सत्येंद्र रंजन
समय से पहले लोकसभा चुनाव में उतरने की गणना में लगी कांग्रेस पार्टी के सामने एक बड़ा सवाल बहुजन समाज पार्टी की चुनौती है। कुछ महीने पहले दिल्ली नगर निगम के चुनाव में बसपा ने यह दिखा दिया कि कैसे अब वह उत्तर प्रदेश से बाहर भी एक राजनीतिक ताकत है और उसके बढ़ते कदम का सीधा नुकसान कांग्रेस को हो सकता है, जो पहले दलित और पिछड़े समुदायों के वोट पाती रही है। अब मायावती गुजरात में भी दांव आजमाने को तैयार हैं और महाराष्ट्र में वे एक बड़ा असर डाल सकती हैं, इस पर चुनावी राजनीति के जानकार एकमत हैं।
उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने के बाद मायावती ने बतौर प्रशासक एक खास छाप छोड़ी है। उन्होंने देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने रिलायंस को अपने रिटेल स्टोर समेटने पर मजबूर कर दिया है औऱ इस तरह खुदरा कारोबारियों में अपने लिए सद्भावना पैदा की है। मुलायम सिंह के जमाने में पुलिस में हुई नियुक्तियों की जांच कराई है, बड़ी संख्या में न सिर्फ इन नियुक्तियों को रद्द कर दिया गया है, बल्कि इनके लिए जिम्मेदार बड़े पुलिस अफसरों पर भी उन्होंने सख्त कार्रवाई की है। थानों में पुलिसकर्मियों की तैनाती में उन्होंने दलित और पिछड़े समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व देने का साहसी कदम उठाया है। निजी क्षेत्र में आरक्षण की एक ठोस नीति घोषित की है, जबकि केंद्र की यूपीए सरकार अभी इस बारे में अगर-मगर में ही फंसी हुई है। इनके अलावा मायवती ने छात्र संघ चुनावों पर रोक जैसे विवादास्पद फैसले भी लिए हैं, जिन्हें लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। बहरहाल, एक बात मायावती साफ करती गई हैं कि प्रशासन पर उनका पूरा नियंत्रण है और वे अपने राजनीतिक एजेंडे के मुताबिक शासन कर रही हैं।
दरअसल, पिछले मई में उत्तर प्रदेश में मायावती की जीत कई मायने में भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक अहम घटना रही। तब यह सवाल उठाया गया कि इतिहास ने मायावती को जो अवसर दिया है, क्या वे सचमुच खुद को उसके काबिल साबित कर पाएंगी? कहा गया कि अगर मायावती ने दूरदृष्टि, एवं न्यूनतम वैचारिक प्रतिबद्धता का परिचय दिया और उन ऊंचे आदर्शों को ध्यान में रखा जो बाबा साहेब अंबेडकर एवं बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांसीराम के संघर्षों से पैदा हुए, तो उनकी चुनावी उपलब्धि इतिहास में एक मील का पत्थर बन सकती है। अभी इस बारे में कोई फैसला नहीं दिया जा सकता। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि मायावती ने अच्छी शुरुआत की है।
उत्तर प्रदेश के चुनाव में मायावती की सफलता को इसलिए बेमिसाल उपलब्धि कहा गया क्योंकि यह पहला मौका था, जब दलित नेतृत्व में ऐसा सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन अपने दम पर सत्ता में आने में कामयाब हुआ। बसपा नेतृत्व और यूपी में उसने जो सामाजिक गठबंधन बनाया, उसमें कई खामियां बताई जा सकती हैं। मसलन, यह कहा जा सकता है कि नेतृत्व निजी महत्त्वाकांक्षाओं और सत्ता लिप्सा से प्रेरित है और जो सामाजिक गठबंधन बना वह अवसरवादी है। इसके बावजूद उस घटना के राजनीतिक और ऐतिहासिक महत्त्व की अनदेखी नहीं की जा सकती। बसपा ने दलितों की एकजुटता कड़ी मेहनत से हासिल की थी। चूंकि वह एकजुटता चुनावी सफलता के लिए काफी नहीं थी, इसलिए एक नया सामाजिक समीकरण बनाने के अलावा बसपा नेतृत्व के पास कोई और विकल्प नहीं था। इसमें सबसे अहम बात यही है कि यह मायावती ने जो सामाजिक गठबंधन बनाया, उसका नेतृत्व बिना किसी संदेह के उनके हाथ में ही रहा है।
सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई से जुड़े संगठनों में यह लंबे समय से बहस का मुद्दा रहा है कि जिसकी लड़ाई, उसका नेतृत्व कैसे स्थापित किया जाए। दलित और सबसे वंचित समूहों का नेतृत्व उभरे, यह आकांक्षा रही है। इन तबकों की वकालत करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों, अब इतिहास के पन्नों का हिस्सा बन चुके सोशलिस्ट आंदोलन और यहां तक कि नक्सली संगठनों में भी नेतृत्व मध्यवर्गीय और अधिकांश मौकों पर सवर्ण रहा है। यह बात कहने का मतलब इन पार्टियों या संगठनों के नेतृत्व की वैचारिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाना कतई नहीं है। लेकिन ये सवाल खुद इनके भीतर उठते रहे हैं कि आखिर कैसे सबसे उत्पीड़ित समूहों के भीतर से नेतृत्व पैदा किया जाए? यह सवाल इसलिए अहम है कि सामाजिक और आर्थिक समता की लड़ाई तब तक पूरी नहीं होगी, जब तक सबसे वंचित तबकों से उभरने वाला नेतृत्व सबसे अगली कतार में नहीं आएगा।
इसी लिहाज से बसपा की उपलब्धियां बेमिसाल हैं। यह पार्टी एक दलित नेता ने खड़ी की और उन्होंने दलितों के भीतर से अपनी उत्तराधिकारी का चुनाव किया। उस उत्तराधिकारी ने राजसत्ता पर लोकतांत्रिक ढंग से कब्जे का उनका सपना पूरा करने के लिए कारगर रणनीति बनाई और आज वो बिना किसी और की मेहरबानी के देश के सबसे बड़ी राज्य की मुख्यमंत्री हैं।
मई में जब चुनाव परिणाम आ रहे थे, तब एक अखबार में छपी एक खबर से यह संकेत मिला कि दलितों के लिए उस सफलता का क्या अर्थ है। उस खबर के मुताबिक जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आने लगे और मायावती आगे निकलने लगीं तो उनके एक समर्थक ने शराब पीनी शुरू कर दी। बसपा के आगे बढ़ते हर कदम के साथ वह मायावती जिंदाबाद के नारे लगाता रहा और शराब पीता रहा। इसके पहले कि मायावती को पूरा बहुमत मिलने की खबर आती, हर्षोन्माद ने उस व्यक्ति की जान ले ली। क्या ऐसी खुशी आज किसी और पार्टी की जीत पर उसके किसी समर्थक को हो सकती है?
ऐसा इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि मायावती की जीत के साथ करोड़ों दलितों का कोई आर्थिक या कारोबारी स्वार्थ नहीं जुड़ा हुआ था। बल्कि सदियों के शोषण से उनकी मुक्ति की उम्मीद जुड़ी हुई है। इसीलिए मायावती से उनकी ईमानदार भावनाएं जुड़ी हुई हैं। उनके लिए मायावती ऐसी प्रतीक हैं, जिसकी अहमियत समझना शायद किसी गैर दलित के लिए मुमकिन न हो। संभवतः दुनिया भर में दलितों से ज्यादा किसी और समुदाय के मानव अधिकारों और सम्मान का हनन नहीं हुआ है। आज जब दलित अपने सम्मान और अपने बुनियादी अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं, तब फिलहाल उनके लिए इससे बड़ी उपलब्धि कोई और नहीं हो सकती कि उनके वोट की ताकत से उनका नेता सत्ता में पहुंच जाए। इससे दलितों के प्रति प्रशासन एवं पुलिस के रुख और आम सामाजिक माहौल में जो बदलाव आएगा, यह कल्पना ही उनमें एक भरोसा भरती रही है, बल्कि उन्हें रोमांचित भी करती रही है।
इस नजरिए से मायावती का सत्ता में आना सामाजिक विकास की यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। चूंकि १६ साल बाद उत्तर प्रदेश में एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी तो मायावती से बहुत से लोगों ने विकास की बहुत सारी उम्मीदें जोड़ी। लेकिन यह वह विकास है, जो पारंपरिक शब्दावली के अर्थ में समझा जाता है। यानी ऐसी उम्मीदें कि एक स्थिर सरकार रहेगी तो बुनियादी ढांचे का विकास होगा, कल-कारखाने लगेंगे और आर्थिक खुशहाली का दौर आएगा। ये उम्मीदें बेवजह नहीं हैं। लेकिन इस पारंपरिक समझ से अलग एक और विकास है, जिसके लिए मायावती के सत्ता में आने से अवसर पैदा हुआ। अब नई समझ में मानव स्वतंत्रता को विकास का एक अहम पहलू माना जाता है। समाज में सबके लिए अपनी स्वतंत्रता को पाने और उसका पूरा उपयोग करने के कितने अवसर हैं, इसको विकास की एक कसौटी समझा जाता है। उत्तर प्रदेश के दलित और पिछड़े समुदायों को मायावती के राज में ऐसे अभूतपूर्व अवसर मिलने की उम्मीद जरूर पूरी होती दिखी है।
लेकिन मायावती के सामने यक्ष प्रश्न यह है कि क्या वे अब भी अगर अपना फायदा हो तो किसी भी पार्टी के साथ जाने की रणनीति पर चलती रहेंगी? उत्तर प्रदेश में उन्होंने इसके पहले जब तीन बार सरकार बनाई तो उन्होंने इसके लिए भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाया। २००२ में भाजपा का समर्थन बरकरार रखने की कोशिश में वे गुजरात में नरेंद्र मोदी तक का प्रचार करने चली गईं। इस तरह उन्होंने अपना और अपनी पार्टी का नाम उस पार्टी से जोड़ा जो भारतीय राजनीति में सामाजिक रूढ़िवाद और दक्षिणपंथ की नुमाइंदगी करती है और अपने मूल चरित्र में समता एवं जनतंत्र के खिलाफ है। अगर बसपा कहती है कि उसने सिर्फ अल्पकालिक रणनीति के तहत भाजपा से हाथ मिलाया तो असल में उनका समर्थन करने के पीछे भाजपा का भी यही मकसद था।
भाजपा और पूरे संघ परिवार की विचारधारा असल में मानवीय स्वतंत्रता को सीमित और नियंत्रित करने का उपक्रम है, और उसका मकसद समाज में जारी शोषण और गैर बराबरी को कायम रखना है। सवाल यह है कि इसका दलित आंदोलन के उद्देश्यों से क्या मेल हो सकता है? भारत में इस समय जब जनतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई आगे बढ़ रही है, उसी समय धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों की तरफ से देश की संवैधानिक व्यवस्था के लिए जोरदार चुनौतियां पैदा की जा रही हैं। हिंदू सांप्रदायिक-फासीवाद, इस्लामी आतंकवाद और सिख कट्टरपंथ के उग्र चेहरे हमारे सामने हैं। ऐसे में देश की सभी प्रगतिशील शक्तियों के सामने यह चुनौती है कि वे धर्मनिरपेक्षता को आस्था एवं न्यूनतम राष्ट्रीय सहमति का सवाल बनाए रखें। एक व्यापक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय सहमति के पक्ष में राजनीतिक बहुमत इस वक्त देश की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर यह कायम रहे तो दूसरे आर्थिक एवं सामाजिक सवालों के लिए अवसर मौजूद रहेंगे। वरना, पूरा विमर्श ऐसे प्रतिक्रियावादी और जन विरोधी सवालों में उलझ जाएगा, जिसके बीच प्रगति की राह धुंधली हो जाएगी। भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के समय हम ऐसे माहौल की झलक देख चुके हैं।
इसलिए बसपा के सामने यह सवाल है कि क्या वह इस व्यापक धर्मनिरपेक्ष सहमति के साथ रहेगी या इसकी अहमियत की अनदेखी करती रहेगी? यह सवाल सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संदर्भ में है। असल में बसपा की ताकत सिर्फ उत्तर प्रदेश में सीमित नहीं है। कुछ महीने पहले दिल्ली नगर निगम के चुनाव में कांग्रेस को जितनी बड़ी हार का समाना करना पड़ा उसकी बड़ी वजह बसपा रही। बसपा ने उन इलाकों में कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाई जो उसके सुरक्षित इलाके माने जाते थे। महाराष्ट्र से पंजाब तक बसपा कई चुनाव क्षेत्रों में ऐसी ताकत दिखा चुकी है। स्थानीय चुनावों में बसपा या कोई दूसरी पार्टी अपनी ताकत में इजाफा और प्रभाव क्षेत्र में प्रसार करे, यह लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा है। लेकिन सवाल है कि क्या राष्ट्रीय चुनाव में बसपा इसी भूमिका में रहेगी, जब दांव पर कहीं बड़े मुद्दे लगे होंगे?
उत्तर प्रदेश में बसपा ने सवर्ण जातियों, खासकर ब्राह्मणों को अपनी राजनीतिक योजना का हिस्सा बनाकर नई सोच का परिचय दिया। उसने यह भी दिखाया है कि जब वह कोई नई सोच लेकर आती है तो उस पर अमल भी करती है, और उसकी बातों पर लोग भरोसा करते हैं। इसीलिए बसपा की जीत ने देश के प्रगतिशील खेमे में नई उम्मीदें पैदा की। बसपा की जीत का एक परिणाम यह भी हुआ कि भाजपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में लगभग अप्रासंगिक हो गई। वह महज १२० सीटों पर ही पहले या दूसरे नंबर पर रही। यानी २८० से भी ज्यादा सीटों पर वह मुकाबले में भी नहीं रही। इससे दिल्ली की गद्दी पर उसका दावा कमजोर जरूर हुआ। लेकिन उसकी वापसी आज भी मुमकिन है।
इसलिए देश की प्रगतिशील शक्तियां बसपा से यह उम्मीद जरूर करेंगी कि जैसे उसने उत्तर प्रदेश में सामाजिक गठबंधन बनाया, वैसे ही वह राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक गठबंधन बनाने की राजनीतिक बुद्धि और उदारता दिखाए। जाहिर है, वैचारिक आधार पर यह गठबंधन धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के साथ ही बन सकता है। यहां यह बात जरूर है कि ऐसे गठबंधन की सारी जिम्मेदारी मायावती पर नहीं है। इसके लिए कांग्रेस, यूपीए के बाकी दलों और वामपंथी पार्टियों को भी वैसी समझ और उदारता दिखानी होगी। अगर ये सभी दल भारत की इस ऐतिहासिक जरूरत को समझ सके तो निश्चित रूप से देश को फिलहाल एक बड़े खतरे से बचाया जा सकता है।
मायावती के सामने दूसरा बड़ा सवाल आर्थिक नीतियों का है। कांसीराम के जमाने में बसपा चुनाव घोषणापत्र जारी नहीं करती थी। कांसीराम का मानना था कि राजसत्ता पर कब्जे के बाद उनकी पार्टी बहुजन के हित में नीतियां बना लेगी। मायावती ने बहुजन से सर्वजन की यात्रा पूरी कर ली है और इस सफर से वे लखनऊ की गद्दी पर हैं। क्या अब भी उन्हें दलित आंदोलन के लिए संपूर्ण आर्थिक एजेंडे की जरूरत महसूस नहीं होती? या उन्हें जैसी स्थिति हो, वैसे फैसले की नीति ही माफिक लगती है?
बहरहाल, यह बात पूरे यकीन के साथ कही जा सकती है कि अब ऐसे एजेंडे की अनदेखी वो सिर्फ अपने नुकसान की कीमत पर ही कर सकती हैं। आत्म सम्मान की लड़ाई का एक संदर्भ है, लेकिन इसकी एक सीमा है। इसके बाद राजनीति को खड़ा करने के लिए आर्थिक विचारधारा और ठोस कार्यक्रमों की जरूरत निश्चित तौर पर होती है। मायावती अब इस तरफ सोचकर और ऐसे कार्यक्रम का खाका पेश कर ही दलित आंदोलन को संपूर्णता दे सकती हैं, औऱ साथ ही खुद को एक दृष्टि-संपन्न नेता के बतौर उभार सकती हैं।
दरअसल उत्तर प्रदेश की सत्ता में आना मायावती के लिए अंतिम मुकाम नहीं होना चाहिए। दोहराव के जोखिम के बावजूद यह कहने की जरूरत है कि उनके सामने अब सबसे बडी चुनौती संवैधानिक जनतंत्र की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजबूत करने और दलित आंदोलन का आर्थिक एजेंडा पेश करने की है। अगर वे ऐसा नहीं कर सकीं तो वे एक बड़ा ऐतिहासिक मौका खो देंगी। यह उनके और भारतीय लोकतंत्र दोनों के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
समय से पहले लोकसभा चुनाव में उतरने की गणना में लगी कांग्रेस पार्टी के सामने एक बड़ा सवाल बहुजन समाज पार्टी की चुनौती है। कुछ महीने पहले दिल्ली नगर निगम के चुनाव में बसपा ने यह दिखा दिया कि कैसे अब वह उत्तर प्रदेश से बाहर भी एक राजनीतिक ताकत है और उसके बढ़ते कदम का सीधा नुकसान कांग्रेस को हो सकता है, जो पहले दलित और पिछड़े समुदायों के वोट पाती रही है। अब मायावती गुजरात में भी दांव आजमाने को तैयार हैं और महाराष्ट्र में वे एक बड़ा असर डाल सकती हैं, इस पर चुनावी राजनीति के जानकार एकमत हैं।
उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने के बाद मायावती ने बतौर प्रशासक एक खास छाप छोड़ी है। उन्होंने देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने रिलायंस को अपने रिटेल स्टोर समेटने पर मजबूर कर दिया है औऱ इस तरह खुदरा कारोबारियों में अपने लिए सद्भावना पैदा की है। मुलायम सिंह के जमाने में पुलिस में हुई नियुक्तियों की जांच कराई है, बड़ी संख्या में न सिर्फ इन नियुक्तियों को रद्द कर दिया गया है, बल्कि इनके लिए जिम्मेदार बड़े पुलिस अफसरों पर भी उन्होंने सख्त कार्रवाई की है। थानों में पुलिसकर्मियों की तैनाती में उन्होंने दलित और पिछड़े समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व देने का साहसी कदम उठाया है। निजी क्षेत्र में आरक्षण की एक ठोस नीति घोषित की है, जबकि केंद्र की यूपीए सरकार अभी इस बारे में अगर-मगर में ही फंसी हुई है। इनके अलावा मायवती ने छात्र संघ चुनावों पर रोक जैसे विवादास्पद फैसले भी लिए हैं, जिन्हें लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। बहरहाल, एक बात मायावती साफ करती गई हैं कि प्रशासन पर उनका पूरा नियंत्रण है और वे अपने राजनीतिक एजेंडे के मुताबिक शासन कर रही हैं।
दरअसल, पिछले मई में उत्तर प्रदेश में मायावती की जीत कई मायने में भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक अहम घटना रही। तब यह सवाल उठाया गया कि इतिहास ने मायावती को जो अवसर दिया है, क्या वे सचमुच खुद को उसके काबिल साबित कर पाएंगी? कहा गया कि अगर मायावती ने दूरदृष्टि, एवं न्यूनतम वैचारिक प्रतिबद्धता का परिचय दिया और उन ऊंचे आदर्शों को ध्यान में रखा जो बाबा साहेब अंबेडकर एवं बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांसीराम के संघर्षों से पैदा हुए, तो उनकी चुनावी उपलब्धि इतिहास में एक मील का पत्थर बन सकती है। अभी इस बारे में कोई फैसला नहीं दिया जा सकता। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि मायावती ने अच्छी शुरुआत की है।
उत्तर प्रदेश के चुनाव में मायावती की सफलता को इसलिए बेमिसाल उपलब्धि कहा गया क्योंकि यह पहला मौका था, जब दलित नेतृत्व में ऐसा सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन अपने दम पर सत्ता में आने में कामयाब हुआ। बसपा नेतृत्व और यूपी में उसने जो सामाजिक गठबंधन बनाया, उसमें कई खामियां बताई जा सकती हैं। मसलन, यह कहा जा सकता है कि नेतृत्व निजी महत्त्वाकांक्षाओं और सत्ता लिप्सा से प्रेरित है और जो सामाजिक गठबंधन बना वह अवसरवादी है। इसके बावजूद उस घटना के राजनीतिक और ऐतिहासिक महत्त्व की अनदेखी नहीं की जा सकती। बसपा ने दलितों की एकजुटता कड़ी मेहनत से हासिल की थी। चूंकि वह एकजुटता चुनावी सफलता के लिए काफी नहीं थी, इसलिए एक नया सामाजिक समीकरण बनाने के अलावा बसपा नेतृत्व के पास कोई और विकल्प नहीं था। इसमें सबसे अहम बात यही है कि यह मायावती ने जो सामाजिक गठबंधन बनाया, उसका नेतृत्व बिना किसी संदेह के उनके हाथ में ही रहा है।
सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई से जुड़े संगठनों में यह लंबे समय से बहस का मुद्दा रहा है कि जिसकी लड़ाई, उसका नेतृत्व कैसे स्थापित किया जाए। दलित और सबसे वंचित समूहों का नेतृत्व उभरे, यह आकांक्षा रही है। इन तबकों की वकालत करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों, अब इतिहास के पन्नों का हिस्सा बन चुके सोशलिस्ट आंदोलन और यहां तक कि नक्सली संगठनों में भी नेतृत्व मध्यवर्गीय और अधिकांश मौकों पर सवर्ण रहा है। यह बात कहने का मतलब इन पार्टियों या संगठनों के नेतृत्व की वैचारिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाना कतई नहीं है। लेकिन ये सवाल खुद इनके भीतर उठते रहे हैं कि आखिर कैसे सबसे उत्पीड़ित समूहों के भीतर से नेतृत्व पैदा किया जाए? यह सवाल इसलिए अहम है कि सामाजिक और आर्थिक समता की लड़ाई तब तक पूरी नहीं होगी, जब तक सबसे वंचित तबकों से उभरने वाला नेतृत्व सबसे अगली कतार में नहीं आएगा।
इसी लिहाज से बसपा की उपलब्धियां बेमिसाल हैं। यह पार्टी एक दलित नेता ने खड़ी की और उन्होंने दलितों के भीतर से अपनी उत्तराधिकारी का चुनाव किया। उस उत्तराधिकारी ने राजसत्ता पर लोकतांत्रिक ढंग से कब्जे का उनका सपना पूरा करने के लिए कारगर रणनीति बनाई और आज वो बिना किसी और की मेहरबानी के देश के सबसे बड़ी राज्य की मुख्यमंत्री हैं।
मई में जब चुनाव परिणाम आ रहे थे, तब एक अखबार में छपी एक खबर से यह संकेत मिला कि दलितों के लिए उस सफलता का क्या अर्थ है। उस खबर के मुताबिक जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आने लगे और मायावती आगे निकलने लगीं तो उनके एक समर्थक ने शराब पीनी शुरू कर दी। बसपा के आगे बढ़ते हर कदम के साथ वह मायावती जिंदाबाद के नारे लगाता रहा और शराब पीता रहा। इसके पहले कि मायावती को पूरा बहुमत मिलने की खबर आती, हर्षोन्माद ने उस व्यक्ति की जान ले ली। क्या ऐसी खुशी आज किसी और पार्टी की जीत पर उसके किसी समर्थक को हो सकती है?
ऐसा इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि मायावती की जीत के साथ करोड़ों दलितों का कोई आर्थिक या कारोबारी स्वार्थ नहीं जुड़ा हुआ था। बल्कि सदियों के शोषण से उनकी मुक्ति की उम्मीद जुड़ी हुई है। इसीलिए मायावती से उनकी ईमानदार भावनाएं जुड़ी हुई हैं। उनके लिए मायावती ऐसी प्रतीक हैं, जिसकी अहमियत समझना शायद किसी गैर दलित के लिए मुमकिन न हो। संभवतः दुनिया भर में दलितों से ज्यादा किसी और समुदाय के मानव अधिकारों और सम्मान का हनन नहीं हुआ है। आज जब दलित अपने सम्मान और अपने बुनियादी अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं, तब फिलहाल उनके लिए इससे बड़ी उपलब्धि कोई और नहीं हो सकती कि उनके वोट की ताकत से उनका नेता सत्ता में पहुंच जाए। इससे दलितों के प्रति प्रशासन एवं पुलिस के रुख और आम सामाजिक माहौल में जो बदलाव आएगा, यह कल्पना ही उनमें एक भरोसा भरती रही है, बल्कि उन्हें रोमांचित भी करती रही है।
इस नजरिए से मायावती का सत्ता में आना सामाजिक विकास की यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। चूंकि १६ साल बाद उत्तर प्रदेश में एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी तो मायावती से बहुत से लोगों ने विकास की बहुत सारी उम्मीदें जोड़ी। लेकिन यह वह विकास है, जो पारंपरिक शब्दावली के अर्थ में समझा जाता है। यानी ऐसी उम्मीदें कि एक स्थिर सरकार रहेगी तो बुनियादी ढांचे का विकास होगा, कल-कारखाने लगेंगे और आर्थिक खुशहाली का दौर आएगा। ये उम्मीदें बेवजह नहीं हैं। लेकिन इस पारंपरिक समझ से अलग एक और विकास है, जिसके लिए मायावती के सत्ता में आने से अवसर पैदा हुआ। अब नई समझ में मानव स्वतंत्रता को विकास का एक अहम पहलू माना जाता है। समाज में सबके लिए अपनी स्वतंत्रता को पाने और उसका पूरा उपयोग करने के कितने अवसर हैं, इसको विकास की एक कसौटी समझा जाता है। उत्तर प्रदेश के दलित और पिछड़े समुदायों को मायावती के राज में ऐसे अभूतपूर्व अवसर मिलने की उम्मीद जरूर पूरी होती दिखी है।
लेकिन मायावती के सामने यक्ष प्रश्न यह है कि क्या वे अब भी अगर अपना फायदा हो तो किसी भी पार्टी के साथ जाने की रणनीति पर चलती रहेंगी? उत्तर प्रदेश में उन्होंने इसके पहले जब तीन बार सरकार बनाई तो उन्होंने इसके लिए भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाया। २००२ में भाजपा का समर्थन बरकरार रखने की कोशिश में वे गुजरात में नरेंद्र मोदी तक का प्रचार करने चली गईं। इस तरह उन्होंने अपना और अपनी पार्टी का नाम उस पार्टी से जोड़ा जो भारतीय राजनीति में सामाजिक रूढ़िवाद और दक्षिणपंथ की नुमाइंदगी करती है और अपने मूल चरित्र में समता एवं जनतंत्र के खिलाफ है। अगर बसपा कहती है कि उसने सिर्फ अल्पकालिक रणनीति के तहत भाजपा से हाथ मिलाया तो असल में उनका समर्थन करने के पीछे भाजपा का भी यही मकसद था।
भाजपा और पूरे संघ परिवार की विचारधारा असल में मानवीय स्वतंत्रता को सीमित और नियंत्रित करने का उपक्रम है, और उसका मकसद समाज में जारी शोषण और गैर बराबरी को कायम रखना है। सवाल यह है कि इसका दलित आंदोलन के उद्देश्यों से क्या मेल हो सकता है? भारत में इस समय जब जनतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई आगे बढ़ रही है, उसी समय धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों की तरफ से देश की संवैधानिक व्यवस्था के लिए जोरदार चुनौतियां पैदा की जा रही हैं। हिंदू सांप्रदायिक-फासीवाद, इस्लामी आतंकवाद और सिख कट्टरपंथ के उग्र चेहरे हमारे सामने हैं। ऐसे में देश की सभी प्रगतिशील शक्तियों के सामने यह चुनौती है कि वे धर्मनिरपेक्षता को आस्था एवं न्यूनतम राष्ट्रीय सहमति का सवाल बनाए रखें। एक व्यापक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय सहमति के पक्ष में राजनीतिक बहुमत इस वक्त देश की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर यह कायम रहे तो दूसरे आर्थिक एवं सामाजिक सवालों के लिए अवसर मौजूद रहेंगे। वरना, पूरा विमर्श ऐसे प्रतिक्रियावादी और जन विरोधी सवालों में उलझ जाएगा, जिसके बीच प्रगति की राह धुंधली हो जाएगी। भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के समय हम ऐसे माहौल की झलक देख चुके हैं।
इसलिए बसपा के सामने यह सवाल है कि क्या वह इस व्यापक धर्मनिरपेक्ष सहमति के साथ रहेगी या इसकी अहमियत की अनदेखी करती रहेगी? यह सवाल सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संदर्भ में है। असल में बसपा की ताकत सिर्फ उत्तर प्रदेश में सीमित नहीं है। कुछ महीने पहले दिल्ली नगर निगम के चुनाव में कांग्रेस को जितनी बड़ी हार का समाना करना पड़ा उसकी बड़ी वजह बसपा रही। बसपा ने उन इलाकों में कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाई जो उसके सुरक्षित इलाके माने जाते थे। महाराष्ट्र से पंजाब तक बसपा कई चुनाव क्षेत्रों में ऐसी ताकत दिखा चुकी है। स्थानीय चुनावों में बसपा या कोई दूसरी पार्टी अपनी ताकत में इजाफा और प्रभाव क्षेत्र में प्रसार करे, यह लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा है। लेकिन सवाल है कि क्या राष्ट्रीय चुनाव में बसपा इसी भूमिका में रहेगी, जब दांव पर कहीं बड़े मुद्दे लगे होंगे?
उत्तर प्रदेश में बसपा ने सवर्ण जातियों, खासकर ब्राह्मणों को अपनी राजनीतिक योजना का हिस्सा बनाकर नई सोच का परिचय दिया। उसने यह भी दिखाया है कि जब वह कोई नई सोच लेकर आती है तो उस पर अमल भी करती है, और उसकी बातों पर लोग भरोसा करते हैं। इसीलिए बसपा की जीत ने देश के प्रगतिशील खेमे में नई उम्मीदें पैदा की। बसपा की जीत का एक परिणाम यह भी हुआ कि भाजपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में लगभग अप्रासंगिक हो गई। वह महज १२० सीटों पर ही पहले या दूसरे नंबर पर रही। यानी २८० से भी ज्यादा सीटों पर वह मुकाबले में भी नहीं रही। इससे दिल्ली की गद्दी पर उसका दावा कमजोर जरूर हुआ। लेकिन उसकी वापसी आज भी मुमकिन है।
इसलिए देश की प्रगतिशील शक्तियां बसपा से यह उम्मीद जरूर करेंगी कि जैसे उसने उत्तर प्रदेश में सामाजिक गठबंधन बनाया, वैसे ही वह राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक गठबंधन बनाने की राजनीतिक बुद्धि और उदारता दिखाए। जाहिर है, वैचारिक आधार पर यह गठबंधन धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के साथ ही बन सकता है। यहां यह बात जरूर है कि ऐसे गठबंधन की सारी जिम्मेदारी मायावती पर नहीं है। इसके लिए कांग्रेस, यूपीए के बाकी दलों और वामपंथी पार्टियों को भी वैसी समझ और उदारता दिखानी होगी। अगर ये सभी दल भारत की इस ऐतिहासिक जरूरत को समझ सके तो निश्चित रूप से देश को फिलहाल एक बड़े खतरे से बचाया जा सकता है।
मायावती के सामने दूसरा बड़ा सवाल आर्थिक नीतियों का है। कांसीराम के जमाने में बसपा चुनाव घोषणापत्र जारी नहीं करती थी। कांसीराम का मानना था कि राजसत्ता पर कब्जे के बाद उनकी पार्टी बहुजन के हित में नीतियां बना लेगी। मायावती ने बहुजन से सर्वजन की यात्रा पूरी कर ली है और इस सफर से वे लखनऊ की गद्दी पर हैं। क्या अब भी उन्हें दलित आंदोलन के लिए संपूर्ण आर्थिक एजेंडे की जरूरत महसूस नहीं होती? या उन्हें जैसी स्थिति हो, वैसे फैसले की नीति ही माफिक लगती है?
बहरहाल, यह बात पूरे यकीन के साथ कही जा सकती है कि अब ऐसे एजेंडे की अनदेखी वो सिर्फ अपने नुकसान की कीमत पर ही कर सकती हैं। आत्म सम्मान की लड़ाई का एक संदर्भ है, लेकिन इसकी एक सीमा है। इसके बाद राजनीति को खड़ा करने के लिए आर्थिक विचारधारा और ठोस कार्यक्रमों की जरूरत निश्चित तौर पर होती है। मायावती अब इस तरफ सोचकर और ऐसे कार्यक्रम का खाका पेश कर ही दलित आंदोलन को संपूर्णता दे सकती हैं, औऱ साथ ही खुद को एक दृष्टि-संपन्न नेता के बतौर उभार सकती हैं।
दरअसल उत्तर प्रदेश की सत्ता में आना मायावती के लिए अंतिम मुकाम नहीं होना चाहिए। दोहराव के जोखिम के बावजूद यह कहने की जरूरत है कि उनके सामने अब सबसे बडी चुनौती संवैधानिक जनतंत्र की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजबूत करने और दलित आंदोलन का आर्थिक एजेंडा पेश करने की है। अगर वे ऐसा नहीं कर सकीं तो वे एक बड़ा ऐतिहासिक मौका खो देंगी। यह उनके और भारतीय लोकतंत्र दोनों के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा।