सत्येंद्र रंजन
केंद्र में तीन साल तक राजनीतिक स्थिरता और राज्य-व्यवस्था की सकारात्मक दिशा के बाद अब अस्थिरता लौट आई है। राजनीति अब किस ओर रुख करेगी, इसको लेकर फिलहाल गहरा असमंजस है। किसी भी निष्पक्ष पर्यवेक्षक के लिए इस निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल नहीं है कि यह स्थिति कांग्रेस नेतृत्व, खासकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के २००४ के जनादेश को न समझने और देश की राजनीतिक परिस्थितियों के प्रति शुतुरमुर्गी नजरिया अपनाने की वजह से पैदा हुई है। प्रधानमंत्री अपने राजनीतिक समर्थन आधार से कितने अनजान हैं, या उनमें इसके प्रति कितना अपमान का भाव भरा हुआ है, इसकी सबसे उम्दा मिसाल तब देखने को मिली, जब उन्होंने अमेरिका से असैनिक परमाणु सहयोग समझौते के मुद्दे पर वामपंथी दलों को समर्थन वापस लेने की चुनौती दे डाली। यह उनका भोलापन नहीं था, यह इस बात से जाहिर होता है कि उन्होंने इसके लिए कोलकाता के एक अखबार को इंटरव्यू देने के लिए चुना, जो वाम मोर्चे का गढ़ है। बहरहाल, इस दांव के पीछे उनकी गणना गलत और मकसद चालाकी भरा था, यह अब साफ हो चुका है।
विदेश नीति पर सत्ताधारी गठबंधन और उसकी समर्थक पार्टियों के बीच छिड़े इस विवाद के बीच सेतु समुद्रम परियोजना पर कांग्रेस नेतृत्व और सरकार के ढुलमुल रवैये ने उनकी बुनियादी साख पर और भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गंठबंधन के शासनकाल में सांप्रदायिक फासीवाद से संघर्ष के दौरान देश में एक बुनियादी धर्मनिरपेक्ष आम सहमति बनी। २००४ का जनादेश इसी आम सहमति की जीत थी। मनमोहन सिंह अगर यह भूल गए कि उनकी सरकार सिर्फ इसी आम सहमति के आधार पर टिकी रह सकती है और इसी के आधार पर कांग्रेस पार्टी भविष्य की राजनीतिक लड़ाइयों में अपनी प्रासंगिकता कायम रख सकती है, तो यह एक ऐसी ऐतिहासिक गलती है, जिसकी कीमत उनकी पार्टी के साथ-साथ देश की सभी प्रगतिशील शक्तियों को चुकानी पड़ सकती है।
सेतु समुद्रम मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी ने भयाक्रांत मानसिकता का परिचय देकर यह एक बार फिर जाहिर किया है कि धर्मनिरपेक्षता उसके लिए निष्ठा का विषय होने के बजाय एक राजनीतिक मुद्दा भर है। अपनी इस कमजोरी से उसने एक अहम वैचारिक बहस में सांप्रदायिक और रूढिवादी ताकतों को बढ़त बनाने का मौका दे दिया है। विदेश नीति में देश के अभिजात्य वर्गों की इच्छाओं को प्राथमिकता देकर मनमोहन सिंह सरकार पहले ही इन शक्तियों के लिए अनुकूल स्थितियां पैदा कर चुकी है।
अमेरिका से परमाणु सहयोग का समझौता अपने आप में मौजूदा सरकार की एक कूटनीतिक सफलता जरूर माना जा सकता है। यह समझौता भारत के हित में है और मोटे तौर पर इसमें देश की परमाणु संप्रभुता की रक्षा की गई है, यह बात इसकी शर्तों के बारीक अध्ययन के आधार पर कही जा सकती है। लेकिन सवाल इससे कहीं ज्यादा बड़े हैं। सबसे अहम सवाल यह है कि यह समझौता दोनों देशों के बीच एक स्वतंत्र करार है, या यह दोनों देशों के बीच बन रहे दीर्घकालिक एवं सामरिक संबंधों की महज एक कड़ी भर है, जिसमें भारत अमेरिका की व्यापक रणनीति का एक हिस्सा बन जाएगा? २००५ से अब तक मनमोहन सिंह सरकार ने विदेश और रक्षा नीति के मामलों में जो फैसले किए और जो रुख अख्तियार किया, उससे स्वतंत्र एवं सिद्धांतनिष्ठ विदेश नीति से जुड़े इस सवाल पर उसकी साख लगातार घटती गई है। इसीलिए देश की प्रगतिशील शक्तियां परमाणु समझौते पर प्रधानमंत्री की बातों पर भरोसा नहीं कर रही हैं। इससे मनमोहन सिंह आहत महसूस कर सकते हैं, उन्हें लग सकता है कि उन्होंने देश के लिए जो एक बड़ी उपलब्धि हासिल की, उसका राजनीतिक और वैचारिक कट्टरता के आधार पर विरोध किया जा रहा है।
मगर यह सवाल किसी व्यक्ति और उसके इरादों का नहीं है। यह सवाल समझ और विचारधारा का है और यह जरूरी नहीं है कि देश का हित सोचने का एकाधिकार सिर्फ मनमोहन सिंह या कुछ खास लोगों तक सीमित हो। सरकार को यह साधारण सी बात समझनी चाहिए कि जब देश की संसद में इस करार को बहुमत का समर्थन हासिल नहीं है, तो इस पर अमल नहीं हो सकता। ऐसे संवैधानिक प्रावधानों का कोई मतलब नहीं है कि विदेश से रिश्ते और समझौते कार्यपालिका के विशेषाधिकार हैं। लोकतंत्र में कार्यपालिका यानी सरकार आखिरकार जन भावनाओं की ही अभिव्यक्ति होती है और जब तक उसके साथ जनता का समर्थन होता है, तभी तक उसका वजूद रहता है। वर्तमान संसद जिस जनादेश की अभिव्यक्ति है, उसमें कांग्रेस पार्टी या यूपीए के उसके साथी दल देश की जनता के बहुमत की नुमाइंदगी नहीं करते। यह बहुमत वामपंथी दलों को साथ लेकर ही बनता है। तो जो मुद्दे वामपंथी दलों के बुनियादी विचारों से संबंधित हों, उस पर सरकार एकतरफा फैसले नहीं ले सकती, यह साधारण समझ की बात है।
अगर कांग्रेस इसे नहीं समझती है और कॉरपोरेट मीडिया के बनाए माहौल पर भरोसा कर चुनाव में उतरना चाहती है, तो पार्टी प्रबंधकों की समझ पर तरस ही खाया जा सकता है। इससे सिर्फ यही साबित होता है कि भारतीय जनता पार्टी के इंडिया शाइनिंग अभियान के अनुभव से कांग्रेस ने कुछ नहीं सीखा है। धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील राजनीति के लिए आम सहमति को तोड़कर कांग्रेस अपने लिए सिर्फ विपक्ष में बैठने की तैयारी ही कर सकती है। विभिन्न राज्यों के चुनावी समीकरणों के साधारण अध्ययन से भी यह बात साफ हो जाती है कि कांग्रेस आज मजबूत विकेट पर नहीं है। अगर वह अमेरिकापरस्त कॉरपोरेट मीडिया के सर्वेक्षणों पर भरोसा कर रही है तो उसे इंडिया शाइनिंग के वक्त से लेकर हाल के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव तक ऐसे सर्वेक्षणों के हश्र पर एक बार गौर जरूर कर लेना चाहिए।
यहां एक अहम सवाल यह है कि आखिर संसद के बहुमत की भावना के प्रति कांग्रेस या सरकार में इतने अपमान का भाव क्यों है? इसकी वजह हम सत्ताधारी नेताओं के अपने नजरिए और इच्छाओं में तलाश सकते हैं। दरअसल, इन नेताओं ने मई २००४ में प्रगतिशील एजेंडे वाले साझा न्यूनतम कार्यक्रम को सत्ता में आने की मजबूरी में अपनाया। वरना, जवाहरलाल नेहरू के बाद के कांग्रेस का इतिहास लगातार इसके दक्षिणपंथी होने औऱ अभिजात्य तबकों के हितों की पार्टी बनने की कोशिश करने का रहा है। जब भारतीय जनता पार्टी ने अपनी उग्र सांप्रदायिकता के साथ इस दक्षिणपंथी एजेंडे को ज्यादा आक्रामकता से अपना लिया और उसे व्यापक समर्थन भी मिलने लगा तब कांग्रेस में अपनी नई जमीन तलाशने की कोशिश हुई, लेकिन यह कोशिश आधे-अधूरे मन से हुई और दिल में कहीं यह आकांक्षा हमेशा छिपी रही कि देश का अभिजात्य वर्ग उसे फिर से अपना ले। फिलहाल पार्टी नेताओं को यह लग सकता है कि अमेरिकापरस्त नीतियों को अपनाते हुए वे अपनी इस आकांक्षा को पूरा कर सकते हैं। शायद इसमें वे कामयाब भी हो जाएं, लेकिन इससे उनके पैरों के नीचे से आम आदमी के समर्थन की वह जमीन जरूर खिसक जाएगी, जिसकी वजह से फिलहाल वे सत्ता में हैं।
अभिजात्य हितों के मुताबिक खुद को ढालने की कोशिश में कांग्रेस पार्टी पिछले तीन साल में देश की लोकतांत्रिक धारा को काफी नुकसान पहुंचा चुकी है। यह ठीक है कि इस दौरान राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और सूचना के अधिकार कानून बने और इन पर अमल शुरू हुआ, आदिवासियों को वन अधिकार देने का कानून बना (लेकिन उस पर अमल अभी तक कानूनी पेचीदगियों में उलझा हुआ है), और कई प्रगतिशील पहल हुई, जिससे यूपीए सरकार की जन वैधता कायम रही। लेकिन जहां लोकतंत्र के हक में मजबूती से खड़ा होने की बात आई, वहां मनमोहन सिंह सरकार डगमगाती नज़र आई है। इसकी एक मिसाल, न्यायपालिका का संसदीय मामलों में दखल है। संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा का विस्तार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की नौवीं अनुसूचि को निष्प्रभावी कर दिया और सरकार ने इसके खिलाफ कोई पहल नहीं की। संसद में इस पर चर्चा तक नहीं कराई गई और न ही यह पहल हुई कि संविधान का बुनियादी ढांचा क्या है, इसकी व्याख्या संसद खुद करे। दिल्ली में सीलिंग के सवाल पर कोर्ट का दखल बढ़ता रहा और सरकार यह रुख लेने में नाकाम रही कि ये प्रशासनिक फैसले हैं, जिनमें अदालतों की सीमित भूमिका है। आरक्षण के सवाल पर सरकार ने फैसले जरूर लिए, लेकिन यहां भी वो न्यायपालिका के सामने कोई वैचारिक रुख नहीं रख सकी।
वजह साफ है। अभिजात्य वर्ग संवैधानिक पहलुओं की जिस तरह व्याख्या करता है, सत्ताधारी दल के नेता उससे अपनी मूल मानसिक संरचना में सहमत हैं। आम जन में बढ़ती लोकतांत्रिक चेतना और उसकी वजह से विधायिका के बदलते स्वरूप के साथ उस पर लगाम लगाने की अभिजात्य वर्गीय कोशिशों की चुनौती को या तो वे नहीं समझ पाते या फिर वे खुद ऐसी कोशिशों से सहमत हैं। लेकिन ऐसी कोशिशों से उनकी लोकतांत्रिक साख पर गहरे सवाल जरूर खड़े हो गए हैं।
यह बात बड़े बेबाक ढंग से कही जा सकती है कि यूपीए सरकार का मौजूदा संकट साम्राज्यवाद विरोध, धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक निष्ठाओं पर उसके ढुलमुल रवैये से पैदा हुआ है। इन सवालों पर सत्ताधारी नेताओं ने सैद्धांतिक आस्था और व्यावहारिक समझ दोनों की कमी दिखाई है। इस तरह उन्होंने उस राजनीतिक पूंजी को काफी हद तक गंवा दिया है, जो भाजपा शासनकाल में विपक्ष में रहते हुए उन्होंने कमाई थी। इस तरह उन्होंने भाजपा के सत्ता में लौटने की संभावनाओं को काफी ताकतवर बना दिया है। फौरी राजनीतिक विश्लेषणों में भाजपा नेताओं की अंदरूनी खींचतान और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में कई मुद्दों पर मतभेदों के आधार पर भाजपा की सत्ता में वापसी चाहे जितनी दूर की कौड़ी बताई जाए, लेकिन हकीकत यही है कि बतौर मुख्य विपक्षी दल सत्ता विरोधी भावना का लाभ उठाने के लिए भाजपा तैयार है। उस हालत में जब धर्मनिरपेक्ष दलों में आपसी सहमति और चुनावी तालमेल न हो, तब भाजपा और उसके साथी दलों की संभावना और भी प्रबल हो सकती है और चुनाव के बाद नए सिरे से ध्रुवीकरण का रास्ता खुल सकता है।
सभी वामपंथी, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को इस हकीकत और चुनौती के प्रति जागरूक जरूर रहना चाहिए। इसलिए राजनीतिक बुद्धिमानी इसी में है कि कांग्रेस और वामपंथी दल अपने मतभेद और रिश्तों में मौजूदा तनाव को एक सीमा से आगे न जाने दें। इस लिहाज से दोनों पक्षों में एक दूसरे की वैचारिक प्राथमिकताओं की समझ बनना बहुत जरूरी है। जिन मुद्दों पर जहां तक लचीला रवैया अपनाना मुमकिन है, इसकी कोशिश की जानी चाहिए। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब दोनों पक्ष जिद न करें और अपनी प्राथमिकताओं पर साझा समझ और व्यापक राष्ट्र हित को तरजीह दें। अगर मनमोहन सिंह और कांग्रेस नेताओं को यह लगता है कि परमाणु करार एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर वे समझौता नहीं कर सकते, तो उन्हें इस पर जनमत बनाने की शुरुआत करनी चाहिए और अगले आम चुनाव में इस मुद्दे पर अपने लिए जनादेश मांगना चाहिए। वामपंथी दलों को इस मतभेद को स्वीकार करना चाहिए और अगले चुनाव के लिए एक वैकल्पिक धर्मनिरपेक्ष मोर्चा तैयार करना चाहिए। लेकिन अगले चुनाव तक यथास्थिति कायम रखने की कोशिश जरूर की जानी चाहिए।
यूपीए सरकार को यह भी जरूर समझना चाहिए कि अगर वह गिर गई तो परमाणु करार वैसे ही निरस्त हो जाएगा। इसका भविष्य तब अगली सरकार ही तय करेगी, और यह सरकार उनकी ही होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। अगर मान लिया जाए कि अगले चुनाव के बाद २००४ जैसी ही स्थिति बनती है तो एक बार फिर सरकार बनाने की मौजूदा सूरत ही पैदा होगी। उस हालत में वामपंथी दल करार को निरस्त करने की शर्त पर ही समर्थन देंगे। यानी इस करार का तब भी कोई भविष्य नहीं रहेगा। ये ठोस परिस्थितियां यह साफ करती हैं कि परमाणु करार कोई ऐसा सवाल नहीं है, जिससे देश के दूसरे हितों को बंधक बना दिया जाए। या कांग्रेस और यूपीए के दूसरे दल खुद को इसका बंधक बना लें। इस हकीकत को समझे जाने की जरूरत है कि आज की राजनीतिक परिस्थितियों में इस करार का कोई भविष्य नहीं है। इसे न समझकर मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी देश पर चुनाव थोपती है तो यह उनकी एक ऐतिहासिक भूल होगी, जिसके लिए उन्हें माफ नहीं किया जाएगा।
केंद्र में तीन साल तक राजनीतिक स्थिरता और राज्य-व्यवस्था की सकारात्मक दिशा के बाद अब अस्थिरता लौट आई है। राजनीति अब किस ओर रुख करेगी, इसको लेकर फिलहाल गहरा असमंजस है। किसी भी निष्पक्ष पर्यवेक्षक के लिए इस निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल नहीं है कि यह स्थिति कांग्रेस नेतृत्व, खासकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के २००४ के जनादेश को न समझने और देश की राजनीतिक परिस्थितियों के प्रति शुतुरमुर्गी नजरिया अपनाने की वजह से पैदा हुई है। प्रधानमंत्री अपने राजनीतिक समर्थन आधार से कितने अनजान हैं, या उनमें इसके प्रति कितना अपमान का भाव भरा हुआ है, इसकी सबसे उम्दा मिसाल तब देखने को मिली, जब उन्होंने अमेरिका से असैनिक परमाणु सहयोग समझौते के मुद्दे पर वामपंथी दलों को समर्थन वापस लेने की चुनौती दे डाली। यह उनका भोलापन नहीं था, यह इस बात से जाहिर होता है कि उन्होंने इसके लिए कोलकाता के एक अखबार को इंटरव्यू देने के लिए चुना, जो वाम मोर्चे का गढ़ है। बहरहाल, इस दांव के पीछे उनकी गणना गलत और मकसद चालाकी भरा था, यह अब साफ हो चुका है।
विदेश नीति पर सत्ताधारी गठबंधन और उसकी समर्थक पार्टियों के बीच छिड़े इस विवाद के बीच सेतु समुद्रम परियोजना पर कांग्रेस नेतृत्व और सरकार के ढुलमुल रवैये ने उनकी बुनियादी साख पर और भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गंठबंधन के शासनकाल में सांप्रदायिक फासीवाद से संघर्ष के दौरान देश में एक बुनियादी धर्मनिरपेक्ष आम सहमति बनी। २००४ का जनादेश इसी आम सहमति की जीत थी। मनमोहन सिंह अगर यह भूल गए कि उनकी सरकार सिर्फ इसी आम सहमति के आधार पर टिकी रह सकती है और इसी के आधार पर कांग्रेस पार्टी भविष्य की राजनीतिक लड़ाइयों में अपनी प्रासंगिकता कायम रख सकती है, तो यह एक ऐसी ऐतिहासिक गलती है, जिसकी कीमत उनकी पार्टी के साथ-साथ देश की सभी प्रगतिशील शक्तियों को चुकानी पड़ सकती है।
सेतु समुद्रम मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी ने भयाक्रांत मानसिकता का परिचय देकर यह एक बार फिर जाहिर किया है कि धर्मनिरपेक्षता उसके लिए निष्ठा का विषय होने के बजाय एक राजनीतिक मुद्दा भर है। अपनी इस कमजोरी से उसने एक अहम वैचारिक बहस में सांप्रदायिक और रूढिवादी ताकतों को बढ़त बनाने का मौका दे दिया है। विदेश नीति में देश के अभिजात्य वर्गों की इच्छाओं को प्राथमिकता देकर मनमोहन सिंह सरकार पहले ही इन शक्तियों के लिए अनुकूल स्थितियां पैदा कर चुकी है।
अमेरिका से परमाणु सहयोग का समझौता अपने आप में मौजूदा सरकार की एक कूटनीतिक सफलता जरूर माना जा सकता है। यह समझौता भारत के हित में है और मोटे तौर पर इसमें देश की परमाणु संप्रभुता की रक्षा की गई है, यह बात इसकी शर्तों के बारीक अध्ययन के आधार पर कही जा सकती है। लेकिन सवाल इससे कहीं ज्यादा बड़े हैं। सबसे अहम सवाल यह है कि यह समझौता दोनों देशों के बीच एक स्वतंत्र करार है, या यह दोनों देशों के बीच बन रहे दीर्घकालिक एवं सामरिक संबंधों की महज एक कड़ी भर है, जिसमें भारत अमेरिका की व्यापक रणनीति का एक हिस्सा बन जाएगा? २००५ से अब तक मनमोहन सिंह सरकार ने विदेश और रक्षा नीति के मामलों में जो फैसले किए और जो रुख अख्तियार किया, उससे स्वतंत्र एवं सिद्धांतनिष्ठ विदेश नीति से जुड़े इस सवाल पर उसकी साख लगातार घटती गई है। इसीलिए देश की प्रगतिशील शक्तियां परमाणु समझौते पर प्रधानमंत्री की बातों पर भरोसा नहीं कर रही हैं। इससे मनमोहन सिंह आहत महसूस कर सकते हैं, उन्हें लग सकता है कि उन्होंने देश के लिए जो एक बड़ी उपलब्धि हासिल की, उसका राजनीतिक और वैचारिक कट्टरता के आधार पर विरोध किया जा रहा है।
मगर यह सवाल किसी व्यक्ति और उसके इरादों का नहीं है। यह सवाल समझ और विचारधारा का है और यह जरूरी नहीं है कि देश का हित सोचने का एकाधिकार सिर्फ मनमोहन सिंह या कुछ खास लोगों तक सीमित हो। सरकार को यह साधारण सी बात समझनी चाहिए कि जब देश की संसद में इस करार को बहुमत का समर्थन हासिल नहीं है, तो इस पर अमल नहीं हो सकता। ऐसे संवैधानिक प्रावधानों का कोई मतलब नहीं है कि विदेश से रिश्ते और समझौते कार्यपालिका के विशेषाधिकार हैं। लोकतंत्र में कार्यपालिका यानी सरकार आखिरकार जन भावनाओं की ही अभिव्यक्ति होती है और जब तक उसके साथ जनता का समर्थन होता है, तभी तक उसका वजूद रहता है। वर्तमान संसद जिस जनादेश की अभिव्यक्ति है, उसमें कांग्रेस पार्टी या यूपीए के उसके साथी दल देश की जनता के बहुमत की नुमाइंदगी नहीं करते। यह बहुमत वामपंथी दलों को साथ लेकर ही बनता है। तो जो मुद्दे वामपंथी दलों के बुनियादी विचारों से संबंधित हों, उस पर सरकार एकतरफा फैसले नहीं ले सकती, यह साधारण समझ की बात है।
अगर कांग्रेस इसे नहीं समझती है और कॉरपोरेट मीडिया के बनाए माहौल पर भरोसा कर चुनाव में उतरना चाहती है, तो पार्टी प्रबंधकों की समझ पर तरस ही खाया जा सकता है। इससे सिर्फ यही साबित होता है कि भारतीय जनता पार्टी के इंडिया शाइनिंग अभियान के अनुभव से कांग्रेस ने कुछ नहीं सीखा है। धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील राजनीति के लिए आम सहमति को तोड़कर कांग्रेस अपने लिए सिर्फ विपक्ष में बैठने की तैयारी ही कर सकती है। विभिन्न राज्यों के चुनावी समीकरणों के साधारण अध्ययन से भी यह बात साफ हो जाती है कि कांग्रेस आज मजबूत विकेट पर नहीं है। अगर वह अमेरिकापरस्त कॉरपोरेट मीडिया के सर्वेक्षणों पर भरोसा कर रही है तो उसे इंडिया शाइनिंग के वक्त से लेकर हाल के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव तक ऐसे सर्वेक्षणों के हश्र पर एक बार गौर जरूर कर लेना चाहिए।
यहां एक अहम सवाल यह है कि आखिर संसद के बहुमत की भावना के प्रति कांग्रेस या सरकार में इतने अपमान का भाव क्यों है? इसकी वजह हम सत्ताधारी नेताओं के अपने नजरिए और इच्छाओं में तलाश सकते हैं। दरअसल, इन नेताओं ने मई २००४ में प्रगतिशील एजेंडे वाले साझा न्यूनतम कार्यक्रम को सत्ता में आने की मजबूरी में अपनाया। वरना, जवाहरलाल नेहरू के बाद के कांग्रेस का इतिहास लगातार इसके दक्षिणपंथी होने औऱ अभिजात्य तबकों के हितों की पार्टी बनने की कोशिश करने का रहा है। जब भारतीय जनता पार्टी ने अपनी उग्र सांप्रदायिकता के साथ इस दक्षिणपंथी एजेंडे को ज्यादा आक्रामकता से अपना लिया और उसे व्यापक समर्थन भी मिलने लगा तब कांग्रेस में अपनी नई जमीन तलाशने की कोशिश हुई, लेकिन यह कोशिश आधे-अधूरे मन से हुई और दिल में कहीं यह आकांक्षा हमेशा छिपी रही कि देश का अभिजात्य वर्ग उसे फिर से अपना ले। फिलहाल पार्टी नेताओं को यह लग सकता है कि अमेरिकापरस्त नीतियों को अपनाते हुए वे अपनी इस आकांक्षा को पूरा कर सकते हैं। शायद इसमें वे कामयाब भी हो जाएं, लेकिन इससे उनके पैरों के नीचे से आम आदमी के समर्थन की वह जमीन जरूर खिसक जाएगी, जिसकी वजह से फिलहाल वे सत्ता में हैं।
अभिजात्य हितों के मुताबिक खुद को ढालने की कोशिश में कांग्रेस पार्टी पिछले तीन साल में देश की लोकतांत्रिक धारा को काफी नुकसान पहुंचा चुकी है। यह ठीक है कि इस दौरान राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और सूचना के अधिकार कानून बने और इन पर अमल शुरू हुआ, आदिवासियों को वन अधिकार देने का कानून बना (लेकिन उस पर अमल अभी तक कानूनी पेचीदगियों में उलझा हुआ है), और कई प्रगतिशील पहल हुई, जिससे यूपीए सरकार की जन वैधता कायम रही। लेकिन जहां लोकतंत्र के हक में मजबूती से खड़ा होने की बात आई, वहां मनमोहन सिंह सरकार डगमगाती नज़र आई है। इसकी एक मिसाल, न्यायपालिका का संसदीय मामलों में दखल है। संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा का विस्तार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की नौवीं अनुसूचि को निष्प्रभावी कर दिया और सरकार ने इसके खिलाफ कोई पहल नहीं की। संसद में इस पर चर्चा तक नहीं कराई गई और न ही यह पहल हुई कि संविधान का बुनियादी ढांचा क्या है, इसकी व्याख्या संसद खुद करे। दिल्ली में सीलिंग के सवाल पर कोर्ट का दखल बढ़ता रहा और सरकार यह रुख लेने में नाकाम रही कि ये प्रशासनिक फैसले हैं, जिनमें अदालतों की सीमित भूमिका है। आरक्षण के सवाल पर सरकार ने फैसले जरूर लिए, लेकिन यहां भी वो न्यायपालिका के सामने कोई वैचारिक रुख नहीं रख सकी।
वजह साफ है। अभिजात्य वर्ग संवैधानिक पहलुओं की जिस तरह व्याख्या करता है, सत्ताधारी दल के नेता उससे अपनी मूल मानसिक संरचना में सहमत हैं। आम जन में बढ़ती लोकतांत्रिक चेतना और उसकी वजह से विधायिका के बदलते स्वरूप के साथ उस पर लगाम लगाने की अभिजात्य वर्गीय कोशिशों की चुनौती को या तो वे नहीं समझ पाते या फिर वे खुद ऐसी कोशिशों से सहमत हैं। लेकिन ऐसी कोशिशों से उनकी लोकतांत्रिक साख पर गहरे सवाल जरूर खड़े हो गए हैं।
यह बात बड़े बेबाक ढंग से कही जा सकती है कि यूपीए सरकार का मौजूदा संकट साम्राज्यवाद विरोध, धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक निष्ठाओं पर उसके ढुलमुल रवैये से पैदा हुआ है। इन सवालों पर सत्ताधारी नेताओं ने सैद्धांतिक आस्था और व्यावहारिक समझ दोनों की कमी दिखाई है। इस तरह उन्होंने उस राजनीतिक पूंजी को काफी हद तक गंवा दिया है, जो भाजपा शासनकाल में विपक्ष में रहते हुए उन्होंने कमाई थी। इस तरह उन्होंने भाजपा के सत्ता में लौटने की संभावनाओं को काफी ताकतवर बना दिया है। फौरी राजनीतिक विश्लेषणों में भाजपा नेताओं की अंदरूनी खींचतान और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में कई मुद्दों पर मतभेदों के आधार पर भाजपा की सत्ता में वापसी चाहे जितनी दूर की कौड़ी बताई जाए, लेकिन हकीकत यही है कि बतौर मुख्य विपक्षी दल सत्ता विरोधी भावना का लाभ उठाने के लिए भाजपा तैयार है। उस हालत में जब धर्मनिरपेक्ष दलों में आपसी सहमति और चुनावी तालमेल न हो, तब भाजपा और उसके साथी दलों की संभावना और भी प्रबल हो सकती है और चुनाव के बाद नए सिरे से ध्रुवीकरण का रास्ता खुल सकता है।
सभी वामपंथी, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को इस हकीकत और चुनौती के प्रति जागरूक जरूर रहना चाहिए। इसलिए राजनीतिक बुद्धिमानी इसी में है कि कांग्रेस और वामपंथी दल अपने मतभेद और रिश्तों में मौजूदा तनाव को एक सीमा से आगे न जाने दें। इस लिहाज से दोनों पक्षों में एक दूसरे की वैचारिक प्राथमिकताओं की समझ बनना बहुत जरूरी है। जिन मुद्दों पर जहां तक लचीला रवैया अपनाना मुमकिन है, इसकी कोशिश की जानी चाहिए। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब दोनों पक्ष जिद न करें और अपनी प्राथमिकताओं पर साझा समझ और व्यापक राष्ट्र हित को तरजीह दें। अगर मनमोहन सिंह और कांग्रेस नेताओं को यह लगता है कि परमाणु करार एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर वे समझौता नहीं कर सकते, तो उन्हें इस पर जनमत बनाने की शुरुआत करनी चाहिए और अगले आम चुनाव में इस मुद्दे पर अपने लिए जनादेश मांगना चाहिए। वामपंथी दलों को इस मतभेद को स्वीकार करना चाहिए और अगले चुनाव के लिए एक वैकल्पिक धर्मनिरपेक्ष मोर्चा तैयार करना चाहिए। लेकिन अगले चुनाव तक यथास्थिति कायम रखने की कोशिश जरूर की जानी चाहिए।
यूपीए सरकार को यह भी जरूर समझना चाहिए कि अगर वह गिर गई तो परमाणु करार वैसे ही निरस्त हो जाएगा। इसका भविष्य तब अगली सरकार ही तय करेगी, और यह सरकार उनकी ही होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। अगर मान लिया जाए कि अगले चुनाव के बाद २००४ जैसी ही स्थिति बनती है तो एक बार फिर सरकार बनाने की मौजूदा सूरत ही पैदा होगी। उस हालत में वामपंथी दल करार को निरस्त करने की शर्त पर ही समर्थन देंगे। यानी इस करार का तब भी कोई भविष्य नहीं रहेगा। ये ठोस परिस्थितियां यह साफ करती हैं कि परमाणु करार कोई ऐसा सवाल नहीं है, जिससे देश के दूसरे हितों को बंधक बना दिया जाए। या कांग्रेस और यूपीए के दूसरे दल खुद को इसका बंधक बना लें। इस हकीकत को समझे जाने की जरूरत है कि आज की राजनीतिक परिस्थितियों में इस करार का कोई भविष्य नहीं है। इसे न समझकर मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी देश पर चुनाव थोपती है तो यह उनकी एक ऐतिहासिक भूल होगी, जिसके लिए उन्हें माफ नहीं किया जाएगा।
1 comment:
Its a good article. Its appear at the time when every polster is prdicting fair chance for congress. You dared to challange the whole ephoria on very rational ground as well as you question the sincerity, conviction and courage of this government. Its great.
aise hi broader secular consensus ke alava is sarkar ko aam aadmi ka vote is naare par mila tha ki congress ka haath aam aadmi ya garib ke saath, lekin is sarkar ne aam aadmi dwara india shining ke jhoothe naaron ke khilaf diye gaye janadesh ka apman bhi kiya. mahngai, kisanon ki durdash, wheat import, fdi in retail, insistence on 2nd generation economic reforms etc. are the issues where we can see that this government is working just like the previous NDA government. This government has no any respect to mandate of 2004. UPA Government is just trying to attract middle class traditional voters of BJP by toeing their line on US and beside this effort they want to snatch OBC vote from regional party by announcing reservation and trying to keep muslim vote by jhunjhuna of sachar panel. sarkar do navon ki sawari kar rahi hai that is why failure is a certainty.
Post a Comment