Tuesday, September 11, 2007

इमरजेंसी के कुछ सबक

सत्येंद्र रंजन

आजादी के बाद भारतीय राजनीति को जिन घटनाओं ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया, उनमें निसंदेह इमरजेंसी भी एक है। इमरजेंसी ने भारतीय लोकतंत्र को लेकर कई नए संदेहों को जन्म दिया। कई हलकों में तो यह मान लिया गया कि आखिरकार भारत में भी राजनीतिक लोकतंत्र के प्रयोग का वही हश्र हुआ, जो तीसरी दुनिया के पिछड़े समाजों में होता रहा है। लेकिन लंबी निरंकुश तानाशाही के उन अंदेशों से भारत दो साल के अंदर ही उबर गया, और उसके बाद के दौर में भारतीय लोकतंत्र को लेकर भरोसा लगातार मजबूत होता गया है। चूंकि इमरजेंसी के बाद एक पूरी पीढ़ी जवान हो चुकी है, इसलिए बत्तीस साल पहले की वह घटना अब लोगों की स्मतियों को पहले की तरह नहीं कुरेदती है। लेकिन यह एक हकीकत है कि बत्तीस साल पहले आज के दिन भारतीय लोकतंत्र एक गंभीर संकट में फंस गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने २५ जून की आधी रात देश में आंतरिक इमरजेंसी लगा दी। इसके साथ ही देश में आम राजनीतिक गतिविधियां ठहर गईं। संविधान से नागरिकों को मिले मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए गए। इमरजेंसी के दौरान संविधान में कई ऐसे संशोधन किए गए, जिन्होंने भारतीय संविधान की मूल आत्मा पर प्रहार किया। इमरजेंसी के दिनों में इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी संविधानेतर सत्ता के केंद्र के रूप में उभरे। संजय और उनकी मंडली के मनमानेपन पर कोई अंकुश नहीं रहा। इसकी वजह से देश के कई इलाकों में कई तबकों को घोर ज्यादतियां झेलनी पड़ीं। ऐसी ज्यादतियों की शिकायत करने का कोई मंच तब उनके पास मौजूद नहीं था। इसीलिए उस दौर को न अपील, न दलील, न वकील का दौर कहा जाता है। यानी वह तानाशाही का दौर था।
अब जबकि उस घटना के बाद तीन दशक गुजर चुके हैं, इतिहासकार उस दौर पर सामने आ चुके तमाम तथ्यों की रोशनी में, और भावनात्मक प्रतिक्रिया से मुक्त होकर विचार कर रहे हैं। सभी इतिहासकारों में इस बात पर सहमति है कि इमरजेंसी आजाद भारत के साठ साल के इतिहास में एक अंधकार भरा दौर है। चूंकि इमरजेंसी इंदिरा गांधी ने लगाई, इसलिए भारतीय लोकतंत्र के उस संकट के लिए तब उन्हें ही दोषी माना गया। आज भी जब कभी बात इमरजेंसी की होती है, स्वाभाविक रूप से इंदिरा गांधी का जिक्र आ जाता है। इमरजेंसी के अत्याचारों की चर्चा के साथ संजय गांधी और उनकी चौकड़ी याद आती है। साथ ही जिक्र आता है जेपी यानी जयप्रकाश नारायण का, जिन्हें इमरजेंसी के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने वाला नेता माना जाता है।
मार्च १९७७ में इंदिरा गांधी की हार को कांग्रेस विरोधी विपक्षी गठबंधन से जुड़े नेताओं और बहुत से टीकाकारों ने दूसरी आजादी बताया। जेपी इस कथित दूसरी आजादी के सबसे बड़े नेता थे। उनके नेतृत्व में दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक जनसंघ से लेकर वाम रुझान वाली सोशलिस्ट पार्टी तक के नेता एकजुट हुए। इंदिरा गांधी को शिकस्त देने में इस राजनीतिक ध्रुवीकरण का अहम योगदान रहा। हालांकि ये एक अवसरवादी गठबंधन था, इसके बावजूद जनता के एक बड़े हिस्से ने इसे विकल्प माना तो इसकी वजह इस पर मौजूद जेपी का साया ही थी। ब्रिटिश शासन से आजादी के आंदोलन में जेपी की ऐतिहासिक भूमिका और उसके बाद निःस्वार्थ सेवा के उनके रिकॉर्ड ने उनकी ऐसी शख्सियत बनाई थी, जिससे वे न सिर्फ इस ध्रुवीकरण का केंद्र बन सके, बल्कि जब इन दलों ने मिलकर एक पार्टी बना ली तो उसकी विश्वसनीयता भी बन सकी।
बहरहाल, आज उस दौर के तीन दशक बाद आज सबसे प्रासंगिक मुद्दा यही है कि आखिर इमरजेंसी के सबक क्या हैं? यह एक सकारात्मक घटनाक्रम है कि बौद्धिक हलकों में आज इस विषय पर ज्यादा गंभीरता से सोचा जा रहा है। इस क्रम में इमरजेंसी के पूरे संदर्भ पर चर्चा की जा रही है। सवाल यह है कि आखिर इमरजेंसी लगाने की नौबत क्यों आई और इसके लिए कौन जिम्मेदार था? यह घटना की सिर्फ सतही समझ ही है कि इमरजेंसी १२ जून १९७५ के इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले की वजह से लगी, जिसमें १९७१ के चुनाव में रायबरेली चुनाव क्षेत्र से इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध करार दिया गया। हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद बनी स्थितियां इमरजेंसी की फौरी वजह जरूर थीं, लेकिन देश में उसके काफी पहले से बन रहे हालात ने देश में गंभीर राजनीतिक संकट पैदा कर दिया था।
इन हालात को बनाने में जेपी आंदोलन की भी बड़ी भूमिका थी। इस आंदोलन का मकसद क्या था और उसकी ठोस मांगें क्या थीं, ये आज भी अस्पष्ट हैं। गुजरात और बिहार में कॉपी और मिट्टी तेल की सहज आपूर्ति जैसी आम मांगों से उठा छात्रों का आंदोलन को कैसे चुनाव में हारे, १९६७ की संविद सरकारों में सत्ता लिप्सा की वजह से बदनाम हो चुके और खुद भ्रष्टाचार एवं अकुशलता के आरोप झेल रहे बहुत से नेताओं ने हथिया लिया, इस पर अब तक काफी रोशन डाली जा चुकी है। जेपी के इस आंदोलन में कूद पड़ने से न सिर्फ इन नेताओं को एक आड़ मिल गई, बल्कि आंदोलन का फलक भी व्यापक दिखने लगा। एक भावुक क्षण में जेपी ने उस आंदोलन को संपूर्ण क्रांति का आंदोलन घोषित कर दिया। लेकिन उस संपूर्ण क्रांति का रास्ता, रणनीति, कार्यकर्ता, साथी और अंतिम मकसद अस्पष्ट बने रहे। विडंबना यह है कि उस आंदोलन के पास ऐसी मांगों का अभाव था, जिस पर वह सरकार से बातचीत या सौदेबाजी कर पाता। इसके विपरीत पहले गुजरात और फिर बिहार विधानसभा भंग करो जैसी मांगें उठाकर संसदीय लोकतंत्र के मूल स्वरूप पर सवाल उठा दिए गए।
लोकतंत्र में जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति का सबसे प्रभावी माध्यम चुनाव हैं, यह निर्विवाद है। जेपी आंदोलन ने भी इससे बेहतर किसी माध्यम का सुझाव नहीं रखा। हकीकत यह है कि १९७१ के आम चुनाव में कांग्रेस को भारी जीत मिली थी, १९७४ में जब जेपी आंदोलन जारी था, देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को भारी बहुमत मिला। दक्षिण के राज्यों में वैसे भी जेपी आंदोलन का कोई असर नहीं था। इस परिप्रेक्ष्य में यह कहना कि कांग्रेस जनता का भरोसा खो चुकी है, किसी नेता या नेताओं के समूह का मनोगत निष्कर्ष ही हो सकता था। बहरहाल, अगर जेपी और उनके साथी नेताओं को सचमुच इस बात में भरोसा था, तो अगले आम चुनाव १९७६ के आरंभ में होने वाले थे और वे उसका इंतजार कर सकते थे। लेकिन उन्होंने सड़क पर भीड़ उतार कर यह फैसला करने का हैरतअंगेज तर्क रखा।
इसी पृष्ठभूमि में इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया। यह इंदिरा गांधी के लिए बहुत बड़ा झटका था। लेकिन खुद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फैसले पर अमल २० दिन के लिए रोकते हुए इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट में अपील का वक्त दिया। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने अपील पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट के फैसले पर सशर्त रोक लगा दी। इस तरह इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बने रहने में कोई कानूनी बाधा नहीं रह गई। नैतिकता का सवाल जरूर था, लेकिन नैतिकता व्यक्ति के आत्म-मूल्यांकन की चीज है। इसे किसी पर थोपा नहीं जा सकता। इस बुनियादी सिद्धांत को जेपी और उनके साथ जुट गए नेताओं को समझना चाहिए था। उनके सामने अगले आठ महीनों तक नैतिकता के सवाल पर जनमत तैयार करने के लिए मैदान खुला था। लेकिन उन्होंने एक बार फिर भीड़ की राजनीति का सहारा लेने का फैसला किया। उन्होंने एलान किया कि २९ जून से लाखों लोग इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग करते हुए प्रधानमंत्री निवास पर घेरा डाल देंगे। साथ ही जेपी ने सशस्त्र बलों से सरकार का आदेश मानने के बजाय अंतरात्मा की आवाज सुनने की अपील, जिसे सरकारी हलकों में बगावत की अपील माना गया।
इसके बाद इंदिरा गांधी के पास सिर्फ दो रास्ते थे- या तो वे इस्तीफा दे देतीं या फिर पलटकर वार करतीं। बिपन चंद्रा ने इमरजेंसी पर लिखी अपनी किताब इन द नेम ऑफ डेमोक्रेसी में बलराज पुरी के इस कथन का हवाला दिया है कि अगर आप बिल्ली को भगाना चाहते हैं तो घर में कोई एक रास्ता खुला छोड़ दीजिए। वरना, बिल्ली आप पर ही वार करेगी। जेपी और तब के विपक्षी नेताओं ने तब इंदिरा गांधी की कुछ ऐसी ही घेराबंदी की, जिसमें उनके पास सिर्फ दो विकल्प छोड़े गए। नतीजतन, देश को एक अंधेरे दौर से १९ महीनों तक गुजरना पड़ा।
इस पूरे घटनाक्रम का सबक यही है कि लोकतंत्र में न सिर्फ सरकार, बल्कि विपक्ष और आम नागरिकों को भी लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का पालन जरूर करना चाहिए। आंदोलन होने चाहिए, लेकिन उनकी सुपरिभाषित मांगें होनी चाहिए, जिस पर सरकार या प्रशासन बात हो सके। अगर बातचीत नाकाम रहे तो आंदोलनकारी समूहों को विरोध के शांतिपूर्ण सभी तरीकों का सहारा जरूर लेना चाहिए और अपने पक्ष में जनमत तैयार करना चाहिए। सरकार को जनमत का आदर करना चाहिए। इसके बावजूद टकराव जारी रहा तो अंत में सभी राजनीति टकरावों का फैसला चुनाव से होना चाहिए।
अगर १९७५ में सरकार, विपक्ष और आम असंतुष्ट नागरिकों की भावनाओं को आवाज दे रहे जेपी इन सिद्धांतों का पालन करते तो शायद इमरजेंसी नहीं लगती, आम लोगों पर बहुत सी ज्यादतियां नहीं होतीं, और इमरजेंसी विरोधी भावना का फायदा उठाकर सांप्रदायिक फासीवादी शक्तियों ने जो प्रतिष्ठा और ताकत पा ली, वह नहीं होता। इन शक्तियों ने फिलहाल देश पर इमरजेंसी का जो स्थायी खतरा बना रखा है, शायद वह भी नहीं होता। बहरहाल, जो हो गया, उसे पलटा नहीं जा सकता, मगर उससे सबक जरूर लिया जा सकता है।
इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के तीन दशक बाद अब राज्य-व्यवस्था इतनी विकेंद्रित हो चुकी है कि देश में किसी एक नेता की तानाशाही का खतरा नहीं है। लेकिन देश पर सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद की तानाशाही का खतरा जरूर मंडरा रहा है। चूंकि इस खतरे के साथ एक पूरा समूह औऱ फासीवादी विचारधारा जुड़ी हुई है, इसलिए यह खतरा कहीं गंभीर है। इमरजेंसी की सालगिरह पर इसके प्रति जागरूक रहना औऱ इससे हर स्तर पर लड़ने के लिए अपने को तैयार करना भी उस इमरजेंसी का एक अहम सबक है, जिसकी अनदेखी हम अपने संविधान, मूल अधिकारों और तमाम आधुनिक मूल्यों की कीमत पर ही कर सकते हैं।

1 comment:

उन्मुक्त said...

आपात काल मुश्किल समय था। जो लोगों ने देखा नहीं उनके लिये समझना मुश्किल है।