Thursday, June 18, 2009
ईएमएस की सीख का सहारा
सत्येंद्र रंजन
ईएमएस नंबूदिरीपाद की जन्मशती मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) ने ऐसे मौके पर मनाई, जब वह पिछले तीन दशक के इतिहास में सबसे गहरे संकट से गुजर रही है। इस मौके पर नंबूदिरीपाद को याद करते हुए सीपीएम महासचिव प्रकाश करात ने कहा- “उन्होंने सिद्धांतों को प्रभावी ढंग रणनीतियों में बदला, और रणनीतियों को नीतियों में।” दिवंगत नेता के इस गुण की इस वक्त सीपीएम को बेशक सबसे ज्यादा जरूरत है। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन की निर्णायक जीत ने पूरे वाम मोर्चे, खासकर सीपीएम के सामने सिद्धांत, रणनीति और नीतियों से जुड़े कई कठिन सवाल खड़े कर दिए हैं। कांग्रेस की यह जीत शायद वाम मोर्चे के लिए इतनी बड़ी चुनौती नहीं होती, अगर मोर्चा अपने गढ़ों को बचा पाया होता। दरअसल, अगर पश्चिम बंगाल में उसकी करारी हार नहीं हुई होती, तो आज भारतीय राजनीति में वाम मोर्चे की भूमिका और उसकी जगह लेकर वैसे सवाल खड़े नहीं होते, जैसे आज नजर आते हैं।
संकट के इस पहलू पर भी प्रकाश करात को ईएमएस याद आए। कहा- “ईएमएस ने ही हमें चुनावी पराजयों की समीक्षा करने की सीख दी। हमें पूरा भरोसा है कि सीपीएम और वाम मोर्चा सही निष्कर्ष पर पहुंचेंगे और लोगों का भरोसा वापस हासिल कर सकने में सफल रहेंगे।” वाम मोर्चे की हार के बाद पश्चिम बंगाल में लेफ्ट विरोधी ताकतों का मनोबल बढ़ा हुआ है। ममता बनर्जी अब उसी रणनीति पर राज्य के दूसरे इलाकों में भी चलने की कोशिश में हैं, जिससे उन्होंने नंदीग्राम में सीपीएम की जड़ें उखाड़ीं। पूर्वी मिदनापुर के खेजुरी में उनके समर्थकों ने हिंसक मुहिम छेड़ी। उधर लालगढ़ में माओवादियों का कहर सीपीएम समर्थकों पर टूट पड़ा है। जाहिर है, लड़ाई सिर्फ लोकतांत्रिक दायरे में नहीं है। उग्र वामपंथी ताकतों और ममता बनर्जी समर्थक यथास्थितिवादी ताकतों के बीच पिछले दो-ढाई साल में बना गठबंधन अब नई ताकत, और हिंसा एवं प्रतिहिंसा की पूरी तैयारी मैदान में कूद पड़ा है। निगाह २०११ में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है।
क्या सीपीएम उग्र वामपंथ से धुर दक्षिणपंथ तक के बने गठबंधन का जवाब ढूंढ पाएगी? २००६ के विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चे ने ५० फीसदी से ज्यादा वोट हासिल पा कर भारी जीत हासिल की थी। २००९ के लोकसभा चुनाव में तकरीबन सात फीसदी मतदाताओं का समर्थन गंवा कर १९७७ के बाद की सबसे बुरी हार का उसने मुंह देखा। विरोधियों की तैयारी और उनके बढ़े मनोबल को देखते हुए यह साफ अनुमान लगाया जा सकता है कि वाम मोर्चा के २०११ में अपना गढ़ बचा सकने की सिर्फ एक ही सूरत है और वह है उन मतदाताओं का समर्थन वापस पाना, जो उसके पाले से चले गए हैं। इस बेहद चुनौती भरे काम में ईएमएस से मिली सीख कितना कारगर होती है, या उस सीख को सीपीएम कितना व्यवहार में उतार पाती है, यह गौर करने की बात होगी।
बहरहाल, सीपीएम के सामने दूसरी बड़ी चुनौती सैद्धांतिक है। कांग्रेस ने आम आदमी की बात करते हुए राजनीति के सोशल डेमोक्रेटिक स्थल पर अपनी मौजूदगी बना ली है। हाल के चुनावों ने काफी हद तक इस बात की पुष्टि कर दी। हालांकि यह तथ्य है कि कांग्रेस को यह छवि और स्थान वामपंथी दलों के एजेंडे की वजह से ही मिला। २००४ में साझा न्यूनतम कार्यक्रम में जन हित के मुद्दे शामिल कराने और उन पर अमल के लिए लगातार दबाव बनाए रखने का श्रेय वामपंथी दलों को है। लेकिन चुनाव में इसका फायदा कांग्रेस को मिला। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने इस बात को समझा है, इसकी झलक संसद के सत्र में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के अभिभाषण से मिला। संकेत साफ हैं कि कांग्रेस आम आदमी की राजनीति पर अभी कायम रहने वाली है।
सीपीएम का दावा है कि कांग्रेस आम आदमी के हितों की नुमाइंदगी नहीं करती। बल्कि वह अरबपतियों और साम्राज्यवाद का प्रतिनिधित्व करती है। अगर कांग्रेस ने आने वाले दिनों में खुलेआम नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया, तो सीपीएम की यह आलोचना लोगों के बीच साख पा सकेगी। यह मुमकिन है कि अपने स्वाभाविक और वर्गगत रुझानों की वजह से मनमोहन सिंह सरकार जल्द ही ऐसी नीतियों पर तेजी से आगे बढ़ने लगे। तब सीपीएम राष्ट्रीय राजनीति में आम जन के हितों की वकालत करने वाली ताकत की भूमिका हासिल जरूर कर सकेगी। लेकिन अभी कांग्रेस उसे यह मौका देने के मूड में नहीं लगती।
बहरहाल, ऐसी भूमिका के लिए आज ढाई दशक बाद सबसे ज्यादा अनुकूल स्थितियां हैं। १९८० के दशक में पहले कांग्रेस के बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का कार्ड खेलने और फिर संघ परिवार की हिंदुत्व की राजनीति के उफान के साथ प्रगतिशील और जनतांत्रिक एजेंडा काफी पीछे चला गया। १९९० के पूरे दशक में प्रगतिशील शक्तियां सांप्रदायिक फासीवाद को रोकने की रणनीति बनाने में जुटी रहीं। २००४ के चुनाव में भाजपा की हार के साथ इस मकसद का एक मुकाम जरूर हासिल हुआ, लेकिन खतरा मंडराता रहा। आखिरकार २००९ के आम चुनाव के साथ भाजपा के फिर से उभरने और सांप्रदायिक शासन की वापसी का खतरा इतना घटा है कि अब आश्वस्त हुआ जा सकता है।
इससे राजनीति में प्रगतिशील और जनतांत्रिक सवालों को उठाने का अनुकूल अवसर पैदा हुआ है। सीपीएम अगर अपनी पुरानी ताकत में होती तो वह इस मौके पर अपनी एक अधिक प्रासंगिक राष्ट्रीय भूमिका बना सकती थी। लेकिन पिछले चुनाव में लगे झटकों ने उससे यह अवसर फिलहाल छीन लिया है। अभी उसके नेताओं की सारी ऊर्जा हार के कारणों को समझने में लग रही है, और उन्हें इस बात की दलील देनी पड़ रही है कि कांग्रेस सामाजिक जनतांत्रिक शक्ति नहीं है।
सीपीएम ने चौदहवीं लोकसभा में जिम्मेदार और जन हितों के पहरुए की भूमिका निभाई थी। लेकिन विभिन्न कारणों से वह अपने गढ़ों को ही गंवा बैठी। उन गढ़ों को विकसित करने में ईएमएस नंबूदिरीपाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। ईएमएस दुनिया भर में पहले निर्वाचित कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री थे। उनकी ईमानदारी बेमिसाल थी। स्थितियों के विश्लेषण की उनकी क्षमता के कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर कम ही सानी थे। उन्होंने हार का भी मुंह देखा, मगर नाकामियों के बीच संघर्ष और सफलता के सूत्र तलाशते रहे। आज जब सीपीएम को उनके जैसी क्षमता के नेता की जरूरत है तो ऐसा लगता है कि सिर्फ उनकी यादें और उनसे मिली सीख ही उसके साथ हैं। क्या इनके सहारे सीपीएम इस संकट से उबर पाएगी, यह इस वक्त एक ऐसा सवाल है, जिस पर देश की सभी प्रगतिशील एवं जनतांत्रिक ताकतों की नजर है।
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