सत्येंद्र रंजन
कम्युनिस्ट विचारधारा में माओ जे दुंग का एक प्रमुख योगदान उनका ‘जनता के अंदरूनी अंतर्विरोधों’ का सिद्धांत है। उनके मुताबिक क्रांतिकारी शक्तियों के सामने हमेशा एक खास चुनौती इन अंतर्विरोधों का सही हल निकालने और उसके मुताबिक दोस्त एवं दुश्मन की पहचान करने की होती है। अंतिम मकसद सर्वहारा का राज कायम करना है, लेकिन उस मंजिल तक पहुंचने के पहले विभिन्न वर्गों के बीच गठबंधन जरूरी होता है। यह दरअसल, क्रमिक रूप से दुश्मन की पहचान करते हुए विभिन्न स्तरों पर साझा हित वाले समूहों के बीच राजनीतिक या संघर्ष का रिश्ता बनाते हुए आगे बढ़ने की प्रक्रिया है। माओवाद के तहत क्रांतिकारी और दुस्साहसी रूमानी ताकतों के बीच फर्क की कसौटी अंतर्विरोधों का यही सिद्धांत है।
अगर कोई राजनीतिक शक्ति दोस्त और दुश्मन की पहचान परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण के आधार पर करने में नाकाम है, तो उसके तमाम समर्पण एवं निष्ठा के बावजूद उसकी गतिविधियों से कोई सकारात्मक नतीजा हासिल नहीं हो सकता। बल्कि उसका दुस्साहस खतरनाक परिणाम दे सकता है। इससे उन्हीं तबकों के लिए भारी मुसीबत खड़ी हो सकती है, जिन्हें मुक्ति दिलाने का वह दावा करती है। पश्चिम बंगाल, और अभी खास तौर पर लालगढ़ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की गतिविधियों को उपरोक्त वैचारिक दायरे में रख कर देखे जाने की सख्त जरूरत है।
नक्सलवादियों (जो अब खुद को माओवादी कहते हैं) की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (या मुख्यधारा की हर वामपंथी पार्टी) से नफरत बहुत पुरानी है। उनके भीतर यह आम शिकायत रही है कि १९६० के दशक के आखिर में जब उन्होंने नक्सलबाड़ी से भारतीय राज्य-व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र बगावत की शुरुआत की, तो उसे कुचलने में सीपीएम और सीपीआई जैसी पार्टियां मौजूदा ‘शासक वर्गों’ के साथ हो गईं। तभी से नक्सली सीपीएम और सीपीआई को संशोधनवादी, यानी ऐसी पार्टियां कहते रहे हैं, जो अपनी सुविधा के मुताबिक सिद्धांतों को ढालती हैं।
पश्चिम बंगाल में सीपीएम की चुनावी सफलताएं नक्सलियों को कभी रास नहीं आईं। ना ही कभी उन्होंने वाम मोर्चा सरकार के भूमि सुधार जैसे प्रगतिशील कदमों के प्रति सकारात्मक नजरिया अपनाया। बल्कि उनके विमर्श से हमेशा उनकी इस राय के संकेत मिलते रहे कि मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टियां भारत में क्रांति के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हैं। इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि पश्चिम बंगाल में सीपीएम का किला ढहे, यह सिर्फ ममता बनर्जी या कांग्रेस ही नहीं चाहते, बल्कि यह चाहत माओवादियों में उनसे भी ज्यादा उग्र है।
नंदीग्राम से लेकर सिंगूर तक के ममता बनर्जी के आंदोलनों में माओवादी भी अहम भूमिका निभा रहे हैं, यह बात धीरे-धीरे साफ होती गई। लेकिन चूंकि ये घटनाएं वाम मोर्चे के खिलाफ जा रही थीं, इसलिए केंद्र सरकार से लेकर कॉरपोरेट मीडिया तक ने इसे नजरअंदाज किया। इसकी वजह पिछले वर्षों के दौरान नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों और सांप्रदायिकता के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष विकसित करने में वाम मोर्चे द्वारा निभाई गई भूमिका थी। लेकिन माओवादी अगर एक प्रगतिशील राजनीतिक ताकत हैं, तो वे कैसे वाम मोर्चे की इस भूमिका की अनदेखी कर सकते हैं, यह देख कर अचरज होता है।
बहरहाल, यह एक हकीकत है कि पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे को कमजोर करने के उद्देश्य की समानता तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस, एसयूसीआई जैसी हाशिये पर की उग्र वामपंथी पार्टियों और माओवादियों को एक छाते के नीचे ले आई। यह आग से खेलने जैसा खेल था। ऐसे ही फौरी राजनीतिक स्वार्थ का परिणाम लालगढ़ में सामने आया है। माओवादियों ने नवंबर २००८ में वहां पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य की हत्या की कोशिश की। घात लगाकर किए गए हमले में भट्टाचार्य और उनके साथ गए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान किसी तरह बच गए। उसके बाद पुलिस ने धर-पकड़ की कार्रवाई शुरू की। उसी के विरोध में पुलिस संत्रोस विरोधी जनसाधारनेर कमेटी बनी, जिसके पीछे माओवादियों का हाथ माना जाता है। इस कमेटी के लोगों को आगे कर माओवादियों ने लालगढ़ को ‘आजाद इलाका’ बना लिया। इस पूरे दौर में हालात की गंभीरता पर गौर करने के बजाय तृणमूल कांग्रेस और यहां तक कि कांग्रेस के निशाने पर भी सीपीएम ही रही।
अब सुरक्षा बलों की कार्रवाई में माओवादियों के साथ-साथ आम लोग निशाने पर हैं। यह कोई पहला मौका नहीं है, जब माओवादियों के दुस्साहस और क्रांति की रूमानियत की कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ी हो। अगर माओवादी सचमुच यह समझते हैं कि वे भारत के किसी इलाके को आज की परिस्थितियों में ‘जन युद्ध से आजाद’ करा सकते हैं, तो इससे उनके किसी हवाई दुनिया में विचरण करने का ही सबूत मिलता है। वरना, ऐसा करने पर सुरक्षा बलों की कार्रवाई होगी, इसका अनुमान उन्हें जरूर होगा। उस कार्रवाई का क्या परिणाम होगा, इसे भी वो समझते होंगे। तो फिर उस इलाके के लोगों को उन्होंने इस मुसीबत में क्यों डाला, यह सवाल एक दिन वे आम लोग ही उनसे जरूर पूछेंगे, जिनके नाम पर वे ऐसे दुस्साहस करते हैं।
माओवादी अपनी ऐसी गतिविधियों से निःसंदेह देश में वामपंथ की संभावनाओं को गहरी चोट पहुंचा रहे हैं। लेकिन इन हालात के मद्देनजर कुछ सवाल सीपीएम के सामने भी जरूर हैं। आखिर लालगढ़ इलाके के आदिवासी माओवादियों की बातों में क्यों आए? वहां जिस तरह का संगठन उन्होंने बनाया है, उससे साफ है कि माओवादी वहां लंबे समय से सक्रिय रहे होंगे। आखिर सीपीएम ने उन लोगों को संगठित करने और जिस न्याय की उम्मीद में वे माओवादियों के पाले में गए, वह न्याय दिलाने की कोशिश क्यों नहीं की? नंदीग्राम से सिंगूर तक माओवादियों को अपना आधार बनाने की जमीन कैसे मिली? क्या ये स्थितियां यह कठिन सवाल पेश नहीं करतीं कि क्या सीपीएम सिर्फ सत्ता की पार्टी बन गई है और उसने संसदीय दायरे से बाहर जन संघर्ष की अपनी भूमिका खो दी है?
लोकसभा चुनाव में लगे गहरे झटके और पश्चिम बंगाल में विस्फोटक होती स्थिति के मद्देनजर सीपीएम के सामने ये यक्षप्रश्न हैं। अगर वह इन प्रश्नों के उत्तर नहीं खोज पाई तो ३२ साल पुराना पश्चिम बंगाल का उसका किला अगले दो वर्षों में सचमुच ढह सकता है। सीपीएम को दरअसल माओवाद का राजनीतिक जवाब ढूंढना होगा। सुरक्षा बलों की कार्रवाई और उससे संभावित सफलता महज फौरी हैं। सीपीएम और वाम मोर्चे का दीर्घकालिक भविष्य इस पर निर्भर है कि क्या वे उस राजनीतिक जमीन को उग्र वामपंथ से छीन पाएंगे, जो उनकी जड़ों को खोखला कर रहा है?
Wednesday, June 24, 2009
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1 comment:
जी, माओ के नाम पर आतंकवाद ही किया जा रहा है। और यह तय है कि सेना, पुलिस, कानून से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। समस्या के समाधान के लिए उसके कारणों का तलाशना होगा और उन वजहों को दूर करना होगा।
एक बार फिर, माओवाद के नाम पर किया जा रहा आतंकवाद, सिर्फ कानून-प्रशासन के सामने थोड़ी बहुत समस्या पैदा कर सकता है, लेकिन वास्तव में इस देश में सामाजिक बदलाव के लिए लड़ने वाली ताकतों को ही ये लोग नुकसान पहुंचा रहे हैं। हां, सीपीआई और सीपीएम से इसका हल ढूंढ़ने की उम्मीद बेमानी है।
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