सत्येंद्र रंजन
सेतु समुद्रम परियोजना के मुद्दे पर कांग्रेस और यूपीए का असली चेहरा एक बार फिर बेनकाब हुआ है। फिर यही झलक मिली है कि केंद्र का यह सत्ताधारी गठबंधन किसी सिद्धांत, विचारधारा या दीर्घकालिक राजनीतिक उद्देश्यों पर आधारित नहीं है। बल्कि सत्ता का आसान समीकरण इसे जोड़े हुए है और अल्पकालिक लाभ के लिए यह किसी भी सवाल पर समझौता कर सकता है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने हलफनामे में सिर्फ वही कहा जो एक सच है और जिसे स्वीकार करने में किसी विवेकशील व्यक्ति को कोई मुश्किल नहीं होगी, चाहे वह कितना ही आस्थावान हो। राम, रामायण और इस लिहाज से राम सेतु की ऐतिहासिकता तय नहीं है और ये सभी आस्था एवं विश्वास से जुड़े हुए हैं, इस बयान में ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे किसी की आस्था पर चोट पहुंचे। भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार ने अगर इसे मुद्दा बनाने की कोशिश तो इसमें कोई हैरत की बात नहीं है, क्योंकि जो राजनीतिक शक्ति भावनात्मक मुद्दों, अज्ञान एवं अंध विश्वास और सांप्रदायिक विद्वेष के जरिए ही समाज और राजनीति में अपनी प्रासंगिकता रखती हो, उससे कोई और उम्मीद नहीं की जा सकती।
लेकिन जो शक्तियां अपने को प्रगति एवं न्याय के बड़े उद्देश्यों को लेकर राजनीति करने का दंभ भरती हैं, उनसे यह उम्मीद जरूर रहती है कि ऐसे सवालों पर वे फौरी अलोकप्रियता के जोखिम पर भी समझौताविहीन रवैया अपनाएं। झूठ और अंध विश्वास से सीधी लड़ाई के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि न सिर्फ यथास्थितिवादी कांग्रेस, बल्कि अपने को पिछड़ों के लिए न्याय की लड़ाई का नुमाइंदा बताने वाले लालू प्रसाद यादव और यहां तक कि कम्युनिस्ट एबी बर्धन को भी यही लगा कि पुरातत्व विभाग का यह हलफनामा गैर जरूरी है, जिससे भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक फायदा मिलेगा।
कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज का यह कथन गौरतलब है- भगवान राम के अस्तित्व पर कोई संदेह नहीं हो सकता। जैसे हिमालय, हिमालय है, गंगा गंगा है, वैसे ही राम राम हैं।
यह विचित्र तर्क है। अगर राम आस्था से जुड़े हैं तो उनकी तुलना हिमालय और गंगा जैसी भौतिक उपस्थितियों से कैसे हो सकती है? और अगर राम भौतिक उपस्थिति हैं तो क्या कोई उन्हें हिमालय और गंगा की तरह हमें दिखा सकता है? लेकिन बात जब आस्था की हो और नजर वोट पर, तो तर्क और कुतर्क की चिंता कौन करता है?
हंसराज भारद्वाज और उनके जैसे कांग्रेस नेताओं की सोच आसानी से समझी जा सकती है। यह वही सोच है, जिसने नेहरू के बाद के दौर में कांग्रेस को सत्ता को मशीन बना दिया, जिसके लिए राजतंत्रीय अर्थ में सत्ता पाना और उस पर काबिज रहना ही एकमात्र मकसद रह गया। यह सोच लोकतंत्र की इस समझ से बिल्कुल उलटी है कि सत्ता कुछ खास आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक साधन है और इन्हीं उद्देश्यों पर राजनीतिक बहुमत का निर्माण कर इसे हासिल किया जाना चाहिए। २००४ में कांग्रेस पार्टी एक खास परिस्थिति में सत्ता में आई। तब यह सांप्रदायिक-फासीवाद के खिलाफ व्यापक राजनीतिक गोलबंदी का केंद्र बनी। लेकिन सत्ता में आने के बाद कांग्रेस नेता उस संदर्भ को भूल गए हैं। उन्हें लगता है कि यथास्थितिवादी एजेंडे, और अभिजात्य वर्ग के हितों और सोच के मुताबिक आर्थिक एवं विदेश नीति को अपना कर वो शासन की स्वाभाविक पार्टी का दर्जा एक बार फिर हासिल कर लेंगे। अमेरिका से गठबंधन की विदेश नीति और संवैधानिक मामलों पर जनता के हित में आवाज न उठाना इस पार्टी की प्राथमिकताओं के दो स्पष्ट उदाहरण हैं।
अब आस्था बनाम हकीकत की बहस में समझौतावादी रुख अपनाकर पार्टी ने यह भी साबित कर दिया है कि जिस धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर उसे व्यापक समूहों का समर्थन मिला, उसमें भी उसकी अपनी कोई आस्था नहीं है। आखिर धर्मनिरपेक्षता का मतलब सिर्फ उग्र सांप्रदायिक नहीं होना ही नहीं है। बल्कि इसका मतलब समाज में विवेक और वैज्ञानिक सोच के लिए लगातार संघर्ष भी है।
बहरहाल, अगर कांग्रेस यह सोचती है कि ऐसे हथकंडों से वह चुनावी कामयाबी पा लेगी, तो वह भ्रम में है। धर्मनिरपेक्षता और बुनियादी लोकतांत्रिक सवालों पर बनी राजनीतिक आम सहमति को तोड़ कर वह सिर्फ १९९० के दशक के उन वर्षों को दोबारा न्योता दे रही है जब उसकी प्रांसगिकता पर सवाल उठने लगे थे।
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