जनरल परवेज मुशर्ऱफ ने सुप्रीम कोर्ट में यह वादा कर कि अगर वो राष्ट्रपति चुन लिए गए तो उसके बाद सेना की वर्दी उतार देंगे, पाकिस्तान में राजनीतिक और आम अस्थिरता में एक नया पहलू जोड़ दिया है। जानकार मानते हैं कि इस पेशकश में असली शब्द अगर है। सवाल है कि अगर उन्हें राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं दी गई, तो क्या होगा? क्या जनरल मुशर्रफ तब मार्शल लॉ या इमरजेंसी का सहारा लेंगे? अब तक के तमाम संकेत यही बताते हैं कि मुशर्रफ फिर से राष्ट्रपति बनने के अपने इरादे पर कायम हैं और वो कोई रियायत तभी बरत सकते हैं, जब राजनीतिक दल या सुप्रीम कोर्ट इसमें बाधा न बने। चुनाव आयोग जनरल मुशर्रफ के लिए उम्मीदवारी के कायदों में बदलाव कर उनके लिए रास्ता साफ कर चुका है। अब नजर इस पर है कि क्या सुप्रीम कोर्ट न्यायिक सक्रियता से हासिल हुई नई ताकत के इस दौर में इस सबसे अहम सवाल पर जनरल मुशर्रफ को चुनौती देने की हिम्मत जुटाता है?
राष्ट्रपति पद पर बने रहने की अपनी योजना के तहत जनरल मुशर्रफ ने पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो और उनकी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के साथ समझौता करने की कोशिश की, लेकिन यह कोशिश अब नाकाम होती लग रही है। इसकी मुख्य वजह यह है कि मुशर्रफ खुद राष्ट्रपति रहने के लिए तो कायदों की अनदेखी करने का पूरा इरादा जता रहे हैं, लेकिन वे बेनजीर के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की इजाजत देने के लिए संविधान में बदलाव को तैयार नहीं हैं। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी जनरल के वर्दी उतार कर राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की शर्त पर लगातार जोर दे रही है, लेकिन जानकारों की राय है कि अगर मुशर्रफ बेनजीर के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ करने को तैयार हो जाएं तो बेनजीर शायद उनके फिर से राष्ट्रपति बनने के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं अटकाएंगी।
अमेरिका और पश्चिमी देश फिलहाल पाकिस्तान में ऐसी ही व्यवस्था को अपने लिए सबसे ज्यादा माफिक मानते हैं। इन देशों की चिंता इस्लामी कट्टरपंथ से लड़ाई है, जिसमें मुशर्रफ लगातार उनके सहयोगी बने हुए हैं और पश्चिमी में पढ़ी-लिखी और आम तौर पर उदारवादी मुद्दों पर राजनीति करने वाली बेनजीर इसमें उनके साथ रहेंगी, ऐसा उन्हें भरोसा है, जो बेनजीर के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए बेबुनियाद नहीं लगता।
पाकिस्तान से आने वाली तमाम रपटें ये बताती हैं कि मुशर्रफ-बेनजीर में समझौते की कोशिशों ने विपक्ष का काफी बड़ा स्थान पाकिस्तान मुस्लिम लीग के नेता नवाज शरीफ के लिए खाली छोड़ दिया है। दस सितंबर को उनके लौटते ही दोबारा देश से बाहर भेजने से उन्हें राजनीतिक सहानुभूति भी मिली है। इसके अलावा धार्मिक कट्टरपंथी औऱ रूढ़िवादी ताकतों का ध्रुवीकरण उनके इर्द-गिर्द होता दिख रहा है। ऐसे में नवाज शरीफ को जनरल मुशर्रफ के लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में देखने का रुझान सहज बढ़ता जा रहा है। लेकिन पाकिस्तान के पूरे संदर्भ में यह नजरिया सही है, कहना शायद मुश्किल है। पाकिस्तान की मुश्किल सिर्फ जनरल मुशर्रफ और उनकी सैनिक तानाशाही नहीं है। बल्कि यह कहना शायद ज्यादा सही हो कि यह तानाशाही पाकिस्तान की ठोस सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम है। नवाज शरीफ अतीत में लोकतांत्रिक शक्ति नहीं रहे हैं। वो बड़े जमींदारों, ब़ड़ी पूंजी, धार्मिक रूढ़िवाद और यथास्थितिवादी ताकतों का नुमाइंदा ज्यादा रहे हैं। अतीत में दो बार उन्होंने लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बीच सैनिक दखल का समर्थन किया। जब बेनजीर भुट्टो का तख्ता पलटा गया, तब उन्होंने यह नहीं कहा कि ऐसा करना लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है और बेनजीर का चुनाव के मैदान में मुकाबला करना वे ज्यादा पसंद करेंगे। हालांकि ठीक यही बात बेनजीर भुट्टो पर भी लागू होती है, जिन्होंने सेना के हाथों नवाज शरीफ का सत्ता पलटे जाने का समर्थन किया।
असल में यही पाकिस्तान की असली समस्या है। पिछले साठ साल में वहां लोकतंत्र का न तो आम ढांचा कायम हो सका और न देश के बुनियादी ढांचे में लोकतंत्र की प्रक्रिया आगे बढ़ी है। अगर भारत से तुलना करें तो जहां भारत में आजादी के पहले ही कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट शक्तियों ने अपना खासा प्रभाव बना लिया, और कांग्रेस के भीतर भी प्रगतिशील और समाजवादी आवाजें मजबूत होती गईं, वहीं पाकिस्तान को बनाने का आंदोलन इस परिघटना के प्रतिवाद के रूप में हुआ। यह अब सामाजिक इतिहास का हिस्सा है कि पाकिस्तान आंदोलन के पीछे असली शक्ति जमींदार थे, जो कांग्रेस में बढ़ते समाजवादी रुझान और कम्युनिस्टों की बढ़ती ताकत से परेशान थे।
भारत में आधा-अधूरा ही सही भूमि सुधारों पर अमल किया गया। दलित औऱ पिछड़ी जातियों के आंदोलन ने समाज के बुनियादी ढांचे में बदलाव की प्रक्रिया शुरू की। एक व्यक्ति एक वोट, और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत ने लोकतंत्रीकरण की वह प्रक्रिया शुरू की जिसे अब पलटना मुमकिन नहीं है। भारतीय राष्ट्र की नींव गांधी-नेहरू की साझा संस्कृति, साझा हित और सबके लिए न्याय के विचारों पर पड़ी। यह राष्ट्र आज खुद बहुत सी समस्याओं का सामना कर रहा है और इसके मूल आधार के लिए भी बहुत सी चुनौतियां हैं, लेकिन धरातल पर विभिन्न तबकों के आपसी सामाजिक-आर्थिक रिश्तों में आए बदलावों ने लोकतंत्र को इतना मजबूत कर दिया है कि लोकतंत्र को कोई खतरा नहीं नजर आता।
इसके उलट पाकिस्तान के निर्माण के पीछे जिन शक्तियों की भूमिका सबसे अहम रही, वे अपने मूल स्वभाव में लोकतंत्र विरोधी थीं, और इसी वजह से सैनिक तानाशाही उन्हें हमेशा अपने हितों के अनुरूप लगती रही। इसके जरिए मेहनतकश जनता की आवाज को उठने से दबाए रखा गया और जमीन पर बुनियादी बदलाव की कोई प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी। हकीकत यही है कि आज चाहे नवाज शरीफ हों या बेनजीर या इमरान खान, सबके समर्थन आधार का वर्ग चरित्र कमोबेश एक जैसा है। देश में प्रगतिशील और वामपंथी आंदोलन की बेहद कमी नजर आती है। ऐसे में टिकाऊ लोकतंत्र मध्य वर्ग का एक सपना हो सकता है, लेकिन उसके लिए बुनियादी आधार अभी मौजूद नहीं है।
इसीलिए अगर जनरल मुशर्रफ उस अगर की शर्त को रखने में कामयाब हुए हैं, जिससे ऊपर हमने बात शुरू की। वे इस अगर के पीछे के अपने असली इरादे में भी सफल हो सकते हैं। आखिर उनके पीछे अमेरिका का हाथ है, जिसके हितों से अपनी तकदीर जोड़े रखने में पाकिस्तान के प्रभु वर्ग को कभी एतराज नहीं हुआ और आज भी पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व कमोबेश अमेरिकी निर्देश से चलता है। या फिर देश एक ऐसी अस्थिरता के दौर में प्रवेश कर सकता है, जिसमें इस्लामी कट्टरपंथी ताकतें ज्यादा मजबूत होकर उभर सकती हैं और लोकतंत्र की संभावनाओं के लिए और भी गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकती हैं।
- सत्येंद्र रंजन
(पाकिस्तान की स्थिति पर डेमोक्रेटिक डिस्कोर्स के तहत दिए गए द इकॉनोमिस्ट के विश्लेषण- पाकिस्तान- गहराता संकट भी पढ़ें)
राष्ट्रपति पद पर बने रहने की अपनी योजना के तहत जनरल मुशर्रफ ने पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो और उनकी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के साथ समझौता करने की कोशिश की, लेकिन यह कोशिश अब नाकाम होती लग रही है। इसकी मुख्य वजह यह है कि मुशर्रफ खुद राष्ट्रपति रहने के लिए तो कायदों की अनदेखी करने का पूरा इरादा जता रहे हैं, लेकिन वे बेनजीर के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की इजाजत देने के लिए संविधान में बदलाव को तैयार नहीं हैं। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी जनरल के वर्दी उतार कर राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की शर्त पर लगातार जोर दे रही है, लेकिन जानकारों की राय है कि अगर मुशर्रफ बेनजीर के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ करने को तैयार हो जाएं तो बेनजीर शायद उनके फिर से राष्ट्रपति बनने के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं अटकाएंगी।
अमेरिका और पश्चिमी देश फिलहाल पाकिस्तान में ऐसी ही व्यवस्था को अपने लिए सबसे ज्यादा माफिक मानते हैं। इन देशों की चिंता इस्लामी कट्टरपंथ से लड़ाई है, जिसमें मुशर्रफ लगातार उनके सहयोगी बने हुए हैं और पश्चिमी में पढ़ी-लिखी और आम तौर पर उदारवादी मुद्दों पर राजनीति करने वाली बेनजीर इसमें उनके साथ रहेंगी, ऐसा उन्हें भरोसा है, जो बेनजीर के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए बेबुनियाद नहीं लगता।
पाकिस्तान से आने वाली तमाम रपटें ये बताती हैं कि मुशर्रफ-बेनजीर में समझौते की कोशिशों ने विपक्ष का काफी बड़ा स्थान पाकिस्तान मुस्लिम लीग के नेता नवाज शरीफ के लिए खाली छोड़ दिया है। दस सितंबर को उनके लौटते ही दोबारा देश से बाहर भेजने से उन्हें राजनीतिक सहानुभूति भी मिली है। इसके अलावा धार्मिक कट्टरपंथी औऱ रूढ़िवादी ताकतों का ध्रुवीकरण उनके इर्द-गिर्द होता दिख रहा है। ऐसे में नवाज शरीफ को जनरल मुशर्रफ के लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में देखने का रुझान सहज बढ़ता जा रहा है। लेकिन पाकिस्तान के पूरे संदर्भ में यह नजरिया सही है, कहना शायद मुश्किल है। पाकिस्तान की मुश्किल सिर्फ जनरल मुशर्रफ और उनकी सैनिक तानाशाही नहीं है। बल्कि यह कहना शायद ज्यादा सही हो कि यह तानाशाही पाकिस्तान की ठोस सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम है। नवाज शरीफ अतीत में लोकतांत्रिक शक्ति नहीं रहे हैं। वो बड़े जमींदारों, ब़ड़ी पूंजी, धार्मिक रूढ़िवाद और यथास्थितिवादी ताकतों का नुमाइंदा ज्यादा रहे हैं। अतीत में दो बार उन्होंने लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बीच सैनिक दखल का समर्थन किया। जब बेनजीर भुट्टो का तख्ता पलटा गया, तब उन्होंने यह नहीं कहा कि ऐसा करना लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है और बेनजीर का चुनाव के मैदान में मुकाबला करना वे ज्यादा पसंद करेंगे। हालांकि ठीक यही बात बेनजीर भुट्टो पर भी लागू होती है, जिन्होंने सेना के हाथों नवाज शरीफ का सत्ता पलटे जाने का समर्थन किया।
असल में यही पाकिस्तान की असली समस्या है। पिछले साठ साल में वहां लोकतंत्र का न तो आम ढांचा कायम हो सका और न देश के बुनियादी ढांचे में लोकतंत्र की प्रक्रिया आगे बढ़ी है। अगर भारत से तुलना करें तो जहां भारत में आजादी के पहले ही कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट शक्तियों ने अपना खासा प्रभाव बना लिया, और कांग्रेस के भीतर भी प्रगतिशील और समाजवादी आवाजें मजबूत होती गईं, वहीं पाकिस्तान को बनाने का आंदोलन इस परिघटना के प्रतिवाद के रूप में हुआ। यह अब सामाजिक इतिहास का हिस्सा है कि पाकिस्तान आंदोलन के पीछे असली शक्ति जमींदार थे, जो कांग्रेस में बढ़ते समाजवादी रुझान और कम्युनिस्टों की बढ़ती ताकत से परेशान थे।
भारत में आधा-अधूरा ही सही भूमि सुधारों पर अमल किया गया। दलित औऱ पिछड़ी जातियों के आंदोलन ने समाज के बुनियादी ढांचे में बदलाव की प्रक्रिया शुरू की। एक व्यक्ति एक वोट, और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत ने लोकतंत्रीकरण की वह प्रक्रिया शुरू की जिसे अब पलटना मुमकिन नहीं है। भारतीय राष्ट्र की नींव गांधी-नेहरू की साझा संस्कृति, साझा हित और सबके लिए न्याय के विचारों पर पड़ी। यह राष्ट्र आज खुद बहुत सी समस्याओं का सामना कर रहा है और इसके मूल आधार के लिए भी बहुत सी चुनौतियां हैं, लेकिन धरातल पर विभिन्न तबकों के आपसी सामाजिक-आर्थिक रिश्तों में आए बदलावों ने लोकतंत्र को इतना मजबूत कर दिया है कि लोकतंत्र को कोई खतरा नहीं नजर आता।
इसके उलट पाकिस्तान के निर्माण के पीछे जिन शक्तियों की भूमिका सबसे अहम रही, वे अपने मूल स्वभाव में लोकतंत्र विरोधी थीं, और इसी वजह से सैनिक तानाशाही उन्हें हमेशा अपने हितों के अनुरूप लगती रही। इसके जरिए मेहनतकश जनता की आवाज को उठने से दबाए रखा गया और जमीन पर बुनियादी बदलाव की कोई प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी। हकीकत यही है कि आज चाहे नवाज शरीफ हों या बेनजीर या इमरान खान, सबके समर्थन आधार का वर्ग चरित्र कमोबेश एक जैसा है। देश में प्रगतिशील और वामपंथी आंदोलन की बेहद कमी नजर आती है। ऐसे में टिकाऊ लोकतंत्र मध्य वर्ग का एक सपना हो सकता है, लेकिन उसके लिए बुनियादी आधार अभी मौजूद नहीं है।
इसीलिए अगर जनरल मुशर्रफ उस अगर की शर्त को रखने में कामयाब हुए हैं, जिससे ऊपर हमने बात शुरू की। वे इस अगर के पीछे के अपने असली इरादे में भी सफल हो सकते हैं। आखिर उनके पीछे अमेरिका का हाथ है, जिसके हितों से अपनी तकदीर जोड़े रखने में पाकिस्तान के प्रभु वर्ग को कभी एतराज नहीं हुआ और आज भी पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व कमोबेश अमेरिकी निर्देश से चलता है। या फिर देश एक ऐसी अस्थिरता के दौर में प्रवेश कर सकता है, जिसमें इस्लामी कट्टरपंथी ताकतें ज्यादा मजबूत होकर उभर सकती हैं और लोकतंत्र की संभावनाओं के लिए और भी गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकती हैं।
- सत्येंद्र रंजन
(पाकिस्तान की स्थिति पर डेमोक्रेटिक डिस्कोर्स के तहत दिए गए द इकॉनोमिस्ट के विश्लेषण- पाकिस्तान- गहराता संकट भी पढ़ें)
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