Sunday, March 14, 2010

लो, हमने फिर हॉकी को दिल दे दिया!


सत्येंद्र रंजन


होली की पूर्व संध्या पर भारतीय हॉकी टीम ने अपने देशवासियों को रंगारंग उपहार दिया। पाकिस्तान पर उसकी जोरदार जीत ने हॉकी प्रेमियों की होली में कुछ ज्यादा ही मस्ती घोल दी। मगर वो रंग होली के साथ ही उतर गया। फिर भी, लगातार कई हार के बावजूद वर्ल्ड रैंकिंग में १२वें नंबर की टीम ने विश्व कप टूर्नामेंट आठवें स्थान के साथ पूरा किया। पहले दिन की जीत से बढ़ी अपेक्षाओं की कसौटी पर यह निराशानजक नतीजा हो सकता है, लेकिन अगर ठोस धरातल पर देखें तो १२वें हॉकी विश्व कप से भारतीय हॉकी के लिए कई सकारात्मक सबक लिए जा सकते हैं।

दिल्ली के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में हर रोज जो नज़ारा रहा उसका संदेश यही था कि इस देश के लोगों, खासकर दिल्लीवासियों ने फिर से हॉकी को दिल दिया है। स्टेडियम में जोश और खासकर नौजवानों की बड़ी संख्या में मौजूदगी इस बात का प्रमाण देती रही कि हॉकी अब भी लोगों के मन में बसी है। इस खेल में भारत का गौरवशाली इतिहास लोगों की स्मृतियों में हैं। एक दस्तूर की तरह नौजवान पीढ़ी के संस्कारों तक इसकी कथाएं पहुंचती रही हैं। फाइनल में हालांकि भारत नहीं था, इसके बावजूद स्टेडियम का पूरी तरह भर जाना इस खेल से लोगों के लगाव की मिसाल था। और यह बात सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं थी, इसका संकेत हॉकी मैचों को मिली टीआरपी है। भारत और पाकिस्तान के मैच को तो क्रिकेट के वन डे मैचों के बराबर टेलीविजन पर दर्शक मिले।

जाहिर है, अगर हॉकी प्रशासकों को आपसी झगड़े से फुर्सत मिले तो यहां से एक नई शुरुआत हो सकती है। अगर हॉकी के आधार इलाकों- मसलन, पंजाब, केरल और झारखंड- में आधुनिक हॉकी की सुविधाएं मुहैया कराई जाएं और कोचिंग का उत्तम प्रबंध हो- तो भारतीय टीम दुनिया की टॉप टीमों में अपनी जगह बना सकती है। मगर यह कठिन रास्ता है और इसके लिए संभवतः कुछ भ्रमों से उबरने की जरूरत होगी।

अपने पुराने गौरव को याद करते रहने या इस पर अफसोस करने कि अब हमारा विश्व हॉकी में वैसा रुतबा नहीं रहा- कोई लाभ नहीं है। सबसे पहले शायद यह स्वीकार करने की जरूरत है कि हम जिस हॉकी में दशकों तक चैंपियन रहे, वह वो हॉकी नहीं थी, जो आज खेली जाती है। पिछले दशकों में हुए बदलावों ने इस खेल को पूरी तरह बदल दिया है। यानी यह कहा जा सकता है कि यह एक नया खेल है। सबसे पहले एस्ट्रो टर्फ़ ने हॉकी की जमीन बदली और फिर सब कुछ ही बदलता गया। स्टिक में लकड़ी की जगह ग्रेफाइट और फाइबर ग्लास ने ली, तो चमड़े की सीवन वाली गेंद की जगह रबर और प्लास्टिक से बनी गेंदों ने ले ली। खिलाड़ियों की सुरक्षा के लिए नए किट आ गए। उधर खेल के नियमों में बदलाव ने पुराने ढर्रे को बेकार कर दिया। मैच बुलीऑफ की जगह पास-इन से शुरू होने लगे, ऑफ साइड का प्रावधान खत्म हो गया, पेनाल्टी कॉर्नर और स्ट्रोक लेने के तरीके बदल गए।

इन बदलावों ने कौशल और खूबसूरती के एशियाई ढर्रे पर ताकत, तेजी और स्टैमिना की यूरोपीय शैली को हावी कर दिया। मगर अब यही हकीकत है। अगर हॉकी में चमकना है तो कृत्रिम घास, नए ढंग की किट और नए नियमों में माहिर होना पड़ेगा। यह रोना अब पुराना पड़ गया है कि हॉकी पर भारत और पाकिस्तान के वर्चस्व को तोड़ने के लिए यूरोपीय देशों ने ये बदलाव किए। इस बात में कुछ सच्चाई हो भी सकती है, लेकिन अब इस सच्चाई को बदला नहीं जा सकता। और इसका यह भी मतलब नहीं है कि अब भारत एक बार फिर से इस खेल में अपना सिर ऊंचा नहीं कर सकता। दक्षिण कोरिया की सफलताएं इस संदर्भ में हमें कुछ सीख दे सकती हैं।

हॉकी एक तीखी प्रतिस्पर्धा वाला खेल है। १२७ देश इसे खेलते हैं, जिनमें बहुत से विकसित देश हैं। उन देशों में आधुनिक सुविधाएं और कोचिंग के इंतजाम हैं। इसलिए ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, हॉलैंड, स्पेन और इंग्लैंड का इसमें बड़ी ताकत होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अब अगर भारत को उनके मुकाबले खड़ा होना है, तो इसके लिए उनकी टक्कर के इंतजाम अपने यहां भी करने होंगे। मेजर ध्यानचंद स्टेडियम जैसे कई मैदान देश में अगर बनाए जा सकें तो निश्चित रूप से भारतीय टीम जीत के बेहतर उपहार अपने देशवासियों को देने की स्थिति में होगी।

हॉकी की विडंबना यह है कि यह दुनिया के बहुत से देशों में खेली जाती है, मगर यह शायद किसी भी बड़े देश का पहला- यानी सबसे ज्यादा लोकप्रियता वाला- खेल नहीं है। इसी वजह से इस खेल में उतना पैसा नहीं है, जितना सिर्फ अमेरिका में खेले जाने वाले अमेरिकन फुटबॉल या महज दस देशों में खेले जाने वाले क्रिकेट में है। आज के युग में भी हॉकी विश्व कप के प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट को सिर्फ सवा लाख भारतीय रुपए का इनाम मिलना क्या अपने-आप में पूरी कहानी नहीं कह देता है? इस तथ्य का यह भी संदेश है कि भारत भले यूरोपीय देशों या ऑस्ट्रेलिया से गरीब हो, लेकिन जितना पैसा वे देश हॉकी पर खर्च करते हैं, उतना यहां भी किया जा सकता है, बशर्ते इसके लिए देश की सरकार, हॉकी प्रशासकों और कॉरपोरेट हलके में इच्छाशक्ति हो। दिल्ली विश्व कप ने यह तो दिखा ही दिया है कि अगर इस खेल में भारतीय टीम चमके तो न हॉकी की लोकप्रियता कम रहेगी और ना ही टीआरपी का टोटा रहेगा। पुरानी हॉकी के आठ ओलिंपिक स्वर्ण पदक और १९७५ के क्वालालंपुर विश्व कप की विजयगाथा को दोहराना शायद आसान नहीं हो, लेकिन नई हॉकी में भी भारत की शान बुलंद हो सकती है- यह उम्मीद दिल्ली विश्व कप ने बंधाई है। लोगों ने हॉकी को फिर दिल दिया है, अब प्रशासकों की बारी है!

1 comment:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

खिलाड़ी अपनी उम्र कम लिखवाते हैं. विभिन्न खेलों पर नेता और अफसर काबिज हैं. टेनिस और क्रिकेट के अलावा और किसी खेल के लिये पैसा है ही नहीं. बेईमानी ही हर बीमारी की जड़ है.