Saturday, September 29, 2007

कांग्रेस पर माया का साया


सत्येंद्र रंजन
मय से पहले लोकसभा चुनाव में उतरने की गणना में लगी कांग्रेस पार्टी के सामने एक बड़ा सवाल बहुजन समाज पार्टी की चुनौती है। कुछ महीने पहले दिल्ली नगर निगम के चुनाव में बसपा ने यह दिखा दिया कि कैसे अब वह उत्तर प्रदेश से बाहर भी एक राजनीतिक ताकत है और उसके बढ़ते कदम का सीधा नुकसान कांग्रेस को हो सकता है, जो पहले दलित और पिछड़े समुदायों के वोट पाती रही है। अब मायावती गुजरात में भी दांव आजमाने को तैयार हैं और महाराष्ट्र में वे एक बड़ा असर डाल सकती हैं, इस पर चुनावी राजनीति के जानकार एकमत हैं।
उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने के बाद मायावती ने बतौर प्रशासक एक खास छाप छोड़ी है। उन्होंने देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने रिलायंस को अपने रिटेल स्टोर समेटने पर मजबूर कर दिया है औऱ इस तरह खुदरा कारोबारियों में अपने लिए सद्भावना पैदा की है। मुलायम सिंह के जमाने में पुलिस में हुई नियुक्तियों की जांच कराई है, बड़ी संख्या में न सिर्फ इन नियुक्तियों को रद्द कर दिया गया है, बल्कि इनके लिए जिम्मेदार बड़े पुलिस अफसरों पर भी उन्होंने सख्त कार्रवाई की है। थानों में पुलिसकर्मियों की तैनाती में उन्होंने दलित और पिछड़े समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व देने का साहसी कदम उठाया है। निजी क्षेत्र में आरक्षण की एक ठोस नीति घोषित की है, जबकि केंद्र की यूपीए सरकार अभी इस बारे में अगर-मगर में ही फंसी हुई है। इनके अलावा मायवती ने छात्र संघ चुनावों पर रोक जैसे विवादास्पद फैसले भी लिए हैं, जिन्हें लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। बहरहाल, एक बात मायावती साफ करती गई हैं कि प्रशासन पर उनका पूरा नियंत्रण है और वे अपने राजनीतिक एजेंडे के मुताबिक शासन कर रही हैं।
दरअसल, पिछले मई में उत्तर प्रदेश में मायावती की जीत कई मायने में भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक अहम घटना रही। तब यह सवाल उठाया गया कि इतिहास ने मायावती को जो अवसर दिया है, क्या वे सचमुच खुद को उसके काबिल साबित कर पाएंगी? कहा गया कि अगर मायावती ने दूरदृष्टि, एवं न्यूनतम वैचारिक प्रतिबद्धता का परिचय दिया और उन ऊंचे आदर्शों को ध्यान में रखा जो बाबा साहेब अंबेडकर एवं बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांसीराम के संघर्षों से पैदा हुए, तो उनकी चुनावी उपलब्धि इतिहास में एक मील का पत्थर बन सकती है। अभी इस बारे में कोई फैसला नहीं दिया जा सकता। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि मायावती ने अच्छी शुरुआत की है।
उत्तर प्रदेश के चुनाव में मायावती की सफलता को इसलिए बेमिसाल उपलब्धि कहा गया क्योंकि यह पहला मौका था, जब दलित नेतृत्व में ऐसा सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन अपने दम पर सत्ता में आने में कामयाब हुआ। बसपा नेतृत्व और यूपी में उसने जो सामाजिक गठबंधन बनाया, उसमें कई खामियां बताई जा सकती हैं। मसलन, यह कहा जा सकता है कि नेतृत्व निजी महत्त्वाकांक्षाओं और सत्ता लिप्सा से प्रेरित है और जो सामाजिक गठबंधन बना वह अवसरवादी है। इसके बावजूद उस घटना के राजनीतिक और ऐतिहासिक महत्त्व की अनदेखी नहीं की जा सकती। बसपा ने दलितों की एकजुटता कड़ी मेहनत से हासिल की थी। चूंकि वह एकजुटता चुनावी सफलता के लिए काफी नहीं थी, इसलिए एक नया सामाजिक समीकरण बनाने के अलावा बसपा नेतृत्व के पास कोई और विकल्प नहीं था। इसमें सबसे अहम बात यही है कि यह मायावती ने जो सामाजिक गठबंधन बनाया, उसका नेतृत्व बिना किसी संदेह के उनके हाथ में ही रहा है।
सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई से जुड़े संगठनों में यह लंबे समय से बहस का मुद्दा रहा है कि जिसकी लड़ाई, उसका नेतृत्व कैसे स्थापित किया जाए। दलित और सबसे वंचित समूहों का नेतृत्व उभरे, यह आकांक्षा रही है। इन तबकों की वकालत करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों, अब इतिहास के पन्नों का हिस्सा बन चुके सोशलिस्ट आंदोलन और यहां तक कि नक्सली संगठनों में भी नेतृत्व मध्यवर्गीय और अधिकांश मौकों पर सवर्ण रहा है। यह बात कहने का मतलब इन पार्टियों या संगठनों के नेतृत्व की वैचारिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाना कतई नहीं है। लेकिन ये सवाल खुद इनके भीतर उठते रहे हैं कि आखिर कैसे सबसे उत्पीड़ित समूहों के भीतर से नेतृत्व पैदा किया जाए? यह सवाल इसलिए अहम है कि सामाजिक और आर्थिक समता की लड़ाई तब तक पूरी नहीं होगी, जब तक सबसे वंचित तबकों से उभरने वाला नेतृत्व सबसे अगली कतार में नहीं आएगा।
इसी लिहाज से बसपा की उपलब्धियां बेमिसाल हैं। यह पार्टी एक दलित नेता ने खड़ी की और उन्होंने दलितों के भीतर से अपनी उत्तराधिकारी का चुनाव किया। उस उत्तराधिकारी ने राजसत्ता पर लोकतांत्रिक ढंग से कब्जे का उनका सपना पूरा करने के लिए कारगर रणनीति बनाई और आज वो बिना किसी और की मेहरबानी के देश के सबसे बड़ी राज्य की मुख्यमंत्री हैं।
मई में जब चुनाव परिणाम आ रहे थे, तब एक अखबार में छपी एक खबर से यह संकेत मिला कि दलितों के लिए उस सफलता का क्या अर्थ है। उस खबर के मुताबिक जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आने लगे और मायावती आगे निकलने लगीं तो उनके एक समर्थक ने शराब पीनी शुरू कर दी। बसपा के आगे बढ़ते हर कदम के साथ वह मायावती जिंदाबाद के नारे लगाता रहा और शराब पीता रहा। इसके पहले कि मायावती को पूरा बहुमत मिलने की खबर आती, हर्षोन्माद ने उस व्यक्ति की जान ले ली। क्या ऐसी खुशी आज किसी और पार्टी की जीत पर उसके किसी समर्थक को हो सकती है?
ऐसा इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि मायावती की जीत के साथ करोड़ों दलितों का कोई आर्थिक या कारोबारी स्वार्थ नहीं जुड़ा हुआ था। बल्कि सदियों के शोषण से उनकी मुक्ति की उम्मीद जुड़ी हुई है। इसीलिए मायावती से उनकी ईमानदार भावनाएं जुड़ी हुई हैं। उनके लिए मायावती ऐसी प्रतीक हैं, जिसकी अहमियत समझना शायद किसी गैर दलित के लिए मुमकिन न हो। संभवतः दुनिया भर में दलितों से ज्यादा किसी और समुदाय के मानव अधिकारों और सम्मान का हनन नहीं हुआ है। आज जब दलित अपने सम्मान और अपने बुनियादी अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं, तब फिलहाल उनके लिए इससे बड़ी उपलब्धि कोई और नहीं हो सकती कि उनके वोट की ताकत से उनका नेता सत्ता में पहुंच जाए। इससे दलितों के प्रति प्रशासन एवं पुलिस के रुख और आम सामाजिक माहौल में जो बदलाव आएगा, यह कल्पना ही उनमें एक भरोसा भरती रही है, बल्कि उन्हें रोमांचित भी करती रही है।
इस नजरिए से मायावती का सत्ता में आना सामाजिक विकास की यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। चूंकि १६ साल बाद उत्तर प्रदेश में एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी तो मायावती से बहुत से लोगों ने विकास की बहुत सारी उम्मीदें जोड़ी। लेकिन यह वह विकास है, जो पारंपरिक शब्दावली के अर्थ में समझा जाता है। यानी ऐसी उम्मीदें कि एक स्थिर सरकार रहेगी तो बुनियादी ढांचे का विकास होगा, कल-कारखाने लगेंगे और आर्थिक खुशहाली का दौर आएगा। ये उम्मीदें बेवजह नहीं हैं। लेकिन इस पारंपरिक समझ से अलग एक और विकास है, जिसके लिए मायावती के सत्ता में आने से अवसर पैदा हुआ। अब नई समझ में मानव स्वतंत्रता को विकास का एक अहम पहलू माना जाता है। समाज में सबके लिए अपनी स्वतंत्रता को पाने और उसका पूरा उपयोग करने के कितने अवसर हैं, इसको विकास की एक कसौटी समझा जाता है। उत्तर प्रदेश के दलित और पिछड़े समुदायों को मायावती के राज में ऐसे अभूतपूर्व अवसर मिलने की उम्मीद जरूर पूरी होती दिखी है।
लेकिन मायावती के सामने यक्ष प्रश्न यह है कि क्या वे अब भी अगर अपना फायदा हो तो किसी भी पार्टी के साथ जाने की रणनीति पर चलती रहेंगी? उत्तर प्रदेश में उन्होंने इसके पहले जब तीन बार सरकार बनाई तो उन्होंने इसके लिए भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाया। २००२ में भाजपा का समर्थन बरकरार रखने की कोशिश में वे गुजरात में नरेंद्र मोदी तक का प्रचार करने चली गईं। इस तरह उन्होंने अपना और अपनी पार्टी का नाम उस पार्टी से जोड़ा जो भारतीय राजनीति में सामाजिक रूढ़िवाद और दक्षिणपंथ की नुमाइंदगी करती है और अपने मूल चरित्र में समता एवं जनतंत्र के खिलाफ है। अगर बसपा कहती है कि उसने सिर्फ अल्पकालिक रणनीति के तहत भाजपा से हाथ मिलाया तो असल में उनका समर्थन करने के पीछे भाजपा का भी यही मकसद था।
भाजपा और पूरे संघ परिवार की विचारधारा असल में मानवीय स्वतंत्रता को सीमित और नियंत्रित करने का उपक्रम है, और उसका मकसद समाज में जारी शोषण और गैर बराबरी को कायम रखना है। सवाल यह है कि इसका दलित आंदोलन के उद्देश्यों से क्या मेल हो सकता है? भारत में इस समय जब जनतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई आगे बढ़ रही है, उसी समय धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों की तरफ से देश की संवैधानिक व्यवस्था के लिए जोरदार चुनौतियां पैदा की जा रही हैं। हिंदू सांप्रदायिक-फासीवाद, इस्लामी आतंकवाद और सिख कट्टरपंथ के उग्र चेहरे हमारे सामने हैं। ऐसे में देश की सभी प्रगतिशील शक्तियों के सामने यह चुनौती है कि वे धर्मनिरपेक्षता को आस्था एवं न्यूनतम राष्ट्रीय सहमति का सवाल बनाए रखें। एक व्यापक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय सहमति के पक्ष में राजनीतिक बहुमत इस वक्त देश की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर यह कायम रहे तो दूसरे आर्थिक एवं सामाजिक सवालों के लिए अवसर मौजूद रहेंगे। वरना, पूरा विमर्श ऐसे प्रतिक्रियावादी और जन विरोधी सवालों में उलझ जाएगा, जिसके बीच प्रगति की राह धुंधली हो जाएगी। भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के समय हम ऐसे माहौल की झलक देख चुके हैं।
इसलिए बसपा के सामने यह सवाल है कि क्या वह इस व्यापक धर्मनिरपेक्ष सहमति के साथ रहेगी या इसकी अहमियत की अनदेखी करती रहेगी? यह सवाल सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संदर्भ में है। असल में बसपा की ताकत सिर्फ उत्तर प्रदेश में सीमित नहीं है। कुछ महीने पहले दिल्ली नगर निगम के चुनाव में कांग्रेस को जितनी बड़ी हार का समाना करना पड़ा उसकी बड़ी वजह बसपा रही। बसपा ने उन इलाकों में कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाई जो उसके सुरक्षित इलाके माने जाते थे। महाराष्ट्र से पंजाब तक बसपा कई चुनाव क्षेत्रों में ऐसी ताकत दिखा चुकी है। स्थानीय चुनावों में बसपा या कोई दूसरी पार्टी अपनी ताकत में इजाफा और प्रभाव क्षेत्र में प्रसार करे, यह लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा है। लेकिन सवाल है कि क्या राष्ट्रीय चुनाव में बसपा इसी भूमिका में रहेगी, जब दांव पर कहीं बड़े मुद्दे लगे होंगे?
उत्तर प्रदेश में बसपा ने सवर्ण जातियों, खासकर ब्राह्मणों को अपनी राजनीतिक योजना का हिस्सा बनाकर नई सोच का परिचय दिया। उसने यह भी दिखाया है कि जब वह कोई नई सोच लेकर आती है तो उस पर अमल भी करती है, और उसकी बातों पर लोग भरोसा करते हैं। इसीलिए बसपा की जीत ने देश के प्रगतिशील खेमे में नई उम्मीदें पैदा की। बसपा की जीत का एक परिणाम यह भी हुआ कि भाजपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में लगभग अप्रासंगिक हो गई। वह महज १२० सीटों पर ही पहले या दूसरे नंबर पर रही। यानी २८० से भी ज्यादा सीटों पर वह मुकाबले में भी नहीं रही। इससे दिल्ली की गद्दी पर उसका दावा कमजोर जरूर हुआ। लेकिन उसकी वापसी आज भी मुमकिन है।
इसलिए देश की प्रगतिशील शक्तियां बसपा से यह उम्मीद जरूर करेंगी कि जैसे उसने उत्तर प्रदेश में सामाजिक गठबंधन बनाया, वैसे ही वह राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक गठबंधन बनाने की राजनीतिक बुद्धि और उदारता दिखाए। जाहिर है, वैचारिक आधार पर यह गठबंधन धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के साथ ही बन सकता है। यहां यह बात जरूर है कि ऐसे गठबंधन की सारी जिम्मेदारी मायावती पर नहीं है। इसके लिए कांग्रेस, यूपीए के बाकी दलों और वामपंथी पार्टियों को भी वैसी समझ और उदारता दिखानी होगी। अगर ये सभी दल भारत की इस ऐतिहासिक जरूरत को समझ सके तो निश्चित रूप से देश को फिलहाल एक बड़े खतरे से बचाया जा सकता है।
मायावती के सामने दूसरा बड़ा सवाल आर्थिक नीतियों का है। कांसीराम के जमाने में बसपा चुनाव घोषणापत्र जारी नहीं करती थी। कांसीराम का मानना था कि राजसत्ता पर कब्जे के बाद उनकी पार्टी बहुजन के हित में नीतियां बना लेगी। मायावती ने बहुजन से सर्वजन की यात्रा पूरी कर ली है और इस सफर से वे लखनऊ की गद्दी पर हैं। क्या अब भी उन्हें दलित आंदोलन के लिए संपूर्ण आर्थिक एजेंडे की जरूरत महसूस नहीं होती? या उन्हें जैसी स्थिति हो, वैसे फैसले की नीति ही माफिक लगती है?
बहरहाल, यह बात पूरे यकीन के साथ कही जा सकती है कि अब ऐसे एजेंडे की अनदेखी वो सिर्फ अपने नुकसान की कीमत पर ही कर सकती हैं। आत्म सम्मान की लड़ाई का एक संदर्भ है, लेकिन इसकी एक सीमा है। इसके बाद राजनीति को खड़ा करने के लिए आर्थिक विचारधारा और ठोस कार्यक्रमों की जरूरत निश्चित तौर पर होती है। मायावती अब इस तरफ सोचकर और ऐसे कार्यक्रम का खाका पेश कर ही दलित आंदोलन को संपूर्णता दे सकती हैं, औऱ साथ ही खुद को एक दृष्टि-संपन्न नेता के बतौर उभार सकती हैं।
दरअसल उत्तर प्रदेश की सत्ता में आना मायावती के लिए अंतिम मुकाम नहीं होना चाहिए। दोहराव के जोखिम के बावजूद यह कहने की जरूरत है कि उनके सामने अब सबसे बडी चुनौती संवैधानिक जनतंत्र की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजबूत करने और दलित आंदोलन का आर्थिक एजेंडा पेश करने की है। अगर वे ऐसा नहीं कर सकीं तो वे एक बड़ा ऐतिहासिक मौका खो देंगी। यह उनके और भारतीय लोकतंत्र दोनों के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

Thursday, September 27, 2007

वह हार, और यह जीत!

सत्येंद्र रंजन
ट्वेन्टी-ट्वेन्टी विश्व कप में भारत की जीत से देश में जश्न का एक अभूतपूर्व नज़ारा देखने को मिल रहा है। इसे देख कर हकीकत से अपरिचित कोई व्यक्ति पहली नजर में सहज यह अनुमान लगा सकता है कि यह एक खेल प्रेमियों का देश है, जहां जीत लोगों में उत्साह भर देती है। पिछले वन डे विश्व कप के पहले दौर में ही भारत के बाहर हो जाने पर देश में छाती पीटने का जैसा नज़ारा देखने को मिला, उससे भी ऐसा भ्रम बन सकता था। फर्क सिर्फ यह होता कि हकीकत से अपरिचित लोग यह मान सकते थे कि भारतीयों को खेल में हार बर्दाश्त नहीं होती।
लेकिन हम सब यह जानते हैं कि ऐसा नहीं है। पिछले ही साल भारत की हॉकी के विश्व कप में बड़ी दुर्गति हुई थी, लेकिन तब छाती पीटने का कोई माहौल नहीं बना। हाल में भारतीय हॉकी टीम ने एशिया कप में शानदार जीत हासिल की, तब देश में जश्न का आज जैसा माहौल नहीं देखने को मिला। खुद हॉकी टीम के कोच जोकिम कारवाल्हो और कई पूर्व हॉकी खिलाड़ियों ने अब यह सवाल उठाया है। यह स्थिति तब है, जब हॉकी में देश की कामयाबियों का एक गौरवशाली इतिहास है। साथ ही हॉकी के विश्व कप टूर्नामेंट तक पहुंच जाना क्रिकेट के विश्व कप में कम से कम सेमीफाइनल तक पहुंचने जैसी उपलब्धि तो जरूर ही मानी जानी चाहिए, क्योंकि दुनिया के स्तर पर हॉकी कहीं व्यापक भागीदारी वाला खेल है और उसके मुकाबलों का कहीं ज्यादा सुसंगठित ढांचा है। बहरहाल, २०-२० क्रिकेट विश्व कप में जीत के बने माहौल के बीच ही देश को यह खबर मिल रही है कि विश्वनाथन आनंद शतरंज की विश्व चैंपियनशिप को जीतने की तरफ बढ़ रहे हैं। लेकिन इस खबर से कोई सुखबोध फैलने के संकेत नहीं मिल रहे हैं।
इस बात से कोई इनकार नहीं किया जा सकता कि इस देश में क्रिकेट में का एक खास स्थान है। इसमें हार और जीत दोनों के खास मायने हैं, या कम से कम ऐसा ही हमें बताया जाता है। यह बताने के पीछे चूंकि बहुत बड़े आर्थिक हित और उनसे संचालित होने वाले माध्यम हैं, इसलिए ऐसा मानने वाले इस देश में बहुत से लोग हों, तो इसमें कोई आश्चर्च की बात नहीं है। बहरहाल, अहम सवाल यह है कि क्या इतने बड़े आर्थिक हितों के जुड़े होने और जन संचार माध्यमों का इतना बड़ा समर्थन होने के बावजूद क्रिकेट में सचमुच भारत की ऐसी हैसियत है, जिससे उसमें जीत पर जश्न का ऐसा विस्फोट हो जाए या हार पर मुंडन कराने, खिलाड़ियों के पुतलों की शव यात्रा निकालने या बाकी तमाम खबरों को दफनाते हुए मीडिया में सारी चर्चा इसी जीत या हार की चर्चा में सीमित कर देने को तार्किक माना जाए?
तथ्य यही बताते हैं कि अपने इतिहास के हर दौर में भारतीय क्रिकेट टीम एक साधारण टीम रही है। कभी-कभार इसके हिस्से में शानदार सफलताएं आई हैं, लेकिन ऐसा नियम के बजाय अपवाद के रूप में ज्यादा हुआ है। भारत खेलों की दुनिया में क्यो पिछड़ा हुआ है या हमारे यहां स्वस्थ खेल प्रतिस्पर्धा की संस्कृति क्यों आगे नहीं बढ़ती, इस पर काफी विचार-विमर्श होता रहा है, लेकिन इससे कोई समाधान नहीं निकला है। इस बीच क्रिकेट के साथ एक यह पहलू जरूर जुड़ गया है कि इस खेल में भारत में पैसे की कोई दिक्कत नहीं है। बल्कि हकीकत यह है कि अपने कई पूर्व आधार देशों में लोकप्रियता खो चुके और चंद देशों में सीमित यह खेल अब पैसे के लिए पूरी तरह भारतीय बाजार पर निर्भर है। इसके बावजूद अगर टीम की बात की जाए तो भारत काफी पिछड़ा हुआ है। अक्सर इस पिछड़ेपन की वजह अच्छे और हुनरमंद खिलाड़ियों को एक अच्छी टीम में ढाल पान की नाकामी बताई जाती है। कुछ महीने पहले जब भारतीय टीम विश्व कप प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए वेस्ट इंडीज रवाना हुई तो वह इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल की विश्व रैंकिंग में छठे नंबर पर थी। फिर भी उस टीम से खूब उम्मीदें जोड़ी गईं और यह माहौल बनाया गया कि कथित टीम इंडिया विश्व विजय के अभियान पर निकली है। और अब २०-२० विश्व कप में जीत से यह माहौल बना दिया गया है कि दुनिया में इस टीम का कोई सानी नहीं। आखिर ऐसा क्यों?
हम क्रिकेट और बाजार के रिश्तों पर करें तो इस सवाल का जवाबर एक हद तक तलाश सकते हैं। अगर क्रिकेट के पूरी दुनिया के बाजार पर गौर करें तो यह खेल सिर्फ दो ऐसे देशों में खेला जाता है, जिनके पास समृद्ध उपभोक्ता बाजार है। ये इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया हैं। इनके अलावा इसकी लोकप्रियता दक्षिण अफ्रीका में है, जो एक मध्यम आमदनी वाला देश है। भारत भी अपने विशाल मध्य वर्ग के साथ ऐसा ही देश है। इन चार देशों के अलावा क्रिकेट की जहां भी थोड़ी या ज्यादा लोकप्रियता है, वे या तो वेस्ट इंडीज के द्वीपों और न्यूजीलैंड जैसा बेहद छोटे देश हैं या फिर पाकिस्तान या बांग्लादेश जैसे देश हैं, जहां पूंजीवादी बाजार का अभी पूरा विकास नहीं हुआ है।
इंग्लैंड, ऑस्ट्रलिया और दक्षिण अफ्रीका में क्रिकेट को बाजार का हिस्सा पाने के लिए फुटबॉल, रग्बी, टेनिस, मोटर रेसिंग और दूसरे कई ओलंपिक एवं गैर-ओलंपिक खेलों से होड़ करनी पड़ती है। इंग्लैंड में क्रिकेट इस होड़ में बहुत पिछड़ चुका है और ऑस्ट्रेलिया में वहां के ऊंचे जीवन स्तर के बीच बाजार का जितना हिस्सा खींच पाता है, वह संभवतः वहां भी उसे ठीक ढंग से जिंदा रखने के लिए काफी नहीं है। पिछले विश्व कप के बाद यह खबर अखबारों में छपी कि कैसे विश्व चैंपियन होने की हैट्रिक बनाने के बावजूद ऑस्ट्रेलिया में क्रिकेटरों की हैसियत कई ज्यादा लोकप्रिय खेलों के खिलाड़ियों से बहुत कम है। दरअसल, वहां उन्हें तीसरे दर्जे की कंपनियों के इश्तहार ही मिल पाते हैं, क्योंकि बड़ी कंपनियों को यह भय रहता है कि अगर उन्होंने क्रिकेटरों को बतौर मॉडल लिया तो इससे उनके उत्पाद को लो मार्केट समझा जा सकता है।
ऐसे में भारत क्रिकेट को जिंदा रखने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण होता गया है। भारत से क्रिकेट खेलना आज हर देश के लिए फायदे का सौदा है। इससे संबंधित देश के क्रिकेट बोर्ड को टीवी प्रसारण अधिकार बेचकर जितना पैसा मिलता है, उतना किसी और देश से मैच खेलकर नहीं मिलता। यही वजह है कि रिकी पोन्टिंग भले यह बार-बार सार्वजनिक तौर पर भारत से ज्यादा मैच खेलने के बने कार्यक्रम पर नाखुशी जताते रहे हों, लेकिन वे जानते हैं कि उनकी टीम के पास अब भारत से सबसे ज्यादा मैच खेलने के अलावा कोई और चारा नहीं है। और जब अगले साल भारत में २०-२० की प्रोफेशनल क्रिकेट लीग और चैंपियन्स लीग शुरु होगी, तो दुनिया भर के ज्यादातर मशहूर क्रिकेटरों का मक्का भारत ही बन जाएगा।
मगर क्रिकेट का संकट भी यही है। अगर किसी टूर्नामेंट में भारत नहीं तो उसमें पैसा नहीं और भारत के पास ऐसी टीम नहीं जो हर टूर्नामेंट में ऊंचे दर्जे की प्रतिस्पर्धा के काबिल हो। पिछले विश्व कप के पहले ही दौर में भारत के बाहर हो जाने से यह टूर्नामेंट प्रायोजकों और विज्ञापनदाताओं के लिए घाटे का सौदा बन गया। प्रायोजक और विज्ञापनदाताओं की निगाह आबादी के उस हिस्से पर होती है, जिसके बारे में माना जाता है कि उसके पास महंगे उपभोक्ता सामानों को खरीदने की शक्ति है। ये तबके ही उपभोक्ता सामानों के इश्तहार के लक्ष्य होते हैं। भारत या किसी भी देश में ये तबके मोटे तौर पर केबल और सैटेलाइट टेलीविजन के दायरे में हैं। बाजार की अपनी एजेंसियों के आंकड़ों के मुताबिक जिन क्रिकेट मैचों में भारत खेलता है, उन्हें साढ़े सात से आठ फीसदी तक की टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट प्राप्त होती है। इसे अगर संख्या में तब्दील करें तो यहां संख्या तकरीबन ६० लाख बैठती है। यानी भारत वाले क्रिकेट मैचों को इतने लोग देखते हैं। जिन मैचों में भारत नहीं खेलता है, आम तौर पर उनकी टीआरपी एक रहती है, यानी ऐसे मैचों को ६ से ९ लाख लोग देखते हैं। पिछले विश्व कप में भारत के टूर्नामेंट से बाहर हो जाने के साथ ही अनुमान रहा कि बाकी मैचों के दर्शकों की संख्या ५-६ लाख रही। यानी जिन प्रायोजकों और दूसरे विज्ञापनदाताओं ने पहले के अनुमान के आधार पर विज्ञापन बुक कराए, उन्हें उसका उतना फायदा नहीं मिलेगा, जितनी कीमत उन्होंने चुकाई। इसलिए यह उनके लिए घाटे का सौदा हो गया।
अब २०-२० विश्व कप में भारत को मिली करिश्माई कामयाबी ने उनकी उम्मीदों को फिर जिंदा कर दिया है। इस विश्व कप औसत टीआरपी १५ तक गई। यानी विज्ञापनदाताओं ने जितना पैसा लगाया, उससे ज्यादा फायदा मिला। इसीलिए उनकी निगाह में धोनी के धुरंधर बड़े नायक बन गए हैं। उनकी नायकों की यह छवि बरकरार रहे, इसके लिए कॉरपोरेट मीडिया के साथ अब एक बड़ी मुहिम शुरू हो गई है।
बहरहाल, उपरोक्त आंकड़ों से यह साफ है कि एक अरब दस करोड़ की आबादी वाले इस देश में क्रिकेट का बाजार तकरीबन साठ लाख लोगों से बनता है। अगर दूरदर्शन के टेरिस्टेरियल नेटवर्क के दायरे में आने वाले लोगों को भी शामिल करें, तब भी असली बाजार एक से डेढ़ करोड़ लोगों से ज्यादा का नहीं है। कंपनियों की निगाह से देखें तो आबादी के इस हिस्से में क्रिकेट को माध्यम बनाकर अपने उत्पादों का प्रचार किया जा सकता है। आंकड़ों के मुताबिक कंपनिया क्रिकेट से जुड़े विज्ञापनों पर हर साल करीब ६०० करोड रुपए खर्च करती हैं। अब हो सकता है कि यह खर्च ७०० से ८०० करोड़ रुपए तक पहुंच जाए। (फिक्की के लिए तैयार प्राइसवाटर हाउसकूपर के एक अध्ययन रिपोर्ट में कुछ महीने पहले बताया गया कि २००६ में टीवी पर विज्ञापन के लिए ६,६०० करोड़ रुपए खर्च किए गए।)
इन आंकड़ों की रोशनी में हम समझ सकते हैं कि क्रिकेट के बाजार का असली स्वरूप क्या है और इस पर कितने आर्थिक दांव लगे हुए हैं। यह भी साफ है कि क्रिकेट के माध्यम से होने वाला निवेश तभी पूरा फायदा दे सकता है, जब भारतीय टीम अच्छा प्रदर्शन कर रही हो। मगर लगातार ऐसा हो, यह कम ही होता है। ऐसे भारतीय टीम के इर्द-गिर्द एक भ्रमजाल को बुनना जरूरी हो जाता है। टीम में जितनी क्षमता नहीं है, उससे कई गुना बढ़ाकर बताना प्रायोजकों, विज्ञापनदाताओं और उनसे जुड़े संचार माध्यमों के लिए जरूरी बना रहता है। हम अक्सर ऐसा देख सकते हैं कि इन माध्यमों पर क्रिकेट की चर्चा में टीम से ज्यादा बात खिलाड़ियों की होती है। इसलिए कि भारत के पास हमेशा कुछ अति-प्रतिभाशाली और निजी उपलब्धियों के लिहाज से सफल खिलाड़ी रहते हैं, जैसाकि हर टीम में होते हैं। उन खिलाडियों को महा-मानव की तरह पेश किया जाता है और ऐसी चर्चा बुनी जाती है, जिससे लगता है कि ये खिलाड़ी अकेले इतने भारी पड़ेंगे कि दूसरी टीमें धराशायी हो जाएंगी और चैंपियनशिप का ताज भारत के सिर पर आ जाएगा। दुर्भाग्य से असली जिंदगी में ऐसा नहीं होता।
बल्कि इस तरह लोगों की अपेक्षाएं जगाने का एक नकारात्मक प्रभाव खुद उन खिलाड़ियों पर भी होता है। खिलाड़ी जब ऐसी अपेक्षाओं के बीच मैदान पर उतरते है तो वे अपना स्वाभाविक खेल भी नहीं दिखा पाते। २०-२० विश्व कप में सफलता के पीछे एक वजह यह भी मानी जा रही है कि इसमें भारतीय खिलाड़ियों पर उम्मीदों का ऐसा बोझ नहीं था।
बहरहाल, इस सफलता ने क्रिकेट के बाजार में नई जान फूंक दी है। प्रायोजकों और विज्ञापनदाता कंपनियों ने क्रिकेट का यह बाजार बनाने के लिए पिछले तीन दशकों में भारी निवेश किया है। भारत एक उभरता हुआ बाजार है। यहां के मध्य वर्ग की क्रय शक्ति भले यूरोपीय स्तर की न हो, लेकिन अपने आकार में यह कई यूरोपीय देशों की साझा आबादी से बड़ा है। यह बाजार विश्व पूंजीवाद का नया लक्ष्य है। इस तक पहुंचने के लिए तलाश किए गए माध्यमों में क्रिकेट की बड़ी भूमिका है। इसलिए हम सहज अनुमान लगा सकते हैं कि पिछले मार्च में लगे जोरदार झटके के बाद अब कैसे क्रिकेट से जुड़ी उम्मीदों को फिर से जिंदा कर दिया गया है। अब एक बार फिर समाचार माध्यमों में टीम इंडिया और इसके महा-मानवों का गुणगान का दौर लौट आया है।

Tuesday, September 25, 2007

तिरंगा ऊंचा रहे हमारा

सत्येंद्र रंजन
ट्वेन्टी ट्वेन्टी विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट के फाइनल में भारत से हारने के बाद पाकिस्तान के कप्तान शोएब मलिक ने उनकी टीम को समर्थन देने के लिए पाकिस्तान के लाखों क्रिकेट प्रेमियों के साथ-साथ दुनिया भर के मुसलमानों का भी शुक्रिया अदा किया। एक रोमांच और उत्तेजना से भरपूर मैच के बाद एक टीम के कप्तान का इस तरह खेल को मजहबी रंग देने पर भले ही ज्यादातर लोगों का ध्यान न गया हो, लेकिन यह एक ऐसी सोच की मिसाल है, जिस पर चर्चा जरूर होनी चाहिए। क्या शोएब मलिक सचमुच यह मानते हैं कि भारतीय टीम के दो सितारे यूसुफ और इरफान पठान पाकिस्तानी टीम का समर्थन कर रहे थे? भारत की जीत के बाद इन दोनों के दमकते चेहरे और यूसुफ की पीठ पर किसी बच्चे की तरह चढ़कर तिरंगा लहराते हुए घूमते इरफान पठान में क्या उन्हें पाकिस्तानी टीम का समर्थक नज़र आया? या क्या भारतीय खिलाड़ियों की हर कामयाबी पर पूरे जोश से तालियां बजाते और हर्षध्वनि करते अभिनेता शाह रुख खान को शोएब मलिक ने अपनी ही टीम का एक प्रशंसक मान लिया?
भारत की जीत के बाद कप्तान महेंद्र सिंह धोनी से जब रवि शास्त्री ने प्रतिक्रिया ने पूछी तो उन्होंने अपने साथी खिलाड़ियों की तरफ इशारा किया। कहा- यह उनके साझा प्रयासों की उपलब्धि है। उन खिलाड़ियों में तिरंगा उठाए यूसुफ पठान थे, कंधे पर तिरंगा लपटे हरभजन सिंह थे, उत्साह में उछलते रॉबिन उथप्पा थे और साझा सफलता के गर्व से सिर ऊंचा किए भारत के वे दूसरे नौजवान थे, जिन्होंने कुछ ही पल पहले तमाम अनुमानों को झुठलाते हुए कामयाबी की एक अनोखी कहानी लिख दी थी। अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले और अलग भौगोलिक परिस्थितियों में पले-बढ़े इन नौजवानों में मजहब का भेद या मजहबी नज़रिए से सोचने का कोई संकेत वहां नहीं था। इस अर्थ में वे वास्तव में साझा संस्कृति पर आधारित उस राष्ट्र के नुमाइंदे थे, जिसका विचार भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पैदा हुआ और जिसे गांधी एवं नेहरू ने साकार रूप दिया।
इस राष्ट्र के सामने आज बहुत सी चुनौतियां हैं। एकता की जो धारणा गांधी, नेहरू और दूसरे प्रगतिशील चिंतकों ने रखी, उसके सामने सांप्रदायिकता, जातिवाद और संकीर्ण सोच से गहरा खतरा बना हुआ है। साथ ही इस एकता के महत्त्वपूर्ण आधार सामाजिक और आर्थिक न्याय का लक्ष्य आज भी बहुत दूर नज़र आता है। इसके बावजूद पिछले साठ साल की यात्रा में भारतीय राष्ट्र ने अपने को आधुनिक सिद्धांतों के आधार पर संगठित किया है और आज वह अपने लक्ष्यों को पाने के प्रति ज्यादा आत्मविश्वास से भरा हुआ है।
इस राष्ट्र की प्रतिक्रिया में जिस मुस्लिम राष्ट्र की धारणा मुस्लिम लीग और उसके सबसे बड़े नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने आगे बढ़ाई, उसके आधार पर बने पाकिस्तान के हाल पर भी एक बार जरूर गौर किया जाना चाहिए। मुसलमानों के नाम पर बना यह देश १९७१ में भाषा के नाम पर दो भागों में बंट गया। वहां लोकतंत्र आज भी महज एक सपना है और वहां सैनिक तानाशाह अब अपना वजूद बचाए रखने के लिए मुस्लिम कट्टरपंथ से लड़ रहे हैं। आखिर एक मुस्लिम राष्ट्र में वे किस विचार के लिए इस्लामी कट्टरपंथ से संघर्ष कर रहे हैं? शोएब मलिक बेहतर होता सारी दुनिया के मुसलमानों का नुमाइंदा होने का दावा करने से पहले बलूचिस्तान, वज़ीरीस्तान और उत्तर-पूर्व सीमा प्रांत के मुसलमानों और पाकिस्तानी पंजाब एवं सिंध के मुसलमानों के बीच एकता की अपील कर लेते।
बहरहाल, शोएब मलिक की सोच पाकिस्तान की सारी आधुनिक पीढ़ी की सोच नहीं है, यह बात उनके तुरंत बाद मंच पर आए शाहिद अफ़रीदी ने जता दी। उन्होंने क्रिकेट और भाईचारे की बात की। खेल के रोमांच को हार जीत से ऊपर बताया। दरअसल, इसी भावना की आज सबसे ज्यादा जरूरत है। पिछले मार्च-अप्रैल में वेस्ट इंडीज में हुए विश्व कप के बाद ऐसी खबरें खूब आईं, जिनमें बताया गया कि कैसे पाकिस्तानी खिलाड़ियों पर मजहब का रंग चढ़ता जा रहा है। कैसे खेल से ज्यादा धार्मिक कार्यों को वे अहमियत देने लगे हैं। तब पहले दौर में पाकिस्तान के बाहर हो जाने के पीछे इसे भी एक वजह बताया गया। उसके बाद से पाकिस्तान टीम में कई नए चेहरे आए हैं। शोएब मलिक की टीम ने अपने खेल में ताजगी और नए जोश का परिचय दिया है। इसकी तारीफ करने के लिए मुसलमान होने की जरूरत नहीं है। उन्होंने भारतीय क्रिकेट प्रेमियों का दिल भी जीता है और हम भारत के लोगों की यह दिली तमन्ना है कि पाकिस्तान की यह नई टीम क्रिकेट में नई ऊंचाइयों तक पहुंचे।
आखिर क्रिकेट का भविष्य भारत, पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के दो देशों पर निर्भर है। अब भारतीय टीम के चैंपियन होने के साथ ही देश में क्रिकेट के दिन फिर चमकने लगे हैं। जीत के बाद जैसा जश्न देखने को मिला, वैसा कभी कभी ही होता है। दरअसल, भारत में क्रिकेट की यही खास अहमियत है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक मकसद, एक जैसे नायक, एक जैसी खुशी और दुख सारे देश को बांध देता है। इसीलिए क्रिकेट को आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद का एक खास पहलू माना जाता है।
भारत के लिए क्रिकेट की ऐसी अहमियत की वजहें ऐतिहासिक और देश की मौजूदा अर्थव्यवस्था से जुड़ी हैं। ऐतिहासिक वजह इस खेल का पुरानी औपनिवेशिक संस्कृति का हिस्सा रहना है। अंग्रेजों के साथ आया यह खेल देश में अभिजात्य होने का एक प्रतिमान बना और इसलिए इसे एक विशेष दर्जा मिला। वन डे क्रिकेट शुरू होने और १९८३ में भारत के इसमें विश्व चैंपियन बनने के साथ खेल को जो अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली, उसने इसे कॉरपोरेट जगत के लिए अहम बना दिया। टीवी मीडिया के प्रसार के साथ अब यह खेल उत्पादों को लक्ष्य बाज़ार तक प्रचारित करने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम बन चुका है। पिछले विश्व कप में भारत के पहले दौर में बाहर हो जाने से क्रिकेट की अर्थव्यवस्था को लेकर कई शंकाएं पैदा हुईं। लेकिन जानकार तब भी मानते थे कि इस खेल के साथ पैसे का इतना बड़ा दांव लगा हुआ है, कि इसकी हैसियत आसानी से नहीं घटेगी।
अब ट्वेन्टी-ट्वेन्टी विश्व कप में भारत के चैंपियन होने के साथ ही न सिर्फ इस खेल को ले तब पैदा हुई आशंकाएं दूर हो गई हैं, बल्कि क्रिकेट को अभूतपूर्व लोकप्रियता भी मिल गई है। अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक इस विश्व कप में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए ग्रुप मैच को करीब १५ टीआरपी मिली, जो एक रिकॉर्ड है। जाहिर है, फाइनल मैच को इससे काफी ज्यादा दर्शक मिले होंगे। फाइनल के लिए प्रसारक चैलन ने प्रति सेकंड के विज्ञापन स्लॉट को साढ़े सात लाख से दस लाख रुपए तक में बेचा और यह भी अभूतपूर्व है। फाइनल के पहले भारत के खेले छह मैचों से इस चैनल को ३५ करोड़ रुपए की कमाई हुई, जबकि बिना भारत वाले मैचों से उनसे १२ से १५ करोड़ रुपए तक कमाए। टेस्ट या वन डे में जिस मैच में भारत न हो उसमें दर्शकों की कम ही दिलचस्पी होती है। लेकिन ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में इन मैचों को भी काफी दर्शक मिले।
लेकिन ट्वेन्टी ट्वेन्टी विश्व कप टूर्नामेंट ने यह भी याद दिलाया है कि क्रिकेट एक विश्व खेल नहीं है। यह लगातार दक्षिण एशिया की परिघटना बनता जा रहा है और भारतीय बाजार पर निर्भर होता जा रहा है। (डेमोक्रेटिक डिस्कोर्स में दिए द इकॉनोमिस्ट का लेख २०:२० ही अब क्रिकेट का भविष्य देखें) दक्षिण अफ्रीका गए भारतीय संवाददाताओं ने बताया है कि कैसे वहां स्टेडियमों के बाहर इस विश्व कप का कोई माहौल नहीं था। बल्कि वहां के लोग २०१० में दक्षिण अफ्रीका में होने वाले विश्व कप और अभी चल रहे रग्बी विश्व कप की चर्चाओं में ज्यादा दिलचस्पी लेते रहे। ऐसी रिपोर्ट्स ऑस्ट्रेलिया से भी है। द हिंदुस्तान टाइम्स के रिपोर्टर ने लिखा कि अब चाहे क्रिकेट मैच कहीं हो, भारतीय टीम के लिए घरेलू माहौल ही होता है (इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका में तो यह बात बिल्कुल सही है।). इसलिए कि हर जगह स्टेडियम के भीतर ज्यादातर दर्शक भारतीय या भारतीय मूल के होते हैं, वे तिरंगा लहराते हैं और भारतीय टीम के लिए हर्षध्वनि करते हैं। क्रिकेट के भूमंडलीकरण के नाम पर जिन देशों में क्रिकेट को फैलाया जा रहा है, वहां प्रबंधक, खिलाड़ी और दर्शक भी ज्यादातर दक्षिण एशियाई मूल के होते हैं।
इन तथ्यों की रोशनी में हम शायद भारतीय टीम की ताजा सफलता को ज्यादा सही परिप्रक्ष्य में समझ सकते हैं। यह सफलता पर पूरे भारतीय राष्ट्र को गर्व है। यह सफलता भारत के नए आत्मविश्वास और नई संघर्ष भावना की प्रतीक है। और इसीलिए अब शायद यह सही वक्त है, जब हम क्रिकेट से आगे उन खेलों में कामयाबी के भी सपने देखना शुरू करें जो वास्तव में विश्व खेल हैं।

Saturday, September 22, 2007

मत कहो आकाश में कोहरा घना है!

सत्येंद्र रंजन
जिस तरीके से इस पूरी घटना को पेश किया गया उससे यह धारणा बनती है कि जैसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक सदस्य के गलत मकसद की पूर्ति के लिए अपना इस्तेमाल होने दिया। इससे इस संस्था से आम लोगों का भरोसा उठाने करने की कोशिश की गई है- दिल्ली हाई कोर्ट ने मिड डे अखबार के दो पत्रकारों, एक कार्टूनिस्ट और प्रकाशक को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराते हुए यह बात कही है। मसला दिल्ली में सीलिंग संबंधी सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के फैसलों का था जिसके एक सदस्य पूर्व प्रधान न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल थे। आरोप यह है कि इन फैसलों से न्यायमूर्ति सब्बरवाल के बेटों को फायदा पहुंचा, जो उनके सरकारी निवास में रहते हुए अपना कारोबार चला रहे थे। हाई कोर्ट ने इस संबंध में मिड डे अखबार में छपी रिपोर्ट की सच्चाई पर गौर करने के बजाय अखबार को सुप्रीम कोर्ट की नीयत पर शक करने का दोषी ठहरा दिया।
लेकिन यह पहला मामला नहीं है, जब न्यायपालिका ने उसे आईना दिखाने की कोशिश पर ऐसा रुख अख्तियार किया हो। अभी कुछ ही समय पहले ज़ी न्यूज चैनल के पत्रकार को खुद सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के ही मामले में माफी मांगने का आदेश दिया। उस पत्रकार का दोष यह था कि उसने गुजरात की निचली अदालतों में जारी भ्रष्टाचार का खुलासा करने के लिए स्टिंग ऑपरेशन किया। वहां पैसा देकर राष्ट्रपति और खुद तब के सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ उसने वारंट जारी करवा दिए।
कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय सुनाया कि किसी न्यायिक अधिकारी के गलत फैसला देने पर उसके खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती, न ही उसे सजा दी जा सकती है। यह मामला उत्तर प्रदेश के एक ऐसे न्यायिक अधिकारी के मामले में आया, जिस पर घूस लेने का आरोप लगा था। इसकी जांच कराई गई। इसके आधार पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस न्यायिक अधिकारी की दो वेतनवृद्धि रोकने और पदावनति करने की सजा सुनाई। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ इस फैसले को खारिज कर दिया, बल्कि हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने वाले न्यायिक अधिकारी को जिला जज के रूप में नियुक्त करने और उसके खिलाफ कार्यवाही की अवधि के सभी वेतन-भत्तों का भुगतान करने का आदेश भी दिया। (द हिंदू, १९ अप्रैल २००७)
इसके पहले हाई कोर्टों में दो जजों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति की आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया। इनमें न्यायमूर्ति एसएल भयाना के खिलाफ जेसिका लाल हत्याकांड में दिल्ली हाई कोर्ट ने कड़ी टिप्पणियां की थीं। उधर न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला पर रिलायंस एनर्जी को लाभ पहुंचाने का आरोप था। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम से इन दोनों की तरक्की पर पुनर्विचार करने की अपील की थी। लेकिन जजों के इस समूह यानी कॉलेजियम ने इन आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए न्यायमूर्ति भयाना को दिल्ली हाई कोर्ट का जज नियुक्त कर दिया। न्यायमूर्ति भल्ला को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया।
इन फैसलों ने अवमानना संबंधी कानून और लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की जिम्मेदारी और भूमिकाओं पर नई बहस खड़ी कर दी है। जहां तक नियुक्तियों में कार्यपालिका के आगे न झुकने की बात है तो उसे सामान्य स्थितियों में इसे एक स्वस्थ परिघटना माना जाता। तीन दशक पहले जब कार्यपालिका सर्वशक्तिमान दिखाई देती थी और सरकार जजों की नियुक्ति अपनी सुविधा से करती थी, उस समय न्यायिक स्वतंत्रता की ऐसी मांग देश में पुरजोर तरीके से उठी। एक लिहाज से यह संतोष की बात हो सकती है कि आखिरकार अब न्यायपालिका ने भारत में एक स्वतंत्र हैसियत बना ली है। राजनीतिक विवादों के बीच न्यायिक निष्पक्षता किसी भी लोकतंत्र की जरूरी शर्त है और मौजूदा न्यायिक स्वतंत्रता इसे सुनिश्चित कर सके तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी।
लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि न्यायपालिका में अपनी स्वतंत्रता जताने के साथ-साथ राज्य-व्यवस्था के दूसरे समकक्ष अंगों के कार्य और अधिकार क्षेत्र में दखल देने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। इसे न्यायिक सक्रियता का नाम दिया गया है। यानी ऐसी सक्रियता जो दूसरे अंगों में मौजूद बुराइयों और लापरवाहियों को दूर करने के लिए एक मुहिम के रूप में शुरू की गई है। जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार और जन समस्याओं के प्रति उनके उदासीन रवैये पर जज अक्सर कड़ी फटकार लगाते हैं, जिसे मीडिया में खूब जगह मिलती रही है। जज कानून के साथ-साथ अक्सर नैतिकता को भी परिभाषित करते सुने गए हैं। इसका एक लाभ यह हुआ कि शासन के विभिन्न अंगों के उत्तरदायित्व को लेकर जनता के बड़े हिस्से में जागरूकता पैदा हुई है। इससे सार्वजनिक जीवन में आचरण की कुछ कसौटियां आम लोगों के दिमाग में कायम हुई हैं।
यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग उन कसौटियों को न्यायपालिका पर भी लागू करना चाहें। आखिर लोकतंत्र की आम धारणा और अपनी संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका भी जनता की एक सेवक है। उसके सुपरिभाषित कार्य और अधिकार क्षेत्र हैं। लोगों को यह अपेक्षा रहती है कि शासन का यह अंग अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए अपने इन कर्त्तव्यों का सही ढंग से पालन करे। साथ ही जब सार्वजनिक आचरण की अपेक्षाओं को खुद न्यायपालिका ने काफी ऊंचा कर दिया है, तो उस कसौटी पर खुद वह भी खरा उतरे।
देश के कई प्रधान न्यायाधीश न्यायपालिका के निचले स्तर में भ्रष्टाचार मौजूद होने की बात स्वीकार कर चुके हैं। ऐसे में अगर निचली अदालत के किसी न्यायिक अधिकारी पर लगे इल्जाम को जांच में सही पाया गया और हाई कोर्ट ने उस आधार पर सजा सुनाई तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर कैसी मिसाल कायम की, इसे समझ पाना मुश्किल है। अगर किन्ही जजों की, भले वो निर्दोष हों, लेकिन सार्वजनिक जीवन में उनकी इतनी नकारात्मक छवि बनी हो कि राष्ट्रपति को उनकी तरक्की पर एतराज जताना पड़े, तो क्या उनके पक्ष में मजबूती से खड़ा रहना न्यायिक स्वतंत्रता को जताने की सही मिसाल माना जाएगा? निचली अदालतों में भ्रष्टाचार का खुलासा क्या कोर्ट की अवमानना है? और किसी जज के फैसले पर अगर संदेह पैदा हो, मीडिया के पास इस बारे में कुछ दस्तावेज हों तो क्या उन्हें छापना गुनाह है? इन सभी घटनाओं के संदर्भ में सबसे प्रासंगिक सवाल यह है कि क्या इन सब कदमों से न्यायपालिका की इज्जत बढ़ रही है?
न्यायिक सक्रियता शुरू होने और उसे जनता के एक बड़े हिस्से में मिले समर्थन की परिस्थितियों पर अगर गौर करें तो खुद न्यायपालिका से जुड़े लोगों के लिए यह सवाल अहम हो जाता है। केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता और न्यायिक सक्रियता एक ही दौर की परिघटनाएं हैं। १९९० के दशक में भारतीय समाज एक बड़ी उथल-पुथल से गुजरा। एक तरफ सामाजिक न्याय की बढ़ती आकांक्षा से कमजोर तबकों में मजबूत गोलबंदी हुई और दूसरी तरफ उसकी प्रतिक्रिया में शासक समूहों ने उग्र दक्षिणपंथी रुख अख्तियार किया। इस टकराव का एक परिणाम राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आया। किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना लगातार दूर की संभावना बनता गया। ऐसे में केंद्र में कमजोर सरकारों का दौर आया, और संसद में बिखराव ज्यादा नजर आने लगा। नतीजा यह हुआ कि शासन व्यवस्था के इन दोनों अंगों के लिए अपने अधिकार को जताना लगातार मुश्किल होता गया। ऐसे दौर में न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने भी अपनी नई भूमिका बनाई। इस दौर में राजनेताओं की अकुशलता और शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार ज्यादा खुलकर सामने आने लगे, जिससे आम जन में विरोध और नाराजगी का गहरा भाव पैदा हुआ। ऐसे में जब न्यायपालिका ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती बरती या शासन के आम कार्यों में दखल देना शुरू किया तो मोटे तौर पर लोगों ने उसका स्वागत किया।
यह बात ध्यान में रखने की है कि न्यायपालिका इसलिए लोगों का समर्थन पा सकी क्यों कि आम तौर पर उसकी एक अच्छी छवि लोगों के मन में मौजूद रही है। अगर यह छवि मैली होती है तो फिर न्यायपालिका वैसे ही जन समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकती। वह छवि बनी रहे, इसके लिए अंग्रेजी की यह कहावत शायद मार्गदर्शक हो सकती है कि सीज़र की पत्नी को शक के दायरे से ऊपर होना चाहिए। यह विचारणीय है कि क्या हर हाल में, न्यायपालिका के हर अंग का बचाव ऐसी छवि को बनाए रखने में सहायक हो सकता है?
यहां हम इस बात को नहीं भूल सकते कि न्यायिक सक्रियता के इसी दौर में न्यायपालिका की वर्गीय प्राथमिकताओं पर बहस तेज होती जा रही है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की तरफ से कराए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष रहा है कि न्यायपालिका ने प्रगतिशील फैसलों और जन हित याचिकाओं पर सशक्त पहल के दौर को अब पलट दिया है और उसने जन विरोधी लबादा ओढ़ लिया है। इस अध्ययन में कहा गया है- हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों ने कई जन विरोधी फैसले दिए हैं। इनसे उनकी प्राथमिकताओं में पूरा बदलाव जाहिर हुआ है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। (डीएनए, १६ अप्रैल, २००७). शायद इससे कड़ी आलोचना और कोई नहीं हो सकती।
बौद्धिक क्षेत्र में न्यायपालिका की इन प्राथमिकताओं को भारतीय लोकतंत्र में चल रहे विभिन्न हितों के व्यापक संघर्षों की पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। दरअसल, जिस दौर में न्यायिक सक्रियता शुरू हुई, उसी दौर में राजनीतिक सत्ता के ढांचे में बदलाव की ऐतिहासिक प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी है। सदियों से दबाकर रखे गए समूहों ने लोकतंत्र की आधुनिक व्यवस्था के तहत मिले मौकों का फायदा उठाते हुए अपनी राजनीतिक शक्ति विकसित की और यह शक्ति आज किसकी सरकार बनेगी, यह तय करने में काफी हद तक निर्णायक हो गई है। एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के जिस सिद्धांत को भारतीय संविधान में अपनाया गया, उसका असली असर दिखने में कुछ दशक जरूर लगे, लेकिन उससे एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हुई, जिसने भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल दिया है। राज सत्ता पर बढ़ते अधिकार के साथ अब ये समूह सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी अपने लिए अधिकार और विशेष अवसरों की मांग कर रहे हैं। जाहिर है, जिनका सदियों से इन संसाधनों पर वर्चस्व है, वो आसानी से समझौता करने को तैयार नहीं हैं।
राजनीतिक रूप से लगातार कमजोर पड़ते जाने के बाद इन तबकों की आखिरी उम्मीद अब कुछ संवैधानिक संस्थाओं से बची है। इसलिए कि इन संस्थाओं में आम तौर पर अभिजात्य वर्गों के लोग ही आते हैं, और उनका अपना नजरिया भी यथास्थितिवादी होता है। सार्वजनिक नीतियों के मामले में न्यायपालिका के अगर पिछले एक दशक के रुझान पर नजर डाली जाए तो इस वर्गीय नजरिए की वहां भी काफी झलक देखी जा सकती है। मौटे तौर पर यह रुझान कुछ ऐसा रहा हैः
मजदूर और वंचित समूहों के अधिकारों को न्यायिक फैसलों से संकुचित करने की कोशिश की गई है। बंद और आम हड़ताल को गैर-कानूनी करार दिया गया है और चार साल पहले तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल के मामले में तो यह फैसला दे दिया गया कि कर्मचारियों को हड़ताल का अधिकार ही नहीं है। इस तरह मजदूर तबके ने लंबी लड़ाई से सामूहिक सौदेबाजी का जो अधिकार हासिल किया, उसे कलम की एक नोक से खत्म कर देने की कोशिश हुई। कर्मचारियों और मजदूरों के प्रबंधन से निजी विवादों के मामले में लगभग यह साफ कर दिया गया है कि मजदूरों को कोई अधिकार नहीं है, प्रबंधन कार्य स्थितियों को अपने ढंग से तय कर सकता है। अगर इसके साथ ही विस्थापन, विकास और पूंजीवादी परियोजनाओं के मुद्दों को जोड़ा जाए तो देखा जा सकता है कि कैसे न्यायपालिका के फैसलों से मौजूदा शासक समूहों के हित सधे हैं।
अब अगर सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर गौर करें तो संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से न सिर्फ लोकतंत्र को सीमित करने बल्कि कई मौकों पर लोकतंत्र के रोलबैक की कोशिश होती हुई भी नजर आती है। इसकी एक बड़ी मिसाल शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का मामला है। वरिष्ठ वकील एमपी राजू ने इस आरक्षण पर रोक लगाए जाने के बाद लेख में लिखा- यह फैसला काफी हद तक प्रतिगामी भेदभाव के अमेरिकी सिद्धांत पर आधारित है। यह सिद्धांत यह है कि विशेष सुविधाएं देने के लिए जो वर्गीकरण किया जाएगा, उससे उन वर्गों से बाहर रह गए तबकों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इस प्रकरण में इसका मतलब है कि अगड़ी जातियों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इससे यह सवाल जरूर उठता है कि क्या न्यायपालिका ऊंची जातियों और अभिजात्य वर्गों के हित-रक्षक की भूमिका में सामने आ रही है? और क्या संसद और सरकारों के प्रति उसका कड़ा, कई बार इन अंगों के प्रति अपमानजनक सा लगने वाला उसका नजरिया असल में इसलिए ऐसा है कि लोकतंत्र के इन अंगों में कमजोर वर्गों का अब निर्णायक प्रतिनिधित्व होने लगा है?
इन सवालों पर न्यायपालिका से जुड़े अंगों और व्यापक रूप से पूरे देश में आज जरूर बहस होनी चाहिए। आधुनिक लोकतंत्र स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सर्वमान्य मूल्यों और शक्तियों के पृथक्करण के बुनियादी सिद्धांत पर टिका हुआ है। इसमें कोई असंतुलन पूरी व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकता है। आजादी के बाद शुरुआती दशकों में कार्यपालिका के वर्चस्व और केंद्र की प्रभुता की वजह से कई विसंगतियां पैदा हुईं, जिससे देश के कई हिस्सों में राजनीतिक हिंसा की स्थितियां और अलगाव की भावना पैदा हुई। विकेंद्रीकरण और आम जन की लोकतांत्रिक अपेक्षाओं को प्रतिनिधित्व देने वाली नई शक्तियों के उभार से वह असंतुलन काफी हद तक दूर होता नजर आया है। लेकिन इस नए दौर में न्यायपालिका का रुख नई चिंताएं पैदा कर रहा है। ये चिंताएं तभी दूर हो सकती हैं, जब न्यायपालिका सीज़र की पत्नी वाली कहावत पर खरी उतरते हुए तमाम तरह के संदेहों से ऊपर बनी रही रहे। यानी उससे जुड़े लोगों की अपनी छवि भी संदेह से परे रहे और उसके वर्गीय नजरिए पर भी सवाल न उठेँ। फिलहाल, मिड डे के मामले में फैसले से दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां ही याद आती हैं- मत कहो आकाश में कोहरा घना है, ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

Friday, September 21, 2007

क्रिकेट का नया युग

ट्वेन्टी-ट्वेन्टी वर्ल्ड कप क्रिकेट से दक्षिण अफ्रीका के बाहर होने के साथ ही क्रिकेट जगत में यह धारणा गहरी हो गई है कि यह टीम चाहे जितनी बेहतरीन हो, लेकिन यह बड़े टूर्नामेंट्स के लिए नहीं बनी है। ऐसे टूर्नामेंट्स में निर्णायक मौकों पर टीम के डगमगा जाने का इतिहास अब खासा पुराना हो चुका है। बहरहाल, दक्षिण अफ्रीका पर भारत की जीत ने क्रिकेट के इस सबसे बड़े बाज़ार में इस खेल की लोकप्रियता को एक नया आयाम दे दिया है। पिछले मार्च-अप्रैल में वेस्ट इंडीज में हुए वन डे वर्ल्ड कप के पहले ही दौर से भारत के बाहर होने के बाद क्रिकेट की लोकप्रियता को लेकर कई सवाल उठाए गए। हालांकि क्रिकेट के साथ इस देश में कॉरपोरेट जगत का इतना बड़ा दांव लगा है कि यह खेल आसानी से अपनी अहमियत खो देगा, यह तब भी नहीं माना गया था। बहरहाल, अब भारतीय टीम के उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन ने क्रिकेट के बाज़ार की उम्मीदों को भी नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक ट्वेन्टी-ट्वनेटी वर्ल्ड कप को टेलीविजन पर अभूतपूर्व दर्शक मिल रहे हैं। जानकारों के मुताबिक जिन वन डे मैचों में भारत खेलता है, उनकी टीआरपी मोटे तौर पर सभी टीवी दर्शकों के बीच ९ से १० तक होती है। लेकिन २०-२० वर्ल्ड कप के मैचों को औसत टीआरपी १४ से १५ मिली है। भारत औऱ पाकिस्तान के बीच हुए मैच को तो बताया जा रहा है कि ३१ टीआरपी मिली। किसी मध्यवर्गीय कॉलोनी का आम अनुभव भी यही है कि इस वर्ल्ड कप ने नए दर्शक हासिल किए हैं। खासकर महिलाओं के बीच क्रिकेट का यह संस्करण काफी लोकप्रिय हो रहा है। तेज छक्के-चौकों और तुरंत नतीजे ने उन लोगों को अपनी तरफ खींचा है, जो क्रिकेट की बारीकियों में मजा नहीं लेते और जिन्हें क्रिकेट का जो स्वरूप जितना लंबा है, वह उतना ऊबाऊ लगता है।
क्रिकेट के शुद्धतावादी समर्थकों में २०-२० ओवरों के इस स्वरूप को लेकर मायूसी है। कहा जा रहा है कि इससे क्रिकेट का वह सौंदर्य नष्ट हो जाएगा, जो इसकी विशेषता रही है। तर्क दिया गया है कि क्या कोई साहित्य प्रेमी १००० या १२०० शब्दों में हैमलेट पढ़ना चाहेगा? या इतने ही शब्दों में महाभारत की कथा का पूरा आनंद लिया जा सकता है? अगर यह नहीं हो सकता तो टेस्ट क्रिकेट की जो शास्त्रीयता है, उसका आनंद भी क्रिकेट के छोटे होते जा रहे रूपों में नहीं लिया जा सकता।
क्रिकेट के इस रूप पर सवाल उठाने वाले सिर्फ रोमांटिक लोग नहीं हैं। ऑस्ट्रेलिया के कप्तान रिकी पोन्टिंग भी इसके खिलाफ बोलते रहे हैं और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड तो कुछ समय पहले तक क्रिकेट के इस संस्करण में हिस्सा लेने को ही तैयार नहीं था। बहरहाल, ऐसी सारी दलीलें ३०-३५ साल पहले भी दी गई थीं, जब वन डे क्रिकेट वजूद में आया। डेनिस लिली का वह मशहूर कथन आज भी याद है कि सीमित ओवरों का क्रिकेट असल में सीमित प्रतिभा के खिलाड़ियों का क्रिकेट है।
यह बात शायद सही हो। २०-२० क्रिकेट में जैसे खिलाड़ी चमके हैं, उसे देखते हुए इस बात की पुष्टि ही होती है। जब लंबे समय तक विकेट बचाने की चिंता न हो तो छक्के और चौके उड़ाना आसान हो जाता है। फिर गेंदबाजों और फील्डिंग पर कई प्रतिबंध बल्लेबाजों के सर्कस जैसे प्रदर्शन के लिए और अनुकूल माहौल बना देते हैं। कहा जाता है कि टेस्ट क्रिकेट एक उपन्यास की तरह होता है, जिसका हर सत्र एक अलग अध्याय होता है। हर अध्याय के लिए अलग रणनीति और कथा योजना होती है। क्रिकेट का आनंद दरअसल इसी में है। वन डे क्रिकेट ने इस धारणा को तोड़ा। उसमें नतीजा अहम हो गया। इसके बावजूद आज के क्रिकेटरों की पीढ़ी को लगता है कि पचास ओवरों के मैच में भी शास्त्रीयता है, जिसे २० ओवरों का मैच नष्ट कर रहा है।
इस विकासक्रम को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि गुजरते वक्त के साथ २० ओवरों के मैच की भी अपनी शास्त्रीयता विकसित होगी। इसमें गेंदबाज यह तरकीब सीखेंगे कि कैसे बल्लेबाजों को बांधा जाए और कैसे उन्हें चकमा देकर आउट किया जाए, जिससे बल्लेबाजी कर रही टीम दबाव में आ जाए। भारत औऱ दक्षिण अफ्रीका के मैच में ऐसी मिसाल देखने को मिली। दक्षिण अफ्रीकी टीम शुरुआत में ही पांच विकेट खोकर ऐसे दबाव आई कि फिर उबर नहीं सकी। सेमीफाइनल में पहुंचने के लिए जरूरी १२६ रन भी वह नहीं बना सकी।
बहरहाल, हम चाहें या नहीं, २०-२० क्रिकेट को अभी जैसी लोकप्रियता मिली है, उसे देखते हुए यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि यही क्रिकेट का भविष्य है। कॉरपोरट जगत अब अपना सबसे ज्यादा दांव इसमें ही लगा सकता है। अखबारों की खबरों के मुताबिक भारत और पाकिस्तान के मैच के लिए उस दर पर विज्ञापन बुक किए गए, जिस पर वन डे वर्ल्ड कप के किसी मैच के लिए नहीं बुक हुए थे। यह आने वाले भविष्य का संकेत है।
अगले साल जब भारत में प्रीमियर क्रिकेट लीग और चैंपियन्स लीग की शुरुआत होगी तो वह क्रिकेट की युगांतर घटना हो सकती है। उसके साथ हर दो साल पर २०-२० वर्ल्ड कप क्रिकेट के इस रूप में लोगों की दिलचस्पी को जगाए रखेगा। २०१० के एशियाई खेलों में २०-२० क्रिकेट को जगह मिल जाना भी एक बड़ा संकेत है। दरअसल, क्रिकेट का यह रूप बदलते समाज और अर्थव्यवस्था से मेल खाता है औऱ इसीलिए इसकी कामयाबी तय मानी जानी चाहिए। दक्षिण अफ्रीका में हुए ताजा आयोजन से हमने क्रिकेट के एक नए युग की शुरुआत देखी है।
-स.र.

Wednesday, September 19, 2007

मुशर्रफ, बेनजीर, और नवाज के पीछे के राज

जनरल परवेज मुशर्ऱफ ने सुप्रीम कोर्ट में यह वादा कर कि अगर वो राष्ट्रपति चुन लिए गए तो उसके बाद सेना की वर्दी उतार देंगे, पाकिस्तान में राजनीतिक और आम अस्थिरता में एक नया पहलू जोड़ दिया है। जानकार मानते हैं कि इस पेशकश में असली शब्द अगर है। सवाल है कि अगर उन्हें राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं दी गई, तो क्या होगा? क्या जनरल मुशर्रफ तब मार्शल लॉ या इमरजेंसी का सहारा लेंगे? अब तक के तमाम संकेत यही बताते हैं कि मुशर्रफ फिर से राष्ट्रपति बनने के अपने इरादे पर कायम हैं और वो कोई रियायत तभी बरत सकते हैं, जब राजनीतिक दल या सुप्रीम कोर्ट इसमें बाधा न बने। चुनाव आयोग जनरल मुशर्रफ के लिए उम्मीदवारी के कायदों में बदलाव कर उनके लिए रास्ता साफ कर चुका है। अब नजर इस पर है कि क्या सुप्रीम कोर्ट न्यायिक सक्रियता से हासिल हुई नई ताकत के इस दौर में इस सबसे अहम सवाल पर जनरल मुशर्रफ को चुनौती देने की हिम्मत जुटाता है?
राष्ट्रपति पद पर बने रहने की अपनी योजना के तहत जनरल मुशर्रफ ने पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो और उनकी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के साथ समझौता करने की कोशिश की, लेकिन यह कोशिश अब नाकाम होती लग रही है। इसकी मुख्य वजह यह है कि मुशर्रफ खुद राष्ट्रपति रहने के लिए तो कायदों की अनदेखी करने का पूरा इरादा जता रहे हैं, लेकिन वे बेनजीर के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की इजाजत देने के लिए संविधान में बदलाव को तैयार नहीं हैं। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी जनरल के वर्दी उतार कर राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की शर्त पर लगातार जोर दे रही है, लेकिन जानकारों की राय है कि अगर मुशर्रफ बेनजीर के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ करने को तैयार हो जाएं तो बेनजीर शायद उनके फिर से राष्ट्रपति बनने के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं अटकाएंगी।
अमेरिका और पश्चिमी देश फिलहाल पाकिस्तान में ऐसी ही व्यवस्था को अपने लिए सबसे ज्यादा माफिक मानते हैं। इन देशों की चिंता इस्लामी कट्टरपंथ से लड़ाई है, जिसमें मुशर्रफ लगातार उनके सहयोगी बने हुए हैं और पश्चिमी में पढ़ी-लिखी और आम तौर पर उदारवादी मुद्दों पर राजनीति करने वाली बेनजीर इसमें उनके साथ रहेंगी, ऐसा उन्हें भरोसा है, जो बेनजीर के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए बेबुनियाद नहीं लगता।
पाकिस्तान से आने वाली तमाम रपटें ये बताती हैं कि मुशर्रफ-बेनजीर में समझौते की कोशिशों ने विपक्ष का काफी बड़ा स्थान पाकिस्तान मुस्लिम लीग के नेता नवाज शरीफ के लिए खाली छोड़ दिया है। दस सितंबर को उनके लौटते ही दोबारा देश से बाहर भेजने से उन्हें राजनीतिक सहानुभूति भी मिली है। इसके अलावा धार्मिक कट्टरपंथी औऱ रूढ़िवादी ताकतों का ध्रुवीकरण उनके इर्द-गिर्द होता दिख रहा है। ऐसे में नवाज शरीफ को जनरल मुशर्रफ के लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में देखने का रुझान सहज बढ़ता जा रहा है। लेकिन पाकिस्तान के पूरे संदर्भ में यह नजरिया सही है, कहना शायद मुश्किल है। पाकिस्तान की मुश्किल सिर्फ जनरल मुशर्रफ और उनकी सैनिक तानाशाही नहीं है। बल्कि यह कहना शायद ज्यादा सही हो कि यह तानाशाही पाकिस्तान की ठोस सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम है। नवाज शरीफ अतीत में लोकतांत्रिक शक्ति नहीं रहे हैं। वो बड़े जमींदारों, ब़ड़ी पूंजी, धार्मिक रूढ़िवाद और यथास्थितिवादी ताकतों का नुमाइंदा ज्यादा रहे हैं। अतीत में दो बार उन्होंने लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बीच सैनिक दखल का समर्थन किया। जब बेनजीर भुट्टो का तख्ता पलटा गया, तब उन्होंने यह नहीं कहा कि ऐसा करना लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है और बेनजीर का चुनाव के मैदान में मुकाबला करना वे ज्यादा पसंद करेंगे। हालांकि ठीक यही बात बेनजीर भुट्टो पर भी लागू होती है, जिन्होंने सेना के हाथों नवाज शरीफ का सत्ता पलटे जाने का समर्थन किया।
असल में यही पाकिस्तान की असली समस्या है। पिछले साठ साल में वहां लोकतंत्र का न तो आम ढांचा कायम हो सका और न देश के बुनियादी ढांचे में लोकतंत्र की प्रक्रिया आगे बढ़ी है। अगर भारत से तुलना करें तो जहां भारत में आजादी के पहले ही कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट शक्तियों ने अपना खासा प्रभाव बना लिया, और कांग्रेस के भीतर भी प्रगतिशील और समाजवादी आवाजें मजबूत होती गईं, वहीं पाकिस्तान को बनाने का आंदोलन इस परिघटना के प्रतिवाद के रूप में हुआ। यह अब सामाजिक इतिहास का हिस्सा है कि पाकिस्तान आंदोलन के पीछे असली शक्ति जमींदार थे, जो कांग्रेस में बढ़ते समाजवादी रुझान और कम्युनिस्टों की बढ़ती ताकत से परेशान थे।
भारत में आधा-अधूरा ही सही भूमि सुधारों पर अमल किया गया। दलित औऱ पिछड़ी जातियों के आंदोलन ने समाज के बुनियादी ढांचे में बदलाव की प्रक्रिया शुरू की। एक व्यक्ति एक वोट, और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत ने लोकतंत्रीकरण की वह प्रक्रिया शुरू की जिसे अब पलटना मुमकिन नहीं है। भारतीय राष्ट्र की नींव गांधी-नेहरू की साझा संस्कृति, साझा हित और सबके लिए न्याय के विचारों पर पड़ी। यह राष्ट्र आज खुद बहुत सी समस्याओं का सामना कर रहा है और इसके मूल आधार के लिए भी बहुत सी चुनौतियां हैं, लेकिन धरातल पर विभिन्न तबकों के आपसी सामाजिक-आर्थिक रिश्तों में आए बदलावों ने लोकतंत्र को इतना मजबूत कर दिया है कि लोकतंत्र को कोई खतरा नहीं नजर आता।
इसके उलट पाकिस्तान के निर्माण के पीछे जिन शक्तियों की भूमिका सबसे अहम रही, वे अपने मूल स्वभाव में लोकतंत्र विरोधी थीं, और इसी वजह से सैनिक तानाशाही उन्हें हमेशा अपने हितों के अनुरूप लगती रही। इसके जरिए मेहनतकश जनता की आवाज को उठने से दबाए रखा गया और जमीन पर बुनियादी बदलाव की कोई प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी। हकीकत यही है कि आज चाहे नवाज शरीफ हों या बेनजीर या इमरान खान, सबके समर्थन आधार का वर्ग चरित्र कमोबेश एक जैसा है। देश में प्रगतिशील और वामपंथी आंदोलन की बेहद कमी नजर आती है। ऐसे में टिकाऊ लोकतंत्र मध्य वर्ग का एक सपना हो सकता है, लेकिन उसके लिए बुनियादी आधार अभी मौजूद नहीं है।
इसीलिए अगर जनरल मुशर्रफ उस अगर की शर्त को रखने में कामयाब हुए हैं, जिससे ऊपर हमने बात शुरू की। वे इस अगर के पीछे के अपने असली इरादे में भी सफल हो सकते हैं। आखिर उनके पीछे अमेरिका का हाथ है, जिसके हितों से अपनी तकदीर जोड़े रखने में पाकिस्तान के प्रभु वर्ग को कभी एतराज नहीं हुआ और आज भी पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व कमोबेश अमेरिकी निर्देश से चलता है। या फिर देश एक ऐसी अस्थिरता के दौर में प्रवेश कर सकता है, जिसमें इस्लामी कट्टरपंथी ताकतें ज्यादा मजबूत होकर उभर सकती हैं और लोकतंत्र की संभावनाओं के लिए और भी गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकती हैं।
- सत्येंद्र रंजन
(पाकिस्तान की स्थिति पर डेमोक्रेटिक डिस्कोर्स के तहत दिए गए द इकॉनोमिस्ट के विश्लेषण- पाकिस्तान- गहराता संकट भी पढ़ें)

Monday, September 17, 2007

मनमोहन, जिद ना करो

सत्येंद्र रंजन

केंद्र में तीन साल तक राजनीतिक स्थिरता और राज्य-व्यवस्था की सकारात्मक दिशा के बाद अब अस्थिरता लौट आई है। राजनीति अब किस ओर रुख करेगी, इसको लेकर फिलहाल गहरा असमंजस है। किसी भी निष्पक्ष पर्यवेक्षक के लिए इस निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल नहीं है कि यह स्थिति कांग्रेस नेतृत्व, खासकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के २००४ के जनादेश को न समझने और देश की राजनीतिक परिस्थितियों के प्रति शुतुरमुर्गी नजरिया अपनाने की वजह से पैदा हुई है। प्रधानमंत्री अपने राजनीतिक समर्थन आधार से कितने अनजान हैं, या उनमें इसके प्रति कितना अपमान का भाव भरा हुआ है, इसकी सबसे उम्दा मिसाल तब देखने को मिली, जब उन्होंने अमेरिका से असैनिक परमाणु सहयोग समझौते के मुद्दे पर वामपंथी दलों को समर्थन वापस लेने की चुनौती दे डाली। यह उनका भोलापन नहीं था, यह इस बात से जाहिर होता है कि उन्होंने इसके लिए कोलकाता के एक अखबार को इंटरव्यू देने के लिए चुना, जो वाम मोर्चे का गढ़ है। बहरहाल, इस दांव के पीछे उनकी गणना गलत और मकसद चालाकी भरा था, यह अब साफ हो चुका है।
विदेश नीति पर सत्ताधारी गठबंधन और उसकी समर्थक पार्टियों के बीच छिड़े इस विवाद के बीच सेतु समुद्रम परियोजना पर कांग्रेस नेतृत्व और सरकार के ढुलमुल रवैये ने उनकी बुनियादी साख पर और भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गंठबंधन के शासनकाल में सांप्रदायिक फासीवाद से संघर्ष के दौरान देश में एक बुनियादी धर्मनिरपेक्ष आम सहमति बनी। २००४ का जनादेश इसी आम सहमति की जीत थी। मनमोहन सिंह अगर यह भूल गए कि उनकी सरकार सिर्फ इसी आम सहमति के आधार पर टिकी रह सकती है और इसी के आधार पर कांग्रेस पार्टी भविष्य की राजनीतिक लड़ाइयों में अपनी प्रासंगिकता कायम रख सकती है, तो यह एक ऐसी ऐतिहासिक गलती है, जिसकी कीमत उनकी पार्टी के साथ-साथ देश की सभी प्रगतिशील शक्तियों को चुकानी पड़ सकती है।
सेतु समुद्रम मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी ने भयाक्रांत मानसिकता का परिचय देकर यह एक बार फिर जाहिर किया है कि धर्मनिरपेक्षता उसके लिए निष्ठा का विषय होने के बजाय एक राजनीतिक मुद्दा भर है। अपनी इस कमजोरी से उसने एक अहम वैचारिक बहस में सांप्रदायिक और रूढिवादी ताकतों को बढ़त बनाने का मौका दे दिया है। विदेश नीति में देश के अभिजात्य वर्गों की इच्छाओं को प्राथमिकता देकर मनमोहन सिंह सरकार पहले ही इन शक्तियों के लिए अनुकूल स्थितियां पैदा कर चुकी है।
अमेरिका से परमाणु सहयोग का समझौता अपने आप में मौजूदा सरकार की एक कूटनीतिक सफलता जरूर माना जा सकता है। यह समझौता भारत के हित में है और मोटे तौर पर इसमें देश की परमाणु संप्रभुता की रक्षा की गई है, यह बात इसकी शर्तों के बारीक अध्ययन के आधार पर कही जा सकती है। लेकिन सवाल इससे कहीं ज्यादा बड़े हैं। सबसे अहम सवाल यह है कि यह समझौता दोनों देशों के बीच एक स्वतंत्र करार है, या यह दोनों देशों के बीच बन रहे दीर्घकालिक एवं सामरिक संबंधों की महज एक कड़ी भर है, जिसमें भारत अमेरिका की व्यापक रणनीति का एक हिस्सा बन जाएगा? २००५ से अब तक मनमोहन सिंह सरकार ने विदेश और रक्षा नीति के मामलों में जो फैसले किए और जो रुख अख्तियार किया, उससे स्वतंत्र एवं सिद्धांतनिष्ठ विदेश नीति से जुड़े इस सवाल पर उसकी साख लगातार घटती गई है। इसीलिए देश की प्रगतिशील शक्तियां परमाणु समझौते पर प्रधानमंत्री की बातों पर भरोसा नहीं कर रही हैं। इससे मनमोहन सिंह आहत महसूस कर सकते हैं, उन्हें लग सकता है कि उन्होंने देश के लिए जो एक बड़ी उपलब्धि हासिल की, उसका राजनीतिक और वैचारिक कट्टरता के आधार पर विरोध किया जा रहा है।
मगर यह सवाल किसी व्यक्ति और उसके इरादों का नहीं है। यह सवाल समझ और विचारधारा का है और यह जरूरी नहीं है कि देश का हित सोचने का एकाधिकार सिर्फ मनमोहन सिंह या कुछ खास लोगों तक सीमित हो। सरकार को यह साधारण सी बात समझनी चाहिए कि जब देश की संसद में इस करार को बहुमत का समर्थन हासिल नहीं है, तो इस पर अमल नहीं हो सकता। ऐसे संवैधानिक प्रावधानों का कोई मतलब नहीं है कि विदेश से रिश्ते और समझौते कार्यपालिका के विशेषाधिकार हैं। लोकतंत्र में कार्यपालिका यानी सरकार आखिरकार जन भावनाओं की ही अभिव्यक्ति होती है और जब तक उसके साथ जनता का समर्थन होता है, तभी तक उसका वजूद रहता है। वर्तमान संसद जिस जनादेश की अभिव्यक्ति है, उसमें कांग्रेस पार्टी या यूपीए के उसके साथी दल देश की जनता के बहुमत की नुमाइंदगी नहीं करते। यह बहुमत वामपंथी दलों को साथ लेकर ही बनता है। तो जो मुद्दे वामपंथी दलों के बुनियादी विचारों से संबंधित हों, उस पर सरकार एकतरफा फैसले नहीं ले सकती, यह साधारण समझ की बात है।
अगर कांग्रेस इसे नहीं समझती है और कॉरपोरेट मीडिया के बनाए माहौल पर भरोसा कर चुनाव में उतरना चाहती है, तो पार्टी प्रबंधकों की समझ पर तरस ही खाया जा सकता है। इससे सिर्फ यही साबित होता है कि भारतीय जनता पार्टी के इंडिया शाइनिंग अभियान के अनुभव से कांग्रेस ने कुछ नहीं सीखा है। धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील राजनीति के लिए आम सहमति को तोड़कर कांग्रेस अपने लिए सिर्फ विपक्ष में बैठने की तैयारी ही कर सकती है। विभिन्न राज्यों के चुनावी समीकरणों के साधारण अध्ययन से भी यह बात साफ हो जाती है कि कांग्रेस आज मजबूत विकेट पर नहीं है। अगर वह अमेरिकापरस्त कॉरपोरेट मीडिया के सर्वेक्षणों पर भरोसा कर रही है तो उसे इंडिया शाइनिंग के वक्त से लेकर हाल के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव तक ऐसे सर्वेक्षणों के हश्र पर एक बार गौर जरूर कर लेना चाहिए।
यहां एक अहम सवाल यह है कि आखिर संसद के बहुमत की भावना के प्रति कांग्रेस या सरकार में इतने अपमान का भाव क्यों है? इसकी वजह हम सत्ताधारी नेताओं के अपने नजरिए और इच्छाओं में तलाश सकते हैं। दरअसल, इन नेताओं ने मई २००४ में प्रगतिशील एजेंडे वाले साझा न्यूनतम कार्यक्रम को सत्ता में आने की मजबूरी में अपनाया। वरना, जवाहरलाल नेहरू के बाद के कांग्रेस का इतिहास लगातार इसके दक्षिणपंथी होने औऱ अभिजात्य तबकों के हितों की पार्टी बनने की कोशिश करने का रहा है। जब भारतीय जनता पार्टी ने अपनी उग्र सांप्रदायिकता के साथ इस दक्षिणपंथी एजेंडे को ज्यादा आक्रामकता से अपना लिया और उसे व्यापक समर्थन भी मिलने लगा तब कांग्रेस में अपनी नई जमीन तलाशने की कोशिश हुई, लेकिन यह कोशिश आधे-अधूरे मन से हुई और दिल में कहीं यह आकांक्षा हमेशा छिपी रही कि देश का अभिजात्य वर्ग उसे फिर से अपना ले। फिलहाल पार्टी नेताओं को यह लग सकता है कि अमेरिकापरस्त नीतियों को अपनाते हुए वे अपनी इस आकांक्षा को पूरा कर सकते हैं। शायद इसमें वे कामयाब भी हो जाएं, लेकिन इससे उनके पैरों के नीचे से आम आदमी के समर्थन की वह जमीन जरूर खिसक जाएगी, जिसकी वजह से फिलहाल वे सत्ता में हैं।
अभिजात्य हितों के मुताबिक खुद को ढालने की कोशिश में कांग्रेस पार्टी पिछले तीन साल में देश की लोकतांत्रिक धारा को काफी नुकसान पहुंचा चुकी है। यह ठीक है कि इस दौरान राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और सूचना के अधिकार कानून बने और इन पर अमल शुरू हुआ, आदिवासियों को वन अधिकार देने का कानून बना (लेकिन उस पर अमल अभी तक कानूनी पेचीदगियों में उलझा हुआ है), और कई प्रगतिशील पहल हुई, जिससे यूपीए सरकार की जन वैधता कायम रही। लेकिन जहां लोकतंत्र के हक में मजबूती से खड़ा होने की बात आई, वहां मनमोहन सिंह सरकार डगमगाती नज़र आई है। इसकी एक मिसाल, न्यायपालिका का संसदीय मामलों में दखल है। संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा का विस्तार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की नौवीं अनुसूचि को निष्प्रभावी कर दिया और सरकार ने इसके खिलाफ कोई पहल नहीं की। संसद में इस पर चर्चा तक नहीं कराई गई और न ही यह पहल हुई कि संविधान का बुनियादी ढांचा क्या है, इसकी व्याख्या संसद खुद करे। दिल्ली में सीलिंग के सवाल पर कोर्ट का दखल बढ़ता रहा और सरकार यह रुख लेने में नाकाम रही कि ये प्रशासनिक फैसले हैं, जिनमें अदालतों की सीमित भूमिका है। आरक्षण के सवाल पर सरकार ने फैसले जरूर लिए, लेकिन यहां भी वो न्यायपालिका के सामने कोई वैचारिक रुख नहीं रख सकी।
वजह साफ है। अभिजात्य वर्ग संवैधानिक पहलुओं की जिस तरह व्याख्या करता है, सत्ताधारी दल के नेता उससे अपनी मूल मानसिक संरचना में सहमत हैं। आम जन में बढ़ती लोकतांत्रिक चेतना और उसकी वजह से विधायिका के बदलते स्वरूप के साथ उस पर लगाम लगाने की अभिजात्य वर्गीय कोशिशों की चुनौती को या तो वे नहीं समझ पाते या फिर वे खुद ऐसी कोशिशों से सहमत हैं। लेकिन ऐसी कोशिशों से उनकी लोकतांत्रिक साख पर गहरे सवाल जरूर खड़े हो गए हैं।
यह बात बड़े बेबाक ढंग से कही जा सकती है कि यूपीए सरकार का मौजूदा संकट साम्राज्यवाद विरोध, धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक निष्ठाओं पर उसके ढुलमुल रवैये से पैदा हुआ है। इन सवालों पर सत्ताधारी नेताओं ने सैद्धांतिक आस्था और व्यावहारिक समझ दोनों की कमी दिखाई है। इस तरह उन्होंने उस राजनीतिक पूंजी को काफी हद तक गंवा दिया है, जो भाजपा शासनकाल में विपक्ष में रहते हुए उन्होंने कमाई थी। इस तरह उन्होंने भाजपा के सत्ता में लौटने की संभावनाओं को काफी ताकतवर बना दिया है। फौरी राजनीतिक विश्लेषणों में भाजपा नेताओं की अंदरूनी खींचतान और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में कई मुद्दों पर मतभेदों के आधार पर भाजपा की सत्ता में वापसी चाहे जितनी दूर की कौड़ी बताई जाए, लेकिन हकीकत यही है कि बतौर मुख्य विपक्षी दल सत्ता विरोधी भावना का लाभ उठाने के लिए भाजपा तैयार है। उस हालत में जब धर्मनिरपेक्ष दलों में आपसी सहमति और चुनावी तालमेल न हो, तब भाजपा और उसके साथी दलों की संभावना और भी प्रबल हो सकती है और चुनाव के बाद नए सिरे से ध्रुवीकरण का रास्ता खुल सकता है।
सभी वामपंथी, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को इस हकीकत और चुनौती के प्रति जागरूक जरूर रहना चाहिए। इसलिए राजनीतिक बुद्धिमानी इसी में है कि कांग्रेस और वामपंथी दल अपने मतभेद और रिश्तों में मौजूदा तनाव को एक सीमा से आगे न जाने दें। इस लिहाज से दोनों पक्षों में एक दूसरे की वैचारिक प्राथमिकताओं की समझ बनना बहुत जरूरी है। जिन मुद्दों पर जहां तक लचीला रवैया अपनाना मुमकिन है, इसकी कोशिश की जानी चाहिए। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब दोनों पक्ष जिद न करें और अपनी प्राथमिकताओं पर साझा समझ और व्यापक राष्ट्र हित को तरजीह दें। अगर मनमोहन सिंह और कांग्रेस नेताओं को यह लगता है कि परमाणु करार एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर वे समझौता नहीं कर सकते, तो उन्हें इस पर जनमत बनाने की शुरुआत करनी चाहिए और अगले आम चुनाव में इस मुद्दे पर अपने लिए जनादेश मांगना चाहिए। वामपंथी दलों को इस मतभेद को स्वीकार करना चाहिए और अगले चुनाव के लिए एक वैकल्पिक धर्मनिरपेक्ष मोर्चा तैयार करना चाहिए। लेकिन अगले चुनाव तक यथास्थिति कायम रखने की कोशिश जरूर की जानी चाहिए।
यूपीए सरकार को यह भी जरूर समझना चाहिए कि अगर वह गिर गई तो परमाणु करार वैसे ही निरस्त हो जाएगा। इसका भविष्य तब अगली सरकार ही तय करेगी, और यह सरकार उनकी ही होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। अगर मान लिया जाए कि अगले चुनाव के बाद २००४ जैसी ही स्थिति बनती है तो एक बार फिर सरकार बनाने की मौजूदा सूरत ही पैदा होगी। उस हालत में वामपंथी दल करार को निरस्त करने की शर्त पर ही समर्थन देंगे। यानी इस करार का तब भी कोई भविष्य नहीं रहेगा। ये ठोस परिस्थितियां यह साफ करती हैं कि परमाणु करार कोई ऐसा सवाल नहीं है, जिससे देश के दूसरे हितों को बंधक बना दिया जाए। या कांग्रेस और यूपीए के दूसरे दल खुद को इसका बंधक बना लें। इस हकीकत को समझे जाने की जरूरत है कि आज की राजनीतिक परिस्थितियों में इस करार का कोई भविष्य नहीं है। इसे न समझकर मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी देश पर चुनाव थोपती है तो यह उनकी एक ऐतिहासिक भूल होगी, जिसके लिए उन्हें माफ नहीं किया जाएगा।

Friday, September 14, 2007

सच से यह कैसा भय?

सत्येंद्र रंजन

सेतु समुद्रम परियोजना के मुद्दे पर कांग्रेस और यूपीए का असली चेहरा एक बार फिर बेनकाब हुआ है। फिर यही झलक मिली है कि केंद्र का यह सत्ताधारी गठबंधन किसी सिद्धांत, विचारधारा या दीर्घकालिक राजनीतिक उद्देश्यों पर आधारित नहीं है। बल्कि सत्ता का आसान समीकरण इसे जोड़े हुए है और अल्पकालिक लाभ के लिए यह किसी भी सवाल पर समझौता कर सकता है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने हलफनामे में सिर्फ वही कहा जो एक सच है और जिसे स्वीकार करने में किसी विवेकशील व्यक्ति को कोई मुश्किल नहीं होगी, चाहे वह कितना ही आस्थावान हो। राम, रामायण और इस लिहाज से राम सेतु की ऐतिहासिकता तय नहीं है और ये सभी आस्था एवं विश्वास से जुड़े हुए हैं, इस बयान में ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे किसी की आस्था पर चोट पहुंचे। भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार ने अगर इसे मुद्दा बनाने की कोशिश तो इसमें कोई हैरत की बात नहीं है, क्योंकि जो राजनीतिक शक्ति भावनात्मक मुद्दों, अज्ञान एवं अंध विश्वास और सांप्रदायिक विद्वेष के जरिए ही समाज और राजनीति में अपनी प्रासंगिकता रखती हो, उससे कोई और उम्मीद नहीं की जा सकती।
लेकिन जो शक्तियां अपने को प्रगति एवं न्याय के बड़े उद्देश्यों को लेकर राजनीति करने का दंभ भरती हैं, उनसे यह उम्मीद जरूर रहती है कि ऐसे सवालों पर वे फौरी अलोकप्रियता के जोखिम पर भी समझौताविहीन रवैया अपनाएं। झूठ और अंध विश्वास से सीधी लड़ाई के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि न सिर्फ यथास्थितिवादी कांग्रेस, बल्कि अपने को पिछड़ों के लिए न्याय की लड़ाई का नुमाइंदा बताने वाले लालू प्रसाद यादव और यहां तक कि कम्युनिस्ट एबी बर्धन को भी यही लगा कि पुरातत्व विभाग का यह हलफनामा गैर जरूरी है, जिससे भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक फायदा मिलेगा।
कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज का यह कथन गौरतलब है- भगवान राम के अस्तित्व पर कोई संदेह नहीं हो सकता। जैसे हिमालय, हिमालय है, गंगा गंगा है, वैसे ही राम राम हैं।
यह विचित्र तर्क है। अगर राम आस्था से जुड़े हैं तो उनकी तुलना हिमालय और गंगा जैसी भौतिक उपस्थितियों से कैसे हो सकती है? और अगर राम भौतिक उपस्थिति हैं तो क्या कोई उन्हें हिमालय और गंगा की तरह हमें दिखा सकता है? लेकिन बात जब आस्था की हो और नजर वोट पर, तो तर्क और कुतर्क की चिंता कौन करता है?
हंसराज भारद्वाज और उनके जैसे कांग्रेस नेताओं की सोच आसानी से समझी जा सकती है। यह वही सोच है, जिसने नेहरू के बाद के दौर में कांग्रेस को सत्ता को मशीन बना दिया, जिसके लिए राजतंत्रीय अर्थ में सत्ता पाना और उस पर काबिज रहना ही एकमात्र मकसद रह गया। यह सोच लोकतंत्र की इस समझ से बिल्कुल उलटी है कि सत्ता कुछ खास आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक साधन है और इन्हीं उद्देश्यों पर राजनीतिक बहुमत का निर्माण कर इसे हासिल किया जाना चाहिए। २००४ में कांग्रेस पार्टी एक खास परिस्थिति में सत्ता में आई। तब यह सांप्रदायिक-फासीवाद के खिलाफ व्यापक राजनीतिक गोलबंदी का केंद्र बनी। लेकिन सत्ता में आने के बाद कांग्रेस नेता उस संदर्भ को भूल गए हैं। उन्हें लगता है कि यथास्थितिवादी एजेंडे, और अभिजात्य वर्ग के हितों और सोच के मुताबिक आर्थिक एवं विदेश नीति को अपना कर वो शासन की स्वाभाविक पार्टी का दर्जा एक बार फिर हासिल कर लेंगे। अमेरिका से गठबंधन की विदेश नीति और संवैधानिक मामलों पर जनता के हित में आवाज न उठाना इस पार्टी की प्राथमिकताओं के दो स्पष्ट उदाहरण हैं।
अब आस्था बनाम हकीकत की बहस में समझौतावादी रुख अपनाकर पार्टी ने यह भी साबित कर दिया है कि जिस धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर उसे व्यापक समूहों का समर्थन मिला, उसमें भी उसकी अपनी कोई आस्था नहीं है। आखिर धर्मनिरपेक्षता का मतलब सिर्फ उग्र सांप्रदायिक नहीं होना ही नहीं है। बल्कि इसका मतलब समाज में विवेक और वैज्ञानिक सोच के लिए लगातार संघर्ष भी है।
बहरहाल, अगर कांग्रेस यह सोचती है कि ऐसे हथकंडों से वह चुनावी कामयाबी पा लेगी, तो वह भ्रम में है। धर्मनिरपेक्षता और बुनियादी लोकतांत्रिक सवालों पर बनी राजनीतिक आम सहमति को तोड़ कर वह सिर्फ १९९० के दशक के उन वर्षों को दोबारा न्योता दे रही है जब उसकी प्रांसगिकता पर सवाल उठने लगे थे।

Tuesday, September 11, 2007

पुलिस सुधारः मतलब और मकसद

सत्येंद्र रंजन

पुलिस सुधारों का मुद्दा पिछले नौ महीनों से खासी चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले सितंबर में पुलिस सुधारों का एक खाका बताते हुए केंद्र और राज्य सरकारों से इस पर अमल करने को कहा। सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए जो समयसीमा बताई न सिर्फ वह गुजर चुकी है, बल्कि उसके बाद दी गई अगली समयसीमा भी बीत गई है। केंद्र सरकार और ज्यादातर राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों को आंशिक तौर पर ही माना है और सुझाए गए बाकी उपायों पर अमल को नामुमकिन बता दिया है। सिर्फ चार छोटे राज्यों- अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मेघालय और हिमाचल प्रदेश ने सभी दिशानिर्देशों को लागू करने पर सहमति जताई है। बाकी राज्यों के एतराज व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों हैं।
विभिन्न राज्यों ने अलग-अलग तरह की व्यावहारिक दिक्कतों का जिक्र किया है। जबकि कुछ हलकों से यह दलील देते हुए आपत्ति की गई है कि संविधान के तहत कानून-व्यवस्था राज्य सूची का विषय है और यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश देना इस अधिकार क्षेत्र में दखल में है। मसलन, गुजरात सरकार ने जोर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश संविधान के तहत शक्तियों के बंटवारे का सीधा उल्लंघन हैं। साथ ही ये संविधान के संघीय स्वरूप और उसके बुनियादी ढांचे की अनदेखी भी है। जाहिर है, एक अच्छा उद्देश्य प्रक्रियागत आपत्तियों की भेंट चढ़ता लग रहा है।
पुलिस सुधार लंबे समय से उपेक्षित मुद्दा है, जबकि मानव अधिकारों की लड़ाई से जुड़े लोग इसकी जरूरत काफी गहराई से महसूस करते रहे हैं। यह मांग अब दशकों पुरानी हो चुकी है। १९७७ में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो पहली बार ये विषय व्यापक चर्चा का हिस्सा बना। मोरारजी देसाई की सरकार ने तब प्रतिष्ठित पुलिस अधिकारी डॉ. धर्मवीर की अध्यक्षता में पुलिस आयोग का गठन किया। धर्मवीर आयोग ने पुलिस सुधारों के बारे में महत्त्वपूर्ण और विस्तृत सिफारिशें कीं। लेकिन आयोग की रिपोर्ट सरकार की अलमारियों में धूल चाटती रही। उसके बाद से कांग्रेस, अपने को तीसरे मोर्चे का हिस्सा कहने वाले दल और भारतीय जनता पार्टी एवं उसकी सहयोगी पार्टियां केंद्र और विभिन्न राज्यों की सत्ता में आती और जाती रहीं हैं, लेकिन किसी सरकार ने लोकतंत्र की इस बेहद बुनियादी जरूरत पर ध्यान नहीं दिया।
अब सवाल है कि पुलिस सुधार लागू कराने की सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा पहल देश की जनतांत्रिक शक्तियों में ज्यादा उत्साह क्यों पैदा नहीं कर पा रही है? इसके लिए सरकारों पर सार्वजनिक दबाव इतना क्यों नहीं बन सका कि वो पुलिस को स्वायत्त एजेंसी बनाने और आम लोगों की शिकायत सुनने की संस्थागत व्यवस्था करने जैसे वांछित सुझावों को मानने पर मजबूर हो जातीं? बल्कि लोकतांत्रिक विमर्श से जुड़े हुए कई लोग क्यों सरकारों की कुछ आपत्तियों को आज ज्यादा सही मानते हैं और उनके भीतर ऐसी राय बन रही है कि इस तरह से पुलिस सुधार लागू नहीं हो सकते? इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें पुलिस सुधारों के पूरे परिप्रेक्ष्य पर समग्रता से विचार करना होगा। असल में पुलिस सुधारों की मौजूदा बहस में दो ऐसे पहलू हैं जो मौजूदा पहल को कमजोर करते हैं। इनमें एक पहलू कुछ राज्यों की तरफ से उठाए गए एक वाजिब सवाल से जुड़ा है और दूसरा पहलू इस कोशिश के पीछे की बुनियादी सोच पर सवाल उठाता है।
गौरतलब है कि पुलिस सुधारों के लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश उस दौर में आया जब न सिर्फ विधायिका और सरकारों के दायरे में, बल्कि लोकतांत्रिक रूप से जागरूक समूहों में भी न्यायपालिका के द्वारा शासन के दूसरे अंगों में दखल की शिकायत गहरी होती गई है। काफी समय तक इस न्यायिक सक्रियता के असली स्वरूप, मकसद और परिणामों को लेकर असमंजस बना रहा। ऊहापोह इसको लेकर भी रही कि आखिर इस परिघटना के प्रति कैसा रुख अख्तियार किया जाए। धीरे-धीरे लोकतांत्रिक समूहों में यह धारणा गहरी होती गई कि यह परिघटना कमजोर समूहों के हितों के खिलाफ जा रही है। उधर विधायिका और सरकारों के हलके में काफी समय तक बचाव का रुख रहा। लेकिन जब न्यायिक फैसलों का आरक्षण जैसे मुद्दों पर सामाजिक अस्मिता की नवजाग्रत चेतना के साथ अंतर्विरोध उभरने लगा तो राजनीतिक पार्टियों के स्वर भी तेज होने लगे। इसकी हम कई मिसाल देख सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जब उच्च शिक्षा संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए २७ फीसदी आरक्षण पर रोक लगाई तो इस फैसले के खिलाफ तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में बंद का आयोजन किया गया। कई राजनीतिक दलों ने खुलकर इस फैसले की आलोचना की और इसे बेअसर करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की। उधर केंद्र सरकार जो कुछ समय पहले तक कार्यपालिका के अधिकारों के सवाल को नहीं उठा रही थी, उसने वन सलाहकार समिति के गठन के मुद्दे पर अडिग रुख अपना लिया। एक जन हित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को इस समिति में कुछ कथित स्वतंत्र विशेषज्ञों को रखने का आदेश दिया। केंद्र ने दलील दी कि इस समिति का गठन सरकार का अधिकार है और वह इस आदेश को नहीं मान सकता। इस रस्साकशी में समिति का गठन कई महीनों तक लटका रहा। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को पलक झपकानी पड़ी और केंद्र ने उसके आदेश पर अमल नहीं किया। इसी क्रम में हाल में दिल्ली में पर्याप्त बिजली मुहैया कराने का मामला आया। इस मसले पर दिल्ली सरकार ने क्या कदम उठाए हैं, सुप्रीम कोर्ट के यह पूछने पर सरकारी वकील का जवाब रहा- बिजली की सप्लाई संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत नहीं आती है। सरकारी वकील ने कहा- इस सवाल से किसी कानून का कोई संबंध नहीं है। सुप्रीम कोर्ट कोई सुपर प्लानिंग ऑथरिटी नहीं है जो यह फैसला करे कि गैस प्लांट कहां लगाया जाए या कितनी बिजली की जरूरत है। अदालतों को ऐसे मामलों में दखल नहीं देना चाहिए।
चूंकि न्यायिक सक्रियता को काफी हद तक जन समर्थन हासिल रहा है, इसलिए काफी समय तक सरकारें या राजनीतिक दल तब खुलकर इसके खिलाफ नहीं आए। लेकिन मजदूर अधिकारों पर चोट करने वाले कई न्यायिक फैसलों, संविधान की नौवीं अनुसूची को बेअसर करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले और अब ओबीसी आरक्षण पर रोक लगाए के बाद की स्थितियों से माहौल बदलता नजर आ रहा है। पुलिस अधिकारों पर विभिन्न राज्य सरकारों की प्रतिक्रिया से भी यह जाहिर होता है।
बहरहाल, पुलिस सुधार का एक और मौजूदा संदर्भ इसको लेकर लोकतांत्रिक समूहों में ज्यादा जोश पैदा नहीं कर पा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार लागू करने संबंधी आदेश एक जन हित याचिका पर दिया। इस जन हित याचिका से जो नाम जुड़े हैं, उनके साथ नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष की साख नहीं जुड़ी हुई है। बल्कि वो नाम सिक्युरिटी एस्टैबलिशमेंट की उस सोच के ज्यादा करीब हैं, जो बुनियादी तौर पर नागरिक अधिकारों के खिलाफ है। अगर आप लंबे समय से मानव अधिकार संगठनों के खिलाफ रहे हों, सख्ती को विभिन्न प्रकार के असंतोष से भड़के संघर्षों से निपटने का सबसे सही तरीका मानते हों, फांसी जैसी अमानवीय और अपराध समाजशास्त्र के गहरे अध्ययन से बेमतलब साबित हो चुकी सजा के समर्थक हों, टेलीविजन की बहसों में आपको रूढ़िवादी सोच की नुमाइंदगी के लिए बुलाया जाता हो और आपका कुल रुख व्यापक लोकतांत्रिक संदर्भ के खिलाफ हो, तो आपकी ऐसी किसी पहल को संदेह से देखे जाने का पर्याप्त आधार पहले से मौजूद रहता है। ऐसी पहल की निष्पक्षता संदिग्ध रहती है और यह सवाल कायम रहता है कि क्या इस पहल के पीछे सचमुच जन अधिकारों की वास्तविक चिंता है?
सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक हस्तक्षेप से पुलिस को मुक्त करने के लिए केंद्र और राज्यों के स्तर पर सुरक्षा आयोग बनाने, पुलिसकर्मियों की सेवा संबंधी सभी मामलों पर फैसला लेने के लिए पुलिस एस्टैबलिशमेंट बोर्ड गठित करने और पुलिस संबंधी जनता की शिकायतों पर विचार के लिए पुलिस शिकायत प्राधिकरण बनाने का आदेश दिया है। इन संस्थाओं के जरिए पुलिस के प्रबंधन और प्रशासन को बेशक फर्क आ सकता है। लेकिन इस संदर्भ में कुछ राज्यों की यह शिकायत भी उतनी ही जायज है कि आखिर उस हालत में पुलिस की जवाबदेही किसके प्रति होगी? क्या तब पुलिस विधायिका के प्रति जवाबदेह रहेगी और कार्यपालिका सुरक्षा संबंधी मामलों में अगर फौरन फैसले लेने चाहेगी तो क्या उसके रास्ते में नई संस्थाएं रुकावट नहीं बनेंगी? यहां यह गौरतलब है कि राजनीतिक कार्यपालिका के तहत पुलिस के रहने के कई नुकसान हैं, तो कुछ फायदे भी हैं। यह ठीक है कि राज्यों में मौजूद सरकारों के हित में पुलिस का उपयोग और कई बार दुरुपयोग भी होता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि पुलिस के कार्यों के लिए कार्यपालिका की जवाबदेही बनी रहती है। एक स्वायत्त पुलिस के कार्यों के लिए आखिर जवाबदेह कौन होगा? यहां यह ध्यान में रखने की बात है कि हम एक निरपेक्ष माहौल में नहीं रहते हैं। पुलिस विभाग भी समाज के व्यापक सत्ता ढांचे के बीच बनता और काम करता है। सामाजिक पूर्वाग्रह पुलिसकर्मियों में उतना ही देखने को मिलता है, जितना की आम लोगों में। पुलिस की कार्रवाइयों में अक्सर जातीय, वर्गीय और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के लक्षण देखने को मिलते हैं। पुलिस के अंदरूनी ढांचे में मौजूदा सामाजिक विषमता का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। जब जनतांत्रिक संदर्भ में पुलिस सुधारों की बात होती है तो इस अंदरूनी ढांचे में सुधार भी एजेंडे में शामिल रहता है। सदियों से शोषित और सत्ता के ढांचे से आज भी बाहर समूहों को कैसे उनकी आबादी के अनुपात में पुलिस के भीतर नुमाइंदगी दी जाए और कैसे उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाए, पुलिस सुधार का यह एक अहम पहलू है। अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी पुलिस में कैसे बढ़े और पुलिसकर्मियों की कैसे ऐसी पेशेवर ट्रेनिंग हो, जिससे वो सांप्रदायिक तनाव के वक्त निष्पक्ष रूप से काम करें, यह पुलिस सुधार का बहुत अहम बिंदु है।
लेकिन दुर्भाग्य से न तो पुलिस सुधारों के लिए दायर याचिका में इन बातों की जरूरत समझी गई है और न सुप्रीम कोर्ट ने इन असंतुलनों को दूर करने के लिए कोई आदेश दिए हैं। पुलिस की सामाजिक जवाबदेही तय करने का कोई उपाय भी नहीं बताया गया है, सिवाय पुलिस शिकायत प्राधिकरण के गठन की बात को छोड़कर। जबकि अगर मानव अधिकार सरंक्षण कानून १९९३ पर अमल करते हुए हर राज्य में मानव अधिकार आयोग बन जाएं और जिलों के स्तर पर मानवाधिकार अदालतें स्थापित हो जाएं तो ऐसे प्राधिकरण की शायद कोई जरूरत नहीं रहेगी।
दरअसल, इस संदर्भ में गौर करने की सबसे अहम बात यह है कि पुलिस सुधार एक राजनीतिक एजेंडा है। यह जन अधिकारों के संघर्ष से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। सामाजिक और आर्थिक सत्ता का ढांचा निरंकुश हो और पुलिस पेशेवर एवं लोकतांत्रिक ढंग से काम करे, ऐसा भ्रम सिर्फ दक्षिणपंथी आदर्शवाद का ही हिस्सा हो सकता है, जिसमें हवाई मूल्यों की बात दरअसल व्यवस्था में अंतर्निहित शोषण और विषमता को जारी रखने के लिए की जाती है। या अधिक से अधिक यह मध्यवर्गीय फैन्टेसी का हिस्सा हो सकता है, जो अपने समाज के यथार्थ से कटे रहते हुए समस्याओं के मनोगत समाधन ढूंढती रहती है।
हकीकत यह है कि भारत या दुनिया के विभिन्न समाजों में जिस हद तक लोकतंत्र स्थापित हो सका है और आम लोगों ने अपने जितने अधिकार हासिल किए हैं, वो राजनीतिक संघर्षों के जरिए संभव हुआ है। पुलिस सुधारों के लिए भी राजनीतिक संघर्ष से अलग कोई और रास्ता नहीं है। संघर्ष औऱ उससे पैदा होने वाली जन चेतना सरकारों पर वो दबाव पैदा करती हैं, जिससे वो कोई सकारात्मक पहल करने को मजबूर होती हैं। पिछले एक दशक का ही अनुभव यह है कि लालू प्रसाद यादव के लिए अगर मुस्लिम वोट अहम होते हैं तो उनके सत्ता काल में पुलिस दंगों को रोकने का कारगर औजार साबित होती है। नरेंद्र मोदी के राज में पुलिस दंगों में मददगार बन जाती है। वामपंथी मोर्चे की सरकार के तहत पुलिस का जनता से व्यवहार बदला हुआ नजर आता है और जब मायावती सत्ता में होती हैं तो उत्तर प्रदेश के दलित पुलिस का एक अलग ढंग का रुख देखते हैं। इन मिसालों को पुलिस के दुरुपयोग का सबूत भी कहा जाता है, लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि पुलिस तभी जनतांत्रिक ढंग से पेश आती है, जब सत्ता का ढांचा ज्यादा जनतांत्रिक होता है। बेशक, पुलिस को एक हद तक स्वायत्ता मिलनी चाहिए, मगर यह स्वायत्तता पूरे राजनीतिक संदर्भ से अलग नहीं हो सकती। सुप्रीम कोर्ट का आदेश इस संदर्भ से कटा हुआ लगता है, इसीलिए उससे ज्यादा कुछ ठोस हासिल होने की उम्मीद असल में एक मृगमरीचिका साबित हो सकती है।

इमरजेंसी के कुछ सबक

सत्येंद्र रंजन

आजादी के बाद भारतीय राजनीति को जिन घटनाओं ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया, उनमें निसंदेह इमरजेंसी भी एक है। इमरजेंसी ने भारतीय लोकतंत्र को लेकर कई नए संदेहों को जन्म दिया। कई हलकों में तो यह मान लिया गया कि आखिरकार भारत में भी राजनीतिक लोकतंत्र के प्रयोग का वही हश्र हुआ, जो तीसरी दुनिया के पिछड़े समाजों में होता रहा है। लेकिन लंबी निरंकुश तानाशाही के उन अंदेशों से भारत दो साल के अंदर ही उबर गया, और उसके बाद के दौर में भारतीय लोकतंत्र को लेकर भरोसा लगातार मजबूत होता गया है। चूंकि इमरजेंसी के बाद एक पूरी पीढ़ी जवान हो चुकी है, इसलिए बत्तीस साल पहले की वह घटना अब लोगों की स्मतियों को पहले की तरह नहीं कुरेदती है। लेकिन यह एक हकीकत है कि बत्तीस साल पहले आज के दिन भारतीय लोकतंत्र एक गंभीर संकट में फंस गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने २५ जून की आधी रात देश में आंतरिक इमरजेंसी लगा दी। इसके साथ ही देश में आम राजनीतिक गतिविधियां ठहर गईं। संविधान से नागरिकों को मिले मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए गए। इमरजेंसी के दौरान संविधान में कई ऐसे संशोधन किए गए, जिन्होंने भारतीय संविधान की मूल आत्मा पर प्रहार किया। इमरजेंसी के दिनों में इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी संविधानेतर सत्ता के केंद्र के रूप में उभरे। संजय और उनकी मंडली के मनमानेपन पर कोई अंकुश नहीं रहा। इसकी वजह से देश के कई इलाकों में कई तबकों को घोर ज्यादतियां झेलनी पड़ीं। ऐसी ज्यादतियों की शिकायत करने का कोई मंच तब उनके पास मौजूद नहीं था। इसीलिए उस दौर को न अपील, न दलील, न वकील का दौर कहा जाता है। यानी वह तानाशाही का दौर था।
अब जबकि उस घटना के बाद तीन दशक गुजर चुके हैं, इतिहासकार उस दौर पर सामने आ चुके तमाम तथ्यों की रोशनी में, और भावनात्मक प्रतिक्रिया से मुक्त होकर विचार कर रहे हैं। सभी इतिहासकारों में इस बात पर सहमति है कि इमरजेंसी आजाद भारत के साठ साल के इतिहास में एक अंधकार भरा दौर है। चूंकि इमरजेंसी इंदिरा गांधी ने लगाई, इसलिए भारतीय लोकतंत्र के उस संकट के लिए तब उन्हें ही दोषी माना गया। आज भी जब कभी बात इमरजेंसी की होती है, स्वाभाविक रूप से इंदिरा गांधी का जिक्र आ जाता है। इमरजेंसी के अत्याचारों की चर्चा के साथ संजय गांधी और उनकी चौकड़ी याद आती है। साथ ही जिक्र आता है जेपी यानी जयप्रकाश नारायण का, जिन्हें इमरजेंसी के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने वाला नेता माना जाता है।
मार्च १९७७ में इंदिरा गांधी की हार को कांग्रेस विरोधी विपक्षी गठबंधन से जुड़े नेताओं और बहुत से टीकाकारों ने दूसरी आजादी बताया। जेपी इस कथित दूसरी आजादी के सबसे बड़े नेता थे। उनके नेतृत्व में दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक जनसंघ से लेकर वाम रुझान वाली सोशलिस्ट पार्टी तक के नेता एकजुट हुए। इंदिरा गांधी को शिकस्त देने में इस राजनीतिक ध्रुवीकरण का अहम योगदान रहा। हालांकि ये एक अवसरवादी गठबंधन था, इसके बावजूद जनता के एक बड़े हिस्से ने इसे विकल्प माना तो इसकी वजह इस पर मौजूद जेपी का साया ही थी। ब्रिटिश शासन से आजादी के आंदोलन में जेपी की ऐतिहासिक भूमिका और उसके बाद निःस्वार्थ सेवा के उनके रिकॉर्ड ने उनकी ऐसी शख्सियत बनाई थी, जिससे वे न सिर्फ इस ध्रुवीकरण का केंद्र बन सके, बल्कि जब इन दलों ने मिलकर एक पार्टी बना ली तो उसकी विश्वसनीयता भी बन सकी।
बहरहाल, आज उस दौर के तीन दशक बाद आज सबसे प्रासंगिक मुद्दा यही है कि आखिर इमरजेंसी के सबक क्या हैं? यह एक सकारात्मक घटनाक्रम है कि बौद्धिक हलकों में आज इस विषय पर ज्यादा गंभीरता से सोचा जा रहा है। इस क्रम में इमरजेंसी के पूरे संदर्भ पर चर्चा की जा रही है। सवाल यह है कि आखिर इमरजेंसी लगाने की नौबत क्यों आई और इसके लिए कौन जिम्मेदार था? यह घटना की सिर्फ सतही समझ ही है कि इमरजेंसी १२ जून १९७५ के इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले की वजह से लगी, जिसमें १९७१ के चुनाव में रायबरेली चुनाव क्षेत्र से इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध करार दिया गया। हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद बनी स्थितियां इमरजेंसी की फौरी वजह जरूर थीं, लेकिन देश में उसके काफी पहले से बन रहे हालात ने देश में गंभीर राजनीतिक संकट पैदा कर दिया था।
इन हालात को बनाने में जेपी आंदोलन की भी बड़ी भूमिका थी। इस आंदोलन का मकसद क्या था और उसकी ठोस मांगें क्या थीं, ये आज भी अस्पष्ट हैं। गुजरात और बिहार में कॉपी और मिट्टी तेल की सहज आपूर्ति जैसी आम मांगों से उठा छात्रों का आंदोलन को कैसे चुनाव में हारे, १९६७ की संविद सरकारों में सत्ता लिप्सा की वजह से बदनाम हो चुके और खुद भ्रष्टाचार एवं अकुशलता के आरोप झेल रहे बहुत से नेताओं ने हथिया लिया, इस पर अब तक काफी रोशन डाली जा चुकी है। जेपी के इस आंदोलन में कूद पड़ने से न सिर्फ इन नेताओं को एक आड़ मिल गई, बल्कि आंदोलन का फलक भी व्यापक दिखने लगा। एक भावुक क्षण में जेपी ने उस आंदोलन को संपूर्ण क्रांति का आंदोलन घोषित कर दिया। लेकिन उस संपूर्ण क्रांति का रास्ता, रणनीति, कार्यकर्ता, साथी और अंतिम मकसद अस्पष्ट बने रहे। विडंबना यह है कि उस आंदोलन के पास ऐसी मांगों का अभाव था, जिस पर वह सरकार से बातचीत या सौदेबाजी कर पाता। इसके विपरीत पहले गुजरात और फिर बिहार विधानसभा भंग करो जैसी मांगें उठाकर संसदीय लोकतंत्र के मूल स्वरूप पर सवाल उठा दिए गए।
लोकतंत्र में जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति का सबसे प्रभावी माध्यम चुनाव हैं, यह निर्विवाद है। जेपी आंदोलन ने भी इससे बेहतर किसी माध्यम का सुझाव नहीं रखा। हकीकत यह है कि १९७१ के आम चुनाव में कांग्रेस को भारी जीत मिली थी, १९७४ में जब जेपी आंदोलन जारी था, देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को भारी बहुमत मिला। दक्षिण के राज्यों में वैसे भी जेपी आंदोलन का कोई असर नहीं था। इस परिप्रेक्ष्य में यह कहना कि कांग्रेस जनता का भरोसा खो चुकी है, किसी नेता या नेताओं के समूह का मनोगत निष्कर्ष ही हो सकता था। बहरहाल, अगर जेपी और उनके साथी नेताओं को सचमुच इस बात में भरोसा था, तो अगले आम चुनाव १९७६ के आरंभ में होने वाले थे और वे उसका इंतजार कर सकते थे। लेकिन उन्होंने सड़क पर भीड़ उतार कर यह फैसला करने का हैरतअंगेज तर्क रखा।
इसी पृष्ठभूमि में इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया। यह इंदिरा गांधी के लिए बहुत बड़ा झटका था। लेकिन खुद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फैसले पर अमल २० दिन के लिए रोकते हुए इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट में अपील का वक्त दिया। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने अपील पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट के फैसले पर सशर्त रोक लगा दी। इस तरह इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बने रहने में कोई कानूनी बाधा नहीं रह गई। नैतिकता का सवाल जरूर था, लेकिन नैतिकता व्यक्ति के आत्म-मूल्यांकन की चीज है। इसे किसी पर थोपा नहीं जा सकता। इस बुनियादी सिद्धांत को जेपी और उनके साथ जुट गए नेताओं को समझना चाहिए था। उनके सामने अगले आठ महीनों तक नैतिकता के सवाल पर जनमत तैयार करने के लिए मैदान खुला था। लेकिन उन्होंने एक बार फिर भीड़ की राजनीति का सहारा लेने का फैसला किया। उन्होंने एलान किया कि २९ जून से लाखों लोग इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग करते हुए प्रधानमंत्री निवास पर घेरा डाल देंगे। साथ ही जेपी ने सशस्त्र बलों से सरकार का आदेश मानने के बजाय अंतरात्मा की आवाज सुनने की अपील, जिसे सरकारी हलकों में बगावत की अपील माना गया।
इसके बाद इंदिरा गांधी के पास सिर्फ दो रास्ते थे- या तो वे इस्तीफा दे देतीं या फिर पलटकर वार करतीं। बिपन चंद्रा ने इमरजेंसी पर लिखी अपनी किताब इन द नेम ऑफ डेमोक्रेसी में बलराज पुरी के इस कथन का हवाला दिया है कि अगर आप बिल्ली को भगाना चाहते हैं तो घर में कोई एक रास्ता खुला छोड़ दीजिए। वरना, बिल्ली आप पर ही वार करेगी। जेपी और तब के विपक्षी नेताओं ने तब इंदिरा गांधी की कुछ ऐसी ही घेराबंदी की, जिसमें उनके पास सिर्फ दो विकल्प छोड़े गए। नतीजतन, देश को एक अंधेरे दौर से १९ महीनों तक गुजरना पड़ा।
इस पूरे घटनाक्रम का सबक यही है कि लोकतंत्र में न सिर्फ सरकार, बल्कि विपक्ष और आम नागरिकों को भी लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का पालन जरूर करना चाहिए। आंदोलन होने चाहिए, लेकिन उनकी सुपरिभाषित मांगें होनी चाहिए, जिस पर सरकार या प्रशासन बात हो सके। अगर बातचीत नाकाम रहे तो आंदोलनकारी समूहों को विरोध के शांतिपूर्ण सभी तरीकों का सहारा जरूर लेना चाहिए और अपने पक्ष में जनमत तैयार करना चाहिए। सरकार को जनमत का आदर करना चाहिए। इसके बावजूद टकराव जारी रहा तो अंत में सभी राजनीति टकरावों का फैसला चुनाव से होना चाहिए।
अगर १९७५ में सरकार, विपक्ष और आम असंतुष्ट नागरिकों की भावनाओं को आवाज दे रहे जेपी इन सिद्धांतों का पालन करते तो शायद इमरजेंसी नहीं लगती, आम लोगों पर बहुत सी ज्यादतियां नहीं होतीं, और इमरजेंसी विरोधी भावना का फायदा उठाकर सांप्रदायिक फासीवादी शक्तियों ने जो प्रतिष्ठा और ताकत पा ली, वह नहीं होता। इन शक्तियों ने फिलहाल देश पर इमरजेंसी का जो स्थायी खतरा बना रखा है, शायद वह भी नहीं होता। बहरहाल, जो हो गया, उसे पलटा नहीं जा सकता, मगर उससे सबक जरूर लिया जा सकता है।
इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के तीन दशक बाद अब राज्य-व्यवस्था इतनी विकेंद्रित हो चुकी है कि देश में किसी एक नेता की तानाशाही का खतरा नहीं है। लेकिन देश पर सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद की तानाशाही का खतरा जरूर मंडरा रहा है। चूंकि इस खतरे के साथ एक पूरा समूह औऱ फासीवादी विचारधारा जुड़ी हुई है, इसलिए यह खतरा कहीं गंभीर है। इमरजेंसी की सालगिरह पर इसके प्रति जागरूक रहना औऱ इससे हर स्तर पर लड़ने के लिए अपने को तैयार करना भी उस इमरजेंसी का एक अहम सबक है, जिसकी अनदेखी हम अपने संविधान, मूल अधिकारों और तमाम आधुनिक मूल्यों की कीमत पर ही कर सकते हैं।

कौन तय कर रहा है पत्रकारिता का मक़सद?

पत्रकारिता का मकसद एक पुरानी बहस का मुद्दा है। प्रेस का इजाद होने के बाद जब से पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, ये सवाल भी उठे कि आख़‍िर इनका मक़सद क्या है? इस बहस के परिणामस्वरूप मोटे तौर पर यह समझ बनी कि समाज को सूचना देना, उसे शिक्षित करना और उसका मनोरंजन पत्रकारिता के मक़सद हैं। विभिन्न समाजों में लोकतंत्र के मज़बूत होने और उसमें प्रेस की भूमिका महत्त्वपूर्ण होते जाने से यह माना जाने लगा कि देश का एजेंडा तय करना भी समाचार माध्यमों की ज़‍िम्मेदारी है। दुनिया भर में मीडिया को परखने की आज भी यही कसौटियां हैं। दुनिया भर में समाचार माध्यमों के संचालक आज भी यह दावा करते हैं कि वे इस ज़‍िम्मेदारी को निभा रहे हैं। प्रश्न है कि इस दावे में कितना दम है?

हम बात भारत तक सीमित रखते हैं। भारत उन देशों में है जहां प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का तेज़ी से प्रसार हो रहा है। अख़बारों की प्रसार संख्या बढ़ रही है और टेलीविज़न पर न्यूज चैनलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। अख़बारों को नये पाठक मिलना विकसित समाजों के विपरीत परिघटना है। अमेरिका और यूरोप में इंटरनेट ने अख़बारों के लिए एक गंभीर चुनौती पेश की है। वहां इंटरनेट नौजवान पीढ़ी के लिए सूचना पाने का प्रमुख जरिया बन गया है, नतीजा है कि अख़बारों की प्रसार संख्या गिर रही है। भारत में इंटरनेट की सीमित पहुंच, इस पर देशी भाषाओं में सूचना की कमी और नव साक्षरों की बढ़ती संख्या की वजह से अख़बारों के सामने वैसा संकट नहीं है। इसलिए यहां प्रिंट मीडिया में खुशहाली है। अर्थव्यवस्था में तेज़ विकास दर और बेहतर भविष्य के अनुमानों की वजह से विज्ञापन के बाज़ार में लगातार ज़्यादा पैसा आ रहा है, और इससे प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया के लिए संसाधानों की उपलब्धता बढ़ती जा रही है। लेकिन इसी से वह सवाल ज़्यादा पेचीदा होता जा रहा है, जिसे उठाते हुए हमने बात शुरू की। यानी यह कि क्या मीडिया उस जिम्मेदारी को ठीक से निभा रहा है, जो परंपरागत रूप से उसकी मानी जाती है?

यहां परंपरागत रूप का मतलब यह नहीं समझा जाना चाहिए कि हम किसी ऐसे रूमानी अतीत की बात कर रहे हैं, जिसके बारे में मनोगत ढंग से यह सोचा जाए कि उस दौर में पत्रकारिता का कारोबार किसी मिशन से संचालित था। हर दौर में मिशन की पत्रकारिता सिर्फ वहां तक सीमित रही, जब कोई पत्र या पत्रिका को किसी विचारधारा से जुड़े संगठन ने निकाला। उस पत्रकारिता का पैगाम उस संगठन के विचारों या पूर्वाग्रहों से तय होता रहा है। ऐसी पत्रकारिता आज भी हो रही है। लेकिन यहां हम इसकी बात नहीं कर रहे हैं। हम बात उस पत्रकारिता की कर रहे हैं जो एक पेशे के रूप में की जाती है। इसमें एक बड़ा निवेश होता है और निवेशक का मक़सद मुनाफा कमाना (साथ ही राजनीतिक-सामाजिक प्रभाव बनाना) होता है। इस क़ारोबार में नौकरी पाने वाले पेशेवर पत्रकारों का मक़सद अपनी जीविका चलाना होता है। बौद्धिक हलकों में चली लंबी बहस में यह माना गया कि इस पत्रकारिता को अपने इस मक़सद के साथ ही उस ज़‍िम्मेदारी को भी निभाना चाहिए, जिसकी ऊपर चर्चा की गयी है। इसलिए कि जो उत्पाद मनुष्य के दिमाग की खूराक है, जो उसके सोच पर असर डालता है, वह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में समाज के व्यापक उद्देश्यों से अलग नहीं हो सकता। बल्कि उसको इन उद्देश्यों को हासिल करने में मददगार बनना चाहिए।

इसीलिए एक दौर में सरकार ने प्रेस लगाने के लिए ख़ास सुविधाएं दीं। साथ ही प्रेस के निजी क्षेत्र में होने के बावजूद इसके कर्मचारियों के लिए वेतन बोर्ड बने और उन्हें एक न्यूनतम सेवा शर्तें देने की सरकार के स्तर पर कोशिश हुई। साथ ही प्रेस के लिए आचार संहिता बनी और उस पर निगरानी के लिए प्रेस परिषद जैसी संस्थाएं गठित की गयीं। यानी प्रेस के लिए ख़ास सुविधाएं मिलीं, तो उससे यह अपेक्षा भी की गयी कि वह एक व्यापक उद्देश्य को ध्यान में रख कर काम करे। यह विवाद का विषय है कि उस दौर में भी प्रेस इन अपेक्षाओं पर कितना खरा उतरा? वह किन सामाजिक उद्देश्यों से संचालित हुआ और बाज़ार ने उसके उद्देश्यों को कितना प्रभावित किया?

जब बात हम बाज़ार की करते हैं, तो इसमें मीडिया का लक्ष्य समूह (पाठक या दर्शक) और विज्ञापनदाता दोनों शामिल रहते हैं। इन दोनों का एक दूसरे से गहरा नाता है और जिसे हम मीडिया कहते हैं, वह इन दोनों के बीच संपर्क का माध्यम बनता है। यह बाज़ार की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, और इस पर किसी को शायद कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए। एतराज़ तब उठता है, जब कोई समाचार माध्यम सिर्फ इन दोनों के बीच का माध्यम बन जाता है औऱ बाकी सभी चिंताओं को भुला देता है।

अख़बारों में इसीलिए संपादकीय सत्ता को अहमियत दी गयी थी। इसी सोच की वजह से जब अख़बार कर्मचारियों के लिए वेतन बोर्ड बनते हैं, तो उसमें पत्रकारों का मेहनताना तय करने की अलग कसौटी अपनायी जाती है और उनके लिए ख़ास सुविधाओं का प्रावधान होता है। माना यह जाता है कि पत्रकार, ख़ासकर जो संपादक के दर्जे पर हैं, वे समाज के व्यापक उद्देश्यों और निवेशक के क़ारोबारी उद्देश्यों के बीच एक संतुलन बनाये रखेंगे। इस तरह मीडिया के मालिक के मुनाफे का मक़सद और समाज को सूचना, शिक्षा औऱ स्वस्थ मनोरंजन मिलने का मक़सद- दोनों पूरा होता रहेगा। अगर कोई समाचार माध्यम इसमें सफल रहते हुए अपनी प्रभावशाली हैसियत बना सका तो वह देश का एजेंडा तय करने में भी अपनी भूमिका निभा सकेगा।

आज के दौर में भी ऐसे समाचार माध्यम हमारे बीच मौजूद हैं। हम कह सकते हैं कि वे अपना सामाजिक दायित्व निभा रहे हैं। लेकिन संकट यह है कि ऐसे माध्यम अब गिने-चुने रह गये हैं। मीडिया के ज़्यादा बड़े हिस्से पर अब पूरी तरह बाज़ार का तर्क हावी हो गया है। इससे कारपोरेट मीडिया का एक ऐसा स्वरूप उभरा है, जिसमें अपने बाज़ार से बाहर झांकने की इच्छाशक्ति खत्म हो गयी है। इसीलिए इस मीडिया में पूरे देश की चिंताएं नहीं झलकतीं, इसमें उन लोगों की पीड़ा और समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं है, जो उसके बाज़ार का हिस्सा नहीं हैं। इसमें उन मुद्दों और सवालों की कोई अहमियत नहीं है, जो भले देश और व्यापक समाज के लिए महत्त्वपूर्ण हों, लेकिन जिनका संबंधित मीडिया के बाज़ार से सीधा नाता नहीं है।

समझने करने की बात यह है कि मौजूदा कारपोरेट मीडिया किस तर्क से संचालित होता है? यह सीधे उस समूह को संबोधित करता है, जो उसका लक्ष्य है। उसकी चिंताएं, उसके पूर्वाग्रह, उसके आर्थिक-सामाजिक हित और उसकी पसंद-नापसंद को पूरे समाज, बल्कि पूरी दुनिया के सच के रूप में पेश किया जाता है। यह कोशिश छोड़ दी गयी है कि उस समूह यह बताया जाए कि आख़‍िर पूरी दुनिया किन मसलों में उलझी हुई है और कैसे एक बेहतर दुनिया बनायी जा सकती है। जाहिर है, यहां सूचना का संदर्भ बेहद सीमित हो गया है और शिक्षित करने की बात सिरे से ग़ायब है। मनोरंजन जरूर बाकी सभी बातों पर हावी होता गया है।

अब सवाल है कि आख़‍िर समाचार माध्यम अपने इस लक्ष्य समूह का चयन किस आधार पर कर रहे हैं? क्या यह उनके स्वतंत्र विवेक से तय होता है? दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। इसके पीछे सीधे विज्ञापनदाताओं की प्राथमिकताएं हैं। विज्ञापनदाताओं के लिए वे तबक़े अहम हैं, जो उनके उत्पाद ख़रीद सकें। एक कार बेचने वाली कंपनी के लिए उन लोगों का कोई महत्त्व नहीं है, जो कार खरीदने की हैसियत में न हों। उसका बाज़ार सिर्फ समृद्ध लोग हैं। इसलिए वह उन्हीं लोगों से संवाद बनाना चाहती है। वह इसी आधार पर अपने माध्यम का चुनाव करती है। जाहिर है, ऐसा माध्यम बनने के लिए पूरे मीडिया में होड़ लगी हुई है। तो बात इस पर आ जाती है कि समृद्ध लोग क्या पढ़ना या देखना चाहते हैं, और उनके बीच कैसे पैठ बनायी जाए।

इसके लिए मीडिया अपना स्वरूप बदलता है, और वह लगातार उसके हितों की वक़ालत का माध्यम बन जाता है। इसीलिए महानगरों के बड़े लोगों (पूंजीपति, प्रोफेशनल्स, नौकरशाह, उच्च मध्य वर्ग के दूसरे हिस्से) के सोच और उनकी पसंद-नापसंद ज़्यादातर अख़बारों एवं न्यूज चैलनों के लिए सबसे ज़्यादा अहम हो गयी है। यहां बिना ज़्यादा दिमाग खपाये हम देख सकते हैं कि इस कॉरपोरेट मीडिया का स्वरूप कौन तय कर रहा है। यानी हक़ीकत यह है कि संपादक और दूसरे पत्रकारों की इसमें भूमिका लगभग खत्म हो गयी है। ये भूमिका कॉरपोरेट की दुनिया के कर्ता-धर्ताओं के हाथ में चली गयी है।

आज के दौर में जब मीडिया की बात करते हैं, तो इस पहलू को ज़रूर में ध्यान में रखना चाहिए। असली बात यह है कि मीडिया के सवाल को पूरे समाज की वर्ग संरचना से अलग कर नहीं देखा जा सकता। यह बात लगातार साफ होती जा रही है कि कोई भी मीडिया सबका नहीं है। वह एक तबक़े या एक जैसे हितों वाले कुछ तबक़ों का माध्यम है। तीखे होते सामाजिक अंतर्विरोधों के बीच कॉरपोरेट मीडिया लगातार दक्षिणपंथी और कई मामलों में जन विरोधी होता गया है। टीवी कैमरों की जगमग और अख़बारों की बढती चमक-दमक से इस सच्चाई को छिपाया नहीं जा सकता। अगर जनतंत्र और आम जन के हितों की बात की जाए तो प्रगतिशील एवं लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए यह सवाल लगातार ज्यादा प्रासंगिक होता जा रहा है कि वो अपने बीच संवाद, संपर्क और सूचना के माध्यम कैसे विकसित करें।