Wednesday, March 31, 2010

माओवाद और मानवाधिकार

सत्येंद्र रंजन

माओवादियों से संबंध के आरोप में छत्तीसगढ़ के पीयूसीएल के कार्यकर्ता विनायक सेन करीब दो साल जेल में रहे। दिल्ली में गिरफ्तार माओवादी नेता कोबाड घांदी के खिलाफ फरवरी २०१० में दर्ज चार्जशीट में पुलिस ने गौतम नवलखा, जीएन साइबाबा, रोना विल्सन और दर्शन पाल समेत कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं पीयूडीआर, पीयूसीएल, एपीडीआर आदि जैसे नागरिक एवं लोकतांत्रिक अधिकार संगठनों पर गैर कानूनी गतिविधियों में शामिल रहने का आरोप लगाया है। यहां साफ तौर पर गैर-कानूनी गतिविधियों का मतलब माओवादियों/नक्सलवादियों से रिश्ता रखना या उनकी गतिविधियों को मदद पहुंचाने से है। चार्जशीट में कहा गया है कि ये संगठन सीपीआई (माओवादी) का आधार बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। इन संगठनों ने इस आरोप से इनकार किया है और इसे असहमति या संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन को उजागर करने वाले समूहों पर शिकंजा कसने की सरकारी कोशिश का हिस्सा बताया है।

मानवाधिकार संगठन या कार्यकर्ता कोई पहली बार इस तरह के निशाने पर आए हों, ऐसा नहीं है। टकराव के इलाकों में अक्सर यह देखने को मिला है कि टकराव के दोनों पक्षों- एक तरफ सुरक्षा बल और दूसरी तरफ अपने उद्देश्यों के लिए हिंसक लड़ाई लड़ रहे समूहों के बीच खुद को नागरिक/ लोकतांत्रिक/ मानवाधिकार संगठन कहने वाले समूहों की एक भूमिका बन जाती है। इस भूमिका आम तौर पर सरकार या सुरक्षा बलों के मुश्किलें खड़ी करती हैं। यह उनकी कार्रवाइयों को कई तरह के सवालों के घेरे में लाती है। ये सवाल सुरक्षा कार्रवाइयों के संविधान और कानून में वर्णित प्रावधानों की सीमा में न रहने से खड़े होते हैं। सबसे महत्तवपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि किसी विद्रोह और हिंसक संघर्ष को दबाने के लिए आखिर सरकार कहां तक जा सकती है? क्या वह खुद उन कायदों और कानूनों का उल्लंघन कर सकती है, जिसके आधार पर उसकी जन-वैधता है? मानवाधिकारों के दायरे को अगर बड़ा कर देखा जाए तो सवाल यह भी उठता है कि आखिर विद्रोह या हिंसक संघर्षों के लिए जिम्मेदार कौन है? जिन वजहों से ये स्थितियां पैदा होती हैं, आखिर वे वजहें समाज में क्यों मौजूद हैं?

ये सवाल कठिन और तीखे हैं। सरकारों के पास अक्सर इनका वैध और तार्किक जवाब नहीं होता। इसलिए सरकार और सुरक्षा बल पलट कर नागरिक/ लोकतांत्रिक/ मानवाधिकार संगठनों पर वार करते हैं। पहला वार इन संगठनों की साख पर किया जाता है। पूछा जाता है कि आखिर ये संगठन किसके लिए या किसकी तरफ से काम कर रहे हैं? उनके होने का मैंडेट यानी जनादेश क्या है? उन्हें इन कामों के लिए संसाधन कहां से मिलते हैं? और ये संगठन तब कहां रहते हैं जब विद्रोही या हिंसक समूहों की तरफ से ‘मानवाधिकारों का हनन’ होता है?

आज माओवादियों बनाम सरकार की लड़ाई के संदर्भ में ये सवाल आज फिर से उठाए जा रहे हैं। चूंकि सीपीआई (माओवादी) एक प्रतिबंधित संगठन है, इसलिए उससे रिश्ता रखना या उसकी गतिविधियों में किसी भी तरह से मददगार बनना जुर्म है। ऐसे में पुलिस अगर किसी कार्यकर्ता या संगठन को उनका साथी बता रही हो, तो इस बात आशंका सचमुच रहती है कि उनके खिलाफ देर-सबेर कार्रवाई हो सकती है। इसलिए कोबाड घांदी के खिलाफ पेश चार्जशीट में नाम आने पर संबंधित संगठनों का सतर्क होना और उस पर प्रतिवाद करना समझ में आता है।

बहरहाल, माओवाद का मौजूदा संदर्भ इन संगठनों के सामने सिर्फ सरकारी नज़रिए से ही नहीं जनतांत्रिक नज़रिए से भी कुछ सवाल खड़ा कर रहा है। भारत में मानवाधिकार आंदोलन का इतिहास अब लंबा हो चुका है। अगर आजादी के पहले हुए प्रयासों को छोड़ दें तब भी कम से कम १९६० के दशक से नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की बात करने वाले संगठन मौजूद रहे हैं। इमरजेंसी और उसके बाद ऐसे संगठनों का और प्रसार हुआ। लेकिन जिस मध्यवर्गीय दायरे में ये संगठन काम करते हैं, उसमें ये अपने विचार और एजेंडे का प्रचार-प्रसार क्यों नहीं कर पाए, और उनके बीच ये संगठन अपना ठोस आधार क्यों नहीं बना पाए, यह इन संगठनों के लिए आत्ममंथन का विषय होना चाहिए। आखिर ऐसा क्यों है कि सरकार जिन सवालों से इन संगठनों को घेरती है, उस पर बहुत से लोग भरोसा कर लेते हैं?

क्या इसकी वजह यह है कि ये संगठन नागरिक या लोकतांत्रिक अधिकारों की व्याख्या सामाजिक संरचना के व्यापक सवालों से अलग हट कर करते हैं? क्या सामाजिक एवं मानव विकास-क्रम के संदर्भ से काटकर नागरिक अधिकारों का कोई राजनीतिक आधार बन सकता है और क्या बिना ऐसे आधार के इन अधिकारों की सुरक्षा संभव है? नागरिक या लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाले सभी संगठनों को एक ही कोष्ठक में नहीं रखा जा सकता, मगर उनमें से कई संगठन लोगों के संवैधानिक अधिकारों की बात करते-करते किसी खास राजनीति का भी हिस्सा बन जाते हैं, यह बात अनुभव के आधार पर कही जा सकती है। वह राजनीति कई बार किसी उदार या उद्दात्त विचारधारा पर आधारित नहीं होती। खुद उस राजनीति या उस पर आधारित संघर्ष में मूलभूत मानवीय स्वतंत्रता के लिए कोई जगह नहीं होती। लेकिन मौजूदा राज्य-व्यवस्था के अनिवार्य रूप से जन विरोधी होने की समझ ऐसे कुछ मानवाधिकार संगठनों को उन संघर्षों के पक्ष में खड़ा कर देती है। ऐसी गलती अनजाने में होती है या सचमुच कुछ कथित मानवाधिकार संगठन हिंसक लड़ाई लड़ रहे समूहों द्वारा अपने मोर्चे या ढाल के रूप बनाए जा सकते हैं, यह पड़ताल का विषय है। मगर इन संगठनों की यह भूमिका उन्हें बहुत से लोगों की निगाहों में संदिग्ध कर देती है और इसी वजह से सरकार की दलीलों आम लोग स्वीकार कर लेते हैं। इसकी मिसाल पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद के दौरान देखने को मिली थी।

बहरहाल, अभी विचार का संदर्भ माओवादी संघर्ष है, इसलिए हम अपनी बात को वहीं सीमित रखेंगे। सीपीआई (माओवादी) की गतिविधियों ने देश के बड़े हिस्से को संघर्ष क्षेत्र में तब्दील कर दिया है। यह पार्टी अपनी विचारधारा के मुताबिक सशस्त्र लड़ाई लड़ रही है, जिसका मकसद भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना है। सरल और साधारण शब्दों में इस बात को इसी रूप में रखा जाना चाहिए। मगर जब मानवाधिकार संगठनों से जुड़े कुछ लोग ऐसी कोशिश में शामिल दिखते हैं, जिससे यह संदेश जाता है जैसे माओवादी न्याय की लड़ाई की अकेली धुरी हैं, तो ऐसे कार्यकर्ताओं की राजनीति या उनके राजनीतिक रुझान का सवाल खड़ा होता है। अगर मानवाधिकार कार्यकर्ता सुरक्षा बलों की ज्यादतियों को दर्ज कर रहे हों, तो इसे उनके स्वयंसेवी काम का हिस्सा माना जाएगा। लेकिन जब ये कार्यकर्ता सरकार और माओवादियों के बीच बातचीत के लिए मध्यस्थ बनने लगें या दो तरफ से बातचीत की पेशकश की चल रही चालों को समझते हुए भी बातचीत की वकालत करने लगें, तो यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है।

बातचीत के ये चालें महज एक धोखा हैं। केंद्र सरकार लंबे समय से माओवादियों को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानती रही है और अब अपने लिए अनुकूल स्थिति पाकर उसने उनके खिलाफ बड़ी कार्रवाई शुरू कर दी है। उधर माओवादी भी किसी ऐसे मुद्दे के लिए नहीं लड़ रहे हैं, जिस पर बातचीत हो सके। वे राजसत्ता पर सशस्त्र कब्जे के लिए लड़ रहे हैं। इसके अलावा वो जो भी मुद्दे उठाते हैं, वो महज कार्यनीतिक या रणनीतिक चालें हैं। क्या मध्यस्थ बनने या बातचीत पर जोर डालने वाले बुद्धिजीवी या मानवाधिकार कार्यकर्ता यह साधारण सी बात नहीं समझते?

पिछले महीनों में यह एक नया रुझान रहा है कि माओवादियों की हिंसा या तोड़फोड़ की हर कार्रवाई के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय सार्वजनिक बयान जारी कर माओवादियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है। साथ ही माओवादियों के समर्थक बुद्धिजीवियों को भी चुनौती दी जाती है कि वे ऐसी कार्रवाइयों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें। इसी क्रम में माओवादियों से बातचीत की मांग उठाए जाने पर केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने यह शर्त रख दी कि अगर माओवादी हिंसा रोक दें तो सरकार उनसे हर मुद्दे पर पर बातचीत को तैयार है। इसके पहले सरकार का रुख यह होता था कि नक्सली या हथियारबंद लड़ाई लड़ रहे किसी गुट या संगठन से वह तभी बात करेगी, जब वे हथियार डाल दें। चिदंबरम ने यह साफ किया कि वे अभी माओवादियों से हथियार डालने को नहीं कह रहे हैं और माओवादियों के पैरोकारों से कहा कि वे इस गुट को हिंसा छोड़ कर बातचीत की मेज पर आने के लिए राजी करें।

इस पर लालगढ़ में सक्रिय माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी ने ७२ दिन तक संघर्षविराम की पेशकश कर दी, बशर्ते केंद्र अपनी कार्रवाई रोक दे। मगर इसके कुछ ही समय पहले सरकार से बातचीत के सवाल पर सीपीआई (माओवादी) ने अपना जो रुख अपनाया था, वह गौरतलब है। पार्टी की सेंट्रल कमेटी के प्रवक्ता आजाद ने कहा था- “माओवादियों से हथियार डाल देने के लिए कहना उन ऐतिहासिक एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के प्रति घोर अज्ञानता को जाहिर करता है, जिनकी वजह से माओवादी आंदोलन का उभार हुआ है। इसके बावजूद दोनों पक्षों की तरफ से युद्धविराम पर सहमति बन सकती है, बशर्ते सरकार माओवादियों द्वारा हिंसा छोड़े जाने के बारे में अपना अतार्किक रुख छोड़ दे।” आजाद ने कहा कि सरकार को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और इस पर फैसला करना चाहिए कि क्या वह सरकारी आतंकवाद एवं जनता के खिलाफ अनियंत्रित हिंसा छोड़ने को तैयार है। माओवादियों की मांग रही है कि अगर सरकार बातचीत चाहती है तो वह इसके लिए ‘अनुकूल माहौल’ बनाए। मगर इसमें पेच यह है कि माओवादी ‘अनुकूल माहौल’ की जो व्याख्या करते रहे हैं, अगर वह बन जाए तो फिर बातचीत की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। ‘अनुकूल माहौल’ की फेहरिश्त लंबी है।

इसमें माओवाद प्रभावित इलाकों से अर्धसैनिक बलों की वापसी से लेकर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के ‘अमानवीय अत्याचार’ की जांच के लिए निष्पक्ष न्यायिक आयोग की स्थापना; गिरफ्तार हुए माओवादी पार्टी से जुड़े और उसके समर्थक तमाम लोगों की रिहाई से लेकर गैर-कानूनी गतिविधि (निरोधक) कानून, छत्तीसगढ़ विशेष लोक सुरक्षा कानून, सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून आदि जैसे कानूनों को रद्द करने; आदिवासियों के लिए सरकारी पुनर्वास शिविरों को बंद करने से लेकर सलवा जुडुम के हाथों विस्थापित हुए ‘दो लाख आदिवासियों’ एवं ‘सरकारी आतंक’ का शिकार हुए अन्य लोगों को उचित मुआवजा देने; बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं बड़े व्यापारिक घरानों से खनन के लिए हुए सभी सहमति-पत्रों को रद्द करने से लेकर सभी विशेष आर्थिक क्षेत्रों को खत्म करने की मांगें शामिल हैं। यानी जब सरकार इतनी मांगें मान लेगी तभी सीपीआई (माओवादी) बातचीत के लिए तैयार होगी।

सरकार के ऑपरेशन ग्रीनहंट को लेकर कड़े रुख और माओवादियों के इस रुख को देखते हुए यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन दोनों पक्षों के बीच आखिर बातचीत की कितनी गुंजाइश है। ऐसा लगता है कि इन दोनों पक्षों ने महाभारत की कथा के उस प्रकरण से सीख ली है, जिसके मुताबिक कृष्ण को यह मालूम था कि युद्ध होगा, इसके बावजूद उन्होंने शांति प्रस्ताव कौरवों के सामने रखे, ताकि जब युद्ध हो तो उसकी जिम्मेदारी कौरवों के माथे पर ही जाए। यानी यहां सरकार और माओवादी दोनों में कोई भ्रम में नहीं है कि आगे का रास्ता किधर है।

लोकतंत्र में बातचीत निसंदेह विवादों और मुद्दों को हल करने का सबसे बड़ा माध्यम है। लेकिन यह माध्यम तभी कारगर होता है जब मुद्दे ठोस और सुपरिभाषित हों। अगर मुद्दे महज असली मकसद को ढकने के लिए उठाए गए हों, तो बातचीत से कुछ हासिल नहीं होता। इस संदर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि क्या सीपीआई (माओवादी) सचमुच उन्हीं मुद्दों के लिए लड़ रही है, जिन्हें उठाकर उसने आदिवासी और कुछ दूसरे वंचित समूहों में अपना जनाधार बनाया है, या उसका असली मकसद ‘सशस्त्र क्रांति’ के जरिए राजसत्ता पर कब्जा करना है? इस सवाल का जवाब हम सभी जानते हैं। इसलिए जो बुद्धिजीवी या संगठन शांति और न्याय के नाम पर बातचीत की वकालत कर रहे हैं, उन्हें खुलकर यह बताना चाहिए कि क्या वे माओवादियों की धारणा के मुताबिक क्रांति का समर्थन करते हैं?

यह प्रश्न इसलिए ज्यादा अहम है, क्योंकि अभी जारी विमर्श में यह संदेश देने की कोशिश हो रही है कि मौजूदा हालात में सिर्फ दो पक्ष हैं- एक सरकार और दूसरा माओवादी। परोक्ष रूप से कहा यह जा रहा है कि माओवादी देश में न्याय, आदिवासियों के बुनियादी हितों की रक्षा और बेहतर भविष्य की एकमात्र शक्ति हैं, और जिनकी भी इन बातों में आस्था हो, उनके पास माओवादियों का समर्थन करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। चरमपंथी दलीलों के बीच माओवादियों के अराजकतावादी तौर-तरीकों, उनके वैचारिक दिवालियेपन और नकारवादी नजरिए को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस चर्चा में यह बात पूरी तरह गौण हो जाती है कि कैसे अपनी दुस्साहसी कार्रवाइयों से माओवादियों ने खनिज पदार्थों से संपन्न इलाकों में तमाम प्रतिरोध को तोड़ देने का मौका सरकार को मुहैया करा दिया है।

इस सवाल को हाल में बुद्धिजीवियों के एक समूह ने उठाया है। उनके बयान का यह हिस्सा गौरतलब है- “कई इलाकों में माओवादी हिंसा के उभार में एक आम रुझान है। पहले लोगों को हाशिये पर धकेले जाने, विस्थापन या पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों द्वारा आदिवासियों पर हिंसा के विरोध में पश्चिम बंगाल में पुलिस अत्याचार विरोधी जनसाधारनेर कमेटी या उड़ीसा में चासी मुलिया आदिवासी संघ जैसे अहिंसक संगठन उभरते हैं। फिर वहां माओवादी पहुंच जाते हैं और आंदोलन को हथिया कर उसे हिंसक स्वरूप देने की कोशिश करते हैं। सरकार और भी ज्यादा हिंसा के साथ उसका जवाब देती है, जिसके निशाने पर सिर्फ माओवादी नहीं बल्कि उनसे न जुड़े आदिवासी भी बनते हैं। तब कुछ आदिवासी आत्मरक्षा में माओवादियों से जुड़ जाते हैं। छत्रधर महतो, लालमोहन टुडू, सिंगन्ना आदि जैसे उनके नेता या तो गिरफ्तार कर लिए जाते हैं या उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार डाला जाता है। बड़ी संख्या में आदिवासियों को माओवादी या उनका समर्थक बता दिया जाता है। उन्हें गिरफ्तार किया जाता है, मार डाला जाता है या आतंकित किया जाता है। सुरक्षा बलों के अनियंत्रित इस्तेमाल और लोगों के मौलिक अधिकारों के हनन की वजह से ऐसे मामलों में माओवादी हिंसा को वैधता मिल जाती है। दूसरी तरफ एक सशस्त्र समूह द्वारा एकतरफा और विचाराधारा आधारित युद्ध की भाषा के इस्तेमाल से आम लोगों की राजनीतिक पहल धूमिल हो जाती है। इन लोगों की इस समूह की घोषणाओं में कोई भूमिका नहीं होती। इस क्रम में वहां के आम लोगों के मानवाधिकारों का भी हनन किया जाता है, जो आजीविका के लिए सरकारी विभागों में नौकरी करते हैं।” इस पृष्ठभूमि में इन बुद्धिजीवियों की यह मांग तार्किक है कि सरकार को दरअसल इन आम लोगों और उनके संगठनों से बातचीत करनी चाहिए।

यह बयान इस बात की भी मिसाल है कि माओवादियों की भूमिका पर देश के वाम-जनतांत्रिक जनमत में एक राय नहीं है। जाहिर है, सरकार के अपने एजेंडे के लिए यह अनुकूल स्थिति है। सरकार संभवतः यह मान कर चल रही है कि इस वक्त मुख्यधारा या संसदीय दायरे में माओवादियों को लेकर जितना विरोध भाव है, उतना पिछले कई वर्षों में कभी नहीं था। इस दायरे में माओवादी लगभग पूरी हमदर्दी खो चुके हैं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, उसके नेतृत्व वाला वाम मोर्चा और उनका समर्थक जनमत अभी कुछ समय पहले तक माओवादी समस्या को सिर्फ सुरक्षा के नजरिए से देखने का विरोध करता था। माओवाद से राजनीतिक रूप से निपटा जाए, यह जनमत इस बात की वकालत करता था। पिछड़े इलाकों के विकास और गरीब लोगों को न्याय दिलाने के कदम उठाकर माओवादियों को उनके समर्थक जनाधार से अलग किया जाए, ऐसे सुझाव जोरदार ढंग से दिए जाते थे। मई २००९ से पहले जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार अपनी स्थिरता को लेकर आज की तरह निश्चिंत नहीं थी, वह ऐसे सोच और इस जनमत की अनदेखी नहीं कर पाती थी।

मगर अब हालात बदल चुके हैं। पिछले आम चुनाव ने मनमोहन सिंह सरकार को स्थिर बना दिया। इस बीच माओवादियों ने पिछले दो साल से पश्चिम बंगाल में जैसा व्यवहार किया, उससे वाम रुझान वाला देश का बड़ा जनमत न सिर्फ उनसे विरोध भाव, बल्कि वैर भाव भी रख रहा है। नंदीग्राम और उसके बाद लालगढ़ में माओवादियों ने माकपा को अपना निशाना बनाया। माकपा की जड़ें खोदने की उनकी मंशा बहुत पुरानी है। सिंगूर और नंदीग्राम में उद्योग लगाने के लिए खेती की जमीन के अधिग्रहण की पश्चिम बंगाल सरकार की कोशिशों ने राज्य के किसानों में जो असंतोष पैदा किया, उससे माओवादियों को इस मंशा को पूरा करने का मौका मिल गया। इसके लिए उन्होंने ममता बनर्जी से अघोषित मोर्चा बनाया। माओवादियों ने पश्चिम मेदिनीपुर जिले के लालगढ़ में अपनी हिंसक कार्रवाइयों में मानवीय संवेदना का हर ख्याल छोड़ दिया। या यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी कार्रवाइयों को बर्बरता की हद तक पहुंचा दिया। लालगढ़ में माकपा के एक कार्यकर्ता की हत्या कर उन्होंने उसकी लाश कई दिनों तक चौराहे पर पड़ी रहने दी, ताकि माकपा समर्थकों के मन में खौफ बैठाया जा सके। इसकी तुलना अगर किसी पहले की मिसाल से की जा सकती है, तो वह १९९० के दशक के मध्य में तालिबान के हाथों काबुल में हुई नजीबुल्लाह की हत्या है। अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की लाश कई दिनों तक काबुल के एक चौराहे पर फांसी दिए जाने के बाद लटकी थी। लालगढ़ के सालबोनी के बोड़ो जामदा हाई स्कूल में माकपा सदस्य और स्कूल शिक्षक कार्तिक महतो की हत्या बर्बरता की एक दूसरी मिसाल थी। मोटरसाइकिल से आए माओवादियों ने ३४ वर्षीय महतो की हत्या उस वक्त कर दी जब वे क्लास में बच्चों को पढ़ा रहे थे। माओवादियों ने इस बात का ख्याल नहीं किया कि ऐसी घटना का बच्चों के मासूम मन पर क्या असर होगा। असल में पिछले महीनों में माओवादियों के हाथों सौ से ऊपर माकपा कार्यकर्ता मारे गए हैं। मानवाधिकार संगठनों की कोई राय इस बारे में सुनने को नहीं मिली।

दरअसल, एक अहम सवाल यह भी है कि आखिर नंदीग्राम में किस बात की लड़ाई चल रही थी। जब सिंगूर के बाद वहां विस्थापन का विरोध हुआ तो पश्चिम बंगाल सरकार ने वहां बनने वाले केमिकल हब को रद्द करने की घोषणा कर दी। यह घोषणा १४ मार्च २००७ से काफी पहले कर दी गई थी, जिस रोज नंदीग्राम में पुलिस फायरिंग हुई। लेकिन केमिकल हब रद्द होने के बावजूद वहां किलेबंदी जारी रही। अब खुद माओवादी यह मान चुके हैं कि यह किलेबंदी उनकी थी। वहां से माकपा समर्थकों को मार-मार कर भगाया गया। किलेबंदी का हाल यह था कि पुलिस उस इलाके में प्रवेश नहीं कर सकती थी। प्रवेश की इसी कोशिश के दौरान १४ मार्च की फायरिंग हुई थी। मानवाधिकार संगठनों का इस बीच क्या फर्ज था? क्या उन्हें यह सच्चाई देश के सामने नहीं रखनी चाहिए थी? या माकपा समर्थकों का इसलिए कोई मानवाधिकार नहीं था, क्योंकि वे राज्य की सत्ताधारी पार्टी के समर्थक थे?

मानवाधिकार संगठनों की यह दलील होती है कि उनका काम सरकार और सुरक्षा बलों की निगरानी है। वे देखते हैं कि सुरक्षा एजेंसियां संवैधानिक दायरे में और खुद सरकार के बनाए कानूनों के मुताबिक के मुताबिक काम कर रही हैं या नहीं। चूंकि सरकार खुद अपराधियों के स्तर पर नहीं उतर सकती, इसलिए उसकी कार्रवाइयों की निगरानी जरूरी है और यही काम ये संगठन करते हैं। उनका काम निजी समूहों की गतिविधियों को देखना या उन पर नियंत्रण नहीं है। यह काम सरकार का है, लेकिन सरकार को यह काम संवैधानिक और कानूनी ढंग से करना चाहिए। ये बिल्कुल जायज दलील है और यही अधिकार समर्थक संगठनों का दायरा भी है। मगर मुश्किल तब आती है, जब संदर्भ राजनीतिक होता है।
माओवाद एक राजनीतिक विचारधारा है और सीपीआई (माओवादी) एक राजनीतिक लड़ाई लड़ रही है। यह अपराधियों का संगठन नहीं है। जब संदर्भ राजनीतिक हो, तब आप उस लड़ाई के बारे में अपनी राय जताने से नहीं बच सकते। आप यह सुविधा नहीं ले सकते कि आपकी गतिविधियों से किसी खास राजनीति को मदद पहुंचे, लेकिन आप उस राजनीति के परिणामों से बचे रहें। मसलन, माओवादियों और माकपा के संघर्ष पर मानवाधिकार आंदोलन को अपनी राय न सिर्फ रखनी चाहिए, बल्कि उसे व्यक्त भी करना चाहिए। गौरतलब है कि माकपा से राजनीतिक लाइन पर माओवादियों का विरोध चार दशक पुराना है। १९६७ में माकपा से ही विद्रोह कर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा अस्तित्व में आई थी, जिसे अब माओवाद कहा जाता है।

नक्सलबाड़ी से किसान विद्रोह करते हुए नई धारा ने भारतीय राज्य को चुनौती दी थी, जिसे तब कुचल दिया गया था। माओवाद के समर्थक आज भी मानते हैं कि उन्हें कुचले जाने में इसलिए सरकार कामयाब हो गई, क्योंकि माकपा ने सरकार का साथ दिया। माओवादी इसे “गद्दारी” मानते हैं। बहरहाल, माकपा की लाइन तब राजनीतिक रूप से सफल रही और दस साल के अंदर वह न सिर्फ पश्चिम बंगाल में सत्ता में आ गई, बल्कि भारतीय वामपंथ की वह मुख्यधारा बन गई। सत्ता में आते ही भूमि सुधार और पंचायती राज व्यवस्था लागू कर उसने अपना मजबूत जनाधार बना लिया। इसी की बदौलत वह ३२ साल से सत्ता में है। लेकिन पिछले वर्षों के दौरान पनपे असंतोष और सिंगूर एवं नंदीग्राम के औद्योगिकरण के नाकाम प्रयोगों ने अब उसके हाथ से सत्ता छिन जाने की वास्तविक स्थिति बना दी है।

माकपा की कमजोर हुई स्थिति का अंदाजा लगाते हुए माओवादियों ने माकपा पर हमला बोल दिया। ममता बनर्जी से मिली आड़ का फायदा उठाकर उन्होंने पहले नंदीग्राम से माकपा समर्थकों को खदेड़ा और शायद यह कहने में कोई अतिशोक्ति नहीं है कि उन्होंने लालगढ़ में माकपा समर्थकों के खून की होली खेली है। यह सवाल प्रासंगिक है कि क्या उनसे बातचीत की वकालत करने वाले बुद्धिजीवीयों/मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की इस बारे में भी कोई राय है?

माओवादियों की मुश्किल दरअसल यह है कि उनकी नीतियों और कार्यक्रम में अक्सर समाज की वस्तुगत स्थितियों और विकासक्रम के मौजूदा स्तर की अनदेखी की जाती है। यह मनोगत सोच इस हद तक जाती है कि माकपा दुश्मन और ममता बनर्जी दोस्त नजर आने लगती हैं। बहरहाल, यह एक हकीकत है कि अपनी दुस्साहसी कार्रवाइयों से माओवादियों ने वाम जनमत की सहानुभूति खो दी है, इसलिए केंद्र सरकार के लिए अब उनके खिलाफ कार्रवाई करना ज्यादा आसान हो गया है। ऐसी कार्रवाइयों में अक्सर बहुत से निर्दोष लोगों के मानवाधिकारों का हनन होता है, इसलिए बौद्धिक वर्ग का एक हिस्सा विचलित है। यह चिंता जायज है और ऐसे नागरिक अधिकार के ऐसे हर हनन का विरोध जरूरी है। यह काम कठिन है, क्योंकि मध्य वर्ग और मुख्यधारा कॉरपोरेट मीडिया में सरकार की इस राय से पूरी सहमति है कि माओवादी देश के लिए एक बड़ा खतरा हैं। चूंकि जिन तबकों के मूलभूत मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, उनसे मध्यवर्ग का कोई सीधा लगाव या संपर्क नहीं है, इसलिए उसका सरकारी और कॉरपोरेट मीडिया के निहित स्वार्थी प्रचार में बह जाना आसान है।

दरअसल, ऐसे ही मौकों पर ऐसे नागरिक/लोकतांत्रिक/मानवाधिकार संगठनों की जरूरत महसूस होती है, जो इस मध्यवर्ग के सहयोग से सरकार पर अपने संवैधानिक वचनबद्धताओं पर अमल के लिए दबाव बना पाते। लेकिन दुर्भाग्यवश इन संगठनों ने अपनी सक्रियता के पिछले चार या पांच दशकों के इतिहास में भारतीय राष्ट्र, इसके विकासक्रम और सामाजिक विकास के स्तर के संदर्भ में मानवाधिकारों की व्याख्या और मानवाधिकारों का राजनीतिक आधार बनाने की कोशिश नहीं की, जिससे सरकार एवं सुरक्षा एजेंसियों के लिए उन्हें हिंसक समूहों के साथ ब्रांड कर देना मुमकिन बना रहा है। आज एक बार फिर से वे इस बात का शिकार हो रहे हैं।

अगर मौजूदा स्थिति से वे कोई सबक ले सकते हैं, तो उन्हें मानवाधिकारों की मानव विकासक्रम के संदर्भ में व्याख्या करनी चाहिए और खुद को किसी भी संगठन या पार्टी का ढाल नहीं बनने देना चाहिए। आज जरूरत इस बात की है कि नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाए और इसमें ऐसे संगठनों की बड़ी भूमिका है। लेकिन ये भूमिका वे तभी निभा सकते हैं, जब अपने लिए उस दायरे में राजनीतिक आधार बना सकें, जिसमें वे काम करते हैं।

1 comment:

अफ़लातून said...

मानवाधिकार संगठनों की बाबत आपकी राय जायज है। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में इन संगठनों पर आपके सवालों के जवाब दिए जाने चाहिए। माकपा से अलग होते वक्त मौजूदा लोकतंत्र को बुर्जुआ तथा वर्ग शत्रु के खात्मे को रणनीति बताने वाले समूह का बड़ा धड़ा माओवादी हैं परन्तु स्टालिन तथा क्रान्ति में हिंसा की भूमिका की बाबत माकपा -भाकपा को भी अपनी राय स्पष्ट बतानी चाहिए। छठे और सातवें दशक के नागरिक अधिकार संगठनों में बहुत से सर्वोदयी भी सक्रिय थे जिन पर हिंसा का साथ देने का आरोप लगाना नामुमकिन था। १९७७ की केन्द्र सरकार द्वारा कथित मुट्भेड़ों की जांच हेतु समिति बनाना मानवाधिकार के मार्ग में मील का पत्थर था।