इन स्थितियों में कई विश्लेषक मानते हैं कि दो साल बाद वाम मोर्चे के सत्ता गंवा देने की वास्तविक आशंका है, क्योंकि जितने विकट सवाल पार्टी के पास हैं उनका हल ढूंढ सकने के लिए पार्टी के पास न तो पर्याप्त समय है, और ना ही इसके लिए वस्तुगत स्थितियां उनके अनकूल हैं। हालांकि अशोक मित्र जैसे विचारकों की राय है कि सत्ता से हटना संभवतः माकपा के लिए अच्छी बात होगी, क्योंकि वह तब अपने क्रांतिकारी जड़ों की तरफ एक बार फिर लौट सकेगी। लेकिन सवाल सिर्फ माकपा का नहीं है। सवाल यह है कि उस हालत में देश में वाम विमर्श क्या मोड़ लेगा? माकपा की आलोचना में अपनी पूरी ताकत झोंक देने वाले अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलन के समर्थक इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं कि पिछले तीन दशक में राष्ट्रीय राजनीति में जन-पक्षीय रुझान जोड़ने में वाम मोर्चे की अहम भूमिका रही है। जब सांप्रदायिक फासीवाद का खतरा बढ़ता जा रहा था, उस समय उसके खिलाफ राजनीतिक गोलबंदी की भूमिका वाम मोर्चे ने ही तैयार की। २००४ के बाद यूपीए सरकार के नव-उदारवादी रुझानों पर लगाम रखने और सरकारी नीतियों में सोशल डेमोक्रेटिक रुझान जोड़ने में वाम मोर्चे ने सर्व-प्रमुख भूमिका निभाई। इससे सांप्रदायिकता के खतरे को फिलहाल हाशिये पर धकेला जा सका है।
वाम मोर्चे के खास योगदान से जो राजनीतिक दिशा तैयार हुई, यूपीए-२ सरकार भी उसी पर चलने का संदेश दे रही है। अब समय सही वामपंथी नीतियों को सामने का है। लेकिन इस मौके पर वाम मोर्चा खुद गहरे संकट में फंस गया है। अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलन के समर्थक इस स्थिति में अपने लिए भले अवसर देख रहे हों, लेकिन अपनी उग्रता, दृष्टिकोण की नकारात्मकता और अपरिपक्वता की वजह से वे अभी वह भूमिका प्राप्त कर सकने में अक्षम हैं, जिसे वाम मोर्चा ने पिछले दशकों में जिम्मेदारी से निभाया है। इसलिए वाम मोर्चे का संकट पूरी वामपंथी राजनीति का संकट है, इस बात को समझा जाना चाहिए। अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलनों की ताकतें इस संकट को बढ़ाने में योगदान कर बेहद नकारात्मक भूमिका निभा रही हैं। इसका परिणाम भारतीय लोकतंत्र को लंबे समय तक भुगतना पड़ सकता है। बहरहाल, अगर वाम मोर्चे ने अपनी नीतियों और कार्यक्रमों में सुधार कर प्रलय के प्रवक्ताओं की भविष्यवाणियां गलत साबित कर दीं और पश्चिम बंगाल का अपना किला बचा लिया, तो वामपंथी राजनीति को न सिर्फ एक नई शक्ति मिलेगी, बल्कि देश के पूरे राजनीतिक विमर्श को भी एक सकारात्मक दिशा मिल सकेगी। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है।
भारत में वाम राजनीति आज जितने संकट में है, आजादी के बाद उतना शायद कभी नहीं थी। यह विडंबना ही है कि जब सांप्रदायिक ताकतों के सत्ता में आने का खतरा काफी घट गया है और दशकों के बाद सकारात्मक राजनीति की संभावना बेहतर हुई है, तब वामपंथी पार्टियों के सामने खुद को प्रासंगिक बनाए रखने का सवाल खड़ा हो गया है। यह वो मौका है, जब कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार की नीतियों का वामपंथी विकल्प पेश करने के लिए न सिर्फ अनुकूल स्थितियां है, बल्कि यह एक ऐतिहासिक जरूरत भी है। लेकिन संसद में अपनी बेहद कमजोर उपस्थिति की वजह से वामपंथी दल यह भूमिका निभाने में अक्षम हो गए हैँ। सच्चाई तो यह है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सहयोगी दलों के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती पश्चिम बंगाल में अपना किला बचाने की है। पिछले आम चुनाव में यह किला बुरी तरह हिल चुका है और उसके बाद भी पराभव रुकने के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं।
माकपा के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा आज कई दिशाओं से निशाने पर है। एक तरफ पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का मोर्चा है, तो दूसरी तरफ अल्ट्रा लेफ्ट यानी उग्र वामपंथी ताकतें हैं। अल्ट्रा लेफ्ट में माओवादी, अन्य नक्सली संगठन और एसयूसीएआई जैसी हाशिये पर की पार्टियां प्रमुख हैं। वैचारिक हमला करने के लिए कथित जन आंदोलन और उनके समर्थक बुद्धिजीवी भी हैं। इन सबमें उद्देश्य का एक अद्भुत साझापन बन गया है। यानी उनके अंतिम मकसद चाहे जो हों, फिलहाल माकपा की जड़ें उखाड़ना उनका समान उद्देश्य बना हुआ है।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और कांग्रेस के इर्द-गिर्द पूर्व सामंती ताकतों, बड़े व्यापारियों, मध्य वर्ग और नव धनिक तबकों की हमेशा से गोलबंदी रही है। इन तबकों का लेफ्ट विचारधारा से हितों का सीधा अंतर्विरोध है। भूमि सुधार और पंचायती व्यवस्था से राज्य का जो सामाजिक-राजनीतिक चेहरा बदला, उसका सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं तबकों को हुआ। ताजा परिस्थितियों में प्रति-क्रांति का इन तबकों का मंसूबा नई बुलंदियों पर है। लेकिन अल्ट्रा लेफ्ट की ताकतों के उग्र विरोध की वजहें राजनीतिक से ज्यादा मनोवैज्ञानिक हैं। माकपा ने अपनी नीतियों और उन पर अमल से एक ठोस वोट आधार का निर्माण करते हुए संसदीय राजनीति में हस्तक्षेप की अपनी हैसियत बनाई और कमोबेश इसे अब तक कायम रखा है। यह हैसियत देश में किसी दूसरी वामपंथी पार्टी या संगठन की नहीं है।
राजनीतिक मनोविज्ञान के विशेषज्ञ यह जानते हैं कि ऐसी सफलताएं समान वैचारिक पृष्ठभूमि के संगठनों और कार्यकर्ताओं में कैसा बिरादराना द्रोह और ईर्ष्या का भाव पैदा करती हैं। माओवादी या दूसरे नक्सलवादी संगठन यह जानते हैं कि जब तक माकपा को उसकी मौजूदा हैसियत से बेदखल नहीं किया जाता, वे वामपंथी विरासत और इसकी राजनीतिक भूमि को उससे नहीं हथिया सकेंगे। वैचारिक रूप से बहुत पहले माकपा को संशोधनवादी घोषित कर कम्युनिस्ट शब्दावली में उसकी नैतिक साख को वे अपनी तरफ से खत्म कर चुके हैं। लेकिन राजनीति के व्यापक परिदृश्य पर यह साख अब तक बची हुई है और यही माकपा की प्रासंगिकता है। अब नए हालात में उग्र वामपंथी ताकतों को लगता है कि माकपा की वैचारिक और नैतिक साख के साथ-साथ उसकी सांगठनिक मजबूती एवं राजनीतिक जमीन को नष्ट करने का भी उनके पास बेहतरीन मौका है।
जो मानसिकता अल्ट्रा लेफ्ट की ताकतों की है, वही कमोबेश अपने को जन आंदोलन कहने वाले संगठनों की भी है। अलग-अलग मुद्दों पर देश के अलग-अलग हिस्सों में उभरे इन संगठनों को भी इस नई स्थिति में अपने लिए राजनीतिक प्रासंगिकता बनाने का मौका दिख रहा है। नंदीग्राम और सिंगूर ने इन तीनों तरह की ताकतों को एक मंच पर आने का बहाना मुहैया कराया। लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चे की हार से इनका हौसला बढ़ा और अब वो इस प्रयोग को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं। सबका निशाना अब २०११ में होने वाला पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव है। उस चुनाव ने दो साल पहले से ही एक ऐतिहासिक महत्त्व हासिल कर लिया है। आखिर उस चुनाव से देश में वामपंथ का भविष्य तय होना है।
लोकसभा चुनाव के बाद कमजोर हुई माकपा पर माओवादियों ने हिंसक हमले तेज कर रखे हैं। चूंकि तृणमूल कांग्रेस का मकसद राज्य में स्थिति को बेकाबू दिखाना है, इसलिए वह ऐसी घटनाओं के प्रति दोहरा रुख अपनाते हुए सामने आती है। आम तौर पर माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानने वाली कांग्रेस इसे नजरअंदाज करती है, क्योंकि उसे ममता बनर्जी की जरूरत है, जिनके कंधों पर सवार हो कर वह ३४ साल बाद पश्चिम बंगाल की सत्ता में साझीदार बनने का मंसूबा पाले हुए है। इन सभी दलों की रणनीति और अल्पकालिक कार्यनीति पर गौर करते हुए यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल के लिए अगले दो साल बेहद मुश्किल रहने वाले हैं। इस अवधि में वहां हिंसा और प्रति-हिंसा का दौर शायद तेज होता जाएगा। माकपा विरोधी ताकतों की रणनीति यह भी है कि राज्य की वाम मोर्चा सरकार को प्रशासन के मोर्चे पर कोई ऐसा सुधार या पहल करने का मौका न दिया जाए, जिससे वह अगले दो साल में अपने खोये जनाधार को दोबारा हासिल कर ले।
वाम मोर्चे ने २००९ के चुनाव में पांच साल पहले की तुलना में ७ फीसदी वोट गंवाए। उसके सामने चुनौती यही है कि क्या अगले दो साल में वह इन्हें वापस अपने खेमे में ला सकेगा? कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के साथ आ जाने से वाम मोर्चा विरोधी विरोधी वोटों के बंटवारे का फायदा पाने की उम्मीद नहीं कर सकता। तो वाम मोर्चा सरकार के सामने अब क्या विकल्प हैं? पिछले तीन महीनों में वाम दायरे में हुई चर्चाओं में वाम मोर्चे के समर्थन खोने के पीछे कई वजहों की पहचान की गई है। इनमें सबसे प्रमुख है उद्योग लगाने के लिए किसानों की जमीन के अधिग्रहण की कोशिशें, जिससे कृषक समाज में भय और आक्रोश पैदा हुआ। इसके अलावा राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, सार्वजनिक वितरण प्रणाली आदि जैसी योजनाओं पर अमल में लापरवाही और अल्पसंख्यकों के लिए विशेष उपाय करने में कोताही ऐसे पहलुओं के रूप में सामने आए हैं, जिससे अपने समर्थक आधार में वाम मोर्चा को लेकर मोहभंग जैसी स्थिति पैदा हुई।
जाहिर है, लोकसभा चुनाव में लेफ्ट फ्रंट को लगे झटके का सीधा शिकार पश्चिम बंगाल के औद्योगिकरण की कोशिशें हुई हैं। राज्य में निवेश आमंत्रित करने का वाम मोर्चा सरकार का उत्साह ठंडा हो गया है। वाम बुद्धिजीवियों के बीच इस मुद्दे पर सबसे तीखी बहस चल रही है कि क्या बिना उद्योग लगाए राज्य को विकास के अगले चरण में ले जाया जा सकता है? क्या इसके बिना बढ़ती आबादी के लिए रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकते हैं, और इसके बगैर खेती पर से आबादी का बोझ घटाने के क्या उपाय हो सकते हैं? क्या किसी भी राज्य सरकार के पास इतने संसाधन हैं कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग लगाकर अपनी आबादी की विभिन्न जरूरतें पूरी कर सके? और अगर उद्योग लगने हैं तो जमीन के अधिग्रहण का विकल्प क्या है?
माकपा के हमदर्द बुद्धिजीवी भी यह मानते हैं कि पार्टी इन सवालों का जवाब खोजे बिना मौजूदा संकट से नहीं निकल सकती। मसलन, मशहूर अर्थशास्त्री और मार्क्सवादी विचारक प्रभात पटनायक ने अपने हाल के एक लेख में लिखा है- “लेफ्ट साम्राज्यवाद के अपने प्रतिरोध को आगे नहीं बढ़ा सकता, अगर वह ‘विकास’ के प्रति वैकल्पिक नजरिया नहीं अपनाता है, वैसा नजरिया जो उस नव-उदारवाद से अलग हो, जिसे साम्राज्यवादी एजेंसियां हर जगह आगे बढ़ा रही हैं। .....इस नजरिए की प्रमुख विशेषता लेफ्ट के समर्थक वर्ग आधार के हितों की रक्षा होनी चाहिए। विकास को जनवादी क्रांति को आगे बढ़ाने के संदर्भ में परिभाषित किया जाना चाहिए, एक ऐसी परिघटना के रूप में जो लेफ्ट के समर्थक ‘आधारभूत वर्गों’ की आर्थिक हालत को सुधारने में मददगार हो।”
दरअसल, वाम मोर्चे के तीन दशक के शासन ने कई ऐसी सामाजिक-आर्थिक स्थियां पैदा की हैं, जिनका हल तलाश करना आसान नहीं है। कुछ जानकार मानते हैं कि राज्य में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून (नरेगा) पर अमल में इसलिए ढिलाई बरती गई, क्योंकि भूमि सुधार से गांवों में जो छोटे किसान अस्तित्व में आए, वे नहीं चाहते कि खेतिहर मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत बढ़े। नरेगा खेतिहर मजदूरों की स्थिति मजबूत बनाता है और आम तौर पर इससे न्यूनतम मजदूरी का स्तर बढता है। पश्चिम बंगाल के छोटे किसान वाम मोर्चे की नीतियों से वजूद में आए और उसका समर्थन आधार हैं। बहरहाल, मजदूरों की उपेक्षा ने उन्हें वाम मोर्चे से नाराज कर दिया और वे अल्ट्रा लेफ्ट के खेमे में जा रहे हैं। चुनाव झटका लगने के बाद खबर है कि वाम मोर्चा नरेगा को लागू करने में कुछ ज्यादा ही उत्साह दिखा रहा है। इसका क्या परिणाम होगा, अभी कहना मुश्किल है। इससे खेतिहर मजदूरों में खोया समर्थन आधार एक हद तक वापस आ सकता है, लेकिन इससे छोटे किसान नाराज हुए तो वाम मोर्चे को लेने के देने भी पड़ सकते हैं।
चुनौती सांगठनिक स्तर पर भी है। १९६० के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर १९७७ तक माकपा कार्यकर्ताओं ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और संघर्ष भावना से पार्टी का वह आधार बनाया, जिससे वो सत्ता में आ सकी। लेकिन अब ऐसे कार्यकर्ताओं का अभाव पार्टी में महसूस किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री और मार्क्सवादी विचारक अशोक मित्र ने लिखा है- “सीपीएम एक अभूतपूर्व स्थिति का सामना कर रही है और इस संकट से उबरना है तो उसे अपने सांगठनिक ढांचे और कार्यक्रम संबंधी रणनीति एवं गतिविधियों पर संपूर्ण पुनर्विचार करना होगा। इसके सामने एक कठिनाई यह है कि पश्चिम बंगाल में उसके तीन लाख कार्डधारी सदस्यों में ९० फीसदी ऐसे हैं, जिनका जन्म १९७७ के बाद हुआ। इन लोगों ने सिर्फ अच्छे दिन देखे हैं, जब पार्टी लगातार सत्ता में रही है। दरअसल उनमें से बहुत से लोग सिर्फ इसीलिए पार्टी के साथ हैं कि वह सत्ता में है। अगर वह सत्ता में नहीं रही तो यह प्रजाति कहीं गायब हो जाएगी।”
इन स्थितियों में कई विश्लेषक मानते हैं कि दो साल बाद वाम मोर्चे के सत्ता गंवा देने की वास्तविक आशंका है, क्योंकि जितने विकट सवाल पार्टी के पास हैं उनका हल ढूंढ सकने के लिए पार्टी के पास न तो पर्याप्त समय है, और ना ही इसके लिए वस्तुगत स्थितियां उनके अनकूल हैं। हालांकि अशोक मित्र जैसे विचारकों की राय है कि सत्ता से हटना संभवतः माकपा के लिए अच्छी बात होगी, क्योंकि वह तब अपने क्रांतिकारी जड़ों की तरफ एक बार फिर लौट सकेगी। लेकिन सवाल सिर्फ माकपा का नहीं है। सवाल यह है कि उस हालत में देश में वाम विमर्श क्या मोड़ लेगा? माकपा की आलोचना में अपनी पूरी ताकत झोंक देने वाले अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलन के समर्थक इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं कि पिछले तीन दशक में राष्ट्रीय राजनीति में जन-पक्षीय रुझान जोड़ने में वाम मोर्चे की अहम भूमिका रही है। जब सांप्रदायिक फासीवाद का खतरा बढ़ता जा रहा था, उस समय उसके खिलाफ राजनीतिक गोलबंदी की भूमिका वाम मोर्चे ने ही तैयार की। २००४ के बाद यूपीए सरकार के नव-उदारवादी रुझानों पर लगाम रखने और सरकारी नीतियों में सोशल डेमोक्रेटिक रुझान जोड़ने में वाम मोर्चे ने सर्व-प्रमुख भूमिका निभाई। इससे सांप्रदायिकता के खतरे को फिलहाल हाशिये पर धकेला जा सका है।
वाम मोर्चे के खास योगदान से जो राजनीतिक दिशा तैयार हुई, यूपीए-२ सरकार भी उसी पर चलने का संदेश दे रही है। अब समय सही वामपंथी नीतियों को सामने का है। लेकिन इस मौके पर वाम मोर्चा खुद गहरे संकट में फंस गया है। अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलन के समर्थक इस स्थिति में अपने लिए भले अवसर देख रहे हों, लेकिन अपनी उग्रता, दृष्टिकोण की नकारात्मकता और अपरिपक्वता की वजह से वे अभी वह भूमिका प्राप्त कर सकने में अक्षम हैं, जिसे वाम मोर्चा ने पिछले दशकों में जिम्मेदारी से निभाया है। इसलिए वाम मोर्चे का संकट पूरी वामपंथी राजनीति का संकट है, इस बात को समझा जाना चाहिए। अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलनों की ताकतें इस संकट को बढ़ाने में योगदान कर बेहद नकारात्मक भूमिका निभा रही हैं। इसका परिणाम भारतीय लोकतंत्र को लंबे समय तक भुगतना पड़ सकता है। बहरहाल, अगर वाम मोर्चे ने अपनी नीतियों और कार्यक्रमों में सुधार कर प्रलय के प्रवक्ताओं की भविष्यवाणियां गलत साबित कर दीं और पश्चिम बंगाल का अपना किला बचा लिया, तो वामपंथी राजनीति को न सिर्फ एक नई शक्ति मिलेगी, बल्कि देश के पूरे राजनीतिक विमर्श को भी एक सकारात्मक दिशा मिल सकेगी। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है।
Wednesday, August 19, 2009
ये कैसे नेता हैं औऱ वो कैसी पार्टियां!
सत्येंद्र रंजन
मायावती बनाम रीता बहुगुणा जोशी के विवाद महज नेताओं की खराब होती जुबान का मुद्दा बन कर रह गया, जबकि इससे कई बेहद अहम सामाजिक और राजनीतिक सवाल जुड़े थे। इस मामले में खासकर उत्तर प्रदेश में सियासी गर्द खूब उड़ी, लेकिन इससे देश की राजनीतिक संस्कृति की जो सूरत सामने आई, उस पर गंभीर एवं व्यापक बहस का अभाव ही दिखा। अब जबकि सियासी गर्द कुछ ढल हो चुकी है, यह बहस छेड़े जाने की जरूरत है, क्योंकि इसका संबंध अपने समाज में स्त्री की हालत एवं हैसियत से है। साथ ही इसका रिश्ता अपनी राजनीति के उभरे स्वरूप से है। इस प्रकरण ने एक बार फिर यह सवाल शिद्दत से उठाया है कि क्या भारत की मौजूदा संसदीय राजनीति प्रगति एवं सकारात्मक परिवर्तन की उत्प्रेरक पहलू रह गई है या यह अब सांस्कृतिक पिछड़ेपन और सामंती मूल्यों को मजबूत करने का एजेंट बन गई है।
रीता बहुगुणा जोशी ने जो कहा वह सिर्फ मायावती का अपमान नहीं था। बल्कि उनके उस बयान से एक गहरी बैठी सामाजिक मानसिकता जाहिर हुई। यह वो मानसिकता है, जिसमें स्त्री को एक स्वतंत्र व्यक्ति नहीं, बल्कि घर-परिवार की इज्जत का पैमाना माना जाता है और स्त्री की इज्जत यौन-शुचिता से जुड़ी मानी जाती है। सामंती समाजों में सदियों तक स्त्री के यौन व्यक्तित्व (सेक्सुएलिटी) पर जबरन सामाजिक नियंत्रण रखा गया है। बलात्कार ऐसे नियंत्रण की ही सबसे क्रूर कोशिश है। बलात्कारियों पर किए गए अनेक मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों का यह निष्कर्ष रहा है कि बलात्कार अक्सर यौन संतुष्टि के लिए नहीं किया जाता। बल्कि यह ताकत को जताने के लिए किया जाता है। यह जताने के लिए कि जिंदगी में स्त्री के पास चयन की स्वतंत्रता नहीं है।
इसके साथ ही बलात्कार के पीछे यह सोच भी रहती है कि इसके जरिए महिला की पूरी जिंदगी बर्बाद की जा सकती है। चूंकि इसके लिए यौन शुचिता भंग कर दी जाती है, तो इसका मतलब हुआ कि स्त्री की इज्जत हमेशा के लिए खत्म कर दी जाती है। यह एक ऐसा कलंक है, जिसके साथ किसी बलात्कार पीड़ित महिला को जीवन भर जीना पड़ता है। रीता बहुगुणा ने जब बेहद फूहड़ ढंग से बलात्कार के बदले मायावती को एक करोड़ रुपए मुआवजा देने की बात कही तो दरअसल उनकी जुबान से यही मानसिकता बोल रही थी। इससे उनकी यह सोच जाहिर हो रही थी कि बलात्कार पीड़ित महिलाओं को आर्थिक सहायता देना बेमतलब है, क्योंकि इससे उनकी लुट गई इज्जत वापस नहीं आ सकती।
आज इस सोच को चुनौती दिए जाने की जरूरत है। मोटे तौर पर आज भी जमीनी स्तर पर भारतीय समाज की सोच रीता बहुगुणा जैसी ही है। ऐसे में बलात्कार पीड़ित महिलाओं के लिए सदमे से निकल कर अपनी जिंदगी फिर से संभाल पाना बेहद मुश्किल बना रहता है। वे बिना किसी अपने दोष के ऐसे जघन्य अपराध का शिकार हो गई होती हैं, जिससे उनका पूरा परिवार कलंकित मान लिया जाता है। ऐसे में आर्थिक मदद निश्चित रूप से ऐसी सहायता है, जिससे उनके संभलने की लेकिन एक छोटी, लेकिन महत्त्वपूर्ण संभावना पैदा होती है। मायावती सरकार ने अगर बलात्कार पीड़ितों को ऐसी मदद दी है तो रीता बहुगुणा से यह अपेक्षित था कि वे इसकी तारीफ करतीं और इसके बाद कानून-व्यवस्था का सवाल उठाते हुए राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा करतीं। लेकिन ऐसा कोई नेता या व्यक्ति तभी कर सकता है, जब वह वैचारिक मंथन या सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता के किसी सचेत प्रयास से गुजरा हो।
रीता बहुगुणा बनाम मायावती के मामले से यही सामने आया कि अधिकांश भारतीय नेता और राजनीतिक पार्टियां आज ऐसी जागरूकता का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। कांग्रेस पार्टी कभी भारत में उदार मूल्यों की वाहक और आधुनिकता की शक्ति थी। लेकिन आज वह किस वैचारिक धारा की नुमाइंदगी करती है, इसे समझ पाना मुश्किल है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी से लेकर पार्टी के औपचारिक बयानों में महज यह कोशिश दिखी कि रीता बहुगुणा जोशी के बयान से खुद को अलग दिखाया जाए, लेकिन साथ ही उस बयान के बाद हुई हिंसा की आड़ लेकर मायावती पर उसी जोश से जवाबी हमला बोल दिया जाए। पार्टी से यह न्यूनतम अपेक्षा थी कि वह रीता बहुगुणा को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा कर इस सामंती सोच को सार्वजनिक रूप से अस्वीकार करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
एक पार्टी जिसकी अध्यक्ष एक महिला हो और जिसके भावी नेता का दावा देश के नौजवानों को नेतृत्त्व देने का हो, यह मामला उस पर एक गहरी नकारात्मक टिप्पणी है। अगर यह पार्टी महिलाओं को इंसान से कम स्तर देने वाली सोच, सांस्कृतिक पिछ़ड़ेपन और सामंती मूल्यों के खिलाफ खुलकर सामने नहीं आ सकती, तो आखिर वह किस मुंह से प्रगतिशीलता और आधुनिकता की शक्ति होने का दावा कर सकती है? भारतीय जनता पार्टी के नेता जब रूढिवादी विचारों की वकालत करते हैं, और महिला के चयन की आजादी एवं यौन-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता को नकारते हैं, तो यह बात आसानी से समझ में आती है, क्योंकि भाजपा ऐसी ही पुरातन सोच की प्रतिनिधि ताकत है। मगर कांग्रेस जब ऐसा करती दिखती है या ऐसे अहम सवालों पर टाल-मटोल वाला रुख अख्तियार करती दिखती है, तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि वह अपने इतिहास और पूर्वज नेताओं नेताओं की विरासत को नकार रही है।
अक्सर पर बलात्कार की घटनाएं सामने आने पर भाजपा नेताओं और समाज के प्रतिक्रियावादी हलकों से बलात्कारियों को मौत की सजा देने की मांग उठाई जाती है। कोशिश यह संदेश देने की होती है कि ये लोग बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को स्वीकार करने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं और इसके लिए कठोरतम सजा का प्रावधान चाहते हैं। लेकिन यह सोच यह नहीं समझ पाती कि ज्यादातर मामलों में बलात्कारियों को सजा प्रचलित सामाजिक मानसिकता की वजह से नहीं मिल पाती है। पहली बात तो यह कि बलात्कार होने पर पीड़ित महिला के घर-परिवार की तरफ से पहली कोशिश इस पर परदा डालने की होती है। इसलिए बहुत सी घटनाएं बिना पुलिस में दर्ज हुए ही रह जाती हैं। जो मामले दर्ज होते हैं, उनमें भी पी़ड़ित महिला सदमे से बाहर आकर पूरा वाक्या बयान नहीं कर पाती। इसमें ऐसी खामियां छूट जाती हैं, जिनका फायदा उठाकर अपराधी अदालती प्रक्रिया के दौरान बच निकलते हैं। पुलिस और वकीलों का नजरिया पीड़ित के मन पर प्रहार करने वाला ही होता है।
जब समस्या दोष साबित करने में हो तो फिर सजा का प्रावधान चाहे जो कर लिया जाए, उससे क्या फर्क पड़ जाएगा? इसलिए समस्या कानून की किताब में सजा का प्रावधान नहीं, बल्कि स्त्रियों के बारे में वह सामाजिक नजरिया है, जो आज तक पुलिस से लेकर अदालतों और परिवार से लेकर राजनीति तक पर हावी है। जरूरत इस नजरिए को चुनौती दिए जाने की है। जरूरत बलात्कार को लेकर बनी कलंक की धारणा को चुनौती देने की है। समाज के सामने इस बात को हिम्मत से कहने की आवश्यकता है कि बलात्कार से कोई महिला कलंकित नहीं हो जाती। जबरन यौन शुचिता भंग कर दिए जाने का मतलब यह नहीं है कि पी़ड़ित महिला समाज में दोबारा इज्जत के साथ खड़ी नहीं हो सकती या वह अपने जीवन को फिर से संभाल नहीं सकती। बलात्कार से अगर कोई कलंकित होता है, वह इस अपराध को अंजाम देने वाला पुरुष है, जो मानव सभ्यता के विकासक्रम के इस स्तर पर आकर भी महिला की चयन की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करता।
सवाल है कि अगर किसी के घर में डाका पड़ जाए या किसी के साथ धोखाधड़ी हो जाए तो क्या यह पीड़ित व्यक्ति के लिए शर्मिंदगी की बात है? ऐसे में बलात्कार को इसकी शिकार महिला पर दाग क्यों माना जाता है? और दूसरे अपराधों के शिकार लोगों के लिए जैसे सरकार से आर्थिक एवं अन्य प्रकार की मदद की अपेक्षा की जाती है, अगर वैसी ही मदद बलात्कार पीड़ित महिला को दी जा रही हो, तो इस पर एतराज क्यों जताया जाना चाहिए? महिला भी एक संपूर्ण इंसान है। उसका व्यक्तित्व भी उसकी सोच, उसके विचारों, उसकी चेतना के स्तर, और उसकी अंतरात्मा की उद्दात्तता से बनता है। अपनी मानसिक और शारीरिक क्षमताओं से वह समाज में अपने लिए जगह बनाती है (या बना सकती है)। वह अपने यौन-व्यक्तित्व को खुद नियंत्रित करने और आजादी से उसे जीने में सक्षम है। अगर हम इस समझ को मानते हों, तो यह बेहिचक कह सकते हैं कि महिला पर हुआ यौन हमला उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को खंडित नहीं कर सकता।
लेकिन अपने समाज पर सामंती अवशेषों का असर इतना गहरा है कि यह साधारण सी समझ एक बेगानी बात मालूम पड़ती है। न सिर्फ सांप्रदायिक राजनीतिक दल, बल्कि मध्यमार्गी पार्टियां भी अपने विचारों में रूढ़िवाद से इतनी ग्रस्त हैं कि वे मानव मुक्ति का आधुनिक एजेंडा समाज के सामने नहीं रख पातीं। या फिर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ बोलने से वे इतनी डरती हैं कि अपने तमाम बयानों को घिसे-पिटे सांस्कृतिक मूल्यों के दायरे में ही समेटे रहती हैं। मसलन, हम मायावती को ही ले सकते हैं। वे देश की सबसे बड़ी दलित नेता हैं और भले अब सर्वजन की बात कर रही हों, लेकिन अब भी मुख्य रूप से उनका आधार बहुजन समाज ही है। यह समाज आधुनिक राजनीति के उपकरणों के जरिए सदियों की दमन और शोषण से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहा है। इसके बावजूद यह देख कर हैरत होती है कि रीता बहुगुणा के बयान को स्त्री की आजादी का मुद्दा बनाने के बजाय उन्होंने इसे दलित बनाम सवर्ण मुद्दा बनाने की कोशिश की। इस मुद्दे की बारीकी में वे भी नहीं जाना चाहतीं, इस बात की मिसाल उनकी यह घोषणा है कि अगर बहुजन समाज पार्टी केंद्र की सत्ता में आई तो बलात्कार के लिए मौत की सजा का प्रावधान कर दिया जाएगा।
साफ है कि वामपंथी दलों को छोड़ कर आज भारत में कोई ऐसी राजनीतिक ताकत नहीं है जो सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों में रूढ़ियों और पुरातन मान्यताओं को खुली चुनौती देने की हिम्मत दिखा सके। ऐसी कोई ताकत नहीं है जो अपराध और उसकी मानसिकता की समाजशास्त्रीय समझ देश के सामने पेश करे और सजा के बारे में उदार एवं आधुनिक नजरिए की सार्वजनिक रूप से वकालत करे। क्या कांग्रेस समेत कोई मध्यमार्गी दल या क्षेत्रीय एवं शोषित जातियों की नुमाइंदगी का दावा करने वाली पार्टी यह सवाल उठा सकने की स्थिति में है कि आखिर देश में मौत की सजा का प्रावधान रहना ही क्यों चाहिए? इससे आज तक दुनिया में कहीं भी कोई अपराध नहीं रोका जा सका। यह दरअसल, बदले की भावना पर आधारित अमानवीय सजा है, जिससे अपराध की मानसिकता बदलने में कोई मदद नहीं मिलती।
बलात्कार दरअसल तब रुकेंगे, जब बलात्कार की मानसिकता को चुनौती दी जाएगी। भारतीय समाज में अभी वैवाहिक रिश्तों के भीतर मौजूद बलात्कार की प्रवृत्ति का सवाल नहीं उठाया गया है। चूंकि परंपरागत सोच में पत्नी पर पति का मालिकाना सहज रूप से मान लिया जाता है, इसलिए यह सवाल बहुत से लोगों को अटपटा लग सकता है। लेकिन स्त्री के यौन-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता का हनन चाहे विवाह के भीतर हो या बाहर, एक ही जैसी सोच काम कर रही होती है। इस सोच के खिलाफ अभियान चलाए जाने की जरूरत है।
मायावती बनाम रीता बहुगुणा जोशी के विवाद महज नेताओं की खराब होती जुबान का मुद्दा बन कर रह गया, जबकि इससे कई बेहद अहम सामाजिक और राजनीतिक सवाल जुड़े थे। इस मामले में खासकर उत्तर प्रदेश में सियासी गर्द खूब उड़ी, लेकिन इससे देश की राजनीतिक संस्कृति की जो सूरत सामने आई, उस पर गंभीर एवं व्यापक बहस का अभाव ही दिखा। अब जबकि सियासी गर्द कुछ ढल हो चुकी है, यह बहस छेड़े जाने की जरूरत है, क्योंकि इसका संबंध अपने समाज में स्त्री की हालत एवं हैसियत से है। साथ ही इसका रिश्ता अपनी राजनीति के उभरे स्वरूप से है। इस प्रकरण ने एक बार फिर यह सवाल शिद्दत से उठाया है कि क्या भारत की मौजूदा संसदीय राजनीति प्रगति एवं सकारात्मक परिवर्तन की उत्प्रेरक पहलू रह गई है या यह अब सांस्कृतिक पिछड़ेपन और सामंती मूल्यों को मजबूत करने का एजेंट बन गई है।
रीता बहुगुणा जोशी ने जो कहा वह सिर्फ मायावती का अपमान नहीं था। बल्कि उनके उस बयान से एक गहरी बैठी सामाजिक मानसिकता जाहिर हुई। यह वो मानसिकता है, जिसमें स्त्री को एक स्वतंत्र व्यक्ति नहीं, बल्कि घर-परिवार की इज्जत का पैमाना माना जाता है और स्त्री की इज्जत यौन-शुचिता से जुड़ी मानी जाती है। सामंती समाजों में सदियों तक स्त्री के यौन व्यक्तित्व (सेक्सुएलिटी) पर जबरन सामाजिक नियंत्रण रखा गया है। बलात्कार ऐसे नियंत्रण की ही सबसे क्रूर कोशिश है। बलात्कारियों पर किए गए अनेक मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों का यह निष्कर्ष रहा है कि बलात्कार अक्सर यौन संतुष्टि के लिए नहीं किया जाता। बल्कि यह ताकत को जताने के लिए किया जाता है। यह जताने के लिए कि जिंदगी में स्त्री के पास चयन की स्वतंत्रता नहीं है।
इसके साथ ही बलात्कार के पीछे यह सोच भी रहती है कि इसके जरिए महिला की पूरी जिंदगी बर्बाद की जा सकती है। चूंकि इसके लिए यौन शुचिता भंग कर दी जाती है, तो इसका मतलब हुआ कि स्त्री की इज्जत हमेशा के लिए खत्म कर दी जाती है। यह एक ऐसा कलंक है, जिसके साथ किसी बलात्कार पीड़ित महिला को जीवन भर जीना पड़ता है। रीता बहुगुणा ने जब बेहद फूहड़ ढंग से बलात्कार के बदले मायावती को एक करोड़ रुपए मुआवजा देने की बात कही तो दरअसल उनकी जुबान से यही मानसिकता बोल रही थी। इससे उनकी यह सोच जाहिर हो रही थी कि बलात्कार पीड़ित महिलाओं को आर्थिक सहायता देना बेमतलब है, क्योंकि इससे उनकी लुट गई इज्जत वापस नहीं आ सकती।
आज इस सोच को चुनौती दिए जाने की जरूरत है। मोटे तौर पर आज भी जमीनी स्तर पर भारतीय समाज की सोच रीता बहुगुणा जैसी ही है। ऐसे में बलात्कार पीड़ित महिलाओं के लिए सदमे से निकल कर अपनी जिंदगी फिर से संभाल पाना बेहद मुश्किल बना रहता है। वे बिना किसी अपने दोष के ऐसे जघन्य अपराध का शिकार हो गई होती हैं, जिससे उनका पूरा परिवार कलंकित मान लिया जाता है। ऐसे में आर्थिक मदद निश्चित रूप से ऐसी सहायता है, जिससे उनके संभलने की लेकिन एक छोटी, लेकिन महत्त्वपूर्ण संभावना पैदा होती है। मायावती सरकार ने अगर बलात्कार पीड़ितों को ऐसी मदद दी है तो रीता बहुगुणा से यह अपेक्षित था कि वे इसकी तारीफ करतीं और इसके बाद कानून-व्यवस्था का सवाल उठाते हुए राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा करतीं। लेकिन ऐसा कोई नेता या व्यक्ति तभी कर सकता है, जब वह वैचारिक मंथन या सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता के किसी सचेत प्रयास से गुजरा हो।
रीता बहुगुणा बनाम मायावती के मामले से यही सामने आया कि अधिकांश भारतीय नेता और राजनीतिक पार्टियां आज ऐसी जागरूकता का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। कांग्रेस पार्टी कभी भारत में उदार मूल्यों की वाहक और आधुनिकता की शक्ति थी। लेकिन आज वह किस वैचारिक धारा की नुमाइंदगी करती है, इसे समझ पाना मुश्किल है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी से लेकर पार्टी के औपचारिक बयानों में महज यह कोशिश दिखी कि रीता बहुगुणा जोशी के बयान से खुद को अलग दिखाया जाए, लेकिन साथ ही उस बयान के बाद हुई हिंसा की आड़ लेकर मायावती पर उसी जोश से जवाबी हमला बोल दिया जाए। पार्टी से यह न्यूनतम अपेक्षा थी कि वह रीता बहुगुणा को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा कर इस सामंती सोच को सार्वजनिक रूप से अस्वीकार करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
एक पार्टी जिसकी अध्यक्ष एक महिला हो और जिसके भावी नेता का दावा देश के नौजवानों को नेतृत्त्व देने का हो, यह मामला उस पर एक गहरी नकारात्मक टिप्पणी है। अगर यह पार्टी महिलाओं को इंसान से कम स्तर देने वाली सोच, सांस्कृतिक पिछ़ड़ेपन और सामंती मूल्यों के खिलाफ खुलकर सामने नहीं आ सकती, तो आखिर वह किस मुंह से प्रगतिशीलता और आधुनिकता की शक्ति होने का दावा कर सकती है? भारतीय जनता पार्टी के नेता जब रूढिवादी विचारों की वकालत करते हैं, और महिला के चयन की आजादी एवं यौन-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता को नकारते हैं, तो यह बात आसानी से समझ में आती है, क्योंकि भाजपा ऐसी ही पुरातन सोच की प्रतिनिधि ताकत है। मगर कांग्रेस जब ऐसा करती दिखती है या ऐसे अहम सवालों पर टाल-मटोल वाला रुख अख्तियार करती दिखती है, तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि वह अपने इतिहास और पूर्वज नेताओं नेताओं की विरासत को नकार रही है।
अक्सर पर बलात्कार की घटनाएं सामने आने पर भाजपा नेताओं और समाज के प्रतिक्रियावादी हलकों से बलात्कारियों को मौत की सजा देने की मांग उठाई जाती है। कोशिश यह संदेश देने की होती है कि ये लोग बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को स्वीकार करने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं और इसके लिए कठोरतम सजा का प्रावधान चाहते हैं। लेकिन यह सोच यह नहीं समझ पाती कि ज्यादातर मामलों में बलात्कारियों को सजा प्रचलित सामाजिक मानसिकता की वजह से नहीं मिल पाती है। पहली बात तो यह कि बलात्कार होने पर पीड़ित महिला के घर-परिवार की तरफ से पहली कोशिश इस पर परदा डालने की होती है। इसलिए बहुत सी घटनाएं बिना पुलिस में दर्ज हुए ही रह जाती हैं। जो मामले दर्ज होते हैं, उनमें भी पी़ड़ित महिला सदमे से बाहर आकर पूरा वाक्या बयान नहीं कर पाती। इसमें ऐसी खामियां छूट जाती हैं, जिनका फायदा उठाकर अपराधी अदालती प्रक्रिया के दौरान बच निकलते हैं। पुलिस और वकीलों का नजरिया पीड़ित के मन पर प्रहार करने वाला ही होता है।
जब समस्या दोष साबित करने में हो तो फिर सजा का प्रावधान चाहे जो कर लिया जाए, उससे क्या फर्क पड़ जाएगा? इसलिए समस्या कानून की किताब में सजा का प्रावधान नहीं, बल्कि स्त्रियों के बारे में वह सामाजिक नजरिया है, जो आज तक पुलिस से लेकर अदालतों और परिवार से लेकर राजनीति तक पर हावी है। जरूरत इस नजरिए को चुनौती दिए जाने की है। जरूरत बलात्कार को लेकर बनी कलंक की धारणा को चुनौती देने की है। समाज के सामने इस बात को हिम्मत से कहने की आवश्यकता है कि बलात्कार से कोई महिला कलंकित नहीं हो जाती। जबरन यौन शुचिता भंग कर दिए जाने का मतलब यह नहीं है कि पी़ड़ित महिला समाज में दोबारा इज्जत के साथ खड़ी नहीं हो सकती या वह अपने जीवन को फिर से संभाल नहीं सकती। बलात्कार से अगर कोई कलंकित होता है, वह इस अपराध को अंजाम देने वाला पुरुष है, जो मानव सभ्यता के विकासक्रम के इस स्तर पर आकर भी महिला की चयन की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करता।
सवाल है कि अगर किसी के घर में डाका पड़ जाए या किसी के साथ धोखाधड़ी हो जाए तो क्या यह पीड़ित व्यक्ति के लिए शर्मिंदगी की बात है? ऐसे में बलात्कार को इसकी शिकार महिला पर दाग क्यों माना जाता है? और दूसरे अपराधों के शिकार लोगों के लिए जैसे सरकार से आर्थिक एवं अन्य प्रकार की मदद की अपेक्षा की जाती है, अगर वैसी ही मदद बलात्कार पीड़ित महिला को दी जा रही हो, तो इस पर एतराज क्यों जताया जाना चाहिए? महिला भी एक संपूर्ण इंसान है। उसका व्यक्तित्व भी उसकी सोच, उसके विचारों, उसकी चेतना के स्तर, और उसकी अंतरात्मा की उद्दात्तता से बनता है। अपनी मानसिक और शारीरिक क्षमताओं से वह समाज में अपने लिए जगह बनाती है (या बना सकती है)। वह अपने यौन-व्यक्तित्व को खुद नियंत्रित करने और आजादी से उसे जीने में सक्षम है। अगर हम इस समझ को मानते हों, तो यह बेहिचक कह सकते हैं कि महिला पर हुआ यौन हमला उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को खंडित नहीं कर सकता।
लेकिन अपने समाज पर सामंती अवशेषों का असर इतना गहरा है कि यह साधारण सी समझ एक बेगानी बात मालूम पड़ती है। न सिर्फ सांप्रदायिक राजनीतिक दल, बल्कि मध्यमार्गी पार्टियां भी अपने विचारों में रूढ़िवाद से इतनी ग्रस्त हैं कि वे मानव मुक्ति का आधुनिक एजेंडा समाज के सामने नहीं रख पातीं। या फिर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ बोलने से वे इतनी डरती हैं कि अपने तमाम बयानों को घिसे-पिटे सांस्कृतिक मूल्यों के दायरे में ही समेटे रहती हैं। मसलन, हम मायावती को ही ले सकते हैं। वे देश की सबसे बड़ी दलित नेता हैं और भले अब सर्वजन की बात कर रही हों, लेकिन अब भी मुख्य रूप से उनका आधार बहुजन समाज ही है। यह समाज आधुनिक राजनीति के उपकरणों के जरिए सदियों की दमन और शोषण से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहा है। इसके बावजूद यह देख कर हैरत होती है कि रीता बहुगुणा के बयान को स्त्री की आजादी का मुद्दा बनाने के बजाय उन्होंने इसे दलित बनाम सवर्ण मुद्दा बनाने की कोशिश की। इस मुद्दे की बारीकी में वे भी नहीं जाना चाहतीं, इस बात की मिसाल उनकी यह घोषणा है कि अगर बहुजन समाज पार्टी केंद्र की सत्ता में आई तो बलात्कार के लिए मौत की सजा का प्रावधान कर दिया जाएगा।
साफ है कि वामपंथी दलों को छोड़ कर आज भारत में कोई ऐसी राजनीतिक ताकत नहीं है जो सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों में रूढ़ियों और पुरातन मान्यताओं को खुली चुनौती देने की हिम्मत दिखा सके। ऐसी कोई ताकत नहीं है जो अपराध और उसकी मानसिकता की समाजशास्त्रीय समझ देश के सामने पेश करे और सजा के बारे में उदार एवं आधुनिक नजरिए की सार्वजनिक रूप से वकालत करे। क्या कांग्रेस समेत कोई मध्यमार्गी दल या क्षेत्रीय एवं शोषित जातियों की नुमाइंदगी का दावा करने वाली पार्टी यह सवाल उठा सकने की स्थिति में है कि आखिर देश में मौत की सजा का प्रावधान रहना ही क्यों चाहिए? इससे आज तक दुनिया में कहीं भी कोई अपराध नहीं रोका जा सका। यह दरअसल, बदले की भावना पर आधारित अमानवीय सजा है, जिससे अपराध की मानसिकता बदलने में कोई मदद नहीं मिलती।
बलात्कार दरअसल तब रुकेंगे, जब बलात्कार की मानसिकता को चुनौती दी जाएगी। भारतीय समाज में अभी वैवाहिक रिश्तों के भीतर मौजूद बलात्कार की प्रवृत्ति का सवाल नहीं उठाया गया है। चूंकि परंपरागत सोच में पत्नी पर पति का मालिकाना सहज रूप से मान लिया जाता है, इसलिए यह सवाल बहुत से लोगों को अटपटा लग सकता है। लेकिन स्त्री के यौन-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता का हनन चाहे विवाह के भीतर हो या बाहर, एक ही जैसी सोच काम कर रही होती है। इस सोच के खिलाफ अभियान चलाए जाने की जरूरत है।
क्रिकेट के कारोबारी, सावधान!
सत्येंद्र रंजन
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अधिकारियों को आठ साल पहले यह बात समझ में आई कि सफल क्रिकेटरों के लिए इस देश में बेहद दीवानगी है, इसलिए अगर अपना कारोबार ठीक से चलाना है, तो बेहतर है कि हर हाल में उनका समर्थन किया जाए। तब भारतीय क्रिकेट टीम दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर थी और मैच रेफरी माइक डेनिस ने सतही वजहों के आधार पर कई भारतीय क्रिकेटरों पर एक मैच की पाबंदी लगा दी थी। भारतीय क्रिकेट प्रेमियों में इसके खिलाफ जोरदार भावना भड़़की। बीसीसीआई ने कड़ा रुख अपनाया और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) को झुकना पड़ा। भारत ने अगले टेस्ट में सभी प्रतिबंधित खिलाड़ियों को अपनी टीम में शामिल किया और वो मैच खेला गया, हालांकि बीसीसीआई से हुए अंदरूनी समझौते के तहत उस मैच को आधिकारिक टेस्ट के रूप में मान्यता नहीं दी गई। दूसरी तरफ माइक डेनिस का नाम ऐसा कटा कि आईसीसी के अधिकारियों में उनका आज तक अता-पता नहीं है।
सन् २००३ के विश्व कप से पहले लोगो का विवाद उठा। आईसीसी ने करार किया था कि विश्व कप के आधिकारिक प्रयोजकों की प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के लोगो विश्व कप में भाग लेने वाले खिलाड़ी उस आयोजन के दौरान नहीं पहनेंगे। भारतीय क्रिकेट सितारों के आर्थिक हितों पर इससे चोट पहुंच रही थी और उन्होंने इस करार पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया। इस मुद्दे को खिलाड़ियों से भेदभाव और आईसीसी के लालच की मिसाल बताया गया। हालांकि ऐसे करार फुटबॉल वगैरह के विश्व कप में आम रहे हैं, लेकिन यहां बीसीसीआई फिर खिलाड़ियों के पक्ष में खड़ी हुई। इसके बावजूद कि आईसीसी ने जब करार किया था, तब बीसीसीआई की उस पर सहमति थी। तो बीसीसीआई का पलटा सिक्का एक बार फिर चला और आईसीसी के लालच पर भारतीय क्रिकेट सितारों के लालच की जीत हुई।
भज्जी-सायमंड्स विवाद में एक बार फिर बीसीसीआई का दबदबा देखने को मिला। क्रिकेट और राष्ट्रवाद के जुनून में नस्लभेद रोकने के नियमों और अनुशासन की बलि चढ़ गई। हरभजन सिंह हीरो बन कर उभरे और जब तक आईपीएल-एक के एक मैच के दौरान उन्होंने श्रीशांत को थप्पड़ नहीं मारा, उनका यह रुतबा बना रहा।
रुझान यह सामने आया कि जहां भी आर्थिक हितों पर चोट या अहंकार से जुड़ा कोई मुद्दा सामने आता है, भारत के सफल और संपन्न क्रिकेटर खुद को खेल और सर्वमान्य नियमों से ऊपर जताने लगते हैं। तब बीसीसीआई को इसमें ही अपना भला दिखता है कि उनकी हर तार्किक और अतार्किक मांग का समर्थन किया जाए। आखिर बीसीसीआई में अक्सर ऐसे लोग नहीं आते, जिनका खेल से लगाव हो, जो एक स्वस्थ विश्व खेल संस्कृति विकसित करने के प्रति निष्ठावान हों, और आधुनिक नजरिया रखते हों। वहां ज्यादातर हस्तियां धन और राजनीतिक ताकत के जरिए पहुंचती हैं। ऐसे में इस संस्था के व्यवहार में नव-धनिक सामंती अक्खड़पन जाहिर होना स्वाभाविक ही है। बीसीसीआई के महारथियों को यही लगता है कि खिलाड़ियों पर अनुशासन लागू करने से देश के क्रिकेट प्रेमी नाराज होंगे और ऐसे में खुद उनके खिलाफ माहौल बन सकता है।
संभवतः इसलिए वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) के नए नियमों से जुड़े विवाद पर भी बीसीसीआई ने खेल के बजाय खिलाड़ियों की जिद का साथ देना ही पसंद किया है। लेकिन इस बार शायद यह बाजी उलटी पड़े। इस सवाल पर क्रिकेट प्रेमियों में क्रिकेट सितारों के समर्थन के लिए वैसा उत्साह नहीं है, जैसा पहले के मौकों पर देखा गया था। उलटे भारत सरकार ने बीसीसीआई के नजरिए से अलग रुख लिया है, मेनस्ट्रीम मीडिया मोटे तौर पर वाडा के नियमों के पक्ष में है, और दूसरे खेलों के सितारों ने क्रिकेटरों और क्रिकेट बोर्ड को कठघरे में खड़ा कर दिया है।
अभिनव बिंद्रा की उपलब्धि किसी सचिन तेंदुलकर से कम नहीं है, ना ही साइना नेहवाल किसी महेंद्र सिंह धोनी से कम प्रतिभाशाली हैं, या सानिया मिर्जा किसी युवराज सिंह से कम ग्लैमरस हैं। लेकिन इन सबको वाडा के नियमों से कोई शिकायत नहीं है। इसलिए कि वे अपने को खेल से ऊपर नहीं मानते। वे दुनिया में तय मानदंडों के मुताबिक खेलते हैं और ओलिंपिक भावना के मुताबिक अपने हुनर और क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। बतौर टीम खेल फुटबॉल की लोकप्रियता का दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है। क्रिश्चियानो रोनाल्डो, काका और लियोनेल मेसी जैसे फुटबॉलरों की कीमत और ग्लैमर के आगे आखिर कौन क्रिकेटर टिक पाएगा? इसके बावजूद शुरुआती एतराज के बावजूद फीफा ने वाडा से करार कर लिया है और ये सभी फुटबॉलर अब वाडा के नियमों का पालन कर रहे हैं। मगर भारत के ११ क्रिकेटर जैसे दुनिया के हर नियम से ऊपर हैं!
कुछ अखबारों ने यह सवाल उठाया है कि क्या भारतीय क्रिकेटर इसलिए न खेलने के दिनों का अपना पता नहीं बताना चाहते, क्योंकि उनमें से कई पेज थ्री पार्टियों के नियमित भागीदार होते हैं, जहां आरोप है कि कोकीन और चरस जैसी नशीली दवाओं का सेवन आम बात है। अगर ऐसी बातों में दम नहीं हो, तब भी अगर सार्वजनिक चर्चा में ऐसी बात आ रही है, तो क्रिकेटरों को समझना चाहिए कि उनके ताजा आचरण से कैसा माहौल बन रहा है। क्या क्रिकेट और खुद अपनी छवि खराब करने के लिए भारत के क्रिकेट स्टार खुद जिम्मेदार नहीं है?
यह तय है कि अगर बीसीसीआई इस विवाद में अपने क्रिकेटरों की मांग को सरंक्षण देती रही तो आखिरकार आईसीसी को वाडा से हटना पड़ेगा और इसके साथ ही क्रिकेट के ओलिंपिक आंदोलन का हिस्सा बनने के सपने का भी अंत हो जाएगा। इसका परिणाम यह होगा कि अगले साल चीन में होने वाले एशियाई खेल से क्रिकेट बाहर हो जाएगा, जबकि बड़ी मुश्किल से इसे यहां जगह मिल सकी थी। लेकिन इससे शायद बीसीसीआई को कोई फर्क न पड़े, क्योंकि वैसे भी क्रिकेट उसके लिए खेल कम, कारोबार ज्यादा है। यह भी मुमकिन है कि भारत के स्टार क्रिकेटर इससे राहत ही महसूस करें, क्योंकि आखिर एशियाई खेलों या ओलिंपिक में खेलने पर मोटी रकम नहीं मिलती। वहां देश की नुमाइंदगी ही सबसे बड़ा इनाम और गौरव की बात होती है। जबकि ताजा मामले से यही जाहिर होता कि स्टार क्रिकेटरों और बीसीसीआई की सोच में अगर कोई बात सबसे आखिर में आती है, तो वह देश है। उनके व्यवहार ने खेल जगत में भारत की प्रतिष्ठा को गहरी चोट पहुंचाई है। यही वजह है कि देश का जनमत उनकी अनुचित मांग के साथ नहीं है। अगर इस संदेश को वे समझ लें तो इसी में क्रिकेट का और आखिर उनका भी भला है।
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अधिकारियों को आठ साल पहले यह बात समझ में आई कि सफल क्रिकेटरों के लिए इस देश में बेहद दीवानगी है, इसलिए अगर अपना कारोबार ठीक से चलाना है, तो बेहतर है कि हर हाल में उनका समर्थन किया जाए। तब भारतीय क्रिकेट टीम दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर थी और मैच रेफरी माइक डेनिस ने सतही वजहों के आधार पर कई भारतीय क्रिकेटरों पर एक मैच की पाबंदी लगा दी थी। भारतीय क्रिकेट प्रेमियों में इसके खिलाफ जोरदार भावना भड़़की। बीसीसीआई ने कड़ा रुख अपनाया और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) को झुकना पड़ा। भारत ने अगले टेस्ट में सभी प्रतिबंधित खिलाड़ियों को अपनी टीम में शामिल किया और वो मैच खेला गया, हालांकि बीसीसीआई से हुए अंदरूनी समझौते के तहत उस मैच को आधिकारिक टेस्ट के रूप में मान्यता नहीं दी गई। दूसरी तरफ माइक डेनिस का नाम ऐसा कटा कि आईसीसी के अधिकारियों में उनका आज तक अता-पता नहीं है।
सन् २००३ के विश्व कप से पहले लोगो का विवाद उठा। आईसीसी ने करार किया था कि विश्व कप के आधिकारिक प्रयोजकों की प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के लोगो विश्व कप में भाग लेने वाले खिलाड़ी उस आयोजन के दौरान नहीं पहनेंगे। भारतीय क्रिकेट सितारों के आर्थिक हितों पर इससे चोट पहुंच रही थी और उन्होंने इस करार पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया। इस मुद्दे को खिलाड़ियों से भेदभाव और आईसीसी के लालच की मिसाल बताया गया। हालांकि ऐसे करार फुटबॉल वगैरह के विश्व कप में आम रहे हैं, लेकिन यहां बीसीसीआई फिर खिलाड़ियों के पक्ष में खड़ी हुई। इसके बावजूद कि आईसीसी ने जब करार किया था, तब बीसीसीआई की उस पर सहमति थी। तो बीसीसीआई का पलटा सिक्का एक बार फिर चला और आईसीसी के लालच पर भारतीय क्रिकेट सितारों के लालच की जीत हुई।
भज्जी-सायमंड्स विवाद में एक बार फिर बीसीसीआई का दबदबा देखने को मिला। क्रिकेट और राष्ट्रवाद के जुनून में नस्लभेद रोकने के नियमों और अनुशासन की बलि चढ़ गई। हरभजन सिंह हीरो बन कर उभरे और जब तक आईपीएल-एक के एक मैच के दौरान उन्होंने श्रीशांत को थप्पड़ नहीं मारा, उनका यह रुतबा बना रहा।
रुझान यह सामने आया कि जहां भी आर्थिक हितों पर चोट या अहंकार से जुड़ा कोई मुद्दा सामने आता है, भारत के सफल और संपन्न क्रिकेटर खुद को खेल और सर्वमान्य नियमों से ऊपर जताने लगते हैं। तब बीसीसीआई को इसमें ही अपना भला दिखता है कि उनकी हर तार्किक और अतार्किक मांग का समर्थन किया जाए। आखिर बीसीसीआई में अक्सर ऐसे लोग नहीं आते, जिनका खेल से लगाव हो, जो एक स्वस्थ विश्व खेल संस्कृति विकसित करने के प्रति निष्ठावान हों, और आधुनिक नजरिया रखते हों। वहां ज्यादातर हस्तियां धन और राजनीतिक ताकत के जरिए पहुंचती हैं। ऐसे में इस संस्था के व्यवहार में नव-धनिक सामंती अक्खड़पन जाहिर होना स्वाभाविक ही है। बीसीसीआई के महारथियों को यही लगता है कि खिलाड़ियों पर अनुशासन लागू करने से देश के क्रिकेट प्रेमी नाराज होंगे और ऐसे में खुद उनके खिलाफ माहौल बन सकता है।
संभवतः इसलिए वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) के नए नियमों से जुड़े विवाद पर भी बीसीसीआई ने खेल के बजाय खिलाड़ियों की जिद का साथ देना ही पसंद किया है। लेकिन इस बार शायद यह बाजी उलटी पड़े। इस सवाल पर क्रिकेट प्रेमियों में क्रिकेट सितारों के समर्थन के लिए वैसा उत्साह नहीं है, जैसा पहले के मौकों पर देखा गया था। उलटे भारत सरकार ने बीसीसीआई के नजरिए से अलग रुख लिया है, मेनस्ट्रीम मीडिया मोटे तौर पर वाडा के नियमों के पक्ष में है, और दूसरे खेलों के सितारों ने क्रिकेटरों और क्रिकेट बोर्ड को कठघरे में खड़ा कर दिया है।
अभिनव बिंद्रा की उपलब्धि किसी सचिन तेंदुलकर से कम नहीं है, ना ही साइना नेहवाल किसी महेंद्र सिंह धोनी से कम प्रतिभाशाली हैं, या सानिया मिर्जा किसी युवराज सिंह से कम ग्लैमरस हैं। लेकिन इन सबको वाडा के नियमों से कोई शिकायत नहीं है। इसलिए कि वे अपने को खेल से ऊपर नहीं मानते। वे दुनिया में तय मानदंडों के मुताबिक खेलते हैं और ओलिंपिक भावना के मुताबिक अपने हुनर और क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। बतौर टीम खेल फुटबॉल की लोकप्रियता का दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है। क्रिश्चियानो रोनाल्डो, काका और लियोनेल मेसी जैसे फुटबॉलरों की कीमत और ग्लैमर के आगे आखिर कौन क्रिकेटर टिक पाएगा? इसके बावजूद शुरुआती एतराज के बावजूद फीफा ने वाडा से करार कर लिया है और ये सभी फुटबॉलर अब वाडा के नियमों का पालन कर रहे हैं। मगर भारत के ११ क्रिकेटर जैसे दुनिया के हर नियम से ऊपर हैं!
कुछ अखबारों ने यह सवाल उठाया है कि क्या भारतीय क्रिकेटर इसलिए न खेलने के दिनों का अपना पता नहीं बताना चाहते, क्योंकि उनमें से कई पेज थ्री पार्टियों के नियमित भागीदार होते हैं, जहां आरोप है कि कोकीन और चरस जैसी नशीली दवाओं का सेवन आम बात है। अगर ऐसी बातों में दम नहीं हो, तब भी अगर सार्वजनिक चर्चा में ऐसी बात आ रही है, तो क्रिकेटरों को समझना चाहिए कि उनके ताजा आचरण से कैसा माहौल बन रहा है। क्या क्रिकेट और खुद अपनी छवि खराब करने के लिए भारत के क्रिकेट स्टार खुद जिम्मेदार नहीं है?
यह तय है कि अगर बीसीसीआई इस विवाद में अपने क्रिकेटरों की मांग को सरंक्षण देती रही तो आखिरकार आईसीसी को वाडा से हटना पड़ेगा और इसके साथ ही क्रिकेट के ओलिंपिक आंदोलन का हिस्सा बनने के सपने का भी अंत हो जाएगा। इसका परिणाम यह होगा कि अगले साल चीन में होने वाले एशियाई खेल से क्रिकेट बाहर हो जाएगा, जबकि बड़ी मुश्किल से इसे यहां जगह मिल सकी थी। लेकिन इससे शायद बीसीसीआई को कोई फर्क न पड़े, क्योंकि वैसे भी क्रिकेट उसके लिए खेल कम, कारोबार ज्यादा है। यह भी मुमकिन है कि भारत के स्टार क्रिकेटर इससे राहत ही महसूस करें, क्योंकि आखिर एशियाई खेलों या ओलिंपिक में खेलने पर मोटी रकम नहीं मिलती। वहां देश की नुमाइंदगी ही सबसे बड़ा इनाम और गौरव की बात होती है। जबकि ताजा मामले से यही जाहिर होता कि स्टार क्रिकेटरों और बीसीसीआई की सोच में अगर कोई बात सबसे आखिर में आती है, तो वह देश है। उनके व्यवहार ने खेल जगत में भारत की प्रतिष्ठा को गहरी चोट पहुंचाई है। यही वजह है कि देश का जनमत उनकी अनुचित मांग के साथ नहीं है। अगर इस संदेश को वे समझ लें तो इसी में क्रिकेट का और आखिर उनका भी भला है।
कैसे होगा भाजपा का भला?
सत्येंद्र रंजन
भारतीय जनता पार्टी के सामने चिंतन के कई कठिन प्रश्न हैं। शिमला में १७ अगस्त से होने वाली चिंतन बैठक में पार्टी के बड़े नेता अगर एक दूसरे की जड़ें काटने में ही न लगे रहे, तो उन्हें इन प्रश्नों से उलझना होगा। उनके सामने सबसे बड़ा सवाल शायद यही है कि आखिर भाजपा अब क्यों उतने लोगों के मन पर राज नहीं कर पा रही है, जैसा वह १९९० के दशक में कर रही थी?
बात आगे बढ़ाने से पहले यह साफ कर लेना उचित होगा कि इस लेख का आशय यह कतई नहीं है कि भाजपा एक संभावनाविहीन पार्टी हो गई है। बल्कि स्थिति इसके विपरीत है। देश की इस वक्त जैसी राजनीतिक बनावट है, उसे देखते हुए यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले लंबे समय तक भाजपा एक मजबूत ताकत बनी रहेगी। जिस पार्टी को अभी हाल में ही राष्ट्रीय स्तर पर १८ फीसदी से ऊपर वोट मिले हों, जिसके पास लोकसभा में सौ से ऊपर सीटें हों और जो कई राज्यों में सत्ता में हो, उसकी संभावनाओं को ऐसे ही खारिज नहीं किया जा सकता। दरअसल, आज भी कई पहलू भाजपा के पक्ष में हैं। अनेक राज्यों (मसलन- गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, झारखंड, दिल्ली आदि) में भाजपा लगातार राजनीति की एक धुरी बनी हुई है। इसके अलावा कई दूसरे राज्यों (मसलन- महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब आदि) में अपने सहयोगी दलों के साथ वह राजनीति की एक धुरी है। इन राज्यों में वह सत्ताधारी या मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में है, यानी मतदाताओं के सामने वह एक सहज विकल्प है।
राजनीतिक दलों की प्रासंगिकता इस बात से तय होती है कि वे किन आर्थिक हितों, सामाजिक वर्गों और सांस्कृतिक मान्यताओं की नुमाइंदगी करते हैं। भाजपा ने पिछले दो दशक में इन तीनों ही कसौटियों पर अपने लिए एक निश्चित आधार तैयार किया है। वह धुर दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों की समर्थक, सामाजिक इंजीनियरिंग के साथ सवर्णवादी ढांचे की रक्षक, और रूढ़िवादी एवं धार्मिक बहुसंख्यक वर्चस्ववादी नीतियों की वकील के रूप में आज हमारे सामने है। ये तीनों पहलू कई स्तरों पर कई जन समुदायों को आकर्षित करते हैं। ये मोटे तौर पर वैसे जन समुदाय हैं, जिनकी व्यवस्था पर मजबूत पकड़ है। जाहिर है, ये एक मजबूत वोट आधार का निर्माण करते हैं। जब ऐसा समर्थक आधार किसी पार्टी के साथ हो, तो उसे अप्रासंगिक मानने का कोई वस्तुगत कारण नहीं है। इसलिए भाजपा के सामने अस्तित्व का संकट नहीं है। एक मजबूत और मुखर राजनीतिक पार्टी के रूप में उसकी हैसियत आने वाले कई वर्षों तक सुरक्षित है, यह बात निसंदेह कही जा सकती है।
असल में भाजपा मुश्किलें इससे अलग हैं। अगर इसे सहज भाषा और एक वाक्य में कहा जाए तो भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसने अपने कट्टर समर्थक आधार समूहों से बाहर के लोगों को आकर्षित करने की क्षमता खो दी है। इसकी एक बड़ी वजह पार्टी नेताओं की साख में आई कमी है। छह साल केंद्र की सत्ता में रहते हुए भाजपा नेताओं ने जैसा ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ दिखाया, उससे ‘सबसे अलग’ पार्टी होने का उनका दावा खोखला साबित हो गया। नतीजा यह है कि जिन मुद्दों पर भाजपा अब आक्रामक होती है, वे अब आम लोगों को अहम नहीं लगते। अगर मुद्दे उन्हें सही लगें, तब भी उन्हें यही लगता है कि भाजपा का यह महज एक राजनीतिक दांव है। भाजपा का उठान किसी वैकल्पिक आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम के आधार पर नहीं हुआ था। यह कुछ ऐसे मुद्दों पर था, जिनके जरिए तब उसने बाकी दलों को रक्षात्मक रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया था।
ऐसा होने की राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी सिद्धांत पर लगातार समझौता करने और भाजपा का राजनीतिक ग्राफ बढ़ने के बीच सीधे संबंध की तलाश की जा सकती है। अगर १९८०-९० के दशकों में कांग्रेस में लगातार बढ़ते दक्षिणपंथी रुझानों और गैर कांग्रेस- गैर भाजपा दलों में बिखराव एवं उनके सिकुड़ने को भी शामिल कर लिया जाए, तो उस दौर की परिघटनाओं को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। कांग्रेस १९८० के दशक में साफ तौर पर बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं उभार कर उसका राजनीतिक फायदा उठाने की रणनीति पर चल रही थी। पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद को पहले बढ़ावा देने और फिर उसे कुचलने, सिख विरोधी दंगे, बाबरी मस्जिद- राम जन्मभूमि मंदिर का ताला खुलवाने, विश्व हिंदू परिषद के ईंट पूजन अभियान को परोक्ष इजाजत देने, दूरदर्शन पर धार्मिक सीरियलों को बढ़ावा देने, आदि जैसी कुछ मिसालों का यहां इस सिलसिले में जिक्र किया जा सकता है। कांग्रेस तब शायद यह नहीं समझ पा रही थी वह अपनी स्वाभाविक राजनीति नहीं कर रही है। बल्कि वह इन मुद्दों को हवा देकर ऐसा वोट आधार तैयार कर रही है, जो आखिरकार इस राजनीति के स्वाभाविक वारिस के पास चला जाएगा। बहुसंख्यकवाद की इस राजनीति को संतुलित करने की कोशिश में जब राजीव गांधी सरकार ने शाह बानो मामले में मुस्लिम कट्टरपंथ के सामने समर्पण किया, तो इससे इस बात का रास्ता साफ हो गया।
भाजपा ने छद्म धर्मनिपरेक्षता को एक मुद्दे के रूप में उठाया, तो लोगों को इसमें दम नजर आया। जब धर्मनिरपेक्षता को एक राजनीतिक मूल्य के रूप में देश में स्थापित करने में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली कांग्रेस खुलेआम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के कार्ड खेलती दिख रही थी, तब लोग यह सुनने को सहज तैयार थे कि धर्मनिरपेक्षता कुछ और नहीं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति की एक चाल है। इस माहौल में भाजपा के लिए अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण और हिंदुओं से भेदभाव की बात को हिंदुओं के बड़े हिस्से, खासकर मध्य वर्ग के मन में बैठा देना आसान था। इमरजेंसी कांग्रेस की लोकतांत्रिक साख को पहले ही प्रभावित कर चुकी थी। राजीव गांधी और फिर पीवी नरसिंह राव के जमाने में ऊंचे स्तरों पर लगे भ्रष्टाचार के दाग ने कांग्रेस के विकल्प की तलाश के लिए लोगों की बेचैनी और बढ़ा दी थी।
जनता दल जैसी मध्यमार्गी पार्टियों में जब तक विकल्प की संभावना नजर आई, लोगों ने उन्हें आजमाया। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की नाकामी ने मध्यमार्गी दलों की छवि खराब कर दी। भाजपा से सहयोग के पिछले रिकॉर्ड से धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर उनकी साख पहले ही प्रभावित हो चुकी थी। ऐसे में भाजपा बड़ी आसानी से इन तमाम दलों को छद्म धर्मनिरपेक्ष जमात के रूप में पेश करने में सफल रही। मध्य वर्ग का समर्थन मिलने का लाभ यह हुआ कि मीडिया और दूसरे सार्वजनिक मंचों पर भाजपा और उसकी विचारधारा को स्वीकृति मिलती गई। साथ ही इससे भाजपा को स्वाभाविक विकल्प और सबसे अलग पार्टी के रूप में पेश करने के लिए चतुराई से तैयार किए गए प्रचार अभियान को भी ताकत मिली। इस अभियान में भाजपा की शायद सबसे बड़ी थाती थे, उसके दो नेता- अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी। दो ऐसे नेता, जिसे तब की तमाम पीढ़ियां दशकों से जानती थीं और इमरजेंसी के बाद हुए जनता पार्टी जैसे प्रयोग ने जिन्हें राष्ट्रीय छवि प्रदान कर दी थी।
इसी पृष्ठभूमि ने १९९० के दशक के उत्तरार्द्ध में भाजपा को देश की प्रमुख राजनीतिक धुरी बना दिया। गैर-कांग्रेसवाद उस वक्त तक एक मजबूत रुझान था, जिसकी वजह से भाजपा को एक विशाल गठबंधन बनाने में मदद मिली। इस परिघटना से भाजपा को सत्ता मिली। लेकिन उसके छह साल के शासनकाल के अनुभव ने देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण की दूसरी परिघटनाएं शुरू कर दीं। प्रशासन में चौतरफा नाकामी, आम आदमी विरोधी आर्थिक नीतियों, भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे क्षेत्र में देश को निर्णायक नेतृत्व दे पाने में विफलता, आदि ने भाजपा के दावों की हकीकत से देश को वाकिफ करा दिया। उग्र हिंदुत्ववादी राजनीति से इन तमाम विफलताओं को नहीं ढका जा सकता था। इस दौर ने १९६० के दशक से भारतीय राजनीति में चले आ रहे गैर-कांग्रेसवाद को अप्रासंगिक कर दिया। नतीजतन समाज के वंचित तबकों, अल्पसंख्यकों और प्रगतिशील समूहों में एक अदृश्य गठबंधन बना और २००४ के आम चुनाव में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई।
उसके बाद से कांग्रेस ने अपना पुनरुद्धार किया है। पार्टी ने आम आदमी से अपने तार जोड़ने की फिर कोशिश की है। वह अगर धर्मनिरपेक्षता के पक्ष बेलाग ढंग से खड़ी नहीं हुई है, तो कम से कम उसने पहले जैसे समझौते भी नहीं किए हैं। दरअसल, कांग्रेस अपनी सोशल डेमोक्रिटिक (सामाजिक जनतांत्रिक) पहचान को वापस पाने की गंभीर कोशिश करती दिखी है। साथ ही सर्वोच्च नेतृत्व के स्तर पर अपनी अपेक्षाकृत बेहतर साख एवं बेहतरीन तालमेल से सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की जोड़ी लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रही है। इससे कांग्रेस भले पहले जैसी सर्वव्यापी पार्टी के रूप में न उभरी हो, लेकिन वह राजनीति की ऐसी मजबूत धुरी जरूर बन गई है, जो एक स्थिर सरकार का नेतृत्व कर सके।
दूसरी तरफ भाजपा केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद से लगातार भ्रमों और आपसी झगड़े का शिकार दिखी है। हिंदुत्व की राजनीति उसके लिए फायदेमंद है या नहीं, २००९ के आम चुनाव के बाद से उसके भीतर यह बुनियादी सवाल खड़ा हो गया है। यह सवाल भी एक गहरे आत्मनिरीक्षण के बजाय नेताओं द्वारा एक दूसरे पर हमला बोलने के मकसद से ज्यादा उठाया गया है। बहरहाल, यह तो तय है कि भाजपा हिंदुत्व की राजनीति से नहीं हट सकती। अगर वह ऐसा करती है, तो उसके सामने सचमुच अस्तिव का संकट खड़ा हो सकता है। यही पार्टी के सामने सबसे बड़ी दुविधा है। जो राजनीति अभी वह कर रही है, वह एक सीमित दायरे के बाहर के लोगों को खींच नहीं पा रही है। अगर यह राजनीति वह छोड़ती है, तो जो लोग साथ हैं, उनके भी साथ छोड़ जाने की आशंका है।
सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की जोड़ी मध्य वर्ग की कल्पनाओं को बेहतर ढंग से अपनी तरफ खींच रही है। इससे भाजपा का वह आधार खिसक रहा है, जो कांग्रेस में नेतृत्व के संकट से उसकी तरफ आया था। असल में अब नेतृत्व का संकट भाजपा के सामने है। अटल-आडवाणी की जोड़ी के बाद अखिल भारतीय छवि का कोई नेता पार्टी के पास नहीं है। ऐसा नेता, जिसे पीढ़ियां जानती रही हों और मतभेदों के बावजूद बतौर नेता जिसकी सहज स्वीकृति बन जाए। पार्टी के पास फिलहाल ऐसा युवा नेता भी नजर नहीं आता, जो अपने और पार्टी के प्रति देश के एक बड़े तबके में नया जोश पैदा कर पाए। बराक ओबामा जैसे नेता की बात छोड़िए, पार्टी के पास क्या आज कोई ऐसी सोनिया गांधी जैसी नेता भी है, जिसकी छवि के साथ त्याग, व्यापक हित और सार्वजनिक मर्यादा जैसी बातें जुड़ी हुई हों?
आतंकवाद जैसे मुद्दे पर भी अगर लोग भाजपा से ज्यादा कांग्रेस पर भरोसा कर रहे हों, तो भाजपा के सामने कितने मुश्किल सवाल हैं, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जिन राजनीतिक परिस्थितियों में भाजपा का उभार हुआ, उनके फिर से पैदा होने की फिलहाल कम ही संभावनाएं नजर आती हैं। साफ है कि कांग्रेस ने अपनी पिछली गलतियों से सबक लिया है। देश के मतदाताओं ने भाजपा के छह साल के शासन से सबक लिया है। वे अब कांग्रेस को सजा देने के उतावलेपन में भाजपा को गले लगाने की गलती फिर से शायद ही करें। इन परिघटनाओं से देश का राजनीतिक विमर्श बदल गया है। आज लोग अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसी बातों से उद्वेलित नहीं हो रहे हैं। बल्कि अब आम जन की रोजमर्रा की समस्याएं और विकास एवं प्रगति से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय एजेंडे पर ऊपर हो गए हैं।
ऐसे में अर्थशास्त्र में जिसे डिमिनिशिंग रिटर्न (यानी घटते मुनाफे) का सिद्धांत कहा जाता है, वह भाजपा के प्रिय मुद्दों पर लागू होते साफ तौर पर दिखा है। यानी जैसे काठ की हाड़ी बार-बार नहीं चढ़ती, वैसा ही भाजपा के उठाए मुद्दों के साथ अब हो रहा है। तो अब सवाल है कि भाजपा कहां से और कौन से नए मुद्दे लाए? अगर भाजपा के पास सबको लुभाने वाला कोई राजनीतिक प्लैटफॉर्म है और उसके पास आम जन के मन में भरोसा पैदा करने वाले नेता नहीं हैं, तो पार्टी देश की प्रमुख राजनीतिक धुरी फिर से बनने की बात आखिर कैसे सोच सकती है? अगर पार्टी नेता इन सवालों का जवाब ढूंढ कर नहीं ला सके, तो चिंतन बैठक एक विफल प्रयास ही माना जाएगा।
भारतीय जनता पार्टी के सामने चिंतन के कई कठिन प्रश्न हैं। शिमला में १७ अगस्त से होने वाली चिंतन बैठक में पार्टी के बड़े नेता अगर एक दूसरे की जड़ें काटने में ही न लगे रहे, तो उन्हें इन प्रश्नों से उलझना होगा। उनके सामने सबसे बड़ा सवाल शायद यही है कि आखिर भाजपा अब क्यों उतने लोगों के मन पर राज नहीं कर पा रही है, जैसा वह १९९० के दशक में कर रही थी?
बात आगे बढ़ाने से पहले यह साफ कर लेना उचित होगा कि इस लेख का आशय यह कतई नहीं है कि भाजपा एक संभावनाविहीन पार्टी हो गई है। बल्कि स्थिति इसके विपरीत है। देश की इस वक्त जैसी राजनीतिक बनावट है, उसे देखते हुए यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले लंबे समय तक भाजपा एक मजबूत ताकत बनी रहेगी। जिस पार्टी को अभी हाल में ही राष्ट्रीय स्तर पर १८ फीसदी से ऊपर वोट मिले हों, जिसके पास लोकसभा में सौ से ऊपर सीटें हों और जो कई राज्यों में सत्ता में हो, उसकी संभावनाओं को ऐसे ही खारिज नहीं किया जा सकता। दरअसल, आज भी कई पहलू भाजपा के पक्ष में हैं। अनेक राज्यों (मसलन- गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, झारखंड, दिल्ली आदि) में भाजपा लगातार राजनीति की एक धुरी बनी हुई है। इसके अलावा कई दूसरे राज्यों (मसलन- महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब आदि) में अपने सहयोगी दलों के साथ वह राजनीति की एक धुरी है। इन राज्यों में वह सत्ताधारी या मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में है, यानी मतदाताओं के सामने वह एक सहज विकल्प है।
राजनीतिक दलों की प्रासंगिकता इस बात से तय होती है कि वे किन आर्थिक हितों, सामाजिक वर्गों और सांस्कृतिक मान्यताओं की नुमाइंदगी करते हैं। भाजपा ने पिछले दो दशक में इन तीनों ही कसौटियों पर अपने लिए एक निश्चित आधार तैयार किया है। वह धुर दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों की समर्थक, सामाजिक इंजीनियरिंग के साथ सवर्णवादी ढांचे की रक्षक, और रूढ़िवादी एवं धार्मिक बहुसंख्यक वर्चस्ववादी नीतियों की वकील के रूप में आज हमारे सामने है। ये तीनों पहलू कई स्तरों पर कई जन समुदायों को आकर्षित करते हैं। ये मोटे तौर पर वैसे जन समुदाय हैं, जिनकी व्यवस्था पर मजबूत पकड़ है। जाहिर है, ये एक मजबूत वोट आधार का निर्माण करते हैं। जब ऐसा समर्थक आधार किसी पार्टी के साथ हो, तो उसे अप्रासंगिक मानने का कोई वस्तुगत कारण नहीं है। इसलिए भाजपा के सामने अस्तित्व का संकट नहीं है। एक मजबूत और मुखर राजनीतिक पार्टी के रूप में उसकी हैसियत आने वाले कई वर्षों तक सुरक्षित है, यह बात निसंदेह कही जा सकती है।
असल में भाजपा मुश्किलें इससे अलग हैं। अगर इसे सहज भाषा और एक वाक्य में कहा जाए तो भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसने अपने कट्टर समर्थक आधार समूहों से बाहर के लोगों को आकर्षित करने की क्षमता खो दी है। इसकी एक बड़ी वजह पार्टी नेताओं की साख में आई कमी है। छह साल केंद्र की सत्ता में रहते हुए भाजपा नेताओं ने जैसा ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ दिखाया, उससे ‘सबसे अलग’ पार्टी होने का उनका दावा खोखला साबित हो गया। नतीजा यह है कि जिन मुद्दों पर भाजपा अब आक्रामक होती है, वे अब आम लोगों को अहम नहीं लगते। अगर मुद्दे उन्हें सही लगें, तब भी उन्हें यही लगता है कि भाजपा का यह महज एक राजनीतिक दांव है। भाजपा का उठान किसी वैकल्पिक आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम के आधार पर नहीं हुआ था। यह कुछ ऐसे मुद्दों पर था, जिनके जरिए तब उसने बाकी दलों को रक्षात्मक रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया था।
ऐसा होने की राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी सिद्धांत पर लगातार समझौता करने और भाजपा का राजनीतिक ग्राफ बढ़ने के बीच सीधे संबंध की तलाश की जा सकती है। अगर १९८०-९० के दशकों में कांग्रेस में लगातार बढ़ते दक्षिणपंथी रुझानों और गैर कांग्रेस- गैर भाजपा दलों में बिखराव एवं उनके सिकुड़ने को भी शामिल कर लिया जाए, तो उस दौर की परिघटनाओं को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। कांग्रेस १९८० के दशक में साफ तौर पर बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं उभार कर उसका राजनीतिक फायदा उठाने की रणनीति पर चल रही थी। पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद को पहले बढ़ावा देने और फिर उसे कुचलने, सिख विरोधी दंगे, बाबरी मस्जिद- राम जन्मभूमि मंदिर का ताला खुलवाने, विश्व हिंदू परिषद के ईंट पूजन अभियान को परोक्ष इजाजत देने, दूरदर्शन पर धार्मिक सीरियलों को बढ़ावा देने, आदि जैसी कुछ मिसालों का यहां इस सिलसिले में जिक्र किया जा सकता है। कांग्रेस तब शायद यह नहीं समझ पा रही थी वह अपनी स्वाभाविक राजनीति नहीं कर रही है। बल्कि वह इन मुद्दों को हवा देकर ऐसा वोट आधार तैयार कर रही है, जो आखिरकार इस राजनीति के स्वाभाविक वारिस के पास चला जाएगा। बहुसंख्यकवाद की इस राजनीति को संतुलित करने की कोशिश में जब राजीव गांधी सरकार ने शाह बानो मामले में मुस्लिम कट्टरपंथ के सामने समर्पण किया, तो इससे इस बात का रास्ता साफ हो गया।
भाजपा ने छद्म धर्मनिपरेक्षता को एक मुद्दे के रूप में उठाया, तो लोगों को इसमें दम नजर आया। जब धर्मनिरपेक्षता को एक राजनीतिक मूल्य के रूप में देश में स्थापित करने में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली कांग्रेस खुलेआम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के कार्ड खेलती दिख रही थी, तब लोग यह सुनने को सहज तैयार थे कि धर्मनिरपेक्षता कुछ और नहीं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति की एक चाल है। इस माहौल में भाजपा के लिए अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण और हिंदुओं से भेदभाव की बात को हिंदुओं के बड़े हिस्से, खासकर मध्य वर्ग के मन में बैठा देना आसान था। इमरजेंसी कांग्रेस की लोकतांत्रिक साख को पहले ही प्रभावित कर चुकी थी। राजीव गांधी और फिर पीवी नरसिंह राव के जमाने में ऊंचे स्तरों पर लगे भ्रष्टाचार के दाग ने कांग्रेस के विकल्प की तलाश के लिए लोगों की बेचैनी और बढ़ा दी थी।
जनता दल जैसी मध्यमार्गी पार्टियों में जब तक विकल्प की संभावना नजर आई, लोगों ने उन्हें आजमाया। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की नाकामी ने मध्यमार्गी दलों की छवि खराब कर दी। भाजपा से सहयोग के पिछले रिकॉर्ड से धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर उनकी साख पहले ही प्रभावित हो चुकी थी। ऐसे में भाजपा बड़ी आसानी से इन तमाम दलों को छद्म धर्मनिरपेक्ष जमात के रूप में पेश करने में सफल रही। मध्य वर्ग का समर्थन मिलने का लाभ यह हुआ कि मीडिया और दूसरे सार्वजनिक मंचों पर भाजपा और उसकी विचारधारा को स्वीकृति मिलती गई। साथ ही इससे भाजपा को स्वाभाविक विकल्प और सबसे अलग पार्टी के रूप में पेश करने के लिए चतुराई से तैयार किए गए प्रचार अभियान को भी ताकत मिली। इस अभियान में भाजपा की शायद सबसे बड़ी थाती थे, उसके दो नेता- अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी। दो ऐसे नेता, जिसे तब की तमाम पीढ़ियां दशकों से जानती थीं और इमरजेंसी के बाद हुए जनता पार्टी जैसे प्रयोग ने जिन्हें राष्ट्रीय छवि प्रदान कर दी थी।
इसी पृष्ठभूमि ने १९९० के दशक के उत्तरार्द्ध में भाजपा को देश की प्रमुख राजनीतिक धुरी बना दिया। गैर-कांग्रेसवाद उस वक्त तक एक मजबूत रुझान था, जिसकी वजह से भाजपा को एक विशाल गठबंधन बनाने में मदद मिली। इस परिघटना से भाजपा को सत्ता मिली। लेकिन उसके छह साल के शासनकाल के अनुभव ने देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण की दूसरी परिघटनाएं शुरू कर दीं। प्रशासन में चौतरफा नाकामी, आम आदमी विरोधी आर्थिक नीतियों, भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे क्षेत्र में देश को निर्णायक नेतृत्व दे पाने में विफलता, आदि ने भाजपा के दावों की हकीकत से देश को वाकिफ करा दिया। उग्र हिंदुत्ववादी राजनीति से इन तमाम विफलताओं को नहीं ढका जा सकता था। इस दौर ने १९६० के दशक से भारतीय राजनीति में चले आ रहे गैर-कांग्रेसवाद को अप्रासंगिक कर दिया। नतीजतन समाज के वंचित तबकों, अल्पसंख्यकों और प्रगतिशील समूहों में एक अदृश्य गठबंधन बना और २००४ के आम चुनाव में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई।
उसके बाद से कांग्रेस ने अपना पुनरुद्धार किया है। पार्टी ने आम आदमी से अपने तार जोड़ने की फिर कोशिश की है। वह अगर धर्मनिरपेक्षता के पक्ष बेलाग ढंग से खड़ी नहीं हुई है, तो कम से कम उसने पहले जैसे समझौते भी नहीं किए हैं। दरअसल, कांग्रेस अपनी सोशल डेमोक्रिटिक (सामाजिक जनतांत्रिक) पहचान को वापस पाने की गंभीर कोशिश करती दिखी है। साथ ही सर्वोच्च नेतृत्व के स्तर पर अपनी अपेक्षाकृत बेहतर साख एवं बेहतरीन तालमेल से सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की जोड़ी लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रही है। इससे कांग्रेस भले पहले जैसी सर्वव्यापी पार्टी के रूप में न उभरी हो, लेकिन वह राजनीति की ऐसी मजबूत धुरी जरूर बन गई है, जो एक स्थिर सरकार का नेतृत्व कर सके।
दूसरी तरफ भाजपा केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद से लगातार भ्रमों और आपसी झगड़े का शिकार दिखी है। हिंदुत्व की राजनीति उसके लिए फायदेमंद है या नहीं, २००९ के आम चुनाव के बाद से उसके भीतर यह बुनियादी सवाल खड़ा हो गया है। यह सवाल भी एक गहरे आत्मनिरीक्षण के बजाय नेताओं द्वारा एक दूसरे पर हमला बोलने के मकसद से ज्यादा उठाया गया है। बहरहाल, यह तो तय है कि भाजपा हिंदुत्व की राजनीति से नहीं हट सकती। अगर वह ऐसा करती है, तो उसके सामने सचमुच अस्तिव का संकट खड़ा हो सकता है। यही पार्टी के सामने सबसे बड़ी दुविधा है। जो राजनीति अभी वह कर रही है, वह एक सीमित दायरे के बाहर के लोगों को खींच नहीं पा रही है। अगर यह राजनीति वह छोड़ती है, तो जो लोग साथ हैं, उनके भी साथ छोड़ जाने की आशंका है।
सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की जोड़ी मध्य वर्ग की कल्पनाओं को बेहतर ढंग से अपनी तरफ खींच रही है। इससे भाजपा का वह आधार खिसक रहा है, जो कांग्रेस में नेतृत्व के संकट से उसकी तरफ आया था। असल में अब नेतृत्व का संकट भाजपा के सामने है। अटल-आडवाणी की जोड़ी के बाद अखिल भारतीय छवि का कोई नेता पार्टी के पास नहीं है। ऐसा नेता, जिसे पीढ़ियां जानती रही हों और मतभेदों के बावजूद बतौर नेता जिसकी सहज स्वीकृति बन जाए। पार्टी के पास फिलहाल ऐसा युवा नेता भी नजर नहीं आता, जो अपने और पार्टी के प्रति देश के एक बड़े तबके में नया जोश पैदा कर पाए। बराक ओबामा जैसे नेता की बात छोड़िए, पार्टी के पास क्या आज कोई ऐसी सोनिया गांधी जैसी नेता भी है, जिसकी छवि के साथ त्याग, व्यापक हित और सार्वजनिक मर्यादा जैसी बातें जुड़ी हुई हों?
आतंकवाद जैसे मुद्दे पर भी अगर लोग भाजपा से ज्यादा कांग्रेस पर भरोसा कर रहे हों, तो भाजपा के सामने कितने मुश्किल सवाल हैं, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जिन राजनीतिक परिस्थितियों में भाजपा का उभार हुआ, उनके फिर से पैदा होने की फिलहाल कम ही संभावनाएं नजर आती हैं। साफ है कि कांग्रेस ने अपनी पिछली गलतियों से सबक लिया है। देश के मतदाताओं ने भाजपा के छह साल के शासन से सबक लिया है। वे अब कांग्रेस को सजा देने के उतावलेपन में भाजपा को गले लगाने की गलती फिर से शायद ही करें। इन परिघटनाओं से देश का राजनीतिक विमर्श बदल गया है। आज लोग अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसी बातों से उद्वेलित नहीं हो रहे हैं। बल्कि अब आम जन की रोजमर्रा की समस्याएं और विकास एवं प्रगति से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय एजेंडे पर ऊपर हो गए हैं।
ऐसे में अर्थशास्त्र में जिसे डिमिनिशिंग रिटर्न (यानी घटते मुनाफे) का सिद्धांत कहा जाता है, वह भाजपा के प्रिय मुद्दों पर लागू होते साफ तौर पर दिखा है। यानी जैसे काठ की हाड़ी बार-बार नहीं चढ़ती, वैसा ही भाजपा के उठाए मुद्दों के साथ अब हो रहा है। तो अब सवाल है कि भाजपा कहां से और कौन से नए मुद्दे लाए? अगर भाजपा के पास सबको लुभाने वाला कोई राजनीतिक प्लैटफॉर्म है और उसके पास आम जन के मन में भरोसा पैदा करने वाले नेता नहीं हैं, तो पार्टी देश की प्रमुख राजनीतिक धुरी फिर से बनने की बात आखिर कैसे सोच सकती है? अगर पार्टी नेता इन सवालों का जवाब ढूंढ कर नहीं ला सके, तो चिंतन बैठक एक विफल प्रयास ही माना जाएगा।
क्या यह नई कांग्रेस है?
सत्येंद्र रंजन
नई कांग्रेस शब्द नया नहीं है। १९६९ में कांग्रेस के विभाजन के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को इसी नाम से जाना गया था। तब ‘नई’ शब्द के साथ कांग्रेस ने नई उम्मीदंा जगाई थीं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स के खात्मे और गरीबी हटाओ के नारे के साथ इंदिरा गांधी ने देश के सामने वामपंथ की तरफ झुकाव वाला राजनीतिक एजेंडा पेश किया। देश ‘इंदिरा गांधी आई हैं, नई रोशनी लाई हैं’- के नारे से गूंज उठा। इंदिरा गांधी को लोगों का इतना जोरदार समर्थन मिला कि उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस ही ‘असली’ हो गई, जबकि दिग्गज नेताओं से भरी संगठन कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया।
इंदिरा गांधी यह संदेश देने में कामयाब रहीं कि आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू जिस लोकतांत्रिक समाजवाद के रास्ते पर देश को लेकर चले, उनके न रहने के बाद दक्षिणपंथी रुझान वाले नेताओं ने पार्टी को उस राह से भटका दिया है। जानकारों में इस बात पर मतभेद है कि क्या इंदिरा गांधी की सचमुच वामपंथी एजेंडे में कोई निष्ठा थी? बाद के घटनाक्रम ने यही जाहिर किया यह निष्ठा से ज्यादा एक सियासी कार्ड था, जो कामयाब रहा। लेकिन यह सियासी कार्ड एक ठोस तैयारी के साथ खेला गया। यह तो ऐतिहासिक तथ्य है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और इंदिरा गांधी ने ही प्रीवी पर्स को खत्म किया। इसलिए अगर इंदिरा गांधी की वामपंथी छवि पर देश के एक बड़े हिस्से ने भरोसा किया, तो यह महज एक छलावा नहीं था।
आखिर इंदिरा गांधी के साथ इसकी एक विरासत थी। यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि कांग्रेस में दक्षिणपंथी और यथास्थितिवादी ताकतों के जमावड़े के बावजूद जवाहर लाल नेहरू राष्ट्र निर्माण के समाजवादी रास्ते पर पार्टी और पूरे देश को ले चलने में कामयाब रहे थे। नेहरू ने प्रगतिशील और आधुनिक भारत की नींव डाली और इसके लिए उस समय की परिस्थितियों में जो उपलब्ध एवं मान्य साधन थे, उनके जरिए यह कार्य शुरू किया। लोकतंत्र के साथ एक न्यायपूर्ण आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था के विचार को देश में लोकप्रिय बनाने में उन्होंने अति विशिष्ट भूमिका निभाई। धर्मनिरपेक्षता इस सारी परियोजना का एक बुनियादी सिद्धांत था।
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के कथित सिंडिकेट के साथ संघर्ष में इसी विरासत को अपना हथियार बनाया था। चूंकि बीते दशकों में यह विचारधारा सिर्फ नेहरू की नहीं, बल्कि कांग्रेस की विरासत बन चुकी थी, और इसके लिए व्यापक जन स्वीकृति पहले से मौजूद थी, इसलिए इंदिरा गांधी का मजबूत नेता बनकर उभरना कोई संयोग नहीं था। लेकिन क्या अपनी मजबूती का इस्तेमाल उन्होंने इस विरासत को आगे बढ़ाने में किया, यह एक विवादास्पद सवाल है। इतिहास संभवतः उन्हें एक वामपंथी विरासत की नेता के बजाय सत्ता के समीकरणों की माहिर खिलाड़ी के रूप में ज्यादा रखेगा।
१९७५ में इमरजेंसी सत्ता समीकरण की तात्कालिक राजनीतिक मजबूरियों की वजह से ही लागू की गई थी। लेकिन इसे वैधता दिलाने के लिए इंदिरा गांधी २० सूत्री कार्यक्रम के नाम पर एक बार फिर वामपंथी एजेंडे को सामने ले आईं। कहने का मतलब यह कि १९७० के दशक तक कांग्रेस की राजनीति में आम जन की चिंताएं सार्वजनिक रूप से लगातार मुद्दा बनी रहीं, भले व्यवहार में इनके प्रति पार्टी की निष्ठा पर संदेह रहा हो।
लेकिन इसके बाद के दो दशकों में कार्यक्रम और नीतियों के स्तर पर पार्टी अपनी वैचारिक विरासत से भटकने लगी। १९८० के दशक में पहले इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की सरकारों ने हालांकि इसे खुल कर नहीं कहा, लेकिन उनके कदमों से समाजवाद शब्द के प्रति उनकी बेरुखी या उनकी एलर्जी जाहिर होने लगी। धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी सिद्धांत के प्रति उनकी वचनबद्धता भी अक्सर डोलती नजर आई। १९९० के दशक की शुरुआत में पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने इस रुझान को उसकी मंजिल तक पहुंचा दिया। तब तक सोवियत खेमा बिखर चुका था और नव-उदारवाद के पैरोकार ‘इतिहास के खत्म हो जाने’ यानी पूंजीवाद की निर्णायक जीत की घोषणा कर चुके थे। कांग्रेस के नए नेतृत्व ने नेहरूवाद को दफना कर मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को एक विचारधारा के रूप में स्वीकार कर लिया है, यह तब के पार्टी के बयानों और कार्यक्रमों दोनों में साफ झलकता रहा।
इसका परिणाम क्या हुआ? कांग्रेस ने उस वैचारिक आधार को छोड़ दिया, जिसकी वजह से जनता का बहुमत उसके साथ दशकों तक बना रहा था। तो जनता के भी एक बड़े हिस्से ने उसे छोड़ दिया। कांग्रेस जिस दक्षिणपंथ की राह पर चली, देश के राजनीतिक फलक पर उसके उससे बेहतर पैरोकार पहले से मौजूद थे। स्वतंत्र पार्टी ने १९६० दशक में यही विकल्प पेश करते हुए अपनी एक मजबूत उपस्थिति संसद में बनाई थी। भारतीय जनसंघ ने हिंदुत्व के सांप्रदायिक विचार के साथ दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों के आधार पर ही अपनी राजनीतिक विकसित की थी। जनता पार्टी जैसे भ्रामक प्रयोग से गुजरने और कुछ समय तक गांधीवादी समाजवाद से दिखावटी प्रेम करने के बाद वह अपने नए संस्करण में जल्द ही अपने पुराने विचारों पर लौट आई थी।
कांग्रेस नेतृत्व ने १९७० और ८० के दशकों में दबी-पिछड़ी जातियों की उभर रही राजनीतिक आकांक्षाओं का कोई ख्याल नहीं किया। या यह कहा जाए कि उसने अपने को उत्तरोत्तर जनतांत्रिक बनाने की प्रक्रिया रोक दी। १९९० के दशक में सामाजिक और आर्थिक न्याय उसके एजेंडे से गायब हो गए। तो इसमें क्या आश्चर्य है कि जब देश २१वीं सदी में प्रवेश की तैयारी कर रहा था, उन वर्षों में बहुत से राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस की श्रद्धांजलि लिखने की तैयारी कर रहे थे। कांग्रेस क्या मानती है और क्या कर सकती है, उसकी पहचान क्या है, यह किसी के सामने साफ नहीं था। पार्टी एक यथास्थितिवादी जमात लगती थी, जिसे स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ की विरासत को आगे बढ़ा रही भारतीय जनता पार्टी तेजी से राजनीतिक परिदृश्य से बेखल करती जा रही थी। भाजपा नेता तब यह खुलेआम कहते थे कि नेहरूवादी नीतियों की वजह से देश की उद्यम भावना लंबे समय तक अंकुश में रही, इसकी वजह से यह देश अपनी अंतर्निहित संभावनाओं को हासिल नहीं कर सका, और इसकी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। तब कांग्रेस का कोई नेता या सिद्धांतकार इस विचार को सार्वजनिक रूप से चुनौती देता नजर नहीं आता था। ऐसा लगता था कि कांग्रेस किसी अपराध भावना से ग्रस्त है, और उसके नेता यह मानते हैं कि अब जो हो रहा है, वही सही है।
२००४ का आम चुनाव इसी पृष्ठभूमि में हुआ था। कांग्रेस अपने ‘हाथ को आम आदमी के साथ’ रखने के वादे के साथ चुनाव मैदान में जरूर उतरी, लेकिन उसकी इस बात पर शायद ही किसी को भरोसा था। तब उसे चुनावी सफलता सिर्फ इसलिए मिली कि वह भारतीय जनता पार्टी विरोधी गठबंधन का नेतृत्व कर रही थी। भाजपा की सांप्रदायिक, बेलगाम नव-उदारवादी एवं गरीब विरोधी नीतियों से त्रस्त लोगों ने उसे हराने के लिए कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन को एक माध्यम बनाया।
निसंदेह कांग्रेस के लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर था। वह यहां से अपने एक नए अवतार की तलाश शुरू कर सकती थी। २००९ का जनादेश का संदेश शायद यही है कि कांग्रेस ऐसा करने में एक हद कामयाब रही। उसे वामपंथी दलों का वैचारिक एवं कार्यक्रम संबंधी सहारा मिला। इन दलों के दबाव ने कांग्रेस को काफी समय तक भटकाव से रोके रखा। जन आंदोलनों के नेताओं को उसने नीतियों के निर्माण में शामिल किया। इससे जो नीतियां और कार्यक्रम सामने आए, उससे राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श को बदलने में मदद मिली। लंबे समय बाद एक बार फिर देश के सामने प्रगति और विकास के मुद्दे आए।
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, आदिवासी एवं अन्य वनवासी भूमि अधिकार कानून, सूचना का अधिकार कानून, अन्य पिछड़ी जातियों को उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण, किसानों के लिए कर्ज माफी, और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर अमल इस नई दिशा की कुछ मिसालें हैं। देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे की रक्षा के प्रति वचनबद्धता और पाकिस्तान के साथ शांति प्रक्रिया इसी दिशा का विस्तार थीं। स्वाभाविक रूप से इस दौर में यह चर्चा शुरू हुई कि क्या कांग्रेस खुद को नेहरूवादी अतीत से जोड़ रही है और क्या सोनिया गांधी एक नई कांग्रेस की सूत्रधार बनेंगी?
हाल के जनादेश ने यह संभावना और उज्ज्वल कर दी है। यूपीए की दूसरी पारी में मनमोहन सिंह सरकार के मंत्रियों ने १०० दिन का एजेंडा घोषित करने में जो अति उत्साह दिखाया है, वह भले आगे जाकर एक बड़ी निराशा की वजह बने, लेकिन इससे एक सकारात्मक पक्ष जरूर सामने आया है कि कांग्रेस की जुबान पर ‘आम आदमी’ अभी भी बना रहने वाला है। यह रुझान देश की राजनीति में एक नई संभावना खोलता है। इससे इतना तो जाहिर होता ही है कि १९९० के दशक के नकारात्मक दौर पर फिलहाल विराम लग गया है, जब प्रगतिशील ताकतों को सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ गोलबंदी में अपनी पूरी ताकत झोंकनी पड़ रही थी।
इस नए दौर में सरकार की परख उसके जन भलाई के कामकाज, आम आदमी की चिंता के उसके दावे और देश को व्यापक रूप से सकारात्मक दिशा देने की उसकी निष्ठा एवं क्षमता की कसौटियों पर की जा सकती है। इन्हीं बिंदुओं पर सरकार की आलोचना और उसके प्रदर्शन की समीक्षा का अवसर भी देश के सामने है। स्पष्टतः यह स्थिति सामाजिक जनतांत्रिक (सोशल डेमोक्रेटिक) राजनीति के उदय का अवसर प्रदान कर रही है। ऐसे में एक अति महत्त्वपूर्ण एवं प्रासंगिक सवाल यह है कि मुख्यधारा राजनीति में इस वक्त सामाजिक जनतंत्र की पैरोकार ताकतें कौन-सी हैं? क्या वाम मोर्चा इस भूमिका को ले सकने में सक्षम है और क्या उसमें इसकी इच्छाशक्ति है? या क्या जनता दल जैसे प्रयोग की फिर से जमीन बन सकती है?
फिलहाल जो होता दिख रहा है, वह यह कि अपने तमाम अभिजात्यवादी रुझानों और पार्टी में दक्षिणपंथी ताकतों की भरमार के बावजूद कांग्रेस अभी सोशल डेमोक्रेटिक स्पेस को भरने की कोशिश कर रही है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व यह समझ गया है कि चुनावी सफलता का यही फॉर्मूला है। खाद्य सुरक्षा कानून, शिक्षा को बुनियादी अधिकार बनाने की पहल और महिला आरक्षण बिल १०० दिन के भीतर पास कराने की घोषणाएं यही संकेत देती हैं। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह १९८० और ९० के दशक से अलग एक नई कांग्रेस है। किसी विचारधारा की परंपरा से न आने के बावजूद सोनिया गांधी ने अपनी सहज बुद्धि से पार्टी को एक नई राजनीतिक जमीन दे दी है।
बहरहाल, वर्ग चरित्र और मूलभूत स्वभाव पर गौर करें तो यह मानना मुश्किल लगता है कि कांग्रेस सचमुच एक सामाजिक जनतांत्रिक पार्टी बन सकेगी। जिस पार्टी के २०६ में से १४१ सांसद करोड़पति हों, जिसमें मनमोहन सिंह-मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे नव-उदारवाद के प्रतीक चेहरों के हाथ में आर्थिक नीतियों की कमान हो, जिसमें पार्टी के टिकट वंशवाद के आधार पर ही देने की परंपरा मजबूत होती जा रही हो, वह आर्थिक और सामाजिक मामलों में जनतंत्र के विस्तार का औजार बन सकती है, ऐसा भरोसा तमाम राजनीतिक सिद्धांतों और तर्कों के खिलाफ जाकर ही किया जा सकता है।
इसके बावजूद मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात का श्रेय जरूर है कि उसने एक पहचान खो चुकी पार्टी को एक नई प्रासंगिकता दे दी है। इस क्रम में वह देश के राजनीतिक विमर्श की दिशा बदलने में भी सफल रही है, और इसका परिणाम यह है कि आजादी के बाद हासिल उपलब्धियों के खत्म हो जाने की आशंकाओं से फिलहाल देश निकल गया है। चूंकि कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार नव-उदारवाद के दायरे में रहते हुए भी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को व्यवहार में वापस ले आई है, इसलिए प्रगतिशील ताकतों के लिए सामाजिक और आर्थिक दायरे में लोकतंत्र को ज्यादा व्यापक एवं गहरा बनाने की राजनीति करने का रास्ता आसान हो गया है। यह सोनिया गांधी के नेतृत्व का एक बड़ा योगदान है। इस नेतृत्व ने सचमुच कांग्रेस का एक नया कलेवर पेश किया है, जिसे आज की पीढ़ी उम्मीदों के साथ देख रही है, और जिसकी राजनीतिक प्रासंगिकता आज संभवतः पिछले चार दशकों में सबसे ज्यादा साफ है। उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस अगले पांच साल में अपने लिए और बड़ी जमीन की तलाश करेगी और प्रगतिशील राजनीति की संभावनाओं को और ज्यादा मजबूत कर सकेगी।
नई कांग्रेस शब्द नया नहीं है। १९६९ में कांग्रेस के विभाजन के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को इसी नाम से जाना गया था। तब ‘नई’ शब्द के साथ कांग्रेस ने नई उम्मीदंा जगाई थीं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स के खात्मे और गरीबी हटाओ के नारे के साथ इंदिरा गांधी ने देश के सामने वामपंथ की तरफ झुकाव वाला राजनीतिक एजेंडा पेश किया। देश ‘इंदिरा गांधी आई हैं, नई रोशनी लाई हैं’- के नारे से गूंज उठा। इंदिरा गांधी को लोगों का इतना जोरदार समर्थन मिला कि उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस ही ‘असली’ हो गई, जबकि दिग्गज नेताओं से भरी संगठन कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया।
इंदिरा गांधी यह संदेश देने में कामयाब रहीं कि आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू जिस लोकतांत्रिक समाजवाद के रास्ते पर देश को लेकर चले, उनके न रहने के बाद दक्षिणपंथी रुझान वाले नेताओं ने पार्टी को उस राह से भटका दिया है। जानकारों में इस बात पर मतभेद है कि क्या इंदिरा गांधी की सचमुच वामपंथी एजेंडे में कोई निष्ठा थी? बाद के घटनाक्रम ने यही जाहिर किया यह निष्ठा से ज्यादा एक सियासी कार्ड था, जो कामयाब रहा। लेकिन यह सियासी कार्ड एक ठोस तैयारी के साथ खेला गया। यह तो ऐतिहासिक तथ्य है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और इंदिरा गांधी ने ही प्रीवी पर्स को खत्म किया। इसलिए अगर इंदिरा गांधी की वामपंथी छवि पर देश के एक बड़े हिस्से ने भरोसा किया, तो यह महज एक छलावा नहीं था।
आखिर इंदिरा गांधी के साथ इसकी एक विरासत थी। यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि कांग्रेस में दक्षिणपंथी और यथास्थितिवादी ताकतों के जमावड़े के बावजूद जवाहर लाल नेहरू राष्ट्र निर्माण के समाजवादी रास्ते पर पार्टी और पूरे देश को ले चलने में कामयाब रहे थे। नेहरू ने प्रगतिशील और आधुनिक भारत की नींव डाली और इसके लिए उस समय की परिस्थितियों में जो उपलब्ध एवं मान्य साधन थे, उनके जरिए यह कार्य शुरू किया। लोकतंत्र के साथ एक न्यायपूर्ण आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था के विचार को देश में लोकप्रिय बनाने में उन्होंने अति विशिष्ट भूमिका निभाई। धर्मनिरपेक्षता इस सारी परियोजना का एक बुनियादी सिद्धांत था।
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के कथित सिंडिकेट के साथ संघर्ष में इसी विरासत को अपना हथियार बनाया था। चूंकि बीते दशकों में यह विचारधारा सिर्फ नेहरू की नहीं, बल्कि कांग्रेस की विरासत बन चुकी थी, और इसके लिए व्यापक जन स्वीकृति पहले से मौजूद थी, इसलिए इंदिरा गांधी का मजबूत नेता बनकर उभरना कोई संयोग नहीं था। लेकिन क्या अपनी मजबूती का इस्तेमाल उन्होंने इस विरासत को आगे बढ़ाने में किया, यह एक विवादास्पद सवाल है। इतिहास संभवतः उन्हें एक वामपंथी विरासत की नेता के बजाय सत्ता के समीकरणों की माहिर खिलाड़ी के रूप में ज्यादा रखेगा।
१९७५ में इमरजेंसी सत्ता समीकरण की तात्कालिक राजनीतिक मजबूरियों की वजह से ही लागू की गई थी। लेकिन इसे वैधता दिलाने के लिए इंदिरा गांधी २० सूत्री कार्यक्रम के नाम पर एक बार फिर वामपंथी एजेंडे को सामने ले आईं। कहने का मतलब यह कि १९७० के दशक तक कांग्रेस की राजनीति में आम जन की चिंताएं सार्वजनिक रूप से लगातार मुद्दा बनी रहीं, भले व्यवहार में इनके प्रति पार्टी की निष्ठा पर संदेह रहा हो।
लेकिन इसके बाद के दो दशकों में कार्यक्रम और नीतियों के स्तर पर पार्टी अपनी वैचारिक विरासत से भटकने लगी। १९८० के दशक में पहले इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की सरकारों ने हालांकि इसे खुल कर नहीं कहा, लेकिन उनके कदमों से समाजवाद शब्द के प्रति उनकी बेरुखी या उनकी एलर्जी जाहिर होने लगी। धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी सिद्धांत के प्रति उनकी वचनबद्धता भी अक्सर डोलती नजर आई। १९९० के दशक की शुरुआत में पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने इस रुझान को उसकी मंजिल तक पहुंचा दिया। तब तक सोवियत खेमा बिखर चुका था और नव-उदारवाद के पैरोकार ‘इतिहास के खत्म हो जाने’ यानी पूंजीवाद की निर्णायक जीत की घोषणा कर चुके थे। कांग्रेस के नए नेतृत्व ने नेहरूवाद को दफना कर मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को एक विचारधारा के रूप में स्वीकार कर लिया है, यह तब के पार्टी के बयानों और कार्यक्रमों दोनों में साफ झलकता रहा।
इसका परिणाम क्या हुआ? कांग्रेस ने उस वैचारिक आधार को छोड़ दिया, जिसकी वजह से जनता का बहुमत उसके साथ दशकों तक बना रहा था। तो जनता के भी एक बड़े हिस्से ने उसे छोड़ दिया। कांग्रेस जिस दक्षिणपंथ की राह पर चली, देश के राजनीतिक फलक पर उसके उससे बेहतर पैरोकार पहले से मौजूद थे। स्वतंत्र पार्टी ने १९६० दशक में यही विकल्प पेश करते हुए अपनी एक मजबूत उपस्थिति संसद में बनाई थी। भारतीय जनसंघ ने हिंदुत्व के सांप्रदायिक विचार के साथ दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों के आधार पर ही अपनी राजनीतिक विकसित की थी। जनता पार्टी जैसे भ्रामक प्रयोग से गुजरने और कुछ समय तक गांधीवादी समाजवाद से दिखावटी प्रेम करने के बाद वह अपने नए संस्करण में जल्द ही अपने पुराने विचारों पर लौट आई थी।
कांग्रेस नेतृत्व ने १९७० और ८० के दशकों में दबी-पिछड़ी जातियों की उभर रही राजनीतिक आकांक्षाओं का कोई ख्याल नहीं किया। या यह कहा जाए कि उसने अपने को उत्तरोत्तर जनतांत्रिक बनाने की प्रक्रिया रोक दी। १९९० के दशक में सामाजिक और आर्थिक न्याय उसके एजेंडे से गायब हो गए। तो इसमें क्या आश्चर्य है कि जब देश २१वीं सदी में प्रवेश की तैयारी कर रहा था, उन वर्षों में बहुत से राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस की श्रद्धांजलि लिखने की तैयारी कर रहे थे। कांग्रेस क्या मानती है और क्या कर सकती है, उसकी पहचान क्या है, यह किसी के सामने साफ नहीं था। पार्टी एक यथास्थितिवादी जमात लगती थी, जिसे स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ की विरासत को आगे बढ़ा रही भारतीय जनता पार्टी तेजी से राजनीतिक परिदृश्य से बेखल करती जा रही थी। भाजपा नेता तब यह खुलेआम कहते थे कि नेहरूवादी नीतियों की वजह से देश की उद्यम भावना लंबे समय तक अंकुश में रही, इसकी वजह से यह देश अपनी अंतर्निहित संभावनाओं को हासिल नहीं कर सका, और इसकी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। तब कांग्रेस का कोई नेता या सिद्धांतकार इस विचार को सार्वजनिक रूप से चुनौती देता नजर नहीं आता था। ऐसा लगता था कि कांग्रेस किसी अपराध भावना से ग्रस्त है, और उसके नेता यह मानते हैं कि अब जो हो रहा है, वही सही है।
२००४ का आम चुनाव इसी पृष्ठभूमि में हुआ था। कांग्रेस अपने ‘हाथ को आम आदमी के साथ’ रखने के वादे के साथ चुनाव मैदान में जरूर उतरी, लेकिन उसकी इस बात पर शायद ही किसी को भरोसा था। तब उसे चुनावी सफलता सिर्फ इसलिए मिली कि वह भारतीय जनता पार्टी विरोधी गठबंधन का नेतृत्व कर रही थी। भाजपा की सांप्रदायिक, बेलगाम नव-उदारवादी एवं गरीब विरोधी नीतियों से त्रस्त लोगों ने उसे हराने के लिए कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन को एक माध्यम बनाया।
निसंदेह कांग्रेस के लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर था। वह यहां से अपने एक नए अवतार की तलाश शुरू कर सकती थी। २००९ का जनादेश का संदेश शायद यही है कि कांग्रेस ऐसा करने में एक हद कामयाब रही। उसे वामपंथी दलों का वैचारिक एवं कार्यक्रम संबंधी सहारा मिला। इन दलों के दबाव ने कांग्रेस को काफी समय तक भटकाव से रोके रखा। जन आंदोलनों के नेताओं को उसने नीतियों के निर्माण में शामिल किया। इससे जो नीतियां और कार्यक्रम सामने आए, उससे राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श को बदलने में मदद मिली। लंबे समय बाद एक बार फिर देश के सामने प्रगति और विकास के मुद्दे आए।
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, आदिवासी एवं अन्य वनवासी भूमि अधिकार कानून, सूचना का अधिकार कानून, अन्य पिछड़ी जातियों को उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण, किसानों के लिए कर्ज माफी, और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर अमल इस नई दिशा की कुछ मिसालें हैं। देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे की रक्षा के प्रति वचनबद्धता और पाकिस्तान के साथ शांति प्रक्रिया इसी दिशा का विस्तार थीं। स्वाभाविक रूप से इस दौर में यह चर्चा शुरू हुई कि क्या कांग्रेस खुद को नेहरूवादी अतीत से जोड़ रही है और क्या सोनिया गांधी एक नई कांग्रेस की सूत्रधार बनेंगी?
हाल के जनादेश ने यह संभावना और उज्ज्वल कर दी है। यूपीए की दूसरी पारी में मनमोहन सिंह सरकार के मंत्रियों ने १०० दिन का एजेंडा घोषित करने में जो अति उत्साह दिखाया है, वह भले आगे जाकर एक बड़ी निराशा की वजह बने, लेकिन इससे एक सकारात्मक पक्ष जरूर सामने आया है कि कांग्रेस की जुबान पर ‘आम आदमी’ अभी भी बना रहने वाला है। यह रुझान देश की राजनीति में एक नई संभावना खोलता है। इससे इतना तो जाहिर होता ही है कि १९९० के दशक के नकारात्मक दौर पर फिलहाल विराम लग गया है, जब प्रगतिशील ताकतों को सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ गोलबंदी में अपनी पूरी ताकत झोंकनी पड़ रही थी।
इस नए दौर में सरकार की परख उसके जन भलाई के कामकाज, आम आदमी की चिंता के उसके दावे और देश को व्यापक रूप से सकारात्मक दिशा देने की उसकी निष्ठा एवं क्षमता की कसौटियों पर की जा सकती है। इन्हीं बिंदुओं पर सरकार की आलोचना और उसके प्रदर्शन की समीक्षा का अवसर भी देश के सामने है। स्पष्टतः यह स्थिति सामाजिक जनतांत्रिक (सोशल डेमोक्रेटिक) राजनीति के उदय का अवसर प्रदान कर रही है। ऐसे में एक अति महत्त्वपूर्ण एवं प्रासंगिक सवाल यह है कि मुख्यधारा राजनीति में इस वक्त सामाजिक जनतंत्र की पैरोकार ताकतें कौन-सी हैं? क्या वाम मोर्चा इस भूमिका को ले सकने में सक्षम है और क्या उसमें इसकी इच्छाशक्ति है? या क्या जनता दल जैसे प्रयोग की फिर से जमीन बन सकती है?
फिलहाल जो होता दिख रहा है, वह यह कि अपने तमाम अभिजात्यवादी रुझानों और पार्टी में दक्षिणपंथी ताकतों की भरमार के बावजूद कांग्रेस अभी सोशल डेमोक्रेटिक स्पेस को भरने की कोशिश कर रही है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व यह समझ गया है कि चुनावी सफलता का यही फॉर्मूला है। खाद्य सुरक्षा कानून, शिक्षा को बुनियादी अधिकार बनाने की पहल और महिला आरक्षण बिल १०० दिन के भीतर पास कराने की घोषणाएं यही संकेत देती हैं। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह १९८० और ९० के दशक से अलग एक नई कांग्रेस है। किसी विचारधारा की परंपरा से न आने के बावजूद सोनिया गांधी ने अपनी सहज बुद्धि से पार्टी को एक नई राजनीतिक जमीन दे दी है।
बहरहाल, वर्ग चरित्र और मूलभूत स्वभाव पर गौर करें तो यह मानना मुश्किल लगता है कि कांग्रेस सचमुच एक सामाजिक जनतांत्रिक पार्टी बन सकेगी। जिस पार्टी के २०६ में से १४१ सांसद करोड़पति हों, जिसमें मनमोहन सिंह-मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे नव-उदारवाद के प्रतीक चेहरों के हाथ में आर्थिक नीतियों की कमान हो, जिसमें पार्टी के टिकट वंशवाद के आधार पर ही देने की परंपरा मजबूत होती जा रही हो, वह आर्थिक और सामाजिक मामलों में जनतंत्र के विस्तार का औजार बन सकती है, ऐसा भरोसा तमाम राजनीतिक सिद्धांतों और तर्कों के खिलाफ जाकर ही किया जा सकता है।
इसके बावजूद मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात का श्रेय जरूर है कि उसने एक पहचान खो चुकी पार्टी को एक नई प्रासंगिकता दे दी है। इस क्रम में वह देश के राजनीतिक विमर्श की दिशा बदलने में भी सफल रही है, और इसका परिणाम यह है कि आजादी के बाद हासिल उपलब्धियों के खत्म हो जाने की आशंकाओं से फिलहाल देश निकल गया है। चूंकि कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार नव-उदारवाद के दायरे में रहते हुए भी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को व्यवहार में वापस ले आई है, इसलिए प्रगतिशील ताकतों के लिए सामाजिक और आर्थिक दायरे में लोकतंत्र को ज्यादा व्यापक एवं गहरा बनाने की राजनीति करने का रास्ता आसान हो गया है। यह सोनिया गांधी के नेतृत्व का एक बड़ा योगदान है। इस नेतृत्व ने सचमुच कांग्रेस का एक नया कलेवर पेश किया है, जिसे आज की पीढ़ी उम्मीदों के साथ देख रही है, और जिसकी राजनीतिक प्रासंगिकता आज संभवतः पिछले चार दशकों में सबसे ज्यादा साफ है। उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस अगले पांच साल में अपने लिए और बड़ी जमीन की तलाश करेगी और प्रगतिशील राजनीति की संभावनाओं को और ज्यादा मजबूत कर सकेगी।
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