Friday, November 5, 2010

अरुंधती को जवाब दें, लेकिन हमले से नहीं

सत्येंद्र रंजन

रुंधती राय अब संघ परिवार के निशाने पर हैं। भारतीय जनता महिला मोर्चा ने रविवार को दिल्ली में उनके घर पर तोड़फोड़ कर इसका सबूत दिया। बजरंग दल पहले ही एलान कर चुका है कि उसके कार्यकर्ता अब अरुंधती राय जहां जाएंगी, वहां विरोध जताएंगे। पूरी संभावना है कि यह विरोध बजरंग दल के जाने-पहचाने अंदाज में होगा। यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल ने एक प्रस्ताव पास कर यह कहा है कि कश्मीर के लिए “आजादी” की वकालत “राष्ट्र-द्रोह” से कम नहीं है। जाहिर है, यह प्रस्ताव अरुंधती राय के हाल में कश्मीर मसले में दिए गए बयानों के सिलसिले में ही है।

नतीजा यह है कि यह सारा विवाद लोकतांत्रिक विमर्श के मान्य तरीकों से बाहर चला गया है। अरुंधती राय के घर पर भारतीय जनता महिला मोर्चा की कार्यकर्ताओं ने जिस रूप में प्रदर्शन किया, उसे विरोध जताने का लोकतांत्रिक तरीका तो कतई नहीं कहा जा सकता। तोडफोड़ और हिंसा ऐसे विमर्श का हिस्सा नहीं हो सकते। ना ही वह विमर्श लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा होता है, जिसमें किसी को सीधे दोस्त या दुश्मन की श्रेणी में डाल दिया जाता है। लेकिन संघ परिवार के संगठनों का विमर्श और गतिविधियां ऐसी ही समझ के आधार पर चलती हैं और इसलिए अरुंधती राय के इस रूप में उनके निशाने पर आने में कोई हैरत की बात नहीं है।

इस घटना के बाद अरुंधती राय ने भारत सरकार को इस बात का श्रेय दिया है कि उसने उनके कश्मीर संबंधी बयानों के मामले में राजद्रोह का मामला न चलाने का फैसला कर एक हद तक “परिपक्वता” का परिचय दिया। लेकिन अब उन्हें शिकायत है कि उनके “विचारों के लिए उन्हें सजा देने” का का काम “दक्षिणपंथी उपद्रवियों” ने संभाल लिया है। निश्चित रूप से समाज के किसी समूह को ऐसे काम को अंजाम देने का अधिकार और सुविधा नहीं होनी चाहिेए और समाज के सभी लोकतांत्रिक एवं प्रगतिशील समूहों को ऐसी प्रवृत्तियों का पुरजोर विरोध करना चाहिए। लेकिन इन समूहों की यह जिम्मेदारी भी है कि वो अरुंधती राय अपने गैर-जिम्मेदार एवं अराजक बयानों और चरमपंथी समूहों के साथ मंच साझा कर न्याय की आवाज होने का जो भ्रम समाज में बनाती हैं, उसे न सिर्फ चुनौती दें, बल्कि उसके खोखलेपन को भी बेनकाब करें।

अरुंधती राय के पास सुविधा यह है कि वो जब चाहे “न्याय की आवाज” और जब चाहे लेखक के रूप में सामने आ जाती हैं। वो “न्याय की आवाज” होने की प्रतिष्ठा का उपभोग तो करना चाहती हैं, लेकिन उसकी कीमत नहीं चुकाना चाहतीं। नर्मदा मामले में कोर्ट की अवमाना के केस में जिस तरह जुर्माना चुका कर वे जेल से बाहर आ गई थीं, और उस मुद्दे पर व्यापक चर्चा जारी रहने का अवसर खत्म कर दिया था, वह आज भी लोगों को याद है। इस बीच चरमपंथी बातें कर वे उन समूहों को जरूर मोहित किए रहती हैं, जिन्हें दुनिया में सिर्फ भारत ही अकेला नाजायज राज्य नजर आता है। अरुंधती राय का प्रशंसक चरमपंथी बातों को ही सच समझने वाले लोगों का यही समूह है, जो “बड़े बांधों को एटम बम से भी ज्यादा खतरनाक”, माओवादियों को “बंदूकधारी गांधीवादी” और “कश्मीर के इतिहास में कभी भारत का हिस्सा ना होने” जैसी बातें और जुमले सुन कर तालियां बजाता है। लेकिन ये सारी बातें समाज और दुनिया के विकासक्रम की वास्तविक स्थिति, विवेक और तर्कसंगत विमर्श की अनदेखी कर कही जाती हैं। अरुंधती राय कश्मीर की “आजादी” की बात करते समय यह सवाल कभी नहीं उठाएंगी कि क्या कट्टरपंथी और धर्मांध संगठन, जिनकी बुनियाद में व्यक्ति की निजी आजादी और आधुनिक मूल्यों का हनन शामिल है, वे ही वहां “आजादी” का वाहक होंगे?

चूंकि अरुंधती राय ने एक किस्म के चरमपंथ और उग्रवाद का समर्थन किया है, तो उसकी प्रतिक्रिया में अब दूसरे तरह के चरमपंथी उन्हें “राष्ट्र-द्रोही” बता कर उनके खिलाफ मैदान में उतर गए हैं। यह एक ही तरह के विमर्श के दो छोर हैं, और लोकतंत्र एवं आधुनिक भारत के भविष्य के लिए ये दोनों ही समान रूप से हानिकारक या खतरनाक हैं। इनमें से किसी में उस स्तर की भी “परिपक्वता” नहीं झलकती, जितनी उनके “कश्मीरः आजादी ही एकमात्र रास्ता” वाले सेमीनार में उनके भाषणों के बाद खुद अरुंधती के शब्दों में भारत सरकार ने दिखाई है।

यह साफ है कि अरुंधती राय के घर पर भाजपा महिला मोर्चा ने प्रदर्शन सुनियोजित ढंग से किया और मीडिया में जो प्रचार हासिल करना उसका मकसद था, उसमें वह कामयाब रहा। लेकिन ऐसे विरोध से कुछ पार्टियों और संगठनों के अपनी सियासी मकसद भर हासिल हो सकते हैं। दूसरी तरफ इनसे जिन इलाकों या समूहों के बारे में अरुंधती राय जैसे लोग बोलने का दावा करते हैं, उनके बीच विपरीत प्रतिक्रिया भड़कने का अंदेशा भी रहता है। इसलिए यह अरुंधती राय के बयानों का सही जवाब नहीं है। इसका सही जवाब तार्किक और विवेकसम्मत विमर्श है, लेकिन इसे लोगों के सामने लाने में देश का लोकतांत्रिक जनमत अब तक नाकाम रहा है और इस वजह से दोनों तरफ के चरमपंथियों को मैदान खुला मिल गया है।

Sunday, October 10, 2010

कश्मीर में अब क्या करें?

सत्येंद्र रंजन

इए, सबसे पहले सच का सामना करें। सच यह है कि कश्मीर में भारत के लिए स्थितियां बेहद प्रतिकूल हैं। वहां की आबादी के एक बड़ा हिस्सा देश से विमुख है। यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन भारतीय संविधान के तहत उनके मसले हल होने की संभावना को लेकर जैसी हताशा आज जाहिर हो रही है, वैसी पहले कभी नहीं हुई। यह हताशा आम लोगों की है। यह सच कश्मीर गए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के सामने भी खुल कर उभरा। और साथ ही उसके सामने वो मांगें भी पेश हुईं, जिन्हें वहां के राजनीतिक संगठन कश्मीर मसले का हल बताते हैं।

अगर बारीकी से समाधान के इन विकल्पों पर गौर करें, तो मुख्य रूप से दो शब्द उभर कर सामने आते हैं- “आजादी” और “स्वायत्तता”। कुछ साल पहले पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने “स्वशासन” शब्द भी इसमें जोड़ा था, हालांकि सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की यात्रा के दौरान उसने “आउट ऑफ बॉक्स” यानी अभिनव समाधान की बात कही। “आजादी” की बात हुर्रियत कांफ्रेंस के दोनों गुट करते हैं। कट्टर इस्लामी नेता सईद अली शाह गिलानी और उनके समर्थकों के विमर्श पर गौर करें, तो “आजादी” का मतलब जम्मू-कश्मीर (या कम से कम कश्मीर घाटी) से भारत का हट जाना और फिर कश्मीर के लोगों को यह अधिकार मिलना है कि वे आजाद रहने या पाकिस्तान में मिल जाने के बारे में “आत्म-निर्णय” करें। वैसे गिलानी, मसरत आलम बट्ट, आसिया अंदराबी जैसे कट्टरपंथी भले ऐसे “आत्म-निर्णय” की बात करते हों, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा यही है कि कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। दूसरी तरफ मीरवाइज उमर फारूक जैसे “उदारवादी” हुर्रियत नेता, और यासिन मलिक एवं शब्बीर शाह जैसे अलगाववादी नेता हैं, जो बात तो उसी शब्दावली में करते हैं, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा में कश्मीर के “आजाद” रहने की मंशा ज्यादा जाहिर होती है। इन सभी नेताओं की राय में कश्मीर समस्या का हल भारतीय संविधान के दायरे में नहीं निकल सकता।

जम्मू-कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी भारतीय संसदीय राजनीति का हिस्सा हैं, जाहिर है उनका विमर्श भारत के संवैधानिक दायरे में रहता है। नेशनल कांफ्रेंस का एजेंडा 1952 से पहले की स्थिति की बहाली है, जब कश्मीर के मामलों में भारतीय संसद, सुप्रीम कोर्ट और अन्य संवैधानिक संस्थाओं का न्यूनतम दखल था। पीडीपी ने “स्वशासन” या “आउट ऑफ बॉक्स” समाधान की अपनी धारणा की कभी विस्तृत व्याख्या नहीं की, लेकिन यह समझा जाता है कि उसकी सोच नेशनल कांफ्रेंस से बहुत अलग नहीं होगी। वैसे जम्मू-कश्मीर में पक्ष कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और अन्य राजनीतिक समूह भी हैं। इनमें भारतीय जनता पार्टी की सोच उपरोक्त पक्षों द्वारा उठाई गई मांगों का पूर्णतः प्रतिवाद (एंटी-थीसीस) है। भाजपा तो संविधान की धारा 370 को भी खत्म करना चाहती है, जिससे जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा मिला हुआ है, लेकिन जिसके बारे में कश्मीरी पक्षों की शिकायत है कि गुजरते वर्षों के साथ जिसे बहुत कमजोर कर दिया गया है। इस धारा को कमजोर करने का आरोप अक्सर कांग्रेस पर रहा है। इसलिए वैचारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र की समर्थक होने के बावजूद व्यवहार यह पार्टी भी “कश्मीरी पक्ष” की एंटी-थीसीस के रूप में ही देखी जाती है।

कश्मीर में पहल और इस मसले के हल की चर्चा करते समय इस राजनीतिक संदर्भ को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। सवाल यह है कि क्या इस राजनीतिक संदर्भ में “कश्मीरी आकांक्षाओं” को पूरा किया जा सकता है? जाहिर है, इस सवाल के साथ यह अहम हो जाता है कि सबसे पहले इस बारे में ठोस समझ बनाई जाए कि आखिर ये “कश्मीरी आकांक्षाएं” हैं क्या? क्या “आजादी”, “स्वायत्तता” और “स्वशासन” की शब्दावली में इन्हें समझा जा सकता है? यहां हमें इस सच का भी सामना करना चाहिए कि दशकों से कश्मीर में ये शब्द प्रासंगिक बने रहे हैं और इसलिए इन्होंने वहां आम जन मानस में जगह बना ली है। कश्मीर में शांति और आम हालत कायम करने के लिए भारतीय राष्ट्र को किसी न किसी रूप में इन शब्दों के दायरे में सोचना होगा और ऐसी पहल करनी होगी, जिससे इन शब्दों से जुड़ी आम कश्मीरी भावनाओं से संवाद कायम हो सके।

प्रश्न यह है कि क्या इन शब्दों से भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का कोई विरोध है? क्या अपने सभी नागरिकों से “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय”, “विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता” और “व्यक्तिगत गरिमा” की सुरक्षा का वादा करने वाले “संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” भारत में ऐसे शब्दों पर नए संदर्भ में सोचने और उस पर सारे देश में सहमति पैदा करने की क्षमता नहीं है?

यहां इस बहस में यह पहलू जोड़ने की जरूरत है कि किसी शब्द का अर्थ गतिरुद्ध नहीं होता। वह बदलते समय और मानव के विकासक्रम और समाज की उन्नत होती चेतना के साथ विकसित होता रहता है। अगर “आजादी”, “स्वायत्तता” और “स्वशासन” को आधुनिक रूप में परिभाषित किया जाए, तो असल में ये शब्द कश्मीर के नाराज तबकों से संवाद में भारतीय राष्ट्र का पक्ष होने चाहिए। सवाल यह है कि एक आम नागरिक के लिए अपनी जिंदगी पर खुद फैसले की “आजादी”, अपने रहन-सहन और पसंद-नापसंद को तय करने की “स्वायत्तता” और उसकी “व्यक्तिगत गरिमा” भारतीय संविधान जैसे आधुनिक दस्तावेज के तहत ज्यादा सुरक्षित हो सकती हैं, या किसी मजहबी व्यवस्था में जहां इंसान की इच्छाएं किसी धर्मग्रंथ और मजहबी रीति-रिवाजों के दायरे में कैद होती हैं? एक महिला के अधिकारों, अपने शरीर और मन पर उसके स्वनियंत्रण के सिद्धांत, आदि के प्रति आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था ज्यादा संवेदनशील है, या दुख्तराने मिल्लत जैसे संगठनों के वो फतवे जो उनके पहनावे, उनके द्वारा इंटरनेट जैसे आज बेहद जरूरी हो गए माध्यम के इस्तेमाल, और सिनेमा जैसे मनोरंजन पर रोक लगाते हैं? “स्वायत्तता” आखिर किसे मिलनी चाहिए- सोपोर, बारामूला, उरी, पुंछ, लेह और लद्दाख के दूरदराज के गांवों में बैठे नागरिकों को, या श्रीनगर में बैठे सत्ताधीशों को? क्या इस बात की गारंटी है कि श्रीनगर को 1952 जैसी “स्वायत्तता” मिल जाने से राज्य के हर बाशिंदे को सुरक्षित जिंदगी, बुनियादी नागरिक अधिकार और अपनी संपूर्ण संभावनाओं को हासिल कर सकने की “आजादी” मिल जाएगी?

असल में न सिर्फ कश्मीर के लिए, बल्कि आज पूरे भारत के संदर्भ में समूह, समुदाय और प्रांत की स्वायत्तता बनाम नागरिक की स्वायत्तता की बहस को छेड़े जाने की जरूरत है। लेकिन इस बहस की स्वीकार्यता बने, इसकी एक बहुत अहम शर्त है। वो शर्त यह है कि पहले भारत सरकार या देश की पूरी राजनीतिक व्यवस्था अपनी एक साख कायम करे। नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करते हुए और अन्याय के पक्ष में खड़ी दिखने वाली कोई सत्ता अपनी ऐसी नैतिक साख नहीं बना सकती है। क्या सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की यात्रा के बाद जम्मू-कश्मीर के लिए घोषित आठ सूत्री कदम ऐसी साख बना सकने में सक्षम हैं?

ऐसा मानना मुश्किल लगता है। इन कदमों को एक शुरुआत तो माना जा सकता है, लेकिन इनसे “भरोसे” और “शासन” की खाइयों को भर देना मुमकिन होगा, ऐसा मानने की कोई वजह नहीं है। सरकार संभवतः सिक्यूरिटी लॉबी और भाजपा की उग्रवादी प्रतिक्रियाओं से आशंकित होकर सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून पर वैसी पहल भी नहीं कर पाई है, जिसका वादा प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दोनों करते रहे हैं। इस कानून में संशोधन या इसे कुछ इलाकों से हटाने की मांग नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) जैसी कश्मीर की मुख्यधारा पार्टियां भी करती रही हैं। वैसे भी सरकार के लिए जरूरी यह है कि वह इस मांग को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे। वो परिप्रेक्ष्य यह है कि इस कानून में संशोधन की मांग सिर्फ कश्मीर से नहीं उठी है। उत्तर पूर्व के राज्यों- खासकर मणिपुर- में यह पहले से एक बड़ा मुद्दा है। कुछ जानकारों की इस बात पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि देश की मौजूदा राजनीतिक संरचना के बीच इस कानून को रद्द करना नामुमकिन है, लेकिन इसकी उन धाराओं में संशोधन जरूर किया जा सकता है, जिनसे सेनाकर्मियों द्वारा ड्यूटी से इतर किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघनों को भी इससे संरक्षण मिल जाता है।

लोकसभा के पिछले सत्र में कश्मीर पर चर्चा के दौरान जब कुछ सदस्यों ने कश्मीरियों की उचित शिकायतों को दूर करने की मांग की, तो भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने यह पूछा था कि आखिर ये शिकायतें क्या हैं? फिर उन्होंने जोड़ा था कि कश्मीर में जो लोग सड़कों पर उतर कर पथराव कर रहे हैं, वे रोजगार या आर्थिक पैकेज के लिए नहीं, बल्कि भारत से अलग होने के लिए लड़ रहे हैं। डॉ. जोशी की बात में दम है, लेकिन यह अधूरी है। यह बात तब पूरी होगी, जब उसके साथ ही यह सवाल भी उठाया जाएगा कि आखिर कश्मीर के बहुत से लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसका एक जवाब यह है कि वे पाकिस्तान द्वारा संचालित संगठनों और इस्लामी कट्टरपंथियों के बहकावे में आ गए हैं। लेकिन इसका एक और जवाब यह हो सकता है कि उन लोगों में भारतीय संविधान के प्रावधानों में भरोसा कमजोर हो गया है। उन्हें यह नहीं लगता कि भारतीय संविधान में नागरिकों की जिन मूलभूत स्वतंत्रताओं और बुनियादी अधिकारों की व्यवस्था की गई है, वो उनके लिए भी हैं। पथरीबल जैसी घटना, जिसमें सीबीआई जांच में सैन्य कर्मचारियों को पांच लोगों की हत्या का दोषी पाया गया, उनके खिलाफ आज तक मुकदमा इसलिए नहीं चल सका, क्योंकि सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी और ऐसा क्यों नहीं किया, यह भी आज तक नहीं बताया। क्या इस पर शिकायत रखना निराधार है?

आजादी के बाद जब नगालैंड का एक प्रतिनिधिमंडल “आजादी” की मांग करते हुए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिला था, तो पंडित नेहरू ने कहा था कि भारत में जितना मैं आजाद हूं, उतना ही यहां का हर नागरिक और हर नगा आजाद है। पंडित नेहरू की इन बात में हम भारत की एकता का सूत्र देख सकते हैं। लेकिन अगर आजाद भारत में यह बात आज बहुत से लोगों और बहुत से इलाकों को सच नहीं लगती, तो इसका जवाब आखिरकार भारतीय राष्ट्र और राज्य-व्यवस्था को ही ढूंढना होगा कि आखिर ऐसा क्यों है? और क्या बिना ऐसा भरोसा हुए देश के सभी नागरिकों के साथ “आजादी” और “स्वायत्तता” पर पूरी साख के साथ बहस की जा सकती है?

भारतीय संविधान में हर आधुनिक संविधान की तरह संप्रभु व्यवस्था की इकाई व्यक्ति को माना गया है। देश की स्वतंत्रता का मतलब हर व्यक्ति की मूलभूत स्वतंत्रता है। इस स्वतंत्रता पर आक्रमण चाहे राजसत्ता की तरफ से हो, या धर्मांध संगठनों या किसी चरमपंथी-उग्रवादी समूह की तरफ से- वह समान रूप से संविधान की मूल भावना का उल्लंघन है। जब धर्मांध या चरमपंथी संगठन इस स्वतंत्रता का हनन करते हैं, तो राजसत्ता से यह आशा होती है कि वह व्यक्तियों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करे। लेकिन ऐसा राज्य तभी कर सकता है, जब उन्हीं व्यक्तियों के मन में उसके प्रति भरोसा हो। दुर्भाग्य से कश्मीर में भारतीय राज्य के प्रति यह भरोसा अगर टूटा नहीं, तो कमजोर जरूर पड़ गया है। आज पहली चुनौती इसी भरोसे को बहाल करने की है, क्योंकि तभी भारतीय संविधान वहां के लोगों को एक सार्थक दस्तावेज लगेगा और वे इसके दायरे में समाधान के लिए तैयार हो सकेंगे।

इसलिए भारत के सामने आज जो बड़ी चुनौतियां हैं, उनमें एक यह है कि संवैधानिक मूल्यों की व्यक्ति के संदर्भ न सिर्फ व्याख्या की जाए, बल्कि उन पर इसी संदर्भ में अमल भी किया जाए। समूह, समुदाय आदि के अर्थ में स्वायत्तता और आजादी की बात करने वाले गुटों को वैचारिक चुनौती दिए जाने की जरूरत है। लेकिन यह प्रयास तभी सफल हो सकता है, जब हर व्यक्ति की सुरक्षा, उसकी जिंदगी की संभावनाओं को पूरी तरह हासिल करने का प्रबंध, और उसके नागरिक अधिकारों की हिफाजत को अउल्लंघनीय मूल्य के रूप में स्थापित किया जाए। सरकार की तऱफ से यह प्रयास कश्मीर में सबसे पहले कसौटी पर है। सशस्त्र बल कानून इसका एक पक्ष है। इसके अलाव भी कई अन्य खास मुद्दे हैं, जो चर्चा में हैं। सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की यात्रा से अगर वहां एक इन मुद्दों के हल की शुरुआत होती है, तो उसका अच्छा संकेत सारे देश में जाएगा। वरना, भारतीय व्यवस्था के कश्मीर की तरह ही सारे देश में भरोसा खोते जाने का खतरा मुंह खोलकर खड़ा है।

Sunday, July 11, 2010

अबाधित रिश्ता बने तो कैसे?

सत्येंद्र रंजन


क्या विदेश मंत्री एसएम कृष्णा की 15 जुलाई को होने वाली इस्लामाबाद यात्रा से भारत और पाकिस्तान के बीच फिर से शुरू हुए संवाद को कोई ठोस जमीन मिलेगी? दोनों देशों के बीच शांति की आशा रखने वाले लोग कृष्णा और पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की बातचीत के नतीजों का गहरी दिलचस्पी के साथ इंतजार कर रहे हैं। कृष्णा की इस यात्रा के साथ तकरीबन दो साल लंबे अंतराल के बाद दोनों देशों के बीच राजनीतिक स्तर पर बातचीत शुरू होगी। यह थिंपू में सार्क शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के बीच बनी सहमति का नतीजा है। उस सहमति के बाद दोनों देशों के विदेश सचिवों ने कुछ खाई भरी है। सार्क गृह मंत्रियों की इस्लामाबाद में गृह मंत्री पी चिदंबरम के जाने और वहां पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक के साथ उनकी हुई दो-टूक बातचीत से भी विदेश मंत्री स्तर की वार्ता के लिए अनुकूल माहौल बना है।

अब पाकिस्तान का कहना है कि वह भारत के साथ ‘अबाधित’ वार्ता चाहता है। एसएम कृष्णा की यात्रा के संदर्भ में पाक विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा है- “हमारी अपेक्षाएं ये हैं कि इस मुलाकात के परिणामस्वरूप दोनों देश निरंतर संपर्क बनाए रखें, यह एक ऐसी प्रक्रिया हो जो अबाधित रहे।” पाक प्रवक्ता के मुताबिक अब दोनों देश यह समझ गए हैं कि बातचीत न करने से किसी का फायदा नहीं है। उसने भरोसा जताया कि यह समझ दोनों देशों को उस दिशा में ले जाएगी, जहां एक दूसरे की चिंताओं का वे समाधान कर पाएंगे। जाहिर है, पाकिस्तान चाहता है कि अगर भविष्य कभी भारत पर मुंबई जैसा आतंकवादी हमला हो, तब भी बातचीत की प्रक्रिया चलती रहे।

यह इच्छा अच्छी है और भारत में भी कुछ धुर सांप्रदायिक ताकतों को छोड़ कर बाकी शायद ही किसी की इससे असहमति होगी। लेकिन इसके साथ ही मुश्किल सवाल यह जुड़ा है कि यह बातचीत किस बात पर होगी और किस दिशा में बढ़ेगी? इसकी एक दिशा 2004-05 में मनमोहन-मुशर्रफ सहमति से तैयार हुई थी। उस सहमति में “मुख्य मसले” कश्मीर के हल का फॉर्मूला तैयार किया गया था। उस फॉर्मूले में दोनों देशों की चिंताओं के समाधान के सूत्र थे। मगर जब उस दिशा में ठोस पहल की उम्मीद की जा रही थी, तभी पाकिस्तान में अंदरूनी सियासी उथल-पुथल शुरू हो गई और वह फॉर्मूला कागज पर ही रह गया। जब पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली हुई, तब राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने अपने बयानों से यह उम्मीद बंधाई कि उनकी सरकार जनरल परवेज मुशर्रफ के जमाने में बनी सहमति को आगे बढ़ाएगी। मगर जल्द ही पाकिस्तान की सेना और खुफिया तंत्र के ‘एस्टैबलिशमेंट’ ने अपनी ताकत बताई और जरदारी को उसके आगे घुटने टेकने पड़े। पाक विदेश मंत्रालय ने बकायदा बयान जारी कर कश्मीर मसले के हल और भारत से शांतिपूर्ण रिश्तों के बारे में मुशर्रफ के सिद्धांतों को खारिज कर दिया।

अब पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) के अध्यक्ष मियां नवाज शरीफ ने एक महत्त्वपूर्ण पहल की है। एक पाकिस्तानी टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने दावा किया है कि जनरल मुशर्रफ ने जो भारत से रिश्तों के लिए जिन सिद्धांतों को अपनाया था, वे दरअसल उनके सिद्धांत थे। उनका कहना है कि वे इन सिद्धांतों के आधार पर भारत के साथ संबंधों को नया रूप देना चाहते थे और इसी मकसद से तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को लाहौर यात्रा का न्योता दिया था। लेकिन बात आगे बढ़ती, इसके पहले ही सेनाध्यक्ष जनरल मुशर्रफ ने भितरघात किया और कारगिल की कार्रवाई कर दी। फिर उन्होंने नवाज शरीफ का तख्ता ही पलट दिया। लेकिन सत्ता में एक खास अवधि तक रहने के बाद उन्हें भी यह महसूस हुआ कि भारत के साथ दुश्मनी खुद पाकिस्तान के हित में नहीं है।

नवाज शरीफ ने इंटरव्यू में कहा कि वे भारत के साथ टिकाऊ शांति चाहते हैं। इसके बिना ना तो देश में सेना के ऊपर नागरिक सत्ता की प्रधानता कायम हो सकती है और ना ही पाकिस्तान का आर्थिक विकास हो सकता है। भारत के साथ टकराव जारी रहने से सेना को राष्ट्रीय सुरक्षा का अभिभावक बने रहने का तर्क मिलता है और इसी वजह से देश के वित्तीय संसाधनों का बड़ा हिस्सा भी उसकी झोली में चला जाता है। नवाज शरीफ ने इसके बाद वह बात कही जो भारत-पाक रिश्तों के संदर्भ में सबसे अहम है। उन्होंने कहा कि भारत से संबंध सुधारने के लिए वे कश्मीर मसले को “अलग रखने” को तैयार हैं। याद कीजिए, मुशर्रफ ने भी यही कहा था। उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव अप्रासंगिक हो चुका है और इस मसले का अब ‘आउट ऑफ बॉक्स’ यानी नए ढंग का हल निकालने की जरूरत है।

जानकार कहते हैं कि भारत-पाक संबंधों पर ऐसी पहल करने का इरादा सबसे पहले 1980 के दशक के आखिर में सत्ता में आने के बाद बेनजीर भुट्टो ने दिखाया था। लेकिन सेना और खुफिया तंत्र ने जल्द ही उन्हें भारत को ‘दुश्मन’ मानने के रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर दिया। बाद में उनका तख्ता ही पलट दिया गया। नवाज शरीफ के ताजा बयान में यह संकेत छिपा है कि भारत से संबंध सुधारने की उनकी पहल की वजह से ही उनकी सत्ता गई। मुशर्रफ के पांवों के नीचे से जमीन भी तब खिसकी, जब वे भारत से रिश्ते सुधारने के ‘आउट ऑफ बॉक्स’ फॉर्मूले पर चल रहे थे। भारत के प्रति गर्मजोशी दिखाना जरदारी को महंगा पड़ा। अब ये बातें पाकिस्तानी सत्ता तंत्र से जुड़े रहे महत्त्वपूर्ण लोग ही कह रहे हैं कि भारत से दुश्मनी जारी रखने में वहां के सेना और खुफिया तंत्र का निहित स्वार्थ है। तो इन परिस्थितियों के रहते ‘अबाधित’ वार्ता की आखिर कितनी संभावना है?

मनमोहन-मुशर्रफ सहमति का मूल सिद्धांत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह बयान था कि इस उपमहाद्वीप में अब सीमाएं बदली नहीं जा सकतीं, लेकिन सीमाओं को अप्रासंगिक जरूर बनाया जा सकता है। इस सिद्धांत में कश्मीर मसले का सबको स्वीकार्य हल और भारत एवं पाकिस्तान के बीच शांति, दोस्ती और सहयोग का रिश्ता कायम होने के सूत्र छिपे हैं। लेकिन क्या पाकिस्तान का ‘एस्टैबलिशमेंट’ इस सिद्धांत को स्वीकार करने या वहां के नागरिक नेतृत्व को स्वीकार करने देने को तैयार है? जब तक ऐसा नहीं होगा, ‘अबाधित’ वार्ता महज एक सदिच्छा ही बनी रहेगी। और तब तक भारत के पास पाकिस्तान के संदर्भ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एक अन्य सूत्र- ‘भरोसा मगर जांच परख कर’ को अपनाए रखने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होगा। इसलिए एसएम कृष्णा की यात्रा से ज्यादा उम्मीद रखने की कोई वजह नहीं है। हां, इससे अगर पाकिस्तान के नागरिक समाज में भारत के प्रति कुछ सद्भावना पैदा करने में मदद मिले, तो उसे एक सकारात्मक परिणाम माना जाएगा- क्योंकि आखिरकार उसी से पाकिस्तान में ‘एस्टैबलिशमेंट’ को कमजोर करने का रास्ता निकलेगा, जो दोनों देशों में बेहतर रिश्ते की अनिवार्य शर्त है।

Saturday, July 10, 2010

शिखर पर फुटबॉल के सौंदर्य

सत्येंद्र रंजन


योहान क्रायफ स्पेन के कैटेलोनिया में रहते हैं। खबरों के मुताबिक नीदरलैंड और स्पेन के बीच विश्व कप के बहु-प्रतिक्षित फाइनल के बारे में जब राय जानने के लिए मीडिया ने उनसे संपर्क किया, तो उन्होंने बात करने से मना कर दिया। क्रायफ की दुविधा समझी जा सकती है। फाइनल में एक टीम उनके देश की है, और दूसरी वह जिसके खेलने का अंदाज उनके ज्यादा करीब बैठता है। आज मुकाबला उन दो टीमों में है, जिन पर क्रायफ की विरासत का साया है।

क्रायफ ने 1970 के दशक में टोटल फुटबॉल की शैली दुनिया के सामने पेश की थी। छोटे पास और बिना पूर्व निर्धारित दिशा के दौड़ते हुए उनकी टीम के खिलाड़ियों ने आक्रामक फुटबॉल का जो नज़ारा पेश किया था, उसकी आज तक बड़े रोमांच के साथ चर्चा की जाती है। उसी दशक में लगातार दो विश्व कप में नीदरलैंड फाइनल तक पहुंचा। 1974 में वह पश्चिम जर्मनी से हारा और 1978 में अर्जेंटीना से। हालांकि फुटबॉल की लोककथाओं में यह दर्ज है कि दोनों बार नीदरलैंड के साथ नाइंसाफी हुई- टीम गलत फैसलों की वजह से हारी।

क्रायफ का युग बीतने के बाद नीदरलैंड ने अपने खेलने का ढंग बदल लिया। आक्रमण तो फिर उसमें रहा, लेकिन साथ ही ढांचे और तय रणनीति की शैली को भी अपना लिया गया। फुटबॉल की यूरोपीय संस्कृति के मुताबिक जीतना इसमें अहम हो गया। मौजूदा विश्व कप शुरू होने के पहले टीम के कोच बर्ट वान मारविक ने कहा था- ‘अगर हम खूबसूरत फुटबॉल खेलते हुए जीत सके, तो यह शानदार बात होगी। लेकिन दो साल पहले जब मैं कोच बना, तो मैंने खिलाड़ियों से कहा कि तुम्हें बदसूरत मैचों को जीतने में भी सक्षम बनना पड़ेगा।’ क्रायफ सार्वजनिक रूप से नीदरलैंड टीम के मौजूदा रुझान की आलोचना कर चुके हैं।

जब अपना देश उनके रास्ते से हट गया तो क्रायफ स्पेन चले गए। 1988 में एफसी बार्सिलोना के कोच बने। तब से वे स्पेन में फुटबॉल की अपनी स्टाइल को लोकप्रिय बनाने में जुटे रहे हैं। और इसमें वे कामयाब भी हुए हैं। आज स्पेन की राष्ट्रीय टीम की शैली क्रायफ की शैली के लगभग करीब है। और हो भी क्यों नहीं? जर्मनी के खिलाफ मैच में स्पेन के जो आरंभिक ग्यारह खिलाड़ी उतरे, उनमें छह एफसी बार्सिलोना के थे। इस क्लब में क्रायफ के बाद कई कोच आए-गए, लेकिन उसने अपने खेलने का तरीका नहीं बदला। टीम के मिडफील्ड में ज़ावी, एंद्रेस एनियेस्ता और बुस्के हैं, जो बार्सिलोना के लिए खेलते हैं। दरअसल, स्पेन की पूरी टीम ही ऐसे ही खिलाड़ियों से बनी है। इंग्लैंड के कोच फेबियो कपेलो कहते हैं कि स्पेन के खिलाड़ी दुनिया के चाहे जिस टीम में खेलें, अपनी ही शैली का फुटबॉल खेलते हैं। इसलिए जब वे अपनी राष्ट्रीय टीम में जाते हैं, तो उन्हें तालमेल बनाने में कोई दिक्कत नहीं होती। जर्मनी के कोच जोओखिम लोव का कहना है- ‘ऐसे (आक्रामक) खेल में उन्हें (स्पेन के खिलाड़ियों को) महारत है। इस बात की मिसाल आप उनके हर पास में देख सकते हैं।’

तो मुकाबला दो ऐसी टीमों के बीच है, जिन पर एक खास स्टाइल के फुटबॉल की छाप है। 1980 के दशक के नीदरलैंड के मशहूर खिलाड़ी रुड गुलिट का कहना है- ‘हम जो देख रहे हैं, वह आक्रामक फुटबॉल की विजय है और लोग तो यही देखना चाहते हैं।’ इतिहास नीदरलैंड के पक्ष में ज्यादा है। पिछले अठारह विश्व कप टूर्नामेंटों से आठ में नीदरलैंड की टीम खेली है। इसमें चार बार क्वार्टर फाइनल में, तीन बार सेमीफाइनल में और दो बार फाइनल में पहुंची है। स्पेन की टीम अब से पहले बारह बार विश्व कप में खेली है। उसका सर्वोत्तम प्रदर्शन 1950 में रहा, जब टीम चौथे नंबर पर रही। लेकिन उस वक्त यह टूर्नामेंट राउंड रोबिन आधार पर खेला गया था। वैसे स्पेन की टीम चार बार क्वार्टर फाइनल तक पहुंची है। इस लिहाज से इस बार फाइनल में पहुंच कर वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुकी है।

नीदरलैंड को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिए आज जीतना ही होगा। स्पेन के सामने लक्ष्य अपने सर्वश्रेष्ठ और बड़ा एवं और यादगार बनाने का है। जबकि फुटबॉल के दीवानों की निगाह यह देखने पर है कि योहान क्रायफ जैसा विशुद्ध आक्रामक और खूबसूरत फुटबॉल जीतता है, या उसमें ढांचे को जोड़ कर जो नया फॉर्मेट तैयार किया गया है, उसकी विजय होती है।
गौरतलब है कि स्पेन की टीम ऊंची उम्मीदों के साथ इस विश्व कप में पहुंची। दुनिया भर में एक स्वर से उसे विश्व चैंपियन होने का फेवरिट (यानी दावेदार) माना गया। ऐसी धारणा पिछले दो साल से रही है, जब इस टीम ने पहली बार यूरो चैंपियनशिप जीता था। उस जीत के साथ स्पेन ने अंडरअचीवर यानी अपनी क्षमता की तुलना में कम हासिल करने का धब्बा धो दिया था। उसके बाद से टीम सपनों जैसी उड़ान पर रही है।

दक्षिण अफ्रीका पहुंचने से पहले टीम के स्ट्राइकर फर्नांडो तोरेस ने कहा था- “दुनिया में आप जहां जाएं, हमें फेवरिट माना जाता है। ब्राजील में फेवरिट ब्राजील और स्पेन को कहा जाता है, इंग्लैंड में इंग्लैंड और स्पेन को, अर्जेंटीना में अर्जेंटीना और स्पेन को, और जर्मनी में जर्मनी और स्पेन को। यानी हर जगह हमारा नाम तो जरूर है।” लेकिन दक्षिण अफ्रीका में स्पेन की शुरुआत निराशाजनक रही, जब वह अपने पहले ही मैच में स्विट्जरलैंड से 0-1 से हार गई। उसके बाद के चार मैच भी उसने वैसे नहीं खेले, जैसी उसकी प्रतिष्ठा है। तो अंडरअचीवर की चर्चा फिर लौट आई।

मगर टीम ने तब क्लिक किया, जब उसकी सचमुच जरूरत थी। सेमी फाइनल में उसके सामने जर्मनी की टीम थी, जिसे टूर्नामेंट से पहले फेवरिट नहीं माना गया था, लेकिन जो दक्षिण अफ्रीका पहुंच कर अपने प्रदर्शन से फेवरिट बन गई थी। टीम फ्री फ्लो में थी। बेहतरीन तालमेल था। टीम की आंतरिक शक्ति उभार पर थी। लेकिन सेमी फाइनल में स्पेन के आगे जैसे उसने समर्पण कर दिया। उस रोज स्पेन ने दिखाया कि उसे आज क्यों खूबसूरत फुटबॉल का सिरमौर कहा जाता है। छोटे पास, बॉल पोजेशन, साफ-सुथरा खेल, फाउल से बचना, आपसी तालमेल से आगे बढ़ना और विपक्षी गोलपोस्ट पर दबाव बनाए रखना नए स्पेन की शैली है।

दूसरी नीदरलैंड टूर्नामेंट की अकेली टीम है, जिसने अब तक अपने सभी छह मैच जीते हैं। टीम की रक्षा और आक्रमण पंक्ति में तालमेल बना रहा है। हालांकि सेमीफाइनल में उरुग्वे के खिलाफ उसका प्रदर्शन प्रभावशाली नहीं रहा, लेकिन यह भी सच है कि पूरे टूर्नामेंट में टीम कभी ल़ड़खड़ाती नजर नहीं आई है। दो जुलाई को क्वार्टर फाइनल में इस टीम ने इस टूर्नामेंट में फेवरिट मानी जा रही एक और टीम ब्राजील को हरा दिया। उस दिन हाफ टाइम तक नीदरलैंड की टीम ब्राजील से 0-1 से पिछड़ी हुई थी। जब ब्रेक हुआ तो टीम के खिलाड़ियों से नीदरलैंड के कोच बर्ट वान मारविक ने कहा- ‘अभी तक तुम लोग जैसे खेल रहे हो, वैसे ही खेलते रहे तो यह मैच हम लोग तीन या चार गोल से हारेंगे और कल हमारी घर वापसी हो जाएगी। या फिर तुम्हारे सामने दूसरा तरीका है कि जाओ और अपने ढंग का खेल खेलो, ताकि ब्राजील के खिलाड़ी तुम्हारे पीछे दौड़ें।’ इस गुरु मंत्र का जादुई असर हुआ। जैसा कोच चाहते थे, वही असल में मैदान पर घटित हुआ! नीदरलैंड ने उसी ढंग से खेल से मैदान मार लिया, जिस शैली पर ब्राजील की महारत रही है। यह नीदरलैंड की टीम की आंतरिक शक्ति और खिलाड़ियों के दृढ़ निश्चय की एक मिसाल है।

वैसे खेल की खूबसूरती सिर्फ स्पेन हो या नीदरलैंड की थाती हो, आज ऐसा नहीं है। इस विश्व कप की एक विशेषता यह भी है कि इस बार 1980-90 के दशकों की यूरोपीय फुटबॉल शैली का पूरा पराभव हो गया। कहा जाता है कि उस शैली में शारीरिक ताकत का ज्यादा जोर होता था। जबकि उसके बरक्स दक्षिण अमेरिकी शैली थी, जिसे कलात्मक और खूबसूरत फुटबॉल कहा जाता था। क्या ऐसा कोई अंतर इस बार आपको नज़र आया है? शायद नहीं। जैसे छोटे पास ब्राजील या अर्जेंटीना की विशेषता थे, उसे अब स्पेन या जर्मनी कहीं ज्यादा अंजाम देते नजर आए हैं। जिस तरह दक्षिण अमेरिकी टीमें पहले तालमेल से आक्रमण के लिए बढ़ती थीं, उसे अब बड़ी यूरोपीय टीमों ने भी उतनी ही खूबी के साथ अपना लिया है। बॉल पोजेशन यानी गेंद को अपने पास ज्यादा से ज्यादा समय रखना पहले ब्राजील और अर्जेंटीना की खासियत मानी जाती थी। अब वही फुटबॉल स्पेन, नीदरलैंड, जर्मनी सभी खेल रहे हैं।

क्वार्टर फाइनल दौर से पहले फीफा के आंकड़ों पर आधारित एक अध्ययन से सामने आया कि पांच टॉप टीमें वो थीं, जिनके सफलता से पास देने की दर सबसे ज्यादा थी। ब्राजील, स्पेन, अर्जेंटीना, जर्मनी और नीदरलैंड की यह दर कम से कम 84 फीसदी थी। इंग्लैंड के खिलाड़ी सिर्फ 78 फीसदी सफल पास दे पाए और उनकी जल्द विदाई हो गई। इंग्लैंड के क्लब मैनचेस्टर यूनाइटेड के पूर्व स्ट्राइकर एंडी कोल ने इस संबंध में टिप्पणी की- “अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल में आज पोजेशन सबसे अहम पहलू है। जो टीमें छोटे पास देने और वन टच गेम खेलने में माहिर हैं, वही सबसे ज्यादा सफल हैं।”

वो 1980-90 के दशकों का दौर था, जब यूरोपीय टीमें ताकतवर स्ट्राइकर्स और हट्ठे-कट्ठे खिलाड़ियों को केंद्र में रख कर तैयार की जाती थीं। तब नॉर्वे की टीम इस लिहाज से खासी चर्चित हुई थी। लंबे शॉट लगाने और विपक्षी टीम को ताकत से टैकल करने की रणनीति अपना कर यह टीम फीफा वर्ल्ड रैंकिंग में दूसरे नंबर पर पहुंच गई थी। वो लगातार दो बार वर्ल्ड कप टूर्नामेंट तक पहुंची। लेकिन अब उसी टीम के कोच रहे एजिल ओलसन का कहना है कि अब उसे नहीं दोहराया जा सकता। अब खेल अलग ढंग से खेला जाता है, जिसमें गेंद को पांव से सटा कर रखने और छोटे पास देने पर जोर है।
दरअसल, यह बदलाव अनायास नहीं आ गया। 1990 के विश्व कप टूर्नामेंट में खेले गए नीरस और जोर-जबरदस्ती वाले खेल ने फीफा और फुटबॉल प्रेमियों को गहरी चिंता में डाला। तब से नियमों में कई बदलाव लाए गए। गोलकीपर को बैकपास देने और पीछे से किसी खिलाड़ी को टैकल करने पर रोक लगा दी गई। फाउल के नियम कड़े कर दिए गए। ऑफ साइड का नियम बदल दिया गया, जिससे टीमें अपने पेनाल्टी इलाके को बचाने का जो जाल बिछाती थीं, वह करना नामुमकिन हो गया।

नतीजा यह है कि फुटबॉल का खेल ज्यादा खूबसूरत हुआ है। कुछ जानकार इसका एक नुकसान यह जरूर बताते हैं कि इससे दुनिया भर में यह खेल ऐसा जैसा हो गया है। अब टीमों के स्टाइल, टैक्सिस और स्ट्रेटेजी में अंतर बहुत बारीक ही रह गया है। अब संभवतः असली बात टीम में तालमेल और उसकी आंतरिक शक्ति है और उसी से नतीजा तय होता है। मगर खूबसूरती के फैलने पर क्या अफसोस? अब जोगा बोनितो (खूबसूरत खेल) पर सिर्फ ब्राजील या दक्षिण अमेरिका का ही एकाधिकार नहीं है। और यूरोप में इसके दो सबसे बड़े अनुयायी-स्पेन और नीदरलैंड- आज फुटबॉल के चरमोत्कर्ष पर हैं। आज उनका मुकाबला देखना कतई ना भूलिएगा!

अपनी जवाबदेही से कैसे बचेगा संघ?

सत्येंद्र रंजन


राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की चिंताएं गहरी हो रही हैं। हिंदुत्व आंतकवाद की जांच के बढ़ते दायरे के साथ कई बम धमाकों के तार संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं से जुड़ते नजर आने लगे हैं। कुछ अखबारों में छपी खबरों के मुताबिक इससे संघ नेतृत्व बेहद चिंतित है। इतना कि इस मुद्दे पर संगठन नेताओं की एक से ज्यादा बार बैठकें हो चुकी हैं। दो बैठकों में तो भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं को भी शामिल किया गया। संघ के एक बड़े पदाधिकारी ने एक अंग्रेजी अखबार से कहा कि हिंदुत्व आतंकवाद की घटनाओं में अगर संघ के स्वयंसवेकों की भागीदारी साबित हो गई, तो इससे आरएसएस के लिए उससे भी बदतर स्थिति पैदा हो जाएगी, जैसी महात्मा गांधी की हत्या में इसके शामिल होने का आरोप लगने पर हुई थी।

आरएसएस की कोशिश आतंकवाद की घटनाओं से खुद को अलग करने की है। वह दिखाना चाहता है कि अगर संघ से जुड़े कुछ लोग ऐसी घटनाओं में शामिल भी हुए हों, तो यह उनकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी है। संघ की नीति आतंकवाद के रास्ते पर चलने की नहीं है। अखबारी खबरों के मुताबिक दो महीने पहले जब 2007 के अजमेर बम धमाके के सिलसिले में संघ के प्रचारकों देवेंद्र गुप्ता और लोकेश शर्मा की गिरफ्तारी हुई, तो संघ ने उनका बचाव न करने का फैसला किया। इसके विपरीत जांच में ‘पुलिस से सहयोग’ करने का निर्णय लिया गया।

अब खबर है कि 2007 के हैदराबाद के मक्का मस्जिद धमाके के सिलसिले में सीबीआई ने उत्तर प्रदेश में संघ के दो बड़े पदाधिकारियों से पूछताछ की है। ये अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय हैं। अशोक बेरी उत्तर प्रदेश के लगभग आधे इलाके के प्रभारी क्षेत्रीय प्रचारक हैं और संघ की केंद्रीय समिति के भी सदस्य हैं। अशोक वार्ष्णेय कानपुर में रहते हैं और संघ के प्रांत प्रचारक हैं। कानपुर में ही बम बनाने के दौरान विस्फोट हो जाने की घटना हुई थी, जिसमें कई लोग जख्मी हो गए थे।
अजमेर में सूफी दरगाह पर 11 अक्टूबर 2007 को हुए बम धमाकों की जांच में अब लगभग यह साफ हो गया है कि इस हमले को अभिनव भारत नाम के संगठन ने अंजाम दिया था। अभिनव भारत वही संगठन है, जिसका नाम मालेगांव धमाकों में आया था। साध्वी प्रज्ञा सिंह और लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित की उस मामले में गिरफ्तारी हुई थी। महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे जिस दक्षता से उस जांच को आगे बढ़ा रहे थे, उससे हिंदुत्ववादी आतंकवाद का पूरा पर्दाफाश होने की उम्मीद थी। लेकिन इसी बीच वे पाकिस्तानी आतंकवादियों के शिकार हो गए। लेकिन उनकी और उनके बाद हुई जांच का यह परिणाम है कि हिंदुत्ववादी आतंकवाद के फैलते जाल से देश आज बेहतर ढंग से परिचित है।

जांच के मुताबिक हिंदुत्ववादी आतंकवाद की पहली घटना 2003 में महाराष्ट्र के परभणी में हुई थी। 2006 में नांदेड़ में बजरंग दल के दो सदस्य बम बनाते वक्त अपने घर में मारे गए। अब यह माना जाता है कि 2007 में हैदराबाद की मक्का मस्जिद, सितंबर 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव और उसी समय मोडासा में बम धमाकों के पीछे अभिनव भारत संगठन का ही हाथ था। यह संदेह भी है कि समझौता एक्सप्रेस पर भी इसी संगठन ने हमला किया, जिसमें पाकिस्तान जा रहे 68 लोग मारे गए थे, जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे।

जब पहली बार हिंदुत्ववादी आंतकवाद की बात सामने आई तो संघ परिवार के संगठनों ने इसे यूपीए सरकार की साजिश बताया। साध्वी प्रज्ञा सिंह के बचाव में संघ और भाजपा के बड़े नेता उतरे। चर्चाओं में ऐसी दलीलें भी पेश की गईं कि कोई हिंदू आतंकवादी हो ही नहीं सकता है। उसके पहले तक इस्लामी आतंकवाद का ढोल पीटने वाले संघ परिवार के नेता तब यह कहने लगे कि आतंकवाद का किसी धर्म से वास्ता नहीं होता। लेकिन अब कई बम कांडों की जांच जिस दिशा में आगे बढ़ रही है, उससे ऐसी दलीलों से नहीं बचा जा सकता है, यह शायद संघ नेतृत्व की समझ में आ गया है।

लेकिन सवाल यह है कि क्या आतंकवाद की घटनाओं में शामिल लोगों को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहरा कर संघ एक संगठन के रूप में अपनी जिम्मेदारी से बच सकता है? जिम्मेदारी हमेशा इस बात से ही तय नहीं होती कि आप हाथ में बंदूक या बम लेकर निकले या नहीं। जो लोग बंदूक या बम लेकर निकलते हैं, उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित किसने या किस विचार ने किया, यह शायद इस चर्चा का सबसे अहम पहलू है। संघ नेताओं की यह दलील मानी जा सकती है कि किसी धर्म का आतंकवाद से वास्ता नहीं होता। लेकिन इस बात के प्रमाण तो दुनिया भर में बिखरे पड़े हैं कि आतंकवाद का धर्म की सियासत से वास्ता होता है। क्या संघ परिवार इस बात पर परदा डाल सकता है कि ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की आड़ में उसकी पूरी सियासत धर्म और धर्म की बेहद संकीर्ण परिभाषा पर आधारित है?

जो राजनीति या गतिविधियां ऐतिहासिक प्रतिशोध, रूढ़िवादी सामाजिक मूल्यों और वर्चस्ववादी संस्कृति पर आधारित हों, और इन्हीं को स्थापित करने के मकसद से आगे बढ़ाई जा रही हों, हिंसा और अपने चरम रूप में आतंकवाद उनकी स्वाभाविक परिणति होता है। साध्वी प्रज्ञा, लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित, देवेंद्र गुप्ता या लोकेश शर्मा किसी निजी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बम के रास्ते पर नहीं चले। वे उसी विचारधारा की स्थापना के लिए आगे बढ़े, संघ हजारों लोगों को जिसकी घूंट पिलाने में पिछले दशकों के दौरान सफल रहा है। आज अगर वे जांच एजेंसियों के हाथ पड़ गए हैं, तो उनसे नाता तोड़ कर संघ परिवार उन्हें अकेले अपनी रक्षा के लिए तो छोड़ सकता है, लेकिन वह उनके कार्यों की जिम्मेदारी से नहीं बच सकता।

यह भी गौरतलब है कि आतंकवाद हमेशा सिर्फ निजी कार्रवाई नहीं होता। यह सामूहिक और कई मामलों में व्यवस्थागत कार्रवाई भी होता है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस को आतंकवाद की एक सामूहिक कार्रवाई की मिसाल माना जा सकता है। आखिर उस पूरी परियोजना का मकसद ताकत के जोर से एक समुदाय विशेष को उसकी हैसियत बताना और उस जैसे तमाम अल्पसंख्यक समुदायों पर बहुसंख्यक समुदाय के वर्चस्व की स्थापना था। 2002 के गुजरात दंगों को व्यवस्थागत आतंकवाद का नमूना माना जा सकता है। उसका भी वही उद्देश्य था, जो बाबरी मस्जिद ध्वंस के आंदोलन का था। साध्वी प्रज्ञा और उनके साथियों से खुद को अलग करते हुए क्या संघ उन दोनों कार्रवाइयों के ‘नायकों’ से भी संबंध तोड़ने का साहस जुटा सकता है?

जाहिर है, संघ ऐसा नहीं कर सकता। ऐसे में हिंदुत्ववादी आतंकवाद के आरोपियों से नाता तोड़ने की कवायद को सिर्फ अपनी खाल बचाने की उसके जतन के रूप में ही देखा जा सकता है। बहरहाल, संघ को यह सुविधा जरूर है कि उसका नाता देश के बहुसंख्यक समुदाय से है, इसलिए सरकार उस पर उसी फुर्ती से हाथ से नहीं डाल सकती, जैसे वह सिमी या उस तरह के किसी और संगठन पर डालने की स्थिति में होती है। लेकिन जो संघ की सुविधा है, वही आधुनिक भारत के लिए एक बड़े नुकसान का पहलू है। अल्पसंख्यक समूहों का आतंकवाद खतरनाक है, लेकिन बहुसंख्यक समुदाय के किसी संगठन का आतंकवाद सफल हुआ, तो उन तमाम बुनियादों को ही नष्ट कर देगा, जिस पर सर्व-समावेशी और न्याय आधारित भारतीय राष्ट्र का विचार टिका हुआ है। स्पष्ट है, संघ परिवार को इस बात की तो कोई चिंता नहीं होगी, क्योंकि यही तो उसका मकसद है।

बंद से कौन डरता है?

सत्येंद्र रंजन

ह गौर करने की बात है कि पेट्रोलियम की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने के फैसले के खिलाफ विपक्ष द्वारा आयोजित भारत बंद से कौन-कौन नाराज हुआ। मनमोहन सिंह सरकार का विपक्ष के इस कदम को चुनौती देना तो स्वाभाविक ही था, तो सरकार ने अखबारों में बड़े-बड़े इश्तहार निकाल कर भारत बंद की अपील के औचित्य पर सवाल उठाए।

मगर ज्यादा परेशानी इस बात से है कि केरल हाई कोर्ट ने भी इस पर ‘परेशानी’ जताई। कोर्ट ने टिप्पणी की कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा आम हड़ताल को गैर कानूनी और असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद भारत बंद आयोजित किया जा रहा है। यहां संदर्भ के तौर पर यह याद कर लेना उचित होगा कि एक दशक पहले केरल हाई कोर्ट ने ही बंद और आम हड़तालों को गैर कानूनी ठहराने का फैसला दिया था और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी उस पर अपनी मुहर लगा दी थी।

बंद से नाराज होने वाला तीसरा समूह उद्योगपतियों का है। एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एसौचैम) ने एक बयान में बंद को अनुचित और बेतुका बताया और अनुमान लगाया कि इससे देश की अर्थव्यवस्था को करीब दस हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। उद्योगपतियों के एक दूसरे संगठन कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) ने इससे तीन हजार करोड़ रुपए से ज्यादा नुकसान होने की बात कही। लेकिन उद्योगपतियों और व्यापारियों के एक और संगठन फिक्की ने शायद इन दोनों आंकड़ों को जोड़ दिया और १३,००० करोड़ रुपए का नुकसान होने की बात कही।

बात आगे बढ़ाने से पहले यह याद कर लेना उचित होगा कि केरल हाई कोर्ट ने जब बंद और हड़तालों को गैर कानूनी घोषित किया था, तो वह फैसला फिक्की की याचिका पर ही दिया गया था। केरल हाई कोर्ट की ताजा टिप्पणी के साथ यह संदर्भ भी गौरतलब है कि इन दिनों में हाई कोर्ट का एक फैसला विवादास्पद बना हुआ है। इस फैसले में सड़कों के किनारे जन सभाओं के आयोजन पर रोक लगा दी गई है। राज्य में सत्ताधारी वाम लोकतांत्रिक मोर्चे ने इस फैसले का सार्वजनिक विरोध किया है और इससे भी हाई कोर्ट के जज दुखी हैं। उन्होंने इस फैसले को लेकर जजों की हुई आलोचना को “खतरनाक” करार दिया है।

तो कहा जा सकता है कि सरकार, न्यायपालिका और उद्योग जगत- ये तीनों आम हड़ताल और बंद जैसे आयोजनों के खिलाफ हैं। इनके साथ मेनस्ट्रीम मीडिया के एक बहुत बड़े हिस्से को भी शामिल किया जा सकता है, जिसके लिए हड़ताल और बंद के दिन खबर वह मुद्दा नहीं होता, जिसके लिए इनकी अपील की जाती है। बल्कि उनके लिए खबर लोगों को हुई कथित परेशानी होती है। अगर किसी बंद को आम जनता के बड़े हिस्से का समर्थन मिलता है, जैसाकि पांच जुलाई को विपक्ष के बंद को मिला, तो सहज बुद्धि से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस मुद्दे ने आम जन की भावनाओं को छुआ है और बंद की सफलता असल में आम जन के बहुसंख्यक हिस्से की भावनाओं की अभिव्यक्ति है। यह भी सामान्य बुद्धि से समझा जा सकता है कि उस मुद्दे की वजह से जनता का वह हिस्सा परेशान होगा, तभी उसने बंद में सक्रिय या परोक्ष भागीदारी की। लेकिन मीडिया के ज्यादातर हिस्से के लिए वह परेशानी खबर नहीं होती। बल्कि उसके बरक्स कुछ अन्य लोगों की परेशानी को खड़ा कर बंद या हड़ताल के पीछे की नैतिकता पर सवाल खड़े किए जाते हैं।

लेकिन सवाल है कि आखिर बंद क्यों होते हैं? इसका एक उत्तर यह हो सकता है कि यह चुनाव में जनता द्वारा नकार दिए गए विपक्षी दलों का सरकार को परेशान करने का हथकंडा है। लेकिन इससे इस बात का जवाब नहीं मिलता कि आखिर जनता का बड़ा हिस्सा उन दलों की अपील पर क्यों आंदोलित हो जाता है? अगर आप जनतंत्र के बुनियादी उसूलों में भरोसा नहीं रखते, तो इसका यह जवाब दे सकते हैं कि वह बहकावे में आ जाता है। लेकिन यह जवाब समस्यामूलक है। अगर जनता विपक्ष के बहकावे में आ जाती है, तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि जो सत्ताधारी पार्टी है, उसके बहकावे में आकर उसने उसे वोट दे दिया था? जाहिर है, बहस की ऐसी दलीलों से लोकतंत्र का पूरा संदर्भ ही सवालों के घेरे में आ जाता है।

बहरहाल, हकीकत यही है कि जो लोग आम जन या विपक्ष के बंद और हड़ताल आयोजित करने के अधिकार को चुनौती देते हैं, उनका लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों में कोई भरोसा नहीं है। अगर ऐसा होता, तो उनके लिए विचार का पहला बिंदु वो नीतियां होतीं, जिनकी वजह से ‘आम आदमी’ का जीना दूभर होता है और वह अपनी दिहाड़ी या एक दिन की कमाई को दांव पर लगा कर उनके प्रति विरोध जताने के लिए मजबूर होता है। प्रतिरोध का यह औजार और इसे जताने का अधिकार लोकतंत्र की बुनियादी परिभाषा का हिस्सा हैं। सरकार और उद्योग जगत का इसके औचित्य पर सवाल उठाना लोकतंत्र को सीमित या नियंत्रित करने की उनकी मंशा को जाहिर करता है। यह दुखद है कि अक्सर अदालतें भी इस प्रयास को नैतिक या संवैधानिक जामा पहना देती हैं। संविधान और कानून की व्याख्या का अधिकार उनके पास जरूर है।

मगर जब ऐसी व्याख्या का आम जन के व्यापक हितों और लोकतंत्र की बुनियादी धारणा से टकराव होता है, तो उसका वही नतीजा होता है, जो पांच जुलाई को देखने को मिला। न्यायपालिका की घोषणाओं के मुताबिक बंद गैर कानूनी और असंवैधानिक है। लेकिन भारत बंद हुआ और जनता की व्यापक भागीदारी से सफल रहा। क्या इससे अदालती घोषणाओं के औचित्य पर प्रश्न खड़े नहीं होते?

आखिर बंद क्यों होते हैं? इसे समझने के लिए पांच जुलाई के बंद को ही लेते हैं। इस बंद की अपील क्यों हुई? इसलिए कि सरकार ने पेट्रोल के दामों को नियंत्रण मुक्त करने का फैसला किया, और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने टोरंटो में हुए जी-२० शिखर सम्मेलन से लौटते हुए इस बारे में कोई भ्रम नहीं रहने दिया कि जल्द ही डीजल की कीमतों को भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया जाएगा। इस फैसले का फौरी नतीजा यह हुआ कि केरोसीन, डीजल. रसोई गैस और पेट्रोल के दाम बढ़ गए। इनका सीधा असर आम महंगाई पर भी होगा, यह बात खुद सरकार भी मानती है। यह समझना मुश्किल है कि जिस वक्त खाद्य पदार्थों की महंगाई दर १५ फीसदी से ऊपर और आम मुद्रास्फीति दो अंकों में चल रही हो, उस समय गरीब तबकों के हितों का ख्याल करने वाली कोई सरकार ऐसा फैसला कैसे ले सकती है?

अगर सरकार की आर्थिक नीति संबंधी प्राथमिकताओं पर गौर किया जाए तो यह साफ होने में देर नहीं लगती कि वित्तीय अनुशासन बरतने या राजकोषीय घाटे को पाटने की सरकार की दलीलें खोखली हैं। अगर राजकोष पर इतना ही दबाव है, तो पिछले बजट में आय कर में छूट देकर संपन्न तबकों को सरकार ने २६ हजार करोड़ रुपए की सौगात क्यों दे दी थी? मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने आंकड़ों और तर्कों के साथ इस बहस में शामिल होते हुए यह साफ कर दिया है कि सरकार का कर ढांचा पेट्रोलियम की महंगाई के लिए जिम्मेदार है। साथ सरकारी तेल कंपनियां सब्सिडी की वजह से कहीं दिवालिया नहीं हो रही हैं, जैसा सरकार दावा करती है। विपक्ष के इस आरोप को हलके से खारिज नहीं किया जा सकता कि पेट्रोलियम की कीमत को नियंत्रण मुक्त करने के पीछे सीधा मकसद निजी क्षेत्र, और उसमें भी कुछ खास उद्योग घरानों को लाभ पहुंचाना है, ताकि पेट्रोलियम के कारोबार में वे लौट सकें।

असल में सारा संदर्भ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की आर्थिक प्राथमिकताओं का ही है। मनमोहन सिंह सरकार अब बेलगाम होकर नव-उदारवादी नीतियों का पालन कर रही है, और इसके तहत अर्थव्यवस्था में सरकार के बचे-खुचे दखल को खत्म करने के रास्ते पर चल रही है। अपने पहले कार्यकाल में वामपंथी दलों के समर्थन पर निर्भर होने की वजह से यूपीए सरकार जिन कदमों को नहीं उठा सकी और अनिच्छा से जन कल्याण के जो कदम उसे उठाने पड़े- उन दोनों ही क्षेत्रों में वह अपनी ‘गलतियों’ को अब वह सुधारना चाहती है। सूचना का अधिकार कानून को बेअसर करने की प्रधानमंत्री की मंशा अब सार्वजनिक हो चुकी है। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून के प्रति सरकार के स्तर पर कोई उत्साह है, इसके लक्षण ढूंढने से भी नहीं मिलते हैं। सरकार खाद्य सुरक्षा कानून के वादे की रस्मअदायगी से आगे नहीं जाना चाहती, यह भी अब साफ हो चुका है। और महंगाई की मार से चंद संपन्न तबकों को छोड़ कर बाकी कौन बचा है! तो सवाल है कि आम लोग क्या करें?

लोकतांत्रिक ढांचे में विपक्ष का यही काम होता है कि वह सरकारी नीतियों की आलोचना जनता के सामने पेश करे। उसे सरकार के विरोध और उसे बेनकाब करने का जनादेश मिला होता है। ऐसा करने के लिए जुलूस, धरना, प्रदर्शन, जन सभा और आम हड़ताल उसके औजार हैं। हमने बंद और हड़ताल की ऐसी अनगिनत अपीलें देखी हैं, जिन पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया। जब ऐसी अपील उनकी भावनाओं को छूती है, तभी वे उसे समर्थन देते हैं। पांच जुलाई का बंद इसलिए सफल रहा, क्योंकि वह लोगों के सामान्य अनुभूतियों से जुड़ा। कांग्रेस पार्टी अगर इसे नहीं समझती है, तो यह उसकी अपनी समस्या है। अक्सर सत्ता का अहंकार पार्टियों को हकीकत से विमुख कर देता है।

कांग्रेस पार्टी अगर सोचती है कि एक बार फिर उसका एकछत्र राज हो गया है, तो पार्टी नेताओं की समझ पर सिर्फ तरस ही खाया जा सकता है। सोनिया गांधी और उनके सलाहकार भले अब यह न देख पा रहे हों, लेकिन सच्चाई यही है कि एक खास ऐतिहासिक परिस्थिति में पार्टी का पुनर्जीवन हुआ। सांप्रदायिक-फासीवाद के बढ़ते खतरे ने उसे धर्मनिरपेक्ष ताकतों के व्यापक गठजोड़ में केंद्रीय भूमिका दी। लेकिन इसके साथ ही उसे समर्थन देने वाले जन समूहों की यह अपेक्षा भी थी कि कांग्रेस उन धुर दक्षिणपंथी नीतियों से अलग मध्यमार्ग पर चले, जिन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने बेलगाम होकर अपनाया था। दरअसल, इन्हीं नीतियों की वजह से नरसिंह राव के जमाने में कांग्रेस जनता से कटते हुए अप्रासंगिक होने के कगार पर पहुंच गई थी।

दुर्भाग्य से २००९ के चुनाव के बाद वामपंथी दलों के दबाव से मुक्त होते ही कांग्रेस नेता इस ऐतिहासिक सबक को पूरी तरह भूल गए हैं। वे यह भूल गए हैं कि नरसिंह राव के जमाने वाली नीतियां दरअसल मनमोहन सिंह की ही थीं। और उन्हें यह भी याद नहीं है कि मनमोहन सिंह एक ऐसे नेता हैं, जिनका कुछ भी दांव पर नहीं लगा है। जनता के बीच वे सिर्फ एक बार गए और उसका क्या नतीजा रहा था, कम से कम यह तो कांग्रेस आलाकमान को याद रखना चाहिए। खास ऐतिहासिक परिस्थितियों ने बैंकर और नव-उदारवाद के इस अनुयायी को देश के सबसे अहम पद पर पिछले छह साल से बनाए रखा है। मगर ये परिस्थितियां हमेशा कांग्रेस के हक में नहीं रहेंगी। आम आदमी के नारे के साथ आम आदमी के हितों पर चोट का खेल बहुत लंबा नहीं चलेगा।

बहरहाल, कांग्रेस जो नीतियां अपनाएगी, उसकी तो फिर जवाबदेही है। जनता उसका हिसाब करेगी। लेकिन एयरकंडीशन्ड कमरों में बैठकर बंद और हड़ताल के खिलाफ उपदेश देने वाले समूहों की तो यह भी जवाबदेही नहीं है। इसलिए यह देश की जनतांत्रिक शक्तियों का कर्त्तव्य है कि वे इस बहस में उतरें और जनता द्वारा अपने अधिकार जताने के लिए लंबे संघर्ष से हासिल औजारों की रक्षा करें। देश का फायदा और नुकसान क्या है, इसका हिसाब लगाने का सारा ठेका फिक्की, एसौचैम और सीआईआई के पास नहीं है। और जनता अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए कैसे लड़े, यह जानने के लिए वह न्यायपालिका की मोहताज नहीं है। पांच जुलाई को देश के जन समूहों ने यह बात फिर पुरजोर ढंग से जता दी है।

Saturday, July 3, 2010

मंदी और इंटरनेट की गहरी मार

सत्येंद्र रंजन

भारत में प्रिंट मीडिया अपने खुशहाल दौर में है। अखबारों का सर्कुलेशन बढ़ रहा है और इसी के अनुपात में उनकी आमदनी भी बढ़़ रही है। हर साल दो बार आने वाले इंडियन रीडरशिप सर्वे (आईआरएस) के आंकड़े अखबार घरानों का उत्साह कुछ और बढ़ा जाते हैं। लेकिन यही बात आज पूरी दुनिया के साथ नहीं है। बल्कि धनी देशों में आज प्रिंट मीडिया गहरे संकट में है। संकट पिछले एक दशक से गहराता रहा है, लेकिन पिछले दो वर्षों में आर्थिक मंदी ने कहा जा सकता है कि अखबार मालिकों की कमर तोड़ दी है। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) की ताजा रिपोर्ट ने भी अब इस बात की पुष्टि कर दी है। साफ है कि प्रसार संख्या और विज्ञापन से आमदनी दोनों ही में तेजी से गिरावट आई है। इस रिपोर्ट के इन निष्कर्षों पर गौर कीजिएः

- ओईसीडी के ३० सदस्य देशों में से करीब २० में अखबारों की पाठक संख्या गिरी है। नौजवान पीढ़ी में पाठक सबसे कम हैं। यह पीढ़ी प्रिंट मीडिया को अपेक्षाकृत कम महत्त्व देती है।
- साल २००९ ओईसीडी देशों में अखबारों के लिए सबसे बुरा रहा। सबसे ज्यादा गिरावट अमेरिका, ब्रिटेन, ग्रीस, इटली, कनाडा और स्पेन में दर्ज की गई।
- २००८ के बाद अखबार उद्योग में रोजगार खत्म होने की रफ्तार तेज हो गई। खासकर ऐसा अमेरिका, ब्रिटेन, नीदरलैंड और स्पेन में हुआ।

यह रिपोर्ट इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इसमें न सिर्फ अखबारों के सामने गहराती समस्याओं का जिक्र हुआ है, बल्कि इसने धनी देशों के मीडिया उद्योग की अर्थव्यवस्था और इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव के असर की भी विस्तार से चर्चा की गई है। मसलन, इससे यह बात सामने आती है कि आज दुनिया भर में अखबार सबसे ज्यादा विज्ञापन पर निर्भर हैं। ओईसीडी देशों में उनकी करीब ८७ प्रतिशत कमाई विज्ञापन से होती है। २००९ में अखबारों के ऑनलाइन संस्करणों की आमदनी में भारी गिरावट आई। इसका हिस्सा उनकी कुल आमदनी में महज चार फीसदी रह गया।

जहां तक अखबार घरानों के खर्च का सवाल है, तो सबसे ज्यादा लागत अखबार छापने (प्रोडक्शन), रखरखाव, प्रशासन, प्रचार और वितरण पर आता है। ये खर्च स्थायी हैं, इसलिए मंदी के समय इसमें कटौती आसान नहीं होती और इस वजह से अखबारों के लिए बोझ बहुत बढ़ जाता है। अखबारों की प्रसार संख्या के लिए बड़ी चुनौती इंटरनेट से पैदा हो रही है। कुछ ओईसीडी देशों में तो आधी से ज्यादा आबादी अखबार इंटरनेट पर ही पढ़ती है। दक्षिण कोरिया में यह संख्या ७७ फीसदी तक पहुंच चुकी है। कोई ऐसा ओईसीडी देश नहीं है, जहां कम से कम २० प्रतिशत लोग अखबार ऑनलान ना पढ़ते हों। इसके बावजूद इंटरनेट पर खबर के लिए पैसा देने की प्रवृत्ति बहुत कमजोर है।

दरअसल, मजबूत रुझान यह है कि लोग खबर को कई रूपों में भी पढ़ते हैं और इंटरनेट में भी उनमें से एक माध्यम है। ऐसा देखा गया है कि ऑनलाइन अखबार पढ़ने वालों में ज्यादा संख्या उन लोगों की ही होती है, जो छपे अखबारों को पढ़ते हैं। इसका अपवाद सिर्फ दक्षिण कोरिया है, जहां छपे अखबार पढ़ने का चलन तो कम है, मगर इंटरनेट पर बड़ी संख्या में लोग अखबार पढ़ते हैं।

ऐसा माना जाता है कि युवा वर्ग इंटरनेट पर खबर का सबसे बड़ा पाठक वर्ग है। लेकिन ओईसीडी देश में देखा गया है कि सबसे ज्यादा ऑनलाइन खबर २५ से ३४ वर्ष के लोग पढ़ते हैं। लेकिन ताजा अध्ययन का यह निष्कर्ष है कि आने वाले समय में ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ेगी, जो सिर्फ इंटरनेट पर ही खबरें पढेंगे। हालांकि इसमें इस बात पर चिंता भी जताई गई है कि युवा पीढ़ी के लोग उन खबरों को बहुत कम पढ़ते हैं, जिन्हें परंपरागत रूप से समाचार माना जाता है।

सभी ओईसीडी देशों में ऑनलाइन न्यूज वेब साइट्स पर आने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है। अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक कुल जितने लोग इंटरनेट पर आते हैं, उनमें से करीब पांच फीसदी खबरों की साइट पर भी जाते हैं। बड़े अखबारों का अनुभव है कि अब रोज लाखों लोग उनके पेजों पर आते हैं। यानी इंटरनेट समाचार का माध्यम तो बन गया है, लेकिन मुश्किल यह है कि जिस साइट पर समाचार के लिए पैसा मांगा जाता है, लोग वहां जाना छोड़ देते हैं।

धनी देशं में अखबार पहले से ही इंटरनेट की चुनौती का सामना कर रहे थे। २००८ में आई आर्थिक मंदी ने उनकी मुसीबत बढ़ा दी। तब अनेक अखबारों के बंद हो जाने का अंदाजा लगाया जाने लगा। अमेरिका में बोस्टन ग्लोब और सैन फ्रैंसिस्को क्रोनिकल नाम के अखबारों के बंद होने की अटकलें जब फैलीं तो सनसनी फैल गई। जो अखबार बंद होने के कगार पर नहीं थे, उनकी सेहत भी बहुत अच्छी नहीं थी। अमेरिकन सोसायटी ऑफ न्यूज एडिटर्स के मुताबिक २००७ के बाद से अमेरिका में १३,५०० पत्रकारों की नौकरियां चली गई हैं। लागत में कटौती प्रचलित शब्द हो गया। न्यूजपेपर एसोसिएशन ऑफ अमेरिका के मुताबिक २००८ की पहली तिमाही में अखबारों और उनकी वेबसाइटों को मिलने वाले विज्ञापन में ३५ प्रतिशत की गिरावट आई। सर्कुलेशन में भी भारी गिरावट दर्ज की गई।

संकट यूरोप में भी था। वहां युवा पीढ़ी के इंटरनेट को खबर का मुख्य माध्यम बनाने की समस्या पहले से ही कहीं ज्यादा रही है। ऐसा देखा गया है कि ३५ वर्ष से कम उम्र के बहुत से लोग अब इंटरनेट पर खबर और विश्लेषण पढ़ लेते हैं और अगली सुबह अखबार को छूते तक नहीं हैं। आर्थिक मंदी के दौर यूरोप में यह देखने को मिला कि विज्ञापन अखबार से हटकर वेब साइट्स को जाने लगे। लेकिन पेच यह था कि ये विज्ञापन अखबारों की वेबसाइटों को नहीं, बल्कि सर्च इंजन्स को मिल रहे थे। पिछले दो साल में पूरे यूरोप के मीडिया जगत में अखबारों के अंधकारमय भविष्य की खूब चर्चा रही है।

अखबारों की बुरी हालत का एक उदाहरण फ्रांस का अखबार ले मोंद है। इस अखबार को फ्रांस की अंतरात्मा कहा जाता है। इसकी विशेषता यह रही है कि इसका कोई मालिक कोई पूंजीपति नहीं है। यह पत्रकारों द्वारा संचालित अखबार रहा है। लेकिन आज अखबार दीवालिया होने के कगार पर है। अखबार चलाने वाली कंपनी पर आज १२ करोड़ डॉलर का कर्ज है। अब दीवालिया होने से बचने का एक ही उपाय है कि कंपनी के शेयर किसी पूंजीपति को बेचे जाएं। अगर ऐसा होता है, तो यह पत्रकारों की स्वतंत्रता की कीमत पर होगा। लेकिन इसके अलावा शायद ही कोई विकल्प है।

दरअसल, आर्थिक मंदी और इंटरनेट की चुनौती ने अमेरिका और यूरोप में अखबारों का पूरा स्वरूप ही बदल दिया है। ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनोमिस्ट में छपी एक रिपोर्ट से अखबारों के बदले स्वरूप का अंदाजा लगता है। जब मंदी की गहरी मार पड़ी, तो खासकर अखबारों ने अपना वजूद बचाने के लिए दो तरीके अपनाए- कवर प्राइस यानी दाम बढ़ाना और लागत घटाना। बड़ी संख्या में पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों की नौकरी गई और बहुत से पत्रकारों को अवैतनिक छुट्टी पर भेज दिया गया। कुछ अखबारों में तो एक चौथाई पत्रकार या तो हटा दिए गए या बिना वेतन की छुट्टी पर भेजे गए। इसके अलावा अखबारों ने अपने कई ब्यूरो बंद कर दिए। खास मार विदेशों में स्थित ब्यूरो पर पड़ी।

एक अनुमान के मुताबिक आज अमेरिकी अखबारों में वेतन पर होने वाला खर्च मंदी से पहले की अवधि की तुलना में चालीस फीसदी घट गया है। जिन घरानों के एक से ज्यादा प्रकाशन निकलते हैं, उन्होंने कंटेन्ट साझा करने का नियम अपना लिया। मसलन, अलग-अलग अखबारों और पत्रिकाओं ने एक विषय को कवर करने के लिए पहले जहां अलग-अलग पत्रकार रखे थे, वहीं अब एक पत्रकार द्वारा लिखी गई रिपोर्ट या विश्लेषण ही उस घराने के सभी प्रकाशन छापने लगे।

ये तो वे बदलाव हैं, जिनका पाठकों से सीधा रिश्ता नहीं है। पाठकों को जो बदलाव देखने या झेलने पड़े, उनका संबंध प्रकाशनों के बदले स्वरूप से है। आज अमेरिका के ज्यादातर अखबार पहले की तुलना में कम पेजों वाले हो गए हैं और उनका कंटेन्ट फोकस्ड यानी कुछ विषयों पर केंद्रित हो गया है। मसलन, कई अखबारों ने नई कारों, अन्य दूसरे महंगे उत्पादों और नई फिल्मों की समीक्षा के कॉलम बंद कर दिए हैं। अब जोर उन सूचनाओं को देने पर पर है, जिसका पाठकों से सीधा वास्ता है। यानी पूरी दुनिया और हर क्षेत्र की खबर पेश करने के बजाय अब अखबार किसी खास क्षेत्र और खास वर्ग की सूचना देने की नीति पर चल रहे हैं। मार्केटिंग टीमें उन वर्गों और क्षेत्रों की पहचान पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं, जिनमें अखबार की पहुंच है और उनके माफिक ही अखबार के स्वरूप को ढाला जा रहा है।

परिणाम यह है कि अखबार आज ज्यादातर स्थानीय और खेल की खबरों से भरे रहते हैं। अखबार इन खबरों की रिपोर्टिंग में ही अपने संसाधन लगा रहे हैं। उन पाठकों की चिंता छोड़ दी गई है, जो दुनिया भर और गंभीर मुद्दों के बारे में पढ़ना चाहते हैं। माना जा रहा है कि उन पाठकों की मांग पूरी करना महंगा है, और वैसे पाठकों में विज्ञापनदाताओं की ज्यादा दिलचस्पी नहीं होती।

जानकारों का कहना है कि इन तरीकों से मंदी के दौर में अमेरिकी अखबारों ने अपना वजूद बचा लिया है। मगर कंप्यूटर और आई-पैड पर खबर पढ़ने की बढ़ती प्रवृत्ति से पैदा होने वाली चुनौती का तोड़ वे नहीं ढूंढ पाए हैं। समस्या यह है कि नौजवान पीढ़ी के लोग खबर के लिए पैसा नहीं देना चाहते- चाहे वे अखबार ऑनलाइन पढ़ते हों या ऑफलाइन। अखबारों के दीर्घकालिक भविष्य के लिए इसे बड़ी चुनौती माना जा रहा है।

बहरहाल, अखबारों की ये मुश्किलें अभी धनी देशों की देशों की समस्या ही हैं। विकासशील देशों में रुझान उलटा है। वहां अखबार तेजी से फैल रहे हैं। मसलन, ब्राजील में पिछले एक दशक में सभी अखबारों के पाठकों की कुल संख्या दस लाख बढ़ी है। आज वहां ८२ लाख लोग रोज अखबार पढ़ते हैं। मंदी के दौर में थोड़े समय के लिए वहां भी विज्ञापनों से अखबारों की आमदनी घटी, लेकिन जल्द ही पुरानी स्थिति बहाल हो गई। ब्राजील में तेजी से फैलता मध्य वर्ग अखबारों को नया आधार दे रहा है। लेकिन कंटेन्ट की चुनौती वहां भी है। एक अध्ययन के मुताबिक ब्राजील के अखबारों में ज्यादातर अपराध और सेक्स की खबरें छपती हैं। वहां २००३ में टॉप दस अखबारों में से सिर्फ तीन टैबलॉयड थे, लेकिन इनकी संख्या आज पांच हो चुकी है।

ऐसा ही रुझान हम भारत में भी देख सकते हैं। भारत दुनिया के उन चंद देशों में है, जहां प्रिंट मीडिया का खुशहाल बाजार है। प्रसार संख्या और विज्ञापन से आने वाली रकम- दोनों में हर साल लगातार बढ़ोतरी हो रही है। हिंदी के कम से कम दो अखबारों की पाठक संख्या रोजाना दो करोड़ से ऊपर है। अंग्रेजी के एक अखबार की रोजाना पाठक संख्या सवा करोड़ से ऊपर है। पचास लाख से ऊपर पाठक संख्या वाले अखबार तो कई हैं। इस खुशहाली की बड़ी वजह भारत की आबादी है। पिछले २० वर्षों में देश में शिक्षा का तेजी से प्रसार हुआ है। छोटे शहरों और कस्बों में नव-साक्षरों और नव-शिक्षितों का एक बड़ा वर्ग सामने आया है। यही तबके हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अखबारों का बाजार हैं। मध्य वर्ग के उभार के साथ अंग्रेजी अखबारों का बाजार भी फैला है।

भारतीय अखबारों के सामने इंटरनेट की चुनौती भी अभी नहीं है। इसकी एक वजह इंटरनेट और ब्रॉडबैंड का कम प्रसार और दूसरी वजह इंटरनेट की भाषा आज भी मुख्य तौर पर अंग्रेजी का होना है। इसलिए भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले पाठकों के पास खबर पढ़ने का आज भी एक ही माध्यम है और वह है अखबार। अखबारों का स्वरूप लगातार निखरता गया है। आज प्रोडक्शन क्वालिटी के लिहाज से भारत के अखबार दुनिया के किसी भी हिस्से के अखबारों को टक्कर दे सकते हैं। टीवी न्यूज चैनल अपनी पहुंच और कवरेज के रेंज- दोनों ही लिहाज से एक छोटे दायरे तक सीमित हैं और इसलिए भी अखबारों के व्यापक आधार में सेंध लगाने की हालत में वे नहीं हैं।

लेकिन बात अगर कटेन्ट की करें, तो भारतीय मीडिया के सामने भी वही सवाल और चुनौतियां हैं, जो आज विकसित दुनिया में दिखाई देती हैं। कहा जा सकता है कि मीडिया के सामने आज दोहरा संकट है। पश्चिमी मीडिया मार्केटिंग के संकट से ग्रस्त है और इसका असर उसके कंटेन्ट पर पड़ रहा है। जबकि भारतीय मीडिया मार्केटिंग के लिहाज से खुशहाल है, लेकिन कंटेन्ट के निम्नस्तरीय होने का संकट उसके सामने भी है।

Friday, June 18, 2010

भारत विश्व कप में कब खेलेगा?

सत्येंद्र रंजन

भारत के पास फुटबॉल की विश्वस्तरीय टीम क्यों नहीं है? यही सवाल इस लेखक ने भारतीय फुटबॉल टीम के पूर्व कोच सैयद नईमुद्दीन से पूछा था। नईमुद्दीन ने फौरन कहा- आप मारुति ८०० को मर्सिडीज के साथ नहीं दौड़ा सकते। इसका विस्तार करते हुए उन्होंने कहा कि भारत में बसी नस्लें शारीरिक रूप से कमजोर हैं। यूरोपीय- खास कर स्लाव नस्ल वाली आबादी, और अफ्रीकन शारीरिक गठन में मजबूत होते हैं। फुटबॉल कलात्मक खेल है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा यह शारीरिक ताकत एवं क्षमता की मांग करता है। ९० मिनट तक 110x75 के मैदान में लगातार दौड़ना और विपक्षी टीम के खिलाड़ियों से कौशल और शक्ति में होड़ करना आसान नहीं है।

खेल, समाज और इतिहास पर गहरी निगाह रखने वाले कई जानकारों का कहना है कि भारत की जाति व्यवस्था और अस्पर्श एवं शुचिता की संस्कृति से अवदान के रूप में जो मानसिकता हमें मिली है, वह खेलों में भारत के पिछड़ा बने रहने की एक अहम वजह है। जिस खेल में हर पल शरीर का दूसरे शरीर से स्पर्श होता हो, वह भारतीय अभिजन समाज में स्वाभाविक रूप से वर्जित हो जाता है। इन जानकारों के मुताबिक इसीलिए भारतीय अभिजन ने क्रिकेट को अपनाया, जिसमें दो शरीरों का बहुत कम मौकों पर संपर्क होता है। कुछ अन्य जानकारों की राय रही है कि क्रिकेट जैसा सुस्त खेल, जिसमें शारीरिक ताकत की कम और दिमागी कौशल की ज्यादा जरूरत पड़़ती है, वह स्वाभाविक रूप से भारतीय मानस में ज्यादा स्वीकार्य और संभव दोनों ही साबित हुआ।

क्या यही वजह है कि भारतीय क्रिकेट टीम अपने सबसे बेहतर दौर में भी फील्डिंग में कमजोर बनी रहती है? या जिस क्वालिटी के स्पिनर यहां होते हैं, उसी दर्जे के तेज गेंदबाज नहीं होते? फुटबॉल के संदर्भ में विचार करते समय तंदुरुस्ती से जुड़े ये सवाल प्रासंगिक हो जाते हैं। और इसलिए भी कि ये दोनों खेल अंग्रेजों के साथ ही भारत आए। क्रिकेट को प्रभु वर्ग ने अपनाया, जबकि फुटबॉल अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा आम जन के बीच फैला। दुनिया के स्तर पर आधुनिक फुटबॉल का इतिहास १८६३ में शुरू होता है, जब इंग्लैंड में फुटबॉल एसोशिएशन की स्थापना हुई। १८७२ में इंग्लैंड में शुरू हुआ एफ.ए. कप दुनिया में सबसे पुराना फुटबॉल टूर्नामेंट है, जो आज भी जारी है। लेकिन यह बात भारत में भी बहुत से लोगों को शायद मालूम ना हो कि फुटबॉल का दूसरा सबसे पुराना टूर्नामेंट अपने देश में ही खेला जाता है और वह डूरंड कप है, जिसकी शुरुआत १८८८ में हुई थी।

अभी विश्व कप चल रहा है, तो इस दौरान कई दिलचस्प और महत्त्वपर्ण जानकारियां भी सामने आ रही हैं। मसलन, ऑल स्पोर्ट्स पत्रिका के संपादक मारियो रोड्रिग्ज ने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान महात्मा गांधी के फुटबॉल से रिश्तों की अहम जानकारी प्रस्तुत की है। उनके मुताबिक गांधीजी ने जोहानिसबर्ग और प्रीटोरिया में दो फुटबॉल क्लबों की स्थापना की थी। इनका नाम उन्होंने अहिंसा की अपनी विचारधारा के आधार पर ही पैसिव रेजिस्टेंस क्लब रखा था। इन क्लबों के जरिए उन्होंने फुटबॉल मैचों को दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीय समुदाय के एक जगह इकट्ठा होने का मौका बनाया। उपलब्ध जानकारियों के मुताबिक अनेक मौकों पर गांधीजी मैचों के वक्त मौजूद रहते थे, और हाफ टाइम के दौरान खिलाड़ियों और दर्शकों से रंगभेद संबंधी मुद्दों और अहिंसा की राजनीति पर बातचीत करते थे। गांधीजी के १९१५ में भारत लौट आने के बाद भी ये क्लब कायम रहे, लेकिन आखिरकार १९३६ में बंद हो गए। जानकारों ने ध्यान दिलाया है कि अभिजन का खेल माने जाने वाले क्रिकेट और रग्बी के बजाय गांधीजी ने आमजन के खेल फुटबॉल में रुचि ली और उसका इस्तेमाल दक्षिण अफ्रीका के लोगों के साथ भारतीय समुदाय के लोगों का मेलजोल बढ़ाने के लिए किया।

जाहिर है, आज फुटबॉल जगत में भारत की हालत चाहे जितनी खस्ता हो, इस खेल से इस देश का एक ऐतिहासिक रिश्ता है। और इसी रिश्ते की वजह से भारतीय टीम ने १९५० के फीफा वर्ल्ड कप के लिए क्वालीफाई किया था। हालांकि भारतीय टीम इसलिए वहां नहीं गई, क्योंकि भारतीय खिलाड़ी जूता पहनकर खेलने के आदती नहीं थे, जबकि फीफा के नियमों के तहत खाली पांव नहीं खेला जा सकता था।

यह पहलू ध्यान में रखने लायक है। इसलिए कि खेल में पैसे और तकनीक की बढ़ती दखल का विभिन्न खेलों के मुकाबले से भारत के बाहर बने रहने का गहरा नाता रहा है। मसलन, हॉकी को लीजिए। जब तक ये खेल कुदरती घास पर खेला जाता था, ग्रेफाइट और फाइबल ग्लास के बजाय स्टिक साधारण लकड़ी की होती थी, रबर और प्लास्टिक से बनी गेंदों के बजाय चमड़े की सीवन वाली गेंदें इस्तेमाल की जाती थीं, भारत और पाकिस्तान इस खेल के सिरमौर थे। फुटबॉल भी कुछ दशक पहले तक प्राकृतिक माहौल में खेला जाता था। लेकिन आज कृत्रिम पिच, हाईटेक गेंदों और खिलाड़ियों की तैयारी में इस्तेमाल होने वाली टेक्नोलॉजी ने पूरा नजारा बदल दिया है।

सैयद नईमुद्दीन ने पहले निराशाजनक तस्वीर खींचने के बाद अपनी बात में यह जोड़ा था कि भारतीय टीम विश्व स्तर तक पहुंचे, उसके लिए बहुत तैयारी की जरूरत है। हट्ठे-कट्टे खिलाड़ी ढूंढने होंगे, अंतरराष्ट्रीय स्तर के मैदान और स्टेडियम बनाने होंगे, खिलाड़ियों को ट्रेनिंग देनी होगी, यूरोपीय स्पर्धा जैसा माहौल देना होगा- तब शायद कुछ हो सकता है। इसके साथ यह भी जोड़ा सकता है कि खेल संघों पर से स्वार्थी नेताओं और प्रशासकों का कब्जा खत्म हो और खिलाड़ियों के लिए सामाजिक सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम हो, तो शायद हर चार साल बाद उठने वाले इस सवाल का कुछ उत्तर मिल सकता है कि आखिर दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल में हम क्यों इतने पीछे हैं?

भारत आज उभरती अर्थव्यवस्था वाला देश है। आज यहां बड़ा कॉरपोरेट सेक्टर है। स्पॉन्सर्स की कतार है। सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं (या इच्छाशक्ति हो, तो उपलब्ध हो सकती हैं)। लेकिन इनसे बात बनती नहीं दिखती है। तो क्या दोष सचमुच अपनी खेल या सामाजिक संस्कृति में है? आखिर क्रिकेट में भी तमाम पैसा, प्रभाव और सुविधाओं के बावजूद खेल के मैदान पर हमारी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है, तो क्या इसका संबंध भी उसी संस्कृति से है? जब हम दक्षिण अफ्रीका में एक अद्भुत माहौल, दुनिया पर इस खेल का जुनून, और उन सबके बीच अपने को गायब देख रहे हैं, तो ये कुछ बुनियादी सवाल हैं, जिन पर जरूर सोचा जाना चाहिए। आखिर भारत विश्व कप में कब खेलेगा?

Thursday, June 17, 2010

सामाजिक न्याय के शेष प्रश्न

सत्येंद्र रंजन

क्या जन-गणना में जाति भी पूछी जाए? यह सवाल फिलहाल केंद्र सरकार के एक मंत्रि-समूह के पास है, और उसके फैसले का सबको इंतजार है। सरकार का फैसला राजनीतिक होगा, इस बात का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। ना सिर्फ व्यापक राजनीतिक फलक पर, बल्कि कांग्रेस के भीतर भी इस सवाल पर गहरे मतभेद हैं। हाल में बने राजनीतिक समीकरणों के मद्देनजर सत्ताधारी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के लिए राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी जैसे दलों की अनदेखी करना मश्किल हो गया है। ये दल जातीय जन-गणना के पक्षधर हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी फिर से उसके खेमे में आए मध्य वर्ग और अन्य प्रभु वर्गों की सोच की उपेक्षा भी नहीं कर सकती। इसलिए संभवतः सरकार एक ऐसा फैसला करेगी, जिस पर उसे सर्वाधिक सहमति की उम्मीद होगी।

जाति हमारे समाज की कैसी हकीकत है, वैसे तो हम सबको अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से भी इसका अहसास है, लेकिन हाल में एक अंग्रेजी अखबार में छपी पी सईनाथ की एक रिपोर्ट ने उस पर और रोशनी डाली है। यह रिपोर्ट १९२०-३० दशक के अजात आंदोलन के बारे में है। रिपोर्ट के मुताबिक तब यह आंदोलन आज के महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के एक बड़े इलाके में फैला था। उसके प्रणेता गणपति भभूतकर थे, जिनके प्रभाव से हजारों लोगों ने जाति छोड़ दी और खुद को अजात कहने लगे। लेकिन आज इस आंदोलन का न सिर्फ पराभव हो चुका है, बल्कि उससे जुड़े लोग अपने दादा-नाना के परिवारों की जाति पता कर रहे हैं, ताकि वे उसे सरकारी दफ्तरों और शिक्षा संस्थानों में बता सकें। खुद गणपति भभूतकर के पोतों ने अपने दादा की जाति मालूम की है। यह उदाहरण हमें यह बताता है कि भारतीय समाज में जाति को तोड़ना या छोड़ना कितना मुश्किल है। उदात्त चेतना के लोगों या उनकी संतानों को भी घूम-फिर कर जाति फिर से अपने फंदे में लपेट लेती है।

इसीलिए उत्पीड़ित जातियां अगर अपनी सामूहिक जातीय पहचान को जता कर आज न्याय या समता की मांग करती हैं, तो उसकी एक प्रासंगिकता है। सामाजिक न्याय के एक औजार के तौर पर आरक्षण को स्वीकार किए जाने के पीछे असल में यही सबसे मजबूत तर्क रहा है। उनकी इस दलील में भी दम है कि जातीय उत्पीड़न की सच्चाई पर परदा डालकर जाति नहीं तोड़ी जा सकती।

और अगर एक बार जातीय आधार पर आरक्षण को सामाजिक न्याय का एक जरिया मान लिया गया है, तो समाज की असली जातीय संरचना सबके सामने लाई जाए, यह भी एक जायज मांग है। आरक्षण विरोधियों ने हाल के वर्षों में इस बात को चुनौती देने की कोशिश की है कि भारतीय समाज में आधी से ज्यादा आबादी अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की है। यूपीए के पिछले कार्यकाल में जब उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का मामला सामने आया, तो यहां तक कि उच्चतर न्यायपालिका ने भी सरकार से ओबीसी की संख्या साबित करने को कहा। वैसे यह मुद्दा अप्रासंगिक था, क्योंकि अब तक जितने भी आंकड़े सामने आए हैं, उनमें किसी में यह नहीं कहा गया है कि ओबीसी की जनसंख्या २७ फीसदी से कम है। इसलिए नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक अगर यह संख्या ४१-४२ प्रतिशत भी बताई गई हो, तब भी उससे ओबीसी को मिल रहे आरक्षण का आधार कहीं कमजोर नहीं होता।

फिर भी अगर यह सवाल आरक्षण विरोधी उठाते रहे हैं और अब जन-गणना हो रही है, तो मुख्य रूप से ओबीसी और दलित जन-समूहों में आधार रखने वाली पार्टियों की यह मांग विचारणीय है कि लगे हाथ जातियों की संख्या की गिनती भी कर ली जाए। इस काम में कुछ हलकों से व्यावहारिक दिक्कतों की बात उठाई गई है। ये आशंकाएं निराधार नहीं हैं, लेकिन अगर कोई काम करना होता है, तो उसका रास्ता निकालना होता है। भले जातीय गणना की बात देर से आई है, लेकिन अगर उसकी उपयोगिता अब से भी महसूस की जाती है, तो इस काम को कैसे अंजाम दिया जाए, इस पर सोच-विचार की जरूरत है।

लेकिन इस मुद्दे में असली पेच यह सवाल है कि इस गिनती के लिए जन-गणना के फॉर्म में अनुसूचित जाति/ जनजातियों की तरह ओबीसी के लिए भी एक कॉलम शामिल कर लिया जाए, या सबसे उसकी जाति पूछी जाए? इस सवाल ने उन लोगों के बीच भी मतभेद पैदा कर दिया है, जिनके बीच वैसे सामाजिक न्याय के सामान्य प्रश्नों पर सहमति रहती है। एक मांग यह उठाई गई है कि सबकी जाति पूछी जाए। लेकिन ये मांग उठाने वाले यह साफ नहीं कर पाते कि इससे क्या मकसद हासिल होगा? ओबीसी का कॉलम जोड़ने से सकारात्मक भेदभाव (पॉजिटिव डिस्क्रीमिनेशन) के सिद्धांत पर अमल के रास्ते में खड़ी की जा रही बाधाओं का अगर हल निकल सकता है, तो जातीय गणना को उससे ज्यादा व्यापक बना देने का आखिर उद्देश्य क्या है?

ये सवाल इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनसे बहुत सी दूसरी बातें जुड़ी हुई हैं। और वे बातें सिर्फ जातीय जन-गणना के रास्ते की भौतिक बाधाओं से नहीं जुड़ी हुई हैं। अगर हम प्रतिशोध और विध्न-संतोषी भावनाओं से ऊपर उठकर सोच सकें, तो यह जरूर समझ सकते हैं कि जो लोग संपूर्ण जातीय जन-जनगणना के पक्ष में नहीं हैं, वे सभी जातीय उत्पीड़न जारी रखने के पक्षधर या जातीय प्रभुत्व की अवचेतन मानसिकता से ग्रस्त नहीं हैं। जो जाति तोड़ने या जाति विहीन समाज बनाने की बात करते हैं, उनमें सभी ऐसे नहीं हैं, जिनका इरादा ऐसी आदर्शवादी बातों की आड़ में जातिवाद को कायम रखने का है। दरअसल, जाति तोड़ने के आदर्श को हर हाल में संदेह के नजरिए देखना पिछले डेढ़ सौ साल- और खासकर आजादी के बाद की अवधि- में भारतीय समाज में लगातार आगे बढ़ी आधुनिकीकरण की परिघटना और उदात्त मूल्यों के मजबूत हुए आधार को नकारना है।

पिछले ६२ साल में निसंदेह भारतीय समाज उतना नहीं बदला है, जिससे जातीय उत्पीड़न या धर्म के आधार पर भेदभाव अतीत की बात लगने लगें। लेकिन इस अवधि में कश्मीर से कन्याकुमारी तक आबादी का एक हिस्सा ऐसा जरूर अस्तित्व में आया है, जो अपनी हिंदुस्तानी या इंसानी पहचान को ज्यादा तरजीह देता है। यह वह तबका है, जो भारत के बेहतर भविष्य के प्रति भरोसा पैदा करता है। पूरी आबादी की तुलना में भले यह जन-समूह बहुत छोटा हो, लेकिन यह भारत के उस विचार का मूर्त रूप है, जो स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में पैदा हुआ, और जो दादा भाई नौरोजी से लेकर रवींद्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू, ज्योति बा फुले से लेकर डॉ. अंबेडकर, और बहुत से कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट चिंतकों-कार्यकर्ताओं की देखरेख में पला-बढ़ा। इस चेतना से लैस लोग आज अगर अपनी जाति नहीं लिखवाना चाहते, तो इसके लिए उन्हें मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।

आज हमारे सामने चुनौती क्या है? हमें गणपति भभूतकर की परंपरा को फिर से जिंदा करना है, या उन परिस्थितियों को मजबूत करना है, जिनकी वजह से उनके पोते को अपने दादा की जाति पता करनी पड़ती है? यह ठीक है कि ये परिस्थितियां पिछड़ी जातियों या उनसे उभरे नेताओं ने पैदा नहीं की हैं। बल्कि ये जातियां तो इन परिस्थितियों का शिकार रही हैं। मगर यहीं पर यह प्रश्न प्रासंगिक होता है कि इन नेताओं का मकसद इन परिस्थितियों से लड़ना और उन पर विजय पाना है, या जो लोग जाति को सचमुच नहीं मानते, उन्हें भी अपनी जाति के दड़बे में वापस धकेल देना है?

पेचीदगियां और भी हैं। मगर इन्हें संवेदनशील ढंग से तभी समझा जा सकता है, जब हम न्याय की एकांगी सोच और मूर्ति भंजन की विवेकहीन मानसिकता से उबर पाएं। मसलन, एक उदाहरण लीजिए। आज समाज में अंतर-जातीय विवाह करने वाले दंपतियों की कमी नहीं है। परंपरागत पितृसत्तात्मक व्यवस्था में यह माना जाता है कि अंतर-जातीय विवाह के बाद लड़की अपने पति की जाति में शामिल हो जाती है। लेकिन लैंगिक भेदभाव के प्रति जागरूक बहुत सी स्त्रियां आज इस परिपाटी से संघर्ष करती नजर आती हैं। ऐसे भी मामले हैं, जहां पारिवारिक उपनाम बदलने के विवाद से तलाक तक की नौबत आ गई है। अगर जातीय जन-गणना में सबकी जाति पूछनी अनिवार्य होगी, तो हम ऐसे जोड़ों को किस जाति में रखेंगे? क्या हम स्त्री को उसकी इच्छा के खिलाफ पति की जाति को अपनी जाति बताने के लिए विवश करेंगे? और फिर अंतर-जातीय दंपतियों की संतानों को किस जाति में रखेंगे?

आज मुश्किल यह है कि बहुत से लोग और समूह अपने न्याय के सवाल में इतना मशगूल हो जाते हैं कि वे न्याय के दूसरे प्रश्नों की न सिर्फ अनदेखी करते हैं, बल्कि कई मौकों पर उनके खिलाफ खड़े नजर आते हैं। मसलन, जातीय न्याय की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाली पार्टियां स्त्रियों के लिए न्याय की बात उठने पर उसके खिलाफ झंडा लेकर खड़ी हो जाती हैं, जैसाकि हमने महिला आरक्षण विधेयक के मुद्दे पर देखा है। इसलिए जातीय जन-गणना की मांग में विवेक का साथ छोड़़ कर अपने विध्न-संतोषी मनोविज्ञान में बह जाना कोई अपवाद जैसी बात नहीं है।

अगर बात न्याय की है, तो इसे इसके पूरे संदर्भ में देखा जाना चाहिए। सरकारी नौकरियों या उच्च शिक्षा में आरक्षण इसका सिर्फ एक पहलू है, और यह लड़ाई सामाजिक न्याय के हक में जीती जा चुकी है। इस जीत की बेशक रक्षा करने की जरूरत है, मगर यह अंतिम मुकाम नहीं है। अब न्याय की लड़ाई आर्थिक मोर्चों पर कहीं ज्यादा ताकत और गंभीरता के साथ लड़ने की जरूरत है। न्याय की कोई लड़ाई ऐसी नहीं हो सकती, जो आधी आबादी यानी स्त्री की राजनीतिक भागीदारी, उसके यौन-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता, और जिंदगी के सभी मामलों में खुद निर्णय लेने के उसके अधिकार को नकारने लगे। न्याय की कोई लड़ाई ऐसी भी नहीं हो सकती, जो सार्वजनीन मानवीय मूल्यों को अपना आदर्श न मानती हो और जो इनकी स्थापना के लिए मौजूद वस्तुगत परिस्थितियों की ठोस समझ पर आधारित ना हो।

क्या महज संयोग है कि जातीय आधार पर सामाजिक न्याय की लड़ाई में उबल पड़ने वाले लालू प्रसाद यादव ने अपने १५ साल के शासनकाल में भूमि-सुधार लागू करने की कोई कोशिश नहीं की। हालांकि नीतीश कुमार का भी ऐसा कोई इरादा नहीं है, लेकिन उनकी बनाई बंद्योपाध्याय कमेटी ने जब बटाईदारी कानून बनाने की सिफारिश की तो लालू प्रसाद यादव ने इसे नीतीश कुमार को घेरने का मुद्दा बना दिया। मुलायम सिंह यादव ने बड़े पूंजीपतियों और फिल्मी सितारों की सोहबत में जैसे समाजवाद का दर्शन कराया, क्या उसके बाद भी उनकी महिला आरक्षण विरोधी या जातीय जन-गणना समर्थक बातों के पीछे कोई वैध इरादा देखा जा सकता है? आखिर लालू प्रसाद, मुलायम सिंह और मायावती के लिए परमाणु दुर्घटना देनदारी कानून का सवाल उतना ही जोशीला मुद्दा क्यों नहीं है, जितना महिला आरक्षण का विरोध या जातीय जन-गणना का समर्थन है?

इसीलिए मुद्दा दरअसल रूढ़ हो गई सोच से निकलने का है। जरूरत न्याय के एकांगी जुनून से बाहर आने और न्याय की समग्र सोच विकसित करने की है। समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर ने जातीय जन-गणना के सवाल पर लिखे अपने लेख में इस बात का जिक्र किया है कि तृतीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति ओ चिनप्पा रेड्डी ने आजादी के बाद से जाति को जन-गणना के अलग की समझ पर विचार किया था। उन्होंने कहा था कि अगर जाति को जन-गणना में शामिल किया गया होता, तो आयोग को बहुत सी समस्याओं का सामना न करना पड़ता। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने कहा- “लेकिन अधिक निकट जाकर सोचने पर मुझे लगता है कि जन-गणना प्रक्रिया में जाति को शामिल न कर ठीक ही किया गया। जाति को भूलने की शुरुआत आखिर कहीं न कहीं से तो करनी होगी।”

यह तमाम समस्याओं के बीच भी नए समाज के निर्माण के लिए नए ढंग से सोचने की एक मिसाल है। आज यह मिसाल बेशकीमती है। इसकी अनदेखी हम अपने उच्चतर आदर्शों की अनदेखी करके ही कर सकते हैं।

Tuesday, April 27, 2010

आदिवासी विमर्श के आयाम

सत्येंद्र रंजन

दिवासी आज आधुनिक भारतीय राष्ट्र के सामने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं। ये प्रश्न आज बौद्धिक हलकों को गंभीर विचार मंथन के लिए उद्वेलित किए हुए हैं। निसंदेह एक सीमा तक इसका श्रेय माओवादियों को दिया जाना चाहिए। उन्होंने अपने सशस्त्र संघर्ष से भारतीय राजसत्ता को चुनौती दी है। उनका केंद्रीय आधार भले छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में हो और उनकी सघन गतिविधियों के दायरे में देश के करीब साठ अन्य जिले ही हों, लेकिन वहां जारी हिंसा और प्रति-हिंसा की धमक सारे देश में है। संयोगवश माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में ज्यादातर आदिवासी बहुल इलाके हैं। संयोग से उनमें अधिकांश खनिज संपदा से समृद्ध इलाके हैं। इसलिए बड़ी कंपनियों की उन पर निगाहें हैं, जिनसे आदिवासियों के विस्थापित होने का खतरा है और इससे माओवादियों को अपने संघर्ष को मौजूदा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विमर्श में एक बड़ी ढाल मिल गई है।

इस विमर्श में एक सरकारी और यथास्थितिवादी तबकों का पक्ष है, जिसके मुताबिक माओवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। यह पक्ष कभी यह नहीं कहता कि यह खतरा इसलिए इतना बड़ा हुआ है, क्योंकि आजादी के साठ साल बाद भी सबको न्याय देने का संवैधानिक वादा हमारी वर्तमान व्यवस्था पूरी नहीं कर पाई। दूसरा पक्ष माओवाद समर्थक बुद्धिजीवियों का है, जिनकी राय में माओवादी आदिवासियों को विस्थापन से बचाने और उन्हें बाहरी शोषकों से मुक्ति दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन यह पक्ष कभी इसका जिक्र नहीं करता कि माओवादियों के लिए आदिवासियों के प्रश्न महज कार्यनीतिक (टैक्टिकल) मुद्दे हैं, जो राजसत्ता पर सशस्त्र कब्जे की उनकी व्यापक रणनीति का महज एक पहलू है।

बहरहाल, अभी छिड़ी बहस में आदिवासियों से जुड़े कई ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मुद्दे भी सामने आ रहे हैं। मसलन, मशहूर इतिहासकार रोमिला थापर और अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी के एक संयुक्त लेख की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए- “अतीत के ग्रंथों में जंगल के लोगों, वनवासियों को आम तौर पर ‘अन्य’ के रूप में पेश किया गया है- राक्षस के रूप में- ऐसे लोग जो काले बादलों की तरह और खूनी आंखों के साथ जंगल में विचरण करते थे, जो हर गलत चीज खाते और पीते थे, जिनके यौन संबंधों के गलत नियम थे, जो एक विचित्र प्राणी थे, हो ‘हमसे’ बहुत अलग थे।” इसी लेख में यह बताया गया कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में आदिवासियों को उपद्रवी बताकर उनकी निंदा की गई है, जबकि सम्राट अशोक ने उन लोगों को धमकी दी थी, हालांकि यह नहीं बताया था कि यह धमकी क्यों दी गई।

लेख में आगे कहा गया- “विभिन्न राजवंशों के जंगलों में विस्तार से जो हित जुड़े थे, उसके स्पष्ट कारण हैं। जंगलों से सेना के लिए हाथी मिलते थे, लोहा समेत दूसरी खनिज संपदा वहां थी, मकान के लिए लकड़ी मिलती थी, जंगलों की सफाई से खेती की जमीन में इजाफा होता था और इसके परिणास्वरूप ज्यादा जमीन पर खेती से राजस्व में बढ़ोतरी होती थी। बाद के युगों में, उन स्थितियों में भी जब वनवासियों पर निर्भरता रहती थी, उनके प्रति परंपरागत नजरिया यही था कि ये लोग सामाजिक दायरे से बाहर हैं और उनसे दूर ही रहना है।” यह कहने के बाद रोमिला थापर और अमित भादुड़ी ने सवाल उठाया कि क्या यह तौर-तरीका आज से अलग था?

तो आज क्या हो रहा है? इस विषय में एक महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप ब्रिटिश नृतत्वशास्त्री (एंथ्रोपॉलिजिस्ट) फेलिक्स पैडेल का है। उन्होंने अपनी किताब “सैक्रिफाइसिंग पीपुल- इनवेज़न ऑफ ए ट्राइबल लैंडस्केप” का नया संस्करण पेश कर अभी जारी विमर्श में कुछ खास तथ्य और एक अहम नज़रिया जोड़ा है। इस किताब की भूमिका लिखते हुए ह्यूज ब्रॉडी ने लिखा है कि जब वे मध्य प्रदेश की यात्रा पर गए थे, तो कई मानवीय दृष्टि वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने धीमे स्वरों में उनसे चर्चा की थी कि दूरदराज के गांवों में आदिवासी बच्चों की बलि देते हैं। जबकि जिन मंत्रियों और अर्थशास्त्रियों से वे मिले, उन्होंने बुलंद आवाज में कहा कि कुछ ग्रामीणों को “राष्ट्र के हित में” अपनी बलि देनी होगी।

फेलिक्स पैडेल की यह किताब बलि की इन्हीं दोनों धारणाओं को चर्चा के केंद्र में रखते हुए आगे बढ़ी है। यह जान लेना दिलचस्प होगा कि फेलिक्स पैडेल ने शिक्षा भले ऑक्सफोर्ड से पाई हो, लेकिन पिछले डेढ़ दशक में उनका काफी समय उड़ीसा के आदिवासी इलाकों में बीता है। बल्कि उड़ीसा एक तरह से उनका आधा घर है। वे वेल्स (ब्रिटेन) और उड़ीसा दोनों को अपना निवास बताते हैं। वे भारतीय और पश्चिमी दोनों परंपराओं के संगीत के दक्ष कलाकार हैं। आदिवासियों की बात करते हुए फेलिक्स पैडेल अपनी बात को जितनी बौद्धिक ऊंचाइयों तक ले जाते हैं, उतने ही जोश और आक्रोश के साथ वे उसे अभिव्यक्त भी करते हैं।

“सैक्रिफाइसिंग पीपुल” का विषय उड़ीसा के कोंड आदिवासी हैं। लेकिन यह महज उनका नृतत्वशास्त्रीय या उनके इतिहास का अध्ययन नहीं है। यह कोंड आदिवासियों के माध्यम से ब्रिटिश उपनिवेशवाद, ईसाई मिशनरियों की दुनिया को ‘सभ्य’ बनाने की मुहिम, आधुनिक विकास और इन सबके लिए आदिवासियों से ली गई बलि का एक विस्तृत आख्यान है। फेलिक्स पैडेल ने बात यहां से शुरू की है कि कोंड आदिवासियों में नरबलि की परंपरा कैसे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों और ईसाई मिशनरियों के लिए उन्हें अपने अधीन करने और उनके संसाधनों पर कब्जा जमाने का माध्यम बन गई। इस पूरी कथा को आगे बढ़ाते हुए फेलिक्स पैडेल आज के दौर तक आते हैं और “राष्ट्र के हित” में आदिवासियों से बलि लेने की बात की व्याख्या और वर्णन करते हैं। यह एक विचारोत्तेजक और कई मायने में आंखें खोलने वाला वर्णन है।

लेकिन यह संभवतः ज्यादा विवेकपूर्ण होता, अगर “बलि का विमर्श” एक बलि के अन्यायी एवं क्रूर स्वरूप को सामने लाने के लिए दूसरी बलि को उचित ठहराने की हद तक जाता नहीं दिखता। आदिवासियों से जुड़े विमर्श की यह एक बड़ी विडंबना रही है। उनसे हुए ऐतिहासिक अन्याय की बात करते हुए उनकी परंपराओं और जीवन-शैली के महिमामंडन की एक विचित्र प्रवृत्ति हावी हो जाती है। यहां तक कि दुनिया की सारी समस्याओं का हल आदिवासियों की जीवन-शैली में निहित बता दिया जाता है। उनके अंधविश्वास, उनके देवी-देवता, उनकी सामाजिक रीतियां- विवेक और तर्क की कसौटी पर नहीं कसे जाते और उन्हें कुछ उसी तरह पवित्र मान लिया जाता है, जैसे हिंदू परंपरा में गाय या गंगा को समझा जाता है।

फेलिक्स पैडेल ने अंग्रेजों के इस दावे का जिक्र किया है कि उन्होंने कोंड आदिवासियों में बलि की परंपरा खत्म की। इसके लिए कुछ दस्तावेजों का हलावा दिया है। इसके बाद बलि की धारणाओं पर सवाल उठाए हैं। पहले कहा है कि बलि की धारणा सिर्फ आदिवासियों में नहीं रही। यह हिंदू और ईसाई परंपराओं में भी उसी हद तक रही है। और उसके बाद सभ्यता की यात्रा का जिक्र करते हुए कहा है कि इसमें कोई बहुत बड़ी गड़बड़ी हो गई है। आधुनिक युद्धों, नाजियों द्वारा यहूदियों के सफाये की कोशिश, कंबोडिया, अंगोला और यूगोस्लाविया के नरसंहारों का जिक्र करते हुए कहा है कि इन अत्याचारों को आदिम प्रवृत्तियों का उभार कहा गया। इसके बाद सवाल उठाया है कि हम इन्हें सैकड़ों में वर्षों में विकसित हुए उन सत्ता रूपों की तार्किक परिणति क्यों नहीं कह सकते, जिनका रुझान अमानवीयकरण रहा है, जिससे मानव अस्तित्व के सार-तत्व की बलि ली गई है।

अब इन पंक्तियों पर नजर डालिए- “हम मानव बलि की रीतियों को क्रूर एवं गैर-जरूरी, अंध-विश्वास से प्रेरित हत्याओं के रूप में देख सकते हैं, लेकिन इनमें कम से कम जिस मानव जीवन को लिया जाता है, उसकी पवित्रता की पुष्टि की जाती है। लेकिन बलि की शब्दावली से अलग उपरोक्त आधुनिक किस्म की हिंसा में उस पवित्रता से पूरी तरह इनकार किया जाता है। हिंसा के इसी प्रकार ने बार-बार आदिवासियों को निशाना बनाया है।”

फेलिक्स पैडेल ब्रिटिश हैं और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दिनों में हुए अत्याचार को लेकर कई मौकों पर क्षमाप्रार्थी नज़र आते हैं। वे आधुनिक सभ्यता का हिस्सा हैं और इसके आदिवासी विरोधी स्वरूप पर दोष-भावना से ग्रस्त दिखते हैं। ये दोनों बातें उनकी गहरी संवेदनशीलता एवं प्रायःश्चित भावना को जाहिर करती है। इसीलिए वे जो विमर्श प्रस्तुत करते हैं, वह ईमानदार और इन विषयों में दिलचस्पी रखने वाले हर व्यक्ति के लिए एक जरूरी दस्तावेज बन जाता है। इसके बावजूद जब हम बौद्धिक विमर्श के दायरे में प्रवेश करते हैं, इससे उपजने वाले सवालों की हम अनदेखी नहीं कर सकते।

सवाल यह है कि क्या हर हाल में आदिम प्रवृत्तियों का महिमामंडन और मानवीय मेधा से हासिल तकनीक और ज्ञान आधारित उपलब्धियों की अनिवार्य निंदा विवेक एवं तर्क की कसौटियों पर स्वीकार्य हो सकता है? यह मानना कि आदिवासी जो मानव बलि देते थे, उसमें मानव जीवन की पवित्रता का बोध रहता था- एक संतुलित तार्किक नजरिया है या एक तरह का चरमपंथ है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। अभी हमने हरियाणा में खाप पंचायतों का फैसला देखा है। सगोत्रीय विवाह उन इलाकों की परंपरा में पाप है और अब ये पंचायतें चाहती हैं कि इसे कानूनी मान्यता मिले। क्या पारिवारिक इज्जत की उनकी दलीलों को इस आधार पर मान्यता दी जानी चाहिए कि आखिर देश और राष्ट्र की इज्जत के नाम पर अनगिनत युद्ध लडेक गए हैं, जिनमें हजारों लोग मारे गए हैं तो आखिर अगर कुछ युवक-युवतियों की वे हत्या कर देते हैं, तो यह आज की सभ्यता के मूल्यों से ज्यादा अमानवीय नहीं है।

अक्सर यह देखने में आता है कि आदिवासी समाजों से आने वाले नेता और बुद्धिजीवी (अगर वे एनजीओ के मकड़जाल में नहीं हैं तो) आधुनिक विकास के प्रति वैसा द्रोह भाव नहीं रहते, जैसा आदिवासियों के बीच काम करने वाले मध्य वर्ग से आने वाले अन्य कार्यकर्ता रखते हैं। मसलन, आप रामदयाल मुंडा को लें। झारखंड में उन्हें आदिवासी हितों का प्रवक्ता माना जाता है। आदिवासियों को बिजली और आधुनिक जीवन शैली की सुविधाएं मिलें, इसके वे समर्थक हैं। यहां तक कि वे नदियों को जोड़ने की योजना को भी सही मानते हैं। जाहिर है, आदिवासी प्रश्नों को वे प्रगतिशील संदर्भों में देखते हैं। मगर मध्य वर्ग से आए ऐसे बहुत से कार्यकर्ता मिलेते हैं, जो आदिवासियों को उनके ‘प्राकृतिक परिवास’ में सीमित रखने की वकालत पूरी आस्था से करते दिखेंगे।

समाजशास्त्री अमिता बावीसकर खुद आदिवासियों के बीच सक्रिय रही हैं। कुछ साल पहले उन्होंने दृष्टिकोणों के इस अंतर्विरोध के बारे में एक महत्त्वपूर्ण शोध-पत्र लिखा था। उनकी इन बातों पर ध्यान दीजिए- “कार्यकर्ताओं द्वारा टिकाऊ (ससटेनेबल) विकास के लिए आदिवासी समूहों को संगठित करने की पूरी कोशिश के बावजूद यह यूटोपिया हमेशा की तरह दूर ही रहा है। जबकि जहां भी मध्य-वर्गीय कार्यकर्ताओं का हस्तक्षेप नहीं रहा है, आदिवासियों के दावे ने बिल्कुल अलग दिशा पकड़ी है। यह दिशा एक तरह की अल्पसंख्यक अस्मिता की राजनीति की रही है, जिसका टिकाऊ विकास के सिद्धांतों के बारे में अस्पष्ट रुख रहा है। इसकी वजह क्या है? (हमारी) दलील है कि कार्यकर्ता और आदिवासी नेता समाज परिवर्तन के जिन सिद्धांतों को लेकर चलते हैं, ग्रामीण लोगों एवं पर्यावरण के बीच संबंध के बारे में उनकी शुरुआत अलग-अलग परिप्रेक्ष्यों से होती है।”

फेलिक्स पैडेल ने आदिवासियों के बीच काफी समय गुजारा है। वे एक प्रतिभाशाली नृतत्वशास्त्री हैं, इसलिए संभवतः इस बात को चुनौती नहीं दी जा सकती कि वे कोंड आदिवासियों के इतिहास और वर्तमान को गहराई से समझते हैं। लेकिन मुश्किल तब होती है, जब यह विमर्श राजनीतिक संदर्भ लेता है। इसमें संभवतः वही अंतर्विरोध और समस्याएं खड़ी हो जाती हैं, जिनकी व्याख्या अमिता बावीसकर ने की है। साफ है, आदिवासियों से इतिहास में हुए अन्याय को समझना और उसके निराकरण की राजनीति को बल देना एक बात है, लेकिन उस विमर्श को भावनात्मक और रोमांटिक बना देना बिल्कुल दूसरी बात है। रोमिला थापर और फेलिक्स पैडेल जैसे विद्वानों का हस्तक्षेप पहले मकसद में सहायक होता है।

लेकिन इसका दूसरा परिणाम चरमपंथी नजरिए एवं उग्रवादी राजनीति को वैधता देने की तरफ जाता है और इससे सतर्क रहने की जरूरत है। हाल की घटनाओं के क्रम में फेलिक्स पैडेल ऐसी सतर्कता से दूर जाते दिखे हैं, तो इसकी जड़ें संभवतः उनके पूरे वैचारिक रुझान में छिपी है। लेकिन उसे देश की हर जनतांत्रिक शक्ति स्वीकार नहीं कर सकती। आदिवासी विमर्श को आज ज्यादा ठोस और तार्किक रूप देने की जरूरत है।

Tuesday, April 20, 2010

यह क्रिकेट तो कतई नहीं है

सत्येंद्र रंजन

शि थरूर गए। उन्हें जाना ही चाहिए था। थरूर ने अपने मंत्री पद के प्रभाव का इस्तेमाल इंडियन प्रीमियर लीग में कोच्चि की टीम रेंडवू नामक ग्रुप को दिलवाने में किया किया। इसके बदले रेंडवू ने उनकी दोस्त सुनंदा पुष्कर को ७५ करोड़ रुपए की ‘स्वीट इक्विटी’ यानी पुरस्कार स्वरूप शेयर दिए। यह बात तकनीकी रूप से भले घूस के दायरे में न आती हो, लेकिन वास्तविक अर्थ में इसे रिश्वत ही माना जाएगा। गौरतलब है कि थरूर और सुनंदा के जल्द ही शादी करने की चर्चा है। बहरहाल, यह मामला यह खुलासा भी कर गया है कि फ्रेंचाइजी कंपनियों ने पाक-साफ ढंग से आईपीएल की टीमें नहीं हासिल की हैं। इसके पीछे सत्ता के दुरुपयोग और बड़े पैसे का खेल रहा है।

कहा जा रहा है कि शशि थरूर ने अपने प्रभाव के इस्तेमाल से रेंडवू को कोच्चि की टीम दिलवा दी और इस तरह आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी की अडानी और वीडियोकॉन ग्रुपों को अहमदाबाद की टीम देने की मंशा नकाम हो गई। मोदी ने इसका बदला रेंडवू के शेयरधारियों का खुलासा ट्विटर पर अपने संदेश से कर दिया। इस तरह सुनंदा पुष्कर का नाम सामने आ गया और मोदी ने थरूर से बदला ले लिया। इस पर मोदी जरूर खुश होंगे।

लेकिन इस क्रम में आईपीएल के भीतर चल रहा सारा गड़बड़झाला भी सार्वजनिक चर्चा में आ गया है। इसके पहले कि आगे बढ़ें, इन बातों पर गौर कीजिए- “.... बीसीसीआई (पदाधिकारियों) के मालिकों के रूप में (आईपीएल) टीमों में सीधे हित जुड़े हुए हैं, इन लोगों का इसमें (आईपीएल) में सीधा लाभ है और यह एक खतरनाक बात है।.... जो लोग सबके लिए, खेल के सभी पहलुओं के बारे में खेल एवं देश के हित में और दीर्घकाल के लिए नियम बनाते हैं, उन्हें वैसे भी आईपीएल में शामिल होने से अलग रहना चाहिए।”

सोचिए, यह किसका बयान है। यह बयान है देश के खेल मंत्री एमएस गिल का। और ये बातें थरूर-मोदी विवाद सामने आने से काफी पहले कही गईं। इन बातों का मतलब समझने के लिए इस पर गौर कीजिए कि ललित मोदी आईपीएल के अध्यक्ष और कमिश्नर हैं और वे भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के उपाध्यक्ष भी हैं। एन श्रीनिवासन बीसीसीआई के सचिव हैं और इंडिया सीमेंट्स के बड़े पदाधिकारी भी हैं। इंडिया सीमेंट्स कंपनी आईपीएल की टीम चेन्नई सुपर किंग्स की मालिक है। के श्रीकांत भारतीय टीम के मुख्य चयनकर्ता हैं और वे चेन्नई की टीम के एबेंसडर भी हैं।

जब खेल मंत्री ने यह बयान दिया था, उस वक्त यह मालूम नहीं था कि आईपीएल की दो टीमों -राजस्थान रॉयल्स और किंग्स इलेवन पंजाब– में ललित मोदी के दो निकट रिश्तेदारों की हिस्सेदारी है। उस वक्त यह इल्जाम भी सामने नहीं आया था कि मोदी ने टीमों की बिडिंग प्रक्रिया के दौरान गोपनीय जानकारियां अपने लोगों को दीं, जिससे उन्होंने निविदा में आए दामों से थोड़ी ज्यादा रकम का दांव लगा दिया और टीम पाने में सफल हो गए। तब यह भी मालूम नहीं था कि मोदी के एक रिश्तेदार कंपनी को आईपीएल के मोबाइल अधिकार बेचे गए।

लेकिन कोई इस भ्रम में ना रहे कि शशि थरूर इन्हीं बातों से परेशान थे, इसलिए उन्होंने मोदी से लोहा लिया। नहीं, थरूर ने मोदी से कोई लोहा नहीं लिया। बल्कि एक दौर में मोदी से उनकी खूब छनती थी। अब सरसरी तौर पर जो बातें सामने आई हैं, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि दोनों के बीच इस बात पर ठनी कि रेंडवू को टीम मिले या नहीं। मोदी नहीं चाहते थे, थरूर यह करवाने में सफल हो गए। सुनंदा पुष्कर को पुरस्कार दिलवाना इसके पीछे उनकी कितनी बड़ी प्रेरणा थी, कुछ ठोस ढंग से नहीं कहा जा सकता। लेकिन ऐसा करने के बदले सुनंदा को पुरस्कार मिला, यह साफ है।

अब इस भ्रम में भी रहने की जरूरत नहीं है कि इतना बड़ा गड़बड़झाला साफ हो जाने के बाद देश की व्यवस्था आईपीएल को दुरुस्त बनाने और बीसीसीआई को संदेहों के दायरे से बाहर लाने में लग जाएगी। गौर कीजिए कि जिस वक्त मीडिया में ललित मोदी द्वारा नियम-कायदों के उल्लंघन की खबरें जोरदार ढंग से छप रही हैं, उसी वक्त एक टीवी चैनल पर आकर केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने उनका बचाव किया। पवार कुछ समय पहले तक बीसीसीआई के अध्यक्ष थे और जल्द ही अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) के अध्यक्ष बनने वाले हैं। बीसीसीआई के मौजूदा अध्यक्ष शशांक मनोहर उनके ही आदमी माने जाते हैं। बीसीसीआई में नेताओं की मौजूदगी देखनी हो, तो इस सूची में केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला और सीपी जोशी से लेकर राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला और राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव तक नजर आएंगे। कई नेताओं के रिश्तेदार वहां मौजूद हैं। उद्योगपतियों के लोग वहां हैं। और पिछले तीन साल में आईपीएल के साथ देश के क्रिकेट से बॉलीवुड का ग्लैमर भी जुड़ा है।

इसलिए खेल मंत्री एमएस गिल संभवतः विवेक की ऐसी आवाज हैं, जो नक्कारखाने में तूती की तरह है। जहां देश के कई ताकतवर नेता, सबसे बड़े उद्योगपति एवं निवेशक, सबसे सफल फिल्म स्टार और तमाम क्रिकेटर एक पक्ष में हों, वहां सही-गलत की चेतावनी कौन सुनेगा? यह ठीक है कि आज थरूर-मोदी विवाद से उछले कीचड़ की वजह से ललित मोदी का धन एवं सफलता के दर्प से चमकता चेहरा धूमिल हो गया है। यह भी सच है कि कल तक जिस आईपीएल को क्रिकेट की नई लोकप्रियता और क्रिकेट के कारोबार में कामयाबी का प्रतीक माना जा रहा था, वह आयोजन आज संदेह के गहरे घेरे में है। इसके बावजूद आय कर विभाग द्वारा शुरू की गई कार्रवाई जांच के दायरे को व्यापक करते हुए किसी तार्किक परिणाम तक जाएगी, ऐसा सोचना उम्मीद के खिलाफ जैसे उम्मीद करने जैसा है।

बहरहाल, आशंकाओं का दायरा इतना बड़ा है कि अब मेनस्ट्रीम मीडिया में भी इस आयोजन की तुलना अमेरिकन बेसबॉल के ब्लैक सॉक्स घोटाले से की जा रही है। एक दौर में उस टूर्नामेंट में काले धन, अंडरवर्ल्ड, सट्टेबाजों, और मैच फिक्सिंग करने वाले खिलाड़ियों का ऐसा जमावड़ा हो गया था कि उसकी सफाई के लिए प्रशासन को कड़े कदम उठाने पड़े। क्रिकेट में कुछ ऐसा ही नज़ारा १९८० के दशक में शारजाह में देखने को मिला, जहां अब्दुल रहमान बुखातिर ने दाऊद इब्राहिम समेत दूसरे अंडरवर्ल्ड डॉन्स, फिल्मी सितारों, सट्टेबाजों और मैच फिक्सिंग का ऐसा तालमेल रचा, जिससे क्रिकेट की पूरी दुनिया कलंकित हो गई। उस दौर में केसी सिंह संयुक्त अरब अमीरात में भारत के राजदूत थे। थरूर-मोदी का ताजा विवाद उभरने के बाद उन्होंने एक टीवी चैलन पर कहा कि उस दौर में जो शारजाह में हो रहा था, वह अब उससे भी बड़े स्तर पर आईपीएल में देखने को मिल रहा है।

इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि समस्या कितनी गंभीर है। ललित मोदी ने कोच्चि टीम में निवेश के स्वरूप को बेनकाब किया, तो दूसरी टीमों के मालिकाने पर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं। मोदी पर आरोप लगा है कि टीमों के लिए बिडिंग (निविदा) के दौरान वे गोपनीय सूचनाएं लीक करते रहे हैं और कोच्चि की टीम मैदान से हट जाए, इसके लिए उन्होंने सवा दो अरब रुपए घूस देने की पेशकश की थी। टीमों में निवेश के लिए धन कैसे जुटाया गया, इस पर इससे भी गंभीर सवाल हैं। क्या मॉरीशस रूट से पैसा लाकर मनी लॉन्ड्रिंग (काले धन को गैर कानूनी रूप से सफेद करना) के मकसद से उनका कई टीमों में निवेश हुआ है? अगर ऐसा हुआ है तो जाहिर है कि पैसा लगाने वालों का उद्देश्य क्रिकेट की सेवा या खेल से लगाव नहीं, बल्कि अपने काले कारोबार को आगे बढ़ाना ही होगा।

शशि थरूर से सुनंदा पुष्कर का नाम जुड़ा है, तो यह संगीन सवाल भी सामने है कि दक्षिण अफ्रीका की मॉडल गैब्रियला दिमित्रिए़दस के साथ आखिर ललित मोदी के क्या संबंध रहे हैं? आखिर मोदी क्यों चाहते थे कि ग्रैबियला भारत ना आए? ग्रैब्रियला को वीजा न मिले इसके लिए वो थरूर के दफ्तर को भेजे गए उनके ई-मेल उजागर हो चुके हैं। क्या ये बातें यह बयान नहीं करतीं कि आईपीएल हर तरह के भ्रष्ट आचरण, मर्यादा की अनदेखी और संभवतः कानून के उल्लंघन का भी अखाड़ा बना हुआ है?

सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है, इसके संकेत तो लगातार मिल रहे थे। मगर आईपीएल की सफलता का मीडिया में महिमामंडन इस कदर होता रहा है कि सामने दिख रही गड़बड़ियों पर सवाल उठाना अभी तक मुश्किल लगता था। मसलन, आईपीएल के मैच शबाब के डांस और शराब में डूबे धनाढ्य दर्शकों के साथ नाइट क्लब जैसा नजारा पेश करते हैं। एसएमएस से खेले जाने वाले कई खेल बिल्कुल जुआ हैं और ये आईपीएल मैचों में कसिनों का अंदाज जोड़ते रहे हैं। मगर इन सबको एक साथ जोड़ कर आईपीएल द्वारा पेश की जा रही संस्कृति पर किसी हलके से सवाल नहीं पूछे गए।
तेज म्यूजिक, चीयर गर्ल्स के डांस और आतिशबाजियों की चमक एवं शोर के बीच इस बात पर कौन ध्यान देता कि इन सबके बीच क्रिकेट के साथ क्या हो रहा है? बीच-बीच में कभी सौरव गांगुली, तो कभी शेन वॉर्न यह कहते रहे हैं कि चौकों और छक्कों को आसान बनाने के लिए बाउंड्री लगातार छोटी की जा रही है। कभी हरभजन सिंह यह शिकायत जताते रहे कि क्रिकेट के इस नए रूप में गेंदबाज बलि का बकरा बन गए हैं, जिन्हें रोज कटना ही होता है। मदमत्त दर्शक ऊंचे छक्कों पर उछलते हैं, इसलिए छक्के खूब लगें, इसे सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। मैचों के बीच में खिलाड़ियों से कमेंटेटर्स की बातचीत का उनकी एकाग्रता और इस लिहाज से खेल पर क्या असर हो सकता है या अंपायर से बातचीत के बीच कोई उनका अहम फैसला प्रभावित हो सकता है, इस पर भी सोचने की फुर्सत किसी को नहीं रही है।
क्रिकेट गेंद और बल्ले के बीच मुकाबले का खेल है। प्रतिस्पर्धा बराबरी की हो, तभी इस खेल का असली आनंद है। लेकिन आईपीएल में गेंदबाजी को जैसे अप्रसांगिक ही कर देने की कोशिश देखने को मिल रही है। क्रिकेट से लगाव रखने वाले लोग दुनिया भर में इससे चिंतित हैं, मगर आईपीएल के शोर-शराबे में उनकी बात कौन सुनता है?

एक बार फिर खेल मंत्री गिल के बयान की तरफ लौटते हैं। गिल तब आरोप लगाया था कि आईपीएल में नियम बदले जा रहे हैं और मनोरंजन के नाम पर खेल की स्थितियों को बल्लेबाजों के मुताबिक ढाला जा रहा है, जिससे खेल में गेंदबाजों की भूमिका घट रही है। उन्होंने कहा- “गेंदबाज सिर्फ शिकार है और और बल्लेबाजों के लिए अब म़ॉन्गूज बैट है.. मैं कोबरा बैट का इंतजार कर रहा हूं। मैंने सुना है कि बाउंड्रीज छोटी कर दी गई हैं। यह सब लोगों के मनोरंजन के लिए किया जा रहा है। गेंदबाज इस प्रोमोशन में सिर्फ एक हथकंडा बनकर रह गए हैं।” गिल ने कहा- “पांच दिन के टेस्ट मैचों के लिए चुनौती पैदा हो गई है, आप देखते हैं कि उन्हें देखने को कोई नहीं आता। यहां तक कि ५० ओवरों के मैच को भी घटाकर २० ओवरों का कर दिया गया है। कभी-कभी मैं मजाक में कहता हूं कि टी-५ या टी-१ खेलो या फिर आधे ओवर में मैच निपटा दो।”

गिल की इन बातों में हजारों क्रिकेट प्रेमियों का दर्द है। जब ये क्रिकेट प्रेमी नए खेल के कर्ता-धर्ताओं के खेल की समझ पर नजर डालते हैं तो तरस खाने के अलावा उनके पास और कुछ करने को नहीं होता। मसलन, खिलाड़ियों की लगाई गई कीमतों पर ध्यान दीजिए। जब ईशांत शर्मा ग्लेन मैक्ग्रा से महंगे बिकें या काइरन पोलार्ड को रिकी पॉन्टिंग या राहुल द्रविड़ से ज्यादा पैसे मिलें, तो समझा जा सकता है कि आईपीएल में प्रतिभा, खेल की गहराई और उपलब्धियों की कितनी अहमियत है। मगर ये सवाल कौन पूछे? धनी-मानी निवेशकों, प्रचार के भूखे एवं अपनों को फायदे पहुंचाने पर आमादा राजनेताओं, मोदी मार्का क्रिकेट प्रशासकों और प्रायोजकों ने एक ऐसा आभामंडल बुन रखा है, जिसमें बनावटी चीज असली से भी ज्यादा ठोस दिख सकती है।

यह ठीक है कि आईपीएल ने अपना नया बाजार बनाया है। उसने क्रिकेट के दर्शक बनाए हैं। इनके बूते पर आईपीएल मैचों को अपेक्षाकृत ऊंची टीआरपी मिल रही है। इससे प्रसारक टीवी चैनल को ऊंची दरों पर विज्ञापन मिल रहे हैं। साथ ही विज्ञापन का पैसा इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट समाचार माध्यमों में भी बह रहा है। यानी जिनके बड़े दांव हैं, उन सबको फायदा है।

तो सूरत आखिर कैसे बदलेगी? जैसाकि हमने ऊपर देखा है, इस गोरखधंधे के चलते रहने में बड़े-बड़े रसूखदार लोगों के हित हैं। खिलाड़ियों को भी इस धंधे की वजह से उतना पैसा मिल रहा है, जो पहले वे सपने में भी नहीं सोच सकते थे। खिलाड़ियों को पैसा मिले, यह अच्छी बात है। आखिर उनकी ही प्रतिभा से तो यह पूरा धंधा चल रहा है। लेकिन समस्या तब होती है, जब खेल से पैसा मिलने के बजाय खिलाड़ी पैसे के लिए ही खेलने लगते हैं। इसका तार्किक परिणाम सट्टेबाजों के शिकंजे और मैच फिक्सिंग के रूप में सामने आता है, ऐसा कई खेलों का इतिहास हमें बताता है। क्या खेल और दर्शकों के साथ ऐसे विश्वासघात की आशंका को कोई आज बेबुनियाद बता सकता है?

क्रिकेट का यह आईपीएल दौर खिलाड़ियों के नजरिए को कैसे बदल रहा है, इस समझने के लिए हमें राहुल द्रविड़ जैसे दिग्गजों की राय पर गौर करना चाहिए। द्रविड़ एक थिंकिंग (सोचने-समझने वाले) क्रिकेटर माने जाते रहे हैं। कुछ समय पहले क्रिकइन्फो डॉट कॉम की एक चर्चा में उन्होंने कहा कि सुरेश रैना और रोहित शर्मा जैसे आज के प्रतिभाशाली खिलाड़ियों में टेस्ट खेलने की वैसी बेताबी नज़र नहीं आती, जैसी उनकी (द्रविड़ की) पीढ़ी के खिलाड़ियों में होती थी। द्रविड़ ने कहा कि फिर भी वे इन खिलाड़ियों को लेकर चिंतित नहीं हैं, जिनके सामने सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, वीरेंद्र सहवाग जैसे रोल मॉडल्स थे। द्रविड़ की इस सूची में खुद उनका, अनिल कुंबले और वीवीए लक्ष्मण का नाम भी जोड़ा जा सकता है। बहरहाल, द्रविड़ ने भविष्य की पीढ़ी को लेकर गहरी चिंता जताई, जिसके सामने ये रोल मॉडल्स नहीं होंगे। उनके सामने वैसे रोल मॉडल्स होंगे, जिन्हें टेस्ट क्रिकेट अहम नहीं लगता, क्योंकि उनके लिए क्रिकेट खेलने का मतलब तुरत-फुरत में पैसा कमाना है।

पैसे के इस खेल में क्रिकेट को साढ़े तीन घंटे की फिल्म के फॉर्मेट में ढाल दिया गया है। हर शॉट के परिमाण की झलक आप प्रिटी जिंटा, शिल्पा शेट्टी, या शाहरुख खान के चेहरे पर देखते हैं। उनके साथ अर्धनग्न नाचती चीयरगर्ल्स हैं। यानी पूरा मनोरंजन! मनोरंजन के इस कारोबार ने नए दर्शक बनाए हैं। इस कथित क्रिकेट का एक नया बाजार बनाया है। वैसे लोगों का जिन्हें क्रिकेट की बारीकियां बोरिंग लगती हैं, लेकिन धन-दौलत एवं सेक्सी चेहरों का ग्लैमर क्रिेकट लगता है।
भारत में क्रिकेट की गहरी जड़ें रही हैं। इसका आधार औपनिवेशिक समाज की कसौटियों के मुताबिक सभ्रांत होने की दबी-छिपी आकांक्षाओं में छिपा रहा है। १९८३ में विश्व कप में जीत के बाद इस खेल ने लोकप्रियता की जैसे हदें तोड़ दीं। ललित मोदी का नया फॉर्मेट इसी लोकप्रियता को आज भुना रहा है और इसमें नए तत्व जोड़ कर उनकी मार्केटिंग कर रहा है। लेकिन इसमें जो चीज शिकार हो गई है, वह है क्रिकेट और उसकी भावना।

बहरहाल, सरकार अगर अब भी जागे तो क्रिकेट और इसकी भावना को बचाया जा सकता है। ललित मोदी एवं बीसीसीआई के खिलाफ आयकर विभाग की शुरू हुई कार्रवाई सही दिशा में है। लेकिन सवाल यह है कि क्या अंजाम तक पहुंचेगी? सवाल यह भी है कि सरकार आखिर आयकर विभाग के साथ-साथ सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय आदि जैसी एजेंसियों से इस पूरे प्रकरण की जांच क्यों नहीं कराती, ताकि जिस खेल को देश के करोड़ों लोग मजहब का दर्जा देते हैं, उसकी पवित्रता बहाल की जा सके?

ये सब कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनका संबंध क्रिकेट और क्रिकेट प्रेमियों से है, और देश के कानून से भी। इसीलिए इस वक्त बड़ी चिंता की बात यह है कि कहीं यह सारा विवाद थरूर बनाम मोदी बनकर न रह जाए। अगर ऐसा हुआ तो क्रिकेट में लग रहे घुन की सफाई का एक बड़ा मौका हाथ से निकल जाएगा।

जब क्रिकेट इंग्लैंड के सभ्रांत वर्ग का खेल था, तब अंग्रेजी का यह मुहावरा बना कि इट्स नॉट क्रिकेट। यानी यह क्रिकेट नहीं है। यह मुहावरा आम जिंदगी में तब बोला जाता है, जब कोई स्थापित मर्यादा या शिष्ट शैली का आचरण नहीं करता। इसलिए कि क्रिकेट में ये ही दो बातें - मर्यादा और शिष्टता- सर्वोपरि रही हैं। क्रिकेट कभी विश्वव्यापी खेल नहीं रहा। लेकिन अमेरिका और बहुत से देशों में जहां लोग इस खेल को नहीं जानते थे, वहां भी अंग्रेजी भाषी लोग इस मुहावरे का इस्तेमाल करते थे। यह क्रिकेट की महिमा थी। वह महिमा आज खतरे में है। आज हम बेशक और बेहिचक यह कह सकते हैं कि जो हो रहा है, वह क्रिकेट नहीं है।

Friday, April 9, 2010

मानवाधिकारों का मुलम्मा क्यों?

सत्येंद्र रंजन


पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स ने छत्तीसगढ़ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के हमले में सीआरपीएफ के ७६ जवानों के मारे जाने पर यह प्रतिक्रिया जताई है- “पीयूडीआर का मानना है कि छह अप्रैल २०१० की सुबह दांतेवाड़ा में ७० जवानों की मौत सरकार की सरकार की ऑपरेशन ग्रीनहंट को आगे बढ़ाने की हठधर्मी नीति का दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम है।..... चूंकि युद्ध भारत सरकार की प्राथमिकता है, इसलिए अगर लड़ाके मारे जाते हैं, तो उसके लिए सरकार ही दोषी है। हम याद दिलाना चाहते हैं कि जब घात लगाकर हमला किया गया तब सुरक्षा बल तीन दिन की कार्रवाई के बाद लौट रहे थे। नागरिक अधिकार संगठन के रूप में हम ना तो सुरक्षा बलों के लड़ाकों की हत्या की निंदा करते हैं और ना माओवादी लड़ाकों की हत्या की या फिर किन्हीं लड़ाकों के मारे जाने की।”

माओवादियों के हमदर्द बुद्धिजीवी और पीपुल्स मार्च पत्रिका के संपादक गोविंदन कुट्टी ने एक अंग्रेजी टीवी चैनल पर यही बात कुछ और ज्यादा असंवेदनशील ढंग से कही। ऑपरेशन ग्रीनहंट का संदर्भ देते हुए कहा कि सुरक्षा बल जंगल में ‘शिकार’ करने गए थे, तो खुद शिकार हो गए। माओवादियों को आतंकवादी कहे जाने पर कड़ा एतराज जताते हुए उन्होंने जोर दिया कि वे ‘क्रांतिकारी’ हैं।

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने सुरक्षा बलों की हत्या की निंदा तो की है, मगर उसके साथ ही यह मांग भी जोड़ दी है- “हम राष्ट्रीय एवं राज्य सरकारों और माओवादियों से अपील करते हैं कि वे फौरन हिंसा का त्याग कर दें और रचनात्मक बातचीत में शामिल हों, ताकि कॉरपोरेट/ सरकार द्वारा भूमि का जबरन अधिग्रहण, विस्थापन, आदिवासी अधिकारों और शासन के अभाव जैसे जनता को प्रभावित करने वाले असली मुद्दों को हल किया जा सके।” बयान का सीधा निहितार्थ यह है कि “जनता को प्रभावित करने वाले असली मुद्दों” में एक पक्ष माओवादी हैं, और इनके समाधान के लिए उनसे बातचीत जरूरी है।

ये सिर्फ कुछ मिसालें हैं, मानव/ जनतांत्रिक/ नागरिक अधिकारों के नाम पर एक खास राजनीति को आवरण और उसे साख प्रदान करने की कोशिश की। बहरहाल, बातचीत के सवाल पर हम बाद में लौटेंगे। पहले एक “नागरिक अधिकार संगठन” के रूप में पीयूडीआर की भूमिका पर एक नज़र डाल लेते हैं। पिछले महीने की ही बात है। एक सुबह अखबारों में पीयूडीआर समेत कई नागरिक अधिकार संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं/ बुद्धिजीवियों के छपे बयान से खबर मिली कि सीपीआई (माओवादी) के प्रवक्ता आजाद का पुलिस ने ‘अपहरण’ कर लिया है। बयान में आशंका जताई गई कि पुलिस आजाद की फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर सकती है और मांग की गई कि उन्हें जल्द से जल्द अदालत में पेश किया जाए। खबर का स्रोत सीपीआई (माओवादी) का आंतरिक संवाद पत्र था। दो दिन बाद एक ऐसे ही पत्र में बताया गया कि पार्टी को गलतफहमी हुई थी। आजाद महाराष्ट्र गए थे, जहां उनसे संपर्क टूट गया, वे सकुशल हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं/ संगठनों ने इस पत्र पर ब्रह्मवाक्य की तरह भरोसा किया। उसकी अपनी तरफ से पुष्टि की कोई कोशिश नहीं की और माओवादी पार्टी की आशंकाओं और मांग को सार्वजनिक बयान में उल्लिखित कर दिया। लेकिन जब आजाद से माओवादी पार्टी का संपर्क कायम हो गया तो खामोश बैठ गए। जब वही पीयूडीआर कहता है कि वह “ना तो सुरक्षा बलों के लड़ाकों की हत्या की निंदा करता है और ना माओवादी लड़ाकों की हत्या की”, तो जाहिर है, उसकी साख पर कई सवाल खड़े हो जाते हैं।

अगर ये संगठन ईमानदारी से इस बात में विश्वास करते हैं कि माओवादी जिस ‘क्रांति’ के लिए लड़ रहे हैं, उसके सफल हुए बिना आम जन के जनतांत्रिक या मानवाधिकारों की सुरक्षा नहीं हो सकती, तो उन्हें यह बात साफ तौर पर और उतनी ही ईमानदारी से कहनी चाहिए। उन्हें इस पर परदा डालने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वे भी उस ‘क्रांतिकारी’ परियोजना का हिस्सा हैं और इसमें अपनी भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन सच होने पर भी ये संगठन ऐसी बात सार्वजनिक रूप से नहीं कहेंगे। क्योंकि उन्होंने अपनी भूमिका मौजूदा व्यवस्था में मिले जनतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए मौजूदा राज्य-व्यवस्था पर नैतिक प्रश्न खड़े करने और इस तरह जंगलों में छापामार युद्ध (या उनके शब्दों में कहें तो जन युद्ध) लड़ रहे ‘क्रांतिकारियों’ की मदद करने की बनाई हुई है।

क्या माओवादियों से बातचीत की वकालत करने वाले बुद्धिजीवी या कार्यकर्ता इस बात से नावाकिफ़ हैं कि खुद माओवादी पार्टी की बातचीत में कोई रुचि नहीं है। इसके लिए हिंसा छोड़़ने की बुनियादी शर्त मानने को वह तैयार नहीं है। कुछ समय पहले उसके प्रवक्ता आजाद ने एक अंग्रेजी पत्रिका यह लिखा था- “माओवादियों से हथियार डाल देने के लिए कहना उन ऐतिहासिक एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के प्रति घोर अज्ञानता को जाहिर करता है, जिनकी वजह से माओवादी आंदोलन का उभार हुआ है।” फिर माओवादियों से पांच साल पहले आंध्र प्रदेश में हुई बातचीत का अनुभव क्या रहा था?

यह सवाल पूछने का यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि सरकार जब वार्ता की बात करती है, तो उसका इरादा ईमानदार होता है। वह भी जनतांत्रिक दायरे में अपनी कार्रवाई की नैतिक साख कायम करने के मकसद से ही यह शिगूफा छोड़ती है। हकीकत यह है कि दोनों पक्षों के मकसद इतने अलग हैं कि बातचीत की बात महज एक छलावा है। यह दबाव के समय में राहत पाने और अगली लड़ाई की तैयारी करने की एक चाल होती है। राजसत्ता पर सशस्त्र कब्जा माओवादियों का लक्ष्य है, जबकि भारतीय राजसत्ता का मौजूदा स्वरूप अपने समाज की वर्ग संरचना से बना है। जाहिर है, मौजूदा राजसत्ता विषमता और शोषण पर आधारित है। लेकिन अगर वस्तुगत नजरिए से देखा जाए तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय राज्य विभिन्न विकासक्रमों से गुजरते हुए आज जिस मुकाम पर है, वह पहले की तुलना में ज्यादा लोकतांत्रिक है या कम से कम इसके उत्तरोत्तर लोकतांत्रिक होने की संभावना है।

बहरहाल, विषमता और शोषण से संघर्ष का अकेला रास्ता वही नहीं है, जिसे माओवादियों ने अपनाया हुआ है। बल्कि समाज के एक बड़े वाम-जनतांत्रिक दायरे की समझ यह है कि माओवादियों के दुस्साहसी और नकारवादी तौर-तरीकों से राजसत्ता को जन संघर्षों को कुचलने का एक नायाब मौका मिल गया है। बहरहाल, यह ऐसा विमर्श है, जिसमें हस्तक्षेप करने वाले हर संगठन एवं व्यक्ति से यह मांग जरूर की जानी चाहिए कि वह इस बुनियादी सवाल पर एक साफ राजनीतिक स्टैंड ले।

मानवाधिकारों की बात, आदिवासियों के प्रति हमदर्दी, सुरक्षा बलों की ज्यादतियों और सरकार की कथित युद्ध प्राथमिकताओं की बात करते हुए साफ राजनीतिक रुख लेने से बचना, असल में एक खास राजनीति को आगे बढ़ाने का उपक्रम बन जाता है, जिस पर अब परदा नहीं डाला जा सकता। माओवादियों ने बीते महीनों में ‘क्रांति’ के अपने अति उत्साह में अंधाधुंध हिंसा का सहारा लेकर वाम जनतांत्रिक जनमत में फूट पैदा कर दी है। इस क्रम में यह रोज ज्यादा से ज्यादा साफ होता गया है कि वे आदिवासियों या हाशिये पर के अन्य वर्गों के कि किन्हीं खास मुद्दों की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं। बल्कि वे इन मुद्दों का इस्तेमाल उस ‘जन युद्ध’ को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं, जिससे वे राजसत्ता पर कब्जा कर सकें।

इस बात को इसी रूप में कहा जाना चाहिए। इस पर मानवाधिकारों का मुल्लम्मा नहीं चढ़ाया जाना चाहिए। ना ही बातचीत का शिगूफा छोड़ कर माओवादियों को जन हितों का अकेला प्रतिनिधि बताया जाना चाहिए। दरअसल, ऐसी कोशिशों में शामिल होकर मानवाधिकार संगठन खुद अपनी साख खत्म कर रहे हैं। वे उस वाम-जनतांत्रिक दायरे में भी अपनी छवि खराब कर रहे हैं, जिसके समर्थन के बिना समाज में कोई सकारात्मक योगदान नहीं कर सकते।