Monday, June 15, 2009

मुलाकात में आखिर बात क्या होगी?


सत्येंद्र रंजन
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रूस के येकातरिनबर्ग शहर में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी से रू-ब-रू होंगे। दोनों में बातचीत भी संभाव है। भारतीय विदेश मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि इस बातचीत से किसी बड़ी सफलता की उम्मीद तो नहीं की जानी चाहिए, लेकिन नवंबर 2008 में मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद से दोनों देशों के बीच राजनीतिक स्तर पर जो अनबोलापन है, वह इससे जरूर टूटेगा।

मनमोहन सिंह और जरदारी शंघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक में हिस्सा लेने येकातरिनबर्ग पहुंचे हैं। भारत और पाकिस्तान दोनों को इस संगठन में पर्यवेक्षक का दर्जा मिला हुआ है। यह पहला मौका है, जब भारतीय प्रधानमंत्री इस संगठन की बैठक में हिस्सा लेंगे। बहरहाल, सबकी निगाहें उनकी जरदारी से होने वाली मुलाकात पर ही टिकी रहेंगी। ध्यान यह देखने पर लगा होगा कि क्या इस मुलाकात से दोनों देशों के बीच समग्र वार्ता फिर से शुरू होने का कोई संकेत मिलता है।

पिछले महीने आम चुनाव में जनादेश पाकर दोबारा सत्ता में लौटने के बाद मनमोहन सिंह सरकार ने अपनी पाकिस्तान नीति में किसी उग्रता और जिद का संकेत नहीं दिया है। बल्कि संसद के पहले सत्र की शुरुआत करते राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने नई यूपीए सरकार के पाकिस्तान के बारे में रुख का खुलासा इन शब्दों में किया- “मेरी सरकार पाकिस्तान के साथ रिश्तों को नया रूप देने की कोशिश करेगी, लेकिन यह उसकी जमीन से भारत पर आतंकवादी हमले करने वाले गुटों का मुकाबला करने संबंधी पाकिस्तान सरकार के कदमों की गंभीरता पर निर्भर करेगा।”

ऐसा ही रुख नए विदेश मंत्री एसएम कृष्णा की जताते रहे हैं। उनका कहना है कि जब तक पाकिस्तान भारत विरोधी आतंकवादी गुटों के ढांचे को नष्ट नहीं करता, उससे बातचीत नहीं होगी। भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों के प्रति पाकिस्तान के रुख को देखते हुए नई सरकार के इस रुख में बहुत दोष नहीं निकाला जा सकता। कुछ दिन पहले लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े संगठन जमात-उद-दावा के मुखिया मोहम्मद हाफिज सईद की रिहाई ने यही जाहिर किया कि पाकिस्तान सरकार का इन संगठनों के प्रति नरम रवैया जारी है।

दरअसल, पाकिस्तान में अदालतें एक्टिविस्ट रोल में हैं। बल्कि पाकिस्तान के कुछ टीकाकारों का मानना है कि इफ्तिखार चौधरी की बतौर चीफ जस्टिस बहाली के बाद वो विपक्ष की भूमिका में भी आ गई हैं। यहां यह तथ्य नहीं भुलाया जाना चाहिए कि इफ्तिखार चौधरी का जनरल मुशर्रफ से टकराव का एक बड़ा मुद्दा इस्लामी चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई था। चौधरी तब सुप्रीम कोर्ट को एक्टिविस्ट की भूमिका में ले आए और कई गिरफ्तार चरमपंथियों की रिहाई का आदेश देने लगे थे। चरमपंथियों पर कार्रवाई करने वाले पुलिसकर्मियों पर कोर्ट की गाज गिरने लगी थी। तब मुशर्रफ ने सीधे उनसे टकराव मोल लिया, जो उनके पतन का कारण बना।

इन हालात को देखते हुए आसिफ़ अली जरदारी सरकार से यह अपेक्षा जरूर थी कि वह सईद और मुंबई हमले के बाद गिरफ्तार दूसरे आतंकवादियों के खिलाफ फुलप्रूफ केस बनाएगी। लेकिन कम से कम सईद के मामले में यह जाहिर हो गया कि उसकी नजरबंदी सिर्फ रस्म अदायगी थी। इससे भारत के इस संदेह को बल मिला है कि पाकिस्तान भारत विरोधी आतंकवादी गुटों को अब भी अपने सामरिक अस्त्र के रूप में साबूत रखना चाहता है, ताकि आतंकवाद के मुद्दे पर पश्चिमी देशों की लगाम कमजोर पड़ते ही वह एक बार फिर उनका इस्तेमाल अपने विभाजन के कथित अपूर्ण एजेंडे को पूरा करने यानी कश्मीर पर कब्जा करने के लिए शुरू कर सके।

यह राष्ट्रपति जरदारी और प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी की नीति है या नहीं, यह साफ नहीं है। लेकिन आईएसआई और पाकिस्तानी फौज का एक हिस्सा चरमपंथी तत्वों के साथ अपने गठबंधन को खत्म करने को तैयार नहीं है, पाकिस्तान की घटनाएं इसका संकेत देती रही हैं। इन हालात में भारत सरकार के लिए अपनी पाक नीति तय करना आसान नहीं है।
इसी लिहाज से मनमोहन सिंह की जरदारी से मुलाकात अहम है। भारत पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध उन्माद के रास्ते पर न चले, यह भारत के भी सभी विवेकशील लोग चाहते हैं। भारत का लोकतांत्रिक और शांतिप्रिय खेमा चाहता है कि भारत ऐसी नीति अपनाए जिससे पाकिस्तान की जनतांत्रिक और प्रगतिशील शक्तियों को ताकत मिले। समग्र वार्ता की फिर से शुरुआत इस दिशा एक ठोस कदम हो सकती है। मगर इस कदम के उठने के लिए जमीन तैयार करने की बड़ी जिम्मेदारी पाकिस्तान पर भी है, जिसे निभाने में वह नाकाम दिख रहा है।

पाकिस्तान सरकार अभी सरहदी सूबे में इस्लामी चरमपंथियों से जंग में जुटी है। इसे पाकिस्तान के अस्तित्व की लड़ाई बताया जा रहा है। लेकिन पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े सभी अंगों के सामने सवाल यह है कि क्या चरमपंथियों के बीच भेदभाव बरत कर यह लड़ाई जीती जा सकती है? अगर तालिबान और अल-कायदा खतरनाक हैं तो क्या लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद देश की सामरिक नीति का हिस्सा हो सकते हैं? मनमोहन-जरदारी वार्ता में यह पहलू किसी न किसी रूप में जरूर उठेगा। अगर पाकिस्तान सरकार सभी चरमपंथियों से लड़ने का एक जैसा इरादा दिखाए और अपनी जमीन का भारत विरोधी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल न होने देने का अपना वादा निभाए तो समग्र वार्ता की राह जरूर तैयार हो सकती है। जरदारी और उनकी मौजूदा सरकार का इस बारे में क्या रुख है, इसका कुछ अंदाजा येकातरिनबर्ग में मनमोहन सिंह को जरूर लग सकता है।

यह माना जाता है कि जरदारी या प्रधानमंत्री गिलानी के हाथ में पाकिस्तान की पूरी सत्ता नहीं है। दरअसल, यह पाकिस्तान में कभी भी किसी नागरिक सरकार के हाथ में नहीं होती। वहां सेना और खुफिया तंत्र की सामरिक मामलों में अहम दखल बनी रहती है। लेकिन अगर भारतीय अधिकारी यह अनुमान लगा सकें कि जरदारी-गिलानी आतंकवादियों से लड़ने का ईमानदार इरादा रखते हैं, तो भारत यह नीति जरूर अपना सकता है कि उन्हें कमजोर करने वाला कोई कदम न उठाया जाए। गौरतलब है कि तनाव या युद्ध का माहौल फौज-खुफिया तंत्र-आतंकवादी संगठनों की धुरी को और मजबूत ही करता है।

मनमोहन सिंह सरकार ने अपनी दूसरी पारी शुरू करते हुए पाकिस्तान के बारे जो नीतिगत बयान दिए, उन्हें इसी संदर्भ में एक संतुलित रुख माना गया। इसमें यह संकेत देखा गया कि आतंकवाद से आशंकित इस देश में पाकिस्तान के खिलाफ भावनाएं भड़का कर अपना सियासी ग्राफ बढ़ाने के मोह से मनमोहन सिंह सरकार बच रही है।

लेकिन यूपीए सरकार तभी इस उद्देश्य में सफल हो सकेगी, जब वह अपने इस रुख के प्रति अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटा सके? ऐसे संकेत हैं कि अमेरिका, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अपने सामरिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सभी मोर्चों पर मौजूदा पाकिस्तान सरकार के लिए अनुकूल स्थितियां बना है। इन मोर्चों में भारत से पाकिस्तान का रिश्ता भी शामिल है। मनमोहन सिंह सरकार के सामने यह चुनौती है कि वह अमेरिका को दो टूक शब्दों में कह सके कि भारत की नीति अमेरिकी सुविधा के मुताबिक नहीं बन सकती। क्या मनमोहन सिंह सरकार यह साहस जुटा सकेगी?

शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में प्रधानमंत्री का जाना भारत की विदेश नीति में आ रहे बारीक बदलाव का संकेत हो सकता है। जॉर्ज बुश के जमाने में भारत ने रूस और चीन के नेतृत्व वाले इस संगठन से इसीलिए दूरी बनाए रखी ताकि अमेरिका नाराज ना हो। अब जबकि बराक ओबामा के दौर में अमेरिकी रणनीति में भारत का महत्त्व घट गया है तो मुमकिन है मनमोहन सिंह सरकार नई कूटनीति अपना रही हो। बहरहाल, यह कूटनीति पाकिस्तान के संदर्भ कितनी अहम और फायदेमंद साबित होती है, यह भी इसकी सफलता की एक कसौटी होगी।

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