Friday, May 1, 2009

एक सहयोग, जो मजबूरी है


सत्येंद्र रंजन
म चुनाव जब अपने अंतिम दौर में पहुंच रहा है, राजनीतिक दलों में अगली लोकसभा की तस्वीर को लेकर एक मोटी समझ बनने के संकेत मिलने लगे हैं। कांग्रेस अब वामपंथी दलों के साथ एक बार फिर से पुल जोड़ना चाहती है। उधर वामपंथी दल भी मानने लगे हैं कि उनका गैर कांग्रेस- गैर भाजपा सरकार का सपना अगर पूरा हो सका तो यह कांग्रेस के समर्थन से ही होगा। निष्कर्ष यह है कि अगर भारतीय जनता पार्टी ने कोई आश्चर्यजनक जीत हासिल नहीं की तो कांग्रेस और वामपंथी दलों में सहयोग अनिवार्य हो जाएगा।

भाजपा की संभावनाओं में आश्चर्यजनक उभार सिर्फ उत्तर प्रदेश से हो सकता है। क्या पार्टी यहां अपनी सीटों की संख्या २००४ की तुलना में तीन गुना या ढाई गुना बढ़ा सकेगी? यह दूर की कौड़ी है, लेकिन असंभव नहीं है। बहरहाल, अगर ऐसा होता है तो भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभर सकती है। उस हाल में उसके लिए नए सहयोगी पाना आसान हो जा सकता है और उसके तथाकथित मजबूत नेता के नेतृत्व में एक कमजोर सरकार बन सकती है। लेकिन यह एक बहुत ही दूर की संभावना है।

ज्यादा ठोस संभावना यही लगती है कि कांग्रेस, उसके सहयोगी दल, यूपीए के बिखरे उसके सहयोगी और तीसरे मोर्चे के दल मिल कर लोकसभा की ३०० से ज्यादा सीटें जीत लें। उस स्थिति में एक नए ढंग के समीकरण का रास्ता तैयार होगा। कांग्रेस बेशक सबसे बड़ी पार्टी होगी और अगली सरकार का नेतृत्व करने पर उसका मजबूत दावा होगा। लेकिन वा्मपंथी दलों के लिए उसे २००४ की तरह समर्थन देना शायद मुमकिन नहीं है। बात सिर्फ नीतियों में मतभेद की नहीं है। बल्कि वामपंथी दलों ने जो तीसरा मोर्चा बनाया है, उसमें तेलुगू देशम पार्टी और बीजू जनता दल जैसे घटक भी हैं, जिनका अपने-अपने राज्यों में सीधा मुकाबला कांग्रेस से है। उनके लिए कांग्रेस को समर्थन देना बेहद मुश्किल है।

वामपंथी दल अपने मौजूदा सहयोगी दलों को अधर में नहीं छोड़ सकते। ऐसा वे अपनी दीर्घकालिक साख पर बट्टा लगाते हुए ही करेंगे। इसीलिए उनका जोर १९९६ के संयुक्त मोर्चा सरकार जैसे प्रयोग पर रहेगा। लेकिन यह संख्याओं का खेल है और जब तक संख्याओं की तस्वीर साफ नहीं होती, इस बारे में कोई अनुमान लगाना कठिन है। बहरहाल, इस परिप्रेक्ष्य में यह बात साफ होती जा रही है कि भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता की रक्षा लगातार एक अहम और प्रभावी मुद्दा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति के दायरे में आने वाले दलों के बीच आर्थिक और विदेश नीतियों पर चाहे जितने गहरे मतभेद हों, सांप्रदायिक-फासीवाद के खिलाफ उनके बीच सहयोग की जरूरत अभी लंबे समय तक बनी रहेगी।

अगर कांग्रेस ने इस बात को समझा होता तो २००८ में वह २००४ के जनादेश से विश्वासघात करने की हद तक नहीं जाती। लेकिन इससे भी ज्यादा दुर्भाग्य की बात यह है कि इस बात को राष्ट्रीय जनता दल, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, और समाजवादी पार्टी जैसे क्षेत्रीय दलों ने भी नहीं समझा। इन पार्टियों के नेताओं के स्वार्थ, अहंकार और तुच्छ गणनाओं ने एक बेहद अहम मौके पर उन्हें कांग्रेस का पिछलग्गू बन जाने को मजबूर कर दिया। भारत-अमेरिका परमाणु सहयोग के करार के सवाल पर अगर वे मजबूत रुख लेते तो आज शायद चुनावी मुकाबले की तस्वीर कुछ और होती। इन दलों को तब यह समझना चाहिए था कि मुद्दा सिर्फ करार का नहीं था। सवाल यह था कि क्या वह करार इतना अहम था, जिसके लिए धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर बनी राष्ट्रीय आम सहमति को तोड़ दिया जाए? तब एक सैद्धांतिक मुद्दे पर विश्वासघात करने में वे कांग्रेस के सहभागी बने और फिर बाद में खुद कांग्रेस के विश्वासघात के शिकार बने।

अब उस करार की प्रासंगिकता और फायदे पर खुद वो लोग सवाल उठा रहे हैं, जो उस वक्त मीडिया में उसके बड़े पैरोकार थे। वे मान रहे हैं कि इस करार से ना तो देश की ऊर्जा की जरूरतें हल होंगी और ना ही अंतरराष्ट्रीय रणनीतिक मामलों में अमेरिका का भारत को कोई बिना शर्त समर्थन मिल रहा है। करार के पैरोकार अब लिखने लगे हैं कि इस मुद्दे पर जितना ऊंचा और महंगा दांव प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी ने खेला, वह उसके योग्य नहीं था। लेकिन मुश्किल यह है कि केंद्र में पहले भाजपा और फिर कांग्रेस नेतृत्व वाली जो दो गठबंधन सरकारें सत्ता में रहीं, उनमें शामिल क्षेत्रीय दलों ने कभी नीति और सिद्धांत के सवाल पर ठोस रुख नहीं अपनाया। वो सत्ता के फायदों के बंटवारे में ही मशगूल रहे और गठबंधन का नेतृत्व कर रही पार्टी को मनमानी करने दिया।

क्या २००९ में यह स्थिति बदलेगी? क्या १५वीं लोकसभा के गठन के साथ गठबंधन की संसदीय राजनीति का कोई नया विकासक्रम देखने को मिलेगा? दरअसल, वामपंथी दलों के सामने इन सवालों के जवाब खोजना ही शायद इस वक्त की सबसे बड़ी चुनौती है। क्या वे एक ऐसा राजनीतिक संवाद बना सकते हैं, जिससे सत्ता के बंटवारे के साथ-साथ देश के दूरगामी भविष्य और हमारी राज्य-व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों की रक्षा का कोई व्यावहारिक कार्यक्रम सामने आ सके? और क्या अब क्षेत्रीय दलों में यह समझ ज्यादा ठोस रूप लेगी कि अहम मुद्दों पर किसी बड़े दल का पिछलग्गू बन जाने का नुकसान अंततः उन्हें भी झेलना पड़ता है?

क्षेत्रीय और स्थानीय हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों की राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती मौजूदगी देश में गहरे और मजबूत हो रहे लोकतंत्र की मिसाल है। इससे सत्ता और सुविधाओं पर पुराने प्रभु वर्गों का शिकंजा कुछ ढीला हुआ है। लेकिन यह परिघटना सामाजिक ढांचे में जितना जाहिर होती है, उतनी आर्थिक या व्यापक वैचारिक दायरे में नहीं झलकती। नई उभरी ताकतें आसानी से पुराने आर्थिक हितों और पुरातन विचारों के साथ घुलमिल जाती हैं। नतीजा यह होता है कि लोकतंत्र के गहरा होने के साथ प्रगतिशील और आधुनिक विचारों एवं नीतियों को लेकर जैसा भरोसा होना चाहिए, वह नहीं हो पाया है।

अगर वामपंथी दल अब किसी ऐसे संवाद की धुरी बनते हैं, जिससे ऐसा भरोसा पैदा हो सके तो यह आम चुनाव भारतीय लोकतंत्र को विकास की एक नई मंजिल तक ले जा सकेगा। लेकिन फौरी तौर पर १६ मई के बाद कांग्रेस और वामपंथी दलों को संभवतः किसी समीकरण का हिस्सा बनना पड़ेगा। जब तक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का ठोस और प्रगतिशील सामाजिक आधार तैयार नहीं होता, धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए वामपंथी दलों और कांग्रेस दोनों के सामने ऐसी मजबूरी बनी रहेगी।

2 comments:

श्यामल सुमन said...

अगर वामपंथी दल अब किसी ऐसे संवाद की धुरी बनते हैं, जिससे ऐसा भरोसा पैदा हो सके तो यह आम चुनाव भारतीय लोकतंत्र को विकास की एक नई मंजिल तक ले जा सकेगा।

आपकी इस बात से मैं भी सहमत हूँ।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

हैदर अब्बास नकवी said...

सर...इनकी मजबूरी बनी रहे या नहीं हम आपको पढ़ते रहेगें .आप भी संपर्क में रहियेगा...