Thursday, September 27, 2007

वह हार, और यह जीत!

सत्येंद्र रंजन
ट्वेन्टी-ट्वेन्टी विश्व कप में भारत की जीत से देश में जश्न का एक अभूतपूर्व नज़ारा देखने को मिल रहा है। इसे देख कर हकीकत से अपरिचित कोई व्यक्ति पहली नजर में सहज यह अनुमान लगा सकता है कि यह एक खेल प्रेमियों का देश है, जहां जीत लोगों में उत्साह भर देती है। पिछले वन डे विश्व कप के पहले दौर में ही भारत के बाहर हो जाने पर देश में छाती पीटने का जैसा नज़ारा देखने को मिला, उससे भी ऐसा भ्रम बन सकता था। फर्क सिर्फ यह होता कि हकीकत से अपरिचित लोग यह मान सकते थे कि भारतीयों को खेल में हार बर्दाश्त नहीं होती।
लेकिन हम सब यह जानते हैं कि ऐसा नहीं है। पिछले ही साल भारत की हॉकी के विश्व कप में बड़ी दुर्गति हुई थी, लेकिन तब छाती पीटने का कोई माहौल नहीं बना। हाल में भारतीय हॉकी टीम ने एशिया कप में शानदार जीत हासिल की, तब देश में जश्न का आज जैसा माहौल नहीं देखने को मिला। खुद हॉकी टीम के कोच जोकिम कारवाल्हो और कई पूर्व हॉकी खिलाड़ियों ने अब यह सवाल उठाया है। यह स्थिति तब है, जब हॉकी में देश की कामयाबियों का एक गौरवशाली इतिहास है। साथ ही हॉकी के विश्व कप टूर्नामेंट तक पहुंच जाना क्रिकेट के विश्व कप में कम से कम सेमीफाइनल तक पहुंचने जैसी उपलब्धि तो जरूर ही मानी जानी चाहिए, क्योंकि दुनिया के स्तर पर हॉकी कहीं व्यापक भागीदारी वाला खेल है और उसके मुकाबलों का कहीं ज्यादा सुसंगठित ढांचा है। बहरहाल, २०-२० क्रिकेट विश्व कप में जीत के बने माहौल के बीच ही देश को यह खबर मिल रही है कि विश्वनाथन आनंद शतरंज की विश्व चैंपियनशिप को जीतने की तरफ बढ़ रहे हैं। लेकिन इस खबर से कोई सुखबोध फैलने के संकेत नहीं मिल रहे हैं।
इस बात से कोई इनकार नहीं किया जा सकता कि इस देश में क्रिकेट में का एक खास स्थान है। इसमें हार और जीत दोनों के खास मायने हैं, या कम से कम ऐसा ही हमें बताया जाता है। यह बताने के पीछे चूंकि बहुत बड़े आर्थिक हित और उनसे संचालित होने वाले माध्यम हैं, इसलिए ऐसा मानने वाले इस देश में बहुत से लोग हों, तो इसमें कोई आश्चर्च की बात नहीं है। बहरहाल, अहम सवाल यह है कि क्या इतने बड़े आर्थिक हितों के जुड़े होने और जन संचार माध्यमों का इतना बड़ा समर्थन होने के बावजूद क्रिकेट में सचमुच भारत की ऐसी हैसियत है, जिससे उसमें जीत पर जश्न का ऐसा विस्फोट हो जाए या हार पर मुंडन कराने, खिलाड़ियों के पुतलों की शव यात्रा निकालने या बाकी तमाम खबरों को दफनाते हुए मीडिया में सारी चर्चा इसी जीत या हार की चर्चा में सीमित कर देने को तार्किक माना जाए?
तथ्य यही बताते हैं कि अपने इतिहास के हर दौर में भारतीय क्रिकेट टीम एक साधारण टीम रही है। कभी-कभार इसके हिस्से में शानदार सफलताएं आई हैं, लेकिन ऐसा नियम के बजाय अपवाद के रूप में ज्यादा हुआ है। भारत खेलों की दुनिया में क्यो पिछड़ा हुआ है या हमारे यहां स्वस्थ खेल प्रतिस्पर्धा की संस्कृति क्यों आगे नहीं बढ़ती, इस पर काफी विचार-विमर्श होता रहा है, लेकिन इससे कोई समाधान नहीं निकला है। इस बीच क्रिकेट के साथ एक यह पहलू जरूर जुड़ गया है कि इस खेल में भारत में पैसे की कोई दिक्कत नहीं है। बल्कि हकीकत यह है कि अपने कई पूर्व आधार देशों में लोकप्रियता खो चुके और चंद देशों में सीमित यह खेल अब पैसे के लिए पूरी तरह भारतीय बाजार पर निर्भर है। इसके बावजूद अगर टीम की बात की जाए तो भारत काफी पिछड़ा हुआ है। अक्सर इस पिछड़ेपन की वजह अच्छे और हुनरमंद खिलाड़ियों को एक अच्छी टीम में ढाल पान की नाकामी बताई जाती है। कुछ महीने पहले जब भारतीय टीम विश्व कप प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए वेस्ट इंडीज रवाना हुई तो वह इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल की विश्व रैंकिंग में छठे नंबर पर थी। फिर भी उस टीम से खूब उम्मीदें जोड़ी गईं और यह माहौल बनाया गया कि कथित टीम इंडिया विश्व विजय के अभियान पर निकली है। और अब २०-२० विश्व कप में जीत से यह माहौल बना दिया गया है कि दुनिया में इस टीम का कोई सानी नहीं। आखिर ऐसा क्यों?
हम क्रिकेट और बाजार के रिश्तों पर करें तो इस सवाल का जवाबर एक हद तक तलाश सकते हैं। अगर क्रिकेट के पूरी दुनिया के बाजार पर गौर करें तो यह खेल सिर्फ दो ऐसे देशों में खेला जाता है, जिनके पास समृद्ध उपभोक्ता बाजार है। ये इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया हैं। इनके अलावा इसकी लोकप्रियता दक्षिण अफ्रीका में है, जो एक मध्यम आमदनी वाला देश है। भारत भी अपने विशाल मध्य वर्ग के साथ ऐसा ही देश है। इन चार देशों के अलावा क्रिकेट की जहां भी थोड़ी या ज्यादा लोकप्रियता है, वे या तो वेस्ट इंडीज के द्वीपों और न्यूजीलैंड जैसा बेहद छोटे देश हैं या फिर पाकिस्तान या बांग्लादेश जैसे देश हैं, जहां पूंजीवादी बाजार का अभी पूरा विकास नहीं हुआ है।
इंग्लैंड, ऑस्ट्रलिया और दक्षिण अफ्रीका में क्रिकेट को बाजार का हिस्सा पाने के लिए फुटबॉल, रग्बी, टेनिस, मोटर रेसिंग और दूसरे कई ओलंपिक एवं गैर-ओलंपिक खेलों से होड़ करनी पड़ती है। इंग्लैंड में क्रिकेट इस होड़ में बहुत पिछड़ चुका है और ऑस्ट्रेलिया में वहां के ऊंचे जीवन स्तर के बीच बाजार का जितना हिस्सा खींच पाता है, वह संभवतः वहां भी उसे ठीक ढंग से जिंदा रखने के लिए काफी नहीं है। पिछले विश्व कप के बाद यह खबर अखबारों में छपी कि कैसे विश्व चैंपियन होने की हैट्रिक बनाने के बावजूद ऑस्ट्रेलिया में क्रिकेटरों की हैसियत कई ज्यादा लोकप्रिय खेलों के खिलाड़ियों से बहुत कम है। दरअसल, वहां उन्हें तीसरे दर्जे की कंपनियों के इश्तहार ही मिल पाते हैं, क्योंकि बड़ी कंपनियों को यह भय रहता है कि अगर उन्होंने क्रिकेटरों को बतौर मॉडल लिया तो इससे उनके उत्पाद को लो मार्केट समझा जा सकता है।
ऐसे में भारत क्रिकेट को जिंदा रखने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण होता गया है। भारत से क्रिकेट खेलना आज हर देश के लिए फायदे का सौदा है। इससे संबंधित देश के क्रिकेट बोर्ड को टीवी प्रसारण अधिकार बेचकर जितना पैसा मिलता है, उतना किसी और देश से मैच खेलकर नहीं मिलता। यही वजह है कि रिकी पोन्टिंग भले यह बार-बार सार्वजनिक तौर पर भारत से ज्यादा मैच खेलने के बने कार्यक्रम पर नाखुशी जताते रहे हों, लेकिन वे जानते हैं कि उनकी टीम के पास अब भारत से सबसे ज्यादा मैच खेलने के अलावा कोई और चारा नहीं है। और जब अगले साल भारत में २०-२० की प्रोफेशनल क्रिकेट लीग और चैंपियन्स लीग शुरु होगी, तो दुनिया भर के ज्यादातर मशहूर क्रिकेटरों का मक्का भारत ही बन जाएगा।
मगर क्रिकेट का संकट भी यही है। अगर किसी टूर्नामेंट में भारत नहीं तो उसमें पैसा नहीं और भारत के पास ऐसी टीम नहीं जो हर टूर्नामेंट में ऊंचे दर्जे की प्रतिस्पर्धा के काबिल हो। पिछले विश्व कप के पहले ही दौर में भारत के बाहर हो जाने से यह टूर्नामेंट प्रायोजकों और विज्ञापनदाताओं के लिए घाटे का सौदा बन गया। प्रायोजक और विज्ञापनदाताओं की निगाह आबादी के उस हिस्से पर होती है, जिसके बारे में माना जाता है कि उसके पास महंगे उपभोक्ता सामानों को खरीदने की शक्ति है। ये तबके ही उपभोक्ता सामानों के इश्तहार के लक्ष्य होते हैं। भारत या किसी भी देश में ये तबके मोटे तौर पर केबल और सैटेलाइट टेलीविजन के दायरे में हैं। बाजार की अपनी एजेंसियों के आंकड़ों के मुताबिक जिन क्रिकेट मैचों में भारत खेलता है, उन्हें साढ़े सात से आठ फीसदी तक की टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट प्राप्त होती है। इसे अगर संख्या में तब्दील करें तो यहां संख्या तकरीबन ६० लाख बैठती है। यानी भारत वाले क्रिकेट मैचों को इतने लोग देखते हैं। जिन मैचों में भारत नहीं खेलता है, आम तौर पर उनकी टीआरपी एक रहती है, यानी ऐसे मैचों को ६ से ९ लाख लोग देखते हैं। पिछले विश्व कप में भारत के टूर्नामेंट से बाहर हो जाने के साथ ही अनुमान रहा कि बाकी मैचों के दर्शकों की संख्या ५-६ लाख रही। यानी जिन प्रायोजकों और दूसरे विज्ञापनदाताओं ने पहले के अनुमान के आधार पर विज्ञापन बुक कराए, उन्हें उसका उतना फायदा नहीं मिलेगा, जितनी कीमत उन्होंने चुकाई। इसलिए यह उनके लिए घाटे का सौदा हो गया।
अब २०-२० विश्व कप में भारत को मिली करिश्माई कामयाबी ने उनकी उम्मीदों को फिर जिंदा कर दिया है। इस विश्व कप औसत टीआरपी १५ तक गई। यानी विज्ञापनदाताओं ने जितना पैसा लगाया, उससे ज्यादा फायदा मिला। इसीलिए उनकी निगाह में धोनी के धुरंधर बड़े नायक बन गए हैं। उनकी नायकों की यह छवि बरकरार रहे, इसके लिए कॉरपोरेट मीडिया के साथ अब एक बड़ी मुहिम शुरू हो गई है।
बहरहाल, उपरोक्त आंकड़ों से यह साफ है कि एक अरब दस करोड़ की आबादी वाले इस देश में क्रिकेट का बाजार तकरीबन साठ लाख लोगों से बनता है। अगर दूरदर्शन के टेरिस्टेरियल नेटवर्क के दायरे में आने वाले लोगों को भी शामिल करें, तब भी असली बाजार एक से डेढ़ करोड़ लोगों से ज्यादा का नहीं है। कंपनियों की निगाह से देखें तो आबादी के इस हिस्से में क्रिकेट को माध्यम बनाकर अपने उत्पादों का प्रचार किया जा सकता है। आंकड़ों के मुताबिक कंपनिया क्रिकेट से जुड़े विज्ञापनों पर हर साल करीब ६०० करोड रुपए खर्च करती हैं। अब हो सकता है कि यह खर्च ७०० से ८०० करोड़ रुपए तक पहुंच जाए। (फिक्की के लिए तैयार प्राइसवाटर हाउसकूपर के एक अध्ययन रिपोर्ट में कुछ महीने पहले बताया गया कि २००६ में टीवी पर विज्ञापन के लिए ६,६०० करोड़ रुपए खर्च किए गए।)
इन आंकड़ों की रोशनी में हम समझ सकते हैं कि क्रिकेट के बाजार का असली स्वरूप क्या है और इस पर कितने आर्थिक दांव लगे हुए हैं। यह भी साफ है कि क्रिकेट के माध्यम से होने वाला निवेश तभी पूरा फायदा दे सकता है, जब भारतीय टीम अच्छा प्रदर्शन कर रही हो। मगर लगातार ऐसा हो, यह कम ही होता है। ऐसे भारतीय टीम के इर्द-गिर्द एक भ्रमजाल को बुनना जरूरी हो जाता है। टीम में जितनी क्षमता नहीं है, उससे कई गुना बढ़ाकर बताना प्रायोजकों, विज्ञापनदाताओं और उनसे जुड़े संचार माध्यमों के लिए जरूरी बना रहता है। हम अक्सर ऐसा देख सकते हैं कि इन माध्यमों पर क्रिकेट की चर्चा में टीम से ज्यादा बात खिलाड़ियों की होती है। इसलिए कि भारत के पास हमेशा कुछ अति-प्रतिभाशाली और निजी उपलब्धियों के लिहाज से सफल खिलाड़ी रहते हैं, जैसाकि हर टीम में होते हैं। उन खिलाडियों को महा-मानव की तरह पेश किया जाता है और ऐसी चर्चा बुनी जाती है, जिससे लगता है कि ये खिलाड़ी अकेले इतने भारी पड़ेंगे कि दूसरी टीमें धराशायी हो जाएंगी और चैंपियनशिप का ताज भारत के सिर पर आ जाएगा। दुर्भाग्य से असली जिंदगी में ऐसा नहीं होता।
बल्कि इस तरह लोगों की अपेक्षाएं जगाने का एक नकारात्मक प्रभाव खुद उन खिलाड़ियों पर भी होता है। खिलाड़ी जब ऐसी अपेक्षाओं के बीच मैदान पर उतरते है तो वे अपना स्वाभाविक खेल भी नहीं दिखा पाते। २०-२० विश्व कप में सफलता के पीछे एक वजह यह भी मानी जा रही है कि इसमें भारतीय खिलाड़ियों पर उम्मीदों का ऐसा बोझ नहीं था।
बहरहाल, इस सफलता ने क्रिकेट के बाजार में नई जान फूंक दी है। प्रायोजकों और विज्ञापनदाता कंपनियों ने क्रिकेट का यह बाजार बनाने के लिए पिछले तीन दशकों में भारी निवेश किया है। भारत एक उभरता हुआ बाजार है। यहां के मध्य वर्ग की क्रय शक्ति भले यूरोपीय स्तर की न हो, लेकिन अपने आकार में यह कई यूरोपीय देशों की साझा आबादी से बड़ा है। यह बाजार विश्व पूंजीवाद का नया लक्ष्य है। इस तक पहुंचने के लिए तलाश किए गए माध्यमों में क्रिकेट की बड़ी भूमिका है। इसलिए हम सहज अनुमान लगा सकते हैं कि पिछले मार्च में लगे जोरदार झटके के बाद अब कैसे क्रिकेट से जुड़ी उम्मीदों को फिर से जिंदा कर दिया गया है। अब एक बार फिर समाचार माध्यमों में टीम इंडिया और इसके महा-मानवों का गुणगान का दौर लौट आया है।

2 comments:

Manish Kumar said...

अच्छा विश्लेषण किया है आपने ! बहुत अच्छा लेख।

Udan Tashtari said...

एक अच्छा आलेख. बधाई.