पत्रकारिता का मकसद एक पुरानी बहस का मुद्दा है। प्रेस का इजाद होने के बाद जब से पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, ये सवाल भी उठे कि आख़िर इनका मक़सद क्या है? इस बहस के परिणामस्वरूप मोटे तौर पर यह समझ बनी कि समाज को सूचना देना, उसे शिक्षित करना और उसका मनोरंजन पत्रकारिता के मक़सद हैं। विभिन्न समाजों में लोकतंत्र के मज़बूत होने और उसमें प्रेस की भूमिका महत्त्वपूर्ण होते जाने से यह माना जाने लगा कि देश का एजेंडा तय करना भी समाचार माध्यमों की ज़िम्मेदारी है। दुनिया भर में मीडिया को परखने की आज भी यही कसौटियां हैं। दुनिया भर में समाचार माध्यमों के संचालक आज भी यह दावा करते हैं कि वे इस ज़िम्मेदारी को निभा रहे हैं। प्रश्न है कि इस दावे में कितना दम है?
हम बात भारत तक सीमित रखते हैं। भारत उन देशों में है जहां प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का तेज़ी से प्रसार हो रहा है। अख़बारों की प्रसार संख्या बढ़ रही है और टेलीविज़न पर न्यूज चैनलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। अख़बारों को नये पाठक मिलना विकसित समाजों के विपरीत परिघटना है। अमेरिका और यूरोप में इंटरनेट ने अख़बारों के लिए एक गंभीर चुनौती पेश की है। वहां इंटरनेट नौजवान पीढ़ी के लिए सूचना पाने का प्रमुख जरिया बन गया है, नतीजा है कि अख़बारों की प्रसार संख्या गिर रही है। भारत में इंटरनेट की सीमित पहुंच, इस पर देशी भाषाओं में सूचना की कमी और नव साक्षरों की बढ़ती संख्या की वजह से अख़बारों के सामने वैसा संकट नहीं है। इसलिए यहां प्रिंट मीडिया में खुशहाली है। अर्थव्यवस्था में तेज़ विकास दर और बेहतर भविष्य के अनुमानों की वजह से विज्ञापन के बाज़ार में लगातार ज़्यादा पैसा आ रहा है, और इससे प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया के लिए संसाधानों की उपलब्धता बढ़ती जा रही है। लेकिन इसी से वह सवाल ज़्यादा पेचीदा होता जा रहा है, जिसे उठाते हुए हमने बात शुरू की। यानी यह कि क्या मीडिया उस जिम्मेदारी को ठीक से निभा रहा है, जो परंपरागत रूप से उसकी मानी जाती है?
यहां परंपरागत रूप का मतलब यह नहीं समझा जाना चाहिए कि हम किसी ऐसे रूमानी अतीत की बात कर रहे हैं, जिसके बारे में मनोगत ढंग से यह सोचा जाए कि उस दौर में पत्रकारिता का कारोबार किसी मिशन से संचालित था। हर दौर में मिशन की पत्रकारिता सिर्फ वहां तक सीमित रही, जब कोई पत्र या पत्रिका को किसी विचारधारा से जुड़े संगठन ने निकाला। उस पत्रकारिता का पैगाम उस संगठन के विचारों या पूर्वाग्रहों से तय होता रहा है। ऐसी पत्रकारिता आज भी हो रही है। लेकिन यहां हम इसकी बात नहीं कर रहे हैं। हम बात उस पत्रकारिता की कर रहे हैं जो एक पेशे के रूप में की जाती है। इसमें एक बड़ा निवेश होता है और निवेशक का मक़सद मुनाफा कमाना (साथ ही राजनीतिक-सामाजिक प्रभाव बनाना) होता है। इस क़ारोबार में नौकरी पाने वाले पेशेवर पत्रकारों का मक़सद अपनी जीविका चलाना होता है। बौद्धिक हलकों में चली लंबी बहस में यह माना गया कि इस पत्रकारिता को अपने इस मक़सद के साथ ही उस ज़िम्मेदारी को भी निभाना चाहिए, जिसकी ऊपर चर्चा की गयी है। इसलिए कि जो उत्पाद मनुष्य के दिमाग की खूराक है, जो उसके सोच पर असर डालता है, वह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में समाज के व्यापक उद्देश्यों से अलग नहीं हो सकता। बल्कि उसको इन उद्देश्यों को हासिल करने में मददगार बनना चाहिए।
इसीलिए एक दौर में सरकार ने प्रेस लगाने के लिए ख़ास सुविधाएं दीं। साथ ही प्रेस के निजी क्षेत्र में होने के बावजूद इसके कर्मचारियों के लिए वेतन बोर्ड बने और उन्हें एक न्यूनतम सेवा शर्तें देने की सरकार के स्तर पर कोशिश हुई। साथ ही प्रेस के लिए आचार संहिता बनी और उस पर निगरानी के लिए प्रेस परिषद जैसी संस्थाएं गठित की गयीं। यानी प्रेस के लिए ख़ास सुविधाएं मिलीं, तो उससे यह अपेक्षा भी की गयी कि वह एक व्यापक उद्देश्य को ध्यान में रख कर काम करे। यह विवाद का विषय है कि उस दौर में भी प्रेस इन अपेक्षाओं पर कितना खरा उतरा? वह किन सामाजिक उद्देश्यों से संचालित हुआ और बाज़ार ने उसके उद्देश्यों को कितना प्रभावित किया?
जब बात हम बाज़ार की करते हैं, तो इसमें मीडिया का लक्ष्य समूह (पाठक या दर्शक) और विज्ञापनदाता दोनों शामिल रहते हैं। इन दोनों का एक दूसरे से गहरा नाता है और जिसे हम मीडिया कहते हैं, वह इन दोनों के बीच संपर्क का माध्यम बनता है। यह बाज़ार की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, और इस पर किसी को शायद कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए। एतराज़ तब उठता है, जब कोई समाचार माध्यम सिर्फ इन दोनों के बीच का माध्यम बन जाता है औऱ बाकी सभी चिंताओं को भुला देता है।
अख़बारों में इसीलिए संपादकीय सत्ता को अहमियत दी गयी थी। इसी सोच की वजह से जब अख़बार कर्मचारियों के लिए वेतन बोर्ड बनते हैं, तो उसमें पत्रकारों का मेहनताना तय करने की अलग कसौटी अपनायी जाती है और उनके लिए ख़ास सुविधाओं का प्रावधान होता है। माना यह जाता है कि पत्रकार, ख़ासकर जो संपादक के दर्जे पर हैं, वे समाज के व्यापक उद्देश्यों और निवेशक के क़ारोबारी उद्देश्यों के बीच एक संतुलन बनाये रखेंगे। इस तरह मीडिया के मालिक के मुनाफे का मक़सद और समाज को सूचना, शिक्षा औऱ स्वस्थ मनोरंजन मिलने का मक़सद- दोनों पूरा होता रहेगा। अगर कोई समाचार माध्यम इसमें सफल रहते हुए अपनी प्रभावशाली हैसियत बना सका तो वह देश का एजेंडा तय करने में भी अपनी भूमिका निभा सकेगा।
आज के दौर में भी ऐसे समाचार माध्यम हमारे बीच मौजूद हैं। हम कह सकते हैं कि वे अपना सामाजिक दायित्व निभा रहे हैं। लेकिन संकट यह है कि ऐसे माध्यम अब गिने-चुने रह गये हैं। मीडिया के ज़्यादा बड़े हिस्से पर अब पूरी तरह बाज़ार का तर्क हावी हो गया है। इससे कारपोरेट मीडिया का एक ऐसा स्वरूप उभरा है, जिसमें अपने बाज़ार से बाहर झांकने की इच्छाशक्ति खत्म हो गयी है। इसीलिए इस मीडिया में पूरे देश की चिंताएं नहीं झलकतीं, इसमें उन लोगों की पीड़ा और समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं है, जो उसके बाज़ार का हिस्सा नहीं हैं। इसमें उन मुद्दों और सवालों की कोई अहमियत नहीं है, जो भले देश और व्यापक समाज के लिए महत्त्वपूर्ण हों, लेकिन जिनका संबंधित मीडिया के बाज़ार से सीधा नाता नहीं है।
समझने करने की बात यह है कि मौजूदा कारपोरेट मीडिया किस तर्क से संचालित होता है? यह सीधे उस समूह को संबोधित करता है, जो उसका लक्ष्य है। उसकी चिंताएं, उसके पूर्वाग्रह, उसके आर्थिक-सामाजिक हित और उसकी पसंद-नापसंद को पूरे समाज, बल्कि पूरी दुनिया के सच के रूप में पेश किया जाता है। यह कोशिश छोड़ दी गयी है कि उस समूह यह बताया जाए कि आख़िर पूरी दुनिया किन मसलों में उलझी हुई है और कैसे एक बेहतर दुनिया बनायी जा सकती है। जाहिर है, यहां सूचना का संदर्भ बेहद सीमित हो गया है और शिक्षित करने की बात सिरे से ग़ायब है। मनोरंजन जरूर बाकी सभी बातों पर हावी होता गया है।
अब सवाल है कि आख़िर समाचार माध्यम अपने इस लक्ष्य समूह का चयन किस आधार पर कर रहे हैं? क्या यह उनके स्वतंत्र विवेक से तय होता है? दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। इसके पीछे सीधे विज्ञापनदाताओं की प्राथमिकताएं हैं। विज्ञापनदाताओं के लिए वे तबक़े अहम हैं, जो उनके उत्पाद ख़रीद सकें। एक कार बेचने वाली कंपनी के लिए उन लोगों का कोई महत्त्व नहीं है, जो कार खरीदने की हैसियत में न हों। उसका बाज़ार सिर्फ समृद्ध लोग हैं। इसलिए वह उन्हीं लोगों से संवाद बनाना चाहती है। वह इसी आधार पर अपने माध्यम का चुनाव करती है। जाहिर है, ऐसा माध्यम बनने के लिए पूरे मीडिया में होड़ लगी हुई है। तो बात इस पर आ जाती है कि समृद्ध लोग क्या पढ़ना या देखना चाहते हैं, और उनके बीच कैसे पैठ बनायी जाए।
इसके लिए मीडिया अपना स्वरूप बदलता है, और वह लगातार उसके हितों की वक़ालत का माध्यम बन जाता है। इसीलिए महानगरों के बड़े लोगों (पूंजीपति, प्रोफेशनल्स, नौकरशाह, उच्च मध्य वर्ग के दूसरे हिस्से) के सोच और उनकी पसंद-नापसंद ज़्यादातर अख़बारों एवं न्यूज चैलनों के लिए सबसे ज़्यादा अहम हो गयी है। यहां बिना ज़्यादा दिमाग खपाये हम देख सकते हैं कि इस कॉरपोरेट मीडिया का स्वरूप कौन तय कर रहा है। यानी हक़ीकत यह है कि संपादक और दूसरे पत्रकारों की इसमें भूमिका लगभग खत्म हो गयी है। ये भूमिका कॉरपोरेट की दुनिया के कर्ता-धर्ताओं के हाथ में चली गयी है।
आज के दौर में जब मीडिया की बात करते हैं, तो इस पहलू को ज़रूर में ध्यान में रखना चाहिए। असली बात यह है कि मीडिया के सवाल को पूरे समाज की वर्ग संरचना से अलग कर नहीं देखा जा सकता। यह बात लगातार साफ होती जा रही है कि कोई भी मीडिया सबका नहीं है। वह एक तबक़े या एक जैसे हितों वाले कुछ तबक़ों का माध्यम है। तीखे होते सामाजिक अंतर्विरोधों के बीच कॉरपोरेट मीडिया लगातार दक्षिणपंथी और कई मामलों में जन विरोधी होता गया है। टीवी कैमरों की जगमग और अख़बारों की बढती चमक-दमक से इस सच्चाई को छिपाया नहीं जा सकता। अगर जनतंत्र और आम जन के हितों की बात की जाए तो प्रगतिशील एवं लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए यह सवाल लगातार ज्यादा प्रासंगिक होता जा रहा है कि वो अपने बीच संवाद, संपर्क और सूचना के माध्यम कैसे विकसित करें।
Tuesday, September 11, 2007
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