सत्येंद्र रंजन
यह विडंबना ही है कि जिन पार्टियों को महिला आरक्षण बिल के समर्थन में अग्रिम कतार में होना चाहिए था, वे इस प्रकरण में खलनायक बनकर उभरीं हैं। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल खुद को लोहिया- जेपी की विचारधारा की वारिस बताती हैं, तो बहुजन समाज पार्टी और लोक जनशक्ति पार्टी का दावा डॉ. अंबेडकर के विचारों पर चलने का है। इन तीनों मनीषियों की सोच और राजनीति का मूलमंत्र न्याय और समता के मूल्य थे। महिलाओं के साथ न्याय और पुरुषों के साथ उनकी बराबरी पर जोर देने में उन्होंने कभी कोई कोताही नहीं की। डॉ. लोहिया के सप्तक्रांति के सपने का एक महत्त्वपूर्ण पहलू नर-नारी समानता है और जयप्रकाश नारायण ने जब संपूर्ण क्रांति की विचारधारा रखी तो उसकी व्याख्या के क्रम में उन्हें यह कहने में कोई संकोच नहीं हुआ कि डॉ. लोहिया की सप्तक्रांति ही उनकी संपूर्ण क्रांति है। हिंदू कोड बिल लाने में डॉ. अंबेडकर की भूमिका स्वतंत्र भारत के इतिहास में उनके गौरवपूर्ण योगदान के रूप में दर्ज में है। यह देखकर हैरत होती है कि उन शख्सियतों का वारिस होने का दावा करने वाली सपा, राजद, बसपा और लोजपा आज इतिहास की धारा की उलटी दिशा में खड़ी हैं।
स्वार्थ और संकीर्ण सोच से कोई राजनीति कितना गलत रूप ले सकती है, यह संभवतः इस बात की सबसे बेहतरीन मिसाल है। समाज में जारी किसी एक अन्याय की आड़ में न्याय की किसी दूसरी कोशिश को रोकने की इन दलों की कोशिश सिर्फ यह साबित करती है कि इन दलों ने खुद को खुद अपनी विरासत एवं हर तरह के उदात्त मूल्यों से अलग कर लिया है। पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों के नाम पर संसद में दिखा उनका उग्र रूप चुनावी राजनीति में उनके लिए कितना फायदेमंद होगा, यह तो अगले चुनावों में ही जाहिर होगा, लेकिन एक इतने महत्त्वपूर्ण मसले पर उन्होंने अपनी जो छवि पेश की है, उससे यह सवाल बेहद प्रासंगिक हो गया है कि भारतीय राजनीति में आखिर ये पार्टियां किस धारा की नुमाइंदगी करती हैं? मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान भारतीय राजनीति में गैर-कांग्रेसवाद का झंडा पकड़े हुए उभरे और बाद में मंडल के दौर में अन्य पिछड़ी जातियों एवं दलितों के हितों का नुमाइंदा होने का दावा करते हुए उन्होंने अपनी खास प्रासंगिकता बनाई। मायावती एक बेहद सामान्य पृष्ठभूमि से उभर कर देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य की मुख्यमंत्री बनीं तो इसे सिर्फ उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि के रूप में नहीं देखा गया, बल्कि इसे दलित सशक्तीकरण की परिघटना का एक खास मुकाम माना गया। इन परिघटनाओं को सदियों से जारी सामाजिक अन्याय को दूर करने के प्रयासों का हिस्सा माना गया।
लेकिन जो पार्टियां और नेता जातीय उत्पीड़न के मुद्दे पर सामाजिक न्याय के प्रवक्ता के रहे, महिलाओं को राजनीतिक भागीदारी देने के सवाल पर सामाजिक अन्याय की मानसिकता जताकर उन्होंने अपनी साख को घोर क्षति पहुंचा दी है। इन दलों को क्या सिर्फ इस बात की चिंता है कि ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक महिलाओं को संविधान के १०८वें संशोधन के तहत उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा, या उनकी सोच में ही कहीं महिलाओं को कमतर मानने की बात भी बैठी हुई है? १९९० के दशक में शरद यादव ने महिला आरक्षण के ही संदर्भ में ‘परकटी’ महिलाओं वाली टिप्पणी की थी। क्या महिलाओं के प्रति अपमान का वही भाव और सामंती नज़रिया इन दलों के व्यवहार में एक बार फिर जाहिर नहीं हुआ है?
इस प्रकरण की यह एक दूसरी विडंबना यह है कि भारतीय राजनीति में रूढ़िवाद और पुरातन मूल्यों की प्रतिनिधि भारतीय जनता पार्टी महिला आरक्षण के मुद्दे पर उन सामाजिक न्याय की कथित समर्थक पार्टियों से ज्यादा सकारात्मक भूमिका में सामने आई है। भाजपा जिस विचारधारा में यकीन करती है, उसमें स्त्रियों के लिए स्वंतत्र व्यक्तित्व की कोई जगह नहीं है। बल्कि स्त्री के यौन व्यक्तित्व को नियंत्रित करने, उसे पुरुष-प्रधान मूल्यों के अधीन रखने और उसकी स्वतंत्र पहचान को नकारने की सोच उस विचारधारा की जड़ में शामिल है। भाजपा जिस संघ परिवार का हिस्सा है, उसे इस आधुनिक दौर में भी स्त्रियों के लिए सती-सावित्री का आदर्श सामने रखने में कोई हिचक नहीं होती। स्त्री स्वतंत्रता की कलात्मक अभिव्यक्तियों के खिलाफ इस राजनीतिक परिवार के अभियान अभी कोई बहुत पुरानी बात नहीं हैं। ऐसे में भाजपा का राजनीतिक सत्ता में महिलाओं की भागीदारी दिलाने वाले ऐतिहासिक कदम के साथ होना एक विसंगति की तरह लगता है। बहरहाल, वजह चाहे जो भी हो और इसके पीछे चाहे जैसी भी राजनीतिक गणनाएं हों, भाजपा ने यह एक साहसिक काम किया है और इसके लिए उसके आज के नेतृत्व की तारीफ की जानी चाहिए।
इस विडंबना को संभवतः लोकतांत्रिक राजनीति के दबाव और सामाजिक द्वंद्ववाद की प्रक्रिया के तहत समझा जा सकता है। जिस पार्टी की राजनीतिक प्रासंगिकता प्रगतिशीलता-विरोध के आधार पर कायम हो, उसके सामने भी अपनी लोकतांत्रिक साख बनाने की मजबूरी रहती है। ऐसे कुछ मुद्दों पर, जिनका उसकी विचारधारा से सीधा अंतर्विरोध न हो, और जिससे उसे अपना उदार चेहरा पेश करने में मदद मिले, वह ऐसे रुख ले लेती है। संभवतः इसे एक हद तक सांप्रदायिक एवं कट्टरपंथी राजनीति करने वाली भाजपा के विकास-क्रम का हिस्सा भी माना जा सकता है। जबकि उत्तर प्रदेश एवं बिहार में पिछड़ी और दलित जातियों के नाम पर राजनीति करने वाले दलों के भीतर ऐसे किसी विकास-क्रम की मिसाल आज देखने को नहीं मिलती। शायद उनके बीच एक अपवाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने महिला आरक्षण के मुद्दे पर अपनी पार्टी के घिसे-पिटे रुख से आगे निकलने का इरादा दिखाया है। पंचायतों में महिलाओं का आरक्षण बढ़ा कर पचास फीसदी करने, तथा अति पिछड़ों एवं महादलितों की एक नई श्रेणी तय कर इनके तहत आने वाली जातियों को पंचायतों में आरक्षण देने का उनका कदम देश के बाकी राज्यों के लिए मिसाल बन चुका है। अब अपनी पार्टी जनता दल यूनाइटेड के घोषित रुख से हटते हुए संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण का समर्थन कर उन्होंने अपनी उस पहल को तार्किक अंजाम दिया है। बेहतर होता, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मायावती और मुलायम सिंह यादव इससे कुछ सबक लेते। मगर उन्होंने सोच के अपने संकरे या कहें अंधेरे दायरे में बंद रहने का फैसला किया और इस तरह एक बेहद अहम मुद्दे पर अपने लिए प्रतिगामी भूमिका अपना ली।
जबकि यह विधेयक इन दलों के लिए अपनी राजनीति को ज्यादा व्यापक आयाम देने और नए सिरे से राष्ट्रीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता कायम करने का मौका भी साबित हो सकता था। आज के दौर एक बड़ी वि़डंबना यह है कि अपने तमाम नव-उदारवादी नज़रिये और विदेश नीति में दक्षिणपंथी झुकावों के बावजूद कांग्रेस देश की राजनीति में सामाजिक जनतंत्र के खाली स्थल पर काबिज होती जा रही है। एक घोर जन विरोधी बजट पेश करने और परमाणु क्षति की नागरिक देनदारी विधेयक को कैबिनेट से मंजूरी देने के फौरन बाद महिला आरक्षण का एजेंडा लाकर वह अपनी आर्थिक एवं विदेश नीति संबंधी प्राथमिकताओं पर सामाजिक उदारता का परदा डालने में सफल हो गई है। १९९० के दशक में मंडल की परिघटना से मजबूत हुए नेताओं का कर्त्तव्य यह था कि वे कांग्रेस नेतृत्व एवं मनमोहन सिंह सरकार के चेहरे से यह परदा हटाते। वे इस अंतर्विरोध को देश की जनता के सामने रखते कि जो सरकार महिलाओं को राजनीतिक भागीदारी देने में इतना उत्साह दिखा रही है, वही आम महिलाओं की जिंदगी कैसे मुश्किल बना रही है और कैसे वह अमेरिकी परमाणु रिएक्टर कंपनियों के हितों की रक्षा के लिए देश की भावी पीढ़ियों के जान-माल की कीमत अभी से तय कर रही है।
इस मौके पर इन तथ्यों पर भी जोर दिए जाने की जरूरत थी कि जिस देश ने महिलाओं को राजनीतिक भागीदारी देने इतना बड़ा कदम उठाया है, वहीं स्त्री विरोधी मानसिकता की वजह से लैंगिक अनुपात तेजी से घट रहा है और महिलाओं की रक्षा के लिए बने कानूनों पर न सिर्फ अमल में गड़बड़ी है, बल्कि कई मौकों पर अदालतें भी उन कानूनों की अजीबोगरीब व्याख्या कर रही हैं। क्या बाकी सभी क्षेत्रों में महिलाओं को विषमता एवं अन्याय के बीच छोड़कर सिर्फ राजनीति में उनके साथ इंसाफ हो सकता है? प्रगति धीरे-धीरे हो रही है, जैसी तमाम दलीलें क्या इस क्षेत्र में हमारी इच्छाशक्ति के कमजोर होने का प्रमाण नहीं हैं? अगर हम अपने पड़ोस यानी चीन की तरफ नज़र दौड़ाएं तो पिछले साठ साल का अंतर सरकारी नीतियों और उन पर अमल की काफी पोल खोल देता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की एक ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन में आज ७० फीसदी महिलाएं कामकाजी हैं, जबकि इसका विश्व औसत ५३ फीसदी और दक्षिण-पूर्व एशिया का औसत महज ३५ प्रतिशत है। कम्युनिस्ट चीन की स्थापना के साथ माओ त्से तुंग ने घोषणा की थी कि आधा आसमान महिलाओं का है और नए प्रशासन ने इसे व्यवहार में भी उतारने की कोशिश की। नतीजा यह है कि आज यूएनडीपी की रिपोर्ट में यह दर्ज किया गया है कि ऐतिहासिक रूप से श्रेणियों में बंटे चीनी समाज में पिछले छह दशकों ने शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में महिलाओं ने अभूतपूर्व प्रगति की है। इस तुलना में उन्हें राजनीतिक भागीदारी जरूर कम मिली है, लेकिन इस मामले में भी वहां स्थितियां भारत से बेहतर हैं।
यहां चीन की मिसाल सिर्फ यह कहने के लिए दी गई है कि अगर इरादा पक्का हो तो ऐतिहासिक बाधाओं के बावजूद काफी कुछ हासिल किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए जरूरत तमाम नीतियों को जन-पक्षीय बनाने की होगी और इस कसौटी पर मनमोहन सिंह की सरकार लगातार जन अपेक्षाओं को चोट पहुंचा रही है। मुश्किल यह है कि इस संदर्भ को सामने रखकर इस सरकार और कांग्रेस नेतृत्व को कठघरे में खड़ा करने वाली राजनीतिक ताकतें आज बहुत कमजोर हो गई हैं और कॉरपोरेट मीडिया बची-खुची ताकतों की बात को भी सही ढंग से पेश नहीं करता। परिणाम यह है कि जन विरोधी आचरण के बावजूद कांग्रेस पार्टी प्रगतिशील लोगों की पसंद बनी हुई है। चूंकि कांग्रेस का विकल्प सांप्रदायिक और धुर दक्षिणपंथी भाजपा है, इसलिए ऐसे लोग अपनी तमाम नाराजगी के बावजूद इस पार्टी का समर्थन करने के लिए मजबूर हैं।
अगर मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, मायावती या रामविलास पासपान में राजनीतिक दूरदर्शिता होती तो इस विंडबना को समझते। वे अपनी ताकत अगर वामपंथी दलों के साथ जोड़कर अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत वाम-जनतांत्रिक विकल्प विकसित करने की कोशिश करते तो स्थिति जरूर कुछ बदल सकती थी। वे ऐसा दबाव बना सकते थे, जिससे आम जन का ज्यादा भला होता, जिसमें दलित-ओबीसी-मुस्लिम सभी शामिल हैं। मगर उन्होंने राजनीतिक नासमझी का परिचय देकर एक प्रगतिशील का कदम का सारा श्रेय कांग्रेस की झोली में डाल दिया है और खुद एक विडंबना बन गए हैं।
अगर संसद का दो तिहाई हिस्सा आज इस बिल के साथ है तो जाहिर है, अब समर्थन या विरोध इसका मुद्दा नहीं है। मुद्दा जिस नजरिए से यह विधेयक आना संभव हुआ है, उसे व्यापक रूप देने का है। इस मोर्चे पर लड़ाई या कोशिशें आज बहुत कमजोर नजर आती हैं। फिर भी संसद ने दो तिहाई बहुमत से महिला आरक्षण विधेयक को पास करने की तत्परता दिखाई है, तो यह संतोष की बात है। इससे भारत के व्यापक जन मानस की विकसित हुई सोच और लैंगिक बराबरी की इच्छा प्रतिबिंबित हुई है। यह इस बात की झलक है कि भले भारतीय समाज महिलाओं के मामले में आज भी बेहद विषम और एक हद तक अन्यायकारी भी है, लेकिन पिछले दशकों में इस विषमता और अन्याय के खिलाफ जागरूकता तेजी से बढ़ी है। महिलाओं ने अपने हक और अपने लिए समान दर्जा पाने की लड़ाई गंभीरता से लड़ी है। संविधान का १०८वां संशोधन उस लड़ाई की एक बड़ी सफलता है।
Saturday, March 13, 2010
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