Wednesday, March 31, 2010

माओवाद और मानवाधिकार

सत्येंद्र रंजन

माओवादियों से संबंध के आरोप में छत्तीसगढ़ के पीयूसीएल के कार्यकर्ता विनायक सेन करीब दो साल जेल में रहे। दिल्ली में गिरफ्तार माओवादी नेता कोबाड घांदी के खिलाफ फरवरी २०१० में दर्ज चार्जशीट में पुलिस ने गौतम नवलखा, जीएन साइबाबा, रोना विल्सन और दर्शन पाल समेत कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं पीयूडीआर, पीयूसीएल, एपीडीआर आदि जैसे नागरिक एवं लोकतांत्रिक अधिकार संगठनों पर गैर कानूनी गतिविधियों में शामिल रहने का आरोप लगाया है। यहां साफ तौर पर गैर-कानूनी गतिविधियों का मतलब माओवादियों/नक्सलवादियों से रिश्ता रखना या उनकी गतिविधियों को मदद पहुंचाने से है। चार्जशीट में कहा गया है कि ये संगठन सीपीआई (माओवादी) का आधार बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। इन संगठनों ने इस आरोप से इनकार किया है और इसे असहमति या संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन को उजागर करने वाले समूहों पर शिकंजा कसने की सरकारी कोशिश का हिस्सा बताया है।

मानवाधिकार संगठन या कार्यकर्ता कोई पहली बार इस तरह के निशाने पर आए हों, ऐसा नहीं है। टकराव के इलाकों में अक्सर यह देखने को मिला है कि टकराव के दोनों पक्षों- एक तरफ सुरक्षा बल और दूसरी तरफ अपने उद्देश्यों के लिए हिंसक लड़ाई लड़ रहे समूहों के बीच खुद को नागरिक/ लोकतांत्रिक/ मानवाधिकार संगठन कहने वाले समूहों की एक भूमिका बन जाती है। इस भूमिका आम तौर पर सरकार या सुरक्षा बलों के मुश्किलें खड़ी करती हैं। यह उनकी कार्रवाइयों को कई तरह के सवालों के घेरे में लाती है। ये सवाल सुरक्षा कार्रवाइयों के संविधान और कानून में वर्णित प्रावधानों की सीमा में न रहने से खड़े होते हैं। सबसे महत्तवपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि किसी विद्रोह और हिंसक संघर्ष को दबाने के लिए आखिर सरकार कहां तक जा सकती है? क्या वह खुद उन कायदों और कानूनों का उल्लंघन कर सकती है, जिसके आधार पर उसकी जन-वैधता है? मानवाधिकारों के दायरे को अगर बड़ा कर देखा जाए तो सवाल यह भी उठता है कि आखिर विद्रोह या हिंसक संघर्षों के लिए जिम्मेदार कौन है? जिन वजहों से ये स्थितियां पैदा होती हैं, आखिर वे वजहें समाज में क्यों मौजूद हैं?

ये सवाल कठिन और तीखे हैं। सरकारों के पास अक्सर इनका वैध और तार्किक जवाब नहीं होता। इसलिए सरकार और सुरक्षा बल पलट कर नागरिक/ लोकतांत्रिक/ मानवाधिकार संगठनों पर वार करते हैं। पहला वार इन संगठनों की साख पर किया जाता है। पूछा जाता है कि आखिर ये संगठन किसके लिए या किसकी तरफ से काम कर रहे हैं? उनके होने का मैंडेट यानी जनादेश क्या है? उन्हें इन कामों के लिए संसाधन कहां से मिलते हैं? और ये संगठन तब कहां रहते हैं जब विद्रोही या हिंसक समूहों की तरफ से ‘मानवाधिकारों का हनन’ होता है?

आज माओवादियों बनाम सरकार की लड़ाई के संदर्भ में ये सवाल आज फिर से उठाए जा रहे हैं। चूंकि सीपीआई (माओवादी) एक प्रतिबंधित संगठन है, इसलिए उससे रिश्ता रखना या उसकी गतिविधियों में किसी भी तरह से मददगार बनना जुर्म है। ऐसे में पुलिस अगर किसी कार्यकर्ता या संगठन को उनका साथी बता रही हो, तो इस बात आशंका सचमुच रहती है कि उनके खिलाफ देर-सबेर कार्रवाई हो सकती है। इसलिए कोबाड घांदी के खिलाफ पेश चार्जशीट में नाम आने पर संबंधित संगठनों का सतर्क होना और उस पर प्रतिवाद करना समझ में आता है।

बहरहाल, माओवाद का मौजूदा संदर्भ इन संगठनों के सामने सिर्फ सरकारी नज़रिए से ही नहीं जनतांत्रिक नज़रिए से भी कुछ सवाल खड़ा कर रहा है। भारत में मानवाधिकार आंदोलन का इतिहास अब लंबा हो चुका है। अगर आजादी के पहले हुए प्रयासों को छोड़ दें तब भी कम से कम १९६० के दशक से नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की बात करने वाले संगठन मौजूद रहे हैं। इमरजेंसी और उसके बाद ऐसे संगठनों का और प्रसार हुआ। लेकिन जिस मध्यवर्गीय दायरे में ये संगठन काम करते हैं, उसमें ये अपने विचार और एजेंडे का प्रचार-प्रसार क्यों नहीं कर पाए, और उनके बीच ये संगठन अपना ठोस आधार क्यों नहीं बना पाए, यह इन संगठनों के लिए आत्ममंथन का विषय होना चाहिए। आखिर ऐसा क्यों है कि सरकार जिन सवालों से इन संगठनों को घेरती है, उस पर बहुत से लोग भरोसा कर लेते हैं?

क्या इसकी वजह यह है कि ये संगठन नागरिक या लोकतांत्रिक अधिकारों की व्याख्या सामाजिक संरचना के व्यापक सवालों से अलग हट कर करते हैं? क्या सामाजिक एवं मानव विकास-क्रम के संदर्भ से काटकर नागरिक अधिकारों का कोई राजनीतिक आधार बन सकता है और क्या बिना ऐसे आधार के इन अधिकारों की सुरक्षा संभव है? नागरिक या लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाले सभी संगठनों को एक ही कोष्ठक में नहीं रखा जा सकता, मगर उनमें से कई संगठन लोगों के संवैधानिक अधिकारों की बात करते-करते किसी खास राजनीति का भी हिस्सा बन जाते हैं, यह बात अनुभव के आधार पर कही जा सकती है। वह राजनीति कई बार किसी उदार या उद्दात्त विचारधारा पर आधारित नहीं होती। खुद उस राजनीति या उस पर आधारित संघर्ष में मूलभूत मानवीय स्वतंत्रता के लिए कोई जगह नहीं होती। लेकिन मौजूदा राज्य-व्यवस्था के अनिवार्य रूप से जन विरोधी होने की समझ ऐसे कुछ मानवाधिकार संगठनों को उन संघर्षों के पक्ष में खड़ा कर देती है। ऐसी गलती अनजाने में होती है या सचमुच कुछ कथित मानवाधिकार संगठन हिंसक लड़ाई लड़ रहे समूहों द्वारा अपने मोर्चे या ढाल के रूप बनाए जा सकते हैं, यह पड़ताल का विषय है। मगर इन संगठनों की यह भूमिका उन्हें बहुत से लोगों की निगाहों में संदिग्ध कर देती है और इसी वजह से सरकार की दलीलों आम लोग स्वीकार कर लेते हैं। इसकी मिसाल पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद के दौरान देखने को मिली थी।

बहरहाल, अभी विचार का संदर्भ माओवादी संघर्ष है, इसलिए हम अपनी बात को वहीं सीमित रखेंगे। सीपीआई (माओवादी) की गतिविधियों ने देश के बड़े हिस्से को संघर्ष क्षेत्र में तब्दील कर दिया है। यह पार्टी अपनी विचारधारा के मुताबिक सशस्त्र लड़ाई लड़ रही है, जिसका मकसद भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना है। सरल और साधारण शब्दों में इस बात को इसी रूप में रखा जाना चाहिए। मगर जब मानवाधिकार संगठनों से जुड़े कुछ लोग ऐसी कोशिश में शामिल दिखते हैं, जिससे यह संदेश जाता है जैसे माओवादी न्याय की लड़ाई की अकेली धुरी हैं, तो ऐसे कार्यकर्ताओं की राजनीति या उनके राजनीतिक रुझान का सवाल खड़ा होता है। अगर मानवाधिकार कार्यकर्ता सुरक्षा बलों की ज्यादतियों को दर्ज कर रहे हों, तो इसे उनके स्वयंसेवी काम का हिस्सा माना जाएगा। लेकिन जब ये कार्यकर्ता सरकार और माओवादियों के बीच बातचीत के लिए मध्यस्थ बनने लगें या दो तरफ से बातचीत की पेशकश की चल रही चालों को समझते हुए भी बातचीत की वकालत करने लगें, तो यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है।

बातचीत के ये चालें महज एक धोखा हैं। केंद्र सरकार लंबे समय से माओवादियों को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानती रही है और अब अपने लिए अनुकूल स्थिति पाकर उसने उनके खिलाफ बड़ी कार्रवाई शुरू कर दी है। उधर माओवादी भी किसी ऐसे मुद्दे के लिए नहीं लड़ रहे हैं, जिस पर बातचीत हो सके। वे राजसत्ता पर सशस्त्र कब्जे के लिए लड़ रहे हैं। इसके अलावा वो जो भी मुद्दे उठाते हैं, वो महज कार्यनीतिक या रणनीतिक चालें हैं। क्या मध्यस्थ बनने या बातचीत पर जोर डालने वाले बुद्धिजीवी या मानवाधिकार कार्यकर्ता यह साधारण सी बात नहीं समझते?

पिछले महीनों में यह एक नया रुझान रहा है कि माओवादियों की हिंसा या तोड़फोड़ की हर कार्रवाई के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय सार्वजनिक बयान जारी कर माओवादियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है। साथ ही माओवादियों के समर्थक बुद्धिजीवियों को भी चुनौती दी जाती है कि वे ऐसी कार्रवाइयों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें। इसी क्रम में माओवादियों से बातचीत की मांग उठाए जाने पर केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने यह शर्त रख दी कि अगर माओवादी हिंसा रोक दें तो सरकार उनसे हर मुद्दे पर पर बातचीत को तैयार है। इसके पहले सरकार का रुख यह होता था कि नक्सली या हथियारबंद लड़ाई लड़ रहे किसी गुट या संगठन से वह तभी बात करेगी, जब वे हथियार डाल दें। चिदंबरम ने यह साफ किया कि वे अभी माओवादियों से हथियार डालने को नहीं कह रहे हैं और माओवादियों के पैरोकारों से कहा कि वे इस गुट को हिंसा छोड़ कर बातचीत की मेज पर आने के लिए राजी करें।

इस पर लालगढ़ में सक्रिय माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी ने ७२ दिन तक संघर्षविराम की पेशकश कर दी, बशर्ते केंद्र अपनी कार्रवाई रोक दे। मगर इसके कुछ ही समय पहले सरकार से बातचीत के सवाल पर सीपीआई (माओवादी) ने अपना जो रुख अपनाया था, वह गौरतलब है। पार्टी की सेंट्रल कमेटी के प्रवक्ता आजाद ने कहा था- “माओवादियों से हथियार डाल देने के लिए कहना उन ऐतिहासिक एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के प्रति घोर अज्ञानता को जाहिर करता है, जिनकी वजह से माओवादी आंदोलन का उभार हुआ है। इसके बावजूद दोनों पक्षों की तरफ से युद्धविराम पर सहमति बन सकती है, बशर्ते सरकार माओवादियों द्वारा हिंसा छोड़े जाने के बारे में अपना अतार्किक रुख छोड़ दे।” आजाद ने कहा कि सरकार को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और इस पर फैसला करना चाहिए कि क्या वह सरकारी आतंकवाद एवं जनता के खिलाफ अनियंत्रित हिंसा छोड़ने को तैयार है। माओवादियों की मांग रही है कि अगर सरकार बातचीत चाहती है तो वह इसके लिए ‘अनुकूल माहौल’ बनाए। मगर इसमें पेच यह है कि माओवादी ‘अनुकूल माहौल’ की जो व्याख्या करते रहे हैं, अगर वह बन जाए तो फिर बातचीत की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। ‘अनुकूल माहौल’ की फेहरिश्त लंबी है।

इसमें माओवाद प्रभावित इलाकों से अर्धसैनिक बलों की वापसी से लेकर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के ‘अमानवीय अत्याचार’ की जांच के लिए निष्पक्ष न्यायिक आयोग की स्थापना; गिरफ्तार हुए माओवादी पार्टी से जुड़े और उसके समर्थक तमाम लोगों की रिहाई से लेकर गैर-कानूनी गतिविधि (निरोधक) कानून, छत्तीसगढ़ विशेष लोक सुरक्षा कानून, सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून आदि जैसे कानूनों को रद्द करने; आदिवासियों के लिए सरकारी पुनर्वास शिविरों को बंद करने से लेकर सलवा जुडुम के हाथों विस्थापित हुए ‘दो लाख आदिवासियों’ एवं ‘सरकारी आतंक’ का शिकार हुए अन्य लोगों को उचित मुआवजा देने; बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं बड़े व्यापारिक घरानों से खनन के लिए हुए सभी सहमति-पत्रों को रद्द करने से लेकर सभी विशेष आर्थिक क्षेत्रों को खत्म करने की मांगें शामिल हैं। यानी जब सरकार इतनी मांगें मान लेगी तभी सीपीआई (माओवादी) बातचीत के लिए तैयार होगी।

सरकार के ऑपरेशन ग्रीनहंट को लेकर कड़े रुख और माओवादियों के इस रुख को देखते हुए यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन दोनों पक्षों के बीच आखिर बातचीत की कितनी गुंजाइश है। ऐसा लगता है कि इन दोनों पक्षों ने महाभारत की कथा के उस प्रकरण से सीख ली है, जिसके मुताबिक कृष्ण को यह मालूम था कि युद्ध होगा, इसके बावजूद उन्होंने शांति प्रस्ताव कौरवों के सामने रखे, ताकि जब युद्ध हो तो उसकी जिम्मेदारी कौरवों के माथे पर ही जाए। यानी यहां सरकार और माओवादी दोनों में कोई भ्रम में नहीं है कि आगे का रास्ता किधर है।

लोकतंत्र में बातचीत निसंदेह विवादों और मुद्दों को हल करने का सबसे बड़ा माध्यम है। लेकिन यह माध्यम तभी कारगर होता है जब मुद्दे ठोस और सुपरिभाषित हों। अगर मुद्दे महज असली मकसद को ढकने के लिए उठाए गए हों, तो बातचीत से कुछ हासिल नहीं होता। इस संदर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि क्या सीपीआई (माओवादी) सचमुच उन्हीं मुद्दों के लिए लड़ रही है, जिन्हें उठाकर उसने आदिवासी और कुछ दूसरे वंचित समूहों में अपना जनाधार बनाया है, या उसका असली मकसद ‘सशस्त्र क्रांति’ के जरिए राजसत्ता पर कब्जा करना है? इस सवाल का जवाब हम सभी जानते हैं। इसलिए जो बुद्धिजीवी या संगठन शांति और न्याय के नाम पर बातचीत की वकालत कर रहे हैं, उन्हें खुलकर यह बताना चाहिए कि क्या वे माओवादियों की धारणा के मुताबिक क्रांति का समर्थन करते हैं?

यह प्रश्न इसलिए ज्यादा अहम है, क्योंकि अभी जारी विमर्श में यह संदेश देने की कोशिश हो रही है कि मौजूदा हालात में सिर्फ दो पक्ष हैं- एक सरकार और दूसरा माओवादी। परोक्ष रूप से कहा यह जा रहा है कि माओवादी देश में न्याय, आदिवासियों के बुनियादी हितों की रक्षा और बेहतर भविष्य की एकमात्र शक्ति हैं, और जिनकी भी इन बातों में आस्था हो, उनके पास माओवादियों का समर्थन करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। चरमपंथी दलीलों के बीच माओवादियों के अराजकतावादी तौर-तरीकों, उनके वैचारिक दिवालियेपन और नकारवादी नजरिए को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस चर्चा में यह बात पूरी तरह गौण हो जाती है कि कैसे अपनी दुस्साहसी कार्रवाइयों से माओवादियों ने खनिज पदार्थों से संपन्न इलाकों में तमाम प्रतिरोध को तोड़ देने का मौका सरकार को मुहैया करा दिया है।

इस सवाल को हाल में बुद्धिजीवियों के एक समूह ने उठाया है। उनके बयान का यह हिस्सा गौरतलब है- “कई इलाकों में माओवादी हिंसा के उभार में एक आम रुझान है। पहले लोगों को हाशिये पर धकेले जाने, विस्थापन या पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों द्वारा आदिवासियों पर हिंसा के विरोध में पश्चिम बंगाल में पुलिस अत्याचार विरोधी जनसाधारनेर कमेटी या उड़ीसा में चासी मुलिया आदिवासी संघ जैसे अहिंसक संगठन उभरते हैं। फिर वहां माओवादी पहुंच जाते हैं और आंदोलन को हथिया कर उसे हिंसक स्वरूप देने की कोशिश करते हैं। सरकार और भी ज्यादा हिंसा के साथ उसका जवाब देती है, जिसके निशाने पर सिर्फ माओवादी नहीं बल्कि उनसे न जुड़े आदिवासी भी बनते हैं। तब कुछ आदिवासी आत्मरक्षा में माओवादियों से जुड़ जाते हैं। छत्रधर महतो, लालमोहन टुडू, सिंगन्ना आदि जैसे उनके नेता या तो गिरफ्तार कर लिए जाते हैं या उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार डाला जाता है। बड़ी संख्या में आदिवासियों को माओवादी या उनका समर्थक बता दिया जाता है। उन्हें गिरफ्तार किया जाता है, मार डाला जाता है या आतंकित किया जाता है। सुरक्षा बलों के अनियंत्रित इस्तेमाल और लोगों के मौलिक अधिकारों के हनन की वजह से ऐसे मामलों में माओवादी हिंसा को वैधता मिल जाती है। दूसरी तरफ एक सशस्त्र समूह द्वारा एकतरफा और विचाराधारा आधारित युद्ध की भाषा के इस्तेमाल से आम लोगों की राजनीतिक पहल धूमिल हो जाती है। इन लोगों की इस समूह की घोषणाओं में कोई भूमिका नहीं होती। इस क्रम में वहां के आम लोगों के मानवाधिकारों का भी हनन किया जाता है, जो आजीविका के लिए सरकारी विभागों में नौकरी करते हैं।” इस पृष्ठभूमि में इन बुद्धिजीवियों की यह मांग तार्किक है कि सरकार को दरअसल इन आम लोगों और उनके संगठनों से बातचीत करनी चाहिए।

यह बयान इस बात की भी मिसाल है कि माओवादियों की भूमिका पर देश के वाम-जनतांत्रिक जनमत में एक राय नहीं है। जाहिर है, सरकार के अपने एजेंडे के लिए यह अनुकूल स्थिति है। सरकार संभवतः यह मान कर चल रही है कि इस वक्त मुख्यधारा या संसदीय दायरे में माओवादियों को लेकर जितना विरोध भाव है, उतना पिछले कई वर्षों में कभी नहीं था। इस दायरे में माओवादी लगभग पूरी हमदर्दी खो चुके हैं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, उसके नेतृत्व वाला वाम मोर्चा और उनका समर्थक जनमत अभी कुछ समय पहले तक माओवादी समस्या को सिर्फ सुरक्षा के नजरिए से देखने का विरोध करता था। माओवाद से राजनीतिक रूप से निपटा जाए, यह जनमत इस बात की वकालत करता था। पिछड़े इलाकों के विकास और गरीब लोगों को न्याय दिलाने के कदम उठाकर माओवादियों को उनके समर्थक जनाधार से अलग किया जाए, ऐसे सुझाव जोरदार ढंग से दिए जाते थे। मई २००९ से पहले जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार अपनी स्थिरता को लेकर आज की तरह निश्चिंत नहीं थी, वह ऐसे सोच और इस जनमत की अनदेखी नहीं कर पाती थी।

मगर अब हालात बदल चुके हैं। पिछले आम चुनाव ने मनमोहन सिंह सरकार को स्थिर बना दिया। इस बीच माओवादियों ने पिछले दो साल से पश्चिम बंगाल में जैसा व्यवहार किया, उससे वाम रुझान वाला देश का बड़ा जनमत न सिर्फ उनसे विरोध भाव, बल्कि वैर भाव भी रख रहा है। नंदीग्राम और उसके बाद लालगढ़ में माओवादियों ने माकपा को अपना निशाना बनाया। माकपा की जड़ें खोदने की उनकी मंशा बहुत पुरानी है। सिंगूर और नंदीग्राम में उद्योग लगाने के लिए खेती की जमीन के अधिग्रहण की पश्चिम बंगाल सरकार की कोशिशों ने राज्य के किसानों में जो असंतोष पैदा किया, उससे माओवादियों को इस मंशा को पूरा करने का मौका मिल गया। इसके लिए उन्होंने ममता बनर्जी से अघोषित मोर्चा बनाया। माओवादियों ने पश्चिम मेदिनीपुर जिले के लालगढ़ में अपनी हिंसक कार्रवाइयों में मानवीय संवेदना का हर ख्याल छोड़ दिया। या यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी कार्रवाइयों को बर्बरता की हद तक पहुंचा दिया। लालगढ़ में माकपा के एक कार्यकर्ता की हत्या कर उन्होंने उसकी लाश कई दिनों तक चौराहे पर पड़ी रहने दी, ताकि माकपा समर्थकों के मन में खौफ बैठाया जा सके। इसकी तुलना अगर किसी पहले की मिसाल से की जा सकती है, तो वह १९९० के दशक के मध्य में तालिबान के हाथों काबुल में हुई नजीबुल्लाह की हत्या है। अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की लाश कई दिनों तक काबुल के एक चौराहे पर फांसी दिए जाने के बाद लटकी थी। लालगढ़ के सालबोनी के बोड़ो जामदा हाई स्कूल में माकपा सदस्य और स्कूल शिक्षक कार्तिक महतो की हत्या बर्बरता की एक दूसरी मिसाल थी। मोटरसाइकिल से आए माओवादियों ने ३४ वर्षीय महतो की हत्या उस वक्त कर दी जब वे क्लास में बच्चों को पढ़ा रहे थे। माओवादियों ने इस बात का ख्याल नहीं किया कि ऐसी घटना का बच्चों के मासूम मन पर क्या असर होगा। असल में पिछले महीनों में माओवादियों के हाथों सौ से ऊपर माकपा कार्यकर्ता मारे गए हैं। मानवाधिकार संगठनों की कोई राय इस बारे में सुनने को नहीं मिली।

दरअसल, एक अहम सवाल यह भी है कि आखिर नंदीग्राम में किस बात की लड़ाई चल रही थी। जब सिंगूर के बाद वहां विस्थापन का विरोध हुआ तो पश्चिम बंगाल सरकार ने वहां बनने वाले केमिकल हब को रद्द करने की घोषणा कर दी। यह घोषणा १४ मार्च २००७ से काफी पहले कर दी गई थी, जिस रोज नंदीग्राम में पुलिस फायरिंग हुई। लेकिन केमिकल हब रद्द होने के बावजूद वहां किलेबंदी जारी रही। अब खुद माओवादी यह मान चुके हैं कि यह किलेबंदी उनकी थी। वहां से माकपा समर्थकों को मार-मार कर भगाया गया। किलेबंदी का हाल यह था कि पुलिस उस इलाके में प्रवेश नहीं कर सकती थी। प्रवेश की इसी कोशिश के दौरान १४ मार्च की फायरिंग हुई थी। मानवाधिकार संगठनों का इस बीच क्या फर्ज था? क्या उन्हें यह सच्चाई देश के सामने नहीं रखनी चाहिए थी? या माकपा समर्थकों का इसलिए कोई मानवाधिकार नहीं था, क्योंकि वे राज्य की सत्ताधारी पार्टी के समर्थक थे?

मानवाधिकार संगठनों की यह दलील होती है कि उनका काम सरकार और सुरक्षा बलों की निगरानी है। वे देखते हैं कि सुरक्षा एजेंसियां संवैधानिक दायरे में और खुद सरकार के बनाए कानूनों के मुताबिक के मुताबिक काम कर रही हैं या नहीं। चूंकि सरकार खुद अपराधियों के स्तर पर नहीं उतर सकती, इसलिए उसकी कार्रवाइयों की निगरानी जरूरी है और यही काम ये संगठन करते हैं। उनका काम निजी समूहों की गतिविधियों को देखना या उन पर नियंत्रण नहीं है। यह काम सरकार का है, लेकिन सरकार को यह काम संवैधानिक और कानूनी ढंग से करना चाहिए। ये बिल्कुल जायज दलील है और यही अधिकार समर्थक संगठनों का दायरा भी है। मगर मुश्किल तब आती है, जब संदर्भ राजनीतिक होता है।
माओवाद एक राजनीतिक विचारधारा है और सीपीआई (माओवादी) एक राजनीतिक लड़ाई लड़ रही है। यह अपराधियों का संगठन नहीं है। जब संदर्भ राजनीतिक हो, तब आप उस लड़ाई के बारे में अपनी राय जताने से नहीं बच सकते। आप यह सुविधा नहीं ले सकते कि आपकी गतिविधियों से किसी खास राजनीति को मदद पहुंचे, लेकिन आप उस राजनीति के परिणामों से बचे रहें। मसलन, माओवादियों और माकपा के संघर्ष पर मानवाधिकार आंदोलन को अपनी राय न सिर्फ रखनी चाहिए, बल्कि उसे व्यक्त भी करना चाहिए। गौरतलब है कि माकपा से राजनीतिक लाइन पर माओवादियों का विरोध चार दशक पुराना है। १९६७ में माकपा से ही विद्रोह कर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा अस्तित्व में आई थी, जिसे अब माओवाद कहा जाता है।

नक्सलबाड़ी से किसान विद्रोह करते हुए नई धारा ने भारतीय राज्य को चुनौती दी थी, जिसे तब कुचल दिया गया था। माओवाद के समर्थक आज भी मानते हैं कि उन्हें कुचले जाने में इसलिए सरकार कामयाब हो गई, क्योंकि माकपा ने सरकार का साथ दिया। माओवादी इसे “गद्दारी” मानते हैं। बहरहाल, माकपा की लाइन तब राजनीतिक रूप से सफल रही और दस साल के अंदर वह न सिर्फ पश्चिम बंगाल में सत्ता में आ गई, बल्कि भारतीय वामपंथ की वह मुख्यधारा बन गई। सत्ता में आते ही भूमि सुधार और पंचायती राज व्यवस्था लागू कर उसने अपना मजबूत जनाधार बना लिया। इसी की बदौलत वह ३२ साल से सत्ता में है। लेकिन पिछले वर्षों के दौरान पनपे असंतोष और सिंगूर एवं नंदीग्राम के औद्योगिकरण के नाकाम प्रयोगों ने अब उसके हाथ से सत्ता छिन जाने की वास्तविक स्थिति बना दी है।

माकपा की कमजोर हुई स्थिति का अंदाजा लगाते हुए माओवादियों ने माकपा पर हमला बोल दिया। ममता बनर्जी से मिली आड़ का फायदा उठाकर उन्होंने पहले नंदीग्राम से माकपा समर्थकों को खदेड़ा और शायद यह कहने में कोई अतिशोक्ति नहीं है कि उन्होंने लालगढ़ में माकपा समर्थकों के खून की होली खेली है। यह सवाल प्रासंगिक है कि क्या उनसे बातचीत की वकालत करने वाले बुद्धिजीवीयों/मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की इस बारे में भी कोई राय है?

माओवादियों की मुश्किल दरअसल यह है कि उनकी नीतियों और कार्यक्रम में अक्सर समाज की वस्तुगत स्थितियों और विकासक्रम के मौजूदा स्तर की अनदेखी की जाती है। यह मनोगत सोच इस हद तक जाती है कि माकपा दुश्मन और ममता बनर्जी दोस्त नजर आने लगती हैं। बहरहाल, यह एक हकीकत है कि अपनी दुस्साहसी कार्रवाइयों से माओवादियों ने वाम जनमत की सहानुभूति खो दी है, इसलिए केंद्र सरकार के लिए अब उनके खिलाफ कार्रवाई करना ज्यादा आसान हो गया है। ऐसी कार्रवाइयों में अक्सर बहुत से निर्दोष लोगों के मानवाधिकारों का हनन होता है, इसलिए बौद्धिक वर्ग का एक हिस्सा विचलित है। यह चिंता जायज है और ऐसे नागरिक अधिकार के ऐसे हर हनन का विरोध जरूरी है। यह काम कठिन है, क्योंकि मध्य वर्ग और मुख्यधारा कॉरपोरेट मीडिया में सरकार की इस राय से पूरी सहमति है कि माओवादी देश के लिए एक बड़ा खतरा हैं। चूंकि जिन तबकों के मूलभूत मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, उनसे मध्यवर्ग का कोई सीधा लगाव या संपर्क नहीं है, इसलिए उसका सरकारी और कॉरपोरेट मीडिया के निहित स्वार्थी प्रचार में बह जाना आसान है।

दरअसल, ऐसे ही मौकों पर ऐसे नागरिक/लोकतांत्रिक/मानवाधिकार संगठनों की जरूरत महसूस होती है, जो इस मध्यवर्ग के सहयोग से सरकार पर अपने संवैधानिक वचनबद्धताओं पर अमल के लिए दबाव बना पाते। लेकिन दुर्भाग्यवश इन संगठनों ने अपनी सक्रियता के पिछले चार या पांच दशकों के इतिहास में भारतीय राष्ट्र, इसके विकासक्रम और सामाजिक विकास के स्तर के संदर्भ में मानवाधिकारों की व्याख्या और मानवाधिकारों का राजनीतिक आधार बनाने की कोशिश नहीं की, जिससे सरकार एवं सुरक्षा एजेंसियों के लिए उन्हें हिंसक समूहों के साथ ब्रांड कर देना मुमकिन बना रहा है। आज एक बार फिर से वे इस बात का शिकार हो रहे हैं।

अगर मौजूदा स्थिति से वे कोई सबक ले सकते हैं, तो उन्हें मानवाधिकारों की मानव विकासक्रम के संदर्भ में व्याख्या करनी चाहिए और खुद को किसी भी संगठन या पार्टी का ढाल नहीं बनने देना चाहिए। आज जरूरत इस बात की है कि नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाए और इसमें ऐसे संगठनों की बड़ी भूमिका है। लेकिन ये भूमिका वे तभी निभा सकते हैं, जब अपने लिए उस दायरे में राजनीतिक आधार बना सकें, जिसमें वे काम करते हैं।

Wednesday, March 17, 2010

अमेरिकापरस्ती का राजनीतिक आधार

सत्येंद्र रंजन

म आदमी का मुखौटा ओढ़ कर कोई राजनीतिक व्यवस्था किस हद तक आम आदमी के हितों के खिलाफ जा सकती है, इसकी एक बेहतरीन मिसाल प्रस्तावित Civil Liability for Nuclear Damages Bill (परमाणु क्षति की नागरिक देनदारी- या परमाणु क्षतिपूर्ति बिल) है। हालांकि यह २००८ में हुए भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु सहयोग समझौते का ही एक परिणाम है, इसके बावजूद इस विधेयक के निहितार्थों को ठीक ढंग से समझने और इसके संभावित परिणामों पर विचार करने की जरूरत है।

सरकार इस बिल को पास करवा कर जो कानून बनाना चाहती है, उसका मकसद भारत में परमाणु रिएक्टर लगाने वाली विदेशी कंपनियों को भविष्य के किसी हादसे की जिम्मेदारी से पूरी तरह मुक्त करना है। २००८ में अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी से भारत के परमाणु कार्यक्रम के असैनिक हिस्से को मंजूरी मिलने और विभिन्न देशों को भारत के साथ परमाणु ऊर्जा संबंधी कारोबार की छूट मिलने के बाद से फ्रांस, रूस आदि जैसे देशों ने भारत में परमाणु रिएक्टर लगाने के करार किए हैं। अरबों डॉलर के इस बाजार में अपना हिस्सा पाने की होड़ में अमेरिकी कंपनियां भी हैं। लेकिन ये कंपनियां भारत आने के पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहती हैं कि अगर भविष्य में कोई दुर्घटना हुई तो इसके लिए उन पर उतनी नकेल भी नहीं कसेगी, जितनी दिसंबर १९८४ के भोपाल हादसे के बाद यूनियन कारबाइड कंपनी पर कसी थी।

अगर भारत में एक स्वाभिमानी और देश के आम जन के हितों का ख्याल रखने वाली सरकार होती, तो वह अमेरिकी कंपनियों की इस गैर कानूनी और अनैतिक मांग को ठुकरा देती। वैसे भी अब भारत को उन कंपनियों की जरूरत नहीं है, क्योंकि अगर वे भारत नहीं आती हैं, तो इसमें उनका ही नुकसान है, जबकि फ्रांस और रूस जैसे देशों की कंपनियों द्वारा लगाए जा रहे रिएक्टरों से भारत अपनी कथित ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर सकता है। अगर इसके लिए और भी रिएक्टरों की जरूरत हो, तो इसके लिए भी ठेका यहां आने को आतुर उन देश की कंपनियों को दिया जा सकता है। मगर मनमोहन सिंह सरकार अमेरिका को नाखुश करने का जोखिम नहीं उठा सकती। इसके लिए वह अपने देश की जनता के हितों अनदेखी करने को जरूर तैयार है।

अब इस बात को शायद ज्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है कि भारत-अमेरिका परमाणु सहयोग समझौते का अकेला मकसद भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना और परमाणु क्षेत्र में भारत के अलगाव को खत्म करना नहीं था। यह विदेश नीति संबंधी एक पूरी सोच का परिणाम था, जिसका असली उद्देश्य भारत को अमेरिकी धुरी के साथ जोड़ना है। वामपंथी दलों ने जब अमेरिका से परमाणु समझौते के मुद्दे पर यूपीए-१ सरकार से समर्थन वापस लिया, तो समझौते के इस पहलू को राष्ट्रीय विमर्श में नजरअंदाज किया गया। आज Civil Liability for Nuclear Damages Bill के संदर्भ में यह बात साफ हो जाती है कि वह बिल्कुल एक ऐसा मुद्दा था, जिस पर मनमोहन सिंह सरकार गिराई जानी चाहिए थी। लेकिन तब क्षेत्रीय दलों और खासकर समाजवादी पार्टी ने यूपीए सरकार बचाकर इस सरकार की धुर दक्षिणपंथी विदेश नीति को संसदीय समर्थन दे दिया। इसलिए अगर आज मनमोहन सिंह सरकार Civil Liability for Nuclear Damages Bill संसद में लाने की तैयारी में है, तो इसके लिए जितनी जिम्मेदार कांग्रेस पार्टी है, उतनी ही वे सभी दल हैं, जिन्होंने जुलाई २००८ में इस सरकार को बचाने में भूमिका निभाई थी।

पूर्व अटार्नी जनरल सोली जे सोराबजी की इस विधेयक के बारे में कहा है- “संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत परमाणु क्षतिपूर्ति की सीमा तय करने को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। ऐसी कोई भी कोशिश सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का उल्लंघन होगी और यह भारत की जनता एवं संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत उनके मूल अधिकारों के खिलाफ होगी।” सोली सोराबजी किसी लेफ्ट विचारधारा के समर्थक नहीं हैं। वे भारत की अब तक की सबसे दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक सरकार के अटार्नी जनरल रहे हैं। उस सरकार के, जिसने भारतीय विदेश नीति को अमेरिका के करीब ले जाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी। अगर वे भी मनमोहन सिंह सरकार की अमेरिकापरस्त एक पहल को आज भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों के खिलाफ बता रहे हैं, तो इस विधेयक के निहितार्थों को समझा जा सकता है।

बात आगे बढ़ाने से पहले यह देख लेना उचित होगा कि आखिर यह विधेयक है क्या।
• सरकार इस विधेयक के जरिए भारत में परमाणु रिएक्टर लगाने वाली विदेशी कंपनियों को भविष्य के किसी हादसे की जिम्मेदारी से मुक्त करने जा रही है।
• अगर भविष्य में कोई हादसा हुआ तो रिएक्टर की संचालक कंपनी को अधिकतम ५०० करोड़ रुपए का मुआवजा देना होगा। संचालक कंपनी न्यूक्लीयर पॉवर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एसपीसीआईएल) होगी, जो सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है।
• अधिकतम मुआवजा २,०८७ करोड़ रुपए का होगा, जिसमें ऑपरेटर कंपनी पांच सौ करोड़ रुपए देगी और बाकी रकम भारत सरकार देगी।
• यानी प्रकारांतर में विदेशी कंपनी की चूक या उसके पुर्जों में खराबी की पूरी भरपाई भारत के करादाताओं को करनी होगी।
• बहरहाल, इससे भी आपत्तिजनक प्रावधान विदेशी कंपनी को तमाम आपराधिक दायित्वों के मुक्त कर देना है। विधेयक के प्रावधान के मुताबिक हादसे से पीड़ित लोग विदेशी कंपनी पर न तो उसके देश में मुकदमा कर सकेंगे और ना ही भारतीय अदालतों में। मुकदमे का अधिकार सिर्फ रिएक्टर के ऑपरेटर यानी न्यूक्लीयर पॉवर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड को होगा। एनपीसीआईएल भी सिर्फ तभी मुकदमा कर सकेगी, जब संबंधित कंपनी से हुए करार में इसका प्रावधान लिखित रूप से मौजूद होगा और दुर्घटना सप्लायर कंपनी की सामग्री, उपकरण या सेवा या उसके कर्मचारी द्वारा जानबूझ कर किए गए किसी कार्य या पूरी तहर अनदेखी के परिणामस्वरूप घटित होगी।
• इस विधेयक में भारतीय न्याय व्यवस्था को भी एक तरह से पंगु बना देने का एक प्रावधान है। बिल के मुताबिक परमाणु क्षतिपूर्ति के सभी सभी दावों का निपटारा दावा आयुक्त या परमाणु क्षति दावा आयोग करेगा, जिसका फैसला अंतिम होगा, जिसे किसी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकेगी।
• बिल में यह प्रावधान भी कर दिया गया है कि मुआवजे का कोई दावा हादसे के दस साल बाद नहीं किया जा सकेगा।
• अगर हादसा प्राकृतिक आपदा या आतंकवादी कार्रवाई जैसी वजहों से हुआ तो इसमें विदेशी कंपनी की कोई देनदारी नहीं होगी।

गौरतलब है कि ऐसा कानून बनाने के लिए भारत किसी अंतरराष्ट्रीय संधि के तहत बाध्य नहीं है। बल्कि टीकाकारों ने तो इस तरफ ध्यान दिलाया है कि यह कानून परमाणु दुर्घटना संबंधी अंतरराष्ट्रीय मानदंडों को कमजोर कर देगा। इसके तहत परमाणु हादसे की गंभीरता और खतरे को बेहद हलका किया जा रहा है। सरकार की दलील है कि भारत को ऐसे हादसों के संदर्भ में हो रही अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था- पूरक क्षतिपूर्ति के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि (Convention on Supplementary Compansation) - का हिस्सा बनना होगा। इसके लिए देश के अंदर जरूरी कानूनी व्यवस्था करने के लिए प्रस्तावित कानून बनाया जा रहा है। लेकिन यह दलील खोखली है क्योंकि उस संधि पर अभी तक सिर्फ १३ देशों ने दस्तखत किए हैं और उनमें से भी चार देशों ने ही इसका अनुमोदन किया है। संधि के प्रावधान के मुताबिक जब तक न्यूनतम चार लाख मेगावाट परमाणु क्षमता वाले पांच देश इसका अनुमोदन नहीं कर देते, यह संधि अमल में नहीं आएगी। जाहिर है, यह संधि अभी अमल में नहीं है। तो सवाल यह है कि आखिर भारत सरकार को किस बात की जल्दबाजी है?

जल्दबाजी इसलिए है क्योंकि असैनिक परमाणु सहयोग का समझौता करते वक्त भारत सरकार ने अमेरिका से वादा किया था कि वहां की कंपनियों से दस हजार मेगावाट बिजली पैदा करने लायक रिएक्टर खरीदे जाएंगे। मनमोहन सिंह को यह वादा निभाना है, लेकिन अमेरिकी कंपनियां तभी भारत आएंगी, जब सरकार अपनी जनता के दीर्घकालिक हितों की बलि चढ़ाते हुए यह कानून बना दे।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि भविष्य में आखिर कोई हादसा कितना बड़ा होगा, इसका अंदाजा अभी से कैसे लगाया जा सकता है? और अगर यह अंदाजा अभी से नहीं लगाया जा सकता, तो उसके मुआवजे की रकम पहले से कैसे तय की जा सकती है? परमाणु हादसे किसी छत के गिर जाने जैसी घटना नहीं होते, जिनमें कुछ ही लोगों के हताहत होने का अंदेशा रहता हो। इन हादसों के बाद फैलने वाली विकरण या रेडियोएक्टिविटी दूर तक जाती है और हजारों या लाखों लोग उसकी चपेट में आते हैं। पूर्व सोवियत संघ के यूक्रेन में हुआ चेर्नोबिल का हादसा और उससे हुई तबाही आज तक याद है। परमाणु रेडियोएक्टिविटी की चपेट में आने वाले लोगों के डीएनए में बदलाव आ जाता है और उसका असर कई बार लंबे समय बाद जाकर जाहिर होता है। हिरोशिमा और नागासाकी में एटम बम गिराए जाने के बाद ६५ साल गुजर चुके हैं। मगर आज भी वहां जन्म बच्चों में जीन संबंधी गड़बड़ियां देखी जाती हैं। ऐसे में मुआवजे का दावा करने के लिए दस साल की समयसीमा भी कैसे तय की जा सकती है?

दरअसल, किसी हादसे के नतीजों को सिर्फ आर्थिक कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। किसी की जान जाने के बदले में महज मुआवजा दे देना न्याय के किसी भी मान्य सिद्धांत के तहत उचित एवं स्वीकार्य नहीं है। अगर कोई दोषी है, तो उसकी आपराधिक जिम्मेदारी भी बनती है। किसी कंपनी को पहले से ऐसी जिम्मेदारी से मुक्त कर देना क्या उसकी लापरवाही को आमंत्रित करना नहीं है? हैरत इस बात की है कि ऐसी बात उस देश में सोची जा रही है, जो दुनिया के सबसे मारक औद्योगिक हादसे यानी भोपाल गैस लीक कांड का शिकार रहा है। उस हादसे के जिम्मेदार यूनियन कारबाइड के अधिकारियों को भी आज तक सज़ा नहीं दिलाई जा सकी है, लेकिन कम से कम सिद्धांततः उनके खिलाफ अपराध दर्ज हैं और इसकी कानूनी लड़ाई जारी है। मगर भविष्य में भोपाल गैस लीक कांड से भी बड़े किसी परमाणु हादसे की जिम्मेदार कंपनी पर आपराधिक मामले की कानूनी व्यवस्था ही न रहे, यह कैसा अन्याय है, यह समझा जा सकता है।

बिल के आलोचकों ने इस ओर ध्यान खींचा है कि अमेरिका में प्राइस-एंडरसन कानून के तहत परमाणु हादसे की स्थितियों में परमाणु रिएक्टरों की संचालक कंपनियों की जो देनदारी तय की गई है, वह भारत में तय की जा रही देनदारी से २३ गुना ज्यादा है। तो सवाल जायज है कि क्या भारतीय जान की कीमत अमेरिकी जान से २३ गुना सस्ती है?
ऐसे ही प्रस्तावित प्रावधानों की वजह से इस बिल को लेकर देश एक बड़े हिस्से में गुस्सा भड़का है और इसी कारण सरकार को लोकसभा में विधेयक पेश करने के लिए तय समय से ठीक पहले अपना इरादा बदलना पड़ा। भाजपा और वामपंथी दलों ने बिल पेश होने के समय ही मत-विभाजन पर जोर डालने का नोटिस दे दिया था। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल महिला आरक्षण बिल को लेकर भड़के हुए थे, इसलिए सरकार को उनका साथ मिलने का भरोसा नहीं था। साथ ही ममता बनर्जी ने भी विधेयक के कुछ प्रावधानों पर एतराज जता दिया था। नतीजतन, विधेयक के गिर जाने की आशंका मजबूत हो गई थी और ऐसे में विधेयक को फिलहाल पेश न करने में ही सरकार को अपनी भलाई दिखी।

लेकिन यह भ्रम किसी को नहीं होना चाहिए कि विधेयक के हो रहे विरोध की वजह से सरकार ने लोकतांत्रिक नजरिया अपनाया और जनमत का सम्मान करते हुए इसे पेश नहीं किया। विरोध की बात सरकार को पहले से मालूम थी। अखबारों में छपी खबरों के मुताबिक खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और माकपा नेता सीताराम येचुरी से फोन पर बात की और यह जानने की कोशिश की थी कि क्या इन दलों के रुख में बदलाव संभव है। दोनों नेताओं ने इस संभावना से इनकार किया था और बिल पेश होने के समय ही विरोध का इरादा जता दिया था। इसके बावजूद बिल को लोकसभा में पेश करने के लिए लिस्ट किया गया। मनमोहन सिंह अप्रैल में अमेरिका जा रहे हैं। वे वहां राष्ट्रपति बराक ओबामा को इस नए कानून का उपहार देना चाहते थे। शायद अब वे ऐसा नहीं कर पाएं, लेकिन देर-सबेर संसदीय तिकड़मों से बिल पास कराने की कोशिश उनकी सरकार जरूर करेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। जुलाई २००८ में मनमोहन सिंह ने धन बल और प्रशासनिक ताकत के दुरुपयोग से अपनी सरकार बचा कर अमेरिका से परमाणु करार का रास्ता साफ किया था। भारत अमेरिकी धुरी के साथ रहे, उनकी इस राय में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है। इसलिए यह विधेयक उनकी सरकार की प्राथमिकता बना रहेगा, यह बात हम सबके दिमाग में साफ रहनी चाहिए।

बहराहल, मुश्किल सिर्फ यह नहीं है कि मनमोहन सिंह अमेरिकापरस्त हैं और कांग्रेस पार्टी उनके इस रुझान से सहमत है। मुश्किल यह है कि यूपीए-२ सरकार जिन आर्थिक और विदेश नीतियों पर चल रही है, सत्ता के मौजूदा समीकरणों के बीच उनके लिए समर्थन का मजबूत आधार है। नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए डॉ. सिंह ने नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों पर खुलकर अमल शुरू किया था। वे नीतियां आज देश की मुख्यधारा हैं। सरकार चाहे किसी पार्टी की बने, वह उन्हीं नीतियों पर चलती है। नव-उदारवाद की नीति स्वाभाविक रूप से विदेश नीति को अमेरिकी साम्राज्यवाद से जोड़ देती है। भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के शासनकाल में इन नीतियों पर कहीं ज्यादा तेज रफ्तार से अमल हुआ था। साथ ही एनडीए सरकार ने बहुसंख्यक वर्चस्व की सांप्रदायिक नीतियों को अपनाया, जिससे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पले-बढ़े भारत के उस विचार के लिए गंभीर खतरे पैदा हुए, जिसका आधार सबको समाहित कर चलना और सबके लिए न्याय की व्यवस्था है। इसीलिए २००४ में कांग्रेस वैसे बहुत से लोगों की पसंद बनी, जो उसकी आर्थिक नीतियों का विरोध करते रहे हैं।

२००४ के आम चुनाव में जनादेश का जो स्वरूप आया, उसकी वजह से यूपीए-१ सरकार की वामपंथी दलों के समर्थन पर निर्भरता बनी। इस मजबूरी की वजह से नव-उदारवाद के रास्ते पर वह सरकार एक्सप्रेस गति से नहीं चल सकी। मगर जब विदेश नीति में अमेरिका से जुड़ने के मुद्दे पर आर या पार का सवाल आया तो यूपीए सरकार और कांग्रेस पार्टी ने सरकार गिरने का जोखिम उठाना ज्यादा पसंद किया। इस कोशिश में उसे उन दलों का भी समर्थन मिला, जिनसे अपेक्षाकृत अधिक जनपक्षीय नीति अपनाने की उम्मीद की जाती है।

उनमें से कई दल आज भी कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा हैं। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने राजनीतिक कारणों से भारत-अमेरिका परमाणु करार का विरोध जरूर किया था और आज इसी वजह से परमाणु क्षतिपूर्ति बिल का भी विरोध कर रही है, मगर वह बार-बार यह सफाई देती भी नजर आती है कि वह अमेरिका-विरोधी नहीं है। साफ है कि भाजपा का विरोध साम्राज्यवाद के बरक्स राष्ट्रवाद की किसी समझ या आर्थिक नीतियों की तार्किक परिणति के रूप में विदेश नीति के रुझानों को लेकर नहीं है। वामपंथी दल २००९ के आम चुनाव में हार के बाद इतने कमजोर हो चुके हैं कि उनका विरोध सरकार की नीतियों में कोई बदलाव लाने में सक्षम नहीं है।

परमाणु क्षतिपूर्ति विधेयक पर विचार इस पूरे संदर्भ को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। संसदीय समीकरणों की वजह से अगर यह विधेयक कुछ समय तक टलता रहता है, तब भी यह किसी बड़े संतोष की बात नहीं है। असली सवाल यह है कि क्या देश में कोई ऐसी राजनीतिक ताकत उभर सकती है, या कोई ऐसा राजनीतिक गठबंधन हो सकता है, जो मनमोहन सिंह सरकार की नव-उदारवादी आर्थिक नीति एवं अमेरिकापरस्त विदेश नीति का विकल्प पेश कर सके? जब तक ऐसा नहीं होता है, सरकारी नीतियों में उत्तरोत्तर दक्षिणपंथी रुझान जारी रहेगा और राजनीतिक व्यवस्था लगातार ज्यादा जन विरोधी होती जाएगी। आखिरकार इन नीतियों का मतलब यही होता है कि अधिकांश लोगों की कीमत पर कुछ लोगों की सुख-सुविधा का ख्याल किया जाए। देश के प्रभु वर्ग की ऊर्जा की जरूरतें अगर पूरी होती हों और साम्राज्यवाद का हिस्सा बनने से इस तबके में अपनी भौतिक सुरक्षा का अहसास मजबूत होता हो, तो आखिर इस बात चिंता क्यों की जाए कि कभी किसी हादसे की वजह से देश के हजारों लोग रेडियोएक्टिविटी का शिकार हो सकते हैं?

तो मुद्दा सिर्फ प्रस्तावित कानून नहीं है। सवाल नीतियों के उस ढांचे का है, जिस पर मौजूदा सरकार चल रही है, और जिसमें अन्य बहुत से संसदीय राजनीतिक दलों की आस्था है। अगर ये नीतियां चलती रहीं, तो फिर जनता के हित और देश के स्वाभिमान की बात सोचना बेमतलब है।

Sunday, March 14, 2010

लो, हमने फिर हॉकी को दिल दे दिया!


सत्येंद्र रंजन


होली की पूर्व संध्या पर भारतीय हॉकी टीम ने अपने देशवासियों को रंगारंग उपहार दिया। पाकिस्तान पर उसकी जोरदार जीत ने हॉकी प्रेमियों की होली में कुछ ज्यादा ही मस्ती घोल दी। मगर वो रंग होली के साथ ही उतर गया। फिर भी, लगातार कई हार के बावजूद वर्ल्ड रैंकिंग में १२वें नंबर की टीम ने विश्व कप टूर्नामेंट आठवें स्थान के साथ पूरा किया। पहले दिन की जीत से बढ़ी अपेक्षाओं की कसौटी पर यह निराशानजक नतीजा हो सकता है, लेकिन अगर ठोस धरातल पर देखें तो १२वें हॉकी विश्व कप से भारतीय हॉकी के लिए कई सकारात्मक सबक लिए जा सकते हैं।

दिल्ली के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में हर रोज जो नज़ारा रहा उसका संदेश यही था कि इस देश के लोगों, खासकर दिल्लीवासियों ने फिर से हॉकी को दिल दिया है। स्टेडियम में जोश और खासकर नौजवानों की बड़ी संख्या में मौजूदगी इस बात का प्रमाण देती रही कि हॉकी अब भी लोगों के मन में बसी है। इस खेल में भारत का गौरवशाली इतिहास लोगों की स्मृतियों में हैं। एक दस्तूर की तरह नौजवान पीढ़ी के संस्कारों तक इसकी कथाएं पहुंचती रही हैं। फाइनल में हालांकि भारत नहीं था, इसके बावजूद स्टेडियम का पूरी तरह भर जाना इस खेल से लोगों के लगाव की मिसाल था। और यह बात सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं थी, इसका संकेत हॉकी मैचों को मिली टीआरपी है। भारत और पाकिस्तान के मैच को तो क्रिकेट के वन डे मैचों के बराबर टेलीविजन पर दर्शक मिले।

जाहिर है, अगर हॉकी प्रशासकों को आपसी झगड़े से फुर्सत मिले तो यहां से एक नई शुरुआत हो सकती है। अगर हॉकी के आधार इलाकों- मसलन, पंजाब, केरल और झारखंड- में आधुनिक हॉकी की सुविधाएं मुहैया कराई जाएं और कोचिंग का उत्तम प्रबंध हो- तो भारतीय टीम दुनिया की टॉप टीमों में अपनी जगह बना सकती है। मगर यह कठिन रास्ता है और इसके लिए संभवतः कुछ भ्रमों से उबरने की जरूरत होगी।

अपने पुराने गौरव को याद करते रहने या इस पर अफसोस करने कि अब हमारा विश्व हॉकी में वैसा रुतबा नहीं रहा- कोई लाभ नहीं है। सबसे पहले शायद यह स्वीकार करने की जरूरत है कि हम जिस हॉकी में दशकों तक चैंपियन रहे, वह वो हॉकी नहीं थी, जो आज खेली जाती है। पिछले दशकों में हुए बदलावों ने इस खेल को पूरी तरह बदल दिया है। यानी यह कहा जा सकता है कि यह एक नया खेल है। सबसे पहले एस्ट्रो टर्फ़ ने हॉकी की जमीन बदली और फिर सब कुछ ही बदलता गया। स्टिक में लकड़ी की जगह ग्रेफाइट और फाइबर ग्लास ने ली, तो चमड़े की सीवन वाली गेंद की जगह रबर और प्लास्टिक से बनी गेंदों ने ले ली। खिलाड़ियों की सुरक्षा के लिए नए किट आ गए। उधर खेल के नियमों में बदलाव ने पुराने ढर्रे को बेकार कर दिया। मैच बुलीऑफ की जगह पास-इन से शुरू होने लगे, ऑफ साइड का प्रावधान खत्म हो गया, पेनाल्टी कॉर्नर और स्ट्रोक लेने के तरीके बदल गए।

इन बदलावों ने कौशल और खूबसूरती के एशियाई ढर्रे पर ताकत, तेजी और स्टैमिना की यूरोपीय शैली को हावी कर दिया। मगर अब यही हकीकत है। अगर हॉकी में चमकना है तो कृत्रिम घास, नए ढंग की किट और नए नियमों में माहिर होना पड़ेगा। यह रोना अब पुराना पड़ गया है कि हॉकी पर भारत और पाकिस्तान के वर्चस्व को तोड़ने के लिए यूरोपीय देशों ने ये बदलाव किए। इस बात में कुछ सच्चाई हो भी सकती है, लेकिन अब इस सच्चाई को बदला नहीं जा सकता। और इसका यह भी मतलब नहीं है कि अब भारत एक बार फिर से इस खेल में अपना सिर ऊंचा नहीं कर सकता। दक्षिण कोरिया की सफलताएं इस संदर्भ में हमें कुछ सीख दे सकती हैं।

हॉकी एक तीखी प्रतिस्पर्धा वाला खेल है। १२७ देश इसे खेलते हैं, जिनमें बहुत से विकसित देश हैं। उन देशों में आधुनिक सुविधाएं और कोचिंग के इंतजाम हैं। इसलिए ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, हॉलैंड, स्पेन और इंग्लैंड का इसमें बड़ी ताकत होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अब अगर भारत को उनके मुकाबले खड़ा होना है, तो इसके लिए उनकी टक्कर के इंतजाम अपने यहां भी करने होंगे। मेजर ध्यानचंद स्टेडियम जैसे कई मैदान देश में अगर बनाए जा सकें तो निश्चित रूप से भारतीय टीम जीत के बेहतर उपहार अपने देशवासियों को देने की स्थिति में होगी।

हॉकी की विडंबना यह है कि यह दुनिया के बहुत से देशों में खेली जाती है, मगर यह शायद किसी भी बड़े देश का पहला- यानी सबसे ज्यादा लोकप्रियता वाला- खेल नहीं है। इसी वजह से इस खेल में उतना पैसा नहीं है, जितना सिर्फ अमेरिका में खेले जाने वाले अमेरिकन फुटबॉल या महज दस देशों में खेले जाने वाले क्रिकेट में है। आज के युग में भी हॉकी विश्व कप के प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट को सिर्फ सवा लाख भारतीय रुपए का इनाम मिलना क्या अपने-आप में पूरी कहानी नहीं कह देता है? इस तथ्य का यह भी संदेश है कि भारत भले यूरोपीय देशों या ऑस्ट्रेलिया से गरीब हो, लेकिन जितना पैसा वे देश हॉकी पर खर्च करते हैं, उतना यहां भी किया जा सकता है, बशर्ते इसके लिए देश की सरकार, हॉकी प्रशासकों और कॉरपोरेट हलके में इच्छाशक्ति हो। दिल्ली विश्व कप ने यह तो दिखा ही दिया है कि अगर इस खेल में भारतीय टीम चमके तो न हॉकी की लोकप्रियता कम रहेगी और ना ही टीआरपी का टोटा रहेगा। पुरानी हॉकी के आठ ओलिंपिक स्वर्ण पदक और १९७५ के क्वालालंपुर विश्व कप की विजयगाथा को दोहराना शायद आसान नहीं हो, लेकिन नई हॉकी में भी भारत की शान बुलंद हो सकती है- यह उम्मीद दिल्ली विश्व कप ने बंधाई है। लोगों ने हॉकी को फिर दिल दिया है, अब प्रशासकों की बारी है!

Saturday, March 13, 2010

महिला आरक्षण से आगे

सत्येंद्र रंजन

ह विडंबना ही है कि जिन पार्टियों को महिला आरक्षण बिल के समर्थन में अग्रिम कतार में होना चाहिए था, वे इस प्रकरण में खलनायक बनकर उभरीं हैं। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल खुद को लोहिया- जेपी की विचारधारा की वारिस बताती हैं, तो बहुजन समाज पार्टी और लोक जनशक्ति पार्टी का दावा डॉ. अंबेडकर के विचारों पर चलने का है। इन तीनों मनीषियों की सोच और राजनीति का मूलमंत्र न्याय और समता के मूल्य थे। महिलाओं के साथ न्याय और पुरुषों के साथ उनकी बराबरी पर जोर देने में उन्होंने कभी कोई कोताही नहीं की। डॉ. लोहिया के सप्तक्रांति के सपने का एक महत्त्वपूर्ण पहलू नर-नारी समानता है और जयप्रकाश नारायण ने जब संपूर्ण क्रांति की विचारधारा रखी तो उसकी व्याख्या के क्रम में उन्हें यह कहने में कोई संकोच नहीं हुआ कि डॉ. लोहिया की सप्तक्रांति ही उनकी संपूर्ण क्रांति है। हिंदू कोड बिल लाने में डॉ. अंबेडकर की भूमिका स्वतंत्र भारत के इतिहास में उनके गौरवपूर्ण योगदान के रूप में दर्ज में है। यह देखकर हैरत होती है कि उन शख्सियतों का वारिस होने का दावा करने वाली सपा, राजद, बसपा और लोजपा आज इतिहास की धारा की उलटी दिशा में खड़ी हैं।

स्वार्थ और संकीर्ण सोच से कोई राजनीति कितना गलत रूप ले सकती है, यह संभवतः इस बात की सबसे बेहतरीन मिसाल है। समाज में जारी किसी एक अन्याय की आड़ में न्याय की किसी दूसरी कोशिश को रोकने की इन दलों की कोशिश सिर्फ यह साबित करती है कि इन दलों ने खुद को खुद अपनी विरासत एवं हर तरह के उदात्त मूल्यों से अलग कर लिया है। पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों के नाम पर संसद में दिखा उनका उग्र रूप चुनावी राजनीति में उनके लिए कितना फायदेमंद होगा, यह तो अगले चुनावों में ही जाहिर होगा, लेकिन एक इतने महत्त्वपूर्ण मसले पर उन्होंने अपनी जो छवि पेश की है, उससे यह सवाल बेहद प्रासंगिक हो गया है कि भारतीय राजनीति में आखिर ये पार्टियां किस धारा की नुमाइंदगी करती हैं? मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान भारतीय राजनीति में गैर-कांग्रेसवाद का झंडा पकड़े हुए उभरे और बाद में मंडल के दौर में अन्य पिछड़ी जातियों एवं दलितों के हितों का नुमाइंदा होने का दावा करते हुए उन्होंने अपनी खास प्रासंगिकता बनाई। मायावती एक बेहद सामान्य पृष्ठभूमि से उभर कर देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य की मुख्यमंत्री बनीं तो इसे सिर्फ उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि के रूप में नहीं देखा गया, बल्कि इसे दलित सशक्तीकरण की परिघटना का एक खास मुकाम माना गया। इन परिघटनाओं को सदियों से जारी सामाजिक अन्याय को दूर करने के प्रयासों का हिस्सा माना गया।

लेकिन जो पार्टियां और नेता जातीय उत्पीड़न के मुद्दे पर सामाजिक न्याय के प्रवक्ता के रहे, महिलाओं को राजनीतिक भागीदारी देने के सवाल पर सामाजिक अन्याय की मानसिकता जताकर उन्होंने अपनी साख को घोर क्षति पहुंचा दी है। इन दलों को क्या सिर्फ इस बात की चिंता है कि ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक महिलाओं को संविधान के १०८वें संशोधन के तहत उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा, या उनकी सोच में ही कहीं महिलाओं को कमतर मानने की बात भी बैठी हुई है? १९९० के दशक में शरद यादव ने महिला आरक्षण के ही संदर्भ में ‘परकटी’ महिलाओं वाली टिप्पणी की थी। क्या महिलाओं के प्रति अपमान का वही भाव और सामंती नज़रिया इन दलों के व्यवहार में एक बार फिर जाहिर नहीं हुआ है?

इस प्रकरण की यह एक दूसरी विडंबना यह है कि भारतीय राजनीति में रूढ़िवाद और पुरातन मूल्यों की प्रतिनिधि भारतीय जनता पार्टी महिला आरक्षण के मुद्दे पर उन सामाजिक न्याय की कथित समर्थक पार्टियों से ज्यादा सकारात्मक भूमिका में सामने आई है। भाजपा जिस विचारधारा में यकीन करती है, उसमें स्त्रियों के लिए स्वंतत्र व्यक्तित्व की कोई जगह नहीं है। बल्कि स्त्री के यौन व्यक्तित्व को नियंत्रित करने, उसे पुरुष-प्रधान मूल्यों के अधीन रखने और उसकी स्वतंत्र पहचान को नकारने की सोच उस विचारधारा की जड़ में शामिल है। भाजपा जिस संघ परिवार का हिस्सा है, उसे इस आधुनिक दौर में भी स्त्रियों के लिए सती-सावित्री का आदर्श सामने रखने में कोई हिचक नहीं होती। स्त्री स्वतंत्रता की कलात्मक अभिव्यक्तियों के खिलाफ इस राजनीतिक परिवार के अभियान अभी कोई बहुत पुरानी बात नहीं हैं। ऐसे में भाजपा का राजनीतिक सत्ता में महिलाओं की भागीदारी दिलाने वाले ऐतिहासिक कदम के साथ होना एक विसंगति की तरह लगता है। बहरहाल, वजह चाहे जो भी हो और इसके पीछे चाहे जैसी भी राजनीतिक गणनाएं हों, भाजपा ने यह एक साहसिक काम किया है और इसके लिए उसके आज के नेतृत्व की तारीफ की जानी चाहिए।

इस विडंबना को संभवतः लोकतांत्रिक राजनीति के दबाव और सामाजिक द्वंद्ववाद की प्रक्रिया के तहत समझा जा सकता है। जिस पार्टी की राजनीतिक प्रासंगिकता प्रगतिशीलता-विरोध के आधार पर कायम हो, उसके सामने भी अपनी लोकतांत्रिक साख बनाने की मजबूरी रहती है। ऐसे कुछ मुद्दों पर, जिनका उसकी विचारधारा से सीधा अंतर्विरोध न हो, और जिससे उसे अपना उदार चेहरा पेश करने में मदद मिले, वह ऐसे रुख ले लेती है। संभवतः इसे एक हद तक सांप्रदायिक एवं कट्टरपंथी राजनीति करने वाली भाजपा के विकास-क्रम का हिस्सा भी माना जा सकता है। जबकि उत्तर प्रदेश एवं बिहार में पिछड़ी और दलित जातियों के नाम पर राजनीति करने वाले दलों के भीतर ऐसे किसी विकास-क्रम की मिसाल आज देखने को नहीं मिलती। शायद उनके बीच एक अपवाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने महिला आरक्षण के मुद्दे पर अपनी पार्टी के घिसे-पिटे रुख से आगे निकलने का इरादा दिखाया है। पंचायतों में महिलाओं का आरक्षण बढ़ा कर पचास फीसदी करने, तथा अति पिछड़ों एवं महादलितों की एक नई श्रेणी तय कर इनके तहत आने वाली जातियों को पंचायतों में आरक्षण देने का उनका कदम देश के बाकी राज्यों के लिए मिसाल बन चुका है। अब अपनी पार्टी जनता दल यूनाइटेड के घोषित रुख से हटते हुए संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण का समर्थन कर उन्होंने अपनी उस पहल को तार्किक अंजाम दिया है। बेहतर होता, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मायावती और मुलायम सिंह यादव इससे कुछ सबक लेते। मगर उन्होंने सोच के अपने संकरे या कहें अंधेरे दायरे में बंद रहने का फैसला किया और इस तरह एक बेहद अहम मुद्दे पर अपने लिए प्रतिगामी भूमिका अपना ली।

जबकि यह विधेयक इन दलों के लिए अपनी राजनीति को ज्यादा व्यापक आयाम देने और नए सिरे से राष्ट्रीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता कायम करने का मौका भी साबित हो सकता था। आज के दौर एक बड़ी वि़डंबना यह है कि अपने तमाम नव-उदारवादी नज़रिये और विदेश नीति में दक्षिणपंथी झुकावों के बावजूद कांग्रेस देश की राजनीति में सामाजिक जनतंत्र के खाली स्थल पर काबिज होती जा रही है। एक घोर जन विरोधी बजट पेश करने और परमाणु क्षति की नागरिक देनदारी विधेयक को कैबिनेट से मंजूरी देने के फौरन बाद महिला आरक्षण का एजेंडा लाकर वह अपनी आर्थिक एवं विदेश नीति संबंधी प्राथमिकताओं पर सामाजिक उदारता का परदा डालने में सफल हो गई है। १९९० के दशक में मंडल की परिघटना से मजबूत हुए नेताओं का कर्त्तव्य यह था कि वे कांग्रेस नेतृत्व एवं मनमोहन सिंह सरकार के चेहरे से यह परदा हटाते। वे इस अंतर्विरोध को देश की जनता के सामने रखते कि जो सरकार महिलाओं को राजनीतिक भागीदारी देने में इतना उत्साह दिखा रही है, वही आम महिलाओं की जिंदगी कैसे मुश्किल बना रही है और कैसे वह अमेरिकी परमाणु रिएक्टर कंपनियों के हितों की रक्षा के लिए देश की भावी पीढ़ियों के जान-माल की कीमत अभी से तय कर रही है।

इस मौके पर इन तथ्यों पर भी जोर दिए जाने की जरूरत थी कि जिस देश ने महिलाओं को राजनीतिक भागीदारी देने इतना बड़ा कदम उठाया है, वहीं स्त्री विरोधी मानसिकता की वजह से लैंगिक अनुपात तेजी से घट रहा है और महिलाओं की रक्षा के लिए बने कानूनों पर न सिर्फ अमल में गड़बड़ी है, बल्कि कई मौकों पर अदालतें भी उन कानूनों की अजीबोगरीब व्याख्या कर रही हैं। क्या बाकी सभी क्षेत्रों में महिलाओं को विषमता एवं अन्याय के बीच छोड़कर सिर्फ राजनीति में उनके साथ इंसाफ हो सकता है? प्रगति धीरे-धीरे हो रही है, जैसी तमाम दलीलें क्या इस क्षेत्र में हमारी इच्छाशक्ति के कमजोर होने का प्रमाण नहीं हैं? अगर हम अपने पड़ोस यानी चीन की तरफ नज़र दौड़ाएं तो पिछले साठ साल का अंतर सरकारी नीतियों और उन पर अमल की काफी पोल खोल देता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की एक ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन में आज ७० फीसदी महिलाएं कामकाजी हैं, जबकि इसका विश्व औसत ५३ फीसदी और दक्षिण-पूर्व एशिया का औसत महज ३५ प्रतिशत है। कम्युनिस्ट चीन की स्थापना के साथ माओ त्से तुंग ने घोषणा की थी कि आधा आसमान महिलाओं का है और नए प्रशासन ने इसे व्यवहार में भी उतारने की कोशिश की। नतीजा यह है कि आज यूएनडीपी की रिपोर्ट में यह दर्ज किया गया है कि ऐतिहासिक रूप से श्रेणियों में बंटे चीनी समाज में पिछले छह दशकों ने शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में महिलाओं ने अभूतपूर्व प्रगति की है। इस तुलना में उन्हें राजनीतिक भागीदारी जरूर कम मिली है, लेकिन इस मामले में भी वहां स्थितियां भारत से बेहतर हैं।

यहां चीन की मिसाल सिर्फ यह कहने के लिए दी गई है कि अगर इरादा पक्का हो तो ऐतिहासिक बाधाओं के बावजूद काफी कुछ हासिल किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए जरूरत तमाम नीतियों को जन-पक्षीय बनाने की होगी और इस कसौटी पर मनमोहन सिंह की सरकार लगातार जन अपेक्षाओं को चोट पहुंचा रही है। मुश्किल यह है कि इस संदर्भ को सामने रखकर इस सरकार और कांग्रेस नेतृत्व को कठघरे में खड़ा करने वाली राजनीतिक ताकतें आज बहुत कमजोर हो गई हैं और कॉरपोरेट मीडिया बची-खुची ताकतों की बात को भी सही ढंग से पेश नहीं करता। परिणाम यह है कि जन विरोधी आचरण के बावजूद कांग्रेस पार्टी प्रगतिशील लोगों की पसंद बनी हुई है। चूंकि कांग्रेस का विकल्प सांप्रदायिक और धुर दक्षिणपंथी भाजपा है, इसलिए ऐसे लोग अपनी तमाम नाराजगी के बावजूद इस पार्टी का समर्थन करने के लिए मजबूर हैं।

अगर मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, मायावती या रामविलास पासपान में राजनीतिक दूरदर्शिता होती तो इस विंडबना को समझते। वे अपनी ताकत अगर वामपंथी दलों के साथ जोड़कर अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत वाम-जनतांत्रिक विकल्प विकसित करने की कोशिश करते तो स्थिति जरूर कुछ बदल सकती थी। वे ऐसा दबाव बना सकते थे, जिससे आम जन का ज्यादा भला होता, जिसमें दलित-ओबीसी-मुस्लिम सभी शामिल हैं। मगर उन्होंने राजनीतिक नासमझी का परिचय देकर एक प्रगतिशील का कदम का सारा श्रेय कांग्रेस की झोली में डाल दिया है और खुद एक विडंबना बन गए हैं।

अगर संसद का दो तिहाई हिस्सा आज इस बिल के साथ है तो जाहिर है, अब समर्थन या विरोध इसका मुद्दा नहीं है। मुद्दा जिस नजरिए से यह विधेयक आना संभव हुआ है, उसे व्यापक रूप देने का है। इस मोर्चे पर लड़ाई या कोशिशें आज बहुत कमजोर नजर आती हैं। फिर भी संसद ने दो तिहाई बहुमत से महिला आरक्षण विधेयक को पास करने की तत्परता दिखाई है, तो यह संतोष की बात है। इससे भारत के व्यापक जन मानस की विकसित हुई सोच और लैंगिक बराबरी की इच्छा प्रतिबिंबित हुई है। यह इस बात की झलक है कि भले भारतीय समाज महिलाओं के मामले में आज भी बेहद विषम और एक हद तक अन्यायकारी भी है, लेकिन पिछले दशकों में इस विषमता और अन्याय के खिलाफ जागरूकता तेजी से बढ़ी है। महिलाओं ने अपने हक और अपने लिए समान दर्जा पाने की लड़ाई गंभीरता से लड़ी है। संविधान का १०८वां संशोधन उस लड़ाई की एक बड़ी सफलता है।